तेनाली राम की 21 सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ | 21 Best Tenali Raman Stories In Hindi

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Best Tenali Raman Stories In Hindi 

Best Tenali Raman Stories In Hindi

Table of Contents

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1. तेनाली राम और मां का आशीर्वाद

तेनाली रामलिंगाचार्युल का जन्म १६ वीं सदी के प्रारंभ में थुमलुरु गाँव में एक तेलगी भट्ट ब्राह्मण परिवार में हुआ था. हालांकि एक लोकप्रिय धारणानुसार उनका जन्म तेनाली नामक गाँव में हुआ था.

तेनाली राम का जन्म नाम ‘रामाकृष्णा शर्मा’ था. उनके पिता गरालपति रामैया गाँव के मंदिर में पुजारी थे. बाल्यकाल में ही पिता का साया तेनाली राम के सिर से उठ गया और माता लक्षम्मा द्वारा उनका पालन-पोषण किया गया.

औपचारिक शिक्षा तेनाली राम ने कभी प्राप्त नहीं की, किंतु वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि थे. उनकी वाकपटुता का तो कोई जवाब ही नहीं था. नटखट तो इतने थे कि कोई भी उनकी शरारतों से बच नहीं पाता था.

एक दिन तेनाली राम की भेंट गाँव के एक ज्ञानी संत से हुई. संत ने उन्हें एक मंत्र देते हुए कहा, “पुत्र! गाँव के काली मंदिर में जाकर इस मंत्र का १ लाख बार जाप करो. इससे काली माता प्रसन्न हो जायेंगी और तुम्हें दर्शन देकर वरदान  प्रदान करेंगी.”

तेनाली राम तुरंत काली मंदिर गए और वहाँ संत द्वारा दिए मंत्र का जाप करने लगे. जैसे ही १ लाख जाप पूरे हुए, काली माता अपने १०० मुख के भयंकर स्वरुप में उनके समक्ष प्रकट हुई.

काली माता का भयंकर स्वरुप देख कोई भी सामान्य बालक भयभीत हो जाता. किंतु तेनालीराम भयभीत होने के स्थान पर जोर-जोर से हँसने लगे. जब काली माता ने हँसने का कारण पूछा, तो वे बोले, “माता, मेरी तो मात्र एक ही नाक है. जब मुझे जुकाम हो जाता है, तो मैं तो परेशान हो जाता हूँ. आपके तो सौ मुख होने के कारण सौ नाक हैं और हाथ मात्र दो. मैं सोच रहा हूँ कि ऐसे में आप क्या करती होंगी?”

तेनाली राम के हंसमुख स्वभाव और बाल सुलभ बातें सुनकर काली माता हँस पड़ी और बोली, “पुत्र, मैं तुम्हें वरदान देती हूँ कि भविष्य में तुम विकट कवि के रूप में प्रसिद्ध होगे. तुम्हारी बातें हर किसी का मनोरंजन करेंगी.”

“वो तो ठीक है माता. लेकिन इससे मुझे क्या प्राप्त होगा? आप मुझे कोई और वरदान दीजिये.” तेनालीराम बोले.

तब काली माता हाथ में दो कटोरे लेकर तेनाली राम से बोली, “पुत्र! इन दो कटोरों में से एक में ज्ञान है और दूसरे में धन. मैं तुम्हें दोनों में से एक चुनने का अवसर प्रदान करती हूँ.”

काली माता की बात सुनकर तेनाली राम सोचने लगे कि जीवन में ज्ञान और धन दोनों ही आवश्यक है. यदि दोनों ही वरदान मिल जाये, तब कोई बात है.

तेनाली राम को विचार मग्न देख काली माता बोली, “क्या बात है पुत्र! किस कटोरे का चुनाव करना है, ये समझ नहीं नहीं आ रहा?”

“ऐसी बात नहीं है माता. चुनाव करने के पहले मैं बस एक बार दोनों कटोरे अपने हाथ में लेकर देखना चाहता हूँ.” तेनाली बोले.

काली माता ने जैसे ही दोनों कटोरे तेनाली के हाथ में दिए, तेनाली ने झटपट दोनों कटोरे को मुँह से लगाया और गटक गये. इस तरह अपनी बातों में उलझाकर  उन्होंने काली माता से दोनों वरदान प्राप्त कर लिए.

“माता! क्षमा करना. जीवन में ज्ञान और धन दोनों ही आवश्यक है. इसलिये मैंने दोनों ले लिये.” जब तेनाली राम ने भोलेपन से ये बात कहीं, तो काली माता हँसने लगी.

“पुत्र! मैं तुम्हें दोनों वरदान देती हूँ. जीवन में तुम कई सफलतायें प्राप्त करोगे. किंतु ध्यान रहे कि तुम्हारे मित्र तो होंगें ही, शत्रु भी कम न होंगे. इसलिए होशियार रहना.” इतना कहकर काली माता अंतर्ध्यान हो गई.

आगे चलकर तेनाली राम विजयनगर के राजा कृष्णदेवराय के प्रिय मंत्री बने. उन्हें लोगों का बहुत स्नेह प्राप्त हुआ और धन-संपदा की भी कमी न हुई. किंतु उनके जीवन में शत्रु भी बहुत रहे, जो उनके विरूद्ध षड़यंत्र रचते रहे. तेनाली राम भी अपनी चतुराई से सदा उन्हें मात देते रहे. 

