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चतुर बहू : हिमाचल प्रदेश की लोक कथा | Chatur Bahu Himachal Pradesh Ki Lok Katha

Chatur Bahu Himachal Pradesh Ki Lok Katha
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फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम चतुर बहू हिमाचल प्रदेश की लोक कथा (Chatur Bahu Lok Katha Himachal Pradesh) शेयर कर रहे है.  Chatur Bahu Folk Tale Of Himachal Pradesh In Hindi चंदू नामक एक सुनार की कहानी है, जो हाथ की सफाई में माहिर था। एक सेठ उससे नौलखा हार बनवाता है और उस पर पूरी निगरानी रखता है कि वो कोई चालाकी न दिखा सके। क्या सेठ कामयाब रहता है या चंदू हाथ की सफाई दिखा जाता है। जानने के लिए पढ़िये :

Chatur Bahu Lok Katha Himachal Pradesh

Chatur Bahu Lok Katha Himachal Pradesh

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हिमाचल प्रदेश में एक नगर पालमपुर में एक धनी साहूकार अपने परिवार के साथ रहता था। परिवार में पत्नी सहित चार बेटे और चार बहुयें थीं।

साहूकार की सबसे छोटी बहू दुर्गा चतुर और होशियार थी, जबकि उसके पुत्र और तीन बड़ी बहुयें साधारण बुद्धि की थीं। इसलिए साहूकार सबसे छोटी बहू पर सबसे ज्यादा विश्वास करता था।

एक बार नगर का राजा साहूकार से नाराज़ हो गया और उसे नगर से तड़ीपार कर दिया। उसने साहूकार को आदेश दिया कि नगर छोड़ते समय वह और उसके परिवार के सदस्य अपने शरीर के वस्त्रों और आभूषणों के अतिरिक्त कुछ न ले जायें।

साहूकार क्या करता? वह विवश था। उसने अपने परिवार को राजा के आदेश के बारे में बताया और जैसे हैं, उसी हालत में नगर छोड़कर चलने के लिए कहा। सभी तैयार हो गए। जाने के पूर्व छोटी बहू दुर्गा ने राजा के सिपाहियों से पूछा कि क्या वह रास्ते में खाने के लिए कुछ रोटियाँ ले जा सकती है। सिपाहियों ने मना नहीं किया।

छोटी बहू ने आटा गूंथा और उसमें चार बहुमूल्य माणिक्य छुपा दिए। उस आटे की रोटियाँ बनाई और उन्हें पोटली में बांध लिया। जब उनका परिवार नगर छोड़कर जाने लगा, तब सिपाहियों को पोटली की तलाशी ली। उसमें रोटियाँ देखकर उन्होंने कुछ नहीं कहा।

साहूकार और उसका परिवार नगर से निकल पड़े। दिन भर की लंबी यात्रा के बाद रात में वे एक नगर में पहुँचे। वहाँ विश्राम के लिए वे एक धर्मशाला में ठहरे। रात भर विश्राम करने के बाद जब वे उठे, तो साहूकार ने सबसे कहा कि वे सभी अपने आभूषण दे दें, जिन्हें बेचकर वह खाने-पीने की वस्तुओं और वस्त्रों की व्यवस्था कर लेगा।

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तब छोटी बहू दुर्गा ने उसे रोटियों में छुपाये माणिक्य में से एक माणिक्य देकर कहा, “पिताजी! आपको आभूषण बेचने की आवश्यकता नहीं है। ये लीजिए माणिक्य। इसे बेचकर कुछ धन की व्यवस्था कर लीजिए। उस धन से रहने के लिए घर का बंदोबस्त हो जायेगा और खाने-पीने की वस्तुयें भी मिल जाएगी और साथ ही साथ आप व्यापार भी प्रारंभ कर सकेंगे।”

साहूकार ने माणिक्य ले लिया और उसे लेकर नगर के बाज़ार की ओर चल पड़ा। वहाँ उसने नगर के सबसे बड़े जौहरी के बारे में जानकारी प्राप्त की और उसके पास गया। उसके पास पहुँचकर उसने माणिक्य दिखाते हुए उसके एवज में धन देने का निवेदन दिया। बहुमूल्य माणिक्य देख उस जौहरी के मन में लोभ आ गया। वह माणिक्य हथियाने के बारे में सोचने लगा।

