Munshi Prem Chand Ki Kahaniyan

मुंशी प्रेमचंद की 5 छोटी कहानियाँ | Munshi Premchand Ki 5 Chhoti Kahaniyan

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Munshi Premchand ki 5 Chhoti Kahaniya

Munshi Premchand Ki 5 Chhoti Kahaniya

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राष्ट्र का सेवक मुंशी प्रेमचंद की कहानी 

राष्ट्र के सेवक ने कहा—देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सुलूक, पतितों के साथ बराबरी को बर्ताव। दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीचा नहीं, कोई ऊंचा नहीं।

दुनिया ने जयजयकार की—कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हृदय !

उसकी सुंदर लड़की इंदिरा ने सुना और चिंता के सागर में डूब गयी।

राष्ट्र के सेवक ने नीची जात के नौजवान को गले लगाया।

दुनिया ने कहा—यह फ़रिश्ता है, पैग़म्बर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है।

इंदिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा।

राष्ट्र का सेवक नीची जात के नौजवान को मंदिर में ले गया, देवता के दर्शन कराये और कहा—हमारा देवता ग़रीबी में है, जिल्लत में है ; पस्ती में हैं।

दुनिया ने कहा—कैसे शुद्ध अंत:करण का आदमी है ! कैसा ज्ञानी !

इंदिरा ने देखा और मुस्करायी।

इंदिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली— श्रद्धेय पिता जी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूँ।

राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नजरों से देखकर पूछा—मोहन कौन हैं?

इंदिरा ने उत्साह-भरे स्वर में कहा—मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मंदिर में ले गये, जो सच्चा, बहादुर और नेक है।

राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आंखों से उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया।

बंद दरवाज़ा मुंशी प्रेमचंद की कहानी 

सूरज क्षितिज की गोद से निकला, बच्चा पालने से—वही स्निग्धता, वही लाली, वही खुमार, वही रोशनी।

मैं बरामदे में बैठा था। बच्चे ने दरवाजे से झांका। मैंने मुस्कराकर पुकारा। वह मेरी गोद में आकर बैठ गया।

उसकी शरारतें शुरू हो गईं। कभी कलम पर हाथ बढ़ाया, कभी कागज पर। मैंने गोद से उतार दिया। वह मेज का पाया पकड़े खड़ा रहा। घर में न गया। दरवाजा खुला हुआ था।

एक चिड़िया फुदकती हुई आई और सामने के सहन में बैठ गई। बच्चे के लिए मनोरंजन का यह नया सामान था। वह उसकी तरफ लपका। चिड़िया जरा भी न डरी। बच्चे ने समझा अब यह परदार खिलौना हाथ आ गया। बैठकर दोनों हाथों से चिड़िया को बुलाने लगा। चिड़िया उड़ गई, निराश बच्चा रोने लगा। मगर अंदर के दरवाजे की तरफ ताका भी नहीं। दरवाजा खुला हुआ था।

गरम हलवे की मीठी पुकार आई। बच्चे का चेहरा चाव से खिल उठा। खोंचेवाला सामने से गुजरा। बच्चे ने मेरी तरफ याचना की आंखों से देखा। ज्यों-ज्यों खोंचेवाला दूर होता गया, याचना की आंखें रोष में परिवर्तित होती गईं। यहां तक कि जब मोड़ आ गया और खोंचेवाला आंख से ओझल हो गया तो रोष ने पुर जोर फरियाद की सूरत अख्तियार की। मगर मैं बाज़ार की चीजें बच्चों को नहीं खाने देता। बच्चे की फरियाद ने मुझ पर कोई असर न किया। मैं आगे की बात सोचकर और भी तन गया। कह नहीं सकता बच्चे ने अपनी मां की अदालत में अपील करने की जरूरत समझी या नहीं। आम तौर पर बच्चे ऐसी हालतों में मां से अपील करते हैं। शायद उसने कुछ देर के लिए अपील मुल्तबी कर दी हो। उसने दरवाजे की तरफ रूख न किया। दरवाजा खुला हुआ था।