तेनालीराम और राजगुरू 

तेनालीराम जब बड़े हुए, तो उनकी बुद्धिमानी के चर्चे पूरे गाँव में होने लगे. गाँव में जब भी कोई किसी समस्या में पड़ता, तो तेनालीराम के पास उसके समाधान हेतु चला आता. तेनालीराम भी अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर चुटकी बजाते ही समस्या का समाधान कर देते. 

तेनालीराम बुद्धिमान तो थे ही, साथ ही एक श्रेष्ठ कवि भी थे और उनकी वाकपटुता का तो कोई सानी ही नहीं था. गाँववाले अक्सर उनसे कहा करते कि उन्हें महाराज कृष्णदेव राय के दरबार की शोभा बढ़ानी चाहिए.

तब तक तेनालीराम का विवाह “शारदा”” नामक कन्या से हो चुका. अपने परिवार के उज्जवल भविष्य की कामना में तेनालीराम के मन में भी महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में जाने की आकांक्षा बलवती होने लगी. किंतु उन्हें ज्ञात नहीं था कि किस तरह वे महाराज के दरबार तक पहुँचे.

संयोग से एक दिन महाराज कृष्णदेव राय के दरबार के राजगुरु तेनालीराम के गाँव पधारे. तेनालीराम को जब ये ज्ञात हुआ, तो वह भागे-भागे राजगुरू के पास पहुँचे और उन्हें अपने घर भोज पर आमंत्रित कर लिया.

राजगुरू जब तेनालीराम के घर आये, तो तेनालीराम और उनकी पत्नि ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया, उनकी बहुत सेवा-सुश्रुषा की. तेनालीराम ने उन्हें अपनी कवितायें सुनाई और अपनी वाकपटुता से उनका मनोरंजन भी किया. उन्हें पूर्ण आशा थी कि उनकी सेवा और कला से प्रसन्न होकर राजगुरू अवश्य महाराज कृष्णदेव राय के दरबार तक पहुँचने में उनकी सहायता करेंगे.

राजगुरू ने गाँव से प्रस्थान करने के पूर्व तेनालीराम को आश्वासन दिया कि वह नगर पहुँचते ही महाराज से उनकी सिफ़ारिश करेंगे और इस संबंध में उन्हें शीघ्र ही संदेश भेजेंगे. तेनालीराम प्रसन्न हो गये और उसके बाद से प्रतिदिन राजगुरू के संदेश की प्रतीक्षा करने लगे.

लेकिन राजगुरू का संदेश न आना था, न ही आया. वास्तव में राजगुरू तेनालीराम की बुद्धिमानी देखकर भयभीत हो गए थे. उन्हें भय था कि यदि तेनालीराम राजदरबार में आ गए, तो उनकी स्वयं की प्रतिष्ठा कम हो जायेगी. इसलिए उन्होंने तय कर लिया था कि वे तेनालीराम के संबंध में महाराजा कृष्णदेव राय से तो क्या किसी भी अन्य राज दरबारी से चर्चा नहीं करेंगे.

इधर दिन गुजरते जा रहे थे और तेनालीराम का धैर्य टूटता जा रहा था. गाँव के लोग भी उन्हें चिढ़ाने लगे थे. अंत में तेनालीराम ने निश्चय किया कि अब वे राजगुरू के संदेश के भरोसे नहीं रहेंगे और स्वयं उनसे मिलने नगर जायेंगे.

उन्होंने अपनी पत्नि को सामान बांधने को कहा और अगले ही दिन परिवार सहित विजयनगर की राह पकड़ ली. विजय नगर पहुँचकर अपने परिवार को एक धर्मशाला में ठहराकर वे राजगुरू से मिलने निकल गये. उनका पता पूछकर जब वे उनके निवास पर पहुँचे, तो देखा कि वहाँ लोगों की लंबी कतार लगी हुई है.

तेनालीराम भी कतार में लग गये. उन्हें पूर्ण विश्वास था कि राजगुरू उन्हें देखते साथ पहचान लेंगे और उनका स्वागत करेंगे. किंतु जब वे राजगुरू के समक्ष पहुँचे, तो राजगुरू ने उन्हें नहीं पहचानने का ढोंग किया. तेनालीराम ने उन्हें अपना परिचय देते हुए उन्हें अपनी पिछली मुलाकात स्मरण करवाने का प्रयास किया, किंतु राजगुरू ने सेवकों से कहकर उन्हें अपने घर से बाहर निकलवा दिया.

तेनालीराम अपने इस अपमान से बहुत दु:खी हुए. उन्होंने तय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाये, वे महाराज से मिलकर ही रहेंगे और राजगुरू से भी अपने अपमान का बदला लेंगे.

अगले दिन किसी तरह वह पहरेदारों को बहला-फ़ुसलाकर राजदरबार में पहुँच गए. वहाँ जीवन के वैराग्य और सत्य-असत्य पर ज्ञानियों और पंडितों की गहन चर्चा चल रही थी. राजगुरू भी उस चर्चा में सम्मिलित थे.

