बच्चों के लिए 21 लोकप्रिय शिक्षाप्रद बेडटाइम स्टोरी | Bedtime Story For Kids In Hindi With Moral

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फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम बच्चों के लिए 21 लोकप्रिय बेडटाइम स्टोरी (21 Famous Bedtime Story For Kids In Hindi Written With Moral)  शेयर कर रहे हैं.  ये लोकप्रिय बेडटाइम स्टोरीज रोचक और शिक्षाप्रद है, जो उन्हें नैतिक शिक्षा का पाठ भी पढ़ाती हैं. 

Bedtime Story For Kids In Hindi With Moral
Bedtime Story For Kids In Hindi With Moral

Bedtime Story For Kids In Hindi With Moral

Table of Contents

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सोने का अंडा देने वाली मुर्गी की कहानी

एक गाँव में एक किसान अपनी पत्नि के साथ रहता था. उनका एक छोटा सा खेत था, जहाँ वे दिन भर परिश्रम किया करते थे. किंतु कठोर परिश्रम के उपरांत भी कृषि से प्राप्त आमदनी उनके जीवन-यापन हेतु पर्याप्त नहीं थी और वे निर्धनता का जीवन व्यतीत करने हेतु विवश थे.

एक दिन किसान बाज़ार से कुछ मुर्गियाँ ख़रीद लाया. वह मुर्गियों के अंडे बेच कर पैसे कमाना चाहता था. अपनी पत्नि के साथ मिलकर उसने घर के आंगन में एक छोटा सा दड़बा बनाया और मुर्गियों को उसमें रख दिया.

सुबह होने पर जब उन्होंने दड़बे में झांककर देखा, तो आश्चर्यचकित रह गए. वहाँ एक सोने का अंडा पड़ा हुआ था. किसान सोने के अंडे को  बेचकर अच्छे पैसे मिल गए.

अगले दिन फिर उन्हें सोने का अंडा मिला. किसान और उसकी पत्नि समझ गए कि उनकी मुर्गियों में से एक मुर्गी सोने का अंडा देती है. एक रात पहरेदारी कर वे सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को पहचान गए. उसके बाद से वे उसका ख़ास ख्याल रखने लगे. वह मुर्गी उन्हें रोज़ सोने का अंडा देती, जिसे बेचकर किसान कुछ ही महिनों में धनवान हो गया.

किसान अपने जीवन से संतुष्ट था. किंतु उसकी पत्नि लालची थी. एक दिन वह किसान से बोली, “आखिर कब तक हम रोज़ एक ही सोने का अंडा लेते रहेंगे. क्यों न हम मुर्गी के पेट से एक साथ सारे अंडे निकाल लें? फिर हम उन्हें बेचकर एक बार में इतने धनवान हो जायेंगे कि हमें काम करने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी.”

पत्नि की बात सुनकर किसान के मन में भी लालच आ गया. वह बाज़ार गया और वहाँ से एक बड़ा चाकू ख़रीद लाया.

रात में अपनी पत्नि के साथ वह मुर्गियों के दड़बे में गया और सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को पकड़कर उसका पेट चीर दिया. किंतु मुर्गी  के पेट में सोने के अंडे नहीं थे. किसान और उसकी पत्नि अपनी गलती पर पछताने लगे. अधिक सोने के अंडों के लालच में पड़कर वे रोज़ मिलने वाले एक सोने के अंडे से भी हाथ धो बैठे थे.

सीख (Moral of the story)

“लालच बुरी बला है.”       

प्यासा कौआ की कहानी 

गर्मियों के दिन थे. एक कौआ प्यास से बेहाल था और पानी की तलाश में यहाँ-वहाँ भटक रहा था. किंतु कई जगहों पर भटकने के बाद भी उसे पानी नहीं मिला.

वह बहुत देर से उड़ रहा था. लगातार उड़ते रहने के कारण वह बहुत थक कर चूर हो चुका था. उधर तेज गर्मी में उसकी प्यास बढ़ती जा रही थी. धीरे-धीरे वह अपना धैर्य खोने लगा. उसे लगने लगा कि अब उसका अंत समय निकट है. आज वह अवश्य मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा. 

थकान के कारण अब उससे उड़ा नहीं जा रहा था. कुछ देर आराम करने वह एक मकान की छत पर बैठ गया. वहाँ उसने देखा कि छत के  एक कोने में घड़ा रखा हुआ है. घड़े में पानी होने की आस में वह उड़कर घड़े के पास गया और उसके अंदर झांक कर देखा.

कौवे ने देखा कि घड़े में पानी तो है, किंतु इतना नीचे है कि उसकी चोंच वहाँ तक नहीं पहुँच सकती थी. वह उदास हो गया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे घड़े में रखे पानी तक पहुँचे. लेकिन फिर उसने सोचा कि उदास होने से काम नहीं चलेगा, कोई उपाय सोचना होगा.

घड़े के ऊपर बैठे-बैठे ही वह उपाय सोचने लगा. सोचते-सोचते उसकी दृष्टि पास ही पड़े कंकड़ो के ढेर पर पड़ी. फिर क्या था? कौवे के दिमाग की घंटी बज गई. उसे एक उपाय सूझ गया.

बिना देर किये वह उड़कर कंकडों के ढेर पर पहुँचा और एक उनमें से एक कंकड़ अपनी चोंच से उठाकर घड़े तक लाकर घड़े में डाल दिया.  वह एक-एक कंकड़ अपनी चोंच से उठाकर घड़े में लाकर डालने लगा. कंकड़ डालने से घड़े का पानी ऊपर आने लाग. कुछ देर में ही घड़े का पानी इतना ऊपर आ गया कि कौआ उसमें चोंच डालकर पानी पी सकता था. कौवे की मेहनत रंग लाई थी और वह पानी पीकर तृप्त हो गया.

सीख (Moral of the story )    

“चाहे समय कितना ही कठिन क्यों न हो, धैर्य से काम लेना चाहिए और उस कठिनाई से निकलने के लिए बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए. धैर्य और बुद्धि से हर समस्या का निवारण संभव है. “

टोपीवाला और बंदर की कहानी

एक गाँव में एक आदमी रहता था. टोपी बेचना उसका काम था. अपने गाँव के साथ ही वह आस-पास के दूसरे गाँवों में भी घूम-घूमकर टोपियाँ बेचा करता था. वह रोज़ सुबह एक बड़ी सी टोकरी में ढेर सारी रंग-बिरंगी टोपियाँ भरता और उसे सिर पर लादकर घर से निकल जाता. सांझ ढले सारी टोपियाँ बेचकर वह घर वापस आता था.

एक दिन अपने गाँव में टोपियाँ बेचने के बाद वह पास के एक दूसरे गाँव जा रहा था. दोपहर का समय था. वह थका हुआ था और उसका गला भी सूख रहा था. रास्ते में एक स्थान पर कुआँ देख वह रुक गया. कुएं के पास ही बरगद का एक पेड़ था, जिसके नीचे उसने टोपियों की टोकरी रख दी और कुएं से पानी निकालकर पीने लगा.

प्यास बुझ जाने के बाद उसने सोचा कि थोड़ी देर सुस्ताने के बाद ही आगे बढ़ना ठीक होगा. उसने टोकरी में से एक टोपी निकाली और पहन ली. फिर बरगद के पेड़ के नीचे गमछा बिछाकर बैठ गया. वह थका हुआ तो था ही, जल्दी ही उसे नींद आ गई.

वह खर्राटे मारते हुए सो रहा था कि शोर-शराबे से उसकी नींद उचट गई. आँख खुली, तो उसने देखा कि बरगद के पेड़ के ऊपर ढेर सारे बंदर उछल-कूद कर रहे हैं. वह यह देखकर चकित रहा गया कि उन सब बंदरों के सिर पर टोपियाँ थीं. उसने अपनी टोपियों की टोकरी की ओर दृष्टि डाली, तो सारी टोपियाँ नदारत पाई.

चिंता में वह अपना माथा पीटने लगा. सोचने लगा कि अगर बंदर सारी टोपियाँ ले गए, तो उसे बड़ा नुकसान हो जायेगा. उसे माथा पीटता देख बंदर भी अपना माथा पीटने लगे. बंदरों को नक़ल उतारने की आदत होती है. वे टोपीवाले की नक़ल उतार रहे थे.

बंदरों को अपनी नक़ल उतारता देख टोपीवाले को टोपियाँ वापस प्राप्त करने का एक उपाय सूझ गया. उपाय पर अमल करते हुए उसने अपने सिर से टोपी उतारकर फेंक दी. फिर क्या था? बंदरों ने भी अपनी-अपनी टोपियाँ उतारकर फ़ेंक दी. टोपीवाले ने झटपट सारी टोपियाँ टोकरी में इकठ्ठी की और आगे की राह पकड़ ली.

सीख (Moral of the story)

“सूझबूझ से हर समस्या का हल निकाला जा सकता है.”

लोमड़ी और अंगूर की कहानी

एक जंगल में एक लोमड़ी रहती थी. एक दिन वह भूखी-प्यासी भोजन की तलाश में जंगल में भटक रही थी. भटकते-भटकते सुबह से शाम हो गई, लेकिन उसे कोई शिकार न मिला. 

शाम होते-होते वह जंगल के पास के एक गाँव में पहुँच गई. वहाँ उसे एक खेत दिखाई पड़ा. भूखी लोमड़ी खेत में घुस गई. वहाँ एक ऊँचे पेड़ पर अंगूर की बेल लिपटी हुई थी, जिसमें रसीले अंगूर के गुच्छे लगे हुए थे.

