सांप की 8 कहानियाँ | Saanp Ki Kahani | Snake Story In Hindi 

फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम सांप की कहानी (Saanp Ki Kahani) शेयर कर रहे हैं। पढ़िए Snake Story In Hindi :

Saanp Ki Kahani 

Saanp Ki Kahani 

साही और सांप की कहानी

एक साही अपने रहने के लिए स्थान की खोज में भटक रहा था। दिन भर भटकने के बाद उसे एक गुफा दिखाई पड़ी। उसने सोचा – ‘ये गुफा रहने के लिए अच्छी जगह है।‘

वह गुफा के द्वार पर पहुँचा, तो देखा कि वहाँ सांपों का परिवार रहता है।

साही ने उन सबका अभिवादन किया और निवेदन करते हुए बोला, “भाइयों! मैं बेघर हूँ। कृपा करके मुझे इस गुफा में रहने के लिए थोड़ी सी जगह दे दो। मैं सदा आपका आभारी रहूंगा।”

सांपों को साही पर दया आ गई और उन्होंने उसका निवेदन स्वीकार कर उसे गुफा के अंदर आने की अनुमति दे दी। लेकिन उसके गुफा में घुसने के बाद उन्होंने महसूस किया कि उसे अंदर बुलाकर और रहने कि जगह देकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती कर दी, क्योंकि साही के शरीर के कांटे उन्हें गड़ रहे थे और उनकी त्वचा ज़ख्मी हो रही थी।

उन्होंने साही से कहा, “तुम्हारे शरीर के कांटे हमें गड़ रहे हैं। इसलिए तुम यहाँ से जाओ और कोई दूसरी जगह खोजो।”

साही तब तक आराम से गुफा में पसर चुका था। बोला, “भई मुझे तो ये जगह बहुत पसंद है। मैं तो कहीं नहीं जाने वाला। जिसे समस्या है, वो जाये यहाँ से।”

अपनी त्वचा को साही के शरीर के कांटों से बचाने के लिए आखिरकार सांपों को वह गुफा छोड़कर जाना पड़ा। सांपों के जाने के बाद साही ने वहाँ पूरी तरह कब्जा जमा लिया।

सीख

कई बार हम उंगली देते हैं और सामने वाला हाथ पकड़ लेता है। इसलिए किसी की मदद करने के पहले अच्छी तरह सोच-विचार कर लेना चाहिए।

वनवासी और सांप की कहानी

सर्दियों के दिन थे. ख़ूब बर्फ़बारी हुई थी. मौसम साफ़ होने पर एक वनवासी अपना काम खत्म कर जल्दी-जल्दी घर लौटने लगा. रास्ते में उसने देखा कि एक स्थान पर बर्फ़ पर कुछ काला-काला सा पड़ा हुआ है.

वह पास गया, तो पाया कि वह एक सांप है, जो लगभग मरणासन्न अवस्था में है. वनवासी को सांप पर दया आ गई. उसने उसे उठाया और उसे अपने थैले में डाल लिया, ताकि उसे कुछ गर्माहट मिल सके.

घर पहुँचकर उसने सांप को थैले से निकाला और उसे आग के पास रख दिया. वनवासी का बच्चा सांप के पास बैठ गया और उसे नज़दीक से देखने लगा. आग की गर्मी ने मानो सांप में नए जीवन का संचार कर दिया. उसमें हलचल होने लगी.

यह देख बच्चे ने सांप को दुलारने और सहलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया. लेकिन, सांप ने तुरंत फन फैला लिया और बच्चे को डसने के लिए तैयार हो गया. यह देख, वनवासी ने कुल्हाड़ी निकालकर सांप के दो टुकड़े कर दिए और बोला, “दुष्ट से कृतज्ञता की आशा नहीं करनी चाहिए.”

सीख

दुष्ट से कृतज्ञता की आशा मूर्खता है.

 सांप और कौवा की कहानी 

नगर के पास बरगद के पेड़ पर एक घोंसला था, जिसमें वर्षों से कौवा और कौवी का एक जोड़ा रहा करता था. दोनों वहाँ सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे थे. दिन भर भोजन की तलाश में वे बाहर रहते और शाम ढलने पर घोंसले में लौटकर आराम करते.

