सुखबिहारी जातक कथा (Sukhbihari Jataka Katha) त्याग और संन्यास का मार्ग अत्यंत कठिन माना गया है। यह मार्ग उन लोगों के लिए है जो अपने भौतिक सुखों का त्याग कर आत्मा और परमात्मा की खोज में निकल पड़ते हैं। सांसारिकता से दूर होकर भी संन्यासी व्यक्ति को अपने भीतर शांति और संतोष प्राप्त होता है। लेकिन इस मार्ग पर चलने वाले साधकों का बाहरी आचरण अक्सर आम लोगों के लिए गलतफहमी का कारण बन जाता है। यही बात इस कहानी में भी देखने को मिलती है, जहाँ एक संन्यासी के शिष्य के बारे में एक राजा ने गलत धारणा बना ली। यह कहानी इस सत्य का प्रतिपादन करती है कि सच्चे संन्यासी के लिए सुख का अर्थ भौतिक सुखों से नहीं, बल्कि आत्मिक सुख से होता है।
Sukhbihari Jataka Katha
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प्राचीन काल में हिमालय की ऊंची-ऊंची पर्वत-कंदराओं में एक प्रतिष्ठित संन्यासी का वास था। उनका जीवन सरल, सात्विक और त्याग से परिपूर्ण था। उनके अनुयायी हज़ारों की संख्या में थे, जो उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में अपनाने के लिए दूर-दूर से आते थे। वर्ष के एक समय, संन्यासी अपने शिष्यों के साथ पर्वतों से नीचे उतरकर नगरों में आते, ताकि लोगों को आत्मिक मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर सकें।
एक वर्ष ऐसा हुआ कि वर्षा-काल के समय संन्यासी अपने शिष्यों के साथ वाराणसी आ पहुँचे। वाराणसी के राजा को संन्यासी के आगमन का समाचार मिला। राजा उनकी आध्यात्मिक महिमा से अत्यंत प्रभावित था, और उसने संन्यासी का स्वागत राजकीय सम्मान के साथ करने का निर्णय लिया। राजा ने संन्यासी को अपने महल में ठहराया, उनके लिए भोजन और आराम की सभी व्यवस्थाएँ कीं। संन्यासी ने कुछ समय तक वहीं रुककर राजा और उनके राज्यवासियों को उपदेश दिए और अध्यात्म का मार्ग दिखाया।
जब वर्षा-काल समाप्त हुआ और हिमालय लौटने का समय आया, तो राजा ने संन्यासी से विनती की कि वे कुछ और समय वहीं रुकें। किंतु संन्यासी ने सोचा कि हिमालय लौटना आवश्यक है, क्योंकि उनके शिष्य वहां उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इसलिए उन्होंने अपने एक प्रमुख शिष्य को छोड़कर बाकी शिष्यों को हिमालय की ओर रवाना कर दिया। इस प्रमुख शिष्य का कार्य संघ का संचालन करना था और साथ ही संन्यासी के संदेशों को शेष शिष्यों तक पहुँचाना था।
कुछ माह के पश्चात वह प्रमुख शिष्य अपने गुरु से मिलने और संघ की प्रगति की जानकारी देने के लिए पुनः वाराणसी पहुँचा। वह अपने गुरु के पास पहुँचा और उनके चरणों में बैठ गया। संन्यासी ने उसे स्नेहपूर्वक अपने पास बिठाया और उसके स्वागत में तरह-तरह के भोज्य पदार्थ, फल, और पकवान मँगवाए। संन्यासी अपने शिष्य की प्रगति से बहुत प्रसन्न थे और उसे देख कर संतोष का अनुभव कर रहे थे।
