फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम कक्षा 4 के लिए हिंदी शिक्षाप्रद कहानियाँ (Moral Story In Hindi Class 4 NCERT Rimjhim) शेयर कर रहे हैं. सभी कहानियाँ मनोरंजक और रोचक हैं. साथ ही शिक्षा भी प्रदान करती हैं. पढ़िए :
Hindi Story For Class 4 With Moral NCERT
Table of Contents
1. हुदहुद को कलगी कैसे मिली?
एक दिन बादशाह सुलेमान अपने उड़नखटोले में बैठकर कहीं जा रहे हैं. गर्मी का मौसम था. तेज धूप से बादशाह परेशान थे. उन्होंने देखा कि पास ही गिद्धों का झुंड उड़ता हुआ जा रहा है.
बादशाह सुलेमान पशु-पक्षियों से बातें किया करते थे. उन्होंने गिद्धों के सरदार को बुलाया और कहा, “आज बहुत तेज धूप है. तुम सब अपने पंख फैलाकर मुझ पर छाया कर दो, तो इस तेज धूप से मुझे राहत मिल जाएगी.”
“बादशाह सलामत! हम बहुत छोटे हैं. हमारे पंख भी बहुत छोटे हैं. और तो और हमारी गर्दन पर तो पंख ही नहीं है. हमें माफ़ करें. हम छाया नहीं कर पायेंगे.” ये कहकर गिद्धों का सरदार अपन साथियों के साथ तेजी से उड़ता हुआ दूर निकल गया.
बादशाह सुलेमान कुछ आगे बढे, तो उन्हें हुदहुदों का सरदार दिखाई पड़ा. उन्होंने उसे बुलाकर अपनी परेशानी बताई, तो गिद्ध की तुलना में बहुत छोटा पक्षी होते हुए भी वह मदद के लिए तैयार को गया.
अपने दल के साथियों के साथ पंख फैलाकर उसने बादशाह सुलेमान के ऊपर छाया कर दी.
बादशाह सुलेमान बहुत खुश हुए. वे हुदहुदों के सरदार से बोले, “कुछ देर पहले मैंने गिद्ध से मदद मांगी थी. लेकिन उसने मना कर दिया था. तुमने आकार में छोटे होते ही भी मेरी मदद की. मैं तुमसे बहुत ख़ुश हूँ. मांगों क्या मांगते हो?”
“बादशाह सलामत! मैं अपने दल के साथियों से सलाह करने के बाद ही कुछ मांगूंगा.” यह कहकर वह अपने साथियों के पास चला गया.
उनसे सलाह करने के बाद वह बादशाह सुलेमान के पास आया और बोला, “बादशाह सलामत! हमें वरदान दें कि अब से हमारे सिर पर सोने का ताज़ हो.”
यह सुनकर बादशाह सुलेमान बोले, “क्या तुमने इसके परिणाम के बारे में अच्छी तरह सोचा है?”
“बादशाह सलामत! हम सभी हुदहुदों की यही इच्छा है. हमने सोच-समझकर ही यह वरदान मांगा है.” हुदहुदों का मुखिया बोला.
“ठीक है! मैं तुम्हें मनचाहा वरदान देता हूँ.” बादशाह सुलेमान बोले और उसी समय सभी हुदहुदों के सिर पर सोने का ताज़ आ गया.
सभी हुदहुद बहुत ख़ुश हुए. लेकिन उनकी ये ख़ुशी अधिक दिनों तक नहीं रही. लोगों ने जब उनके सिर पर सोने का ताज़ देखा, तो सोना हासिल करने के लिए उनका शिकार करने लगे.
एक-एककर हुदहुदों के मारे जाने से हुदहुदों का वंश समाप्त होने को आ गया. घबराकर हुदहुदों का सरदार बादशाह सुलेमान के पास पहुँचा और बोला, “बादशाह सलामत! सोने की कलगी के कारण लोग हमें मारने लगे हैं. इस तरह तो धरती पर एक भी हुदहुद नहीं रहेगा. हमें ये सोने का ताज़ नहीं चाहिए. कृपा कर अपना वरदान वापस ले लीजिये.”
बादशाह सुलेमान बोले, “मुझे यही आशंका थी. इसलिए मैंने तुम्हें पहले ही चेताया था. खैर, अब से तुम्हारे सिर पर सोने का नहीं, बल्कि सुंदर परों का ताज़ होगा.”
तब से परों का सुंदर ताज़ (कलगी) हुदहुदों के सिर पर सुशोभित है.
सीख (Moral of the story)
जीवन में कोई भी निर्णय सोच-समझकर करना चाहिए.
2. मुफ़्त ही मुफ़्त
एक गाँव में भीखूभाई नाम का कंजूस आदमी रहता था. एक दिन उसने अपने पड़ोसी को नारियल खाते देखा, तो उसका मन भी ललचा गया.
उसने अपने पत्नि से कहा, “आज नारियल खाने का मन कर रहा है. ताज़ा, कसा हुआ, शक्कर के साथ.”
घर पर एक भी नारियल नहीं था.
पत्नि बोली, “नारियल खाना है, तो बाज़ार जाकर लाना पड़ेगा.”
“फिर तो इसके लिए पैसे भी खर्च करने पड़ेंगे.” कंजूस भीखूभाई सोचते हुए बोला.
“बिना पैसे के तो नारियल मिलने से रहा. नारियल ख़रीदने के लिए पैसे तो देने पड़ेंगे.” पत्नि बोली.