राजगुरू कर रहे थे, “ये संसार मिथ्या है. जो भी यहाँ घटित हो रहा है, सब एक दिवास्वप्न है. ये मन का भ्रम है कि कुछ हो रहा है. यदि जो घटित हो रहा है, हम उसमें सम्मिलित न भी हों, हम वह न भी करें, तो कोई अंतर नहीं पड़ेगा.”

यह सुनना था कि तेनालीराम बोल पड़े, “राजगुरू जी, क्या सचमुच सब कार्य भ्रम है?”

तेनालीराम को राजदरबार में देखकर राजगुरू चकित हो गये. उनके मन में आवेश का ज्वार उठ खड़ा हुआ. वे उसी क्षण द्वारपालों से कहकर तेनालीराम को दरबार से बाहर फिकवा देना चाहते थे. किंतु महाराज के समक्ष वे ऐसा नहीं कर सकते थे. इसलिए स्वयं के आवेश पर नियंत्रण रख वे मृदु स्वर में बोले, “ये सत्य है कि समग्र कार्य भ्रम है. चाहे कुछ किया जाए या न किया जाए, कोई अंतर नहीं पड़ता.”

“यदि ऐसी बात है, तो राजगुरू आज दोपहर महाराज के साथ हम सब मिलकर भोजन करेंगे और आप दूर बैठकर देखना और सोचना कि अपने भोजन ग्रहण कर लिया. अब से प्रतिदिन ही ऐसा करना. क्योंकि कुछ किया जाये या न किया जाए, कोई अंतर तो पड़ता ही नहीं है.” तेनालीराम मुस्कुराते हुए बोला.

ये सुनना था कि महाराज और सारे दरबारी हँस पड़े. राजगुरू का सिर लज्जा से झुक गया.

महाराज कृष्णदेव राय तेनालीराम के तर्क से बहुत प्रभावित हुए थे. उन्होंने उनका परिचय पूछा. तेनालीराम ने अपना परिचय देते हुए गाँव में राजगुरू से मिलने और गाँव से राजदरबार पहुँचने का वृतांत सुना दिया. पूरा वृतांत सुनकर महाराज राजगुरू पर बहुत क्रोधित हुए.

महाराज तेनालीराम की वाकपटुता और बुद्धिमानी से अति-प्रसन्न थे. उन्होंने उन्हें राज्य का मुख्य-सलाहकार बना दिया और इस तरह तेनालीराम महाराज कृष्णदेव राय के ‘अष्ट-दिग्गजस’ का अभिन्न अंग बन गए.    

 3. तेनालीराम और महाराज की खांसी 

सर्दियों का मौसम था. मौसम की मार विजयनगर की प्रजा जुकाम के रूप में झेल रही थी. राजा कृष्णदेव राय भी इससे बच न सके और उन्हें भी जुकाम हो गया. नाक बहने के साथ-साथ खांसी से भी उनका बुरा हाल था.

राज वैद्य बुलाये गये. राज वैद्य ने महाराज को औषधि दी और परहेज़ करने का परामर्श दिया. अचार, दही और खट्टे खाद्य पदार्थ खाने की महाराज को मनाही थे. किंतु महाराज कहाँ मानने वाले थे? उन्होंने सारी चीज़ें खाना जारी रखा.

अब महाराज को कौन समझाता? सब निवेदन करके हार गए, किंतु राजा ने किसी की न सुनी. इस कारण उनकी तबियत बिगड़ती रही. हारकर राज वैद्य और दरबार के मंत्री तेनाली राम के पास गए और उन्हें समस्या बताते हुए महाराज को किसी तरह समझाने का निवेदन किया.

तेनाली राम शाम को महाराज के पास पहुँचे और उन्हें एक औषधि देते हुए बोले, “महाराज! आपकी जुकाम और खांसी ठीक करने के लिए मैं एक औषधि लेकर आया हूँ. इस औषधि के साथ आपको परहेज़ करने की कोई आवश्यकता नहीं है. आप जो चाहे, खा सकते हैं.”

“अरे वाह! क्या इसके साथ मैं अचार, दही और खट्टी चीज़ें भी खा सकता हूँ?” महाराज ने पूछा.

“जी महाराज” तेनाली राम बोला.

महाराज बहुत प्रसन्न हुए और उस दिन के बाद से और ज्यादा अचार, दही और खट्टी चीज़ें खाने लगे. फलस्वरूप उनका स्वास्थ्य और ख़राब होने लगा.   

एक सप्ताह बाद जब तेनाली राम उनने पास पहुँचे और उनका हालचाल पूछा, तो वे बोले, “तेनाली! हमारा स्वास्थ्य तो अब पहले से भी अधिक ख़राब हो गया है. जुकाम ज्यों का त्यों है. खांसी भी बनी हुई है.”

“कोई बात नहीं महाराज. आप वह औषधि खाते रहिये. इससे आपको तीन लाभ होंगे.” तेनाली राम बोला.

“कौन से?” महाराज ने चौंकते हुए पूछा.