अंगूर देखते ही लोमड़ी के मुँह से लार टपकने लगी. वह उन रस भरे अंगूरों को खाकर अपनी भूख मिटाना चाहती थी. उसने अंगूर के एक गुच्छे को देखा और जोर से उछली. ऊँची डाली पर लिपटी अंगूर की बेल पर लटका अंगूर का गुच्छा उसकी पहुँच के बाहर था. वह उस तक पहुँच नहीं पाई.

उसने सोचा क्यों न एक बार और कोशिश की जाए. इस बार वह थोड़ा और ज़ोर लगाकर उछली. लेकिन इस बार भी अंगूर तक पहुँच नहीं पाई. कुछ देर तक वह उछल-उछल कर अंगूर तक पहुँचने की कोशिश करती रही. लेकिन दिन भर की जंगल में भटकी थकी हुई भूखी-प्यासी लोमड़ी आखिर कितनी कोशिश करती?

वह थककर पेड़ के नीचे बैठ गई और ललचाई नज़रों से अंगूर को देखने लगी. वह समझ कई कि अंगूर तक पहुँचना उसने बस के बाहर है. इसलिए कुछ देर अंगूरों को ताकने के बाद वह उठी और वहाँ से जाने लगी.

वह अंगूर खाने का विचार त्याग चुकी थी. पास ही एक पेड़ पर बैठा बंदर उसे बहुत देर से देख रहा था. उसे जाते हुए देख वह खुद को रोक नहीं पाया और पूछ बैठा, “क्या हुआ लोमड़ी बहन? वापस क्यों जा रही हो? अंगूर नहीं खाओगी?”

लोमड़ी रुकी और बंदर को देखकर फीकी मुस्कान से साथ बोली, “नहीं बंदर भाई. मैं ऐसे अंगूर नहीं खाती. ये तो खट्टे हैं.”

सीख (Moral Of The Story)

जब हम किसी चीज़ को प्राप्त नहीं कर पाते, तो अपनी कमजोरियाँ को छुपाने उस चीज़ में ही कमियाँ निकालने लग जाते हैं. जबकि  हमें अपनी कमजोरियों को पहचान कर उसे दूर करना चाहिए और सूझ-बूझ से काम लेकर तब तक कोशिश करनी चाहिए, जब तक हम सफल न हो जायें. दूसरों पर दोष मढ़ने से जीवन में कुछ हासिल नहीं होता. हासिल होता है : कड़े परिश्रम और प्रयासों से.

कछुआ और खरगोश की कहानी

एक जंगल में एक मनमौजी खरगोश रहता था. वह दिन भर जंगल में कूदता-फांदता, खेलता और दौड़ता रहता था. वह इतना तेज दौड़ता था कि जंगल का कोई भी जानवर उसकी बराबरी नहीं कर पाता था. इस बात पर उसे बड़ा घमंड था.

वह अक्सर जंगल के जानवरों को अपने साथ दौड़ लगाने की चुनौती देता और उन्हें हराकर बहुत खुश होता था. धीरे-धीरे उसका घमंड उसके सिर चढ़कर बोलने लगा. वह जिस भी जानवर को दौड़ में हराता, उस पर ख़ूब हँसता और उसका खूब मज़ाक उड़ाता था. जंगल के जानवरों को खरगोश का ये व्यवहार बहुत बुरा लगता था, वे उससे कुछ कहते, तो वह बोलता, “पहले मुझे दौड़ में हराकर दिखाओ, फिर कुछ कहना.”

एक दिन खरगोश ने एक कछुए को देखा, जो अपनी धीमी चाल में कहीं जा रहा था. उसे देख वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा.

उसे हँसता देख कछुए ने पूछा, “खरगोश भाई, क्यों हँस रहे हो?”

खरगोश बोला, “तुम्हें देखकर हँस रहा हूँ. तुम कितने सुस्त हो और तुम्हारी चाल तुमसे भी सुस्त. मुझे देखो, मुझ जैसा तेज दौड़ने वाला कोई जानवर इस जंगल में नहीं.”

“तुम्हें खुद पर इतना घमंड नहीं करना चाहिए. हर किसी का घमंड कभी ना कभी टूट जाता है. तुम्हारा भी टूट जाएगा.” कछुआ उसे समझाते हुए बोला.

“इस जंगल में मैं सबसे तेज दौड़ने वाला जानवर हूँ, तो मुझे इस बात का घमंड क्यों ना हो? और कौन मेरा घमंड तोड़ेगा, तुम?” खरगोश बोला.

“हाँ मैं, मैं तुम्हारा घमंड तोडूंगा.” कछुए के कह दिया.

“ऐसी बात है, तो इस कल मेरे साथ दौड़ लगाओ. देखें कौन जीतता है?” खरगोश कछुए को चुनौती देता हुआ बोला.

कछुए ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली. अगले दिन सुबह दोनों के बीच दौड़ की प्रतियोगिता रखी गई. जंगल के सारे जानवर दौड़ देखने आये. सबको पता था कि खरगोश ही दौड़ जीतेगा, लेकिन फिर भी सबमें उत्सुकता बनी हुई थी.

कछुए और खरगोश को जंगल की नदी तक दौड़ लगाना था. दोनों दौड़ के लिए तैयार हो गए. रेफ़री बंदर ने सीटी बजाई और दोनों दौड़ने लगे. कछुए ने एक कदम बढ़ाया, वहीं खरगोश इतनी तेज दौड़ा कि सबके नज़रों से ओझल हो गया.

खरगोश तेजी से दौड़ता जा रहा था, वहीं कछुआ धीमी चाल से आगे बढ़ता जा रहा था. नदी के काफ़ी पास पहुँच जाने पर खरगोश ने यह जानने के लिए पलटकर देखा कि कछुआ कहाँ तक पहुँचा है. उसे कछुआ दूर-दूर तक नज़र नहीं आया.

हँसते हुए वह सोचने लगा कि इस कछुए को नदी तक पहुँचने में तो शाम हो जायेगी. ऐसा करता हूँ, कुछ देर सुस्ता लेता हूँ.

वह एक पेड़ के नीचे सुस्ताने करने लगा. कब उसकी आँख लग गई, उसे पता ही नहीं चला और वह गहरी नींद में सो गया.

उधर कछुआ धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया. कई जानवरों ने उसे समझाया कि खरगोश तो बहुत आगे पहुँच चुका है, अब दौड़ने का कोई फायदा नहीं. लेकिन कछुआ नहीं माना. वह बोला, “जब चुनौती ली है, तो मैं पूरी कोशिश करूंगा.”  

कछुआ आगे बढ़ता-बढ़ता उसी पेड़ के पास से गुज़रा, जहाँ खरगोश खर्राटे मारकर सो रहा था. उसे देख कछुआ मुस्कुराया और आगे बढ़ गया. वह बिना रुके लगातार आगे बढ़ता रहा और नदी तक पहुँच गया. कछुआ दौड़ जीत चुका था और खरगोश अब तक सो रहा था. सब जानवर कछुए की जीत पर खुश थे, वे उसे बधाई देने लगे, उसके लिए ज़ोर-ज़ोर ताली बजाने लगे. ताली की आवाज़ जब खरगोश के कानों में पड़ी, तब उसकी नींद टूटी. वह भागता हुआ नदी के पास पहुँचा. देखा, कछुए वहाँ पहले ही पहुँच चुका है. वह पछताने लगा. उसका घमंड टूट गया था. उसने प्रण किया कि वह कभी घमंड नहीं करेगा, कभी किसी का मज़ाक नहीं उड़ाएगा और कोई काम शुरू करने के बाद उसे पूरा किये बगैर नहीं रुकेगा.

सीख (Moral of the story)

  • कभी घमंड मत करो, घमंड कभी न कभी ज़रूर टूटता है.
  • कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती. बिना रुके मेहनत से अपना कार्य करते रहो, सफ़लता अवश्य मिलेगी.

             मूर्ख भालू की कहानी 

एक जंगल में एक लालची भालू रहता था. वह हर समय ज्यादा की तलाश में रहता था. थोड़े से वह कभी संतुष्ट नहीं होता है. एक दोपहर जब वह सोकर उठा, तो उसे ज़ोरों की भूख लग आई. वह भोजन की तलाश में निकल पड़ा.

उस दिन मौसम साफ़ था. सुनहरी धूप खिली हुई थी. भालू ने सोचा, “कितना अच्छा मौसम है. इस मौसम में तो मुझे मछली पकड़नी चाहिए. चलो, आज मछली की ही दावत की जाए.”

ये सोचकर उसने नदी की राह पकड़ ली. नदी किनारे पहुँचकर भालू ने सोचा कि एक बड़ी मछली हाथ लग जाये, तो मज़ा आ जाये. उसने पूरी उम्मीद से नदी में हाथ डाला और एक मछली उसके हाथ आ गई. वह बहुत ख़ुश हुआ. लेकिन, जब उसने हाथ नदी से बाहर निकला, तो देखा कि हाथ लगी मछली छोटी सी है.

वह बहुत निराश हुआ. अरे इससे मेरा क्या होगा? बड़ी मछली हाथ लगे, तो बात बने. उसने वह छोटी मछली वापस नदी में फ़ेंक दी और फिर से मछली पकड़ने तैयार हो गया.

कुछ देर बाद उसने फिर से नदी में हाथ डाला और उसके हाथ फिर से एक मछली लग गई. लेकिन, वह मछली भी छोटी थी. उसने वह मछली भी यह सोचकर नदी में फेंक दी कि इस छोटी सी मछली से मेरा पेट नहीं भर पायेगा.

वह बार-बार नदी में हाथ डालकर मछली पकड़ता और हर बार उसके हाथ छोटी मछली लगती. वह बड़ी की आशा में छोटी मछली वापस नदी में फेंक देता. ऐसा करते-करते शाम हो गई और उसके हाथ एक भी बड़ी मछली नहीं लगी.