एक दिन एक काला सांप भटकते हुए उस बरगद के पेड़ के पास आ गया. पेड़ के तने में एक बड़ा खोल देख वह वहीं निवास करने लगा. कौवा-कौवी इस बात से अनजान थे. उनकी दिनचर्या यूं ही चलती रही.

मौसम आने पर कौवी ने अंडे दिए. कौवा और कौवी दोनों बड़े प्रसन्न थे और अपने नन्हे बच्चों के अंडों से निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. लेकिन एक दिन जब  वे दोनों भोजन की तलाश में निकले, तो अवसर पाकर पेड़ की खोल में रहने वाले सांप ने ऊपर जाकर उनके अंडों को खा लिया और चुपचाप अपनी खोल में आकर सो गया.

कौवा-कौवी ने लौटने पर जब अंडों को घोंसलों में नहीं पाया, तो बहुत दु:खी हुए. उसके बाद से जब भी कौवी अंडे देती, सांप उन्हें खाकर अपनी भूख मिटा लेता. कौवा-कौवी रोते रह जाते.

मौसम आने पर कौवी ने फिर से अंडे दिए. लेकिन इस बार वे सतर्क थे. वे जानना चाहते थे कि आखिर उनके अंडे कहाँ गायब हो जाते हैं.

योजनानुसार एक दिन वे रोज़ की तरह घोंसले से बाहर निकले और दूर जाकर पेड़ के पास छुपकर अपने घोंसले की निगरानी करने लगे. कौवा-कौवी को बाहर गया देख काला सांप पेड़ की खोल से निकला और घोंसले में जाकर अंडों को खा गया.

आँखों के सामने अपने बच्चों को मरते देख कौवा-कौवी तड़प कर रह गए. वे सांप का सामना नहीं कर सकते थे. वे उसकी तुलना में कमज़ोर थे. इसलिए उन्होंने अपने वर्षों पुराने निवास को छोड़कर अन्यत्र जाने का निर्णय किया.

जाने के पूर्व वे अपने मित्र गीदड़ से अंतिम बार भेंट करने पहुँचे. गीदड़ को पूरा वृतांत सुनाकर जब वे विदा लेने लगे, तो गीदड़ बोला, “मित्रों, इन तरह भयभीत होकर अपना वर्षों पुराना निवास छोड़ना उचित नहीं है. समस्या सामने है, तो उसका कोई न कोई हल अवश्य होगा.”

कौवा बोला, “मित्र, हम कर भी क्या सकते हैं. उस दुष्ट सांप की शक्ति के सामने हम निरीह हैं. हम उसका मुकाबला नहीं कर सकते. अब कहीं और जाने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं है. हम हर समय अपने बच्चों को मरते हुए नहीं देख सकते.”

गीदड़ कुछ सोचते हुए बोला, “मित्रों, जहाँ शक्ति काम न आये, वहाँ बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए.” यह कहकर उसने सांप से छुटकारा पाने की एक योजना कौवा-कौवी को बताई.

अगले दिन योजनानुसार कौवा-कौवी नगर ने सरोवर में पहुँचे, जहाँ राज्य की राजकुमारी अपने सखियों के साथ रोज़ स्नान करने आया करती थी. उन दिन भी राजकुमारी अपने वस्त्र और आभूषण किनारे रख सरोवर में स्नान कर रही थी. पास ही सैनिक निगरानी कर रहे थे.

अवसर पाकर कौवे ने राजकुमारी का हीरों का हार अपनी चोंच में दबाया और काव-काव करता हुआ राजकुमारी और सैनिकों के दिखाते हुए ले उड़ा.

कौवे को अपना हार ले जाते देख राजकुमारी चिल्लाने लगी. सैनिक कौवे के पीछे भागे. वे कौवे के पीछे-पीछे बरगद के पेड़ के पास पहुँच गए. कौवा यही तो चाहता था.

राजकुमारी का हार पेड़ के खोल में गिराकर वह उड़ गया. सैनिकों ने यह देखा, तो हार निकालने पेड़ की खोल के पास पहुँचे.

हार निकालने उन्होंने खोल में एक डंडा डाला. उस समय सांप खोल में ही आराम कर रहा था. डंडे के स्पर्श पर वह फन फैलाये बाहर निकला. सांप को देख सैनिक हरक़त में आ गए और उसे तलवार और भले से मार डाला.

