शिव पार्वती विवाह कथा (Shiv Parvati Vivah Katha) भारतीय संस्कृति में शिव और पार्वती के विवाह की कथा विशेष महत्व रखती है। यह कथा केवल एक देवता और देवी के विवाह की कहानी नहीं, बल्कि जीवन और सृष्टि के संतुलन का प्रतीक है। इस कथा में सच्चे प्रेम, त्याग, तपस्या और समर्पण का ऐसा अद्भुत समन्वय है, जो हमें जीवन के उच्चतम आदर्शों की शिक्षा देता है।
Shiv Parvati Vivah Katha
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पार्वती का जन्म हिमालय के राजा हिमवान और रानी मैना के घर हुआ था। यह वही देवी सती का पुनर्जन्म थीं, जिन्होंने पूर्व जन्म में भगवान शिव से विवाह किया था, किन्तु अपने पिता दक्ष के द्वारा शिव का अपमान करने पर, स्वयं को योगाग्नि में भस्म कर दिया था। सती ने अपने अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया।
पार्वती बचपन से ही भगवान शिव की पूजा और आराधना में रमी रहती थीं। उन्होंने शिव को अपने मन, तन और आत्मा से स्वीकार किया था। समय बीतने के साथ पार्वती के मन में शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त करने की इच्छा और प्रबल हो गई। उनके इस प्रण और इच्छा को देख, माता-पिता ने भी उनका समर्थन किया।
पार्वती ने कठिन तपस्या का मार्ग अपनाने का निर्णय किया और वन में जाकर तपस्या में लीन हो गईं। उन्होंने कठोर उपवास और तप का अनुसरण किया। पार्वती के इस कठिन तप से संपूर्ण ब्रह्माण्ड हिल गया। उनके समर्पण और निष्ठा से प्रभावित होकर भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी ने शिव से पार्वती से विवाह करने का आग्रह किया।
जब नारद मुनि ने पार्वती के इस प्रयास को देखा, तो वह उनसे मिलने आए। उन्होंने पार्वती को आशीर्वाद दिया और कहा कि उनकी तपस्या और निष्ठा के कारण शिव का हृदय पिघलेगा। नारद मुनि ने पार्वती के माता-पिता को भी बताया कि पार्वती का विवाह शिव से होना निश्चित है, लेकिन इसके लिए उन्हें अपने प्रयास में किसी प्रकार की कमी नहीं रखनी होगी।
भगवान शिव तपस्या में लीन थे और किसी प्रकार का सांसारिक मोह-माया उन्हें आकर्षित नहीं करता था। ऐसे में शिव को विवाह के लिए प्रेरित करना कठिन कार्य था। देवताओं ने कामदेव की सहायता ली ताकि वह शिव के हृदय में प्रेम का संचार कर सकें।
कामदेव ने शिव पर पुष्प बाण चलाया, जिससे उनकी तपस्या भंग हुई। लेकिन जैसे ही शिव ने अपनी तपस्या में विघ्न देखा, उन्होंने क्रोधित होकर अपने तीसरे नेत्र को खोल दिया। इसके परिणामस्वरूप कामदेव भस्म हो गए। हालांकि, कामदेव की पत्नी रति की व्यथा और भगवान शिव की करुणा ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया, लेकिन केवल विचार के रूप में।
शिव को जब पार्वती की तपस्या के बारे में पता चला, तो वह प्रभावित हुए। शिव ने पार्वती का प्रेम और तपस्या देखकर उन्हें परीक्षा लेने का निर्णय लिया। शिव ने एक बूढ़े साधु का रूप धारण किया और पार्वती के समक्ष उपस्थित हुए।
बूढ़े साधु ने पार्वती से कहा, “तुम इतनी सुंदर हो, राजकुमारी हो, फिर ऐसे भिक्षुक, गृहहीन और एक तांत्रिक पुरुष को पति बनाने की इच्छा क्यों रखती हो, जिसे किसी बात का ख्याल नहीं है?”
पार्वती ने उत्तर दिया, “भगवान शिव मेरे आराध्य हैं। मैंने जीवन का हर क्षण उन्हें अर्पित किया है, और उनकी हर विशेषता, चाहे वह जैसी भी हो, मेरे लिए अत्यंत प्रिय है।”
पार्वती की निष्ठा और प्रेम देखकर शिव ने अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। पार्वती अत्यंत प्रसन्न हुईं, और उनके माता-पिता भी इस विवाह के लिए सहमत हो गए।
शिव और पार्वती के विवाह की तैयारी शुरू हुई। विवाह की तिथि और स्थान निश्चित हुआ। हिमालय पर्वत पर विवाह का आयोजन हुआ। इस विवाह में संपूर्ण देवता, ऋषि-मुनि और सभी जगत के लोग सम्मिलित हुए।
शिव विवाह में जिस रूप में आए, वह अद्भुत और चौंकाने वाला था। वह एक श्मशान में रहने वाले, भभूत से लेपे हुए, गले में सर्प और मुण्डमाला धारण किए हुए, बैल की सवारी पर सवार होकर आए। देवता और अन्य लोग शिव के इस रूप को देखकर चिंतित हो गए, लेकिन पार्वती का प्रेम शिव के इस रूप को भी स्वीकार करने के लिए तैयार था।
विवाह समारोह में शिव और पार्वती का मिलन हुआ। इस अवसर पर ब्रह्मा जी ने विवाह के मंत्र उच्चारण किए और विष्णु जी ने वर के पिता का कर्तव्य निभाया।
शिव और पार्वती का यह विवाह केवल प्रेम का प्रतीक नहीं, बल्कि सृष्टि के संतुलन का प्रतीक भी है। शिव का जीवन संन्यास और वैराग्य का प्रतीक था, जबकि पार्वती गृहस्थ और प्रेम की प्रतिमूर्ति थीं। दोनों का मिलन इस बात का प्रतीक है कि जीवन में संतुलन आवश्यक है।
पार्वती ने शिव के जीवन में संतुलन और प्रेम का संचार किया। उन्होंने शिव के क्रोध को शांत किया और उन्हें एक सामान्य जीवन का आनंद लेना सिखाया। दूसरी ओर, शिव ने पार्वती को भी ध्यान, वैराग्य और तपस्या का मार्ग दिखाया। दोनों का यह मिलन इस बात का साक्षी है कि जब स्त्री और पुरुष अपने स्वभाव का सम्मान करते हुए एक-दूसरे का पूरक बनते हैं, तो जीवन में आनंद और शांति का मार्ग प्रशस्त होता है।
शिव और पार्वती के विवाह के बाद, उनके दो पुत्रों का जन्म हुआ – कार्तिकेय और गणेश। कार्तिकेय युद्ध और साहस के प्रतीक बने, जबकि गणेश बुद्धि और विवेक के प्रतीक माने गए। इनके जन्म के बाद शिव और पार्वती का परिवार संपूर्ण हुआ।
गणेश का जन्म और उनकी कथा विशेष रूप से प्रसिद्ध है। यह दर्शाता है कि किस प्रकार शिव और पार्वती ने अपने बच्चों के प्रति प्रेम और कर्तव्य निभाया। गणेश ने भी परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन किया और उन्हें भगवान के रूप में पूजा जाने लगा।
शिव और पार्वती का विवाह प्रेम, त्याग, संतुलन और जीवन के आदर्शों का प्रतीक है। यह कथा हमें सिखाती है कि जीवन में स्थिरता और शांति तभी संभव है, जब दोनों पक्ष एक-दूसरे के पूरक बनें और प्रेम का पालन करें। यह कथा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी।
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