“पहला ये कि राजमहल में कभी चोरी नहीं होगी. दूसरा ये कि कभी कोई कुत्ता आपको तंग नहीं करेगा. और तीसरा ये कि आपको बूढ़ा होने का कोई भय नहीं रहेगा.” तेनाली राम ने उत्तर दिया.

“ये क्या बात हुई? हमारे जुकाम और खांसी से चोर, कुते और बुढ़ापे का क्या संबंध?”

“संबंध है महाराज! यदि आप यूं ही खट्टी चीज़ें खाते रहेंगे, तो रात-दिन खांसते रहेंगे. आपकी खांसी की आवाज़ सुनकर चोर सोचेगा कि आप जाग रहे हैं और कभी चोरी के उद्देश्य से राजमहल में घुसने का प्रयास ही नहीं करेगा.” तेनाली राम मुस्कुराते हुए बोला.

“और कुत्ते हमें क्यों तंग नहीं करेंगे?” महाराज ने पूछा.

“जुकाम-खांसी से आपका स्वास्थ्य लगातार गिरता चला जायेगा. तब आप इतने कमज़ोर हो जायेंगे कि बिना लाठी चल नहीं पाएंगे. जब कुत्ता आपको लाठी के साथ देखेगा, तो डर के मारे कभी आपके पास नहीं फटकेगा.”

“और बूढ़े होने के भय के बारे में तुम्हारा क्या कहना है?”

“महाराज आप हमेशा बीमार रहेंगे, तो कभी बूढ़े नहीं होंगे क्योंकि आप युवावस्था में ही मर जायेंगे. इसलिए कभी आपको बूढ़ा होने का भय नहीं रहेगा.”

टेढ़े तरीके से महाराज को वास्तविकता का दर्पण दिखाने के बाद तेनालीराम बोले, “इसलिए महाराज मेरा कहा मानिये. कुछ दिनों तक अचार, दही और खट्टी चीज़ों से किनारा कर लीजिये. स्वस्थ होने के बाद फिर जो मन करे खाइए.”

राजा कृष्णदेव राय तेनाली राम की बात समझ गए. उन्होंने खट्टे खाद्य पदार्थों से परहेज़ कर लिया और कुछ ही दिनों में वे पूरी तरह से  स्वस्थ हो गये. 

 4. तेनालीराम और संपत्ति का बंटवारा 

एक गाँव में एक वृद्ध जमींदार रहता था. उसकी बहुत उम्र हो चली थी. एक बार जब वह बीमार पड़ा, तो उसे लगा कि अब उसके जाने का समय आ गया है. उसके तीन पुत्र थे. उसने तीनों को अपने पास बुलवाया.

जब तीनों पुत्र वृद्ध व्यक्ति के पास एकत्रित हुए, तो वो बोला, “पुत्रों! लगता है मेरा जाने का समय आ गया है. मैंने तुम्हें एक बात बताने के लिए अपने पास बुलाया है. जब मैं मर जाऊं, तो तुम लोग मेरे पलंग के नीचे की जमीन खोद लेना. वहाँ तुम तीनों के लिए कुछ है.”

इतना कहने के बाद वृद्ध व्यक्ति की मृत्यु हो गई. उसका अंतिम संस्कार करने के बाद तीनों पुत्रों ने उसके कहे अनुसार उसके पलंग के नीचे की जमीन की ख़ुदाई की. ख़ुदाई में उन्हें तीन कटोरे मिले, जो एक के ऊपर एक रखे हुए थे.

पहले कटोरे में मिट्टी थी, दूसरे में सूखा हुआ गाय का गोबर और तीसरे में तिनके रखे हुए थे. साथ ही उन्हें १० सोने के सिक्के भी मिले. तीनों पुत्रों को तीन कटोरों और १० सोने के सिक्कों की पहेली का अर्थ समझ नहीं आया. लेकिन उन्हें इतना अवश्य समझ आ गया कि ऐसा करने के पीछे उनके पिता का अवश्य कोई प्रयोजन रहा होगा.

इस पहेली को सुलझाने के लिए तीनों ने तेनालीराम के पास जाने का निश्चय किया. तेनालीराम के पास पहुँचकर उन्हें पूरी बात बताकर उन्होंने पूछा, “चाचा! आप तो पिताजी के बहुत अच्छे मित्र थे. क्या मृत्यु पूर्व पिताजी ने इस बारे में आपसे कोई चर्चा की थी?”

“नहीं तो.” तेनालीराम ने उत्तर दिया, “किंतु तुम्हारे पिताजी पहेलियों के बहुत शौकीन थे. इसलिए शायद वे पहेली में अपनी बात कह गए हैं. मुझे थोड़ी देर सोचने दो. हो सकता है मैं इस पहेली को बूझ लूं.”

तीनों लड़के शांति से तेनालीराम के पास बैठ गए और तेनालीराम सोच में डूब गये. कुछ देर बाद तेनालीराम की आँखें ख़ुशी से चमक उठी और वह बोले, “मुझे पता चल गया कि इस पहेली का क्या अर्थ है?”

“तो चाचाजी जल्दी से हमें भी उसका अर्थ बता दो.” तीनों पुत्र बोले.

