10 मज़ेदार कहानियां लिखी हुई | 10 Majedar Kahaniya Likhi Hui
10 Majedar Kahaniya
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घोड़े और बकरे की मज़ेदार कहानी
एक आदमी के पास एक घोड़ा और बकरा था। एक दिन घोड़ा बीमार पड़ गया। आदमी डॉक्टर को बुला लाया। डॉक्टर ने घोड़े को देखा और आदमी को दवाई देते हुए बोला, “तीन दिन तक दवाई घोड़े को खिलाना। इसके बाद भी यह नहीं उठा, तो इसकी जान लेनी होगी, क्योंकि ये बीमारी दूसरे जानवरों में फैल सकती है।”
डॉक्टर की बात बकरे ने सुन ली। उसके जाने के बाद वह घोड़े के पास गया और बोला, “दोस्त! उठ जाओ, नहीं तो तीन दिन बाद ये लोग तुम्हें मार डालेंगे।”
घोड़ा नहीं उठा। तीन दिन तक उसकी दवाई चलती रही। बकरा रोज़ उसके पास आकर उसका हौसला बढ़ाता रहा, लेकिन तीन दिन गुज़र जाने के बाद भी घोड़ा नहीं उठा। आखिर तीन दिन बाद डॉक्टर और आदमी ने घोड़े को जहर देकर मारने का फैसला कर लिया और जहर लेने बाजार चले गए।
उनके बाजार जाने के बाद बकरा घोड़े के पास आया और बोला, “दोस्त! ये आखिरी मौका है। नहीं उठे, तो मौत तय है। वे लोग तुम्हें जहर देकर मार डालेंगे।”
घोड़ा उठने की कोशिश करने लगा और किसी प्रकार उठकर खड़ा हो गया। खड़े होकर वह चलने लगा, उसके कुछ देर बाद दौड़ने। डॉक्टर और आदमी जब बाज़ार से लौटे, तो घोड़े को दौड़ता हुआ पाया।
डॉक्टर ने आदमी से कहा, “अब ये ठीक हो चुका है।”
उन्होंने घोड़े को मारने का विचार छोड़ दिया।
आदमी बड़ा खुश था। वह अपनी पत्नी को बुलाकर बोला, “अपना घोड़ा ठीक हो गया है। इस खुशी में आज हमारे यहां बकरा कटेगा। मटन बनाने की तैयारी शुरू करो।”
सीख
कई बार दूसरों का भला करते करते खुद की जान के लाले पड़ जाते हैं।
पेड़ पर चढ़ा आदमी मुल्ला नसरुद्दीन
एक दिन एक राहगीर मुल्ला नसरुद्दीन के गाँव आया. दिन भर गाँव में इधर-उधर घूमते हुए उसे भूख लग आई, तो वह एक बगीचे में घुस गया.
वहाँ ना-ना प्रकार के फ़लों के पेड़ थे, जिसे देखकर उसने मुँह में पानी आ गया. वह झटपट एक पेड़ पर चढ़ा और फ़ल तोड़कर खाने लगा.
उसने जी भर फ़ल खाए. लेकिन, जब पेड़ से उतरने की बारी आई, तो उसकी हालत पतली हो गई.
फलों के लोभ में वह पेड़ पर चढ़ तो गया था, लेकिन उसे पेड़ से उतरना नहीं आता था. डर के मारे वह वहीं बैठा रहा और मदद का इंतज़ार करने लगा. कुछ देर में बगीचे का मालिक वहाँ आयाया.
राहगीर ने उससे पेड़ से उतरने में मदद मांगी. अपने बगीचे में चोरी से घुसकर फ़ल खाने पर पहले तो बगीचे का मालिक बहुत नाराज़ हुआ और राहगीर पर बहुत चिल्लाया. फ़िर उसे उस पर दया आ गई और वह कुछ लोगों को बुला लाया.
लेकिन, किसी को समझ नहीं आया कि राहगीर को पेड़ से उतारे कैसे? सब वहीं खड़े होकर उसे उतारने का उपाय सोचने लगे. तभी टहलता हुआ मुल्ला नसरुद्दीन भी वहाँ आ गया.
एक पेड़ के नीचे लोगों को जमघट देख वह उत्सुकतावश वहाँ पहुँचा और पूछने लगा, “क्या बात है? आप लोगों ने यहाँ भीड़ क्यों लगा रखी है?”
बगीचे के मालिक ने मुल्ला को सारा माज़रा बताया. तब मुल्ला मुस्कुराते हुए बोला, “अरे, इतनी सी बात है. मैं अभी चुटकियों में इसे पेड़ से उतारे देता हूँ. ज़रा एक रस्सी तो मंगवाना.”
बगीचे के मालिक ने बिना देर किये एक रस्सी मंगवा ली. मुल्ला ने रस्सी के एक छोर पर गांठ लगाईं और उसे पेड़ पर चढ़े राहगीर की ओर फेंकते हुए कहा, “इस रस्सी को अपनी कमर में कसकर बांध लो.”
एक-दो प्रयासों के बाद राहगीर ने रस्सी पकड़ ली और उसे अपनी कमर पर बांध लिया.
मुल्ला ने तसल्ली करने के लिए उससे पूछा, “क्यों भाई रस्सी ठीक से बांध ली ना?”
“हाँ हाँ, मैंने रस्सी अपने कमर पर एकदम कसकर बांध ली गई.” राहगीर ने जवाब दिया.
इतना सुनना था कि मुल्ला ने एक झटके में रस्सी खींच दी और राहगीर धड़ाम से नीचे आ गिरा. सभी लोग हक्के-बक्के रह गए. बगीचे का मालिक बोला, “अरे ये कौन सा तरीका है किसी आदमी को पेड़ से नीचे उतारने का?”