सांप के मरने के बाद कौवा-कौवी ख़ुशी-ख़ुशी अपने घोंसले में रहने लगे. उस वर्ष जब कौवी ने अंडे दिए, तो वे सुरक्षित रहे.

सीख

जहाँ शारीरिक शक्ति काम न आये, वहाँ बुद्धि से काम लेना चाहिए. बुद्धि से बड़ा से बड़ा काम किया जा सकता है और किसी भी संकट का हल निकाला जा सकता है.

 दो साँपों की कहानी 

एक राज्य में देवशक्ति नामक राजा शासन करता था. उसका एक पुत्र था. एक बार उसके पुत्र के पेट में एक साँप घुस गया. वह वहीं अपना बिल बनाकर बैठ गया.

पेट में बैठे साँप के कारण राजपुत्र का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था. किंतु, वह अपने पेट के भीतर साँप होने की बात से अनभिज्ञ था. उसने कई वैद्यों का परामर्श लिया और उनसे उपचार करवाया.

वैद्यों ने राजपुत्र को विभिन्न प्रकार की औषधियाँ प्रदान की. किंतु सब प्रभावहीन रही और राजपुत्र के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ. गिरते स्वास्थ्य के कारण राजपुत्र निराशा से घिर गया. अंततः उसने राजमहल और राजकीय जीवन त्यागकर अन्यत्र चले जाने का निर्णय लिया.

अपने पिता के आज्ञा लेकर लंबी यात्रा कर वह अपने राज्य से अत्यंत दूर स्थित एक प्रदेश पहुँचा और वहाँ एक मंदिर में भिखारी का जीवन यापन करने लगा.

जिस प्रदेश को उसने अपना बसेरा बनाया था, उस देश के राजा का नाम बलि था. उसकी दो युवा पुत्रियाँ थीं. दोनों राजकुमारियाँ प्रतिदिन प्रातःकाल अपने पिता के कक्ष में जाकर उन्हें प्रणाम किया करती थी.

प्रणाम करते समय एक राजकुमारी राजा से कहा करती थी, “पिताश्री प्रणाम. आप बड़े कृपालु हैं. आपकी कृपा से ही संसार सुख-साधनों ने परिपूर्ण है.“

यह वचन सुनकर राजा की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रहती थी.

दूसरी राजकुमारी राजा से कहा करती थी, “पिताश्री प्रणाम. जो जैसा कर्म करेगा, वह वैसा ही फल पायेगा. ईश्वर आपको आपके कर्मों का फल प्रदान करे.”

यह वचन सुनकर राजा के क्रोध की कोई सीमा नहीं रहती थी.

एक दिन राजा दूसरी राजकुमारी के प्रति अपने क्रोधावेश पर नियंत्रण नहीं रख पाया. उसने तत्काल मंत्री को बुलाया और उसे आदेश दिया, “मंत्री! यह कन्या सदा कटु वचन ही कहती है. इसे कहीं दूर ले जाओ और किसी निर्धन परदेशी को सौंप दो. वहाँ निर्धनता में यह अपने कर्मों का फल भोगेगी.”

राजा की आज्ञा मानकर मंत्री ने उस राजकुमारी का विवाह मंदिर में भिखारी के रूप में रह रहे राजपुत्र से कर दिया. राजकुमारी उसके राजपुत्र होने की बात से अनभिज्ञ थी. भिखारी के रूप में भी उसने उसे स्वीकार कर लिया और उसे अपना पति मान उसकी सेवा-सुश्रुषा करने लगी.

कुछ दिनों बाद दोनों वह प्रदेश त्याग कर अन्य प्रदेश की ओर रवाना हो गये. यात्रा लंबी थी. दोनों सुस्ताने और भोजन ग्रहण करने सरोवर के किनारे रुक गए.

अस्वस्थ राजपुत्र थक चुका था. वह वहीं लेट गया और राजकुमारी निकट के गाँव में भोज्य-सामग्री लेने चली गई. वापस आकर उसने देखा कि उसका पति सो रहा है और उसके मुख से एक साँप फन फैलाकर बाहर की हवा खा रहा है. पास ही एक दूसरे साँप का बिल है. वो साँप भी फन फैलाए बैठा है और दोनों वार्तालाप कर रहे हैं.