मैंने आंसू पोंछने के खयाल से अपना फाउण्टेनपेन उसके हाथ में रख दिया। बच्चे को जैसे सारे जमाने की दौलत मिल गई। उसकी सारी इंद्रियां इस नई समस्या को हल करने में लग गई। एकाएक दरवाजा हवा से खुद-ब-खुद बंद हो गया। पट की आवाज बच्चे के कानों में आई। उसने दरवाजे की तरफ देखा। उसकी वह व्यस्तता तत्क्षण लुप्त हो गई। उसने फाउण्टेनपेन को फेंक दिया और रोता हुआ दरवाजे की तरफ चला क्योंकि दरवाजा बंद हो गया था।

देवी मुंशी प्रेमचंद की कहानी 

रात भीग चुकी थी। मैं बरामदे में खडा था। सामने अमीनुददौला पार्क नींद में डूबा खड़ा था। सिर्फ एक औरत एक तकियादार बेंच पर बैठी हुंई थी। पार्क के बाहर सड़क के किनारे एक फ़कीर खड़ा राहगीरों को दुआएं दे रहा था – “खुदा और रसूल का वास्ता……राम और भगवान का वास्ता….. इस अंधे पर रहम करो।”

सड़क पर मोटरों ओर सवारियों का तांता बंद हो चुका था। इक्के–दुक्के आदमी नजर आ जाते थे। फ़कीर की आवाज जो पहले नक्कारखाने में तूती की आवाज थी, अब खुले मैदान की बुलंद पुकार हो रही थी ! एकाएक वह औरत उठी और इधर उधर चौकन्नी आंखो से देखकर फकीर के हाथ में कुछ रख दिया और फिर बहुत धीमे से कुछ कहकर एक तरफ चली गयी। फ़कीर के हाथ मे कागज का टुकड़ा नजर आया, जिसे वह बार-बार मसल रहा था।

क्या उस औरत ने यह कागज दिया है? यह क्या रहस्य है? उसके जानने के कौतूहल से अधीर होकर मैं नीचे आया और फ़कीर के पास खड़ा हो गया।

मेरी आहट पाते ही फ़कीर ने उस कागज के पुर्जे को दो उंगलियों से दबाकर मुझे दिखाया और पूछा – “बाबा, देखो यह क्या चीज है?”

मैंने देखा, दस रुपये का नोट था। बोला– “दस रुपये का नोट है। कहां पाया?”

फ़कीर ने नोट को अपनी झोली में रखते हुए कहा – “कोई खुदा की बंदी दे गई है।”

मैंने और कुछ ने कहा। उस औरत की तरफ दौड़ा, जो अब अंधेरे में बस एक सपना बनकर रह गयी थी।

वह कई गलियों से होती हुई एक टूटे–फूटे गिरे-पड़े मकान के दरवाजे पर रुकी, ताला खोला और अंदर चली गयी।

रात को कुछ पूछना ठीक न समझकर मैं लौट आया।

रातभर मेरा जी उसी तरफ लगा रहा। एकदम तड़के मैं फिर उस गली में जा पहुंचा। मालूम हुआ, वह एक अनाथ विधवा है।

मैंने दरवाजे पर जाकर पुकारा – “देवी, मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूँ। औरत बाहर निकल आयी। ग़रीबी और बेकसी की जिन्दा तस्वीर! मैंने हिचकते हुए कहा – “रात आपने फकीर को…”

देवी ने बात काटते हुए कहा– “अजी वह क्या बात थी, मुझे वह नोट पड़ा मिल गया था, मेरे किस काम का था।”

