मुल्ला नसरुद्दीन और चांदी के सिक्के मज़ेदार कहानी (Mullah Nasruddin And The Silver Coins Story In Hindi) — एक हँसती-हँसाती सूझबूझ की कहानी
Mullah Nasruddin And The Silver Coins Story In Hindi
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उन दिनों मुल्ला नसरुद्दीन का बुरा वक्त चल रहा था। खाने के लाले पड़ गए थे। एक दिन वो नगर के चौक में फटेहाल, जर्जर कपड़ों में बैठ गया। उसके सिर पर मैली-सी पगड़ी थी और कमर में एक पुरानी थैली बंधी हुई थी।
उसने अपने आगे एक मिट्टी की छोटी कटोरी रख ली और आने-जाने वालों से भीख माँगने लगा। लोगों ने उसे भीख मांगते देखा, तो चकित रह गए। आग की तरह ये खबर पूरे कस्बे में फैल गई।
कुछ अमीर नवाबज़ादे, सेठों के लड़के, और ऊँची हवेलियों के शौकीन युवक रोज़ चौक से गुज़रते। वे मुल्ला को देखकर हँसते और एक खेल खेलते।
एक युवक अपनी जेब से एक सोने और एक चांदी का सिक्का निकालता, दोनों को अपनी हथेली पर रखता और मुल्ला के आगे बढ़ा देता।
“लो मुल्ला, चुन लो — एक सोना, एक चांदी।” वह हँसी दबाते हुए कहता।
भीड़ जमा हो जाती, लोग रुक जाते। सभी यही देखने आते कि आज भी मुल्ला वही गलती करेगा या नहीं।
मुल्ला हर बार वही करता — वह मुस्कुराता, अपनी झुर्रियों भरी उंगलियों से चांदी का सिक्का उठाता और सोने का सिक्का वहीं छोड़ देता।
फिर क्या? भीड़ हँस पड़ती।
“देखो! फिर वही गलती। इस बूढ़े को तो सोने और चांदी की पहचान ही नहीं!”
किसी दिन वही खेल कोई और करता — कोई ठाकुर साहब, कोई नाक ऊँची रईसनी। सबके सामने वही दृश्य दोहराया जाता, और मुल्ला हर बार वही निर्णय लेता — चांदी का सिक्का।
एक दिन, यह खेल देख रहे एक समझदार नौजवान से रहा नहीं गया। वह भीड़ से अलग हटकर चुपचाप मुल्ला के पास आया और एक किनारे बैठ गया।
“मुल्ला!” उसने धीमे स्वर में कहा, “क्या तुम्हें नहीं पता कि सोने का सिक्का चांदी से कहीं ज़्यादा कीमती होता है?”
मुल्ला ने उसकी ओर देखा, मुस्कुराया, और धीरे-धीरे बोला, “बिलकुल पता है।”
“तो तुम हर बार चांदी का सिक्का क्यों लेते हो? अगर तुम एक बार सोने का सिक्का ले लो, तो कुछ ही दिनों में तुम्हारे पास बहुत दौलत हो सकती है। फिर तुम्हें यहाँ बैठकर भीख माँगने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।”
मुल्ला ने फिर मुस्कराहट के साथ उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में अब शरारत के साथ-साथ एक अजीब किस्म की बुद्धिमानी थी।
“बेटा,” मुल्ला बोला, “अगर मैंने एक बार भी सोने का सिक्का ले लिया, तो खेल खत्म हो जाएगा।”
नौजवान चौंक पड़ा। “कैसा खेल?”
“ये जो लोग हैं…” मुल्ला ने इशारे से चौक की ओर देखा, “…ये मुझे मूर्ख समझते हैं। हर बार मुझे सोने और चांदी के सिक्के दिखाते हैं, और सोचते हैं कि मैं चांदी चुनकर गलती करता हूँ। उन्हें मज़ा आता है, हँसी आती है। और इसी हँसी के चक्कर में वो हर दिन मुझे एक चांदी का सिक्का देते हैं। समझे?”
नौजवान अब ध्यान से सुन रहा था।
मुल्ला ने धीरे से अपनी थैली खींची और उसका मुँह खोलकर दिखाया — उसमें ढेरों चमचमाते चांदी के सिक्के रखे थे।
“देखो!” उसने कहा, “कितने सारे चांदी के सिक्के हैं। ये सब उनकी ‘मज़ाक’ की बदौलत है।”
फिर मुल्ला थोड़ा गंभीर होकर बोला, “अगर मैंने कभी सोने का सिक्का उठा लिया, तो अगले दिन से ये खेल बंद हो जाएगा। फिर न कोई हँसेगा, न कोई सिक्का देगा। वे समझ जाएँगे कि मैं मूर्ख नहीं हूँ और तब उन्हें मज़ा नहीं आएगा।”
“अब तुम ही बताओ।” मुल्ला ने मुस्कुराकर पूछा, “मूर्ख कौन है? वे, जो हर दिन हँसी के चक्कर में मुझे चांदी का सिक्का देते हैं? या मैं, जो मूर्ख बनने का नाटक करके जी रहा हूँ?”
नौजवान चुप था। अब उसे महसूस हो रहा था कि इस झुर्रियों वाले चेहरे के पीछे एक तेज़ दिमाग काम कर रहा है — इतना तेज़ कि पूरी भीड़ उसकी चाल समझ ही नहीं पाई।
मुल्ला उठ खड़ा हुआ, अपनी लाठी टेकते हुए उसने कहा, “ज़िंदगी में अक़्लमंदी हमेशा दिखाने से नहीं होती बेटा। कभी-कभी उसे छुपाना ही सबसे बड़ी अक़्ल होती है।”
नौजवान के चेहरे पर एक मुस्कान आ गई। वह चुपचाप उठकर चला गया। और मुल्ला?
वह वापस चौक में बैठ गया, कटोरी सामने रख दी और इंतज़ार करने लगा — अगली हँसी, अगली बेवकूफ़ी, और अगला चांदी का सिक्का का।
सीख:
ज़िंदगी में हमेशा ज़्यादा पाने की लालच ही समझदारी नहीं होती। कभी-कभी खुद को छोटा दिखाकर, समय के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ना ही सबसे बड़ी समझदारी होती है।
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