फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम “दान का हिसाब” कहानी (Dan Ka Hisab Story In Hindi Class 4 NCERT) शेयर कर रहे हैं. Rimjhim Class 4 NECRT से ली गई ये कहानी एक कंजूस राजा की है, जो भोग-विलास में तो धन उड़ा देता था, किंतु प्रजा की भलाई के लिए नहीं. कैसे एक सन्यासी इस राजा को सबक सिखाता है और उससे प्रजा के लिए धन खर्च करवाता है? यही इस कहानी में बताया गया है. पढ़िए पूरी कहानी :
Dan Ka Hisab Moral Story In Hindi Class 4
Table of Contents
एक राज्य में एक राजा का शासन था. वह कीमती वस्त्रों, आभूषणों और मनोरंजन में अत्यधिक धन खर्च कर दिया करता था. परन्तु, दान-धर्म में एक दमड़ी खर्च नहीं करता था.
जब भी कोई ज़रूरतमंद और लाचार व्यक्ति सहायता की आस में उसके दरबार में आता, तो उसे खाली हाथ लौटा दिया जाता था. इसलिए लोगों ने उसके पास जाना ही छोड़ दिया था.
एक वर्ष राज्य में वर्षा नहीं हुई, जिससे वहाँ सूखा पड़ गया. सूखे से फ़सल नष्ट हो गई. चारो ओर त्राहि-त्राहि मच गई. लोग भूख-प्यास से मरने लगे.
राजा के कानों तक जब प्रजा का हाल पहुँचा, तो वह कन्नी काटते हुए बोला, “अब इंद्र देवता रूठ गए हैं, तो इसमें मेरा क्या दोष है. मैं भला क्या कर सकता हूँ?”
प्रजा उनके समक्ष सहायता की गुहार लेकर आई, “महाराज सहायता करें. अब आपका ही सहारा है. राजकोष से थोड़ा धन प्रदान कर दें, ताकि अन्य देशों से अनाज क्रय कर भूखे मरने से बच सकें.”
राजा उन्हें दुत्कारते हुए बोला, “जाओ अपनी व्यवस्था स्वयं करो. आज सूखे से तुम्हारी फ़सल नष्ट हो गई. कल अतिवृष्टि से हो जायेगी और तुम लोग ऐसे ही हाथ फैलाये मेरे पास आ जाओगे. तुम लोगों पर यूं ही राजकोष का धन लुटाता रहा, तो मैं कंगाल हो जाऊंगा. जाओ यहाँ से.”
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दु:खी मन से लोग वापस चले गए. किंतु, समय बीतने के साथ सूखे का प्रकोप बढ़ता चला गया. अन्न के एक-एक दाने को मोहताज़ हो जाने पर लोगों के पास कोई चारा नहीं रहा और वे फिर से राजा के पास पहुँचे.
सहायता की याचना करते हुए वे बोले, “महाराज! हम लाचार हैं. खाने को अन्न का एक दाना नहीं है. राजकोष से मात्र दस हज़ार रूपये की सहायता प्रदान कर दीजिये. आजीवन आपके ऋणी रहेंगे.”
“दस हज़ार रूपये! जानते भी हो कि ये कितने होते हैं? इस तरह मैं तुम लोगों पर धन नहीं लुटा सकता.” राजा बोला.
“महाराज! राजकोष सगार है और दस हज़ार रूपये एक बूंद. एक बूँद दे देने से सागर थोड़े ही खाली हो जायेगा.” लोग बोले.
“तो इसका अर्थ है कि मैं दोनों हाथों से धन लुटाता फिरूं.” राजा तुनककर बोला.
“महाराज! हम धन लुटाने को नहीं कह रहे. सहायता के लिए कह रहे हैं. वैसे भी हजारों रूपये कीमती वस्त्रों, आभूषणों, मनोरंजन में प्रतिदिन व्यय होते है. वही रूपये हम निर्धनों के काम आ जायेंगे.”
“मेरा धन है. मैं जैसे चाहे उपयोग करूं? तुम लोग कौन होते हो, मुझे ज्ञान देने वाले? तत्काल मेरी दृष्टि से दूर हो जाओ, अन्यथा कारागार में डलवा दूंगा.” राजा क्रोधित होकर बोला.
राजा का क्रोध देख लोग चले गए.
