Mythological Story

कृष्ण और सुदामा की कहानी | Krishna And Sudama Story In Hindi

कृष्ण और सुदामा की कहानी | Krishna And Sudama Story In Hindi | Krishna Aur Sudama Ki Kahani Pauranik Katha 

कई युग पहले की बात है, जब धरती पर भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया था। मथुरा और वृंदावन की गलियों में उनकी लीलाएँ गूँजती थीं। बचपन में उनके परम मित्र थे सुदामा, जिससे उनकी मित्रता गुरुकुल में हुई थी।

Krishna And Sudama Story In Hindi

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Krishna And Sudama Story In Hindi

Krishna Aur Sudama Ki Kahani 

संदीपन ऋषि का आश्रम हरे-भरे जंगलों के बीच बसा था। यहाँ यदुवंश के राजकुमार कृष्ण और एक साधारण ब्राह्मण पुत्र सुदामा एक साथ वेद-शास्त्र सीखते थे। कृष्ण, जिनकी मुस्कान में सारा संसार बसता था, और सुदामा, जिनकी आँखों में सादगी और शांति झलकती थी, जल्दी ही अटूट मित्र बन गए। दोनों दिनभर गुरु की सेवा करते, शास्त्रों पर चर्चा करते और शाम को नदी किनारे बैठकर हँसी-मजाक करते।

एक दिन गुरुमाता ने दोनों को जंगल से लकड़ियाँ लाने को कहा। जंगल में घूमते-घूमते अचानक मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। दोनों एक विशाल वृक्ष के नीचे शरण लेने को मजबूर हुए। सुदामा के पास गुरुमाता द्वारा दी गई भुने चनों की एक छोटी-सी पोटली थी। भूख से व्याकुल कृष्ण ने चने माँगे, लेकिन सुदामा झिझके। “इतना साधारण भोजन मैं अपने मित्र को कैसे दूँ?” उन्होंने सोचा। लेकिन कृष्ण की जिद और चंचल हँसी के आगे सुदामा हार गए। दोनों ने चने बाँटकर खाए और बारिश के थमने तक पुरानी कहानियों में खो गए। उस पल में न राजकुमार था, न ब्राह्मण—सिर्फ दो मित्र थे, जिनका प्रेम अनमोल था।

गुरुकुल की शिक्षा पूरी होने के बाद दोनों मित्र अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े। कृष्ण मथुरा लौटे, जहाँ उन्होंने कंस का वध किया और बाद में द्वारका के राजा बने। उनका वैभव और यश चारों दिशाओं में फैल गया। दूसरी ओर, सुदामा अपने छोटे-से गाँव लौट आए। वहाँ उन्होंने सुशीला नाम की एक साधारण कन्या से विवाह किया। उनके दो बच्चे हुए, लेकिन गरीबी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। उनकी झोपड़ी में न तो पर्याप्त भोजन था, न ही उचित वस्त्र। बच्चे भूख से बिलखते, और सुशीला की आँखें चिंता से भरी रहतीं। फिर भी सुदामा का मन शांत था। वे कृष्ण के नाम का जाप करते और उनकी लीलाओं को याद करके सुख पाते।

“स्वामी, तुम्हारे मित्र कृष्ण अब द्वारका के राजा हैं,” सुशीला एक दिन बोलीं, “वे इतने दयालु हैं। क्यों न तुम उनसे मिलो? शायद वे हमारी मदद करें।” सुदामा का मन डगमगाया। “मैं अपने मित्र से कैसे कुछ माँगूँ? यह हमारी मित्रता को कलंकित करेगा,” उन्होंने कहा। लेकिन बच्चों की भूख और पत्नी की व्याकुलता ने आखिरकार उन्हें मना लिया। “ठीक है,” सुदामा ने सोचा, “कम से कम मुझे अपने प्रिय मित्र के दर्शन तो होंगे।” सुशीला ने पड़ोसियों से थोड़े-से चावल माँगे और उन्हें एक फटी-सी कपड़े की पोटली में बाँध दिया। “यह कृष्ण को भेंट करना,” उसने कहा। सुदामा ने वह पोटली ली, फटे वस्त्र पहने, और नंगे पाँव द्वारका की ओर चल पड़े।

लंबी और थकाऊ यात्रा के बाद सुदामा द्वारका पहुँचे। सोने-चाँदी से सजा हुआ शहर उनके लिए किसी स्वप्नलोक जैसा था। राजमहल की भव्यता देखकर उनका दिल डूबने लगा। “मैं, एक गरीब ब्राह्मण, यहाँ क्या कर रहा हूँ?” उन्होंने सोचा। महल के द्वार पर पहुँचते ही द्वारपालों ने उनके मैले-कुचैले वस्त्र देखकर भौंहें चढ़ा लीं। “आप कौन हैं? यहाँ क्या काम है?” उन्होंने रुखाई से पूछा। सुदामा ने विनम्रता से कहा, “मैं कृष्ण का मित्र सुदामा हूँ। कृपया उन्हें सूचित करें।” द्वारपाल हँसे, लेकिन नियमों के अनुसार उन्होंने अंदर संदेश भेजा।

