बंदर की १० कहानियाँ | 10 Best Bandar Ki Kahani

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Bandar Ki Kahani 

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Bandar Ki Kahani # 1. टोपीवाला और बंदर 

एक गाँव में एक आदमी रहता था. टोपी बेचना उसका काम था. अपने गाँव के साथ ही वह आस-पास के दूसरे गाँवों में भी घूम-घूमकर टोपियाँ बेचा करता था. वह रोज़ सुबह एक बड़ी सी टोकरी में ढेर सारी रंग-बिरंगी टोपियाँ भरता और उसे सिर पर लादकर घर से निकल जाता. सांझ ढले सारी टोपियाँ बेचकर वह घर वापस आता था.

एक दिन अपने गाँव में टोपियाँ बेचने के बाद वह पास के एक दूसरे गाँव जा रहा था. दोपहर का समय था. वह थका हुआ था और उसका गला भी सूख रहा था. रास्ते में एक स्थान पर कुआँ देख वह रुक गया. कुएं के पास ही बरगद का एक पेड़ था, जिसके नीचे उसने टोपियों की टोकरी रख दी और कुएं से पानी निकालकर पीने लगा.

प्यास बुझ जाने के बाद उसने सोचा कि थोड़ी देर सुस्ताने के बाद ही आगे बढ़ना ठीक होगा. उसने टोकरी में से एक टोपी निकाली और पहन ली. फिर बरगद के पेड़ के नीचे गमछा बिछाकर बैठ गया. वह थका हुआ तो था ही, जल्दी ही उसे नींद आ गई.

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वह खर्राटे मारते हुए सो रहा था कि शोर-शराबे से उसकी नींद उचट गई. आँख खुली, तो उसने देखा कि बरगद के पेड़ के ऊपर ढेर सारे बंदर उछल-कूद कर रहे हैं. वह यह देखकर चकित रहा गया कि उन सब बंदरों के सिर पर टोपियाँ थीं. उसने अपनी टोपियों की टोकरी की ओर दृष्टि डाली, तो सारी टोपियाँ नदारत पाई.

चिंता में वह अपना माथा पीटने लगा. सोचने लगा कि अगर बंदर सारी टोपियाँ ले गए, तो उसे बड़ा नुकसान हो जायेगा. उसे माथा पीटता देख बंदर भी अपना माथा पीटने लगे. बंदरों को नक़ल उतारने की आदत होती है. वे टोपीवाले की नक़ल उतार रहे थे.

बंदरों को अपनी नक़ल उतारता देख टोपीवाले को टोपियाँ वापस प्राप्त करने का एक उपाय सूझ गया. उपाय पर अमल करते हुए उसने अपने सिर से टोपी उतारकर फेंक दी. फिर क्या था? बंदरों ने भी अपनी-अपनी टोपियाँ उतारकर फ़ेंक दी. टोपीवाले ने झटपट सारी टोपियाँ टोकरी में इकठ्ठी की और आगे की राह पकड़ ली.

शिक्षा (Moral of the story)

सूझबूझ से हर समस्या का हल निकाला जा सकता है.


Monkey Ki Kahani # 2. शेर और बंदर 

एक बार की बात है. जंगल के राजा शेर और बंदर में विवाद हो गया. विवाद का विषय था – ‘बुद्धि श्रेष्ठ है या बल’ (Wisdom Is Better Than Strength).

शेर की दृष्टि में बल श्रेष्ठ था, किंतु बंदर की दृष्टि में बुद्धि. दोनों के अपने-अपने तर्क थे. अपने तर्क देकर वे एक-दूसरे के सामने स्वयं को सही सिद्ध करने में लग गये.

बंदर बोला, “शेर महाराज, बुद्धि ही श्रेष्ठ है. बुद्धि से संसार का हर कार्य संभव है, चाहे वह कितना ही कठिन क्यों न हो? बुद्धि से हर समस्या का निदान संभव है, चाहे वह कितनी ही विकट क्यों न हो? मैं बुद्धिमान हूँ और अपनी बुद्धि का प्रयोग कर किसी भी मुसीबत से आसानी से निकल सकता हूँ. कृपया यह बात मान लीजिये.”

बंदर का तर्क सुन शेर भड़क गया और बोला, “चुपकर बंदर, तू बल और बुद्धि की तुलना कर बुद्धि को श्रेष्ठ बता रहा है. बल के आगे किसी का ज़ोर नहीं चलता. मैं बलवान हूँ और तेरी बुद्धि मेरे बल के सामने कुछ भी नहीं. मैं चाहूं, तो इसी क्षण इसका प्रयोग कर तेरे प्राण ले सकता हूँ.”

बंदर कुछ क्षण शांत रहा और बोला, “महाराज, मैं अभी तो जा रहा हूँ. किंतु मेरा यही मानना है कि बुद्धिं बल से श्रेष्ठ है. एक दिन मैं आपको ये प्रमाणित करके दिखाऊंगा. मैं अपनी बुद्धि से बल को हरा दूंगा.”

“मैं उस दिन की प्रतीक्षा करूंगा, जब तुम ऐसा कर दिखाओगे. उस दिन मैं अवश्य तुम्हारी इस बात को स्वीकार करूंगा कि बुद्धि बल से श्रेष्ठ है. किंतु, तब तक कतई नहीं.” शेर ने उत्तर दिया.

इस बात को कई दिन बीत गए. बंदर और शेर का आमना-सामना भी नहीं हुआ.

एक दिन शेर जंगल में शिकार कर अपनी गुफ़ा की ओर लौट रहा था. अचानक वह पत्तों से ढके एक गड्ढे में जा गिरा. उसके पैर में चोट लग गई. किसी तरह  वह गड्ढे से बाहर निकला, तो पाया कि एक शिकारी उसके सामने बंदूक ताने खड़ा है. शेर घायल था. ऐसी अवस्था में वह शिकारी का सामना करने में असमर्थ था.

तभी अचानक कहीं से शिकारी पर पत्थर बरसने लगे. शिकारी हड़बड़ा गया. इसके पहले कि वो कुछ समझ पाता, एक पत्थर उसके सिर पर आकर पड़ा. वह दर्द से तिलमिला उठा और अपने प्राण बचाने वहाँ से भाग गया.