बिल वाला साँप पेट वाले साँप से कह रहा था, “दुष्ट! तू क्यों इस राजपुत्र का जीवन नष्ट कर रहा है?”

पेट वाला साँप बोला, “तू भी तो अपने बिल में पड़े स्वर्ण कलश को दूषित कर रहा है.”

बिल वाला सांप बोला, “कदाचित् तुझे ऐसा लगता है कि तुझे इस राजपुत्र के पेट से बाहर निकालने की औषधि की को ज्ञात नहीं है. मत भूल, जब कोई व्यक्ति इस राजपुत्र को उकाली हुई कांजी की राई पिलाएगा, तब तेरा काल होगा.”

पेट वाला साँप बोला, “तेरे बिल में भी तो गर्म तेल डालकर कोई भी तेरा नाश कर सकता है.”

जब दोनों एक-दूसरे के भेद खोल रहे थे, तब राजकुमारी ने उनकी बातें सुन ली. उसने उनके द्वारा बताई विधियों से दोनों का ही नाश कर दिया. इस तरह राजपुत्र भी स्वस्थ हो गया और बिल में से स्वर्ण कलश पाकर उन्हें निर्धनता से भी मुक्ति मिल गई.

स्वास्थ लाभ प्राप्त करने के उपरांत राजपुत्र राजकुमारी को लेकर अपने देश लौट गया. वहाँ उसके पिता ने दोनों का स्वागत किया और वे सब सुख-चैन का जीवन व्यतीत करने लगे.

सीख

आपसी विद्वेष और कलह में दो साँपों ने एक-दूसरे के भेद खोल दिए और राजकुमारी ने वह भेद जानकर उनका नाश कर दिया. इसलिए कहते हैं कि आपसी कलह का लाभ तीसरा व्यक्ति उठाता है.

मानव और साँप की कहानी 

एक दिन एक किसान अपने पुत्र के साथ खेत में काम कर रहा था. अचानक उसके पुत्र का पांव एक साँप की पूंछ पर पड़ गया. पूंछ दबते ही साँप फुंकार उठा और उसने किसान के बेटे को डस लिया.

साँप विषैला था. उसके विष के प्रभाव से किसान का पुत्र तत्काल मर गया.

अपने सामने पुत्र की मृत्यु देख किसान क्रोधित हो गया और प्रतिशोध लेने के लिए उसने अपनी कुल्हाड़ी उठाई और साँप की पूंछ काट दी. साँप दर्द से छटपटाने लगा.

उसे भी अत्यधिक क्रोध आया और प्रतिशोध लेने की ठान कर वह किसान की गौशाला में घुस गया. वहाँ उसने मवेशिओं को डस लिया. सारे मवेशी मर गए.

इतना नुकसान देख किसान विचार करने लगा – “साँप से बैर के कारण मेरी अत्यधिक हानि हो चुकी है. अब इस बैर का अंत करना ही होगा. मुझे सर्प की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाना चाहिए.”

उसने एक कटोरे में दूध भरा और साँप के बिल के पास रख दिया. फिर कहने लगा, “हम दोनों ने एक-दूसरे का बहुत नुकसान कर लिया. अब इस बैर का अंत कर मित्रता कर लेते हैं. जो हुआ तुम भूल जाओ. मैं भी भूल जाता हूँ.”

साँप ने बिल के अंदर से ही उत्तर दिया, “दूध का कटोरा लेकर तुरंत यहाँ से चले जाओ. मेरे कारण तुमने अपना पुत्र खोया है, जो तुम कभी भूल नहीं पाओगे और तुम्हारे कारण मैंने अपनी पूंछ गंवाई है, जो मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा. इसलिए अब हमारे बीच मित्रता संभव नहीं है.”

सीख

अपकार क्षमा तो किया जा सकता है, किंतु भुलाया नहीं जा सकता.

साँप और मेंढक की कहानी

एक पर्वतीय प्रदेश में एक वृद्ध साँप रहता था. उसका नाम मंदविष था. वृद्धावस्था के कारण उसके लिए अपने आहार की व्यवस्था करना कठिन होता जा रहा था. अतः वह बिना परिश्रम के किसी तरह भोजन जुटाने का उपाय सोचा करता था. एक दिन उसे एक उपाय सूझ गया.

