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समुद्र मंथन की कहानी | Samudra Manthan Ki Kahani

समुद्र मंथन की कहानी (Samudra Manthan Ki Kahani) भारतीय पौराणिक कथाओं में समुद्र मंथन की कथा एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। यह कहानी न केवल देवताओं और असुरों के बीच संतुलन को स्थापित करती है, बल्कि अच्छाई और बुराई के संघर्ष का प्रतीक भी है। समुद्र मंथन का उद्देश्य अमृत प्राप्त करना था, जो अमरता प्रदान करने वाला अमूल्य पदार्थ था। इस कथा में ईश्वर की महानता, धैर्य और सहयोग के महत्व का अद्भुत संदेश मिलता है। यह कहानी केवल शक्ति और संघर्ष की नहीं, बल्कि त्याग, धैर्य, और कूटनीति की भी है।

Samudra Manthan Ki Kahani 

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Samudra Manthan Ki Kahani 

प्राचीन समय में देवता और असुर सदा आपस में युद्ध करते रहते थे। देवता, जिन्हें ‘सुर’ कहा जाता था, सत्य, धर्म, और अच्छाई के पक्षधर थे, जबकि असुर, जिन्हें ‘दानव’ भी कहा जाता था, शक्ति और भौतिक सुखों के इच्छुक थे। एक समय ऐसा आया, जब देवताओं ने असुरों के साथ हुए युद्ध में अपनी सारी शक्ति खो दी और वे असहाय हो गए। इसके बाद वे भगवान विष्णु के पास गए और उनसे मार्गदर्शन की याचना की। 

भगवान विष्णु ने देवताओं को सलाह दी कि यदि वे अमृत प्राप्त कर लें तो उन्हें अमरता मिल जाएगी और उनकी शक्ति में वृद्धि होगी। अमृत समुद्र में गहरे छुपा था और उसे प्राप्त करना आसान नहीं था। विष्णु ने कहा कि इसके लिए उन्हें समुद्र मंथन करना होगा, जिसमें उन्हें असुरों का सहयोग लेना पड़ेगा, क्योंकि यह कार्य अकेले देवताओं के लिए असंभव था। देवताओं को यह विचार प्रारंभ में कठिन लगा, लेकिन विष्णु जी ने उन्हें समझाया कि असुरों को यह सोचकर इसमें सम्मिलित किया जाए कि अमृत उन्हें भी मिलेगा।

देवता और असुर दोनों समुद्र मंथन के लिए सहमत हो गए। इसके लिए सबसे पहले एक विशाल पर्वत की आवश्यकता थी, जो मथानी का कार्य कर सके। इसके लिए उन्होंने मंदराचल पर्वत का चयन किया। मंथन के लिए एक मजबूत रस्सी की आवश्यकता थी, तो उन्होंने नागों के राजा वासुकि को रस्सी के रूप में चुना। वासुकि के मस्तिष्क से मंदराचल को घुमाने के लिए देवता और असुरों ने उसे पकड़ा। 

अब समुद्र मंथन का कार्य आरंभ हुआ। देवता मंदराचल के एक ओर खड़े हुए और असुर दूसरी ओर। वासुकि के फन को असुरों ने पकड़ा जबकि देवताओं ने उसकी पूंछ को। देवताओं के राजा इंद्र और असुरों के राजा बलि ने यह कार्य आरंभ किया। लेकिन समस्या तब आई जब मंदराचल समुद्र में डूबने लगा। देवताओं ने विष्णु जी से सहायता की प्रार्थना की, तब भगवान विष्णु ने कूर्मावतार (कछुए का रूप) धारण किया और मंदराचल को अपनी पीठ पर सहारा दिया। 