मैंने उस देवी के कदमों पर सिर झुका दिया।

बाबा जी का भोग मुंशी प्रेमचंद की कहानी 

रामधन अहीर के द्वार पर एक साधु आकर बोला – “बच्चा तेरा कल्याण हो, कुछ साधु पर श्रद्धा कर।”

रामधन ने जाकर स्त्री से कहा – “साधु द्वार पर आये हैं, उन्हें कुछ दे दे।

स्त्री बर्तन मांज रही थी और इस घोर चिंता में मग्न थी कि आज भोजन क्या बनेगा। घर में अनाज का एक दाना भी न था। चैत का महीना था। किंतु यहाँ दोपहर ही को अंधकार छा गया था। उपज सारी-की-सारी खलिहान से उठ गयी। आधी महाजन ने ले ली, आधी जमींदार के प्यादों ने वसूल की। भूसा बेचा, तो बैल के व्यापारी से गला छूटा, बस थोड़ी-सी गाँठ अपने हिस्से में आयी। उसी को पीट-पीटकर एक मन-भर दाना निकाला था। किसी तरह चैत का महीना पार हुआ। अब आगे क्या होगा। क्या बैल खायेंगे? क्या घर के प्राणी खायेंगे? यह ईश्वर ही जाने! पर द्वार पर साधु आ गया है। उसे निराश कैसे लौटायें? अपने दिल में क्या कहेगा।

स्त्री ने कहा – “क्या दे दूं, कुछ तो रहा नहीं?”

रामधन – “जा, देख तो मटके में, कुछ आटा-वाटा मिल जाए, तो ले आ।”

स्त्री ने कहा – “मटके झाड़-पोंछकर तो कल ही चूल्हा जला था। क्या उसमें बरकत होगी?”

रामधन – “तो मुझसे तो यह न कहा जायेगा कि बाबा घर में कुछ नहीं है। किसी के घर से मांग ला।”

स्त्री – “जिससे लिया उसे देने की नौबत नहीं आयी, अब और किस मुँह से मांगू।”

रामधन – “देवताओं के लिए कुछ अँगौवा निकाला है न, वही ला, दे आऊं।”

स्त्री – “देवताओं की पूजा कहाँ से होगी?”

रामधन – “देवता मांगने तो नहीं आते? समाई होगी करना, न समाई हो न करना।”

स्त्री – “अरे तो कुछ अँगौवा भी पंसेरी दो पंसेरी है। बहुत होगा तो आध सेर। इसके बाद क्या फिर कोई साधु न आयेगा। उसे तो जवाब देना ही पड़ेगा।”

रामधन – “यह बला तो टलेगी, फिर देखी जायेगी।”

स्त्री झुंझलाकर उठी और एक छोटी-सी हाँड़ी उठा लायी, जिसमें मुश्किल से आध सेर आटा था। वह गेहूँ का आटा बड़े यत्न से देवताओं के लिए रखा हुआ था। रामधन कुछ देर खड़ा सोचता रहा, तब आटा एक कटोरे में रखकर बाहर आया और साधु की झोली में डाल दिया।

महात्मा ने आटा लेकर कहा – “बच्चा, अब तो साधु आज यहीं रमेंगे। कुछ थोड़ी-सी दाल दे, तो साधु का भोग लग जाए।”

रामधन ने फिर आकर स्त्री से कहा। संयोग से दाल घर में थी। रामधन ने दाल, नमक, उपले जुटा दिये। फिर कुएँ से पानी खींच लाया। साधु ने बड़ी विधि से बाटियाँ बनायीं, दाल पकायी और आलू झोली में से निकालकर भरता बनाया। जब सब सामग्री तैयार हो गयी, तो रामधन से बोले – “बच्चा, भगवान के भोग के लिए कौड़ी-भर घी चाहिए। रसोई पवित्र न होगी, तो भोग कैसे लगेगा?”