शिष्य ने आदरपूर्वक भोजन करना आरंभ किया और गुरु के साथ वार्ता करने लगा। भोजन करते-करते शिष्य ने सहजता में कहा, “वाह! क्या सुख है! क्या सुख है!!” उसका यह वाक्य उस समय राजा ने भी सुन लिया, जो उस समय वहाँ आया था। राजा ने शिष्य के मुख से यह शब्द सुनकर मन ही मन सोचा, “यह शिष्य तो भोग विलास में लीन है! इसने संन्यास का मार्ग केवल नाम के लिए चुना है, लेकिन वास्तव में यह सांसारिक सुखों का त्याग नहीं कर सका है।” राजा के मन में यह धारणा पक्की हो गई कि यह शिष्य लोभी और सांसारिक सुखों में आसक्त है।
राजा की उपस्थिति में उस शिष्य के शब्दों ने उसके प्रति एक प्रकार की अवमानना और असम्मान का भाव उत्पन्न कर दिया। राजा सोचने लगा कि संन्यासी ने शायद गलत शिष्य को प्रमुखता दी है। वह यह भी मान बैठा कि शायद संन्यासी को इस बात का ज्ञान नहीं कि उनका यह शिष्य कितनी भौतिकवादी मानसिकता रखता है। राजा की ये सोच उसकी अप्रसन्नता में झलकने लगी।
संन्यासी ने राजा के मन में उत्पन्न इस विचार को भाँप लिया। राजा की मानसिक स्थिति को समझते हुए, उन्होंने मुस्कुराते हुए राजा से कहा, “राजन्! आप मेरे इस शिष्य के बारे में जो सोच रहे हैं, वह वास्तविकता से परे है। यह शिष्य कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। वास्तव में यह एक बहुत बड़े सम्राट रह चुके हैं। इन्होंने न केवल अपना राज-पाट, बल्कि अपने परिवार और राज्य की सारी जिम्मेदारियाँ त्याग दी हैं। इन्हें सांसारिक सुख-समृद्धि में रहने का पूरा अवसर था, परंतु इन्होंने सब कुछ त्याग कर संन्यास का मार्ग चुना।”
इसके बाद संन्यासी ने बताया, “इनके मुख से निकला ‘क्या सुख है’ का अर्थ भोग-विलास नहीं है। इन्होंने जो सुख की बात की है, वह आत्मिक सुख की बात है, जिसे केवल त्याग और संन्यास के मार्ग पर चलकर ही प्राप्त किया जा सकता है। वह आनंद, जो सांसारिक सुखों से नहीं, बल्कि आत्मा की शांति से मिलता है।”
संन्यासी की बात सुनकर राजा की आँखें खुल गईं। उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने समझ लिया कि उसकी सोच तुच्छ और संकुचित थी। जो व्यक्ति सचमुच त्याग और तपस्या का जीवन जी रहा है, उसकी वास्तविकता को समझे बिना उस पर कोई धारणा बना लेना अनुचित है। राजा को संन्यासी और उनके शिष्य के त्याग की महिमा का ज्ञान हो गया। उसे यह भी समझ में आ गया कि सच्चे संन्यासी और उनके शिष्य के लिए सुख का अर्थ भौतिक सुख नहीं, बल्कि आत्मिक आनंद है, जो संसार के मोह-माया से दूर रहकर प्राप्त होता है।
राजा ने अपनी भूल के लिए संन्यासी से क्षमा याचना की और भविष्य में किसी के भी बारे में बिना पूरी समझ के कोई धारणा न बनाने का संकल्प लिया। उस दिन राजा के मन में संन्यास और त्याग के प्रति एक नया दृष्टिकोण जन्मा।
सीख
इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि हमें बाहरी आचरण से किसी के चरित्र का आकलन नहीं करना चाहिए। किसी व्यक्ति का सच्चा स्वरूप उसके आंतरिक भावों में छुपा होता है। त्याग और तपस्या का मार्ग भोग-विलास से बहुत दूर होता है। सच्चा सुख भौतिक पदार्थों में नहीं, बल्कि आत्मा की शांति और आत्मिक आनंद में है।
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