मुल्ला बड़ी ही शांति से बोला, “इसी तरीके से एक बार मेरी भी जान बचाई गई थी. इसलिए तो मैंने यह तरीका अपनाया.”
“कब बचाई गई थी तुम्हारी जान?” इस बार जमीन पर पड़ा राहगीर कराहते हुए बोला.
“जब मैं कुएं में गिर पड़ा था.” कहकर मुल्ला वहाँ से चलता बना
चोर की दाढ़ी में तिनका अकबर बीरबल
एक बार की बात है. बादशाह अकबर (Akbar) की हीरे की अंगूठी गुम हो गई. उन्होंने उसे काफ़ी तलाशा, लेकिन वह नहीं मिली.
उन्होंने इस बात का ज़िक्र बीरबल (Birbar) से किया, तो बीरबल ने पूछा, “हुज़ूर! क्या आपको याद है कि आपने वह अंगूठी कहाँ उतारी थी?”
कुछ देर सोचने के बाद अकबर ने जवाब दिया, “नहाने जाने के पहले मैंने वह अंगूठी उताकर पलंग के पास रखे संदूक में रख दी थी. नहाकर आने के बाद मैंने देखा कि अंगूठी गायब है.”
“हुज़ूर! तब तो हमें संदूक सहित इस पूरे कमरे की अच्छी तरह तलाशी लेनी चाहिए. अंगूठी यहीं–कहीं होगी.” बीरबल बोला.
“लेकिन वह यहाँ नहीं है. मैंने सेवकों से कहकर संदूक तो क्या, कमरे के हर कोने को तलाशा. पर अंगूठी कहीं नहीं मिली.” अकबर ने कहा.
“तब तो आपकी अंगूठी गुमी नहीं है हुज़ूर, चोरी हुई है और चोर आपके सेवकों में से ही कोई एक है. आप इस कमरे की साफ़-सफ़ाई करने वाले सेवकों को बुलवाइए.”
अकबर ने सभी साफ़-सफ़ाई करने वाले सेवकों को बुलवा लिया. वे कुल ६ लोग थे.
बीरबल ने उनसे अंगूठी के बारे में पूछा, तो सबने अनभिज्ञता ज़ाहिर की. तब बीरबल बोला, “लगता है कि अंगूठी चोरी हो गई है. बादशाह सलामत ने अंगूठी संदूक में रखी थी. इसलिए अब संदूक ही बताएगा कि चोर कौन है?”
यह कहकर बीरबल संदूक के पास गया और कान लगाकर कुछ सुनने की कोशिश करने लगा. फिर सेवकों को संबोधित कर बोला, “संदूक ने मुझे सब कुछ बता दिया. अब चोर का बचना नामुमकिन है. जो चोर है उसकी दाढ़ी में तिनका है.”
ये सुनना था कि ६ सेवकों में से एक ने नज़रें बचाते हुए अपनी दाढ़ी पर हाथ फ़िराया. बीरबल की नज़र ने उसे ऐसा करते देख लिया. उसने फ़ौरन उस सेवक को गिरफ़्तार करने का आदेश दे दिया.
कड़ाई से पूछताछ करने पर उस सेवक ने सच उगलकर अपना दोष स्वीकार कर लिया. बादशाह को बीरबल की अक्लमंदी से अपनी अंगूठी वापस मिल गई.
शेख चिल्ली की खीर मज़दार कहानी
शेख चिल्ली निरा मूर्ख था. बातें भी ऐसी करता था कि अच्छे-भले इंसान का सिर चकरा जाए. सबसे ज्यादा वह अपनी माँ को परेशान किया करता था उट-पटांग सवाल पूछ-पूछकर.
एक बार उसने अपनी माँ से पूछा, “माँ मरते कैसे हैं?”
अब माँ क्या जवाब दे? शेख चिल्ली को टरकाने के लिए उसने कह दिया, “आँखें बंद हो जाती हैं और इंसान मर जाता है.”
“ये तो बहुत आसान है.” कहता हुआ चिल्ली घर से बाहर चला गया.
घर से निकलने के बाद शेख चिल्ली घूमता-घामता जंगल चला आया. वहाँ उसने एक पेड़ के नीचे बड़ा सा गड्ढा देखा, तो सोचा क्यों ना मैं आज मर कर देखूं. वह गड्ढे में घुसकर आँखें बंदकर लेट गया.
रात होने पर दो चोर वहाँ आये और उसी पेड़ के नीचे बैठकर बातें करने लगे, जिसके पास गड्ढे में शेख चिल्ली लेटा था.
एक चोर बोला, “चोरी करते समय एक साथी की कमी खलती है. हम तीन होते, तो चोरी करने में सहूलियत रहती. एक घर के सामने पहरा देता, दूसरा घर के पीछे और तीसरा आराम से घर के अंदर घुसकर चोरी करता.”
शेख चिल्ली उनकी बातें सुन रहा था. वह बोला, “दोस्तों! मैं तुम्हारी मदद करना तो चाहता हूँ, लेकिन क्या करूं, मैं तो मरा हुआ हूँ.”
उसकी आवाज़ सुनकर चोरों ने गड्ढे के अंदर झाँककर देखा, तो शेख चिल्ली को आँखें बंदकर वहाँ लेटा हुआ पाया.
उन्होंने पूछा, “तुम कब मरे दोस्त?”
“आज दोपहर.” शेख चिल्ली बोला, “अब तो रात होने को आई है और मरे-मरे भी मुझे भूख लगने लगी है.”
चोरों को समझते देर न लगी कि ये कोई मूर्ख है. उन्होंने सोचा क्यों ना, इसकी मूर्खता का लाभ उठाकर इससे चोरी करवाई जाये.
