Mahabharata Stories In Hindi 

धृतराष्ट्र की कहानी महाभारत | Dhritarashtra Story In Hindi

धृतराष्ट्र की कहानी महाभारत (Dhritarashtra Story In Hindi Mahabharat) धृतराष्ट्र महाभारत के महत्वपूर्ण पात्रों में से एक हैं। वे कुरु वंश के राजा थे और पांडवों और कौरवों के पिता माने जाते हैं। जन्म से ही नेत्रहीन होने के कारण उन्होंने कभी संसार की खूबसूरती को नहीं देखा, और इसी वजह से उनके जीवन पर कई तरह के संघर्षों का प्रभाव पड़ा। धृतराष्ट्र का जीवन एक ऐसी कहानी है, जिसमें सत्ता का लोभ, पुत्रमोह, और धर्म-संकट जैसे मुद्दे शामिल हैं। उनकी इस कहानी से हमें कई महत्वपूर्ण सीख मिलती हैं, जैसे कि जीवन में अंधे प्रेम और लालच के परिणाम क्या हो सकते हैं।

Dhritarashtra Story In Hindi

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Dhritarashtra Story In Hindi

धृतराष्ट्र हस्तिनापुर के राजा विचित्रवीर्य और अंबिका के पुत्र थे। जब महर्षि वेदव्यास ने उन्हें जन्म दिया, तो उनकी माता अंबिका डर से अपनी आँखें बंद कर बैठी थीं। इसी कारण से धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे। उनका नेत्रहीन होना उनके जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप बन गया, क्योंकि वह कभी भी चीजों को प्रत्यक्ष रूप से देख नहीं सके और दूसरों पर निर्भर रहना पड़ा। 

धृतराष्ट्र ज्येष्ठ होने के कारण हस्तिनापुर की राजगद्दी के अधिकारी था। परंतु नेत्रहीनता के कारण उन्हें राजा नहीं बनाया गया और उनकी जगह उनके छोटे भाई पांडु को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया। यह बात धृतराष्ट्र के मन में कहीं न कहीं एक गहरी पीड़ा बनकर बैठ गई। उन्होंने अपने मन में हमेशा यह सोच रखा कि गद्दी उनके ही हाथ में होती, यदि वे नेत्रहीन न होते। लेकिन वे अपनी किस्मत के आगे बेबस थे। 

पांडु के राजा बनने के बाद धृतराष्ट्र ने गद्दी की लालसा को छोड़ अपने परिवार को बढ़ाने का निश्चय किया। उनका विवाह गांधार की राजकुमारी गांधारी से हुआ। गांधारी बहुत ही साध्वी और धर्मपरायण महिला थीं। जब उन्हें यह पता चला कि उनके पति नेत्रहीन हैं, तो उन्होंने भी जीवन भर के लिए अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। उन्होंने पति धर्म निभाने का प्रण लिया और उनकी हर कठिनाई में साथ दिया।

धृतराष्ट्र और गांधारी के सौ पुत्र हुए, जिन्हें “कौरव” कहा जाता है। उनके बड़े पुत्र का नाम दुर्योधन था, जो अपने पिता की तरह ही गद्दी का उत्तराधिकारी बनने की महत्वाकांक्षा रखता था। धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों से अत्यधिक प्रेम किया, विशेष रूप से दुर्योधन से। वे अपने पुत्रों के प्रति इतने मोह में डूबे थे कि उनके गलत कार्यों को भी अनदेखा करते रहे। यही पुत्रमोह आगे चलकर उनके और हस्तिनापुर के विनाश का कारण बना।

पांडु ने अपने राजधर्म का पूरी निष्ठा से पालन किया और उनके पाँच पुत्र हुए, जिन्हें पांडव कहा गया। परंतु एक दिन पांडु का असामयिक निधन हो गया। इस घटना के बाद धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया, और पांडवों की देखभाल का भार भी उनके ऊपर आ गया। उन्होंने पांडवों को अपने बच्चों की तरह पाला, लेकिन उनके भीतर गद्दी के प्रति लगाव और दुर्योधन के प्रति मोह हमेशा विद्यमान रहा। 

दुर्योधन को बचपन से ही पांडवों से ईर्ष्या थी। वह हमेशा सोचता था कि गद्दी पर उसका ही अधिकार होना चाहिए, न कि पांडवों का। दुर्योधन ने कई बार पांडवों के प्रति अन्याय किया, और धृतराष्ट्र ने भी अपने पुत्रमोह के कारण हमेशा दुर्योधन का साथ दिया। धृतराष्ट्र यह जानते हुए भी कि दुर्योधन गलत रास्ते पर चल रहा है, उसे रोका नहीं। उनका मानना था कि यदि उन्होंने दुर्योधन का विरोध किया, तो वे अपने पुत्र को खो देंगे।

एक बार दुर्योधन ने छल से पांडवों को वारणावत में लाक्षागृह में बंद कर दिया, ताकि वे मर जाएँ, लेकिन वे बच निकले। इसके बाद भी धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को कुछ नहीं कहा। उन्होंने हर बार यही सोचा कि वे अपने पुत्रों की गलतियों को अनदेखा कर परिवार को एकजुट रखेंगे, लेकिन इस अंधे प्रेम में उन्होंने न्याय और धर्म का पालन करना छोड़ दिया था।

इसके बाद कौरवों और पांडवों के बीच हस्तिनापुर की गद्दी के लिए विवाद शुरू हो गया। दुर्योधन ने एक चाल के तहत पांडवों को छल से जुए के खेल में हराकर उनका राज्य, संपत्ति और सम्मान सब छीन लिया। जुए में हारने के बाद पांडवों को वनवास जाना पड़ा। इस पूरे खेल में धृतराष्ट्र ने फिर भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया, क्योंकि वे दुर्योधन के प्रेम में अंधे हो चुके थे। उन्होंने सोचा कि शायद समय के साथ सब ठीक हो जाएगा, लेकिन उनका यह मोह उनके परिवार को विनाश की ओर ले जा रहा था।

वनवास पूरा कर जब पांडवों ने वापस आए, तो उन्होंने अपना राज्य लौटाने का आग्रह किया। लेकिन दुर्योधन ने उनकी बात नहीं मानी और युद्ध की घोषणा कर दी। इस महाभारत युद्ध में धृतराष्ट्र का दिल दो हिस्सों में बंट चुका था—एक ओर उनका पुत्र मोह था और दूसरी ओर धर्म। लेकिन अंततः उन्होंने अपनी चुप्पी साधे रखी और युद्ध को टालने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया।

महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों के कई योद्धा मारे गए। धृतराष्ट्र के सभी पुत्र इस युद्ध में मारे गए, और अंत में उनकी गद्दी का उत्तराधिकारी कोई नहीं बचा। युद्ध के बाद जब श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से कहा कि यह युद्ध धर्म और अधर्म का था और पांडवों ने धर्म का पक्ष लिया, तो धृतराष्ट्र को अपनी गलतियों का एहसास हुआ। उन्हें समझ में आया कि उनका पुत्रमोह और गद्दी का लालच ही उनके परिवार के विनाश का कारण बना।

धृतराष्ट्र ने अंततः अपने जीवन की इस बड़ी भूल को स्वीकार किया और अपने शेष जीवन को एक साधारण जीवन जीने का निर्णय लिया। वे गांधारी के साथ वन में चले गए, जहाँ उन्होंने तपस्या करके अपने मन के संताप को शांत किया।

सीख

अधे प्रेम और लालच का अंत हमेशा विनाश की ओर ही जाता है।

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