रामधन – “बाबाजी, घी तो घर में न होगा।”

साधु – “बच्चा! भगवान का दिया तेरे पास बहुत है। ऐसी बातें न कह।”

रामधन – “महाराज, मेरे गाय-भैंस कुछ नहीं है, घी कहाँ से होगा?”

साधु – “बच्चा! भगवान के भंडार में सबकुछ है। जाकर मालकिन से कहो तो!”

रामधन ने जाकर स्त्री से कहा – “घी मांगते हैं। मांगने को भीख, पर घी बिना कौर नहीं धंसता।”

स्त्री – “तो इसी दाल में से थोड़ी लेकर बनिये के यहाँ से ला दो। जब सब किया है तो इतने के लिए उन्हें क्यों नाराज करते हो?”

घी आ गया। साधुजी ने ठाकुरजी की पिंडी निकाली, घंटी बजायी और भोग लगाने बैठे। खूब तन कर खाया, फिर पेट पर हाथ फेरते हुए द्वार पर लेट गये। थाली, बटली और कलछुली रामधन घर में मांजने के लिए उठा ले गया।

उस रात रामधन के घर चूल्हा नहीं जला। खाली दाल पकाकर ही पी ली।

रामधन लेटा, तो सोच रहा था – मुझसे तो यही अच्छे!

जादू मुंशी प्रेमचंद की कहानी

नीला,‘‘तुमने उसे क्यों लिखा?’’

मीना,‘‘किसको?’’

‘‘उसी को!’’

‘‘मैं नहीं समझती!’’

‘‘ख़ूब समझती हो! जिस आदमी ने मेरा अपमान किया, गली-गली मेरा नाम बेचता फिरा, उसे तुम्हारा मुंह लगाना उचित है?’’
‘‘तुम ग़लत कहती हो!’’

‘‘तुमने उसे ख़त नहीं लिखा?’’

‘‘कभी नहीं.’’

‘‘तो मेरी ग़लती थी क्षमा करो. मेरी बहन न होती, तो मैं तुमसे यह सवाल भी न पूछती.’’

‘‘मैंने किसी को ख़त नहीं लिखा.’’

‘‘मुझे यह सुनकर ख़ुशी हुई.’’

‘‘तुम मुस्कराती क्यों हो?’’

‘‘मैं?’’

‘‘जी हां, आप!’’

‘‘मैं तो ज़रा भी नहीं मुस्कराई.’’

‘‘मैंने अपनी आंखों देखा.’’

‘‘अब मैं कैसे तुम्हें विश्वास दिलाऊं?’’

‘‘तुम आंखों में धूल झोंकती हो.’’

‘‘अच्छा मुस्कराई. बस, या जान लोगी?’’

‘‘तुम्हें किसी के ऊपर मुस्कराने का क्या अधिकार है?’’

‘‘तेरे पैरों पड़ती हूं नीला, मेरा गला छोड़ दे. मैं बिल्कुल नहीं मुस्कराई.’’

‘‘मैं ऐसी अनीली नहीं हूं.’’

‘‘यह मैं जानती हूं.’’

‘‘तुमने मुझे हमेशा झूठी समझा है.”

‘‘तू आज किसका मुंह देखकर उठी है?’’

‘‘तुम्हारा.’’

‘तू मुझे थोड़ी संखिया क्यों नहीं दे देती?’’

‘‘हां, मैं तो हत्यारन हूं ही.’’

‘‘मैं तो नहीं कहती.’’

‘‘अब और कैसे कहोगी, क्या ढोल बजाकर? मैं हत्यारन हूं, मदमाती हूं, दीदा-दिलेर हूं, तुम सर्वगुणागरी हो, सीता हो, सावित्री हो. ख़ुश?’’

‘‘लो कहती हूं, मैंने उसे पत्र लिखा फिर तुमसे मतलब? कौन होती हो मुझसे पूछनेवाली?’’

‘‘अच्छा किया लिखा, सचमुच मेरी बेवकूफ़ी थी कि मैंने तुमसे पूछा.’’