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शेर भी चकित था कि शिकारी पर पत्थरों से हमला किसने किया और किसने उसके प्राणों की रक्षा की. वह इधर-उधर देखते हुए ये सोच ही रहा था कि सामने एक पेड़ पर बैठे बंदर की आवाज़ उसे सुनाई दी, “महाराज, आज आपके बल को क्या हुआ? इतने बलवान होते हुए भी आज आपकी जान पर बन आई.”

बंदर को देख शेर ने पूछा, “तुम यहाँ कैसे?”

“महाराज, कई दिनों से मेरी उस शिकारी पर नज़र थी. एक दिन मैंने उसे गड्ढा खोदते हुए देखा, तो समझ गया था कि वह आपका शिकार करने की फ़िराक में है. इसलिए मैंने थोड़ी बुद्धि लड़ाई और ढेर सारे पत्थर इस पेड़ पर एकत्रित कर लिए, ताकि आवश्यकता पड़ने पर इनका प्रयोग शिकारी के विरुद्ध कर सकूं.”

बंदर ने शेर के प्राणों की रक्षा की थी. वह उसके प्रति कृतज्ञ था. उसने उसे धन्यवाद दिया. उसे अपने और बंदर में मध्य हुआ विवाद भी स्मरण हो आया. वह बोला, “बंदर भाई, आज तुमने सिद्ध कर दिया कि बुद्धि बल से श्रेष्ठ होती है. मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया है. मैं समझ गया हूँ कि बल हर समय और हर परिस्थिति में एक सा नहीं रहता, लेकिन बुद्धि हर समय और हर परिस्थिति में साथ रहती है.”

बंदर ने उत्तर दिया, “महाराज, मुझे प्रसन्नता है कि आप इस बात को समझ गए. आज की घटना पर ध्यान दीजिये. शिकारी आपसे बल में कम था, किंतु बावजूद इसके उसने अपनी बुद्धि से आप पर नियंत्रण पा लिया. उसी प्रकार मैं शिकारी से बल में कम था, किंतु बुद्धि का प्रयोग कर मैंने उसे डराकर भगा दिया. इसलिए हर कहते हैं कि बुद्धि बल से कहीं श्रेष्ठ है.”

सीख (Moral of the story)

बुद्धि का प्रयोग कर हर समस्या का निराकरण किया जा सकता है. इसलिए बुद्धि को कभी कमतर न समझें. 


Bandar Ki Story # 3. मगरमच्छ और बंदर 

जंगल में झील के किनारे जामुन का एक पेड़ था. ऋतु आने पर उसमें बड़े ही मीठे और रसीले जामुन लगा करते थे. जामुन का वह पेड़ ‘रक्तमुख’ नामक बंदर का घर था. जब भी पेड़ पर जामुन लगते, तो वह ख़ूब मज़े लेकर उन्हें खाया करता था. उसका जीवन सुखमय था.

एक दिन एक मगरमच्छ झील में तैरता-तैरता जामुन के उसी पेड़ के नीचे आ गया, जिस पर बंदर रहा करता था. बंदर ने उसे देखा, तो उसके लिए कुछ जामुन तोड़कर नीचे गिरा दिए. मगरमच्छ भूखा था. जामुन खाकर उसकी भूख मिट गई.

वह बंदर से बोला, “मैं बहुत भूखा था मित्र. तुम्हारे दिए जामुन ने मेरी भूख शांत कर दी. तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद.”

“जब मित्र कहा है, तो फिर धन्यवाद की क्या बात है? तुम यहाँ रोज़ आ जाया करो. ये पेड़ तो जामुनों से लदा हुआ है. हम दोनों साथ में जामुनों का स्वाद लिया करेंगे.” बंदर ने मैत्रीभाव से मगरमच्छ से कहा.

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उस दिन से बंदर और मगरमच्छ में अच्छी मित्रता हो गई. मगरमच्छ रोज़ झील किनारे आता और बंदर के दिए जामुन खाते हुए उससे ढेर सारी बातें किया करता. बंदर मित्र के रूप में मगरमच्छ को पाकर बहुत ख़ुश था.      

एक दिन दोनों में अपने-अपने परिवार के बारे में बातें चली, तो बंदर बोला, “मित्र, परिवार के नाम पर मेरा कोई नहीं है. मैं इस दुनिया में अकेला हूँ. किंतु तुमसे मित्रता के बाद से मेरे जीवन का अकेलापन चला गया. मैं भगवान का बहुत आभारी हूँ कि उसने मित्र के रूप में तुम्हें मेरे जीवन में भेजा.”

मगरमच्छ बोला, “मैं भी तुम्हें मित्र के रूप में पाकर बहुत ख़ुश हूँ. लेकिन मैं अकेला नहीं हूँ. मेरी पत्नि है. झील के पार हम दोनों साथ रहते हैं.”

“अरे ऐसी बात थी, तो पहले क्यों नहीं बताया? मैं उनके लिए भी जामुन भेजता.” बंदर बोला और उस दिन उसने मगरमच्छ की पत्नि के लिए भी जामुन भिजवाए.

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घर पहुँचकर जब मगरमच्छ ने अपनी पत्नि को बंदर के भेजे जामुन दिए, तो उसने पूछा, “नाथ, तुम इतने मीठे जामुन कहाँ से लेकर आये हो?”

“ये जामुन मुझे मेरे मित्र बंदर ने दिए हैं, जो झील के पार जामुन के पेड़ पर रहता है.” मगरमच्छ बोला.

“बंदर और मगरमच्छ की मित्रता! कैसी बात कर रहे हो नाथ? बंदर और मगरमच्छ भी भला कभी मित्र होते हैं? वो तो हमारा आहार हैं. जामुन के स्थान पर तुम उस बंदर को मारकर ले आते, तो हम मिलकर उसके मांस का स्वाद लेते.” मगरमच्छ की पत्नि बोली.

“ख़बरदार, जो आइंदा कभी ऐसी बात की. बंदर मेरा मित्र है. वह मुझे रोज़ मीठे जामुन खिलाता है. मैं कभी उसका अहित नहीं कर सकता.” मगरमच्छ ने अपनी पत्नि को झिड़क दिया और वह मन मसोसकर रह गई.

इधर बंदर और मगरमच्छ की मित्रता पूर्वव्रत रही. दोनों रोज़ मिलते रहे और बातें करते हुए जामुन खाते रहे. बंदर अब मगरमच्छ की पत्नि के लिए भी जामुन भेजने लगा.