कंजूस भीखूभाई की जेब से पैसे कहाँ आसानी से निकलने वाले थे? वह घर के बाहर आंगन में जाकर बैठ गया. लेकिन उसका मन बार-बार नारियल को ओर जाले लगा. आख़िर, उससे न रहा गया. उसने सोचा, बाज़ार का एक चक्कर मारकर आता हूँ. पता तो चले कि नारियल किस दाम पर बिक रहे हैं. सस्ते हुए, तो ख़रीद लूंगा.”
वह अंदर गया और पत्नि से बोला, “एक थैला तो देना ज़रा. बाज़ार का एक चक्कर लगाकर आता हूँ.”
पत्नि से थैला लेकर जूते पहनकर और हाथ में छड़ी लेकर भीखूभाई बाज़ार की ओर चल पड़ा.
बाज़ार में बहुत सी चीज़ों की दुकाने सजी हुई थी. भीखूभाई को कुछ लेना तो था नहीं, फिर भी उसने सोचा कि जब यहाँ तक आ ही गया हूँ, तो कुछ चीज़ों के दाम पता कर लेता हूँ. वह कुछ दुकानों में गया और चीज़ों के दाम पूछने लगा.
फिर कुछ देर इधर-उधर घूमने के बाद वह एक नारियल वाले के पास पहुँचा और पूछा, “भैया, नारियल कितने में दे रहे हो?”
“बस बीस रुपये के काका.” नारियलवाला बोला.
कंजूस भीखूभाई बीस रुपये देने से तो रहा. वह मोलभाव करने लगा, “बीस रूपये तो बहुत ज्यादा है भैय्या. दस रूपये में दे दो.”
“नहीं काका, बीस रूपये से एक पैसा कम नहीं लूंगा. लेना है तो लो, नहीं तो कहीं और पता करो.” नारियलवाला बोला.
“अच्छा भाई, यही बता दो कि दस रूपये में कहाँ मिलेगा?” भीखूभाई की नारियल खाने की इच्छा अब भी बाकी थी.
“यहाँ से कुछ दूर पर जो मंडी है, वहाँ पता कर लो काका. शायद वहाँ मिल जाये.” नारियल वाले ने बताया.
भीखूभाई ने सोचा कि यहाँ तक आ गया हूँ, तो मंडी तक भी हो आता हूँ. दस रुपये बच जायेंगे. और उसने मंडी की राह पकड़ ली.
मंडी पहुँचते-पहुँचते भीखूभाई का पसीना छलक आया. पसीना पोछकर वह मंडी में घूमने लगा. वहाँ सभी सब्जी वाले आवाज़ लगाकर सब्जियाँ बेच रहे थी : आलू ले लो…प्याज ले लो….टमाटर ले लो.
भीखूभाई एक नारियलवाले के पास पहुँचा और पूछा, “नारियल कितने में दिए भाई?”
“दस रुपये का है काका. अपनी पसंद का छांटकर ले जाओ.” नारियलवाला बोला.
भीखूभाई ठहरा कंजूस. सोचने लगा, इतनी दूर पैदल चलकर आया हूँ, फिर इतने दाम क्यों दूं? दाम कुछ कम करवाता हूँ.
“दस रूपये तो बहुत महंगा है.पाँच रूपये में ये नारियल मुझे दे दो.” कहते हुए भीखूभाई ने एक नारियल उठा लिया.
“नहीं काका” नारियलवाला नारियल छीनते हुए बोला, “दस रूपये मतलब दस रूपये. उससे एक पैसा कम नहीं लूंगा.”
यह सुनकर भीखूभाई का मुँह उतर गया. वह कुछ देर वहीं खड़ा रहा, फिर बोला, “अच्छा भाई, ये ही बता दो कि पाँच रूपये में कहाँ मिलेगा?”
नारियल वाले ने सिर से पैर तक भीखूभाई को देखा और बोला, “बंदरगाह जाकर देख लो, शायद वहाँ मिल जाये.”
भीखूभाई ने सोचा कि यहाँ तक आ गया हूँ, तो बंदरगाह तक जाने में क्या बुराई है? थका भी नहीं हूँ, उतनी दूर तो चल ही लूंगा. फिर क्या था? छड़ी घुमाते हुए भीखूभाई बंदरगाह की ओर चल पड़ा. लेकिन आधे रास्ते में ही उनकी हिम्मत जवाब देने लगी.
रुक-रूककर, पसीना पोछते हुए किसी तरह पैर घिसटाकर भीखूभाई बंदरगाह तक पहुँचा. वहाँ एक नाववाला बैठा हुआ था. उसकी नाव में कुछ नारियल भी पड़े हुए थे.
भीखूभाई हाँफते-हाँफते उसके पास गया और पूछने लगा, “ये नारियल कितने का दे रहे हो भाई?”
“बस पाँच रूपये का काका” नाववाला बोला.
कंजूस भीखूभाई की कंजूसी फिर से उस पर हावी हो गई. उसने सोचा कि कितनी मुश्किल से यहाँ तक चलकर आया हूँ. फिर पाँच रुपये क्यों दू? दो रुपये में मांगकर देखता हूँ.
“अरे..रे..रे.. पाँच रूपये तो बहुत ज्यादा लगा रहे हो. मैं तो दो रुपये में लूंगा.” कहते हुए वह झुककर नारियल उठाने लगा.
“नारियल नीचे रख दो काका…कोई मोल-भाव नहीं…..पाँच रूपये में लेना हो, तो लो. नहीं तो हमें और ग्राहक मिल जायेंगे.”