“तो सुनो” तेनालीराम कहने लगा, “तीनों कटोरों के आकार को देखो. सबके आकार भिन्न हैं. इन तीन कटोरों के माध्यम से तुम्हारे पिता ने अपनी संपत्ति का बंटवारा तुम तीनों के मध्य किया है. सबसे बड़ा कटोरा सबसे बड़े पुत्र की मिली संपत्ति को दर्शा रहा है. उसमें मिट्टी भरी है अर्थात् तुम्हारे पिता के सारे खेत सबसे बड़े पुत्र को मिलेंगे. दूसरा कटोरा मंझले पुत्र को मिली संपत्ति को दर्शा रहा है. उनमें गाय का सूखा गोबर है अर्थात् सारे मवेशी मंझले पुत्र को मिलेंगे. तीसरा कटोरा छोटे पुत्र को मिली संपत्ति को दर्शा रहा है, जिसमें तिनके भरे हैं, जो सुनहरे रंग के हैं अर्थात् सारा सोना सबसे छोटे पुत्र के हिस्से आया है.”

इतना कहकर तेनालीराम चुप हो गया.

तब तीनों पुत्र बोले, “चाचाजी, एक बात समझ में नहीं आ रही कि पिताजी ये १० सोने के सिक्के किसके लिए छोड़ गए हैं?”

“ये मेरा मेहताना है. तुम्हारे पिता कोई भी काम मुफ़्त में नहीं करवाते थे. उन्हें मालूम था कि उनकी पहेले की का अर्थ पूछने तुम लोग मेरे पास आओगे. इसलिए मेरा मेहताना छोड़ गये हैं.” तेनालीराम ने उत्तर दिया.

तीनों पुत्रों को अपने पिता की पहेली का उत्तर मिल चुका था. उन्होंने तेनालीराम को १० सोने के सिक्के दिए और लौट गए.

 5. तेनालीराम और बेशकीमती फूलदान 

राजा कृष्णदेव राय के जन्मदिन के अवसर राजमहल में बहुत बड़े भोज का आयोजन किया गया. पड़ोसी राज्य के कई मित्र राजा उस शुभ अवसर पर महाराज को बधाई देने पहुँचे और उन्हें एक से बढ़कर एक बेशकीमती उपहार दिए.

सभी उपहारों में महाराज को सबसे ज्यादा प्रिय चार फूलदान थे. वे रत्न-जड़ित फूलदान कला का उत्कृष्ट नमूना थे. महाराज ने उन्हें अपने शयन कक्ष में रखवाया और एक सेवक को उनके उचित रख-रखाव की ज़िम्मेदारी सौंप दी.

सेवक पूरी सावधानी से उन फूलदानों की साफ़-सफ़ाई किया करता था. उसे पता था कि महाराज को वे फूलदान कितने प्रिय थे. यदि उसकी असावधानी से उन्हें कुछ भी नुकसान हुआ, तो फिर उसकी खैर नहीं.

किंतु एक दिन जो नहीं होना था, वह हो गया. सफ़ाई करते समय उन चार फूलदानों में से एक फूलदान सेवक के हाथ से फ़िसलकर नीचे गिरा और चकनाचूर हो गया. डर के मारे उनकी जान सूख गई. लेकिन यह बात न छिपनी थी और ना ही छिपी.

महाराज को जब फूलदान टूटने की ख़बर मिली, तो वे आग-बबूला हो गये. उन्होंने उस सेवक को फांसी पर लटका देने का आदेश दे दिया. वह सेवक बहुत रोया, बहुत मिन्नते की, लेकिन महाराज टस से मस न हुए. अगले दिन सेवक को फांसी पर लटकाया जाना था.

तेनालीराम को जब ये बात पता चली, तो उन्होंने महाराज से मिलकर इस छोटे से अपराध के लिए सेवक को फांसी देने का विरोध किया. लेकिन महाराज इतने अधिक क्रोधित थे कि उन्होंने तेनालीराम की बात अनुसुनी कर दी.

महाराज को समझाने में विफ़ल होने के बाद तेनालीराम बंदीगृह में उस सेवक से मिलने पहुँचे. सेवक तेनालीराम को देख अपने प्राणों की रक्षा के लिए गिड़गिड़ाने लगा. तेनालीराम उसे दिलासा देते हुए बोले, “विश्वास करो, तुम्हें कुछ नहीं होगा. बस फांसी के पूर्व जैसा मैं कहूं वैसा ही करना.”

तेनालीराम सेवक के कान में कुछ कहकर वहाँ से चले गए. अगले दिन सेवक को फांसी से पूर्व महाराज के सामने ले जाया गया. महाराज ने उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी, तो वह बोला, “महाराज, मेरी अंतिम इच्छा बचे हुए तीन फूलदानों को देखने की है.”

उसकी अंतिम इच्छा पूरे करने वे तीनों फूलदान दरबार में मंगवाये गए. जैसे ही वे फूलदान उस सेवक के सामने ले जाए गए, उसने उन्हें उठाकर जमीन पर पटक दिया. तीनों फूलदानों के टुकड़े जमीन पर बिखर गए.

अपने प्रिय फूलदानों का ये हश्र देख महाराज का क्रोध सांतवें आसमान पर पहुँच गया. वे चीख पड़े, “ये तुमने क्या कर दिया मूर्ख? इन फूलदानों को तुमने क्यों तोड़ा?”