‘‘हमारी ख़ुशी, हम जिसको चाहेंगे ख़त लिखेंगे. जिससे चाहेंगे बोलेंगे. तुम कौन होती हो रोकने वाली? तुमसे तो मैं नहीं पूछने जाती. हां, रोज़ तुम्हें पुलिन्दों पत्र लिखते देखती हूं.’’

‘‘जब तुमने शर्म ही भून खाई, तो जो चाहो करो अख़्तियार है.’’

‘‘और तुम कब से बड़ी लज्जावती बन गईं? सोचती होगी, अम्मा से कह दूंगी, यहां इस की परवाह नहीं है. मैंने उन्हें पत्र भी लिखा, उनसे पार्क में मिली भी. बातचीत भी की. जाकर अम्मा से, दादा से, सारे मुहल्ले से कह दो.’’

‘‘जो जैसा करेगा, आप भोगेगा, मैं क्यों किसी से कहने जाऊं?’’

‘‘ओ हो, बड़ी धैर्यवाली, यह क्यों नहीं कहती, अंगूर खट्टे हैं?’’

‘‘जो तुम कहो, वही ठीक है.’’

‘‘दिल में जली जाती हो.’’

‘‘मेरी बला जले.’’

‘‘रो दो ज़रा.’’

‘‘तुम ख़ुद रोओ, मेरा अंगूठा रोए.’’

‘‘उन्होंने एक रिस्टवाच भेंट दी है, दिखाऊं?’’

‘‘मुबारक़! मेरी आंखों का सनीचर दूर होगा‍.’’

‘‘मैं कहती हूं, तुम इतनी जलती क्यों हो?’’

‘‘अगर मैं तुमसे जलती हूं तो मेरी आंखें पट्टम हो जाएं.’’

‘‘तुम जितना जलोगी, मैं उतना ही जलाऊंगी.’’

‘‘मैं जलूंगी ही नहीं.’’

‘‘जल रही हो साफ़’

‘‘कब संदेशा आएगा?’’

‘‘जल मरो.’’

‘‘पहले तेरी भांवरें देख लूं.’’

‘‘भांवरों की चाट तुम्हीं को रहती है.’’

‘‘तो क्या बिना भांवरों का ब्याह होगा?’’

‘‘ये ढकोसले तुम्हें मुबारक़. मेरे लिए प्रेम काफ़ी है.’’

‘‘तो क्या तू सचमुच…’’

‘‘मैं किसी से नहीं डरती.’’

‘‘यहां तक नौबत पहुंच गई! और तू कह रही थी, मैंने उसे पत्र नहीं लिखा!’’

‘‘क्यों अपने दिल का हाल बतलाऊं?’’

‘‘मैं तो तुझसे पूछती न थी, मगर तू आप-ही-आप बक चली.’’

‘‘तुम मुस्कराई क्यों?’’

‘‘इसलिए कि यह शैतान तुम्हारे साथ भी वही दगा करेगा, जो उसने मेरे साथ किया और फिर तुम्हारे विषय में भी वैसी ही बातें कहता फिरेगा. और फिर तुम मेरी तरह रोओगी.’’

‘‘तुमसे उन्हें प्रेम नहीं था?’’

‘‘मुझसे! मेरे पैरों पर सिर रखकर रोता और कहता कि मैं मर जाऊंगा, ज़हर खा लूंगा.’’

‘‘सच कहती हो?’’

‘‘बिल्कुल सच.’’

‘‘यह तो वह मुझसे भी कहते हैं.’’

‘‘सच?’’

‘‘तुम्हारे सिर की कसम.’’

‘‘और मैं समझ रही थी, अभी वह दाने बिखेर रहा है.’’

‘‘क्या वह सचमुच.’’

‘‘पक्का शिकारी है.’’

मीना सिर पर हाथ रखकर चिंता में डूब गई.

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