वे बोले, “अरे भाई, तुम्हें भूख लगी है, तो चलो हमारे साथ. चोरी करने में हमारी मदद कर देना. बदले में हम तुम्हें दावत देंगे. मरने का क्या है? दावत उड़ा कर मर जाना.”
शेख चिल्ली को बात जम गई, क्योंकि भूख के मारे उसका बुरा हाल हो रहा था और ऊपर से गड्ढे में उसे ठंड भी लग रही थी.
वह दोनों चोरों के साथ हो लिया. तीनों मिलकर गाँव के एक घर में गए. वहाँ एक चोर घर के सामने पहरा देने लगा और दूसरा घर के पीछे. उन्होंने शेख चिल्ली को घर के अंदर चोरी करने भेज दिया.
रसोई के रास्ते शेख चिल्ली घर में घुसा. वहाँ उसने देखा कि दूध, शक्कर और चांवल पड़ा हुआ है. उसकी भूख बढ़ गई और वह चोरी करने की बात भूलकर खीर बनाने लगा. उसने चूल्हा जलाया और उस पर तपेली चढ़ा दी.
उसी रसोई में एक बूढ़ी औरत सो रही थी. ठंड के कारण वह एक कोने में दुबकी थी. लेकिन चूल्हा जलने से उसे थोड़ी गर्माहट महसूस हुई और वो पसर कर सोने लगी.
शेख चिल्ली की नज़र जब उस पर पड़ी, तो देखा कि उसका हाथ पसरा हुआ है. उसे लगा कि वह औरत खीर मांग रही है. वह बुदबुदाया, “खीर बनी नहीं और मांगने वाले हाज़िर हो गए.”
उसने चूल्हे की आंच तेज कर दी, ताकि खीर जल्दी बन सके. आंच तेज होने से गर्माहट और बढ़ गई. बूढ़ी औरत ने अपने हाथ-पैर और ज्यादा पसार लिए.
ये देख शेख चिल्ली झुंझलाया, “अरे इतनी क्या हड़बड़ी है? खीर बनने तो दो, तुम्हें भी दूंगा. पूरा मैं थोड़े खा जाऊंगा.”
लेकिन गर्माहट बढ़ने के साथ-साथ बूढ़ी औरत का पसरना जारी रहा. शेख चिल्ली को लगने लगा कि वह औरत खीर खाने के लिए बेसब्र हुए जा रही है. इसलिए इतना हाथ पसार रही है. झल्ला कर उसने चम्मच से खीर निकाकर उस औरत के हाथ पर डाल दिया.
गर्म खीर हाथ में पड़ते ही बूढ़ी औरत चीखकर उठ बैठी. उसकी चीख सुनकर घर के लोग भी उठ गए और रसोई की तरफ़ भागे. वहाँ शेख चिल्ली को देख उन्होंने उसे कोतवाल के हवाले करने के लिए पकड़ लिया.
तब शेख चिल्ली बोला, “मुझे क्यों पकड़ रहे हो? जो चोर हैं, वो दोनों तो घर के बाहर है. जाओ जाकर उन्हें पकड़ो.”
इस तरह उसने उन चोरों को भी पकड़वा दिया.
कौशल मुंशी प्रेमचंद की कहानी
पंडित बालकराम शास्त्री की धर्मपत्नी माया को बहुत दिनों से एक हार की लालसा थी और वह सैकड़ों ही बार पंडितजी से उसके लिए आग्रह कर चुकी थी; किंतु पंडितजी हीला-हवाला करते रहते थे। यह तो साफ-साफ न कहते थे कि मेरे पास रुपये नहीं हैं। इससे उनके पराक्रम में बट्टा लगता था। तर्कनाओं की शरण लिया करते थे। गहनों से कुछ लाभ नहीं, एक तो धातु अच्छी नहीं मिलती; उस पर सोनार रुपये के आठ-आठ आने कर देता है और सबसे बड़ी बात यह है कि घर में गहने रखना चोरों को नेवता देना है। घड़ी-भर श्रृंगार के लिए इतनी विपत्ति सिर पर लेना मूर्खों का काम है।
बेचारी माया तर्कशास्त्र न पढ़ी थी, इन युक्तियों के सामने निरुत्तर हो जाती। पड़ोसिनों को देख-देखकर उसका जी ललचा करता था, पर दु:ख किससे कहे। यदि पंडितजी ज्यादा मेहनत करने के योग्य होते, तो यह मुश्किल आसान हो जाती। पर वे आलसी जीव थे, अधिकांश समय भोजन और विश्राम में व्यतीत किया करते थे। पत्नीजी की कटूक्तियाँ सुननी मंजूर थीं, लेकिन निद्रा की मात्रा में कमी न कर सकते थे।
एक दिन पंडितजी पाठशाला से आये, तो देखा कि माया के गले में सोने का हार विराज रहा है। हार की चमक से उसकी मुख-ज्योति चमक उठी थी।
उन्होंने उसे कभी इतनी सुंदर न समझा था। पूछा- “यह हार किसका है?”
माया बोली- “पड़ोस में जो बाबूजी रहते हैं, उनकी स्त्री का है। आज उनसे मिलने गयी थी। यह हार देखा, बहुत पसंद आया। तुम्हें दिखाने के लिए पहनकर चली आयी। बस, ऐसा ही एक हार मुझे बनवा दो।”
पंडित- “दूसरे की चीज नाहक मांग लायी। कहीं चोरी हो जाये, तो हार तो बनवाना ही पड़े, ऊपर से बदनामी भी हो।”
माया- “मैं तो ऐसा ही हार लूंगी। बीस तोले का है।”
पंडित- “फिर वही जिद।”
माया- “जब सभी पहनती हैं, तो मैं ही क्यों न पहनूं?”