दरबारी भी राजा का व्यवहार देख दु:खी थे. ऐसी आपदा के समय प्रजा अपने राजा से आस न रखे, तो किससे रखे? ये बात वे राजा से कहना चाहते थे, किंतु उसका क्रोध देख कुछ न कह सके.
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राजा ही बोला, “दस हज़ार रूपये मांगने आये थे. अगर सौ-दो सौ रूपये भी मांगे होते, तो दे देता और उसकी क्षतिपूर्ति किसी तरह कर लेता. किंतु, इन लोगों ने तो बिना सोचे-समझे अपना मुँह खोल दिया. सच में अब तो नाक में दम हो गया है.”
अब दरबारी क्या कहते? शांत रहे. किंतु, मन ही मन सोच रहे थे कि राजा ने प्रजा के प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभाया.
कुछ दिन और बीत गए. किंतु, सूखे का प्रकोप रुका नहीं, बढ़ता ही गया. इधर राजा इन सबके प्रति आँखें मूंद अपने भोग-विलास में लगा रहा.
एक दिन एक सन्यासी दरबार में आया और राजा को प्रणाम कर बोला, “महाराज! सुना है आप दानवीर हैं. सहायता की गुहार लेकर उपस्थित हुआ हूँ.”
राजा आश्चर्य में पड़ गया, सोचने लगा कि ये सन्यासी कहाँ से मेरे दान-पुण्य के बारे में सुनकर आया है. मैंने तो कभी किसी को दान नहीं दिया. कहीं दान लेने के लिए ये बात तो नहीं बना रहा.
फिर सन्यासी से पूछा, “क्या चाहिए तुम्हें? यदि अपनी सीमा में रहकर मांगोगे, तो तुम्हें प्रदान किया जाएगा. किंतु, अत्यधिक की आस मत रखना.”
सन्यासी बोला, “महाराज! मैं तो एक सन्यासी हूँ. मुझे अत्यधिक धन का लोभ नहीं. बस इक्कीस दिनों तक राजकोष से कुछ भिक्षा दे दीजिए. किंतु, भिक्षा लेने का मेरा तरीका है. मैं हर दिन पिछले दिन से दुगुनी भिक्षा लेता हूँ. आपको भी ऐसा ही करना होगा”
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राजा सोचते हुए बोला, “पहले ये बताओ कि पहले दिन कितनी भिक्षा लोगे. तब मैं निर्णय करूंगा कि तुम्हें राजकोष से भिक्षा दी जाए या नहीं. दो-चार रूपये मांगोगे, तो मिल सकते हैं. दस-बीस रुपये मांगोगे, तो कठिनाई होगी.”
सन्यासी बोला, “महाराज! कहा ना मैं ठहरा सन्यासी. अधिक धन का क्या करूंगा? आप मुझे पहले दिन मात्र एक रूपया दे देना.”
सुनकर राजा बोला, “ठीक है, मैं तुम्हें पहले दिन एक रुपया और उसके बाद बीस दिनों तक प्रतिदिन पिछले दिन का दुगुना धन देने का वचन देता हूँ.”
राजा ने तत्काल कोषाध्यक्ष को बुलवाया और उसे अपना आदेश सुना दिया. राजकोष से सन्यासी को एक रुपया मिल गया और वह राजा की जयकार करता हुआ चला गया.
उसके बाद प्रतिदिन सन्यासी को राजकोष से धन मिलने लगा. कुछ दिन बीतने के बाद राजभंडारी ने हिसाब लगाया, तो पाया कि राजकोष का धन कम हुए जा रहा है और इसका कारण सन्यासी को दिया जाने वाला दान है.
उसने मंत्री को यह जानकारी दी. मंत्री भी उलझन में पड़ गया. वह बोला, “यह बात हमें पहले विचार करनी चाहिए थी. अब क्या कर सकते हैं. ये तो महाराज का आदेश है. हम उनके आदेश का उल्लंघन कैसे कर सकते हैं?”
राजभंडारी कुछ नहीं बोला. कुछ दिन और बीते और राजकोष से धन की निकासी बढ़ने लगी, तो वह फिर से भागा-भागा मंत्री के पास पहुँचा और बोला, “मंत्री जी! इस बार मैंने पूरा हिसाब किया है. वह हिसाब लेकर ही आपके पास उपस्थित हुआ हूँ.”
मंत्री ने जब हिसाब देखा, तो चकित रह गया. उसके माथे पर पसीना आ गया. उसने पूछा, “क्या यह हिसाब सही है.”