भूख के मारे उसका बुरा हाल हो गया. वह सोचने लगा कि बड़ी मछली के लिए मैंने कितनी सारी छोटी मछलियाँ फेंक दी. उतनी छोटी मछलियाँ एक बड़ी मछली के बराबर हो सकती थी और मेरा पेट भर सकता था.

सीख (Moral of the story)

“आपके पास जो है, उसका महत्व समझें. भले ही वह छोटी सही, लेकिन कुछ न होने से बेहतर है.”   

दो बिल्लियों और बंदर की कहानी 

दो बिल्लियों की आपस में अच्छी दोस्ती थी. वे सारा दिन एक-दूसरे के साथ खेलती, ढेर सारी बातें करती और साथ ही भोजन की तलाश करती थी.

एक दिन दोनों भोजन की तलाश में निकली. बहुत देर इधर-उधर भटकने के बाद उनकी नज़र रास्ते पर पड़ी एक रोटी पर पड़ी. एक बिल्ली ने झट से रोटी उठा ली और मुँह में डालने लगी.

तब दूसरी बिल्ली उसे टोककर बोली, “अरे, तुम अकेले कैसे इस रोटी को खा रही हो? हम दोनों ने साथ में इस रोटी को देखा था. इसलिए हमें इसे बांटकर खाना चाहिए.”

पहली बिल्ली ने रोटी तोड़कर दूसरी बिल्ली को दिया, लेकिन वह टुकड़ा छोटा था. यह देख उसे बुरा लगा और वह बोली, “अरे, ये टुकड़ा तो छोटा है. तुम्हें रोटी के बराबर टुकड़े करने चाहिए थे. तुम मेरे साथ बेइमानी कर रही हो.“

इस बात पर दोनों में बहस होने लगी. बहस इतनी बढ़ी कि दोनों लड़ने लगी. उसी समय वहाँ से एक बंदर गुजरा. उन्हें लड़ते हुए देख उसने कारण पूछा. बिल्लियों ने उसे सब कुछ बता दिया.

सारी बात जानकर बंदर बोला, “अरे इतनी सी बात पर तुम दोनों झगड़ रही हो. मेरे पास एक तराजू है. यदि तुम दोनों चाहो, तो मैं ये रोटी तुम दोनों में बराबर-बराबर सकता हूँ.”

बिल्लियाँ तैयार हो गई. बंदर एक तराजू लेकर आ गया. उसने बिल्लियों से रोटी ली और उसे तोड़कर तराजू ने दोनों पलड़े पर रखकर तौलने लगा. भूखी बिल्लियाँ उसे आस भरी नज़रों से देखने लगी.

तराजू के पलड़े पर रखी रोटी के टुकड़े में से एक टुकड़ा बड़ा और एक टुकड़ा छोटा था, जिससे पलड़ा एक तरफ़ झुक गया. तब बंदर बोला, “अरे ये क्या एक टुकड़ा दूसरे से बड़ा है. चलो मैं इसे बराबर कर देता हूँ.” उसने रोटी के बड़े टुकड़े को थोड़ा सा तोड़ा और अपने मुँह में डाल लिया.

अब दूसरा टुकड़ा पहले से बड़ा हो गया. बंदर ने अब उसे थोड़ा सा तोड़ा और अपने मुँह में डाल लिया. फिर तो यही सिलसिला चल पड़ा. रोटी को जो टुकड़ा बड़ा होता, वो बराबर करने बंदर उसे तोड़कर खा जाता.

ऐसा करते-करते रोटी के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े रह गये. अब बिल्लियाँ घबरा गई. उन्हें लगने लगा कि ऐसे में तो उनके हिस्से कुछ भी नहीं आयेगा. वे बोली, “बंदर भाई, तुम भी क्या परेशान होते हो. लाओ अब हम इसे ख़ुद ही आपस में बांट लेंगी.”

बंदर बोला, “ठीक है. लेकिन अब तक जो मैंने मेहनत की है, उसका मेहताना तो लगेगा ना. इसलिए रोटी के ये टुकड़े मेरे.” और उसने रोटी के शेष टुकड़े अपने मुँह में डाल लिए और चलता बना.

बिल्लियाँ उसे देखती रह गई. उन्हें अपनी गलती का अहसास हो चुका था. वे समझ गई कि उनकी आपसी फूट का लाभ उठाकर बंदर उन्हें मूर्ख बना गया. उसी समय उन्होंने निर्णय लिया कि अब कभी झगड़ा नहीं करेंगी और प्रेम से रहेंगी.

सीख (Moral of the story) 

“मिलजुलकर रहे. अन्यथा, आपसी फूट का फ़ायदा कोई तीसरा उठा लेगा.”

बिल्ली के गले में घंटी कहानी 

एक शहर में एक बहुत बड़ा मकान था. उस मकान में चूहों ने डेरा जमा रखा था. जब भी मौका मिलता वे अपने-अपने बिलों से निकलते और कभी खाने की चीज़ों पर अपना हाथ साफ़ करते, तो कभी घर की अन्य चीज़ें कुतर देते. उनका जीवन बड़े मज़े से बीत रहा था.

इधर मकान मालिक चूहों से तंग आ चुका था. इसलिए वह एक बड़ी सी बिल्ली ले आया. अब वह बिल्ली उसी घर में रहने लगी. बिल्ली के आने से चूहों का जीना हराम हो गया. जो भी चूहा बिल से निकलता, वह उसे चट कर जाती.

चूहों का बिलों से निकलना मुश्किल हो गया. वे डर के मारे बिल में ही घुसे रहते. बिल्ली उनके लिए एक बहुत बड़ी समस्या बन गई थी.  इसलिए एक दिन चूहों की सभा बुलाई गई.

सभा में सभी चूहे उपस्थित हुए. लीडर चूहे ने कहा, “साथियों, आप सब जानते ही हैं कि हम लोग बिल्ली हमारे लिए आफत बन गई है. वह रोज़ हमारे किसी न किसी साथी को मारकर खा जाती है. बिलों से निकलना मुश्किल हो गया है. लेकिन हम कब तक बिल में छुपकर रहेंगे. भोजन की खोज में हमें बिल से बाहर निकलना ही होगा. यह सभा इसलिए बुलाई ई है, ताकि इस समस्या को हल किया जा सके. आप एक-एक कर अपने सुझाव दे सकते हैं.”

एक-एक कर सभी चूहों से इस सुझाव दिए. अंत में एक चूहा उठा और चहकते हुए बोला, “मेरी दिमाग में अभी-अभी एक बहुत ही बढ़िया उपाय आया है. क्यों न हम बिल्ली के गले में एक घंटी बांध दें? बिल्ली जब भी आस-पास होगी, घंटी की आवाज़ से हमें पता चल जायेगा और हम वहाँ से भाग जायेंगे. कहो कैसा लगा उपाय?”  

सारे चूहों को ये उपाय बहुत पसंद आया. वे ख़ुशी में नाचने और झूमने लगे.

तभी एक बूढ़ा और अनुभवी चूहा खड़ा हुआ और बोला, “मूर्खों, नाचना-गाना बंद करो और ज़रा ये तो बताओ कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा?”

ये सुनना था कि चूहों का नाचना-गाना बंद हो गया. बिल्ली के गले में घंटी बांधना अपनी जान से हाथ धोना था. कोई इसके लिए तैयार नहीं हुआ. सब चुप गए. तभी उन्हें बिल्ली के कदमों की आहट सुनाई पड़ी और फिर क्या था? सब सिर पर पैर रखकर अपने-अपने बिलों की ओर भाग खड़े हुए.

सीख (Moral of the story)

“योजना बनाने का कोई  लाभ नहीं, यदि उसे लागू न किया जा सके.”

चरवाहा बालक और भेड़िया की कहानी 

एक गाँव में एक चरवाहा बालक रहता था. वह रोज़ अपनी भेड़ों को लेकर जंगल के पास घास के मैदानों में जाता. वहाँ वह भेड़ों को चरने के छोड़ देता और ख़ुद एक पेड़ के नीचे बैठकर उन पर निगाह रखता. उसकी यही दिनचर्या थी.

दिन भर पेड़ के नीचे बैठे-बैठे उसका समय बड़ी मुश्किल से कटता था. उसे बोरियत महसूस होती थी. वह सोचता कि काश मेरे जीवन में भी कुछ मज़ा आ जाये.

एक दिन भेड़ों को चराते हुए उसे मज़ाक सूझा और वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा, “भेड़िया आया भेड़िया आया.”

वहाँ से कुछ दूरी पर खेतों में कुछ किसान काम कर रहे थे. चरवाहे बालक की आवाज़ सुनकर वे अपना काम छोड़ उसकी मदद के लिए दौड़े चले आये. लेकिन जैसे ही वे उसके पास पहुँचे, वह जोर-जोर से हँसने लगा.

किसान बहुत गुस्सा हुए. उसे डांटा और चेतावनी दी कि आज के बाद ऐसा मज़ाक मत करना. फिर वे अपने-अपने खेतों में लौट गए.

चरवाहे बालक को गाँव के किसानों को भागते हुए अपने पास आता देखने में बड़ा मज़ा आया. उसके उनकी चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया. अगले दिन उसे फिर से मसखरी सूझी और वह फिर से चिल्लाने लगा, “भेड़िया आया भेड़िया आया.”

खेत में काम कर रहे किसान फिर से दौड़े चले आये, जिन्हें देखकर चरवाहा बालक फिर से जोर-जोर से हंसने लगा. किसानों ने उसे फिर से डांटा और चेतावनी दी. लेकिन उस पर इसका कोई असर नहीं हुआ. उसके बाद जब-तब वह किसानों को इसी तरह ‘भेड़िया आया भेड़िया आया’ कहकर बुलाता रहा. बालक को कोई खतरा तो नहीं, ये सोचकर किसान भी आते रहे. लेकिन वे उसकी इस शरारत से बहुत परेशान होने लगे थे.