बिना समय गंवाए वह मेंढकों से भरे एक तालाब के किनारे पहुँचा और कुंडली मारकर यूं बैठ गया, मानो ध्यान में लीन हो.

जब एक मेंढक के उसे इस तरह देखा, तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसने उससे पूछा, “क्या बात है साँप मामा? आज इस घड़ी आप यहाँ कुंडली मारकर बैठे हो. भोजन की व्यवस्था नहीं करनी है क्या? आज क्या आपका उपवास है?”

मंदविष ने मधुर वाणी में उत्तर दिया, “अरे बेटा! आज प्रातः जो घटना मेरे साथ घटित हुई, उसने मेरी भूख हर ली है.”

“ऐसा क्या हुआ मामा?” मेंढक ने जिज्ञासावश पूछा.

“बेटा! प्रातः मैं एक नदी किनारे भोजन की तलाश में घूम रहा रहा था. वहाँ मुझे एक मेंढक दिखाई पड़ा. मैंने सोचा कि आज के भोजन की व्यवस्था हो गई और उसे पकड़ने बढ़ा. पास ही एक ब्राह्मण और उसका पुत्र ध्यान में लीन थे. जैसे ही मैंने मेंढक पर हमला किया, वह उछलकर दूर चला गया और ब्राह्मण का पुत्र मेरे दंश का शिकार बन गया. वह वहीं तड़पकर मर गया. अपने पुत्र की मृत्यु देख ब्राह्मण क्रोधित हो गया और उसने मुझे मेंढकों का वाहन बनने का श्राप दे दिया. इसलिए मैं यहाँ तुम लोगों का वाहन बनने आया हूँ.”

मेंढक ने यह बात अपने राजा जलपाद को बताई. राजा जलपाद ने सभा बुलाकर अपनी प्रजा को ये बात बताई. सबने निर्णय लिया कि वे वृद्ध साँप का श्राप पूर्ण करने में उसकी सहायता करेंगे. इस तरह वे साँप की सवारी का आनंद भी उठा लेंगे.

सब मिलकर मंदविष के पास गए. फन फैलाये मंदविष को देख सारे मेंढक डर गए. किंतु, जलपाद नहीं डरा और जाकर उसके फन पर चढ़ गया. मंदविष ने कुछ नहीं कहा. इसे अन्य मेंढकों का भी साहस बढ़ गया और वे भी मंदविष के ऊपर चढ़ने लगे.

जब सारे मेंढक मंदविष के ऊपर चढ़ गए, तो वह उन्हें भांति-भांति के करतब दिखाने लगा. उसने उन्हें दिन भर इधर-उधर की ख़ूब सैर करवाई, जिसमें सभी मेंढकों को बड़ा आनंद आया.

अगले दिन वे सब फिर सवारी के लिए मंदविष के पास आये. मंदविष ने उन्हें अपने ऊपर चढ़ा तो लिया, किंतु वह चला नहीं. यह देख जलपाद ने पूछा, “क्या बात है? आज आप हमें करतब नहीं दिखा रहे, न ही हमें घुमा रहे हैं.”

मंदविष बोला, “मैंने कुछ दिनों से कुछ नहीं खाया है. इसलिए मुझे चलने में कठिनाई हो रही है.”

“अरे ऐसा है, तो आप छोटे-छोटे मेंढकों को खाकर अपनी भूख मिटा लो. फिर हमें ढेर सरे करतब दिखाओ.” जलपाद बोला.

मंदविष इसी अवसर की ताक में था. वह प्रतिदिन थोड़े-थोड़े मेंढक खाने लगा. जलपाद को अपने आनंद में यह भी सुध नहीं रहा कि धीरे-धीरे उसके वंश का नाश होता जा रहा है. उसे होश तब आया, जब वह अकेला ही बचा और मंदविष उसे अपना आहार बनाने पर तुल गया. वह बहुत गिड़गिड़ाया, किंतु मंदविष ने एक न सुनी और उसे भी लील गया. इस तरह पूरे मेंढक वंश का नाश हो गया.

सीख

अपने क्षणिक सुख के लिए अपने हितैषियों या वंश की हानि नहीं करनी चाहिए. अपने वंश की रक्षा में ही हमारी रक्षा है.

