एक दिन की साधना एक दिन का भोजन जेन कथा | Ek Din Ki Sadhana Ek Din Ka Bhojan Zen Katha Story In Hindi
जेन परंपरा में साधना और कार्य एक-दूसरे से अलग नहीं माने जाते। जेन की शिक्षा यह है कि ध्यान केवल ध्यान-कक्ष में नहीं, बल्कि हर कार्य में होता है — चाहे वह भोजन पकाना हो, सफाई करना हो, या खेतों में काम करना हो। “एक दिन की साधना, एक दिन का भोजन” नामक यह कथा हमें सिखाती है कि आलस्य और आत्ममुग्धता से बचते हुए, हमें हर दिन का कार्य पूरी जागरूकता के साथ करना चाहिए। साधना का सार केवल बैठना नहीं है, बल्कि पूर्ण समर्पण और अनुशासन में है। यह कथा हमें आत्मनिर्भरता और कर्मयोग का अद्भुत संदेश देती है।
Ek Din Ki Sadhana Ek Din Ka Bhojan Zen Katha
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चीन के एक प्राचीन जेन मठ में एक प्रसिद्ध गुरु बाईझांग (Baizhang) रहते थे। वे गहन साधना और कठोर अनुशासन के लिए प्रसिद्ध थे। उनके मठ में सैकड़ों साधक रहते और प्रतिदिन कठोर तपस्या करते थे। इस मठ में एक नियम था, जिसे गुरु बाईझांग ने स्वयं बनाया था:
“एक दिन काम करो, तभी एक दिन भोजन मिलेगा।”
इस नियम का अर्थ था — मठ के सभी साधकों को प्रतिदिन कुछ न कुछ शारीरिक श्रम करना होता था, जैसे खेतों में काम करना, लकड़ियाँ काटना, जल भरना, आदि। तभी उन्हें भोजन मिलता था।
गुरु बाईझांग स्वयं इस नियम का कड़ाई से पालन करते थे। चाहे वे मठ के प्रधान हों, चाहे उम्रदराज़ हो गए हों, वे हर सुबह साधकों के साथ उठते, और काम में लग जाते। मठ के खेतों में फावड़ा चलाते, लकड़ी काटते, और कभी-कभी रसोई में भी मदद करते।
एक दिन शिष्यों ने देखा कि गुरु अब बूढ़े हो चले हैं, और उनकी पीठ झुक गई है। वे थकते जल्दी हैं, और फिर भी खेत में काम करने जाते हैं। शिष्यों को दया आई। वे सब मिलकर गुरु के पास पहुँचे और कहा, “गुरुदेव, अब आपकी उम्र हो चली है। कृपया अब काम मत कीजिए। हम सब मिलकर सारा कार्य कर लेंगे। आप केवल ध्यान कीजिए और विश्राम कीजिए।”
गुरु बाईझांग मुस्कराए और बोले, “नियम तो सभी पर समान लागू होता है। एक दिन यदि मैं काम नहीं करूँगा, तो भोजन नहीं करूँगा। यह मेरी साधना है।”
शिष्य ज़ोर देकर बोले, “गुरुदेव, यह तो आपकी बनाई व्यवस्था है, आप ही इसे बदल सकते हैं।”
गुरु ने गहराई से कहा, “यदि मैं स्वयं नियम का पालन नहीं करूँगा, तो वह केवल शब्द रह जाएगा, उसका मूल्य समाप्त हो जाएगा।”
अगले दिन गुरु फिर खेत में काम करने चले गए। शिष्यों ने चुपचाप देखा, लेकिन कुछ नहीं बोले।
एक दिन अचानक गुरु बीमार हो गए। शरीर में शक्ति नहीं थी, और वे बिस्तर पर पड़े थे। शिष्यों ने सोचा कि अब वे भोजन तो करेंगे नहीं, क्योंकि वे काम नहीं कर सकते। यह सोचकर शिष्यों ने रसोई से भोजन नहीं भेजा।
गुरु ने शाम होते-होते शिष्यों को बुलवाया और पूछा, “आज खेत में मैं नहीं जा सका, लेकिन क्या आज ध्यान नहीं किया? क्या आज मैंने अपनी साधना नहीं की?”
शिष्य चुप थे। गुरु बोले, “कार्य केवल शरीर का नहीं है। मन और शरीर दोनों की साधना ही पूर्ण साधना है। किंतु यह बात मैं जानता हूँ कि यदि मैं हर दिन इस नियम को नहीं मानूँगा, तो अहंकार और आत्ममुग्धता भीतर घर कर लेंगी। कार्य से विमुख होना, मौन की आड़ में आत्ममोह है।”
गुरु की बातों ने शिष्यों के हृदय को छू लिया। अगले दिन गुरु फिर से स्वस्थ होकर खेत में काम करने गए, और मुस्कराते हुए बोले, “जब तक यह शरीर है, तब तक श्रम है। श्रम ही ध्यान है।”
कथा से सीख:
1. साधना का अर्थ केवल ध्यान नहीं – जीवन में हर कार्य, यदि पूरी जागरूकता से किया जाए, तो वह साधना बन जाता है।
2. आत्मनिर्भरता का मूल्य – गुरु बाईझांग ने दिखाया कि भिक्षा या सेवा पर निर्भर रहना जेन पथ का उद्देश्य नहीं। आत्मनिर्भरता ही सच्ची स्वतंत्रता है।
3. नियम सभी पर लागू होते हैं – जो नियम स्वयं बनाता है, उसे भी उनका पालन करना चाहिए, तभी वे नियम सार्थक होते हैं।
4. श्रम और ध्यान में कोई भेद नहीं – शारीरिक श्रम यदि पूरी चेतना और समर्पण से किया जाए, तो वही ध्यान है।
5. जीवन का हर दिन एक साधना है – आज का कार्य, आज की साधना है। कल की आशा, या भविष्य की कल्पना में जीना – जेन मार्ग नहीं है।
“एक दिन की साधना, एक दिन का भोजन” केवल एक नियम नहीं, एक जीवन दृष्टि है। यह हमें सिखाती है कि हम अपने कर्मों से ही जीवन को सार्थक बनाते हैं। काम को बोझ न समझो, बल्कि ध्यान समझो। जेन यही कहता है — हर पल, हर कार्य में पूर्ण उपस्थिति, वही सच्चा ध्यान है। आलस्य और आश्रित जीवन से बचो, और अपने श्रम से, अपने ध्यान से, अपने जीवन को जागृत बनाओ।
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