एक दिन चरवाहा बालक पेड़ की छाया में बैठकर बांसुरी बजा रहा था कि सच में एक भेड़िया वहाँ आ गया. वह मदद के लिए चिल्लाने लगा, “भेड़िया आया भेड़िया आया.”

लेकिन इस बार किसानों ने सोचा कि आज भी ये बालक उन्हें परेशान कर रहा है. इसलिए वे उसकी मदद करने नहीं गए. भेड़िया उसकी कुछ भेड़ों को मारकर खा गया.

चरवाहा बालक दौड़ते हुए खेत में काम कर रहे किसानों के पास पहुँचा और रोने लगा, “आज सचमुच भेड़िया आया था. वह मेरी कुछ भेड़ों को मारकर खा गया.”

किसान बोले, “तुम रोज़ हमारे साथ शरारत करते हो. हमें लगा कि आज भी तुम्हारा इरादा वही है. तुम हमारा भरोसा खो चुके थे. इसलिए हममें से कोई तुम्हारी मदद के लिए नहीं आया.”

चरवाहे बालक को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने प्रण लिया कि वह फिर कभी झूठ नहीं बोलेगा और दूसरों को परेशान नहीं करेगा.

सीख (Moral of the story)

“बार-बार झूठ बोलने  वालों पर कोई विश्वास नहीं करता. किसी का विश्वास जीतना है, तो हमेशा सच बोलो.”

लोभी राजा मिदास की कहानी

एक राज्य में मिदास (Midas) नामक एक लोभी राजा राज करता था. उसकी ‘मेरीगोल्ड’ नाम की बेटी थी, जिसे वो बहुत प्यार करता था.

मिदास के ख़जाने में ढेर सारा सोना था. इतना सोना दुनिया में किसी भी राजा के ख़जाने में नहीं था. फिर भी उसके खजाने में जितना सोना बढ़ता जाता, उसका लालच भी उतना ही बढ़ता जाता. वह पूरे दिन खजाने में रखे सोने को गिनता रहता था. इस कारण ना वह राज-पाट में ध्यान देता, न ही अपनी बेटी मेरीगोल्ड पर.  

दिन पर दिन उसका सोने के लिए लालच बढ़ता जा रहा था. और अधिक सोना पाने के लिए एक बार वह उपवास रखकर भगवान की कठोर प्रार्थना करने लगा. प्रसन्न होकर भगवान ने उसे दर्शन दिये और मनचाहा वरदान मांगने को कहा.

मिदास बोला, ”हे प्रभु! मुझे वरदान दीजिये कि मैं जिस भी वस्तु हो छुऊं, वह सोने की बन जाये.”

भगवान ने मिदास के मन के अंदर का लोभ देख लिया था. इसलिए वरदान देने के पहले उन्होंने पूछा, “पुत्र! यह वरदान तुम अच्छी तरह सोच-समझ कर मांग रहे हो ना?”

“हे प्रभु! मैं दुनिया का सबसे धनी राजा बनना चाहता हूँ. मैंने अच्छी तरह सोच लिया है. मुझे यही वरदान चाहिए. कृपया मुझे वरदान प्रदान कीजिये.” मिदास ने उत्तर दिया.

“तथास्तु! मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि कल सूर्य की पहली किरण के साथ तुम जिस भी वस्तु को छुओगे, वह सोने की बन जायेगी.” आशीर्वाद देने के बाद भगवान अंतर्ध्यान हो गए.

राजा मिदास यह वरदान पाकर खुशी से फूला नहीं समाया. दूसरे दिन सोकर उठने के उपरांत अपनी शक्ति को परखने के लिए उसने अपने पलंग को छूकर देखा. पलंग सोने का बन गया. वह बहुत खुश हुआ. दिन भर वह महल में घूम-घूमकर हर चीज़ को सोने में बदलने में लगा रहा. 

शाम तक वह थककर चूर हो चुका था. उसे जोरों की भूख लग आई थी. उसने अपने सेवकों को भोजन परोसने के लिये कहा. भोजन परोसा गया. किंतु जैसे ही उसने भोजन को हाथ लगाया, वह सोने में बदल गया. सोने को राजा कैसे खाता? भूख मिटाने के लिए उसने सेवक से फल लाने को कहा. सेवक ने सेब लाकर दिया. किंतु, जैसे ही मिदास ने सेब को छुआ, वह भी सोने का हो गया. यह देख उसे बहुत गुस्सा आया और वह उठकर महल के बगीचे में चला आया.

बगीचे में उसकी बेटी ‘मेरीगोल्ड’ खेल रही है. जब ‘मेरीगोल्ड’ ने अपने पिता को देखा, तो वह उसके पास दौड़ी चली आई और उसके गले लग गई. मिदास ने प्यार जताते हुए जैसे ही उसके सिर पर हाथ फेरा, वह सोने में बदल गई. अपनी बेटी को सोने का बना देख मिदास दु:खी हो गया और रोने लगा.

उसने फिर से भगवान से प्रार्थना की. प्रार्थना सुनकर भगवान प्रकट हुए और उससे पूछा, “राजन! क्या हुआ? अब तुम्हें क्या वरदान चाहिए?”

मिदास रो-रोकर कहने लगा, “भगवन! मुझे क्षमा करें. सोने के लोभ में मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी और मैं यह वरदान मांग बैठा था. लेकिन मेरे इस लोभ के कारण मेरी बेटी सोने में बदल गई है. मुझे मेरी बेटी वापस चाहिए. भगवन, यह वरदान वापस ले लें और मुझे मेरी पुत्री लौटा दें. मेरी आँखें खुल गई है. अब मुझमें सोने का कोई लालच नहीं. मैं अपना खजाना गरीबों और ज़रूरतमंदों के लिए खोल दूंगा.”

भगवान ने जब उसे पछताते हुए देखा, तो अपना वरदान वापस ले लिया. दूसरे दिन सूर्य की पहली किरण के साथ सारी वस्तुएं अपने असली  रूप में आने लगी. मेरीगोल्ड भी अपने असली रूप में वापस आ गई. राजा मिदास ने अपने अपना खजाना गरीबों और ज़रूरतमंदों के लिए खोल दिया. उसका लालच ख़त्म हो चुका था.  वह अपनी बेटी के साथ ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगा.

सीख  (Moral of the story)

“लोभ का परिणाम बुरा होता है.”

मेंढक और चूहा की कहानी

एक समय की बात है. एक जलाशय में एक मेंढक रहता था. उसके कोई मित्र नहीं थे, इसलिए वह बहुत उदास रहा करता था. वह हमेशा भगवान से एक अच्छा मित्र भेजने की प्रार्थना करता, ताकि उसकी उदासी और अकेलापन दूर हो सके.

उस जलाशय के पास ही एक पेड़ के नीचे बिल में एक चूहा रहता था. वह बहुत ही हँसमुख स्वभाव का था. एक दिन मेंढक को देखकर वह उसके पास गया और बोला, “मित्र, कैसे हो तुम?”

मेंढक उदास स्वर में बोला, “मैं अकेला हूँ. मेरे कोई मित्र नहीं. इसलिए बहुत दु:खी हूँ.”

“उदास मत हो. मैं हूँ ना. मैं तुम्हारा मित्र बनूंगा. जब भी तुम मेरे साथ समय बिताना चाहो, मेरे बिल में आ सकते हो.” चूहे ने प्रस्ताव रखा.

चूहे की बात सुनकर मेंढक बड़ा प्रसन्न हुआ. उस दिन के बाद दोनों बहुत अच्छे मित्र बन गए. वे दोनों जलाशय के किनारे कई घंटे गपशप करते. अब मेंढक खुश रहने लगा था.

एक दिन मेंढक को एक उपाय सूझा और उसने चूहे से कहा, “क्यों न हम दोनों रस्सी के दोनों छोर अपने पैरों से बांध लें. जब भी मुझे तुम्हारी याद आयेगी, मैं रस्सी को खीचूंगा और तुम्हें पता चल जायेगा.”

चूहा राज़ी हो गया. उन्होंने एक रस्सी ढूंढी और उसके छोर अपने-अपने पैरों से बांध लिये.

आकाश में मंडराता बाज़ यह सब देख रहा था. चूहे को अपना शिकार बनाने के लिए उसने उस पर झपट्टा मारा. यह देख मेंढक भयभीत हो गया और अपना जीवन बचाने के लिए जलाशय में छलांग लगा दी. किंतु जल्दी में वह भूल गया कि रस्सी का दूसरा सिरा अब भी उसके मित्र चूहे के पैर में बंधा हुआ है. चूहा भी पानी में खिंचा चला गया और डूब कर मर गया.

कुछ दिनों बाद चूहे का शव जलाशय की सतह पर तैरने लगा. बाज़ अब भी आकाश में मंडरा रहा था. उसने फिर से झपट्टा मारा और पानी में बहते हुए चूहे के शव को अपने पंजों में पकड़कर ले उड़ा. मेंढक भी साथ में चला गया क्योंकि रस्सी का एक सिरा अब भी उसके पैर में बंधा हुआ था.

सीख (Moral of the story) 

मूर्ख से कभी भी दोस्ती नहीं करनी चाहिए.   

शेर और बंदर की कहानी

एक जंगल में एक शेर रहता था. वह जंगल का राजा था और बड़ा बलशाली था. सारे जानवर भय के कारण उसका गुणगान किया करते थे. उसी जंगल में एक बुद्धिमान बंदर रहता था. वो शेर से डरता नहीं था और व्यर्थ में उसका गुणगान नहीं करता था. शेर की यह बात बुरी लगती थी. एक बार उसने बंदर को बुलाया और कहा, “जंगल के सारे जानवर मेरी प्रशंसा करते हैं, तुम नहीं? ऐसा क्यों?’