पंडित- “सब कुएँ में गिर पड़ें, तो तुम भी कुएँ में गिर पड़ोगी? सोचो तो, इस वक्त इस हार के बनवाने में 600 रुपये लगेंगे। अगर 1 रूपये प्रति सैकड़ा भी ब्याज रख लिया तो 5 वर्ष में 600 रूपये के लगभग 1000 रूपये हो जायेंगे। लेकिन 5 वर्ष में तुम्हारा हार मुश्किल से 300 रूपये का रह जायेगा। इतना बड़ा नुकसान उठाकर हार पहनने से क्या सुख? यह हार वापस कर दो, भोजन करो और आराम से पड़ी रहो।”
यह कहते हुए पंडितजी बाहर चले गये।
रात को एकाएक माया ने शोर मचाकर कहा- “चोर! चोर! हाय, घर में चोर! मुझे घसीटे लिए जाते हैं।”
पंडितजी हकबका कर उठे और बोले- “कहाँ, कहाँ? दौड़ो, दौड़ो।”
माया- “मेरी कोठरी में गया है। मैंने उसकी परछाई देखी।”
पंडित- “लालटेन लाओ, ज़रा मेरी लकड़ी उठा लेना।”
माया- “मुझसे तो मारे डर के उठा नहीं जाता।”
कई आदमी बाहर से बोले- “कहाँ हैं पंडितजी, कोई सेंध पड़ी है क्या?”
माया- “नहीं नहीं! खपरैल पर से उतरे हैं। मेरी नींद खुली, तो कोई मेरे ऊपर झुका हुआ था। हाय राम! यह तो हार ही ले गया! पहने-पहने सो गयी थी। मुये ने गले से निकाल लिया। हाय भगवान!’
पंडित- “तुमने हार उतार क्यों न दिया था?”
माया- “मैं क्या जानती थी कि आज ही यह मुसीबत गिर पड़ने वाली है। हाय भगवान!”
पंडित- “अब हाय-हाय करने से क्या होगा? अपने कर्मों को रोओ! इसीलिए कहा करता था कि सब घड़ी बराबर नहीं आती, न जाने कब क्या हो जाये। अब आयी समझ में मेरी बात! देखो और कुछ तो नहीं ले गया?”
पड़ोसी लालटेन लिये आ पहुँचे। घर में कोना-कोना देखा। करियाँ देखीं, छत पर चढ़कर देखा, अगवाड़े-पिछवाड़े देखा, शौच-गृह में झांका। कहीं चोर का पता न था।
एक पड़ोसी- “किसी जानकार आदमी का काम है।”
दूसरा पड़ोसी- “बिना घर के भेदिये के कभी चोरी होती नहीं। और कुछ तो नहीं ले गया?”
माया- “और तो कुछ नहीं ले गया। बरतन सब पड़े हुए हैं। संदूक भी बंद पड़े हुए हैं। निगोड़े को ले ही जाना था, तो मेरी चीजें ले जाता। परायी चीज ठहरी। भगवान, उन्हें कौन मुँह दिखाऊंगी।”
पंडित- “अब गहने का मजा मिल गया न?”
माया- “हाय भगवान! यह अपजस बदा था।”
पंडित- ” कितना समझा के हार गया, तुम न मानी। बात की बात में 600 रूपये निकल गये! अब देखूं, भगवान कैसे लाज रखते हैं।”
माया- “अभागे मेरे घर का एक-एक तिनका चुन ले जाते, तो मुझे इतना दु:ख न होता। अभी बेचारी ने नया ही बनवाया था।”
पंडित- “खूब मालूम है। 20 तोले का था?”
माया- “20 ही तोले का तो कहती थीं।”
पंडित- “बधिया बैठ गयी और क्या?”
माया- “कह दूंगी, घर में चोरी हो गयी। क्या जान लेंगी? अब उनके लिए कोई चोरी थोड़े ही करने जायेगा।”
पंडित- “तुम्हारे घर से चीज गयी, तुम्हें देनी पड़ेगी। उन्हें इससे क्या प्रयोजन कि चोर ले गया या तुमने उठाकर रख लिया। पतियायेंगी ही नहीं।”
माया- “तो इतने रुपये कहाँ से आयेंगे?”
