दो हंसों की कहानी – जातक कथा | The Story Of Two Swans In Hindi Jatak Tales

फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम  दो हंसों की कहानीजातक कथा  (Do Hanso Ki Kahani Jatak Katha) शेयर कर रहे है. यह जातक कथा मानसरोवर में निवास करने वाले दो स्वर्ण हंसों की है. वाराणसी का राजा उन हंसों को पकड़ने की योजना बनाता है. क्या वह अपने प्रयोजन में सफ़ल हो पाता है? जानने के लिए पढ़िये The Story Of Two Swans In Hindi Jatak Tales : 

Do Hanso Ki Kahani Jatak Katha

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Do Hanso Ki Kahani Jatak Katha
Do Hanso Ki Kahani Jatak Katha

प्राचीन काल में मानसरोवर सफ़ेद हंसों का दल रहा करता था. सफ़ेद बादलों सी छटा बिखेरते सफ़ेद हंस मानसरोवर के निश्छल जल में कलरव कर संपूर्ण वातावरण को गुंजायमान कर देते थे.

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सफ़ेद हंसों के दल के साथ मानसरोवर में दो स्वर्ण हंस भी रहते थे. दोनों स्वर्ण आकार में अन्य हंसों से बड़े थे और दिखने में एक समान थे. वे शीलवान, धैर्यवान और गुणवान थे. उनमें से एक राजा था और एक सेनापति. राजा का नाम धृतराष्ट्र और सेनापति का नाम सुमुख था. उनकी छत्रछाया में सभी हंस आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे.

स्वर्ण हंसों के गुणों की प्रशंसा देवलोक और पाताललोक तक थी. देवता गण और यक्ष गण भी उनका गुणगान किया करते थे. मनुष्य लोक में भी उनकी चर्चा दूर-दूर तक थी. एक दिन वाराणसी नरेश के कानों में स्वर्ण हंसों की प्रशंसा पहुँच गई और वह उन हंसों को प्राप्त करने के लिए आकुल  हो उठा.

उसने अपने मंत्री से कहकर अपने राज्य में मानसरोवर सदृश्य एक मनोरम सरोवर बनवाया. उस सरोवर को जलीय पौधे और कमल पुष्प यथा पद्म, कुमुद, उत्पल, तामरस, कह्लर, पुंडरिक, सौगंधिक आदि से आच्छादित करवा दिया गया. सरोवर की मनोरम छटा मत्स्यों और जलीय पक्षियों को आकर्षित करने लगी और वे वहाँ आकर बस गए. राजा ने उनकी सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था करवाई, ताकि वे बिना किसी भय के स्वछंदतापूर्वक वहाँ विचरण कर सके.

वर्षा काल के उपरांत हेमंत ऋतु प्रारंभ हो चुकी थी. एक दिन मानसरोवर के दोनों स्वर्ण हंस नीले आसमान में उड़ते हुए वाराणसी के ऊपर से गुजरे. वहाँ राजा द्वारा निर्मित सरोवर की मनोरम छटा और वहाँ स्वछंदतापूर्वक विचरण करते रमणीक जलीय पक्षियों का कलरव सुन वे सरोवर के स्वच्छ जल में विहार का आनंद लेने की कामना से वहाँ उतर गए. संपूर्ण हेमंत ऋतु उन दोनों ने वहीं व्यतीत की. वर्षा ऋतु के आगमन पर वे मानसरोवर लौट गए.

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मानसरोवर लौटकर वे जब सफ़ेद हंसों के दल से मिले, तो उन्हें वाराणसी में उस कृत्रिम सरोवर में व्यतीत किये दिनों का अनुभव सुनाया. उन्होंने उस सरोवर की इतनी प्रशंसा की कि सभी सफ़ेद हंस वहाँ जाने को उत्सुक हो गए. किंतु, राजा और सेनापति हंसों के उनका विरोध किया और कहा कि पक्षी और जीव के भावों का प्रदर्शन सरल होता है, वे अपनी चीखों द्वारा अपने समस्त आंतरिक भाव प्रदर्शित कर देते हैं. किंतु, मानव के भीतर के भाव को जान पाना असंभव है. वे अपने भीतर के मनोभावों के विपरीत भाव-भंगिमा प्रदर्शित करते हैं.

किंतु, समस्त सफ़ेद हंस वाराणसी के कृत्रिम सरोवर में जलक्रीड़ा करने इतने आतुर थे कि उन्होंने राजा और सेनापति की बात नहीं मानी और ज़िद करते रहे. अंतत: राजा और सेनापति हंसों को अन्य हंसों की बात माननी पड़ी. वर्षा ऋतु के उपरांत वे सभी वाराणसी के कृत्रिम सरोवर के लिए प्रस्थान कर गए.

वाराणसी के राजा को जब हंसों के आगमन की समाचार प्राप्त हुआ, तो वह मन ही मन अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उसने स्वर्ण हंसों को पकड़ने का अपना मनोरथ साधने के लिए एक निषाद उस सरोवर में भेज दिया.

निषाद ने सरोवर पहुँचकर जाल बिछा दिया. उसके प्रयोजन से अनभिज्ञ सभी हंस सरोवर में स्वच्छंदतापूर्वक विहार कर रहे थे. हंसराज युधिष्ठिर उसके जाल में फंस गया. जाल फंसते ही उसने राजा का दायित्व निभाते हुए अन्य हंसों को आगाह कर वहाँ से प्रस्थान कर जाने के लिए आदेशित कर दिया. सभी सफ़ेद हंस तत्काल वहाँ से उड़ गए. किंतु, स्वामीभक्त सेनापति हंस सुमुख वहीं रहा.

हंसराज युधिष्ठिर ने उसे प्रस्थान करने को कहा, किंतु स्वामीभक्ति निभाते हुए उसने जाने से इंकार कर दिया. जब निषाद हंसराज को पकड़ने के लिए पहुँचा, तो दो हंसों को देख स्तब्ध रहा गया, क्योंकि उसके एक हंस को पकड़ने के लिए जाल बिछाया था. उसने सेनापति हंस से इसका कारण पूछा, तो वह बोला, “अपने स्वामी की सेवा में यदि मैं अपने प्राण भी न्योछावर कर दूं, तो ये मेरे लिए गर्व की बात होगी.”

यह सुनकर मानव कल्याण के विरुद्ध हिंसा के पथ पर चलने वाले निषाद का ह्रदय परिवर्तित हो गया और उसने दोनों हंसों को मुक्त कर दिया.

हंसों को आभास था कि यदि निषाद ने उन्हें मुक्त कर दिया, तो वह राजा के क्रोध का भाजन बनेगा. इसलिए वे उसके कहने पर भी वहाँ से नहीं गए, बल्कि उसके दोनों कंधों पर बैठकर राजा के दरबार में पहुँचे. जिन हंसों को पकड़ने के लिए राजा ने निषाद भेजा था, उन्हें निषाद के कंधो में बैठकर स्वयं आता देख राजा चकित रह गया.

निषाद ने राजा के समक्ष पूरे घटनाक्रम का वर्णन किया, जिसे सुनकर राजा का ह्रदयपरिवर्तन हो गया. उसने निषाद को दंडित न कर पुरुष्कृत किया और दोनों हंसों को महल में आतिथ्य प्रदान किया. कुछ दिन राजा के महल में अतिथि के रूप में रहने के उपरांत दोनों हंस मानसरोवर लौट गए.

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