मन मारकर भीखूभाई ने नारियल वापस रख दिया और रोनी सूरत बनाकर वहीं खड़ा रहा. नारियल वाले ने उसे भागने के लिए कहा, “यहाँ से कुछ दूर नारियल का बगीचा है, वहाँ सस्ते में मिल जायेंगे.”
ये सुनना था कि भीखूभाई का चेहरा खिल उठा. थके-हरे शरीर में फिर से फुर्ती का संचार हो गया. उसने सोचा कि थोड़ा ज्यादा चलना पड़ेगा, लेकिन पैसे भी तो बच जायेंगे. पैसे बचाने के लिए थोड़ी मेहनत कर लेता हूँ.
वह धीरे-धीरे चलते-चलते नारियल के बगीचे में पहुँचा. वहाँ माली से पूछा, “नारियल कितने में दोगे?”
“बस दो रूपये में. इतने सस्ते में इतने बड़े और मीठे नारियल कहीं नहीं मिलेंगे. जितनी मर्ज़ी ले जाओ काका.” माली बोला.
इतने दूर जूते घिस कर चलकर आने वाला भीखूभाई अब एक भी पैसा खर्च करना नहीं चाहता था. वह बोला, “क्या भाई? इतनी दूर चलकर आया हूँ. नारियल के बगीचे में कौन नारियल के पैसे लेता है. मुफ़्त में दे दो.”
“मुफ़्त में नारियल चाहिए?” माली ने पूछा.
“हाँ भाई….मुफ़्त में दे दो. इतने सारे है…एक के क्या पैसे लेना…” भीखूभाई माली की खुशामद करते हुए बोला.
“एक क्या, जितने चाहिए उतने ले लो. पैसे तो मैं अपनी मेहनत का लेता हूँ. मुफ़्त में लेना है, तो चढ़ जाओ पेड़ पर और जितनी मर्ज़ी तोड़ लो.” माली बोला.
“सच” भीखूभाई ख़ुशी से नाच उठा. उसकी तो किस्मत खुल गई थी. बिना देर किये वह एक नारियल के पेड़ पर चढ़ गया. टहनी और तने के बीच बैठकर उसने एक बड़ा सा नारियल देखा और उसे पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाने लगा. लेकिन ये क्या? उसका पैर फ़िसल गया.
नारियल को कसकर पकड़कर भीखूभाई नीचे गिरने से तो बच गया, लेकिन उसके दोनों पैर हवा में झूल गये.
मदद के लिए वह चिल्लाने लगा, “माली ओ माली…मदद करो भाई…नीचे गिर गया, तो कचूमर निकल जायेगा.”
“ये मेरा काम नहीं है काका. तुम्हें मुफ़्त में नारियल चाहिए थे, तो तुम पेड़ पर चढ़े. अब आगे जो हो…उसके भी मुफ़्त में मज़े लो.” कहकर माली वहाँ से चला गया.
तभी वहाँ से एक ऊँट पर सवार आदमी गुज़रा. उसे देख भीखूभाई चिल्लाया, “अरे भाई! मैं यहाँ पेड़ पर लटका हूँ. मदद कर दो….बहुत मेहरबानी होगी”
ऊँट वाले ने सोचा कि मैं तो ऊँट पर हूँ. इसकी मदद कर देता हूँ. ये सोचकर वह भीखूभाई के पास पहुँचा और ऊँट की पीठ पर खड़े होकर भीखूभाई का पैर पकड़ लिया. लेकिन ऊँट तो ऊँट था. उसने हरे-भरे पत्ते देखे, तो उन्हें खाने चल पड़ा. इधर उसकी पीठ पर खड़े आदमी का पैर फ़िसल गया. नीचे गिरने से बचने के लिए उसने भीखूभाई के पैर पकड़ लिए. अब दो लोग पेड़ पर लटके हुए थे.
उसी समय वहाँ से एक घुड़सवार गुजरा. वे लोग मदद ने लिए उसे पुकारने लगे. घुड़सवार ने सोचा, “चलो. इनकी मदद कर देता हूँ.”
वह उनके पास पहुँचा और उनकी मदद करने घोड़े की पीठ पर खड़े हो गया. लेकिन घोड़ा ऊँट से भी तेज निकला. नरम-मुलायम हरी घास देखकर उसे चरने आगे बढ़ गया. इधर घुड़सवार ने खुद को गिरने से बचाने के लिए ऊँटवाले के पैर पकड़ लिए.
अब नारियल के पेड़ पर तीन लोग लटके हुए थे : भीखूभाई, ऊँटवाला और घुड़सवार.
पेड़ से नीचे न गिरने का पूरा दारोमदार अब भीखूभाई के ऊपर था. घुड़सवार चिल्लाया, “काका, जब तक कोई आ ना जाए, तब तक नारियल मत छोड़ना. मैं तुम्हें सौ रूपये दूंगा.”
ऊँट वाले ने बोली बढ़ा दी, “मैं तुम्हें दो सौ रूपये दूंगा काका. नारियल मत छोड़ना.”
एक सौ…और… दो सौ…तीन सौ रुपये सुनकर भीखूभाई का दिमाग चकरा गया, “तीन सौ रुपये…इतने पैसे मुझे मिलेंगे…अरे वाह!!” ख़ुशी इतनी कि संभाले नहीं संभली और उसने दोनों हाथ फैला दिए.
नारियल हाथ से छूट गया और तीनों सीधे नीचे आ गिरे : घुड़सवार, उसके ऊपर ऊँटवाला और उसके ऊपर भीखूभाई. भीखूभाई ख़ुद को संभालने की कोशिश कर ही रहा था कि एक बड़ा सा नारियल सीधे उसके सिर पर आकर गिरा.