उसने साहूकार से कहा, “ये माणिक्य तो बहुत कीमती है। इसके लिए धन मुझे घर से मंगाना पड़ेगा। मैं अपने नौकर को घर भेजता हूँ। तब तक आप यहाँ आराम से बैठिए।”

और उसने साहूकार को एक कमरे में रखी कुर्सी पर बैठने को कहा, जो कच्चे सूत की बनी थी और उस पर एक गद्दा रखा हुआ था। उस कुर्सी के नीचे एक छेद था, जो सीधे तहखाने में जाता था।

साहूकार जैसे ही कुर्सी पर बैठा, कच्ची सूत टूट गई और साहूकार छेद से होते हुए तहखाने में जा गिरा। जौहरी ने फौरन तहखाने का छेद पत्थर से बंद कर दिया और उसके ऊपर पहले के समान कुर्सी रख दी। फिर माणिक्य को तिजोरी में रख दिया।

उधर धर्मशाला में सभी साहूकार की प्रतीक्षा करते करते थक गए। मगर वह नहीं लौटा। तब छोटी बहू दुर्गा ने अपने पति को दूसरा माणिक्य देकर कहा, “जाओ बाज़ार जाकर पिताजी को ढूंढो। अगर मिल जायें, तो इस माणिक्य को वापस ले आना। यदि न मिले, तो माणिक्य बेचकर खाने-पीने का सामान और वस्त्र ले आना।”

उसका पति माणिक्य लेकर बाज़ार चला गया। वहाँ उसने अपने पिता की तरह ही सबसे बडे़ जौहरी का पता किया। लोगों ने उसे उसी जौहरी के पास भेजा, जिसने उसके पिता को कैद कर लिया था।

जौहरी के पास पहुँचकर उसने उसे माणिक्य दिखाया। लालची और धूर्त जौहरी ने उसके साथ भी वही किया, जो उसके पिता के साथ किया था और अब दोनों पिता और पुत्र जौहरी के तहखाने में कैद थे।

जब दुर्गा का पति भी वापस नहीं लौटा, तो उसे चिंता होनेलगी। उसने स्वयं बाजार जाने का निर्णय लिया। वह बाज़ार गई और अपने आभूषण बेचकर खाने-पीने की चीजों और वस्त्रों की व्यवस्था की। धर्मशाला वापस आकर उसने खाने-पीने की चीज़ें और वस्त्र परिवार वालों को दिए और स्वयं यह कहकर वहाँ से निकल गई कि वह पिताजी और अपने पति को खोजने जा रही है।

वहाँ से निकलकर उसने अपने लिए सिपाही की पोशाक खरीदी और सिपाही का भेष बनाकर राजा के दरबार में पहुँच गई। उसने राजा से विनती की कि वह उसे अपने महल का सिपाही बना ले। राजा ने उसे सिपाही बना दिया और महल की पहरेदारी का कार्य उसे सौंप दिया।

कुछ दिनों तक सिपाही बनी दुर्गा ने महल के चारों पहरेदारी की। वहाँ उसे पता चला कि महल के पशुशाला में रोज रात एक राक्षस आकर उत्पात मचाता है। उसने राजा से पशुशाला की पहरेदारी की आज्ञा मांगी। पहले तो राजा हिचका, पर बाद में उसे अनुमति दे दी।

वहाँ से कुछ दूरी पर जंगल के रास्ते में एक ऊँचे पेड़ पर चढ़कर दुर्गा सिपाही के भेष में बैठ गई। उसने अपनी उंगलियाँ जगह-जगह से काट ली, ताकि उसे नींद न आ पाये।

रात होने पर उसने देखा कि जंगल की तरफ से एक बड़ा सा भैंसा सींग उठाये महल की तरफ भागा आ रहा है। वह समझ गई कि यही वह राक्षस है। जैसे ही वह भैंसा उस पेड़ के नीचे से गुजरा, जिस पर दुर्गा बैठी हुई थी, वह दोनों हाथों में तलवार लिए नीचे कूद पड़ी और सीधे भैंसे के ऊपर गिरी। भैंसे पर गिरते ही उसने तलवार के तेज वार से उसका सिर काट दिया। मरते ही राक्षस अपने असली रूप में आ गया।