लालची नागदेव और मेंढकों का राजा

एक कुएं में मेंढकों का समूह रहता था. गंगदत्त नामक मेंढक उनका सरदार था. गंगदत्त क्रोधी और झगड़ालु स्वभाव का था. वह किसी न किसी बात पर आवेश में आ जाता और दूसरों से झगड़ा करने लगता था. वह सब पर धौंस जमाता और बस अपनी ही मनमानी किया करता था. उसके कुएं के मेंढक उससे बहुत परेशान थे. परन्तु, वह उनका सरदार था, इसलिए उसकी मनमानी सहा करते थे.

उस कुएं के आसपास कुछ अन्य कुएं भी थे. वहाँ भी मेंढकों का निवास था. हर मेंढक समूह का एक सरदार भी था. गंगदत्त अन्य कुओं के मेंढकों पर भी धौंस जमाने और उन्हें परेशान करने का प्रयास करता था. विरोध किये जाने पर उनसे झगड़ता था. इस तरह गंगदत्त के प्रति सबमें रोष था. वह न ख़ुद चैन से रहता था, न दूसरों को चैन से रहने देता था. 

एक दिन गंगदत्त का पड़ोसी कुएं के मेंढक सरदार से किसी बात पर झगड़ा हो गया. गंगदत्त अपमान की आग में जल उठा. अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से उसने अपने कुएं के मेंढकों को बुलाया और उनसे बोला, “साथियों! पड़ोसी कुएं के सरदार ने आज मेरा घोर अपमान किया है. हमें उसे सबक सिखाना होगा, ताकि भविष्य में वह ऐसा साहस न कर सके,”

मेंढक जानते थे कि झगड़ा गंगदत्त ने ही शुरू किया होगा. वे उसके कारण व्यर्थ में अन्य मेंढकों से उलझना नहीं चाहते थे. इसलिए एक स्वर में बोले, “सरदार! पड़ोसी कुएं के मेंढकों का संख्या बल हमसे अधिक है. ऊपर से, वे हमसे कहीं अधिक हृष्ट-पुष्ट हैं. हम उनसे लड़ेंगे, तो मारे जायेंगे. इसलिए हमारा उनसे न उलझना ही उचित है.”

अपने अनुचर मेंढकों का उत्तर सुन गंगदत्त चकित रह है. उसे आशा नहीं थी कि उसने अपने ही अनुचर उसकी आज्ञा का पालन करने से इंकार कर देंगे. वह कुढ़ गया. उस समय तो वह शांत रहा. किंतु, मन ही मन उसने उनसे बदला लेने की ठान ली.

फिर उसने अपने पुत्रों को बुलाया और बोला, “पुत्रों, आज पड़ोसी कुएं के मेंढक सरदार ने तुम्हारे पिता का घोर अपमान किया है. जाओ उनसे बदला लेकर आओ और सिद्ध कर दो कि हम किसी से कम नहीं है.”

गंगदत्त के पुत्र भी अपने पिता के स्वभाव से परिचित थे. इसलिए, उसकी बात टालते हुए वे बोले, “पिताश्री! हम तो कभी इस कुएं से बाहर नहीं निकले हैं. हममें इतना सामर्थ्य नहीं कि हम उनका सामना कर सकें. इसलिए हमें क्षमा करें. हम आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते.”

यह सुनकर गंगदत्त अपने पुत्रों से भी चिढ़ गया. वह कुएं से बाहर आया और इधर-उधर घूमने लगा. घूमते-घूमते उसकी दृष्टि एक नाग पर पड़ी, जो कुएं के पास ही एक वृक्ष के नीचे बिल बनाकर रहता था. उसने सोचा कि अपनों ने तो मेरी कोई सहायता नहीं की. क्यों न मेंढकों से प्रतिशोध लेने के लिए शत्रु नाग से संधि कर ली जाये?

वह नाग के पास गया और बोला, “हे नाग! मेरा प्रणाम स्वीकार करो.”

मेंढक को अपने पास देख नाग फुफकारा, “अरे मेंढक, हम तो जन्म-जन्मान्तर के शत्रु हैं. तू मेरे पास क्यों आया है?”