मगरमच्छ की पत्नि जब भी जामुन खाती, तो सोचती कि जो बंदर रोज़ इतने मीठे जामुन खाता है, उसका कलेजा कितना मीठा होगा? काश, मुझे उसका कलेजा खाने को मिल जाये! लेकिन डर के मारे वह अपने पति से कुछ न कहती. लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, वैसे-वैसे उसके मन में बंदर का कलेजा खाने की लालसा बढ़ती गई.

वह अपने पति से सीधे-सीधे बंदर के कलेजे की मांग नहीं कर सकती थी. इसलिए उसने एक तरक़ीब निकाली. एक शाम जब मगरमच्छ बंदर से मिलकर वापस आया, तो देखा कि उसकी पत्नि निढाल होकर पड़ी है.

पूछने पर वह आँसू बहाते हुए बोली, “मेरी तबियत बहुत ख़राब है. लगता है, अब मैं नहीं बचूंगी. नाथ, मेरे बाद तुम अपना ख्याल रखना.”

मगरमच्छ अपनी पत्नि से बहुत प्रेम करता था. उससे उसकी वह हालत देखी नहीं जा रही थी. वह दु:खी होकर बोला, “प्रिये! ऐसा मत कहो. हम वैद्य के पास जायेंगे और तुम्हारा इलाज़ करवाएंगे.”

“मैं वैद्य के पास गई थी. लेकिन उसने मेरी बीमारी का जो इलाज़ बताया है, वह संभव नहीं है.”

“तुम बताओ तो सही, मैं तुम्हारा हर संभव इलाज करवाऊंगा.”

मगरमच्छ की पत्नि इसी मौके की तलाश में थी. वह बोली, “वैद्य ने कहा है कि मैं बंदर का कलेजा खाकर ठीक हो सकती हूँ. तुम मुझे बंदर का कलेजा ला दो.”

“ये तुम क्या कह रही हो? मैं तुमसे कह चुका हूँ कि बंदर मेरा मित्र है. मैं उसक साथ धोखा नहीं कर सकता.” मगरमच्छ अपनी पत्नि की बात मानने को तैयार नहीं हुआ.

“यदि ऐसी बात है, तो तुम मेरा मरा मुँह देखने को तैयार रहो.” उसकी पत्नि रुठते हुए बोली.

मगरमच्छ दुविधा में पड़ गया. एक ओर मित्र था, तो दूसरी ओर पत्नि. अंत में उसने अपनी पत्नि के प्राण बचाने का निर्णय किया. दूसरे दिन वह सुबह-सुबह बंदर का कलेजा लाने चल पड़ा. उसकी पत्नि ख़ुशी से फूली नहीं समाई और उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगी.

जब मगरमच्छ बंदर के पास पहुँचा, तो बंदर बोला, “मित्र, आज इतनी सुबह-सुबह. क्या बात है?”

“मित्र, तुम्हारी भाभी तुमसे मिलने को लालायित है. वह रोज़ मुझसे शिकायत करती है कि मैं तुम्हारे दिए जामुन तो खा लेता हूँ. किंतु कभी तुम्हें घर बुलाकर तुम्हारा सत्कार नहीं करता. आज उसने तुम्हें भोज पर आमंत्रित किया है. मैं सुबह-सुबह वही संदेशा लेकर आया हूँ.” मगरमच्छ ने झूठ कहा.

“मित्र, भाभी को मेरी ओर से धन्यवाद कहना. लेकिन मैं जमीन रहने वाला जीव हूँ और तुम लोग जल में रहने वाले जीव हो. मैं ये झील पार नहीं कर सकता. मैं कैसे तुम्हारे घर आ पाऊंगा?” बंदर ने अपनी समस्या बताई.

“मित्र! उसकी चिंता तुम मत करो. मैं तुम्हें अपनी पीठ पर बिठाकर अपने घर ले जाऊंगा.”

बंदर तैयार हो गया और पेड़ से कूदकर मगरमच्छ की पीठ पर बैठ गया. मगरमच्छ झील में तैरने लगा. जब वे झील के बीचो-बीच पहुँचे, तो मगरमच्छ ने सोचा कि अब बंदर को वास्तविकता बताने में कोई समस्या नहीं है. यहाँ से वह वापस नहीं लौट सकता.

वह बंदर से बोला, “मित्र, भगवान का स्मरण कर लो. अब तुम्हारे जीवन की कुछ ही घड़ियाँ शेष हैं. मैं तुम्हें भोज पर नहीं, बल्कि मारने के लिए ले जा रहा हूँ.”

ये सुनकर बंदर चकित होकर बोला, “मित्र, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो तुम मुझे मारना चाहते हो. मैंने तो तुम्हें मित्र समझा, तुम्हें जामुन खिलाये और उसका प्रतिफल तुम मेरे प्राण लेकर दे रहे हो.”

मगरमच्छ ने बंदर को सारी बात बताई और बोला, “मित्र, तुम्हारी भाभी के जीवन के लिए तुम्हारा कलेजा आवश्यक है. वह तुम्हारा कलेजा खाकर ही भली-चंगी हो पायेगी. आशा है, तुम मेरे विवशता समझोगे.”

बंदर को मगरमच्छ की पत्नि की चालाकी समझ में आ गई. उसे मगरमच्छ और उसकी पत्नि दोनों पर बहुत बहुत क्रोध गया. किंतु वह समय क्रोध दिखाने का नहीं, बल्कि बुद्धि से काम लेने का था.

बंदर चतुर था. तुरंत उसके दिमाग में अपने प्राण बचाने का एक उपाय आ गया और वह मगरमच्छ से बोला, “मित्र तुमने पहले क्यों नहीं बताया कि भाभी को मेरा कलेजा खाना है. हम बंदर लोग अपना कलेजा पेड़ की कोटर में संभाल कर रखते हैं. मैंने भी जामुन के पेड़ की कोटर में अपना कलेजा रखा हुआ है. अब तुम मुझे भाभी के पास लेकर भी जाओगे, तो वह मेरा कलेजा नहीं खा पायेगी.”

“यदि ऐसी बात है, तो मैं तुम्हें वापस पेड़ के पास ले चलता हूँ. तुम मुझे अपना कलेजा दे देना. वो ले जाकर मैं अपनी पत्नि को दे दूंगा.” कहकर मगरमच्छ ने फ़ौरन अपनी दिशा बदल ली और वापस जामुन के पेड़ की ओर तैरने लगा.