“मैं किस बात पर आपकी प्रशंसा करूं?” बंदर ने पूछा.

“मैं बलशाली हूँ. जंगल के सारे जानवर मुझसे डरते हैं.” शेर ने उत्तर दिया.

“वनराज! मैं बल को नहीं बुद्धि को श्रेष्ठ मानता हूँ. इसलिए मात्र बल के कारण मैं आपका गुणगान नहीं करूंगा.” बंदर बोला.

यह बात शेर को बुरी लगी और दोनों में विवाद हो गया. विवाद का विषय था – ‘बुद्धि श्रेष्ठ है या बल’ (Wisdom Is Better Than Strength).

शेर की दृष्टि में बल श्रेष्ठ था, किंतु बंदर की दृष्टि में बुद्धि. दोनों के अपने-अपने तर्क थे. अपने तर्क देकर वे एक-दूसरे के सामने स्वयं को सही सिद्ध करने में लग गये.

बंदर बोला, “शेर महाराज, बुद्धि ही श्रेष्ठ है. बुद्धि से संसार का हर कार्य संभव है, चाहे वह कितना ही कठिन क्यों न हो? बुद्धि से हर समस्या का निदान संभव है, चाहे वह कितनी ही विकट क्यों न हो? मैं बुद्धिमान हूँ और अपनी बुद्धि का प्रयोग कर किसी भी मुसीबत से आसानी से निकल सकता हूँ. कृपया यह बात मान लीजिये.”

बंदर का तर्क सुन शेर भड़क गया और बोला, “चुपकर बंदर, तू बल और बुद्धि की तुलना कर बुद्धि को श्रेष्ठ बता रहा है. बल के आगे किसी का ज़ोर नहीं चलता. मैं बलवान हूँ और तेरी बुद्धि मेरे बल के सामने कुछ भी नहीं. मैं चाहूं, तो इसी क्षण इसका प्रयोग कर तेरे प्राण ले सकता हूँ.”

बंदर कुछ क्षण शांत रहा और बोला, “महाराज, मैं अभी तो जा रहा हूँ. किंतु मेरा यही मानना है कि बुद्धिं बल से श्रेष्ठ है. एक दिन मैं आपको ये प्रमाणित करके दिखाऊंगा. मैं अपनी बुद्धि से बल को हरा दूंगा.”

“मैं उस दिन की प्रतीक्षा करूंगा, जब तुम ऐसा कर दिखाओगे. उस दिन मैं अवश्य तुम्हारी इस बात को स्वीकार करूंगा कि बुद्धि बल से श्रेष्ठ है. किंतु, तब तक कतई नहीं.” शेर ने उत्तर दिया.

इस बात को कई दिन बीत गए. बंदर और शेर का आमना-सामना भी नहीं हुआ.

एक दिन शेर जंगल में शिकार कर अपनी गुफ़ा की ओर लौट रहा था. अचानक वह पत्तों से ढके एक गड्ढे में जा गिरा. उसके पैर में चोट लग गई. किसी तरह  वह गड्ढे से बाहर निकला, तो पाया कि एक शिकारी उसके सामने बंदूक ताने खड़ा है. शेर घायल था. ऐसी अवस्था में वह शिकारी का सामना करने में असमर्थ था.

तभी अचानक कहीं से शिकारी पर पत्थर बरसने लगे. शिकारी हड़बड़ा गया. इसके पहले कि वो कुछ समझ पाता, एक पत्थर उसके सिर पर आकर पड़ा. वह दर्द से तिलमिला उठा और अपने प्राण बचाने वहाँ से भाग गया.

शेर भी चकित था कि शिकारी पर पत्थरों से हमला किसने किया और किसने उसके प्राणों की रक्षा की. वह इधर-उधर देखते हुए ये सोच ही रहा था कि सामने एक पेड़ पर बैठे बंदर की आवाज़ उसे सुनाई दी, “महाराज, आज आपके बल को क्या हुआ? इतने बलवान होते हुए भी आज आपकी जान पर बन आई.”

बंदर को देख शेर ने पूछा, “तुम यहाँ कैसे?”

“महाराज, कई दिनों से मेरी उस शिकारी पर नज़र थी. एक दिन मैंने उसे गड्ढा खोदते हुए देखा, तो समझ गया था कि वह आपका शिकार करने की फ़िराक में है. इसलिए मैंने थोड़ी बुद्धि लड़ाई और ढेर सारे पत्थर इस पेड़ पर एकत्रित कर लिए, ताकि आवश्यकता पड़ने पर इनका प्रयोग शिकारी के विरुद्ध कर सकूं.”

बंदर ने शेर के प्राणों की रक्षा की थी. वह उसके प्रति कृतज्ञ था. उसने उसे धन्यवाद दिया. उसे अपने और बंदर में मध्य हुआ विवाद भी स्मरण हो आया. वह बोला, “बंदर भाई, आज तुमने सिद्ध कर दिया कि बुद्धि बल से श्रेष्ठ होती है. मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया है. मैं समझ गया हूँ कि बल हर समय और हर परिस्थिति में एक सा नहीं रहता, लेकिन बुद्धि हर समय और हर परिस्थिति में साथ रहती है.”

बंदर ने उत्तर दिया, “महाराज, मुझे प्रसन्नता है कि आप इस बात को समझ गए. आज की घटना पर ध्यान दीजिये. शिकारी आपसे बल में कम था, किंतु बावजूद इसके उसने अपनी बुद्धि से आप पर नियंत्रण पा लिया. उसी प्रकार मैं शिकारी से बल में कम था, किंतु बुद्धि का प्रयोग कर मैंने उसे डराकर भगा दिया. इसलिए हर कहते हैं कि बुद्धि बल से कहीं श्रेष्ठ है.”

सीख 

बुद्धि का प्रयोग कर हर समस्या का निराकरण किया जा सकता है. इसलिए बुद्धि को कभी कमतर न समझें. 

बंदर और डॉल्फिन की कहानी 

एक बार कुछ समुद्री नाविक एक बड़े जहाज में समुद्री यात्रा पर निकले. उनमें से एक नाविक के पास एक पालतू बंदर था. उसने उसे भी अपने साथ जहाज पर रख लिया.

यात्रा प्रारंभ हुई. जहाज कुछ दिन की यात्रा के बाद समुद्र के बीचों-बीच पहुँच गया. गंतव्य तक पहुँचने के लिए नाविकों को अभी भी कई दिनों की यात्रा करनी थी.

इतने दिनों तक मौसम नाविकों के लिए अच्छा रहा था. लेकिन एक दिन समुद्र में भयंकर तूफ़ान आ गया. तूफ़ान इतना तेज था कि नाविकों का जहाज टूट गया. नाविकों के जहाज को बचाने की बहुत कोशिश की, लेकिन अंततः जहाज पलट गया.

नाविक अपनी जान बचाने के लिए समुद्र में तैरने लगे. बंदर भी पानी में जा गिरा था. उसे तैरना नहीं आता था. वह डूबने लगा और उसे अपनी मौत सामने नज़र आने लगी. वह अपनी जान बचने के लिए चीख-पुकार मचाने लगा.

उसी समय एक डॉल्फिन वहाँ से गुजरी. उसने बंदर को डूबते हुए देखा, तो उसके पास गई और उसे अपनी पीठ में बिठा लिया. वह बंदर को लेकर एक द्वीप की ओर तैरने लगी. द्वीप पर पहुँचकर डॉल्फिन ने बंदर को अपनी पीठ से उतारा. बंदर की जान में जान आई.

डॉल्फिन ने बंदर से पूछा, “क्या तुम इस स्थान को जानते हो?”

“हाँ बिल्कुल. यहाँ का राजा तो मेरा बहुत अच्छा मित्र है. और तुम जानती हो कि मैं भी एक राजकुमार हूँ.” बंदर की आदत बढ़ा-चढ़ाकर बात करने के थी. वह डॉल्फिन के सामने बड़ी-बड़ी बातें करने लगा.

डॉल्फिन समझ गई कि बंदर अपनी शान बघारने के लिए झूठ बोल रहा है, क्योंकि वह एक निर्जन द्वीप था, जहाँ कोई भी नहीं रहता था.

वह बंदर की बात का उत्तर देती हुई बोली, “ओह! तो तुम एक राजकुमार हो. बहुत अच्छी बात है. लेकिन क्या तुम्हें पता है कि बहुत जल्द तुम इस द्वीप के राजा बनने वाले हो.”

“राजा और मैं? कैसे?” बंदर ने आश्चर्य से पूछा.

“वो इसलिए कि तुम द्वीप पर एकलौते प्राणी हो. इसलिए बड़े आराम से यहाँ के राजा बन सकते हो. मैं जा रही हूँ. अब तुम अपना राज-पाट संभालो.” इतना कहकर डॉल्फिन तैरकर वहाँ से दूर जाने लगी.

बंदर पुकारता रह गया और उसने झूठ और शेखी से नाराज़ डॉल्फिन उसे वहीं छोड़कर चली गई.

सीख 

व्यर्थ की शेखी बघारना मुसीबत को बुलावा देना है.

लालची कुत्ता और हड्डी की कहानी

एक भूखे कुत्ते को गाँव के एक कसाई ने दया कर हड्डी का एक टुकड़ा दे दिया. कुत्ते ने हड्डी का वह टुकड़ा मुँह में दबाया और ख़ुशी-ख़ुशी एकांत तलाशने चल पड़ा. एकांत में वह आराम से तृप्त होने तक हड्डी को चूसकर उसका स्वाद लेना चाहता था.

