फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम आंध्र प्रदेश की लोक कथा “घी सड़ गया” (Ghee Sad Gaya Lok Katha Andhra Pradesh) शेयर कर रहे है. यह कहानी हैदराबाद के निज़ाम मीर उस्मान अली खान की कंजूसी का वर्णन करती है और बताती है कि कंजूसी में उनका कोई सानी नहीं था. पढ़िये पूरी कहानी :
Ghee Sad Gaya Lok Katha Andhra Pradesh
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बात उस समय की है, जब मीर उस्मान अली खान हैदराबाद के नवाब थे। उन्हें द्वारा हैदराबाद की प्रगति के लिए कई कार्य करवाये, मसलन हैदराबाद उच्च न्यायालय, उस्मानिया विश्वविद्यालय, पुस्तकालय आदि कई शानदार भवनों का निर्माण उनके द्वारा करवाया गया। उनके द्वारा निज़ाम सागर का निर्माण भी करवाया गया।
एक तरफ वे हैदराबाद के प्रगति कार्यों के लिए मशहूर थे और दूसरी तरफ अपनी कंजूसी के लिये। कंजूसी में उनका कोई सानी नहीं था। इतने बड़े निज़ाम होने के बावजूद, धन दौलत हीरे जवाहरात की कोई कमी न होने के बावजूद वे छोटे छोटे खर्च करने के पूर्व घंटों विचार किया करते थे। कपड़े तो तब तक पहनते थे, जब तक वे तार-तार न हो जायें।
उनके खज़ाने में बहुमूल्य हीरे-मोती, जवाहरात, सोने-चांदी का भंडार था। फिर भी उनकी नज़र दूसरों की वस्तुओं पर रहा करती थी और उनकी कोशिश रहती थी कि किसी तरह वह वस्तु वे हथिया लें।
कहीं भी जाते, तो कोई भेंट न ले जाते। परंतु, स्वयं भेंट प्राप्त करने की अपेक्षा करते। किसी न किसी तरह कोई न कोई भेंट लेकर अवश्य लौटते। उस भेंट को वे तिजोरी में संभालकर रखते और उसका कभी कोई इस्तेमाल न करते।
एक बार की बात है। दतिया के महाराज उसने मुलाक़ात करने आये और बातों-बातों में दतिया के शुद्ध घी की बहुत तारीफ़ कर दी।
फिर क्या था? निज़ाम ने अपनी इच्छा जता दी कि उन्हें भी दतिया का शुद्ध घी चाहिए। दतिया के महाराज ने फौरन घी के कई कनस्तर भिजवा दिये।
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निज़ाम ने उन शुद्ध घी के कनस्तरों को गोदाम में रखवा दिया। सबको लगा कि कुछ दिनों में घी का इस्तेमाल व्यंजनों में किया जायेगा। लेकिन कंजूस नवाब ने घी गोदाम में ही पड़ा रहने दिया, न ख़ुद खाया न दूसरों को खाने दिया। हुआ ये कि पड़े-पड़े घी सड़ने लगा। धीरे-धीरे सड़े हुए घी की बदबू महल में फैलने लगी, इतनी कि असहनीय हो गई।
मजबूर होकर वज़ीर ने यह बात निज़ाम के कानों तक पहुँचाई। निज़ाम की कंजूसी का एक और नज़ारा यहाँ देखने को मिला। उन्होंने आदेश किया कि इस घी को मंदिरों और बाजारों में बिकवा दिया जाये।
वज़ीर परेशान! क्या करते? सड़ा हुआ, बदबूदार घी कौन खरीदता? लेकिन निज़ाम को कैसे समझाते? आखिरकार उन्होंने सारा घी नाली में फिंकवाया और स्वयं अपनी तरफ से उसकी रकम की भरपाई की।
निज़ाम के पास जाकर उन्होंने कहा, “हुक्म की तामील हुई हुजूर। सारा घी हाथों-हाथ बिक गया।”
निज़ाम बड़े खुश हुए और वज़ीर को तरक्की दे दी। ऐसे थे निज़ाम और उनकी कंजूसी।
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