महल में उस समय कृष्ण रानी रुक्मिणी और दरबारियों के साथ बैठे थे। जैसे ही उन्हें सुदामा के आने की खबर मिली, वे सिंहासन छोड़कर नंगे पाँव दौड़ पड़े। दरबारी हैरान रह गए। बाहर पहुँचकर कृष्ण ने सुदामा को देखा—वही सुदामा, जिसके साथ उन्होंने गुरुकुल में अनगिनत पल बिताए थे। कृष्ण ने सुदामा को गले से लगा लिया। सुदामा की आँखों में आँसू थे; वे अपनी गरीबी और कृष्ण के वैभव के बीच के अंतर को सोचकर शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे। लेकिन कृष्ण ने उनकी झिझक को पल में मिटा दिया। “मित्र, तुम इतने दिनों बाद आए!” कृष्ण ने हँसते हुए कहा।

कृष्ण सुदामा को महल के भीतर ले गए और उन्हें अपने सिंहासन पर बिठाया। स्वयं उनके चरण धोए और सुगंधित जल से उनका अभिषेक किया। रुक्मिणी और दरबारी यह दृश्य देखकर स्तब्ध थे। “यह गरीब ब्राह्मण कौन है, जिसके लिए स्वयं भगवान इतना सम्मान दिखा रहे हैं?” वे सोच रहे थे। कृष्ण ने सुदामा से उनके जीवन, परिवार और पुराने दिनों की बातें की। दोनों हँसते-हँसते गुरुकुल की यादों में खो गए। “याद है, सुदामा, जब हमने जंगल में चने बाँटकर खाए थे?” कृष्ण ने चंचलता से पूछा। सुदामा शरमा गए, लेकिन उनकी आँखों में खुशी झलक रही थी।

फिर कृष्ण की नजर सुदामा की पोटली पर पड़ी। “मित्र, यह क्या लाए हो मेरे लिए?” उन्होंने पूछा। सुदामा का चेहरा लज्जा से लाल हो गया। “कैसे दूँ इतना साधारण भेंट?” उन्होंने सोचा। लेकिन कृष्ण ने हँसते हुए पोटली छीन ली। जब उन्होंने खोली, तो उसमें साधारण चावल थे। कृष्ण की आँखें चमक उठीं। “अरे, यह तो मेरे लिए अमृत है!” कहकर उन्होंने मुट्ठीभर चावल मुँह में डाल लिए। रुक्मिणी ने हल्के से कृष्ण का हाथ पकड़ लिया, शायद उन्हें कुछ संकेत देना चाहती थीं, लेकिन कृष्ण ने दूसरी मुट्ठी भी खा ली। “सुदामा, तुम्हारा यह प्रेम मेरे लिए सबसे बड़ा खजाना है,” उन्होंने कहा। सुदामा की आँखें नम हो गईं।

कई दिन द्वारका में बिताने के बाद सुदामा को घर लौटने का समय आया। इन दिनों में कृष्ण ने उनकी हर तरह से सेवा की, लेकिन सुदामा ने अपनी गरीबी का एक शब्द भी नहीं कहा। विदाई के समय कृष्ण ने उन्हें गले लगाया और कहा, “मित्र, फिर आना।” सुदामा खाली हाथ, लेकिन मन में कृष्ण के प्रेम से भरे हुए, घर की ओर चल पड़े। रास्ते में वे सोच रहे थे, “मैंने सुशीला के कहने पर कुछ नहीं माँगा। अब उसे क्या जवाब दूँगा?” लेकिन कृष्ण के दर्शन का सुख उनके मन को शांति दे रहा था।

जब सुदामा अपने गाँव पहुँचे, तो उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। उनकी झोपड़ी गायब थी। उसकी जगह एक भव्य महल खड़ा था, जिसके द्वार पर सुशीला और उनके बच्चे सुंदर वस्त्रों में खड़े थे। घर में अनाज, धन और हर सुख-सुविधा थी। सुदामा समझ गए—यह सब उनके मित्र कृष्ण की कृपा थी। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। “हे कृष्ण, तुमने बिना माँगे सब दे दिया,” वे बुदबुदाए। सुशीला ने उन्हें गले लगाया और कहा, “आपके मित्र सच्चे भगवान हैं।”

सुदामा ने उस दिन से अपना जीवन भक्ति और संतोष में बिताया।

सीख

कृष्ण और सुदामा की यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची मित्रता में अमीरी-गरीबी का कोई स्थान नहीं होता। कृष्ण ने सुदामा के प्रेम को उनके धन से ऊपर रखा, और सुदामा की निस्वार्थ भक्ति ने उन्हें भगवान की कृपा का पात्र बनाया। यह कथा आज भी हर दिल को छूती है, क्योंकि यह प्रेम, विश्वास और भक्ति की शक्ति का जीवंत प्रमाण है।

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आशा है, आपको नचकेता और यमराज की कहानी पसंद आई होगी।

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