बिल्कुल मुफ़्त!!
सीख (Moral of the story)
कंजूसी करने पर लेने के देने भी पड़ जाते हैं.
3. दान का हिसाब
एक राज्य में एक राजा का शासन था. वह कीमती वस्त्रों, आभूषणों और मनोरंजन में अत्यधिक धन खर्च कर दिया करता था. परन्तु, दान-धर्म में एक दमड़ी खर्च नहीं करता था.
जब भी कोई ज़रूरतमंद और लाचार व्यक्ति सहायता की आस में उसके दरबार में आता, तो उसे खाली हाथ लौटा दिया जाता था. इसलिए लोगों ने उसके पास जाना ही छोड़ दिया था.
एक वर्ष राज्य में वर्षा नहीं हुई, जिससे वहाँ सूखा पड़ गया. सूखे से फ़सल नष्ट हो गई. चारो ओर त्राहि-त्राहि मच गई. लोग भूख-प्यास से मरने लगे.
राजा के कानों तक जब प्रजा का हाल पहुँचा, तो वह कन्नी काटते हुए बोला, “अब इंद्र देवता रूठ गए हैं, तो इसमें मेरा क्या दोष है. मैं भला क्या कर सकता हूँ?”
प्रजा उनके समक्ष सहायता की गुहार लेकर आई, “महाराज सहायता करें. अब आपका ही सहारा है. राजकोष से थोड़ा धन प्रदान कर दें, ताकि अन्य देशों से अनाज क्रय कर भूखे मरने से बच सकें.”
राजा उन्हें दुत्कारते हुए बोला, “जाओ अपनी व्यवस्था स्वयं करो. आज सूखे से तुम्हारी फ़सल नष्ट हो गई. कल अतिवृष्टि से हो जायेगी और तुम लोग ऐसे ही हाथ फैलाये मेरे पास आ जाओगे. तुम लोगों पर यूं ही राजकोष का धन लुटाता रहा, तो मैं कंगाल हो जाऊंगा. जाओ यहाँ से.”
दु:खी मन से लोग वापस चले गए. किंतु, समय बीतने के साथ सूखे का प्रकोप बढ़ता चला गया. अन्न के एक-एक दाने को मोहताज़ हो जाने पर लोगों के पास कोई चारा नहीं रहा और वे फिर से राजा के पास पहुँचे.
सहायता की याचना करते हुए वे बोले, “महाराज! हम लाचार हैं. खाने को अन्न का एक दाना नहीं है. राजकोष से मात्र दस हज़ार रूपये की सहायता प्रदान कर दीजिये. आजीवन आपके ऋणी रहेंगे.”
“दस हज़ार रूपये! जानते भी हो कि ये कितने होते हैं? इस तरह मैं तुम लोगों पर धन नहीं लुटा सकता.” राजा बोला.
“महाराज! राजकोष सगार है और दस हज़ार रूपये एक बूंद. एक बूँद दे देने से सागर थोड़े ही खाली हो जायेगा.” लोग बोले.
“तो इसका अर्थ है कि मैं दोनों हाथों से धन लुटाता फिरूं.” राजा तुनककर बोला.
“महाराज! हम धन लुटाने को नहीं कह रहे. सहायता के लिए कह रहे हैं. वैसे भी हजारों रूपये कीमती वस्त्रों, आभूषणों, मनोरंजन में प्रतिदिन व्यय होते है. वही रूपये हम निर्धनों के काम आ जायेंगे.”
“मेरा धन है. मैं जैसे चाहे उपयोग करूं? तुम लोग कौन होते हो, मुझे ज्ञान देने वाले? तत्काल मेरी दृष्टि से दूर हो जाओ, अन्यथा कारागार में डलवा दूंगा.” राजा क्रोधित होकर बोला.
राजा का क्रोध देख लोग चले गए.
दरबारी भी राजा का व्यवहार देख दु:खी थे. ऐसी आपदा के समय प्रजा अपने राजा से आस न रखे, तो किससे रखे? ये बात वे राजा से कहना चाहते थे, किंतु उसका क्रोध देख कुछ न कह सके.
राजा ही बोला, “दस हज़ार रूपये मांगने आये थे. अगर सौ-दो सौ रूपये भी मांगे होते, तो दे देता और उसकी क्षतिपूर्ति किसी तरह कर लेता. किंतु, इन लोगों ने तो बिना सोचे-समझे अपना मुँह खोल दिया. सच में अब तो नाक में दम हो गया है.”
अब दरबारी क्या कहते? शांत रहे. किंतु, मन ही मन सोच रहे थे कि राजा ने प्रजा के प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभाया.
कुछ दिन और बीत गए. किंतु, सूखे का प्रकोप रुका नहीं, बढ़ता ही गया. इधर राजा इन सबके प्रति आँखें मूंद अपने भोग-विलास में लगा रहा.
एक दिन एक सन्यासी दरबार में आया और राजा को प्रणाम कर बोला, “महाराज! सुना है आप दानवीर हैं. सहायता की गुहार लेकर उपस्थित हुआ हूँ.”
राजा आश्चर्य में पड़ गया, सोचने लगा कि ये सन्यासी कहाँ से मेरे दान-पुण्य के बारे में सुनकर आया है. मैंने तो कभी किसी को दान नहीं दिया. कहीं दान लेने के लिए ये बात तो नहीं बना रहा.