जैसे ही मगरमच्छ झील के किनारे पहुँचा, बंदर छलांग मारकर जामुन के पेड़ पर चढ़ गया. नीचे से मगरमच्छ बोला, “मित्र! जल्दी से मुझे अपना कलेजा दे दो. तुम्हारी भाभी प्रतीक्षा कर रही होगी.”

“मूर्ख! तुझे ये भी नहीं पता कि किसी भी प्राणी का कलेजा उसके शरीर में ही होता है. चल भाग जा यहाँ से. तुझ जैसे विश्वासघाती से मुझे कोई मित्रता नहीं रखनी.” बंदर मगरमच्छ से धिक्कारते हुए बोला.

मगरमच्छ बहुत लज्जित हुआ और सोचने लगा कि अपने मन का भेद कहकर मैंने गलती कर दी. वह पुनः बंदर का विश्वास पाने के उद्देश्य से बोला, “मित्र, मैं तो तुमसे हँसी-ठिठोली कर रहा था. तुम मेरी बातों को दिल पर मत लो. चलो घर चलो. तुम्हारी भाभी बांट जोह रही होगी.”

“दुष्ट, मैं इतना भी मूर्ख नहीं कि अब तेरी बातों में आऊंगा. तुझ जैसा विश्वासघाती किसी की मित्रता के योग्य नहीं है. चला जा यहाँ और फिर कभी मत आना.” बंदर मगरमच्छ को दुत्कारते हुए बोला.         

मगरमच्छ अपना सा मुँह लेकर वहाँ से चला गया.

सीख (Moral Of The Story) 

  • मित्र के साथ कभी धोखा नहीं करना चाहिए.
  • विपत्ति के समय धैर्य और बुद्धि से काम लेना चाहिए.

Monkey Story In Hindi # 4. बंदर और घंटी 

जंगल के किनारे एक गाँव बसा हुआ था. गाँव में चारो और ख़ुशहाली थी और गाँव के लोग शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे.

गाँव के मध्य गाँव वालों ने एक मंदिर का निर्माण करवाया था, जहाँ वे प्रतिदिन पूजा-आराधना किया करते थे. मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक बड़ी सी घंटी लगी हुई थी. एक दिन एक चोर (Thief) ने मंदिर की घंटी (Bell) चुरा ली और जंगल की ओर भाग गया.

जंगल में वह दौड़ता चला जा रहा था, जिससे घंटी बज रही थी और उसकी आवाज़ दूर-दूर तक सुनाई दे रही थी. घंटी की आवाज़ जंगल में घूम रहे शेर (Tiger) के कानों में  भी पड़ी और वह जिज्ञासावश आवाज़ का पीछा करने लगा.

गाँव से लेकर जंगल तक दौड़ते-दौड़ते चोर बहुत थक गया था. सुस्ताने के लिए वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया. तभी पीछा करते-करते शेर भी वहाँ पहुँच गया. चोर शेर का सामना नहीं कर पाया और मारा गया. घंटी वहीं गिर गई.

अगले दिन बंदरों का एक झुण्ड उस स्थान से गुजरा. उन्हें वह घंटी दिखी, तो वे उसे उठाकर अपने साथ ले गए. घंटी की मधुर ध्वनि उन्हें बड़ी ही रोचक लगी और वे उससे खेलने लगे.

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अक्सर रात के समय बंदर (Monkey) इकठ्ठा होते और घंटी बजाकर खेला करते थे. रात के समय जंगल से आने वाली घंटी की आवाज़ के पीछे के कारण से अनजान गाँववालों को ये बड़ा विचित्र लगा.

एक दिन सबसे फ़ैसला किया कि रात में आने वाली घंटी का रहस्य जानना होगा. उन्होंने गाँव के युवक को तैयार कर जंगल में भेजा. युवक जब जंगल में गया, तो उसे चोर का कंकाल दिख गया. उसने गाँव वापस आकर बताया कि जंगल में कोई प्रेतआत्मा घूम रही है, जो लोगों का खून करती है और उसके बाद घंटी बजाती है.

गाँव वालों ने बिना सोचे-समझे उसकी बात पर विश्वास कर लिया. ये बात पूरे गाँव में जंगल की आग की तरह फ़ैल गई. गाँव में भय का वातावरण व्याप्त हो गया. धीरे-धीरे गाँव के लोग पलायन कर दूसरे गाँव जाने लगे.

जब राज्य के राजा (King) को यह बात चली कि उसके राज्य के एक गाँव के लोग वहाँ से पलायन कर रहे हैं, तो उसने पूरे राज्य में मुनादी करवाई कि जो व्यक्ति जंगल में घूम रही प्रेतआत्मा को वहाँ से भगा देगा और घंटी (Bell) की आवाज़ बंद कर देगा, उसे उचित पुरूस्कार प्रदान किया जायेगा.

राजा की यह मुनादी उसी गाँव में रहने वाली एक बूढ़ी औरत ने भी सुनी. उसे विश्वास था कि प्रेतआत्मा की बात महज़ एक अफ़वाह है. एक रात वह अकेले ही जंगल (Forest) की ओर निकल गई. वहाँ उसे बंदरों का समूह दिखाई पड़ा, जो घंटी बजा-बजाकर खेल रहा था.

बूढ़ी औरत को रात में बजने वाली घंटी की आवाज़ का रहस्य पता चल चुका था. वह गाँव वापस आ गई. उस रात वह आराम से अपने घर पर सोई और अगले दिन राजा से मिलने पहुँची.

राजा को उसने कहा, “महाराज! मैं जंगल में भटक रही प्रेतआत्मा पर विजय प्राप्त कर सकती हूँ और उसे वहाँ से भगा सकती हूँ.”

उसकी बात सुनकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ.

बूढ़ी औरत बोली, “महाराज! प्रेतआत्मा को नियंत्रण में लाने के लिए एक पूजा आयोजित करनी होगी और उसके लिए मुझे कुछ धन की आवश्यकता पड़ेगी.”

राजा ने बूढ़ी औरत के लिए धन की व्यवस्था करवा दी, जिससे उसने कुछ मूंगफलियाँ, चने और फल ख़रीदे. गाँव में मंदिर के परिसर में उसने एक पूजा का आयोजन किया. वहाँ एक गोला बनाकर उसने खाने की सारी चीज़ें रख दी और भगवान की प्रार्थना करने लगी. कुछ देर ऐसा करने के बाद उसने खाने की सारी चीज़ें उठाई और जंगल में चली गई.

