तेनालीराम की कहानी : खूंखार भूखा घोड़ा

फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम “Tenali Raman And Hungry Horse Story In Hindi” शेयर कर रहे हैं. यह तेनालीराम की एक मज़ेदार कहानी है, जो सीख भी देती है. पढ़िए:

Tenali Raman And Hungry Horse Story In Hindi

Tenali Raman And Hungry Horse Story In Hindi
Tenali Raman And Hungry Horse Story In Hindi

“तेनालीराम की कहानियों” का पूरा संकलन यहाँ पढ़ें : click here

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एक दिन राजा कृष्णदेव राय के दरबार में अरब देश का एक व्यापारी आया. उसके पास एक से बढ़कर एक अरबी घोड़े थे. व्यापारी ने हट्ठे-कट्ठे और तंदरुस्त अरबी घोड़ों की राजा कृष्णदेव राय के सामने इतनी तारीफ़ की कि उन्होंने फ़ौरन उन घोड़ों को ख़रीदने का मन बना लिया.

अच्छी कीमत देकर व्यापारी से सारे घोड़े खरीद लिए गए. व्यापारी ख़ुशी-ख़ुशी वापस चला गया. महाराज बहुत ख़ुश थे. लेकिन जब घोड़ों को रखने की बात सामने आई, तो समस्या खड़ी हो गई. सारे अस्तबल पहले से ही भरे हुए थे. उनमें नए घोड़ों को रखने का स्थान नहीं था.

इस समस्या का निदान राजगुरु के सुझाया. राजगुरु ने महाराज को परामर्श दिया कि जब तक इस घोड़ों को रखने एक लिए नया अस्तबल तैयार न हो जाये, क्यों न एक-एक घोड़ा हम मंत्रियों, दरबारियों और प्रजा में बांट दे. वे उन घोड़ों की देखभाल करेंगे और उसके बदले हर महिने उन्हें १ स्वर्ण मुद्रा दी जायेगी.

महाराज को राजगुरु की ये सलाह जंच गई और उन्होंने वे घोड़े अपने मंत्रियों और दरबारियों में बंटवा दिए. जो घोड़े बचे, वे प्रजा में बांट दिए गये. महाराज का आदेश था इसलिए सब लोग चुपचाप घोड़े लेकर अपने-अपने घर चले गए.

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१ स्वर्ण मुद्रा में उन घोड़ों के चारे का प्रबंध करना और उनकी देखभाल करना बहुत कठिन था. लेकिन वे राजसी घोड़े थे, इसलिए उनकी देखभाल में कोई कोताही नहीं बरती जा सकती थी. सब अपना पेट काटकर घोड़ों की देखभाल करने लगे.

एक घोड़ा तेनालीराम को भी मिला. उसने वह घोड़ा अपने घर ले जाकर एक छोटी सी अँधेरी कुटिया में बांध दिया. उस कुटिया में छोटी सी एक खिड़की बनी हुई थी. उस खिड़की से तेनालीराम रोज़ शाम थोड़ी सी सूखी घास घोड़े को खिलाया करता था.

घोड़ा दिन भर भूखा रहता था. इसलिए जैसे ही शाम को खिड़की से सूखी घास देखता, लपककर उसे खा जाता. दिन बीतते गये और वह दिन भी आया, जब अरबी घोड़ों का अस्तबल बनकर तैयार हो गया.

जिन मंत्रियों, दरबारियों और प्रजा के पास अरबी घोड़े थे, उन्होंने चैन की सांस ली. इतने दिनों में घोड़ों की देखभाल के कारण सबके घर का बजट बिगड़ गया था, कईयों पर क़र्ज़ चढ़ गया था. खैर, वे घोड़े लेकर राजमहल पहुँचे. इधर तेनालीराम जब राजमहल पहुँचा, तो उसका घोड़ा नदारत था.

महाराज के पूछने पर वह बोला, “महाराज! क्या बताऊँ? वह घोड़ा बहुत ही ज्यादा खूंखार हो गया है. किसी पर भी हमला कर देता है. मुझमें तो इतना साहस नहीं कि उसके अस्तबल में घुस पाऊं. इसलिए मैं उसे नहीं ला पाया.”