फिर सन्यासी से पूछा, “क्या चाहिए तुम्हें? यदि अपनी सीमा में रहकर मांगोगे, तो तुम्हें प्रदान किया जाएगा. किंतु, अत्यधिक की आस मत रखना.”
सन्यासी बोला, “महाराज! मैं तो एक सन्यासी हूँ. मुझे अत्यधिक धन का लोभ नहीं. बस इक्कीस दिनों तक राजकोष से कुछ भिक्षा दे दीजिए. किंतु, भिक्षा लेने का मेरा तरीका है. मैं हर दिन पिछले दिन से दुगुनी भिक्षा लेता हूँ. आपको भी ऐसा ही करना होगा”
राजा सोचते हुए बोला, “पहले ये बताओ कि पहले दिन कितनी भिक्षा लोगे. तब मैं निर्णय करूंगा कि तुम्हें राजकोष से भिक्षा दी जाए या नहीं. दो-चार रूपये मांगोगे, तो मिल सकते हैं. दस-बीस रुपये मांगोगे, तो कठिनाई होगी.”
सन्यासी बोला, “महाराज! कहा ना मैं ठहरा सन्यासी. अधिक धन का क्या करूंगा? आप मुझे पहले दिन मात्र एक रूपया दे देना.”
सुनकर राजा बोला, “ठीक है, मैं तुम्हें पहले दिन एक रुपया और उसके बाद बीस दिनों तक प्रतिदिन पिछले दिन का दुगुना धन देने का वचन देता हूँ.”
राजा ने तत्काल कोषाध्यक्ष को बुलवाया और उसे अपना आदेश सुना दिया. राजकोष से सन्यासी को एक रुपया मिल गया और वह राजा की जयकार करता हुआ चला गया.
उसके बाद प्रतिदिन सन्यासी को राजकोष से धन मिलने लगा. कुछ दिन बीतने के बाद राजभंडारी ने हिसाब लगाया, तो पाया कि राजकोष का धन कम हुए जा रहा है और इसका कारण सन्यासी को दिया जाने वाला दान है.
उसने मंत्री को यह जानकारी दी. मंत्री भी उलझन में पड़ गया. वह बोला, “यह बात हमें पहले विचार करनी चाहिए थी. अब क्या कर सकते हैं. ये तो महाराज का आदेश है. हम उनके आदेश का उल्लंघन कैसे कर सकते हैं?”
राजभंडारी कुछ नहीं बोला. कुछ दिन और बीते और राजकोष से धन की निकासी बढ़ने लगी, तो वह फिर से भागा-भागा मंत्री के पास पहुँचा और बोला, “मंत्री जी! इस बार मैंने पूरा हिसाब किया है. वह हिसाब लेकर ही आपके पास उपस्थित हुआ हूँ.”
मंत्री ने जब हिसाब देखा, तो चकित रह गया. उसके माथे पर पसीना आ गया. उसने पूछा, “क्या यह हिसाब सही है.”
“बिल्कुल सही. मैंने कई बार स्वयं गणना की है.” राजभंडारी बोला.
“इतना धन चला गया है और अभी इक्कीस दिन होने में बहुत समय है. इक्कीस दिनों बाद क्या स्थिति बनेगी? जरा बताओ तो?”
भंडारी बोला, “वह हिसाब तो मैंने नहीं लगाया है.”
“तो तत्काल हिसाब लगाकर मुझे बताओ.” मंत्री ने आदेश दिया.
भंडारी हिसाब करने लगा और पूरा हिसाब करके बोला, “मंत्री जी! इक्कीस दिनों में सन्यासी की दान की रकम दस लाख अड़तालीस हजार पांच सौ छिहत्तर रूपये होगी.”
“क्या?” मंत्री बोला, “तुमने सही हिसाब तो लगाया है. इतना धन सन्यासी ले जायेगा, तो राजकोष खाली हो जायेगा. हमें तत्काल ये जानकारी महाराज को देनी होगी.”
वे तत्क्षण राजा के पास पहुँचे और पूरा हिसाब उसके सामने रख दिया. राजा ने जब हिसाब देखा, तो उसे चक्कर आ गया. फिर ख़ुद को संभालकर वह बोला, “ये सब क्या है?”
मंत्री बोला, “सन्यासी को दान देने के कारण राजकोष खाली हो रहा है.”
राजा बोला, “ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने तो उसे बहुत ही कम धन देने का आदेश दिया था.”
मंत्री बोला, “महाराज! वह सन्यासी बहुत चतुर निकला. अपनी बातों में फंसाकर वह राजकोष से बहुत सारा धन ऐंठने के प्रयास में है.”
राजा ने राजभंडारी से पूछा, “फिर से बताओ कितना धन सन्यासी लेने वाला है?”
“दस लाख अड़तालीस हजार पांच सौ छिहत्तर“ राजभंडारी बोला.
“परन्तु मुझे लगता है कि मैंने इतना धन देने का आदेश तो नहीं दिया था. मैं ऐसा आदेश दे ही नहीं सकता. जब मैंने अकाल पीड़ित प्रजा को दस हजार रुपये नहीं दिए, तो भला एक सन्यासी को इतना धन क्यों दूंगा?” राजा सोचते हुए बोला.
“किंतु सब आपके आदेश अनुसार ही हो रहा है महाराज. चाहे तो आप स्वयं हिसाब कर लीजिये.” राजभंडारी बोला. मंत्री ने भी उसका समर्थन किया.
“अभी इसी समय उस सन्यासी को मेरे समक्ष प्रस्तुत करो.” राजा चिल्लाया.
