साहित्यकारों के 4 प्रेरक प्रसंग | Sahityakaron Ke Prerak Prasang

फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम प्रसिद्ध साहित्यकारों के प्रेरक प्रसंग (Sahityakaron Ke Prerak Prasang) शेयर कर रहे हैं। ये प्रेरक प्रसंग जीवन की सीख देते हैं. पढ़ें :

Sahityakaron Ke Prerak Prasang
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बच्चों का साथ : पंडित विष्णु शर्मा का प्रेरक प्रसंग

पंचतंत्र के रचियता विष्णु शर्मा को बच्चों से बहुत लगाव था। एक बार में बच्चों के साथ खेल रहे थे। उस समय वे बहुत प्रसन्न दिखाई पड़ रहे थे, मानो जीवन की समस्त समस्याओं को भूल चुके हों।

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उसी समय उनका एक मित्र आया। विष्णु शर्मा जैसे साहित्यकार को बच्चों के साथ मगन होकर खेलता देख वह चकित रह गया और उनके पास जाकर बोला, “आचार्य! यह क्या आप बच्चों कर साथ खेल रहे हैं। क्या आपको यह शोभा देता है?”

विष्णु शर्मा ने पूछा, “क्यों इसमें क्या अशोभनीय बात है? बच्चों के साथ खेलकर मेरा चित्त प्रसन्न हो जाता है। थोड़ी शारीरिक कसरत हो जाती है। ये तो अच्छी बात है।”

“किंतु आपको नहीं लगता कि इस तरह आप अपना अमूल्य समय नष्ट कर रहे हैं। इस समय का सदुपयोग आप किसी साहित्यिक रचना में कर सकते थे।”

विष्णु शर्मा बोले, “बच्चों के साथ खेलना भी एक तरह से मेरी साहित्यिक कृति में योगदान दे रहा है। किंतु तुम इस बात को समझ नहीं पा रहे हो।”

“आचार्य तो कृपया स्पष्ट कीजिए।”

“तो सुनो! बच्चों के समय व्यतीत कर, उनके साथ खेल कर मैं उनके मनुभावों को समझ पाता हूँ और उन्हें अपनी रचना में सम्मिलित कर लेता हूँ। इस तरह उनके साथ खेलते समय भी मैं अपने सृजन की दिशा में कार्य कर रहा होता हूँ। बच्चों की कहानियाँ लिखने में बच्चों की समझ होना आवश्यक है।”

मित्र को विष्णु शर्मा की बात समझ आ गई और वह चला गया। विष्णु शर्मा फिर से बच्चों के साथ खेलने में जुट गये।

तन्मयता बिना सृजन नहीं : रविंद्रनाथ टैगोर प्रेरक प्रसंग

एक दिन की बात है। शांति निकेतन के अपने कक्ष में गुरू रविंद्रनाथ टैगोर कविता लिख रहे थे। कविता लिखने में वे इतने तल्लीन थे कि उन्हें आभास ही नहीं हुआ कि कोई इनके कक्ष में दबे पांव प्रवेश कर गया है।

वह एक डाकू था, जो गुरूजी की हत्या के उद्देश्य से आया था। निकट पहुँचकर वह तेज आवाज़ में बोला, “आज मैं तेरी प्राण लीला समाप्त करके ही जाऊंगा।”

डाकू की आवाज़ सुनकर गुरूजी का ध्यान उस ओर गया। देखा, बगल में डाकू हाथ में चाकू लिए खड़ा है और उन पर वार की ताक में है। वे बोले, “तनिक ठहरो, एक सुंदर भाव उत्पन्न हुआ है। उसे मैं कविता में उतार लूं। उसके बाद तुम मुझे मार देना। मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। आनंदपूर्वक अपने प्राण दे दूंगा।”

इतना कह वे पुनः कविता लिखने में तल्लीन हो गए। डाकू उन्हें हतप्रभ सा देखता रह गया। इधर गुरूजी कविता में ऐसे तल्लीन हुए कि उन्हें भान ही नहीं रहा कि बगल में उनकी हत्या के प्रयोजन से आया डाकू खड़ा है।

जब कविता पूर्ण हुई, तो उन्हें डाकू का ख़याल आया। उसकी ओर देख वे बोले, “विलंब के लिए क्षमा। कविता लिखने की तल्लीनता में मैं तुम्हारे बारे में भूल ही गया। अब तुम अपना प्रयोजन सिद्ध कर सकते हैं। मैं अपने प्राण देने तत्पर हूँ।”