जंगल पहुँचकर एक पेड़ के नीचे उसने खाने की सारी चीज़ें रख दी और छुपकर बंदरों के आने की प्रतीक्षा करने लगी. कुछ देर बाद बंदरों का समूह वहाँ आया. उन्होंने जब खाने की ढेर सारी चीज़ें देखी, तो घंटी को एक तरफ़ फेंक उन्हें खाने दौड़ पड़े. बंदर बड़े मज़े से मूंगफलियाँ, चने और फल खा रहे थे. इस बीच मौका पाकर बूढ़ी औरत ने घंटी उठा ली और राजा के महल आ गई.

घंटी राजा को सौंपते हुए वह बोली, “महाराज! वह प्रेतआत्मा यह घंटी छोड़कर जंगल से भाग गई है. गाँव वालों को अब डरने की कोई आवश्यकता नहीं है.”

राजा बूढ़ी औरत की बहादुरी से बहुत प्रसन्न हुआ. उसने उसे पुरूस्कार देकर विदा किया. उस दिन के बाद से गाँव वालों को कभी घंटी की आवाज़ सुनाई नहीं दी और वे फिर से ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगे.

सीख  –

  • बिना सोचे-समझे किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँचना चाहिए.
  • बुद्धिमानी से हर समस्या का समाधान निकाला जा सकता है.

Bandar Ki Kahaniyan # 5. गौरैया और बंदर 

वन में घने वृक्ष की शाखा में घोंसला बनाकर गौरैया (Sparrow) का जोड़ा रहा करता था. वर्षों से वे वहाँ सुख का जीवन व्यतीत कर रहे थे.

ठंड का मौसम था. गौरैया का जोड़ा अपने घोंसलें में बैठा आराम कर रहा था. तभी अचानक ठंडी हवा के साथ बारिश प्रारंभ हो गई.

ऐसे में कहीं से एक बंदर (Monkey) आया और उस डाल पर बैठ गया, जहाँ गौरैया के जोड़ों का घोंसला (Nest) था. बंदर ठंड से ठिठुर रहा था. ठिठुरन के कारण उसके दांत किटकिटा रहे थे.

बंदर के दांतों की किटकिटाहट सुन गौरैया ने अपने घोंसलें से बाहर झांककर देखा. बंदर को बारिश में भीगता देख वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाई और पूछ बैठी, “कौन हो तुम? इतनी बारिश में यहाँ इस डाल पर क्या कर रहे हो? क्या तुम्हारा कोई घर नहीं?”

गौरैया की बात सुन बंदर (Monkey) चिढ़ गया. किंतु उस समय वह किसी बात का उत्तर नहीं देना चाहता था. वह चुप रहा.

बंदर को चुप देख गौरैया (Sparrow) का हौसला बढ़ गया और लगी वह अपनी सलाह देने, “लगता है तुम्हारा कोई घर नहीं. तभी इस बरसात में भीग रहे हो. तुम्हारा चेहरा तो मानव जैसा है. शरीर से भी हृष्ट-पुष्ट लगते हो. ऐसे में अपना घर बनाकर क्यों नहीं रहते? अपना घर न बनाना मूर्खता है. उसका फल देखो, तुम बारिश में बैठे ठिठुर रहे हो और हमें देखो, हम सुख से अपने घोंसले में बैठे है.”

ये सुनना था कि बंदर क्रोध में लाल-पीला हो गया. उसने गौरैया के घोंसले को तोड़ दिया. मूर्ख को परामर्श देने का फल गौरैया को मिल गया था.

सीखपरामर्श उसे दो, जिसे वास्तव में उसकी आवश्यकता हो. वह उसका मूल्य समझेगा. मूर्ख को परामर्श देने पर हो सकता है, उसके दुष्परिणाम भोगने पड़े.


Bandar Ki Story # 6. बंदर और लकड़ी का खूंटा 

एक गाँव के निकट के जंगल में मंदिर का निर्माण हो रहा था. निर्माण कार्य सुबह से लेकर शाम तक चलता था. बहुत से कारीगर इसमें जुटे हुए थे.

सुबह से शाम तक कारीगर वहाँ काम करते और दोपहर में भोजन करने गाँव आ जाया करते थे.

एक दोपहर सभी कारीगर भोजन करने गाँव आये हुए थे. तभी बंदरों का एक दल निर्माणधीन मंदिर के पास आ धमका और उछल-कूद मचाने लगा.

मंदिर में उस समय लकड़ी का काम चल रहा है. चीरी हुई शहतूत और अन्य लकड़ियाँ इधर-उधर पड़ी हुई थी. बंदरों के सरदार ने बंदरों को वहाँ जाने से मना किया. किंतु एक शरारती बंदर नहीं माना.

सभी बंदर जहाँ पेड़ पर चढ़ गए. वह शरारती बंदर शहतूत की लकड़ियों पर धमाचौकड़ी करने लगा. वहाँ शहतूत के कई अधचिरे लठ्ठे रखे हुए थे. उन अधचिरे लठ्ठे के बीच कील फंसी हुई थी.

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कारीगर भोजन के लिए जाने के पूर्व लठ्ठों के बीच कील फंसाकर जाते थे, ताकि वापस आने के बाद उनमें आरी घुसाने में सुविधा हो.

शरारती बंदर कौतूहलवश एक अधचिरे शहतूत के बीच फंसे कील को देखने लगा. वह सोचने लगा कि यदि इस कील को यहाँ से निकाल दिया जाये, तो क्या होगा. वह अधचिरे शहतूत के ऊपर बैठकर कील पर अपनी ज़ोर अजमाइश करने लगा.

बंदरों के सरदार ने जब उसे ऐसा करते देखा, तो चेतावनी देकर उसे बुलाने का प्रयास भी किया. किंतु हठी बंदर नहीं माना.

वह दम लगाकर कील को खींचने लगा. किंतु कील नहीं निकली. बंदर और जोर से कील को खींचने लगा. इस जोर अजमाइश में उसकी पूंछ पाटों के बीच आ गई. लेकिन बंदर ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और अपनी धुन में लगा रहा.

