जैसे को तैसा : पंचतंत्र की कहानी ~ मित्रभेद | Panchtantra Story in hindi

Jaise Ko Taisa Panchtantra Kahani 

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Panchtantra Kahani
Panchtantra Kahani : panchtantra story for kids

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एक नगर में जीर्णधन नामक एक धनी व्यापारी रहता था. उसका व्यापार दिन दूनी-रात चौगुनी उन्नति कर रहा था. धन-धान्य की उसे कोई कमी न थी. उसका जीवन बड़े ही ऐशो-आराम के साथ कट रहा था.  

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लेकिन समय ने पलटा खाया और उसे व्यापार में बहुत बड़ा घाटा हुआ. इस घाटे की भरपाई करते-करते उसका सब कुछ बिक गया. वह गरीबी के दिन काटने विवश हो गया. ऐसे में उसने सोचा कि इस नगर में गरीबी के दिन बसर करने से बेहतर है, परदेश जाकर अपना भाग्य आज़मा लूं.

यह विचार दिमाग में आने पर उसने विदेश जाने की तैयारी कर ली. उसके पास कोई विशेष सामान नहीं था. सब कुछ पहले ही बिक गया था. एक मन भर का लोहे का तराज़ू भर बचा था. उसने वह तराज़ू अपने मित्र संतराम के पास यह कहकर रखवा दिया कि परदेश से वापस लौटकर ले लूंगा. संतराम ने भी उसे आश्वासन दिया कि वह उसकी अमानत सहेज कर रखेगा और उसके वापस लौटने पर उसके हवाले कर देगा.

परदेश जाकर जीर्णधन का भाग्य चमक उठा. वहाँ उसने बहुत सारा धन अर्जित किया. कुछ वर्ष वहाँ व्यतीत करने के उपरांत उसका मन वापस अपने नगर लौटने का होने लगा और वह अर्जित धन लेकर वापस अपने नगर लौट आया.

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नगर वापस लौटकर उसने एक आलीशान घर ख़रीदा और आराम से वहाँ रहने लगा. कुछ महिने बीते थे कि एक दिन उसे अपने लोहे के तराज़ू की याद आ गई और वह उसे लेने अपने मित्र संतराम के घर चला गया.

संतराम ने जीर्णधन को देखकर ऊपरी तौर पर प्रसन्नता प्रकट की और उसका हाल-चाल पूछा. लेकिन जब लोहे के तराज़ू की बात चली, तो उदास होकर बोला, “क्या बताऊं मित्र, मैंने वह तराज़ू बहुत संभालकर गोदाम में रखवा दिया था. लेकिन बद्किस्मती देखो, उसे चूहे ने खा लिया. अब मैं क्या करूं मित्र? मैं तुम्हें वह तराज़ू वापस नहीं दे सकता. मुझे क्षमा कर दो.”

संतराम की इस बात को सुनकर जीर्णधन समझ गया कि वह झूठ बोल रहा है, क्योंकि लोहे का तराज़ू चूहों द्वारा खा जाना असंभव है. उसे अपने मित्र पर क्रोध तो बहुत आया. किंतु उसने अपना क्रोध उसके समक्ष प्रकट नहीं किया. बल्कि मुस्कुराते हुए बोला, “कोई बात नहीं मित्र! मैं तो यहाँ तुमसे मिलने आया था. तुमसे मिलकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. अब मैं चलता हूँ. हो सके तो तुम मेरे साथ अपने पुत्र को भेज दो. मैं परदेश से तुम्हारे लिए उपहार लाया हूँ. वह मैं उसके हाथ तुम्हें भिजवा दूंगा.”

उपहार की बात सुनकर संतराम ने अपने १२ वर्ष के पुत्र को उसके साथ भेज दिया. अपने घर जाने के पूर्व जीर्णधन ने स्नान का बहाना बनाया और संतराम के पुत्र को नदी किनारे ले गया. वहाँ एक गुफा में ले जाकर उसे बंद कर गुफ़ा के द्वार पर उसने बड़ा सा पत्थर रख दिया, ताकि किसी भी सूरत में वह वहाँ से निकलकर भाग न सके.

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इधर शाम होते तक जब पुत्र वापस नहीं आया, तो संतराम को चिंता हुई. वह जीर्णधन के घर पहुँचा और अपने पुत्र के बारे में पूछने लगा. तब जीर्णधन छाती पीटकर रोने का नाटक करते हुए बोला, ”मित्र, घर आते समय तुम्हारे पुत्र पर गिद्ध ने झपट्टा मारा और उसे उठाकर ले गया. मैं क्या करता? बस चीख-पुकार मचाता रह गया.”

इस बात पर संतराम तुनक गया और बोला, “कैसी व्यर्थ की बातें कर रहे हो? भला गिद्ध भी कभी १२ वर्ष के बालक को उठाकर उड़ सकता है? तुम झूठ कह रहे हो? बताओ मेरा पुत्र कहाँ है?”

इस पर जीर्णधन बोला, “मित्र, विश्वास करो, ऐसा ही हुआ है.” लेकिन संतराम नहीं माना और नगर के न्यायधीश के पास जा पहुँचा.

न्यायधीश के समक्ष न्याय की गुहार रखते हुए वह बोला, “महोदय, न्याय करें. इस आदमी ने मेरे १२ वर्ष के पुत्र को कहीं छुपा दिया है और अब झूठ कह रहा है कि उसे गिद्ध उठाकर ले गया है. भला ऐसा भी कभी हो सकता है?”

“क्यों नहीं? जब मन भर का लोहे का तराज़ू चूहा खा सकता है, तो एक बालक को भी गिद्ध उठाकर ले जा सकता है.” जीर्णधन बोला.

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जीर्णधन की यह बात न्यायधीश को समझ ने नहीं आई. उसने जब पूछा, तो जीर्णधन ने अपने परदेश जाने, तराज़ू संतराम के पास छोड़ने और वापस आकर मांगने पर चूहे द्वारा खा जाने के संतराम के बहाने की बात बता दी.

न्यायधीश को पूरा माज़रा समझते देर न लगी और उन्होंने संतराम से कड़ाई से पूछताछ की. संतराम ने अपना अपराध कबूल कर लिया और बताया कि उसने लालच में आकर वह तराजू बेच दिया था.

न्यायधीश ने उसे तराजू का मूल्य जीर्णधीन को देने का आदेश दिया और जीर्णधन से भी कहा कि वह उसका पुत्र उसे वापस लौटा दे.

सीख (Moral of the story)

जैसे को तैसा

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