नरक चतुर्दशी की कहानी (Narak Chaturdashi Ki Kahani) Narak Chaturdashi Ki Pauranik Katha नरक चतुर्दशी हिंदू धर्म में दिवाली के पहले दिन, जिसे छोटी दिवाली या काली चौदस भी कहा जाता है, मनाया जाता है। यह पर्व मुख्य रूप से भगवान श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर नामक दानव के वध से जुड़ी पौराणिक कथा के कारण महत्वपूर्ण है। इस दिन का मुख्य संदेश बुराई पर अच्छाई की विजय और पापों से मुक्ति प्राप्त करने का होता है। नरक चतुर्दशी की पौराणिक कथा के माध्यम से हम इस पर्व के महत्व को समझ सकते हैं और इसे मनाने के पीछे की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं को जान सकते हैं।
Narak Chaturdashi Ki Kahani
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नरकासुर की उत्पत्ति
नरक चतुर्दशी की कथा का केंद्रबिंदु नरकासुर नामक एक भयंकर असुर था, जिसने धरती और स्वर्ग दोनों को आतंकित कर रखा था। नरकासुर का जन्म पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान विष्णु के वराह अवतार और धरती माता (भूमि देवी) के मिलन से हुआ था। नरकासुर बचपन से ही बहुत शक्तिशाली था और उसे वरदान प्राप्त था कि वह केवल उसकी माता के हाथों ही मारा जा सकेगा। इस कारण से उसे अभिमान हो गया था और वह अत्याचारी और क्रूर हो गया।
जैसे-जैसे नरकासुर बड़ा हुआ, उसका आतंक बढ़ता गया। उसने स्वर्ग के देवताओं को पराजित कर दिया और इंद्रलोक पर कब्जा कर लिया। नरकासुर ने कई ऋषियों और मुनियों को परेशान किया और उनके यज्ञों को बाधित किया। उसने 16,000 राजकुमारियों का अपहरण कर उन्हें अपने महल में बंदी बना लिया। इन अत्याचारों के कारण सभी देवता और पृथ्वीवासी उसकी क्रूरता से त्रस्त हो गए। स्वर्ग के राजा इंद्र ने भी नरकासुर के आतंक से विवश होकर भगवान विष्णु से सहायता की प्रार्थना की।
भगवान विष्णु का वादा
नरकासुर के अत्याचारों को देखकर भगवान विष्णु ने नरकासुर के वध का संकल्प लिया। लेकिन चूंकि नरकासुर को यह वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु केवल उसकी माता के हाथों हो सकती है, भगवान विष्णु ने अपने वामन अवतार में किए गए वचन के अनुसार, यह निर्णय लिया कि नरकासुर का अंत उनकी पत्नी सत्यभामा के हाथों से होगा, जो भूमि देवी का अवतार मानी जाती हैं। इसके साथ ही, भगवान विष्णु ने यह भी वादा किया कि जब समय आएगा, तो वे नरकासुर के अत्याचारों का अंत करेंगे।
नरकासुर का आतंक
नरकासुर ने केवल पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग लोक में भी भयंकर आतंक मचा रखा था। उसने इंद्र से स्वर्ग का ऐरावत हाथी और कई कीमती रत्नों को छीन लिया। उसने कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष और अन्य दिव्य वस्तुओं को भी अपने कब्जे में कर लिया था। इसके अलावा, उसने 16,000 स्त्रियों का अपहरण कर उन्हें अपने राज्य में बंदी बना लिया था। नरकासुर की शक्ति और क्रूरता दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी, और उसे कोई पराजित नहीं कर पा रहा था।
भगवान कृष्ण और सत्यभामा की यात्रा
जब नरकासुर का अत्याचार चरम पर पहुंच गया, तब भगवान कृष्ण ने उसकी क्रूरता का अंत करने का निर्णय लिया। भगवान कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ नरकासुर के राज्य प्रागज्योतिषपुर पर आक्रमण किया। युद्ध के दौरान, नरकासुर ने अपनी सारी शक्ति और सेना का उपयोग किया, लेकिन भगवान कृष्ण के सामने वह टिक नहीं सका। नरकासुर ने अपने रथ से अनेक बाणों और अस्त्रों से कृष्ण पर आक्रमण किया, लेकिन भगवान कृष्ण ने उसे सरलता से विफल कर दिया।
युद्ध के दौरान, नरकासुर ने एक भयंकर बाण चलाया जो भगवान कृष्ण को घायल कर गया। सत्यभामा, जो भगवान विष्णु के शक्ति स्वरूपा थीं, को यह दृश्य देखकर अत्यधिक क्रोध आया। सत्यभामा ने अपने पति के हाथों से धनुष-बाण लेकर नरकासुर पर आक्रमण किया और अंत में उसे मार डाला। इस प्रकार, वरदान के अनुसार नरकासुर का वध उसकी माता (भूमि देवी के अवतार) के हाथों हुआ।