कुछ देर तक कील को खींचने पर वह थोड़ी हिलने लगी. यह देख बंदर ख़ुश हो गया और दुगुने उत्साह से कील को निकालने में लग गया. अंत में जोर के झटके के साथ कील बाहर निकल गई.

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लेकिन जैसे ही कील बाहर निकली, अधचिरे पाट आपस में आ मिले और बंदर की पूंछ उसमें दब गई. बंदर दर्द से चीख उठा. कराहते हुए उसने वहाँ से निकलने का भरसक प्रयास किया. किंतु नाकाम रहा.

वह जितना दम लगाकर वहाँ से निकलने का प्रयास करता, उसकी पूंछ उतनी जख्मी होती जाती. बहुत देर तक वह वहाँ फंसा तड़पता रहा और अंततः अत्यधिक रक्त बह जाने के कारण मर गया.

सीख –   जिस काम की जानकारी नहीं उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप करना मूर्खता है. ऐसा करना मुसीबत को बुलावा देना है.


Kahani Bandar Ki # 7. वानरराज का बदला 

एक नगर में चन्द्र नामक राजा का शासन था. उसके राजमहल के बगीचे में बंदरों का एक समूह रहता था. बगीचे के फलों के अतिरिक्त राजा के सेवकों द्वारा प्रतिदन प्रदान किये जा रहे भोजन का सेवन कर वे बहुत हृष्ट-पुष्ट हो गये थे.

बंदरों का सरदार “वानरराज” एक बूढ़ा बंदर था, जो अति-बुद्धिमान था. समय-समय पर वह अपना परामर्श बंदरों के समूह को दिया करता था. 

राजमहल में दो भेड़ें भी रहती थीं. राजा के पुत्र उनके साथ खेला करते थे. दो भेड़ों में से एक भेड़ बहुत चटोरी थी. जब मन करता, वह रसोईघर में घुस जाती और वहाँ खाने की जो भी चीज़ें पाती, खा जाती.

रसोईया भेड़ की इस हरक़त पर बहुत क्रोधित होता और जो हाथ में आता, वह वस्तु फ़ेंक कर उसे मारता.

एक दिन वानरराज ने रसोईये को भेड़ को एक बर्तन फेंककर मारते हुए देखा. वह सोचने लगा – कहीं रसोईये और भेड़ की यह तना-तनी बंदरों के विनाश का कारण न बन जाए. ये चटोरी भेड़ तो खाने के लोभ में यदा-कदा रसोई घर में जाती रहेगी. यदि किसी दिन क्रोधवश रसोईये ने चूल्हे की जलती हुई लकड़ी उस पर फेंक दी, तो अनर्थ हो जायेगा. भेड़ का ऊन से ढका शरीर आग पकड़ लेगा. भागते हुए भेड़ अस्तबल पहुँच गई, तो सूखी घास से भरा अस्तबल धधक उठेगा. घोड़े जल जायेंगे और फिर वही बंदरों का काल बनेंगे.

यह विचार मस्तिष्क में आते ही वानरराज ने अपने समूह की सभा बुलाई और अपना संदेह ज़ाहिर किया. उसने परामर्श दिया कि इससे पूर्व कि रसोइये और भेड़ों के बीच की लड़ाई हमारे लिए प्राणघातक सिद्ध हो, हमें राजमहल छोड़ देना चाहिए. अन्यतः हमारा विनाश निश्चित है.”

किंतु, बंदरों ने उसकी की बात नहीं मानी. उन्हें लगा कि उनका सरदार अब बूढ़ा हो चुका है और व्यर्थ का भ्रम पाल रहा है. वे राजमहल के भोजन के आदी हो चुके थे. इसलिए राजमहल छोड़ने को तैयार नहीं हुए. परन्तु, वानरराज ने तत्काल राजमहल छोड़ दिया.

इधर एक दिन फ़िर चटोरी भेड़ रसोईघर में घुस गई और वही हुआ, जिसका बंदरों के सरदार को भय था. रसोइये को और कुछ नहीं मिला, तो उसने जलती हुई लकड़ी का टुकड़ा उठाकर भेड़ पर फ़ेंक दिया.

भेड़ का शरीर, जो ऊन से ढका हुआ था, धधकने लगा. वह इधर-उधर भागने लगी और अस्तबल में घुस गई. आग की लपट अस्तबल में रखी सूखी घास तक पहुँची और पूरा अस्तबल धूं-धूं कर जल उठा.  

कई घोड़े जलकर मर गए. कई घायल हो गये. राजा को यह समाचार मिला, तो उसने वैद्य को बुलाया और उसे घोड़ों का उपचार करने का आदेश दिया.

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वैद्य ने घोड़ों के घाव का परीक्षण किया और बोला, “इनके घावों को शीघ्र ठीक करने का एक ही उपाय है. इन पर बंदरों की चर्बी लगानी पड़ेगी.”

राजा ने सैनिकों को आदेश दिया कि जो भी बंदर दिखे, तो मारकर उसकी चर्बी घोड़ों के उपचार के लिए लाई जाए. राजमहल के सारे बंदर मार दिए गए.

जब वानरराज तक यह बात पहुँची, तो वह बहुत दु:खी हुआ. उसके मन में प्रतिशोध की ज्वाला धधक उठी. किंतु, वह अकेला था. वह युक्ति सोचने लगा, जिससे वह राजा के कुल का भी वैसे ही सर्वनाश कर दे, जैसे उसने उसके कुल का किया है.

एक दिन वह पानी पीने एक झील के पास गया. उस झील में सुंदर कमल  खिले हुए थे. वानरराज ने देखा कि मनुष्यों और जानवरों के पदचिन्ह झील की ओर जाते हुए तो हैं, किंतु वापस आते हुए नहीं हैं. वह समझ गया कि झील में अवश्य कोई राक्षस रहता है जो झील में गए मनुष्यों और जानवरों को खा जाता है.

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उसने चतुराई दिखाते हुए कमल के तने से पानी पी लिया. जब झील में रहने वाले राक्षस ने यह देखा, तो झील से बाहर आ गया. उसने कई आभूषण पहने हुए थे. वह वानरराज से बोला, “जो भी झील में आता है, मैं उसे खा जाता हों. किंतु, तुम तो चतुर निकले. मैं तुम्हारी चतुराई देख प्रसन्न हूँ. मांगों क्या मांगते हो?”