तुरंत कुछ सैनिक भेजे गए और वे सन्यासी को लेकर राजा के सामने उपस्थित हुए. सन्यासी को देखते ही राजा उसके चरणों पर गिर पड़ा और बोला, “बाबा, आपको दिए वचन से मेरा राजकोष खाली हुआ जा रहा है. इस तरह तो मैं कंगाल हो जाऊँगा. फिर मैं राजपाट कैसे चला पाऊँगा? किसी तरह मुझे इस वचन से मुक्त कर दीजिये. दया कीजिये.”
सन्यासी ने राजा को उठाया और बोला, “ठीक है मैं तुम्हें इस वचन से मुक्त करता हूँ. किंतु इसके बदले तुम्हें राज्य की प्रजा को पचास हज़ार रूपये देने होंगे. ताकि वे अकाल का सामना कर सकें.”
राजा बोला, “किंतु बाबा, वे लोग जब आये थे, तब दस हजार मांग रहे थे.”
“किंतु मैं पचास हजार ही लूँगा. उससे एक ढेला कम नहीं.” सन्यासी ने अपना निर्णय सुनाया.
राजा बहुत गिड़गिड़ाया, किंतु सन्यासी अपनी बात अड़ा रहा. अंततः विवश होकर राजा पचास हजार रूपये देने तैयार हो गया.
सन्यासी ने अपना वचन वापस ले लिया और चला गया. राजकोष से प्रजा को पचास हजार रूपये दिए गए. प्रजा बहुत प्रसन्न हुई और राजा की जय-जयकार करने लगी. दु:खी राजा बहुत दिनों तक भोग-विलास से दूर रहा.
सीख (Moral of the story)
१. जब सीढ़ी उंगली से घी ना निकले, तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है.
२. भला करोगे, तो चारों ओर गुणगान होगा.
4. सुनीता की पहिया कुर्सी
उस दिन स्कूल की छुट्टी थी. इसलिए वह देर से सोकर उठी. उस दिन क्या करना है, ये उसने पहले से ही तय कर रखा था. वह पहली बार अकेले बाज़ार जाने वाली थी और इस बात को लेकर वह बहुत उत्साहित थी. वह बिस्तर पर बैठे-बैठे ही इस बारे में सोच रही थी कि माँ ने उसे आवाज़ दी, “सुनीता उठ गई हो, तो जल्दी से नाश्ते के लिए आओ. नाश्ता तैयार है.”
माँ की आवाज़ सुनकर सुनीता खिसकते हुए बिस्तर के किनारे पर आई. फिर उसने हाथों से पकड़कर अपनी टांगों को पलंग के नीचे लटकाया. पलंग का किनारा पकड़कर वह अपनी पहिया कुर्सी तक पहुँची. पहिया कुर्सी के सहारे ही सुनीता चलती-फ़िरती है. पहिया कुर्सी में बैठकर इधर-उधर जाकर वह अपने सारे काम कर लेती है. अपना काम ख़ुद करने में उसे आनंद आता है और संतुष्टि भी मिलती है.
सुनीता झटपट नहा-धोकर तैयार हो गई. आठ बजे तक वह नाश्ते के टेबल पर पहुँच गई. माँ ने उसके लिए गरमागर्म आलू के पराठे परोस दिए.
सुनीता को अचार चाहिए था. वह माँ से बोली, “माँ अचार की बोतल कहाँ है?”
“सामने अलमारी में रखी है. जाओ जाकर ले लो.” माँ ने उत्तर दिया.
सुनीता अपनी पहिया कुर्सी से किचन की अलमारी तक गई और अचार की बोतल लेकर नाश्ते की टेबल पर वापस आ गई.
“माँ आज मैं बाज़ार जा रही हूँ. आपको कुछ मंगवाना हो, तो बता दो.” सुनीता ने माँ से कहा.
“घर पर चीनी ख़त्म हो गई है. ऐसा करना एक किलो चीनी ले आना. वैसे तुम अकेली बाज़ार चली जाओगी ना बेटा. कहो तो मैं भी साथ चलती हूँ.” माँ चिंतित होकर बोली.
“माँ मैं चली जाऊंगी, आप फ़िक्र मत करो. अगर जाऊंगी नहीं, तो सीखूंगी कैसे? मैं तो बहुत उत्साहित हूँ अकेले बाज़ार जाने के लिए.” सुनीता मुस्कुराते हुए बोली.
“अच्छी बात है. नाश्ता ख़त्म कर लो. फिर मैं तुम्हें पैसे और थैला देती हूँ.” माँ बोली और किचन में चली गई.
नाश्ता ख़त्म करने ने बाद सुनीता ने माँ से पैसे और थैला लिया और अपनी पहिया कुर्सी पर बैठकर बाज़ार के लिए निकल गई.
पहिया कुर्सी पर बैठे सड़क पर आगे बढ़ते हुए सुनीता बहुत ख़ुश थी. उसे बड़ा मज़ा आ रहा था. छुट्टी का दिन था. इसलिए बच्चे बाहर ही खेल रहे थे. कोई क्रिकेट खेल रहा था, तो कोई फुटबॉल, कोई रस्सी कूद रहा था, तो कोई लुका-छिपी खेल रहा था. सुनीता का मन भी उनके साथ खेलने को हुआ. लेकिन वह नहीं खेल सकती थी. वह अपनी पहिया कुर्सी रोककर एक खेल के मैदान में बच्चों को खेलते हुए देखने लगी.