“महाराज! मेरे हाथों जब एक फूलदान टूटा, तो मुझे मृत्युदंड मिला. जब ये तीन फूलदान टूटेंगे, तब भी किसी न किसी को मृत्युदंड मिलेगा. मैंने इन्हें तोड़कर उन लोगों के प्राण बचा लिए हैं क्योंकि मनुष्य के प्राण से बढ़कर और कुछ भी नहीं.” सेवक हाथ जोड़कर बोला.

यह बात सुनकर महाराज में समझ आया कि अपने क्रोध के वशीभूत होकर वह क्या अनिष्ट करने वाले थे. उन्होंने सेवक को छोड़ देने का आदेश दिया और उससे पूछा, “किसके कहने पर तुमने से ऐसा किया?”

सेवक ने तेनालीराम का नाम लिया.

महाराज तेनालीराम से बोले, “तेनालीराम हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं. क्रोध के आवेश में लिया गया निर्णय कभी किसी के साथ न्याय नहीं कर सकता. आज तुमने हमारे हाथों अन्याय होने से बचा लिया.”

6. तेनालीराम और दूत का उपहार 

एक बार विजयनगर राज्य के राजा कृष्णदेव राय के दरबार में उनके मित्र पड़ोसी राज्य के राजा का दूत संदेश लेकर आया. वह अपने साथ ढेरों उपहार भी लेकर आया, जो पड़ोसी राजा ने भिजवाये थे. दूत विजयनगर में तीन दिन तक रुका. इन तीन दिनों में विजयनगर के राजदरबारियों द्वारा उसकी आव-भगत में कोई कमी नहीं रखी गई. 

वापस जाने वाले दिन जब दूत राजा कृष्णदेव राय से मिलने आया, तो उन्होंने भी अपने मित्र को देने के लिए दूत को ढेर सारे उपहार दिए. वे दूत को भी कुछ उपहार देना चाहते थे. उन्होंने उससे पूछा, “हम तुम्हें उपहार देना चाहते हैं. जो चाहे मांग लो. हीरे-जवाहरात, सोने के सिक्के, आभूषण, रत्न.”

राजा कृष्णदेव राय की बात सुनकर दूत बोला, “महाराज, आपके मेरे संबंध में विचार किया. इसलिए बहुत-बहुत धन्यवाद. किंतु मुझे ये सब नहीं चाहिए. यदि आप मुझे उपहार देना ही चाहते हैं, तो कुछ ऐसा दीजिये, जो सुख-दुःख में जीवन भर मेरे साथ रहे. जिसे कोई भी मुझसे छीन न पाए.”

दूत की मांग सुनकर राजा कृष्णदेव राय सोच में पड़ गए. उन्हें समझ नहीं आया कि आखिर दूत उपहार स्वरुप चाहता क्या है? उन्होंने इस आशा में दरबारियों की ओर दृष्टि घुमाई कि वे उन्हें इस संबंध में कुछ परामर्श दे सकें. किंतु सबके चेहरे पर परेशानी के भाव देख वे समझ गए कि उनकी स्थिति भी उनसे भिन्न नहीं है.

ऐसे अवसर पर तेनालीराम की बुद्धिमानी की कारगर सिद्ध होती है, ये सोचकर उन्होंने तेनालीराम से कहा, “तेनालीराम, हमारी आज्ञा है कि दूत के जो मांगा है, वह उपहार तुम उन्हें हमारी ओर से दो.”

“अवश्य महाराज. जब आज दोपहर जब दूत यहाँ से अपने देश के लिए प्रस्थान करेंगे, तो वह उपहार उनके साथ होगा.” तेनालीराम ने उत्तर दिया.

दूत के विदा लेने का समय आया. उसके रथ में राजा के लिए दिए गए सारे उपहार रखवा दिए गये. विदा लेने की घड़ी में दूत राजा कृष्णदेव राय से बोला, “अच्छा महाराज मुझे आज्ञा दीजिये. आपके आतिथ्य के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. किंतु दुःख इस बात का है कि मेरा उपहार मुझे प्राप्त न हो सका.”

दूत की बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा, तो तेनालीराम मुस्कुराते हुए बोला, “महाराज, इनका उपहार तो इनके साथ ही है.”

राजा कृष्णदेव राय, दूत सहित वहाँ उपस्थित सभी दरबारी आश्चर्य में पड़ गए, तो तेनालीराम दूत से बोला, “महाशय, आप पीछे पलटकर देखिये, आपका पुरूस्कार आपके साथ है.”

दूत ने पीछे पलटकर देखा, तो उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ा. वह बोला, “मुझे तो कोई उपहार दिखाई नहीं पड़ रहा. कहाँ है मेरा उपहार?”

इस पर तेनालीराम बोला, “महाशय, ध्यान से देखिये. आपका उपहार आपके पीछे है और वह गई – आपका साया, जो सुख-दुःख में जीवन भर आपके साथ रहेगा और उसे कोई भी आपसे छीन नहीं पायेगा.”