गुरूजी ने इतना कहा कि डाकू उनके चरणों में गिर पड़ा। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। इतने सौम्य चित्त और कला के प्रति समर्पित व्यक्ति से उसकी कभी भेंट ही नहीं हुई थी। उसने गुरूजी की हत्या का विचार त्याग दिया और चाकू फेंक उनसे क्षमा-याचना करने लगा।

इस प्रकार गुरू रविन्द्रनाथ टैगोर पूर्ण तन्मयता से कार्य किया करते थे। बिना तन्मयता के सृजन असंभव है। इसलिए जब भी आप किसी कार्य में जुटे, तो पूरी तल्लीनता से जुटें, कार्य अवश्य सिद्ध होगा।

बचत का महत्व : जॉन मूरे का प्रेरक प्रसंग

शाम का समय था। दो मोमबत्तियाँ जलाकर प्रसिद्ध लेखक जॉन मूर लेखन का कार्य कर रहे थे। उसी समय उनके द्वार पर दस्तक हुई। उन्होंने देखा कि द्वार पर दो महिलायें हैं। वे महिलायें किसी सामाजिक संस्था से संबद्ध थी और उनसे किसी कल्याणकारी कार्य के संबंध में चंदा मांगने आई थीं।

उनसे बात करने के पूर्व जॉन मूर ने दो में से एक मोमबत्ती बुझा दिया। यह देख वे महिलायें सोचने लगी कि यहाँ चंदा नहीं मिलने वाला। जो व्यक्ति हमसे बात करने के पूर्व एक दीपक बुझा रहा है, उसके पास क्या पैसे होंगे? वह क्या चंदा देगा?

जॉन मूर ने उन महिलाओं से उनके आने का उद्देश्य पूछा। महिलाओं ने कुछ हिचकते हुए चंदे की बात उन्हें बताई। जॉन मूरे ने फौरन 100 डॉलर उन्हें दे दिये।

यह देखकर दोनों महिलायें चकित रह गई और उन्होंने कहा, “हमारे आने पर आपने एक दीपक बुझा दिया, तो हमें लगा कि हमें आपसे कोई चंदा नहीं मिलेगा। किंतु आपने 100 डॉलर देकर हमारी सोच बदल दी।”

“आपको यह राशि देने में सक्षम होने का कारण यह बचत की आदत ही है। आपसे बात करते समय एक मोमबत्ती का प्रकाश ही पर्याप्त था, इसलिए दूसरा व्यर्थ करने का कोई प्रयोजन नहीं था। बूंद बूंद से ही घड़ा भरता है। थोड़ी-थोड़ी बचत से ही बड़ी रकम जमा होती है।” जॉन मूर ने उत्तर दिया।

उन महिलाओं को वहाँ चंदा भी मिला और एक अच्छी नसीहत भी। उन्हें बचत का महत्व समझ आ गया था।

चिंता : मिर्ज़ा ग़ालिब का प्रेरक प्रसंग

एक दिन मिर्ज़ा गालिब कहीं जा रहे थे। जब वे थक गए, तो एक छायादार पेड़ के तले सुस्ताने के लिए बैठ गये। सुस्ताने के पूर्व उन्होंने अपनी शेरवानी पेड़ पर ही टांग दी। थके होने के कारण उन्हें झपकी आ गई।

उन्हें बेखबर सोता देख एक चोर ने उनकी शेरवानी पर हाथ साफ कर दिया। जब मिर्ज़ा गालिब की नींद खुली, तो शेरवानी को नदारत पाया। बरबस ही उनके मुँह से निकला –

“न लुटता दिन को तो कब रात में, मैं बेखबर सोता,

रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ, रहजन को।“

अर्थात्

“ईश्वर! तू चोर की उम्र लंबी कर, उसने मुझे दिन में लूट ही लिया है। अब कम-से-कम रात को तो पैर पसारकर सोऊंगा।“

ऐसे थे मिर्ज़ा ग़ालिब, जिन्हें हुए नुकसान की चिंता से ज्यादा इस बात की संतुष्टि थी कि रात को चैन से सो सकूंगा।

मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन की यह घटना और उनकी सोच सीख देती है कि कुछ बुरा हो गया या कोई समस्या आ गई, तो उसके लिए चिंता कर रातों की नींद हराम करने का कोई औचित्य नहीं। समस्या के समाधान के लिए कार्यवाही अवश्य करें, किंतु चिंता कर अपना स्वास्थ्य बिगाड़ने का कोई लाभ नहीं।

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