गंगदत्त बोला, “हे नाग! मेरी अपनी ही जाति के लोग पराये हो गए हैं. उन्होंने मेरा इतना अपमान किया है कि उन्हें सबक सिखाने के लिए मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है. मुझसे संधि कर लो. इसमें तुम्हारा भी लाभ है और मेरा भी.”

नाग ने पूछा, “कैसे?”

गंगदत्त उसे सारी बात बताते हुए बोला, “हे नाग, मेरे शत्रु मेंढकों को मैं तुम्हारा आहार बनाऊंगा. तुम मज़े से उन्हें खाना. मेरा प्रतिशोध पूरा हो जायेगा. हुआ न हम दोनों का लाभ.”

नाग बोला, “किंतु, मैं पानी में जाने में असमर्थ हूँ. मैं उन मेंढकों को कैसे पकडूंगा?”

गंगदत्त बोला, “हे नाग! इसमें मैं तुम्हारी सहायता करूंगा. मेरे द्वारा अपने कुओं से अन्य कुओं तक सुरंग खुदवाई गई है, ताकि मैं दूसरे मेंढकों पर नज़र रख सकूं. मैं तुम्हें उन सुरंगों का मार्ग बता दूंगा, तुम आराम से वहाँ जाना और उन मेंढकों को खा जाना.”

नाग ने अपना लाभ देख गंगदत्त से मित्रता कर ली. प्रतिशोध की आग में जलते गंगदत्त ने अपनी ही जाति से छल करते हुए नाग को उन तक पहुँचने का मार्ग बता दिया.

नाग सुरंग मार्ग से पड़ोसी कुएं में जाने लगा और उन्हें अपना आहार बनाने लगा. कुछ ही दिनों में उस कुएं के सारे मेंढक समाप्त हो गए. तब वह गंगदत्त के पास आया और बोला, “उस कुएं में अब एक भी मेंढक नहीं बचा है. अब बता कि मैं किसे खाऊं?”

गंगदत्त ने अन्य समस्त कुओं के मार्ग बता दिया. कुछ दिनों में नाग ने वहाँ के भी सारे मेंढकों को अपना आहार बना लिया.

वह फिर गंगदत्त के पास आया और बोला, “अब बता मैं किसे खाऊं?

गंगदत्त ने उत्तर दिया, “हे नाग! अब तो बस मेरे साथी और मेरा परिवार शेष है.”

नाग फुफकारा, “उससे मुझे कोई मतलब नहीं. अगर तूने जल्दी नहीं बताया, तो मैं तुझे खा लूंगा.”

गंगदत्त डर गया. उसने सोचा कि मेरे जिन साथियों ने मेरा तिरस्कार किया था, उनका ही पता मैं इसे बता देता हूँ. मेरे प्राण तो बचेंगे. उसने नाग को अपने साथियों को खाने भेज दिया.

कुछ ही दिनों में उन्हें चट कर नाग फन फैलाकर फिर गंगदत्त के पास आ गया, “वो सारे मेंढक मैंने खा लिए. अब बता कि मैं किसे खाऊं? अगर तूने नहीं बताया, तो फिर तेरी खैर नहीं.”

गंगदत्त की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उसने सोचा कि उसके पुत्रों ने भी उनकी अवज्ञा की थी. उन्हें ही नाग का आहार बना देता हूँ. मैं और मेंढकी जीवित रहे, तो और संतान उत्पन्न कर लेंगे. उसने नाग को अपने पुत्रों को खाने के लिए भेज दिया.

नाग उन्हें सफाचट कर फिर गंगदत्त के पास लौट आया और फुफकारने लगा. गंगदत्त क्या करता? उसने सोचा कि मेंढकी ही बची है. वैसे भी अब वह वृद्ध हो चुकी है. मैं किसी अन्य मेंढकी से विवाह कर संतान उत्पन्न कर लूंगा. यह विचार मन में आते ही उसने नाग को मेंढकी को खाने भेज दिया.

नाग मेंढकी को खाकर तुरंत वापस आ गया और गंगदत्त के सामने फन फैला लिया.

अब तो मात्र गंगदत्त शेष था. वह गिड़गिड़ाने लगा, “अब तो बस मैं ही बचा हूँ. मैं तुम्हारा मित्र हूँ. आशा है तुम मुझे बख्श दोगे.”