वानरराज बोला, “एक राजा ने मेरे संपूर्ण वंश का नाश कर दिया है. मैं उससे प्रतिशोध लेना चाहता हूँ. आप मेरी सहायता करें, मुझे अपना कंठहार दे दे. मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं आपके आहार के लिए राजा और उसके अनुचरों को इस झील में लाऊंगा.”

राक्षस ने वानरराज को कंठहार दे दिया. वह हार पहनकर बंदरों के सरदार राजा के नगर पहुँचा. वह वहाँ एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर झूलने लगा. जिसकी भी दृष्टि उस पर पड़ती, वह कंठहार देखकर दंग रह जाता.

राजा के सैनिकों की दृष्टि भी उस पर पड़ी और वे उसे पकड़कर राजा के समक्ष ले गए. राजा ने उससे पूछा, “तुम्हें ये कीमती कंठहार कहाँ से प्राप्त हुआ?”

वानरराज ने उत्तर दिया, “महाराज, यह हार मुझे समृद्धि के देवता द्वारा प्रदान किया गया है. वह जंगल के बीचों-बीच स्थित एक झील में निवास करते हैं. जब सूर्य आधा उदय हुआ होता है, उस समय जो व्यक्ति उस झील में डुबकी लगा ले, तो उसे समृद्धि के देवता का आशीर्वाद और कंठहार प्राप्त होता है.”

राजा उसकी बातों में आ गया. वह अपनी पत्नि और पूरे परिवार सहित उस झील में डुबकी लगाने तैयार हो गया.

वानरराज ने कहा, “कल सुबह की मंगल बेला में पधारिये.”

लोभ में अंधा हो चुका राजा अगली सुबह अपनी पत्नि, पुत्र, परिवारजन, मंत्रियों और सेवकों सहित झील पहुँचा. वानरराज भी उनके साथ था. वह बोला, “महाराज, सबको अलग-अलग स्थानों से झील में उतरना होगा. सबके जाने के बाद आप अंत में झील में उतरिए.”

राजा की पत्नि, पुत्र, परिवारजन, मंत्री, सेवक सभी अलग-अलग स्थानों से झील में उतर गए और राक्षस द्वारा खा लिए गए.

बहुत देर तक जब कोई बाहर नहीं आया, तो राजा ने चिंतित होकर पूछा, “हे वानरराज, मेरे पत्नि, पुत्र, परिवारजन, मंत्री और सेवक बाहर क्यों नहीं आ रहे हैं?”

तब वानरराज एक पेड़ के ऊपर चढ़ गया और राजा से बोला, “अरे दुष्ट, तुम्हारा समस्त परिवार, मंत्री और सेवक राक्षस द्वारा खा लिए गए हैं. तुमने मेरे परिवार को मौत के घाट उतारा था. आज मैंने उसका प्रतिशोध ले लिया है.”

सीख  

बुरा करोगे, तो बुरा फ़ल पाओगे.


Monkey Ki Kahani # 8. राजा और मूर्ख बंदर 

बहुत समय पहले की बात है. एक राज्य में एक राजा का राज था. एक दिन उसके दरबार में एक मदारी एक बंदर लेकर आया. उसने राजा और सभी दरबारियों को बंदर का करतब दिखाकर प्रसन्न कर दिया. बंदर मदारी का हर हुक्म मनाता था. जैसा मदारी बोलता, बंदर वैसा ही करता था.

वह आज्ञाकारी बंदर राजा को भा गया. उसने अच्छी कीमत देकर मदारी से वह बंदर ख़रीद लिया. कुछ दिन राजा के साथ रहने के बाद बंदर उससे अच्छी तरह हिल-मिल गया. वह राजा की हर बात मानता. वह राजा के कक्ष में ही रहता और उसकी सेवा करता था. राजा भी बंदर की स्वामिभक्ति देख बड़ा ख़ुश था.

वह अपनी सैनिकों और संतरियों से भी अधिक बंदर पर विश्वास करने लगा और उसे महत्व देने लगा. सैनिकों को यह बात बुरी लगती थी, किंतु वे राजा के समक्ष कुछ कह नहीं पाते थे.

एक दोपहर की बात है. राजा अपने शयनकक्ष में आराम कर रहा था. बंदर पास ही खड़ा पंखा झल रहा था. कुछ देर में राजा गहरी नींद में सो गया. बंदर वहीं खड़े-खड़े पंखा झलता रहा.

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तभी कहीं से एक मक्खी आई और राजा की छाती पर बैठ गई. बंदर की दृष्टि जब मक्खी पर पड़ी, तो उसने पंखा हिलाकर उसे हटाने का प्रयास किया. मक्खी उड़ गई. किंतु कुछ देर पश्चात पुनः वापस आकर राजा की छाती पर बैठ गई.

पुनः मक्खी को आया देख बंदर अत्यंत क्रोधित हो गया. उसने आव देखा न ताव और पास ही पड़ी राजा की तलवार उठाकर पूरी शक्ति से मक्खी पर प्रहार कर दिया. मक्खी तो उड़ गई. किंतु तलवार के जोरदार प्रहार से राजा की छाती दो टुकड़े हो गई और राजा के प्राण-पखेरू उड़ गए.

सीख – मूर्ख मित्र से अधिक बुद्धिमान शत्रु को तरजीह दी जानी चाहिए.


Bandar Wali Ki Kahani # 9. बंदर और डॉल्फिन 

एक बार कुछ समुद्री नाविक एक बड़े जहाज में समुद्री यात्रा पर निकले. उनमें से एक नाविक के पास एक पालतू बंदर था. उसने उसे भी अपने साथ जहाज पर रख लिया.

यात्रा प्रारंभ हुई. जहाज कुछ दिन की यात्रा के बाद समुद्र के बीचों-बीच पहुँच गया. गंतव्य तक पहुँचने के लिए नाविकों को अभी भी कई दिनों की यात्रा करनी थी.

इतने दिनों तक मौसम नाविकों के लिए अच्छा रहा था. लेकिन एक दिन समुद्र में भयंकर तूफ़ान आ गया. तूफ़ान इतना तेज था कि नाविकों का जहाज टूट गया. नाविकों के जहाज को बचाने की बहुत कोशिश की, लेकिन अंततः जहाज पलट गया.

नाविक अपनी जान बचाने के लिए समुद्र में तैरने लगे. बंदर भी पानी में जा गिरा था. उसे तैरना नहीं आता था. वह डूबने लगा और उसे अपनी मौत सामने नज़र आने लगी. वह अपनी जान बचने के लिए चीख-पुकार मचाने लगा.