पंडित- “कहीं न कहीं से तो आयेंगे ही। नहीं तो लाज कैसे रहेगी; मगर की तुमने बड़ी भूल।”
माया – “भगवान से मंगनी की चीज भी न देखी गयी। मुझे काल ने घेरा था, नहीं तो घड़ी-भर गले में डाल लेने से ऐसा कौन-सा बड़ा सुख मिल गया? मैं हूँ ही अभागिनी।”
पंडित- “अब पछताने और अपने को कोसने से क्या फायदा? चुप हो के बैठो। पड़ोसिन से कह देना, घबराओ नहीं, तुम्हारी चीज जब तक लौटा न देंगे, तब तक हमें चैन न आयेगा।”
पंडित बालकराम को अब नित्य ही चिंता रहने लगी कि किसी तरह हार बने। यों अगर टाट उलट देते, तो कोई बात न थी। पड़ोसिन को संतोष ही करना पड़ता, ब्राह्मण से डाँड़ कौन लेता; किन्तु पंडितजी ब्राह्मणत्व के गौरव को इतने सस्ते दामों न बेचना चाहते थे। आलस्य छोड़कर धनोपार्जन में दत्तचित्त हो गये।
छ: महीने तक उन्होंने दिन-को-दिन और रात-को-रात नहीं जाना। दोपहर को सोना छोड़ दिया, रात को भी बहुत देर तक जागते। पहले केवल एक पाठशाला में पढ़ाया करते थे। इसके सिवा वह ब्राह्मण के लिए खुले हुए एक सौ एक व्यवसायों में सभी को निंदनीय समझते थे। पर अब पाठशाला से आकर संध्या समय एक जगह भागवत की कथा कहने जाते, वहाँ से लौट कर 11-12 बजे रात तक जन्म-कुंडलियाँ, वर्ष-फल आदि बनाया करते। प्रात:काल मंदिर में दुर्गाजी का पाठ करते। माया पंडितजी का अध्यवसाय देख-देखकर कभी-कभी पछताती कि कहाँ से कहाँ मैंने ये विपत्ति सिर पर ली। कहीं बीमार पड़ जायें, तो लेने के देने पड़ें। उनका शरीर क्षीण होते देख कर उसे अब यह चिंता व्यथित करने लगी। यहाँ तक कि पाँच महीने गुजर गये।
एक दिन संध्या के समय वह दिया-बत्ती करने जा रही थी कि पंडितजी आये, जेब से पुड़िया निकालकर उसके सामने फेंक दी और बोले- “लो, आज तुम्हारे ऋण से मुक्त हो गया।”
माया ने पुड़िया खोली, तो उसमें सोने का हार था। उसकी चमक-दमक, उसकी सुंदर बनावट देखकर उसके अंत:स्तल में गुदगुदी-सी होने लगी। मुख पर आनंद की आभा दौड़ गयी। उसने कातर नेत्रों से देखकर पूछा- “खुश हो कर दे रहे हो या नाराज होकर?”
पंडित- “इससे क्या मतलब? ऋण तो चुकाना ही पड़ेगा, चाहे खुशी से या नाखुशी से।”
माया- “यह ऋण नहीं है।”
पंडित- “और क्या है! बदला सही।”
माया- “बदला भी नहीं है।”
पंडित- “फिर क्या है?”
माया- “तुम्हारी…निशानी।”
पंडित- “तो क्या ऋण के लिए कोई दूसरा हार बनवाना पड़ेगा?”
माया- “नहीं-नहीं, वह हार चोरी नहीं गया था। मैंने झूठ-मूठ शोर मचाया था।”
पंडित- “सच?”
माया- “हाँ, सच कहती हूँ।”
पंडित- “मेरी कसम?”
माया- “तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ।”
पंडित- “तो तुमने मुझसे कौशल किया था?”
माया- “हाँ?”
पंडित- “तुम्हें मालूम है, तुम्हारे कौशल का मुझे क्या मूल्य देना पड़ा।”
माया- “क्या 600 रूपये से ऊपर?”
पंडित- “बहुत ऊपर? इसके लिए मुझे अपने आत्मस्वातंत्र्य को बलिदान करना पड़ा।”
ऊँट और सियार की मजेदार कहानी
घने जंगल में रहने वाले एक सियार/गीदड़ की उसी जंगल में रहने वाले एक ऊँट से मित्रता थी. दोनों रोज़ नदी किनारे मिलते और ढेर सारी बातें किया करते थे. बातों में कैसे समय कट जाता, उन्हें पता ही नहीं चलता.
सियार अपनी प्रवृत्ति के अनुसार चालाक था. लेकिन ऊँट सीधा-सादा था. यूं ही दिन गुज़र रहे थे और उनकी मित्रता बरक़रार थी.
एक दिन सियार को कहीं से पता चला कि नदी पार स्थित खेत में लगे तरबूज पक चुके हैं. मीठे रसदार तरबूज के बारे में सोचकर ही उसके मुँह में पानी आ गया. उसके लिए नदी पार कर पाना संभव नहीं था. लेकिन तरबूजों का लालच वह अपने मन से निकाल नहीं पा रहा था.
अंत में उसे अपने मित्र ऊँट की याद आई और वह तुरंत उससे मिलने चल पड़ा. जब वह ऊँट के पास पहुँचा, तो उसका स्वागत करते हुए ऊँट बोला, “आओ मित्र आओ! कहो, आज दोपहर को ही कैसे आ गये?”
“मित्र! मैं तुम्हें नदी पार के खेत में लगे तरबूज के बारे में बताने आया हूँ. सुना है, तरबूज पक गये हैं. ऐसे मीठे तरबूज खाकर तुम ज़रूर ख़ुश होगे और तुम्हारी ख़ुशी में मेरी ख़ुशी है. मैं कैसे तुम्हें बताने न आता? बस दौड़ा चला आया.” सियार ने चिकनी-चुपड़ी बातें शुरू की.
ऊँट को भी तरबूज का स्वाद पसंद था. वह बोला, “धन्यवाद मित्र! मैं अभी वहाँ जाने की तैयारी करता हूँ. वाकई तरबूज खाये कितने दिन हो गये!”
ऊँट को अकेले ही जाने की तैयारी करते देख सियार बोला, “मित्र! मुझे भी तरबूज पसंद हैं. मैं भी तरबूज खाना चाहता हूँ. लेकिन क्या करूं? मैं तैर नहीं सकता. कोई बात नहीं…तुमने तरबूज खाये, तो मैं समझ लूंगा कि मैंने भी खा लिया.”
“कैसी बात करते हो मित्र? क्या मैं तुम्हें यहाँ छोड़कर जा सकता हूँ. मैं तुम्हें अपनी पीठ पर लादकर नदी पार के खेत में ले चलूंगा. हम दोनों मज़े से तरबूज का स्वाद लेंगे.” ऊँट ने कहा और सियार ख़ुश हो गया.