नरकासुर का वध और उसकी मुक्ति
नरकासुर के वध के बाद, उसकी माता भूमि देवी प्रकट हुईं और भगवान कृष्ण और सत्यभामा का आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि नरकासुर ने अपने जीवन में कई पाप किए थे, लेकिन अंत समय में उसे अपने पापों का पश्चाताप हुआ था। भूमि देवी ने भगवान से प्रार्थना की कि नरकासुर की मृत्यु के दिन को विशेष माना जाए और उस दिन लोग अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए स्नान और पूजा करें।
भगवान कृष्ण ने भूमि देवी की इस प्रार्थना को स्वीकार किया और यह घोषणा की कि नरकासुर की मृत्यु के दिन को “नरक चतुर्दशी” के रूप में मनाया जाएगा। इस दिन लोग विशेष स्नान करेंगे, जो उन्हें पापों से मुक्ति दिलाएगा, और वे दीप जलाकर अंधकार का अंत करेंगे। तभी से इस दिन को नरक चतुर्दशी के रूप में मनाने की परंपरा शुरू हुई।
16,000 स्त्रियों की मुक्ति
नरकासुर के वध के बाद, भगवान कृष्ण ने उसके महल में बंदी बनाई गई 16,000 स्त्रियों को मुक्त किया। उन स्त्रियों को समाज द्वारा अस्वीकार किए जाने का डर था, क्योंकि वे नरकासुर के द्वारा बंदी बनाई गई थीं। भगवान कृष्ण ने उन सभी स्त्रियों की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने यह संदेश दिया कि किसी भी स्त्री का सम्मान उसके आचरण और आत्मसम्मान से होता है, न कि परिस्थितियों से। इस प्रकार, भगवान कृष्ण ने उन्हें सम्मानित जीवन दिया और समाज में एक उच्च उदाहरण प्रस्तुत किया।
नरक चतुर्दशी की पूजा विधि
नरक चतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है। इसे अभ्यंग स्नान कहा जाता है। इस दिन विशेष तेल से स्नान करने की परंपरा है, जिससे शरीर शुद्ध होता है और पापों से मुक्ति मिलती है। इस स्नान के बाद घर में दीप जलाए जाते हैं, जो अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक होते हैं।
इस दिन यमराज, जो मृत्यु के देवता हैं, की पूजा भी की जाती है ताकि अकाल मृत्यु से बचा जा सके और लंबी आयु प्राप्त हो सके। लोग अपने घरों को साफ-सुथरा रखते हैं और भगवान श्रीकृष्ण तथा देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं। इसके साथ ही, नरक चतुर्दशी के दिन लोग अपने घरों के मुख्य द्वार पर दीप जलाते हैं ताकि घर में सुख-समृद्धि और शांति बनी रहे।
नरक चतुर्दशी का महत्व
नरक चतुर्दशी का सबसे बड़ा संदेश यह है कि बुराई चाहे कितनी भी प्रबल हो, अंततः अच्छाई की विजय होती है। यह पर्व पापों से मुक्ति का प्रतीक है और यह सिखाता है कि यदि व्यक्ति अपने पापों का पश्चाताप करता है, तो उसे भी मुक्ति मिल सकती है। भगवान कृष्ण के द्वारा नरकासुर के वध और 16,000 स्त्रियों की मुक्ति की कथा हमें यह सिखाती है कि सच्ची भक्ति और धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति को ईश्वर का आशीर्वाद हमेशा प्राप्त होता है।
नरक चतुर्दशी के दिन विशेष स्नान और पूजा के माध्यम से लोग अपने पापों से मुक्ति की कामना करते हैं और अपने जीवन को नए सिरे से शुरू करने की प्रेरणा पाते हैं। यह पर्व हमें आत्मशुद्धि और समाज में सम्मानपूर्वक जीवन जीने की प्रेरणा देता है। साथ ही, यह त्योहार दिवाली के आगमन का संकेत भी देता है, जो कि प्रकाश, खुशी और समृद्धि का सबसे बड़ा पर्व है।
निष्कर्ष
नरक चतुर्दशी की कथा केवल पौराणिक दृष्टिकोण से ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि इसमें छिपे गहरे संदेश हमें जीवन में धर्म, सत्य, और न्याय का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण और सत्यभामा के द्वारा नरकासुर के वध से यह संदेश मिलता है कि बुराई का अंत निश्चित है और सत्य की विजय अवश्य होती है।