महाराज कुछ कहते, इसके पहले राजगुरु बोल पड़े, “महाराज! तेनालीराम की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता. अवश्य घोड़ा सही-सलामत नहीं है, इसलिए तेनालीराम बहाना कर रहा है. हमें वहाँ जाकर वास्तविकता का पता लगाना चाहिए.”

महाराज ने राजगुरु को कुछ सैनिकों के साथ तेनालीराम के घर जाकर घोड़े को लाने का आदेश दे दिया. राजगुरु सैनिक लेकर तेनालीराम के घर पहुँच गए. साथ में तेनालीराम भी था. तेनालीराम ने उसे वह कुटिया दिखाई, जहाँ घोड़ा बंधा हुआ था.    

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राजगुरु जब कुटिया के पास पहुँछे, तो तेनालीराम बोला, “राजगुरु जी संभल के! घोड़ा सच में बहुत खूंखार हो गया है. आप पहले खिड़की से उसका मुआइना कर लीजिये.”

राजगुरु ने भी सोचा कि पहले खिड़की से ही मुआइना कर लेना उचित होगा. वह अपना मुँह खिड़की के पास ले गए. दिन भर से घोड़े ने कुछ खाया नहीं था. तेनालीराम शाम के समय ही उसे सूखी घास दिया करता था. इसलिए जैसे ही राजगुरु खिड़की के पास अपना मुँह लेकर गये, उनकी दाढ़ी को सूखी घास समझकर घोड़े ने मुँह में दबा लिया और खींचने लगा.

राजगुरु दर्द से चीख पड़े. यह देख तेनालीराम बोला, “मैंने कहा था न राजगुरु जी कि घोड़ा बड़ा खूंखार हो गया है.”

राजगुरु क्या कहते? बस दर्द से चीखते रहे और अपनी दाढ़ी छुड़ाने का प्रयास करते रहे. किंतु भूखा घोड़ा भी दाढ़ी छोड़ने तैयार नहीं था. आखिरकार, सैनिकों द्वारा तलवार से दाढ़ी काटकर अलग कर दी गई, तब राजगुरु की जान छूटी.

उसके बाद राजगुरु ने सैनिकों को आदेश दिया कि वे घोड़े को पकड़कर राजमहल ले चलें. घोड़े को राजमहल में महाराज के सामने ले जाया गया. राजा ने जब घोड़े को देखा, तो आश्चर्यचकित रह गए. इतने महिने ढंग से कुछ खाने-पीने को न दिए जाने के कारण उसका शरीर सूख गया था और वह एकदम मरियल दिख रहा था.

अपने घोड़े की ये हालात देख महाराज बहुत क्रोधित हुए और तेनालीराम से बोले, “ये क्या हालत कर दी तुमने घोड़े की?”

तेनालीराम बोला, “महाराज, एक स्वर्ण मुद्रा में मैं इसे जितना दाना-पानी दे सकता था, उतना मैंने दिया. बाकी लोग आपके डर से अपना पेट काट-काटकर घोड़े की देखभाल करते रहे.”

वह आगे कहता गया, “…महाराज! राज्य के राजा का धर्म प्रजा की देखभाल करना है, न कि उन पर अतिरिक्त बोझ डालना. इन घोड़ों की देखभाल करते-करते और उन्हें बलवान व तंदरुस्त बनाये रखने में आपकी प्रजा दुर्बल हो गई है. आप ही बताएं महाराज, क्या ये उचित है?”

महाराज को तेनालीराम की बात समझ में आ गई और उन्हें अपनी भूल का अहसास हो गया. अपनी इस भूल के लिए उन्होंने सबसे क्षमा मांगी और उन्हें इन महिनों में हुए खर्चों की भरपाई भी दी.

सीख (Moral Of The Story)

अच्छी तरह सोच-विचार कर ही किसी निर्णय पर पहुँचना चाहिए. जल्दबाज़ी में लिया गया निर्णय सबके लिए समस्या खड़ी कर सकता है.   


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