“कहाँ का मित्र और कैसे मित्रता? हम तो सदा के बैरी हैं.” कहकर नाग ने गंगदत्त को खा लिया.

सीख

जो प्रतिशोध की ज्वाला में अपनों के विरुद्ध शत्रु का साथ देता है, उसका अंत निश्चित है.

ब्राह्मण और सांप की कहानी 

बहुत समय पहले की बात है. एक गाँव में हरिदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था. गाँव के बाहर उसका एक छोटा सा खेत था, जहाँ खेती कर वह जीवन यापन हेतु थोड़ा-बहुत धन अर्जित कर लेता था.

ग्रीष्म ऋतु थी. वह अपने खेत में एक वृक्ष की छाया में लेटा सुस्ता रहा था. अनायास ही उसकी दृष्टि वृक्ष के नीचे बने बिल से बाहर निकले सर्प पर पड़ी.

सर्प को देखकर ब्राह्मण के मन में विचार आया कि संभवतः ये सर्प मेरे क्षेत्र देवता हैं. मुझे इनकी पूजा करनी चाहिए. हो सकता है ये मुझे उसका उत्तम प्रतिदान दे.

वह तत्काल उठा और गाँव जाकर एक मिट्टी के कटोरे में दूध ले आया. उसने वह कटोरा सर्प के बिल के बाहर रखा और बोला, “हे सर्पदेव! अब तक मैंने आपकी पूजा अर्चना नहीं की, क्योंकि मुझे आपके विषय में ज्ञात नहीं था. आप मुझे इस धृष्टता के लिए क्षमा करें. अब से मैं प्रतिदिन आपको पूजा करूंगा. मुझ पर कृपा करें और मेरा जीवन समृद्ध करें.”

फिर वह घर लौट आया. अगले दिन खेत पहुँचकर वह कटोरा उठाने सर्प के बिल के पास गया. उसने देखा कि उस कटोरे में एक स्वर्ण मुद्रा रखी हुई है. सर्पदेव का आशीर्वाद समझकर उसने वह स्वर्ण मुद्रा उठा ली.

उस दिन भी वह सर्प के लिए मिट्टी के कटोरे में दूध रखकर चला गया. अगले दिन उसे पुनः एक स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई. तब से वह नित्य-प्रतिदिन सर्पदेव के लिए दूध रखने लगा और उसे प्रतिदिन स्वर्ण मुद्रा मिलने लगी.

एक बार उसे किसी कार्य से दूसरे गाँव जाना पड़ा. इसलिए उसने अपने पुत्र को खेत में वृक्ष के नीचे बने बिल के पास मिट्टी के कटोरे में दूध रखने का कार्य सौंपा और दूसरे गाँव की यात्रा के लिए निकल पड़ा.

उसका पुत्र आज्ञानुसार दूध का कटोरा सर्प के बिल के सामने रखकर घर चला आया. अगले दिन जब वह पुनः दूध रखने गया, तो कटोरे में स्वर्ण मुद्रा देख  चकित रह गया. स्वर्ण मुद्रा देख उसके मन में लोभ आ गया और वह सोचने लगा कि अवश्य इस बिल के भीतर स्वर्ण कलश है. क्यों न मैं इसे खोदकर समस्त स्वर्ण मुद्राएं एक साथ प्राप्त कर धनवान हो जाऊं.

किंतु, उसे सर्प का डर था. सर्प के जीवित रहते स्वर्ण कलश प्राप्त करना असंभव होगा, यह सोचकर वह उस दिन तो वापस चला गया. किंतु, अगले दिन जब वह वह सर्प के लिए दूध लेकर आया, तो साथ में लाठी भी ले गया.

दूध का कटोरा बिल के सामने रखने के थोड़ी देर बाद जब सर्प दूध पीने बाहर निकला, तो उसने उस पर लाठी से प्रहार किया. सर्प लाठी के प्रहार से बच गया. किंतु, क्रुद्ध हो गया और फन फ़ैलाकर ब्राह्मण के पुत्र को डस लिया. कुछ ही देर में विष के प्रभाव से ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु हो गई.

इस तरह लोभ के कारण ब्राह्मण पुत्र को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े.

सीख

लोभ का दुष्परिणाम भोगना पड़ता है. इसलिए कभी लोभ न करें.

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