ऊँट ने सियार को अपनी पीठ पर बैठाया और नदी के पानी में तैरने लगा. कुछ ही देर में दोनों तरबूज के खेत में पहुँच गये. वहाँ दोनों ने छककर तरबूज खाये. जब सियार का पेट भर गया, तो वह ख़ुश होकर ‘हुआ हुआ’ की आवाज़ निकालने लगा.
ऊँट ने उसे शांत करने का प्रयास किया, लेकिन वह नहीं माना. उसकी आवाज़ खेत के कुछ दूरी पर रहने वाले किसान के कानों में पड़ गई. वह समझा गया कि खेत में कोई घुस आया है. हाथ में लाठी लेकर वह दौड़ता हुआ खेत में पहुँचा, जहाँ उसने ऊँट को खड़ा पाया.
किसान को देखकर सियार पहले ही भागकर एक पेड़ के पीछे छुप गया. अपने विशाल शरीर के कारण ऊँट के लिए कहीं छिपना संभव नहीं था. इसलिए वह वहीं खड़ा रह गया.
ऊँट को देखकर किसान आनबबूला हो गया. उसने उसे लाठी से पीटना शुरू कर दिया और पीटते-पीटते खेत से बाहर खदेड़ दिया. ऐसी जबरदस्त धुनाई के बाद बेचारा ऊँट कराहते हुए खेत के बाहर खड़ा ही था कि पेड़ के पीछे छुपा सियार चुपके से खेत से निकलकर उसके पास आ गया.
उसने ऊँट से पूछा, “तुम खेत में क्यों चिल्लाने लगे?”
“मित्र! खाने के बाद अगर मैं ‘हुआ हुआ’ की आवाज़ न निकालूं, तो मेरा खाना नहीं पचता.” सियार ने उत्तर दिया
उसका उत्तर सुनकर ऊँट को बहुत क्रोध आया. लेकिन वह चुप रहा. दोनों जंगल लौटने लगे. मार खाने के बाद भी ऊँट सियार को पीठ पर लादे नदी में तैर रहा था. सियार मन ही मन बड़ा ख़ुश था कि ऊँट की पिटाई हुई.
जब वे बीच नदी में पहुँचे, तो अचानक ऊँट ने पानी में डुबकी लगा दी. सियार डर के मारे चीखा, “ये क्या कर रहे हो मित्र?”
“मुझे खाने के बाद पानी में ऐसे ही डुबकी लगाने की आदत है.” ऊँट ने उत्तर दिया.
सियार समझ गया कि ऊँट ने उसके किये का बदला चुकाया है. वह बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचा पाया और पूरी रास्ते डरा-सहमा सा रहा. उसे अपने किये का सबक मिल गया था. उस दिन के बाद से उसने कभी ऊँट के साथ चालाकी नहीं की.
सीख
जैसे को तैसा
आलसी की दावत मुल्ला नसरुद्दीन की मज़ेदार कहानी
मुल्ला नसरुद्दीन के गाँव में एक आलसी आदमी रहता था. वह आदमी काम तो कुछ नहीं करता, बस हर समय इस प्रयास में रहता कि किसी तरह दूसरे से अपना काम करवा ले. इसके लिए वह अक्सर लोगों के पीछे पड़ जाया करता था.
लोग भी उसे समझने लगे थे. इसलिए उसे देखते ही कन्नी काट लेते थे. लेकिन फिर भी आलसी आदमी अपनी आदत से बाज़ नहीं आता था.
मुल्ला नसरुद्दीन ने भी लोगों से आलसी आदमी के बारे में सुन रखा था और उसकी आलस की आदत से वाकिफ़ हो चुका था. लोग अक्सर मुल्ला से गुज़ारिश करते थे कि उसे को सबक सिखायें.
मुल्ला भी उसे सबक सिखाने की फ़िराक में था. लेकिन बद्किस्माती से उसे ऐसा मौका मिल नहीं पा रहा था.
किस्मत से एक दिन मुल्ला का आलसी आदमी से सामना हो गया. मुल्ला ने उसका हाल-चाल पूछा, सलीके से बात की और कहा, “दोस्त! कभी खाने पर घर आओ.”
“तो क्या इसे मैं दावत का निमंत्रण समझूं?” आलसी आदमी बोला.
“हाँ…हाँ…बिल्कुल. ऐसा करो. कल शाम मेरे घर दावत पर आ जाओ.” मुल्ला बोला.
आलसी आदमी ख़ुश हो गया. ज़िन्दगी में पहली बार उसे किसी ने दावत पर बुलाया था. वरना, तो सब उससे कन्नी काटा करते थे.
मुल्ला से विदा लेने के बाद अपने घर जाकर भी वह दावत के बारे में ही सोचता रहा. अगली सुबह भी उसके दिमाग में कई तरह के पकवान नाच रहे थे. उसने पूरे दिन कुछ नहीं खाया, ताकि शाम को मुल्ला की दावत में डटकर खा सके.
शाम को वह तैयार होकर मुल्ला के घर पहुँच गया. मुल्ला के घर के बाहर खड़े होकर वह चिल्लाया, “मुल्ला, मैं आ गया हूँ.”
मुल्ला घर से बाहर आया, तो आलसी आदमी बोला, “खाने के पहले हाथ धो लेता हूँ. ज़रा पानी ले आओ.”
मुल्ला पानी ले आया और उसके हाथ पर पानी डालता हुआ कहने लगा, “माफ़ करना भाई. आज मैं तुम्हें दावत नहीं दे पाऊंगा.”
“क्यों क्या हुआ?” आलसी आदमी ने चौंककर पूछा.
“सामान तो तैयार है. पर एक चीज़ की कमी है.” मुल्ला ने बताया.
“कौन सी चीज़ की?” आलसी आदमी ने पूछा.