दूसरे दिन जब राजा को यह समाचार प्राप्त हुआ, तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सिपाही रूपी दुर्गा को बुलाया और कहा, “मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुमने उस राक्षस से छुटकारा दिलाया है जो कई वर्षों से हमें परेशान कर रहा था। तुम्हें ईनाम में जो चाहिए, वह मांग लो।”

दुर्गा बोली, “महाराज यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं, तो मुझे इस नगर की रक्षा का भार सौंप दीजिए। और मुझे अधिकार भी प्रदान कीजिए कि मैं यदि किसी अपराधी को देखूं, तो उसे स्वयं दंड दे सकूं।”

उसकी काबिलियत देख महाराज ने उसे नगर का कोतवाल बना दिया।

नगर का कोतवाल बनने के बाद दुर्गा ने अपने पति और ससुर की खोज प्रारंभ की। उसने सोचा कि वे लोग अवश्य ही नगर के सबसे बड़े जौहरी के पास माणिक्य बेचने गए होंगे। इसलिए उसने नगर के सबसे बड़े जौहरी का पता लगाया और उसके पास पहुँची।

वह नगर के कोतवाल के भेष में थी, तो जौहरी उसे पहचान नहीं पाया और कोतवाल समझकर खूब आवभगत करने लगा।

वह बोला, “अहोभाग्य! जो आप हमारे दुकान में पधारे। कहिए क्या सेवा करूं।”

कोतवाल बानी दुर्गा बोली, “महाराजा शीघ्र ही राजकुमारी का विवाह करने वाले हैं। उनके आभूषण के लिए हमें सुंदर और बहुमूल्य माणिक्य चाहिए। तुम्हारे पास हो तो दिखाओ।”

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जौहरी ने कई माणिक्य दिखाए, किंतु उनमें वह माणिक्य नहीं था, जो दुर्गा ने अपने पति और ससुर को दिया था। इसलिए वह उन माणिक्यों को नकारते हुए बोली, “कोई ऐसा माणिक्य दिखाओ, जो राजकुमारी के अनुरूप हो। ये सब माणिक्य तो तुच्छ जान पड़ते हैं।”

तब जौहरी तिजोरी से निकालकर वही माणिक्य ले लिए आया, जो उसने साहूकार और उसके पुत्र से छीना था। दुर्गा माणिक्य देखते ही पहचान गई।

उसने सिपाहियों को आदेश दिया, “पकड़ लो इस जौहरी को। यह जौहरी नहीं चोर है।”

जौहरी को कुछ समझ नहीं आया। तब दुर्गा बोली, “यह माणिक्य तुम्हारा नहीं है। यह तुमने एक साहूकार और उसके पुत्र से छीना है। बताओ तुमने उन्हें कहाँ रखा है?”

जौहरी समझ गया के कोतवाल को सब पता है। वह वहाँ से भागने लगा, मगर सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया। फिर दुर्गा ने पूरी दुकान की तलाशी ली। तब उसे उसे कुर्सी के नीचे पत्थर दिखाई पड़ा। पत्थर हटाने पर नीचे तहखाने में उसे अपने पिता और ससुर अधमरी हालत में मिले। उसने उन्हें वहाँ से निकाला और तुरंत चिकित्सा उपलब्ध करवाई।

जौहरी को राजा के सामने प्रस्तुत किया गया। कोतवाल बनी दुर्गा ने राजा को सारी बात बताई। राजा ने साहूकार को कैद करवा दिया।

कोतवाल की बुद्धिमत्ता को देख बहुत प्रसन्न था और उसका विवाह राजकुमारी से करना चाहता था। उसने यह प्रस्ताव कोतवाल बनी दुर्गा के सामने रखा, तो दुर्गा ने उसे सारा किस्सा बताते हुए सिपाही का वेश हटाकर अपने वास्तविक रूप में आई और हाथ जोड़कर बोली, “महाराज! मैं आपका प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकती। मैंने ये सारा स्वांग अपने पति और ससुर का पता लगाने के लिए किया था। मुझे क्षमा करें।”

राजा दुर्गा की बुद्धिमत्ता और बहादुरी देखकर चकित भी था और प्रसन्न भी। उसने दुर्गा को क्षमा कर दिया और उनके परिवार को अपने नगर में बसने की अनुमति दी, साथ ही साथ को नया व्यापार आरंभ करने में भी हर संभव सहायता दी।

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