इस प्रकार, समुद्र मंथन फिर से आरंभ हुआ। मंथन के दौरान विभिन्न प्रकार के रत्न, औषधियाँ और अमूल्य वस्तुएं समुद्र से निकलने लगीं। सबसे पहले, हलाहल नामक विष समुद्र से प्रकट हुआ। यह विष इतना भयंकर था कि इसकी कुछ बूँदें भी संपूर्ण सृष्टि को नष्ट कर सकती थीं। देवता और असुर दोनों इस विष से घबरा गए। विष के प्रकोप को देखते हुए सभी ने भगवान शिव से प्रार्थना की। शिव जी ने करुणा दिखाते हुए उस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया। इस विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया और तभी से वे ‘नीलकंठ’ कहलाए।

विष के शांत होने के बाद मंथन पुनः आरंभ हुआ। धीरे-धीरे समुद्र से रत्न और दिव्य वस्तुएं निकलने लगीं, जैसे – ऐरावत हाथी, कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष, उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा, और अप्सराएं। ये सब देवताओं और असुरों ने आपस में बांट लिए। इसके बाद देवी लक्ष्मी प्रकट हुईं, जिन्हें सभी ने धन, वैभव और सौभाग्य की देवी के रूप में पूजा। लक्ष्मी जी ने विष्णु जी को अपने पति के रूप में चुना।

अंततः समुद्र मंथन से अमृत कलश प्रकट हुआ, जिसे लेकर धन्वंतरि देवता प्रकट हुए। जैसे ही असुरों ने अमृत का कलश देखा, उन्होंने उसे हथियाने का प्रयास किया। यह देखकर देवताओं में चिंता फैल गई, क्योंकि यदि असुर अमृत पी लेते तो वे अमर हो जाते और संसार में विनाश का दौर आरंभ हो जाता। इस स्थिति में फिर से भगवान विष्णु ने एक योजना बनाई। उन्होंने मोहिनी का रूप धारण किया, जो अत्यंत आकर्षक और मोहक रूप था।

मोहिनी ने अपनी सुंदरता से असुरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और उनसे कहा कि वह अमृत को समान रूप से वितरित करेगी। असुर मोहिनी के मोह में पड़ गए और उसे अमृत बाँटने का अधिकार दे दिया। मोहिनी ने चालाकी से अमृत का वितरण आरंभ किया, लेकिन वह केवल देवताओं को ही अमृत पिला रही थी। असुर इस बात को समझ नहीं पाए और मोहिनी के आकर्षण में उलझे रहे।

लेकिन असुरों में से एक राहु नामक असुर ने इस चाल को भांप लिया और वह देवताओं के बीच बैठकर अमृत पीने लगा। तभी सूर्य और चंद्रमा ने उसे पहचान लिया और मोहिनी को इस बात की जानकारी दी। मोहिनी के रूप में भगवान विष्णु ने तुरंत अपने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर धड़ से अलग कर दिया। लेकिन तब तक उसने अमृत का एक घूंट पी लिया था, जिससे उसका सिर अमर हो गया। राहु का सिर आकाश में जाकर एक ग्रह के रूप में स्थापित हो गया और तभी से वह सूर्य और चंद्रमा का शत्रु बन गया। इसी कारण वह समय-समय पर सूर्य और चंद्रमा को ग्रसने का प्रयास करता है, जिसे हम ग्रहण कहते हैं।

इस प्रकार, भगवान विष्णु की योजना और उनकी चतुराई से देवताओं को अमृत प्राप्त हुआ और वे अमर हो गए। असुरों को अपने छल का पता चला, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। देवताओं और असुरों के इस समुद्र मंथन के माध्यम से सृष्टि में संतुलन स्थापित हुआ। 

सीख

समुद्र मंथन की यह कहानी केवल पौराणिक कथा नहीं है, बल्कि इसमें गहरे दार्शनिक और नैतिक संदेश भी छुपे हैं। यह कथा यह सिखाती है कि जीवन में संघर्ष के बिना मूल्यवान वस्तु प्राप्त नहीं होती और कठिनाइयों को सहन करने की क्षमता ही सफलता की कुंजी है। भगवान विष्णु, शिव और अन्य देवताओं का त्याग, धैर्य और कूटनीति इस कथा के माध्यम से जीवन में धैर्य और सद्भाव का महत्व दर्शाती है।

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