रास्ते में एक नदी पड़ी. कुत्ता जब नदी के किनारे से गुजरा, तो उसकी दृष्टि नदी के पानी पर दिखाई दे रही अपनी ही परछाई पर पड़ी. मूर्ख कुत्ते ने सोचा कि कोई दूसरा कुत्ता वहाँ मौजूद है, जो उसे घूर रहा है.

अपनी परछाई में उसे अपने मुँह में दबी हड्डी दिखाई दी और वह मूर्खतावश सोचने लगा कि दूसरे कुत्ते के पास भी हड्डी है. वह लालच से भर उठा और उस हड्डी को हथियाने अपना दिमाग लड़ाने लगा.

उसे अपनी शक्ति पर अभिमान था. उसके सोचा कि दूसरे कुत्ते को मैं भौंककर डरा दूंगा और हड्डी छीन लूंगा. अगर ये भौंकने से नहीं डरा, तो लड़ाई में तो मैं इसे हरा ही दूंगा.

उसके बाद वह नदी में दिख रही अपनी ही परछाई पर भौंकने लगा, जिससे उसके मुँह में दबी हड्डी पानी में गिर गई. कुत्ते के देखा कि दूसरे कुत्ते के मुँह में भी अब हड्डी नहीं थी. कुत्ते को अपनी मूर्खता का अहसास हो गया और वह मुँह लटकाकर वहाँ से चला गया. लालच ने उससे वह भी छीन लिया, जो उसके पास था.

सीख 

लालच बुरी बला है.

मेहनती चींटी और आलसी टिड्डा की कहानी

गर्मी का दिन था. सुबह की खिली धूप में एक टिड्डा बड़े मज़े से घास पर फ़ुदक रहा था. वह बड़ा ख़ुश था और उस ख़ुशी में गा रहा था, नाच रहा था और ज़िंदगी के मज़े ले रहा था.

एक ओर जहाँ टिड्डा अपनी मस्ती में लगा हुआ था, वहीं दूसरी ओर एक चींटी अनाज के एक दाने को पीठ पर ढोकर अपने बिल में ले जा रही थी. जब चींटी टिड्डे के पास से गुज़री, तो टिड्डे ने उसे अपने पास बुलाया और कहा, “प्यारी चींटी आओ मज़े करें”

लेकिन चींटी ने मना कर दिया और अपने काम में लगी रही. वह पूरे दिन कड़ी मेहनत कर एक-एककर अनाज का दाना खेत से उठाकर अपने बिल तक ले जाती रही.

अपनी मस्ती में डूबा टिड्डा चींटी को देखता और हँसता. वह बार-बार उसे अपने पास बुलाता और कहता, “प्यारी चींटी, तुम क्यों इतनी मेहनत कर रही हो? आओ, कुछ देर आराम करो, मेरा गाना सुनो. गर्मी के लंबे और उजले दिन है. ऐसे ख़ूबसूरत दिन इस तरह से मेहनत करके हुए क्यों बर्बाद करना?”

चींटी बोली, “मैं ठंड के मौसम के लिए भोजन इकट्ठा कर रही हूँ. मेरी सलाह मानो, तो तुम भी ऐसा ही करो. वरना बाद में पछताओगे.”

“अभी से ठंड के मौसम के बारे में क्यों चिंता करना?” टिड्डा बोला, “मेरे पास पर्याप्त भोजन है और ठंड का मौसम तो अभी बहुत दूर है. उसकी तैयारी करने के लिए बहुत समय है. अभी का समय तो मैं आराम से सोते हुए और मज़े करते हुए बिताना चाहता हूँ. मेरी मानो तो मेहनत छोड़ो और मज़े करो.”

टिड्डे की बात पर ध्यान न देकर चींटी अपने काम में लगी रही. पूरी गर्मी मेहनत कर उसने अपने बिल में ढेर सारा अनाज इकट्ठा कर लिया, जो ठंड के दिनों में उसे काम आने वाला था.

उधर टिड्डा ठंड के मौसम की तैयारी के स्थान पर पूरे दिन नाचता-गाता रहा. अपनी मस्ती में उसे होश ही नहीं रहा कि गर्मी के दिन बहुत लंबे समय तक नहीं रहने वाले हैं. जल्द ही ठंड के दिन और फिर बरसात के दिन आ जायेंगे, जो उस जैसे जीवों के लिए मुश्किल भरे दिन होंगे.

धीरे-धीरे गर्मी चली गई और वसंत का मौसम आ गया. फिर वसंत का मौसम ठंड में तब्दील हो गया. अब तो सूरज बमुश्किल आसमान में नज़र आता. दिन छोटे हो गए और रातें बड़ी हो गई थी. कड़कड़ाती ठंड पड़ने लगी थी और बर्फ़बारी होने लगी थी.

अब टिड्डे को महसूस हुआ कि चींटी सही कह रही थी. उसे भी इस मौसम के लिए पहले से तैयारी करनी चाहिए थी. लेकिन वह तो पूरी गर्मी नाचता-गाता और मज़े करता रहा. अब न उसे गाना गाने का मन कर रहा था, न ही नाचने का. उसका भोजन ख़त्म हो चुका था. वह ठंड और भूख से तड़प रहा था.

उसने सोचा नहीं था कि ठंड इतनी बुरी भी हो सकती है. उसके पास भोजन नहीं था. बर्फ़ से बचने का इंतज़ाम नहीं था. उसे लगने लगा कि जिस गर्मी के मौसम में उसने इतने मज़े किये हैं, शायद अब अगली बार उस मौसम को देखने के लिए वह जिंदा ही न बचे.        

एक दिन भूख से तड़पते हुए बर्फ़ीले मौसम में उसकी नज़र चींटी पर पड़ी, जो अपने बिल में मज़े से आराम कर रही थी. उसके पास पर्याप्त भोजन था और ठंड से बचने के लिए आसरा. टिड्डा पछताने लगा और रोने लगा. उसे समय बर्बाद करने का फ़ल मिल चुका था.

सीख 

समय का सदुपयोग करें, अन्यथा समय हाथ से निकल जाने पर पछतावे के सिवाय कुछ हाथ नहीं आता.

लोमड़ी और अंगूर की कहानी

एक जंगल में एक लोमड़ी रहती थी. एक दिन वह भूखी-प्यासी भोजन की तलाश में जंगल में भटक रही थी. भटकते-भटकते सुबह से शाम हो गई, लेकिन वह शिकार प्राप्त न कर सकी. 

शाम होते-होते वह जंगल के समीप स्थित एक गाँव में पहुँच गई. वहाँ उसे एक खेत दिखाई पड़ा. भूख से बेहाल लोमड़ी खेत में घुस गई. वहाँ एक ऊँचे पेड़ पर अंगूर की बेल लिपटी हुई थी, जिसमें रसीले अंगूर के गुच्छे लगे हुए थे.

अंगूर देखते ही लोमड़ी के मुँह से लार टपकने लगी. वह उन रस भरे अंगूरों को खाकर तृप्त हो जाना चाहती थी. उसने अंगूर के एक गुच्छे पर अपनी दृष्टि जमाई और जोर से उछली. ऊँची डाली पर लिपटी अंगूर की बेल पर लटका अंगूर का गुच्छा उसकी पहुँच के बाहर था. उसका प्रयास व्यर्थ रहा.

उसने सोचा क्यों न एक प्रयास और किया जाए. इस बार वह थोड़ा और ज़ोर लगाकर उछली. लेकिन इस बार भी अंगूर तक पहुँचने में नाकाम रही. कुछ देर तक वह उछल-उछल कर अंगूर तक पहुँचने का प्रयास करती रही. लेकिन दिन भर की जंगल में भटकी थकी हुई भूखी-प्यासी लोमड़ी आखिर कितना प्रयास करती?

वह थककर पेड़ के नीचे बैठ गई और ललचाई नज़रों से अंगूर को देखने लगी. वह समझ कई कि अंगूर तक पहुँचना उसने बस के बाहर है. इसलिए कुछ देर अंगूरों को ताकने के बाद वह उठी और वहाँ से जाने लगी.

वह अंगूर खाने का विचार त्याग चुकी थी. पास ही एक पेड़ पर बैठा बंदर उसे बहुत देर से देख रहा था. उसे जाते हुए देख वह खुद को रोक नहीं पाया और पूछ बैठा, “क्या हुआ लोमड़ी बहन? वापस क्यों जा रही हो? अंगूर नहीं खाओगी?”

लोमड़ी रुकी और बंदर को देखकर फीकी मुस्कान से साथ बोली, “नहीं बंदर भाई. मैं ऐसे अंगूर नहीं खाती. ये तो खट्टे हैं.”

सीख 

जब हम किसी चीज़ को प्राप्त नहीं कर पाते, तो अपनी कमजोरियाँ को छुपाने या अपने प्रयासों की कमी को नज़रंदाज़ करने अक्सर उस चीज़ में ही कमियाँ निकालने लग जाते हैं. जबकि आवश्यकता है, अपनी कमजोरियों को पहचान कर उसे दूर करने की, सूझ-बूझ से काम लेने की और सफ़ल होने तक अनवरत प्रयत्न करते रहने की. दूसरों पर दोष मढ़ने से जीवन में कुछ हासिल नहीं होता. हासिल होता है : कड़े परिश्रम और प्रयासों से.

नन्ही चिड़िया की कहानी

एक समय की बात है. एक घना जंगल था, जिसमें हर तरह के छोटे-बड़े जानवरों और पक्षियों का बसेरा था. उसी जंगल के एक पेड़ पर घोंसला बनाकर एक नन्हीं चिड़िया भी रहा करती थी.