पास ही एक लड़की खड़ी थी. उसकी माँ उसे लेने आई थी. वह सुनीता को बड़े गौर से देखनी लगी. सुनीता को कुछ अजीब लगा, तो वो मैदान में खेल एक लड़के को देखने लगी. उसका कद छोटा था, जिसे सब लोग छोटू-छोटू कहकर चिढ़ा रहे थे. सुनीता को यह देखकर बुरा लगा और गुस्सा भी आया.
फिर सुनीता आगे बढ़ गई. रास्ते में उसे कई लोग दिखे, जो उसे देखकर मुस्कुराये. सुनीता उन्हें नहीं जानती थी. इसलिए समझ नहीं पा रही थी कि वे लोग उसे देखकर क्यों मुस्कुरा रहे हैं.
जो लड़की उसे खेल के मैदान में दिखी थी, वह उसे फिर से कपड़े की दुकान के बाहर खड़ी दिखी. उसकी माँ उसके लिए कपड़े ख़रीद रही थी.
सुनीता उसके पास रुकी, तो उसने पूछा, “ये अजीब से चीज़ क्या है? तुम इस पर बैठकर क्यों घूम रही हो?”
“यह मेरी…..” सुनीता ने कहना चाहा, लेकिन इसके पहले कि वह अपना वाक्य पूरा कर पाती, उस लड़की की माँ आई और उस लड़की को चुप कराते हुए बोली, “ऐसा नहीं कहते फ़रीदा. अच्छी बात नहीं है.” फिर वह फ़रीदा को लेकर चली गई.
फ़रीदा की माँ का व्यवहार देख सुनीता उदास हो गई और सोचने लगी, “मैं दूसरों से अलग नहीं हूँ.”
फिर सुनीता वहाँ से आगे बढ़ी और बाज़ार पहुँच गई. वहाँ चीनी ख़रीदने के लिए उसे एक दुकान में जाना था. लेकिन वहाँ पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थी. पहिया कुर्सी उन सीढ़ियों पर चढ़ाना सुनीता के लिए मुश्किल था. वह वहाँ रुक गई. बाज़ार में घूम रहे लोग अपनी ख़रीददारी में व्यस्त थे. किसी का भी ध्यान सुनीता की ओर नहीं गया.
तभी खेल के मैदान वाला छोटा लड़का वहाँ आया और सुनीता से बोला, “मैं तुम्हारी मदद कर दूं.”
उसे देख सुनीता बोली, “ज़रूर, लेकिन पहले अपना नाम तो बताओ.”
“मेरा नाम अमित है.” लड़का बोला.
“और मेरा नाम सुनीता है.” सुनीता बोली.
अमित ने पहिया कुर्सी सीढ़ी के ऊपर चढ़ा दी और सुनीता उसे धन्यवाद देकर दुकान में घुस गई. दुकानदार उसे देखकर मुस्कुराया और पूछा, “क्या चाहिए?”
“एक किलो चीनी.” सुनीता बोली.
दुकानदार ने चीनी तौली और उसे एक थैले में रखकर सुनीता को देने लगा. सुनीता ने थैली पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया. लेकिन उसका हाथ थैले तक नहीं पहुँचा. वह पहिया कुर्सी को आगे बढ़ाने को हुई, इसके पहले ही दुकानदार ने आकर थैली उसकी गोदी में रख दी.
यह देख सुनीता को गुस्सा आ गया. उसे दुकानदार का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा. अपना गुस्सा जताते हुए वह बोली, “जैसे दूसरे अपने हाथों से अपना सामान ले सकते हैं, वैसे मैं भी ले सकती हूँ.”
फिर वह दुकान से बाहर निकल गई. अमित उसे बाहर खड़ा मिला. उसने उसकी पहिया कुर्सी सीढ़ी से नीचे उतार दी.
सुनीता की नाराज़गी कम नहीं हुई थी. वह अमित से बोली, “मुझे समझ में नहीं आता कि लोग मुझसे ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं. मुझे देख बिना बात मुस्कुराते हैं. बिना मांगे मदद करने लगते हैं. मुझे अहसास दिलाते हैं कि मैं उनसे अलग हूँ. मुझे बहुत बुरा लगता है.”
अमित बोला, “ऐसा शायद तुम्हारी पहिया कुर्सी के कारण है.”
“ऐसा क्यों? इस कुर्सी में ऐसा क्या है. मैं तो बचपन से इस पर बैठकर ही चलती हूँ.” सुनीता बोली.
“अच्छा, लेकिन तुम इस पर क्यों बैठती हो?” अमित ने पूछा.
“इसलिए, क्योंकि मैं अपने पैरों से चल-फिर नहीं पाती और मुझे चलने-फिरने के लिए इस पहिया कुर्सी की मदद लेनी पड़ती है. लेकिन पहिया कुर्सी पर बैठकर मैं इधर-उधर जा सकती हूँ. अपने काम कर सकती हूँ. सिर्फ़ इस पर बैठने के कारण मैं दूसरे बच्चों से अलग नहीं हूँ. मैंने भी उन जैसी ही हूँ.” सुनीता बोली.
“मैं वो सारे काम कर लेता हूँ, जो दूसरे बच्चे करते हैं. लेकिन फ़िर भी वे मैं उनसे अलग हूँ. क्योंकि मेरा कद छोटा है. वैसे ही तुम भी उनसे अलग हो.” अमित सुनीता को समझाते हुये बोला.
“नहीं, हम दूसरे बच्चों जैसे ही हैं.” सुनीता ने बहस की.
“नहीं, मान लो हम अलग हैं. तुम पहिया कुर्सी पर बैठकर चलती हो और मेरा कद बहुत छोटा है.” अमित बोला.