उसी समय एक डॉल्फिन वहाँ से गुजरी. उसने बंदर को डूबते हुए देखा, तो उसके पास गई और उसे अपनी पीठ में बिठा लिया. वह बंदर को लेकर एक द्वीप की ओर तैरने लगी. द्वीप पर पहुँचकर डॉल्फिन ने बंदर को अपनी पीठ से उतारा. बंदर की जान में जान आई.

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डॉल्फिन ने बंदर से पूछा, “क्या तुम इस स्थान को जानते हो?”

“हाँ बिल्कुल. यहाँ का राजा तो मेरा बहुत अच्छा मित्र है. और तुम जानती हो कि मैं भी एक राजकुमार हूँ.” बंदर की आदत बढ़ा-चढ़ाकर बात करने के थी. वह डॉल्फिन के सामने बड़ी-बड़ी बातें करने लगा.

डॉल्फिन समझ गई कि बंदर अपनी शान बघारने के लिए झूठ बोल रहा है, क्योंकि वह एक निर्जन द्वीप था, जहाँ कोई भी नहीं रहता था.

वह बंदर की बात का उत्तर देती हुई बोली, “ओह! तो तुम एक राजकुमार हो. बहुत अच्छी बात है. लेकिन क्या तुम्हें पता है कि बहुत जल्द तुम इस द्वीप के राजा बनने वाले हो.”

“राजा और मैं? कैसे?” बंदर ने आश्चर्य से पूछा.

“वो इसलिए कि तुम द्वीप पर एकलौते प्राणी हो. इसलिए बड़े आराम से यहाँ के राजा बन सकते हो. मैं जा रही हूँ. अब तुम अपना राज-पाट संभालो.” इतना कहकर डॉल्फिन तैरकर वहाँ से दूर जाने लगी.

बंदर पुकारता रह गया और उसने झूठ और शेखी से नाराज़ डॉल्फिन उसे वहीं छोड़कर चली गई.

सीख (Moral of the story)

व्यर्थ की शेखी बघारना मुसीबत को बुलावा देना है.


Bandar Ki Kahani # 10. दो बिल्लियाँ और बंदर

दो बिल्लियों की आपस में अच्छी दोस्ती थी. वे सारा दिन एक-दूसरे के साथ खेलती, ढेर सारी बातें करती और साथ ही भोजन की तलाश करती थी.

एक दिन दोनों भोजन की तलाश में निकली. बहुत देर इधर-उधर भटकने के बाद उनकी नज़र रास्ते पर पड़ी एक रोटी पर पड़ी. एक बिल्ली ने झट से रोटी उठा ली और मुँह में डालने लगी.

तब दूसरी बिल्ली उसे टोककर बोली, “अरे, तुम अकेले कैसे इस रोटी को खा रही हो? हम दोनों ने साथ में इस रोटी को देखा था. इसलिए हमें इसे बांटकर खाना चाहिए.”

पहली बिल्ली ने रोटी तोड़कर दूसरी बिल्ली को दिया, लेकिन वह टुकड़ा छोटा था. यह देख उसे बुरा लगा और वह बोली, “अरे, ये टुकड़ा तो छोटा है. तुम्हें रोटी के बराबर टुकड़े करने चाहिए थे. तुम मेरे साथ बेइमानी कर रही हो.“

इस बात पर दोनों में बहस होने लगी. बहस इतनी बढ़ी कि दोनों लड़ने लगी. उसी समय वहाँ से एक बंदर गुजरा. उन्हें लड़ते हुए देख उसने कारण पूछा. बिल्लियों ने उसे सब कुछ बता दिया.

सारी बात जानकर बंदर बोला, “अरे इतनी सी बात पर तुम दोनों झगड़ रही हो. मेरे पास एक तराजू है. यदि तुम दोनों चाहो, तो मैं ये रोटी तुम दोनों में बराबर-बराबर सकता हूँ.”

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बिल्लियाँ तैयार हो गई. बंदर एक तराजू लेकर आ गया. उसने बिल्लियों से रोटी ली और उसे तोड़कर तराजू ने दोनों पलड़े पर रखकर तौलने लगा. भूखी बिल्लियाँ उसे आस भरी नज़रों से देखने लगी.

तराजू के पलड़े पर रखी रोटी के टुकड़े में से एक टुकड़ा बड़ा और एक टुकड़ा छोटा था, जिससे पलड़ा एक तरफ़ झुक गया. तब बंदर बोला, “अरे ये क्या एक टुकड़ा दूसरे से बड़ा है. चलो मैं इसे बराबर कर देता हूँ.” उसने रोटी के बड़े टुकड़े को थोड़ा सा तोड़ा और अपने मुँह में डाल लिया.

अब दूसरा टुकड़ा पहले से बड़ा हो गया. बंदर ने अब उसे थोड़ा सा तोड़ा और अपने मुँह में डाल लिया. फिर तो यही सिलसिला चल पड़ा. रोटी को जो टुकड़ा बड़ा होता, वो बराबर करने बंदर उसे तोड़कर खा जाता.

ऐसा करते-करते रोटी के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े रह गये. अब बिल्लियाँ घबरा गई. उन्हें लगने लगा कि ऐसे में तो उनके हिस्से कुछ भी नहीं आयेगा. वे बोली, “बंदर भाई, तुम भी क्या परेशान होते हो. लाओ अब हम इसे ख़ुद ही आपस में बांट लेंगी.”

बंदर बोला, “ठीक है. लेकिन अब तक जो मैंने मेहनत की है, उसका मेहताना तो लगेगा ना. इसलिए रोटी के ये टुकड़े मेरे.” और उसने रोटी के शेष टुकड़े अपने मुँह में डाल लिए और चलता बना.

बिल्लियाँ उसे देखती रह गई. उन्हें अपनी गलती का अहसास हो चुका था. वे समझ गई कि उनकी आपसी फूट का लाभ उठाकर बंदर उन्हें मूर्ख बना गया. उसी समय उन्होंने निर्णय लिया कि अब कभी झगड़ा नहीं करेंगी और प्रेम से रहेंगी.

सीख  

मिलजुलकर रहे. अन्यथा, आपसी फूट का फ़ायदा कोई तीसरा उठा लेगा.


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