यह सुनना था कि राजा कृष्णदेव राय हँस पड़े. दूत भी मुस्कुरा उठा और बोला, “महाराज, मैंने तेनालीराम की बुद्धिमानी की बहुत चर्चा सुनी थी. मैं वही आजमाना चाहता था. वाकई, तेनालीराम की चतुराई प्रशंषा योग्य है.”

इसके बाद दूत विदा लेकर वहाँ से चला गया. राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की पीठ थपथपा कर उसकी बुद्धिमानी की दाद दी.  

 7. तेनालीराम और महान पुस्तक 

राजा कृष्णदेव राय के दरबार में अक्सर ज्ञानी विद्वान पंडितों के मध्य विभिन्न विषयों पर चर्चा हुआ करती थी. समय-समय पर विभिन्न राज्यों से भी विद्वान पुरुष दरबार में आते और अपने ज्ञान का परिचय देते थे. राजा भी उनके आव-भगत और सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ते थे.

एक बार एक व्यक्ति राजा कृष्णदेव राय के दरबार में उपस्थित हुआ. वह स्वयं को महान ज्ञाता और विद्वान दर्शा रहा था. उसका अहंकार उसकी बातों से झलक रहा था. उसने स्वयं के बारे में खूब बढ़ा-चढ़ाकर बातें की. उसके बाद दरबार में बैठे ज्ञानियों को वाद-विवाद के लिए चुनौती दे दी.

उसकी बढ़ी-चढ़ी बातों से सभी दरबारी सहम गए थे. अपमान के डर से किसी भी दरबारी ने उसके साथ वाद-विवाद की चुनौती स्वीकार नहीं की. ऐसा में राजा ने तेनालीराम की ओर देखा, तो तेनालीराम अपने स्थान से उठा खड़ा हुआ.

वह विद्वान को प्रणाम करते हुए बोला, “महाशय! मैं आपके साथ वाद-विवाद के लिए तैयार हूँ. कल ठीक इसी समय मैं आपसे राजदरबार में भेंट करता हूँ.”

अगले दिन पूरा राजदरबार भरा हुआ था. विद्वान पुरुष अपने स्थान पर पहले ही पहुँच चुका था. बस सबको तेनालीराम की प्रतीक्षा थी. कुछ ही देर में सबकी प्रतीक्षा समाप्त हुई और तेनालीराम दरबार में उपस्थित हुआ.

तेनालीराम राजा को प्रणाम कर वाद-विवाद हेतु नियत स्थान पर विद्वान के समक्ष बैठ गया. अपने साथ मलमल के कपड़े से बंधा हुआ एक बहुत बड़ा गठ्ठर लेकर आया था, जो देखने में भारी ग्रंथों और पुस्तकों का गठ्ठर लग रहा था.

विद्वान पुरुष ने जब इतना बड़ा गठ्ठर देखा, तो सहम गया. इधर राजा कृष्णदेव राय तेनालीराम के हाव-भाव देखकर आश्वस्त थे कि अवश्य ही तेनालीराम किसी योजना के साथ उपस्थित हुआ है. उन्होंने वाद-विवाद प्रारंभ करने का आदेश दिया.

आदेश पाते ही तेनालीराम विद्वान से बोला, “महाशय, आपके ज्ञान और विद्वता के बारे में मैंने बहुत कुछ सुना है. इसलिए मैं ये महान पुस्तक लेकर आया हूँ. आइये इस पुस्तक में लिखित विषयों पर वाद-विवाद करें.”

पुस्तक देख पहले से ही सहमे विद्वान पुरुष ने पूछा, “क्या मैं इस महान पुस्तक का नाम जान सकता हूँ?”

“अवश्य! इस पुस्तक का नाम है तिलक्षता महिषा बंधन” तेनालीराम बोला.

पुस्तक का नाम सुनकर विद्वान पुरुष घबरा गया. उसने पहले कभी उस पुस्तक का नाम नहीं सुना था. वह सोचने लगा कि इस पुस्तक का तो मैंने नाम तक नहीं सुना है. इस पर लिखित विषयों पर मैं कैसे चर्चा कर पाऊंगा.

वह तेनालीराम से बोला, “यह तो बहुत उच्च कोटि की पुस्तक प्रतीत होती है. इस पर चर्चा करने मुझे बहुत प्रसन्नता होगी. किंतु आज मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है. ऐसे गहन विषय पर चर्चा हेतु मन-मष्तिष्क के साथ-साथ सेहत भी दुरुस्त होनी आवश्यक है. मैं आज आराम करता हूँ. कल इस पुस्तक पर स्वस्थ मन –मस्तिष्क से चर्चा करेंगे.”

तेनालीराम मान गया. अगले दिन वह नियत समय पर अपना गठ्ठर लिए पुनः राज-दरबार में पहुँचा. किंतु विद्वान पुरुष का कोई अता-पता नहीं था. बहुत देर प्रतीक्षा करने के बाद भी वह उपस्थित नहीं हुआ. वाद-विवाद में हार जाने के डर से वह नगर से भाग चुका था.

राजा सहित सभी दरबारी चकित थे कि ऐसी कौन सी पुस्तक तेनालीराम ले आया, जिसके डर से स्वयं को महान ज्ञाता बताने वाला भाग गया.