“बिल्कुल सही. मैंने कई बार स्वयं गणना की है.” राजभंडारी बोला.
“इतना धन चला गया है और अभी इक्कीस दिन होने में बहुत समय है. इक्कीस दिनों बाद क्या स्थिति बनेगी? जरा बताओ तो?”
भंडारी बोला, “वह हिसाब तो मैंने नहीं लगाया है.”
“तो तत्काल हिसाब लगाकर मुझे बताओ.” मंत्री ने आदेश दिया.
भंडारी हिसाब करने लगा और पूरा हिसाब करके बोला, “मंत्री जी! इक्कीस दिनों में सन्यासी की दान की रकम दस लाख अड़तालीस हजार पांच सौ छिहत्तर रूपये होगी.”
“क्या?” मंत्री बोला, “तुमने सही हिसाब तो लगाया है. इतना धन सन्यासी ले जायेगा, तो राजकोष खाली हो जायेगा. हमें तत्काल ये जानकारी महाराज को देनी होगी.”
वे तत्क्षण राजा के पास पहुँचे और पूरा हिसाब उसके सामने रख दिया. राजा ने जब हिसाब देखा, तो उसे चक्कर आ गया. फिर ख़ुद को संभालकर वह बोला, “ये सब क्या है?”
मंत्री बोला, “सन्यासी को दान देने के कारण राजकोष खाली हो रहा है.”
राजा बोला, “ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने तो उसे बहुत ही कम धन देने का आदेश दिया था.”
मंत्री बोला, “महाराज! वह सन्यासी बहुत चतुर निकला. अपनी बातों में फंसाकर वह राजकोष से बहुत सारा धन ऐंठने के प्रयास में है.”
राजा ने राजभंडारी से पूछा, “फिर से बताओ कितना धन सन्यासी लेने वाला है?”
“दस लाख अड़तालीस हजार पांच सौ छिहत्तर“ राजभंडारी बोला.
“परन्तु मुझे लगता है कि मैंने इतना धन देने का आदेश तो नहीं दिया था. मैं ऐसा आदेश दे ही नहीं सकता. जब मैंने अकाल पीड़ित प्रजा को दस हजार रुपये नहीं दिए, तो भला एक सन्यासी को इतना धन क्यों दूंगा?” राजा सोचते हुए बोला.
“किंतु सब आपके आदेश अनुसार ही हो रहा है महाराज. चाहे तो आप स्वयं हिसाब कर लीजिये.” राजभंडारी बोला. मंत्री ने भी उसका समर्थन किया.
“अभी इसी समय उस सन्यासी को मेरे समक्ष प्रस्तुत करो.” राजा चिल्लाया.
तुरंत कुछ सैनिक भेजे गए और वे सन्यासी को लेकर राजा के सामने उपस्थित हुए. सन्यासी को देखते ही राजा उसके चरणों पर गिर पड़ा और बोला, “बाबा, आपको दिए वचन से मेरा राजकोष खाली हुआ जा रहा है. इस तरह तो मैं कंगाल हो जाऊँगा. फिर मैं राजपाट कैसे चला पाऊँगा? किसी तरह मुझे इस वचन से मुक्त कर दीजिये. दया कीजिये.”
सन्यासी ने राजा को उठाया और बोला, “ठीक है मैं तुम्हें इस वचन से मुक्त करता हूँ. किंतु इसके बदले तुम्हें राज्य की प्रजा को पचास हज़ार रूपये देने होंगे. ताकि वे अकाल का सामना कर सकें.”
राजा बोला, “किंतु बाबा, वे लोग जब आये थे, तब दस हजार मांग रहे थे.”
“किंतु मैं पचास हजार ही लूँगा. उससे एक ढेला कम नहीं.” सन्यासी ने अपना निर्णय सुनाया.
राजा बहुत गिड़गिड़ाया, किंतु सन्यासी अपनी बात अड़ा रहा. अंततः विवश होकर राजा पचास हजार रूपये देने तैयार हो गया.
सन्यासी ने अपना वचन वापस ले लिया और चला गया. राजकोष से प्रजा को पचास हजार रूपये दिए गए. प्रजा बहुत प्रसन्न हुई और राजा की जय-जयकार करने लगी. दु:खी राजा बहुत दिनों तक भोग-विलास से दूर रहा.
सीख (Moral of the story)
१. जब सीढ़ी उंगली से घी ना निकले, तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है.
२. भला करोगे, तो चारों ओर गुणगान होगा.
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