एक दिन उस जंगल में भीषण आग गई. समस्त प्राणियों में हा-हाकार मच गया. सब अपनी जान बचाकर भागने लगे. नन्हीं चिड़िया जिस पेड़ पर रहा करती थी, वह भी आग की चपेट में आ गया था. उसे भी अपना घोंसला छोड़ना पड़ा.

लेकिन वह जंगल की आग देखकर घबराई नहीं. वह तुरंत नदी के पास गई और अपनी चोंच में पानी भरकर जंगल की ओर लौटी. चोंच में भरा पानी आग में पानी छिड़ककर वह फिर नदी की ओर गई. इस तरह नदी से अपनी चोंच में पानी भरकर बार-बार वह जंगल की आग में डालने लगी.

जब बाकी जानवरों ने उसे ऐसा करते देखा, तो हँसने लगे और बोले, “अरे चिड़िया रानी, ये क्या कर रही हो? चोंच भर पानी से जंगल की आग बुझा रही हो. मूर्खता छोड़ो और प्राण बचाकर भागो. जंगल की आग ऐसे नहीं बुझेगी.”

उनकी बातें सुनकर नन्हीं चिड़िया बोली, “तुम लोगों को भागना है, तो भागो. मैं नहीं भागूंगी. ये जंगल मेरा घर है और मैं अपने घर की रक्षा के लिए अपना पूरा प्रयास करूंगी. फिर कोई मेरा साथ दे न दे.”

चिड़िया की बात सुनकर सभी जानवरों के सिर शर्म से झुक गए. उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ. सबने नन्हीं चिड़िया से क्षमा मांगी और फिर उसके साथ जंगल में लगी आग बुझाने के प्रयास में जुट गए. अंततः उनकी मेहनत रंग लाई और जंगल में लगी आग बुझ गई.

सीख 

विपत्ति चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो? बिना प्रयास के कभी हार नहीं मानना चाहिए.

 

छोटी लाल मुर्गी की कहानी

एक खेत में छोटी लाल मुर्गी रहा करती थी। वह बहुत मेहनती थी। उसके घर के पास ही एक कुत्ता, एक बिल्ली और एक बत्तख रहते थे। ये तीनों आलसी थी। इसके बाद भी चारों में अच्छी दोस्ती थी। कई बार कुत्ता, बिल्ली और बत्तख छोटी लाल मुर्गी का फ़ायदा उठाते थे। वह मेहनत करके अपना भोजन तैयार करती और ये तीनों खाने पहुँच जाते। मुर्गी भी दोस्ती के कारण इन्हें कुछ नहीं कहती थी।

एक दिन की बात है। छोटी लाल मुर्गी खेत में घूम रही थी कि उसे मिट्टी में पड़े गेहूं के कुछ बीज दिखाई पड़े, जिसे देखकर वह सोचने लगी – ‘क्यों न मैं इन बीजों को खेत में बो दूं। जब फसल होगी, तो मैं गेहूं पिसवा लूंगी और उसकी रोटी बनाकर मज़े से खाऊंगी।‘

उसे आशा थी कि उसके दोस्त इस काम में उसकी सहायता अवश्य करेंगे। उसने गेंहू के दाने उठा लिये और सबसे पहले कुत्ते के पास पहुँची। उसने कुत्ते से कहा, “दोस्त! देखो मुझे खेत में गेहूं के ये बीज मिले हैं। मैं इसे बोना चाहती हूँ। क्या तुम मेरी सहायता करोगे।”

कुत्ता उस समय आराम कर रहा था। उसने जवाब दिया, “नहीं! ये मेरे सोने का समय है और मुझे ज़ोरों की नींद आ रही हैं। मैं अभी ये काम नहीं कर सकता।”

छोटी लाल मुर्गी बत्तख के पास पहुँची और उससे पूछने लगी, “दोस्त! क्या तुम इन गेंहुओं को बोने में मेरी सहायता करोगी।”

बत्तख बोली, “नहीं! देखो, कितनी धूप है. मैं तो झुलस जाऊंगी. माफ़ करना मैं तुम्हारी सहयता नहीं कर सकती।”

तब छोटी लाल मुर्गी बिल्ली के पास गई और उसे भी गेंहू के बीज दिखाकर पूछा, “दोस्त! कुत्ता और बत्तख तो मेरी सहायता नहीं कर रहे। क्या तुम मेरी सहायता करोगी।”

बिल्ली बोली, “देखो, इस समय तो मैं पड़ोस के घर में दूध पीने जा रही हूँ। इसलिए अभी तो मैं तुम्हारी सहायता कर ही नहीं सकती. दूध नहीं मिला, तो मैं भूखी रह जाऊंगी।”

दु:खी होकर छोटी लाल मुर्गी बोली, “कोई बात नहीं! मैं खुद ही जाकर खेत में इन बीजों को बो देती हूँ।”

वह खेत में गई और कड़ी धूप में दिन भर मेहनत कर शाम तक उसने सारे बीज बो दिये।

समय बीता और खेत में गेंहू की फसल लहलहाने लगी, जिसे देख छोटी लाल मुर्गी बहुत खुश हुई और दौड़कर सबसे पहले कुत्ते के पास पहुँची। उसने कुत्ते से पूछा, “दोस्त! खेत में फसल लहलहा रही है. क्या तुम फसल काटने में मेरी मदद करोगे?”

“नहीं! मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा। मेरी तबियत ज़रा ठीक नहीं।” कुत्ते ने कन्नी काट ली।

छोटी लाल मुर्गी बत्तख के पास पहुँची और उससे सहायता करने के लिए कहा, तो वह बोली, “देख तो रही हो, मैं कितनी छोटी सी हूँ, मैं कैसे खेत में फसल काटूंगी? माफ़ करना, मुझसे न हो पायेगा।“

छोटी लाल मुर्गी बिल्ली के पास पहुँची, जो नहाकर आई थी और धूप में बैठी थी। छोटी लाल मुर्गी ने उससे फसल काटने में सहायता मांगी, तो वह बिदक कर बोली, “नहीं, मैं ये काम नहीं करूंगी। मैं अभी-अभी नहाकर आई हूँ। मैं वहाँ धूल-मिट्टी में गंदी हो जाऊंगी।”

छोटी लाल मुर्गी दु:खी होकर वहाँ से चली गई और सीधे खेत में पहुँची। वहाँ उसने अकेले ही फसल की कटाई की।

अगले दिन उसने सोचा कि क्यों न इन गेंहुओं को मैं पिसवा लूं. आटा रोटी बनाने के काम आ जायेगा।

वह फिर कुत्ते के पास पहुँची और कहने लगी, “दोस्त! चलो ना मेरे साथ आटा चक्की तक. मुझे इन गेंहुओं को पिसवाना है।“

“ऐसे काम के लिए मुझसे ना कहा करो। मैं इन सब कामों के लिए नहीं हूँ।“ कुत्ते ने दो टूक जवाब दिया।

छोटी लाल मुर्गी ने जब बत्तख से पूछा, तो उसने फिर वही बहाना बनाया कि वह तो बहुत छोटी सी है, वह इतनी दूर आटा चक्की तक नहीं जा पायेगी।“

बिल्ली के पास जाकर जब छोटी लाल मुर्गी ने सहायता मांगी, तो बिल्ली बोली, “आटा चक्की से उड़ने वाले आटे से मेरे बाल खराब हो जायेंगे, मैं तो वहाँ नहीं जा सकती.”

दुखी छोटी लाल मुर्गी अकेले ही आटा चक्की गई और गेहूं को पिसवा कर वापस आई।

अगले दिन उसने रोटी बनाने की सोची और अपने तीनों दोस्तों के पास पहुँची। तीनों खेत में खेल रहे थे। उसने पूछा, “दोस्तों! क्या तुम रोटी बनाने में मेरी मदद करोगे?“

“नहीं!” तीनों एक स्वर में बोले, “हमें तो रोटी बनाना आता ही नहीं।“

छोटी लाल मुर्गी ने अकेले ही जाकर रोटी बनाई। जब गर्मागर्म रोटियाँ तैयार हो गई, तो वह कुत्ता, बत्तख और बिल्ली के पहुँची और उन्हें रोटियाँ दिखाते हुए बोली, “अब बताओ कि रोटियाँ कौन कौन खायेगा?”

“हम!” तीनों एक साथ बोले।

“नहीं!” मुर्गी बोली, “इन रोटियों के लिए सारी मेहनत मैंने की है, इसलिए मैं ही सारी रोटियाँ खाऊंगी।“ और मज़े से रोटियाँ खाने लगी। कुत्ता, बत्तख और बिल्ली ने कोई मेहनत नहीं की थी, इसलिए वे बस छोटी लाल मुर्गी का मुँह देखते रह गये।

सीख 

मेहनत से कभी जी नहीं चुराना चाहिए।

बिल्ली और कुत्ते की शिक्षाप्रद कहानी

एक दिन की बात है. एक बिल्ली (Cat) कहीं जा रही थी. तभी अचानक एक विशाल और भयानक कुत्ता (Dog) उसके सामने आ गया. कुत्ते को देखकर बिल्ली डर गई. कुत्ते और बिल्ली जन्म-बैरी होते है. बिल्ली ने अपनी जान का ख़तरा सूंघ लिया और जान हथेली पर रखकर वहाँ भागने लगी. किंतु फुर्ती में वह कुत्ते से कमतर थी. थोड़ी ही देर में कुत्ते ने उसे दबोच लिया. 