सुनीता चुप हो गई. फिर बोली, “ऐसा करो मेरी पहिया कुर्सी को आगे ढकेलो.”
अमित ने उसकी कुर्सी ढकेल दी और वह सड़क पार जाने लगी. अमित भी उसके पीछे-पीछे जाने लगा. कुछ देर बाद वह भी पहिया कुर्सी पर चढ़ गया. वहाँ उन्हें फरीदा भी नज़र आई. वह उनके पीछे दौड़ने लगी. उसे भी पहिया कुर्सी पर चढ़ना था. सुनीता कुछ सोचने लगी. लोग अब भी उन्हें घूर रहे थे. लेकिन उनमें से किसी को किसी की परवाह नहीं थी.
सीख (Moral of the story)
१. स्वावलंबी बनो.
२. दूसरों आपके बारे में क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, उसकी परवाह करना छोड़ अपना आत्म-विश्वास बनाकर जीवन में आगे बढ़ो.
5. जैसा सवाल वैसा जवाब
बीरबल बादशाह अकबर के मुख्य सलाहकार थे. उनकी बुद्धिमानी और वाकपटुता के क्या कहने? बड़े-बड़े सूरमा भी उनके सामने नत-मस्तक हो जाया करते थे. इसलिए वे अकबर के अतिप्रिय थे.
अकबर का बीरबल पर मेहरबान होना कई दरबारियों को खलता था. वे उनसे ईर्ष्या करते थे और उन्हें अकबर ने सामने नीचा दिखाने के अवसर की तलाश में रहते थे. उनमें से ही एक थे ख्वाजा सारा, जो अकबर के ख़ास दरबारी थे.
ख्वाजा सारा को अपनी विद्या और ज्ञान का बड़ा अभिमान था. बीरबल को तो वे निरा मूर्ख समझते थे. वे उन्हें दरबार से तो क्या हिंदुस्तान से ही बाहर निकलवा देना चाहते थे. इसलिए नित नए खुराफ़ाती उपाय सोचा करते थे.
एक दिन उन्होंने कुछ सवालों की सूची तैयार की. उन्हें यकीन था कि ऐसे टेढ़े सवालों का जवाब देना बीरबल के बस के बाहर है. बीरबल के जवाब ना दे पाने पर बादशाह मान ही जायेंगे कि ख्वाजा सारा की बुद्धि के सामने बीरबल की बुद्धि कुछ भी नहीं. ऐसा सोच वे अपनी नई अचकन और पगड़ी पहनकर ख़ुशी-ख़ुशी दरबार पहुँचे.
बादशाह अकबर को सलाम कर वे बोले, “जहाँपनाह! बीरबल ख़ुद को बड़ा अक्लमंद समझता है. आप भी उसे बेहद पसंद करते हैं. मैं चाहता हूँ कि वो इन तीन सवालों के जवाब दे. पता चल जाएगा कि उसकी अक्लमंदी की धार कितनी है?”
अकबर ने बीरबल को बुलाया और कहा, “बीरबल ख्वाजा साहब तुमसे कुछ सवाल पूछना चाहते हैं. क्या तुम उनका जवाब देने तैयार हो?”
बीरबल बोले, “जहाँपनाह! मैं तैयार हूँ. पूछें सवाल.”
ख्वाजा सारा ने सवालों की सूची बादशाह अकबर को दे दी.
अकबर ने उन सवालों में से पहला सवाल पूछा –
“संसार का केंद्र कहाँ है?”
बीरबल ने फ़ौरन जमीन पर अपनी छड़ी गाड़ दी और बोले, “जहाँपनाह! संसार का केंद्र यहीं है. यदि ख्वाजा साहब को यकीन ना हो, तो सारी दुनिया को फ़ीते से नापकर साबित कर दें कि मेरा जवाब गलत है.
अकबर ने दूसरा सवाल किया –
”आकाश में कितने तारें हैं?”
बीरबल ने एक एक सेवक से कहकर भेड़ मंगवाई और बोले, “जहाँपनाह! इस भेड़ के शरीर पर जितने बाल हैं. उतने ही तारे आसमान में हैं. ख्वाजा साहब भेड़ के बालों को गिन सकते है और उसकी तारों से तुलना कर सकते हैं.”
अकबर ने तीसरा सवाल किया –
“संसार की आबादी कितनी है?”
बीरबल बोले, “जहाँपनाह! संसार की आबादी एक सी नहीं रहती. हर पल कितने लोग पैदा होते हैं और कितने ही मरते हैं. ऐसे में यदि ख्वाजा साहब संसार के सभी लोगों को एक जगह इकठ्ठा कर दें, तो उन्हें गिनकर उनकी संख्या बताई जा सकती है.”
बीरबल के जवाबों से बादशाह अकबर संतुष्ट थे. लेकिन, ख्वाज़ साहब का मुँह बन गया. वे बोले, “ये तो सवालों के गोल-मोल जवाब है. ऐसे काम नहीं चलेगा.”
बीरबल बोले, “आपके सवाल जैसे थे, मेरे जवाब भी वैसे ही थे. ऐसे सवालों के और कैसे जवाबों की उम्मीद की जा सकती है. आपको संदेह हो, तो मेरे जवाबों को गलत साबित करके दिखाइए. फ़िर आगे बात कीजिये.”
अब ख्व्ज़ा साहब क्या कहते? बीरबल के जवाबों को गलत साबित करना उनके बस के बाहर था. वे वहाँ से खिसक लिये.
सीख (Moral of the story)
जो जैसा हो, उससे वैसे ही निपटना चाहिए.
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