“काम करने वाले दो हाथ की.” मुल्ला मुस्कुराते हुए बोला.
आलसी आदमी सुबह का भूखा था. उसके पेट में चूहे कूद रहे थे. सुबह से उसने तरह-तरह के पकवानों के सपने देखे थे, सब मिट्टी में मिल चुके थे.
वह समझ गया कि मुल्ला ने उसे सबक सिखाने के लिए ऐसा किया है. उसने गुस्से से मुल्ला को देखा और चलता बना. उसके बाद वह जब भी मुल्ला को देखता, भाग जाता।
शेख चिल्ली की भैंस मजेदार कहानी
एक बार शेखचिल्ली के गाँव में एक सूफ़ी संत आया. गाँव के मैदान में उसका प्रवचन हुआ. गाँव के लोग मैदान में इकट्ठा थे और प्रवचन सुन रहे थे. संत कह रहा था, “यदि तुम लोग रोज़ अल्लाह की इबादत करोगे, तो अल्लाह तुम्हें ईनाम के तौर पर भैंस देगा.”
उसी समय शेखचिल्ली वहाँ से गुजर रहा था. उसने कानों में जब यह बात पड़ी, तो वह ख़ुद को रोक न सका. वह फ़ौरन संत के पास पहुँच गया. उसे भैंस तो हर हाल में चाहिए थी, लेकिन वह नहीं चाहता था कि उसके साथ किसी प्रकार का छल हो. कहीं भैंस वाली बात झूठ तो नहीं, ये जानने के लिए उसने संत से पूछा, “क्या अल्लाह सच में मुझे भैंस देगा, यदि मैं रोज़ उसकी इबादत करूंगा.”
“इबादत करके देखो, ख़ुद-ब-ख़ुद पता चल जाएगा.” संत के जवाब दिया.
अगले ही दिन से शेखचिल्ली रोज़ दिन में कई बार अल्लाह की इबादत करने लगा. उसे खाने-पीने की भी सुध न रही. एक महिना गुज़र गया. इतने वक़्त में तो मुझे भैंस मिल जानी चाहिए, शेखचिल्ली ने सोचा. वह घर के दरवाज़े पर गया और इधर-उधर देखने लगा. लेकिन उसे कोई भैंस नज़र नहीं आई.
वह भागा-भागा संत के पास पहुँचा और शिकायती अंदाज़ में बोला, “मैंने एक महिने तक अल्लाह की इबादत की, लेकिन मुझे भैंस नहीं मिली.”
संत बोला, “मैंने तो वो इसलिए कहा था कि तुम दिल लगाकर अल्लाह की इबादत करना शुरू कर दो. जहाँ तक भैंस की बात है, वो बाज़ार जाकर ख़रीद लो, वो तुम्हें मिल जाएगी.”
शेखचिल्ली ख़ुद को छला महसूस करने लगा. उसे लगा कि संत ने उसे मूर्ख बनाया है. लेकिन वह ख़ुद को उनके सामने मूर्ख नहीं दिखाना चाहता था. इसलिए बोला, “तुम्हें लग रहा होगा कि तुमने मुझे बेवकूफ़ बनाया है. लेकिन सुन लो कि इबादत तो मैंने भी नहीं की थी, मैंने भी बस अपने होंठ हिलाए थे. मैंने तुम्हें बेवकूफ़ बनाया है, समझे.” और हँसता हुआ वहाँ से चला गया. संत हक्का-बक्का सा उसे देखता रह गया.
तिनके का सहारा अकबर बीरबल की मज़ेदार कहानी
गर्मी के दिन थे. बादशाह अकबर अपने कुछ दरबारियों, सेवकों और अंगरक्षकों के साथ नौका विहार पर निकले. बीरबल भी साथ में था. जब नौका मझधार में पहुँची, तो अकबर को विनोद सूझा. उनके हाथ में एक तिनका था. उसे दिखाकर वे बोले, “जो कोई भी इस तिनके के सहारे नदी पार करके दिखाएगा, उसे मैं एक दिन के लिए दिल्ली बादशाह घोषित कर दूंगा.”
सारे दरबारी और सेवक एक-दूसरे का मुँह देखने लगे. तभी बीरबल बोला, “जहाँपनाह! मैं यह काम कर सकता हूँ. लेकिन ऐसा करने के पहले ही आपको मुझे आज एक दिन लिए बादशाह घोषित करना होगा.”
अकबर बोले, “ठीक है, मैं तुम्हें आज के लिए बादशाह घोषित करता हूँ. अब तुम इस तिनके के सहारे नदी पार करके दिखाओ. नहीं तो तुम्हें मौत की सज़ा मिलेगी.”
यह कहकर उन्होंने अपने हाथ में पकड़ा तिनका बीरबल को दे दिया. बीरबल तिनका लेकर नदी में कूदने को हुआ. किंतु, इसके पहले वह सेवकों और अंगरक्षकों से बोला, “आज मैं तुम्हारा बादशाह हूँ. तुम अपने कर्तव्य का पालन करो.”
सुनते ही अंगरक्षकों ने उसे पकड़ लिया. बोले, “आप हमारे बादशाह हैं? हम आपको अपनी जान जोखिम में डालने नहीं देंगे.”
बीरबल ने समझाया, मगर वे नहीं माने. इतने में नौका दूसरे किनारे जा लगी.
अकबर बोले, “बीरबल तुम हार गए.”
“हार कहाँ गया जहाँपनाह?“ तेनालीराम बोला, “इस तिनके के सहारे ही तो मैंने नदी पार की. यह मेरे पास न होता, तो ये अंगरक्षक मुझे कूदने से भला क्यों रोकते? तब तो मैं अवश्य नदी में डूब जाता.”