बिल्ली की जान पर बन आई. मौत उसके सामने थी. कोई और रास्ता न देख वह कुत्ते के सामने गिड़गिड़ाने लगी. किंतु कुत्ते पर उसके गिड़गिड़ाने का कोई असर नहीं हुआ. वह उसे मार डालने को तत्पर था. तभी अचानक बिल्ली ने कुत्ते के सामने एक प्रस्ताव रख दिया, “यदि तुम मेरी जान बख्श दोगे, तो कल से तुम्हें भोजन की तलाश में कहीं जाने की आवश्यता नहीं रह जायेगी. मैं यह ज़िम्मेदारी उठाऊंगी. मैं रोज़ तुम्हारे लिए भोजन लेकर आऊंगी. तुम्हारे खाने के बाद यदि कुछ बच गया, तो मुझे दे देना. मैं उससे अपना पेट भर लूंगी.”

कुत्ते को बिना मेहनत किये रोज़ भोजन मिलने का यह प्रस्ताव जम गया. उसने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया. लेकिन साथ ही  उसने बिल्ली को आगाह भी किया कि धोखा देने पर परिणाम भयंकर होगा. बिल्ली ने कसम खाई कि वह किसी भी सूरत में अपना वादा निभायेगी.

कुत्ता आश्वस्त हो गया. उस दिन के बाद से वह बिल्ली द्वारा लाये भोजन पर जीने लगा. उसे भोजन की तलाश में कहीं जाने की आवश्यकता नहीं रह गई. वह दिन भर अपने डेरे पर लेटा रहता और बिल्ली की प्रतीक्षा करता. बिल्ली भी रोज़ समय पर उसे भोजन लाकर देती. इस तरह एक महिना बीत गया. महीने भर कुत्ता कहीं नहीं गया. वह बस एक ही स्थान पर पड़ा रहा. एक जगह पड़े रहने और कोई  भागा-दौड़ी न करने से वह बहुत  मोटा और भारी हो गया.

एक दिन कुत्ता रोज़ की तरह बिल्ली का रास्ता देख रहा था. उसे ज़ोरों की भूख लगी थी. किंतु बिल्ली थी कि आने का नाम ही नहीं ले रही थी. बहुत देर प्रतीक्षा करने के बाद भी जब बिल्ली नहीं आई, तो अधीर होकर कुत्ता बिल्ली को खोजने निकल पड़ा.

वह कुछ ही दूर पहुँचा था कि उसकी दृष्टि बिल्ली पर पड़ी. वह बड़े मज़े से एक चूहे पर हाथ साफ़ कर रही है. कुत्ता क्रोध से बिलबिला उठा और गुर्राते हुए बिल्ली से बोला,  “धोखेबाज़ बिल्ली, तूने अपना वादा तोड़ दिया. अब अपनी जान की खैर मना.”

इतना कहकर वह बिल्ली की ओर लपका. बिल्ली पहले ही चौकस हो चुकी थी. वह फ़ौरन अपनी जान बचाने वहाँ से भागी.  कुत्ता भी उसके पीछे दौड़ा. किंतु इस बार बिल्ली कुत्ते से ज्यादा फुर्तीली निकली. कुत्ता इतना मोटा और भारी हो चुका था कि वह अधिक देर तक बिल्ली का पीछा नहीं कर पाया और थककर बैठ गया. इधर बिल्ली चपलता से भागते हुए उसकी आँखों से ओझल हो गई.

सीख 

दूसरों पर निर्भरता अधिक दिनों तक नहीं चलती. यह हमें कामचोर और कमज़ोर बना देती है. जीवन में सफ़ल होना है, तो आत्मनिर्भर बनो.

साही और सांप की कहानी

एक साही अपने रहने के लिए स्थान की खोज में भटक रहा था। दिन भर भटकने के बाद उसे एक गुफा दिखाई पड़ी। उसने सोचा – ‘ये गुफा रहने के लिए अच्छी जगह है।‘

वह गुफा के द्वार पर पहुँचा, तो देखा कि वहाँ सांपों का परिवार रहता है।

साही ने उन सबका अभिवादन किया और निवेदन करते हुए बोला, “भाइयों! मैं बेघर हूँ। कृपा करके मुझे इस गुफा में रहने के लिए थोड़ी सी जगह दे दो। मैं सदा आपका आभारी रहूंगा।”

सांपों को साही पर दया आ गई और उन्होंने उसका निवेदन स्वीकार कर उसे गुफा के अंदर आने की अनुमति दे दी। लेकिन उसके गुफा में घुसने के बाद उन्होंने महसूस किया कि उसे अंदर बुलाकर और रहने कि जगह देकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती कर दी, क्योंकि साही के शरीर के कांटे उन्हें गड़ रहे थे और उनकी त्वचा ज़ख्मी हो रही थी।

उन्होंने साही से कहा, “तुम्हारे शरीर के कांटे हमें गड़ रहे हैं। इसलिए तुम यहाँ से जाओ और कोई दूसरी जगह खोजो।”

साही तब तक आराम से गुफा में पसर चुका था। बोला, “भई मुझे तो ये जगह बहुत पसंद है। मैं तो कहीं नहीं जाने वाला। जिसे समस्या है, वो जाये यहाँ से।”

अपनी त्वचा को साही के शरीर के कांटों से बचाने के लिए आखिरकार सांपों को वह गुफा छोड़कर जाना पड़ा। सांपों के जाने के बाद साही ने वहाँ पूरी तरह कब्जा जमा लिया।

सीख 

कई बार हम उंगली देते हैं और सामने वाला हाथ पकड़ लेता है। इसलिए किसी की मदद करने के पहले अच्छी तरह सोच-विचार कर लेना चाहिए।

हाथी और भालू की कहानी

एक जंगल में एक हाथी रहता था। वह बड़ा दयालु था। मुसीबत के समय वह सदा सबकी सहायता किया करता था। उसके इस स्वभाव है कारण जंगल के सभी जानवर उससे बहुत प्रेम करते थे।

एक दिन हाथी को प्यास लगी और वह पानी पीने नदी पर गया। वहाँ उसने देखा कि नदी के किनारे एक बड़े से पत्थर के नीचे एक मगरमच्छ दबा हुआ है और दर्द से कराह रहा है।

हाथी ने उससे पूछा, “मगरमच्छ भाई! ये क्या हो गया? तुम इस पत्थर के नीचे कैसे दब गये?”

मगरमच्छ ने कराहते हुए उत्तर दिया, “क्या बताऊं हाथी दादा! मैं खाना खाकर नदी किनारे आराम कर रहा था। जाने कैसे उस बड़ी चट्टान का ये टुकड़ा टूटकर मुझ पर आ गिरा। बहुत दर्द हो रहा है। मेरी मदद करो। इस पत्थर को हटा दो। मैं ज़िन्दगी भर तुम्हारा अहसानमंद रहूंगा।”

हाथी को उस पर दया आ गई। लेकिन उसे डर भी था कि कहीं मगरमच्छ उस पर हमला न कर दे। इसलिए उसने पूछा, “देखो मगरमच्छ भाई! मैं तुम्हारी मदद तो कर दूं, लेकिन वादा करो कि तुम मुझ पर हमला नहीं करोगे।”

“मैं वादा करता हूँ।” मगरमच्छ बोला।

हाथी मगरमच्छ के पास गया और उसकी पीठ से भारी पत्थर हटा दिया। लेकिन पत्थर के हटते ही धूर्त मगरमच्छ ने हाथी का पैर अपने जबड़े में दबा लिया।

हाथी कराह उठा और बोला, “ये क्या मगरमच्छ भाई? ये तो धोखा है। तुमने तो वादा किया था।”

लेकिन मगरमच्छ ने हाथी का पैर नहीं छोड़ा। हाथी दर्द से चीखने लगा। कुछ ही दूर पर एक पेड़ के नीचे एक भालू आराम कर रहा था। उसने हाथी की चीख सुनी, तो नदी किनारे आया।

हाथी को उस हालत में देख उसने पूछा, “ये क्या हुआ हाथी भाई?”

“इस धूर्त मगरमच्छ की मैंने सहायता की और इसने मुझ पर ही हमला कर दिया। मुझे बचाओ।” हाथी ने कराहते हुए मगमच्छ के पत्थर के नीचे दबे होने की सारी कहानी सुना दी।

“क्या कहा? ये मगरमच्छ पत्थर के नीचे दबा था और फिर भी ज़िन्दा था। मैं नहीं मानता।” भालू बोला।

“ऐसा ही था।” मगरमच्छ गुर्राया और अपनी पकड़ हाथी के पैरों पर मजबूत कर दी।

“हो नहीं सकता!” भालू फिर से बोला।

“ऐसा ही था भालू भाई!” हाथी बोला।

“बिना देखे तो मैं नहीं मानने वाला। मुझे दिखाओ तो ज़रा कि ये मगरमच्छ कैसे उस पत्थर के नीचे दबा था और उसके बाद भी ज़िन्दा था। हाथी भाई ज़रा इस मगरमच्छ की पीठ पर वो पत्थर तो रख देना। फिर उसे हटाकर दिखाना।” भालू बोला।

मगरमच्छ भी तैयार हो गया। वह हाथी का पैर छोड़कर नदी के किनारे चला गया। हाथी ने वह भारी पत्थर उसके ऊपर रख दिया।

मगरमच्छ भालू से बोला, “ये देखो! मैं ऐसे इस पत्थर के नीचे दबा था। अब यकीन आया तुम्हें। इसके बाद हाथी ने आकर पत्थर हटाया था। चलो हाथी अब पत्थर हटा दो।” मगरमच्छ बोला।

“नहीं हाथी भाई! ये मगरमच्छ मदद के काबिल नहीं है। इसे ऐसे ही पड़े रहने दो। आओ हम चले।” भालू बोला।

इसके बाद हाथी और भालू वहाँ से चले गए। मगरमच्छ वहीं पत्थर के नीचे दबा रहा। उसकी धूर्तता का फल उसे मिल चुका था।

सीख 

  • हमें हमेशा सहायता करने वाले के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए।
  • बुद्धिमानी से किसी भी मुसीबत से निकला जा सकता है।

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