सुनते ही अकबर हँसकर बोले, “बीरबल, तुमसे जीतना मुश्किल है.
जादुई गधा अकबर बीरबल की कहानी
एक बार बादशाह अकबर ने बेगम साहिबा के जन्मदिन के अवसर पर उन्हें एक बेशकीमती हार दिया. बादशाह अकबर का उपहार होने के कारण बेगम साहिबा को वह हार अतिप्रिय था. उन्होंने उसे बहुत संभालकर एक संदूक में रखा था.
एक दिन श्रृंगार करते समय जब हार निकालने के लिए बेगम साहिबा ने संदूक खोला, तो उन्होंने वह नदारत पाया.
घबराते हुए वो फ़ौरन अकबर के पास पहुँची और उन्हें अपना बेशकीमती हार खो जाने की जानकारी थी. अकबर ने उन्हें वह हार कक्ष में अच्छी तरह ढूंढने को कहा. लेकिन वह हार नहीं मिला. अब अकबर और बेगम साहिबा को यकीन हो गया कि हो न हो, उस शाही हार की चोरी हो गई है.
अकबर ने तुरंत बीरबल को बुलवा भेजा और सारी बात बताकर शाही हार खोजने की ज़िम्मेदारी उसे सौंप दी.
बीरबल ने बिना देर किये राजमहल के सभी सेवक-सेविकाओं को दरबार में हाज़िर होने का फ़रमान ज़ारी करवा दिया.
कुछ ही देर में दरबार लग चुका था. अकबर अपनी बेगम साहिबा के साथ शाही तख़्त पर विराजमान थे. सभी सेवक-सेविकायें दरबार में हाज़िर थे. बस बीरबल नदारत था.
सब बीरबल के आने का इंतज़ार करने लगे. लेकिन दो घंटे बीत जाने पर भी बीरबल नहीं आया. बीरबल की इस हरक़त पर अकबर आग-बबूला होने लगे.
दरबार में बैठने का कोई औचित्य न देख वे बेगम साहिबा के साथ उठकर वहाँ से जाने लगे. ठीक उसी वक़्त बीरबल ने दरबार में प्रवेश किया. उसके साथ एक गधा भी था.
विलंब के लिए अकबर से माफ़ी मांगते हुए वह बोला, “जहाँपनाह! माफ़ कीजियेगा. इस गधे को खोजने में मुझे समय लग गया.”
सबकी समझ के परे था कि बीरबल अपने साथ वो गधा दरबार में लेकर क्यों आया है?
बीरबल सबकी जिज्ञासा शांत करते हुए बोला, “ये कोई साधारण गधा नहीं है. ये एक जादुई गधा है. मैं ये गधा यहाँ इसलिए लाया हूँ, ताकि ये शाही हार के चोर का नाम बता सके.”
बीरबल की बात अब भी किसी के पल्ले नहीं पड़ रही थी. बीरबल कहने लगा, “मैं इस जादुई गधे को पास ही के एक कक्ष में ले जाकर खड़ा कर रहा हूँ. एक-एक कर सभी सेवक-सेविकाओं को उस कक्ष में जाना होगा और इस गधे की पूंछ पकड़कर जोर से चिल्लाना होगा कि उसने चोरी नहीं की है. ध्यान रहे आप सबकी आवाज़ बाहर सुनाई पड़नी चाहिए. अंत में ये गधा बताएगा कि चोर कौन है?”
बीरबल गधे को दरबार से लगे एक कक्ष में छोड़ आया और कतार बनाकर सभी सेवक-सेविका उस कक्ष में जाने लगे. सबके कक्ष में जाने के बाद बाहर ज़ोर से आवाज़ आती – “मैंने चोरी नहीं की है.”
जब सारे सेवक-सेविकाओं ने ऐसा कर लिया, तो बीरबल गधे को बाहर ले आया. अब सबकी निगाहें गधे पर थी.
लेकिन गधे को एक ओर खड़ा कर बीरबल एक विचित्र हरक़त करने लगा. वह सभी सेवक-सेविकाओं के पास जाकर उनसे हाथ आगे करने को कहता और उसे सूंघता. बादशाह अकबर और बेगम सहित सभी हैरान थे कि आखिर बीरबल ये कर क्या रहा है. तभी बीरबल एक सेवक का हाथ पकड़कर जोर से बोला, “जहाँपनाह! ये है शाही हार का चोर.”
“तुम इतने यकीन से ऐसा कैसे कह सकते हो बीरबल? क्या इस जादुई गधे ने तुम्हें इस चोर का नाम बताया है?” आश्चर्यचकित अकबर ने बीरबल से पूछा.
बीरबल बोला, “नहीं हुज़ूर! ये कोई जादुई गधा (Jadui Gadha) नहीं है. ये एक साधारण गधा है. मैंने बस इसकी पूंछ पर एक खास किस्म का इत्र लगा दिया था. जब सारे सेवक-सेविकाओं ने इसकी पूंछ पकड़ी, तो उनके हाथ में उस इत्र की ख़ुशबू आ गई. लेकिन इस चोर ने डर के कारण गधे की पूंछ पकड़ी ही नहीं. वह कक्ष में जाकर बस जोर से चिल्लाकर बाहर आ गया. इसलिए इसके हाथ में उस इत्र की ख़ुशबू नहीं आ पाई. इससे सिद्ध होता है कि यही चोर है.”
उस चोर को दबिश देकर शाही हार बरामद कर लिया गया और उसे कठोर सजा सुनाई गई. इस बार बीरबल की अक्लमंदी की बेगम साहिबा भी कायल हो गई और उन्होंने अकबर से कहकर बीरबल को कई उपहार दिलवाए.
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