राजा ने पूछा, “तेनाली! बताओ तो सही, ये कौन सी महान पुस्तक है. मैंने भी आज से पहले कभी इस पुस्तक का नाम नहीं सुना है.”

तेनालीराम मुस्कुराते हुए बोला, “महाराज, यह कोई महान पुस्तक नहीं है. मैंने ही इसका नाम ‘तिलक्षता महिषा बंधन’ रख दिया है.”

“इसका अर्थ तो बताओ तेनाली.” राजा बोले.

“महाराज! तिलक्षता का अर्थ है – ‘शीशम की सूखी लकड़ियाँ. महिषा बंधन का अर्थ है – ‘भैसों को बांधने की रस्सी’. इस गठ्ठर में वास्तव में शीशम को सूखी लकड़ियाँ हैं, जो भैसों को बांधने वाली रस्सी से बंधी हुई है. मैंने इसे मलमल के कपड़े में कुछ इस तरह लपेट कर ले आया था कि देखने में यह पुस्तक जैसी लगे.” तेनालीराम मुस्कुराते हुए बोला.

तेनालीराम की बात सुनकर राजा सहित सारे दरबारी हँस पड़े. इस प्रकार तेनालीराम ने अपनी बुधिमत्ता से एक अहंकारी विद्वान के समक्ष अपने नगर का सम्मान बचा लिए. राजा ने प्रसन्न होकर तेनालीराम को ढेरों उपहार दिए.

8. तेनालीराम और खूंखार घोड़ा 

एक दिन राजा कृष्णदेव राय के दरबार में अरब देश का एक व्यापारी आया. उसके पास एक से बढ़कर एक अरबी घोड़े थे. व्यापारी ने हट्ठे-कट्ठे और तंदरुस्त अरबी घोड़ों की राजा कृष्णदेव राय के सामने इतनी तारीफ़ की कि उन्होंने फ़ौरन उन घोड़ों को ख़रीदने का मन बना लिया.

अच्छी कीमत देकर व्यापारी से सारे घोड़े खरीद लिए गए. व्यापारी ख़ुशी-ख़ुशी वापस चला गया. महाराज बहुत ख़ुश थे. लेकिन जब घोड़ों को रखने की बात सामने आई, तो समस्या खड़ी हो गई. सारे अस्तबल पहले से ही भरे हुए थे. उनमें नए घोड़ों को रखने का स्थान नहीं था.

इस समस्या का निदान राजगुरु के सुझाया. राजगुरु ने महाराज को परामर्श दिया कि जब तक इस घोड़ों को रखने एक लिए नया अस्तबल तैयार न हो जाये, क्यों न एक-एक घोड़ा हम मंत्रियों, दरबारियों और प्रजा में बांट दे. वे उन घोड़ों की देखभाल करेंगे और उसके बदले हर महिने उन्हें १ स्वर्ण मुद्रा दी जायेगी.

महाराज को राजगुरु की ये सलाह जंच गई और उन्होंने वे घोड़े अपने मंत्रियों और दरबारियों में बंटवा दिए. जो घोड़े बचे, वे प्रजा में बांट दिए गये. महाराज का आदेश था इसलिए सब लोग चुपचाप घोड़े लेकर अपने-अपने घर चले गए.

१ स्वर्ण मुद्रा में उन घोड़ों के चारे का प्रबंध करना और उनकी देखभाल करना बहुत कठिन था. लेकिन वे राजसी घोड़े थे, इसलिए उनकी देखभाल में कोई कोताही नहीं बरती जा सकती थी. सब अपना पेट काटकर घोड़ों की देखभाल करने लगे.

एक घोड़ा तेनालीराम को भी मिला. उसने वह घोड़ा अपने घर ले जाकर एक छोटी सी अँधेरी कुटिया में बांध दिया. उस कुटिया में छोटी सी एक खिड़की बनी हुई थी. उस खिड़की से तेनालीराम रोज़ शाम थोड़ी सी सूखी घास घोड़े को खिलाया करता था.

घोड़ा दिन भर भूखा रहता था. इसलिए जैसे ही शाम को खिड़की से सूखी घास देखता, लपककर उसे खा जाता. दिन बीतते गये और वह दिन भी आया, जब अरबी घोड़ों का अस्तबल बनकर तैयार हो गया.

जिन मंत्रियों, दरबारियों और प्रजा के पास अरबी घोड़े थे, उन्होंने चैन की सांस ली. इतने दिनों में घोड़ों की देखभाल के कारण सबके घर का बजट बिगड़ गया था, कईयों पर क़र्ज़ चढ़ गया था. खैर, वे घोड़े लेकर राजमहल पहुँचे. इधर तेनालीराम जब राजमहल पहुँचा, तो उसका घोड़ा नदारत था.

महाराज के पूछने पर वह बोला, “महाराज! क्या बताऊँ? वह घोड़ा बहुत ही ज्यादा खूंखार हो गया है. किसी पर भी हमला कर देता है. मुझमें तो इतना साहस नहीं कि उसके अस्तबल में घुस पाऊं. इसलिए मैं उसे नहीं ला पाया.”

महाराज कुछ कहते, इसके पहले राजगुरु बोल पड़े, “महाराज! तेनालीराम की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता. अवश्य घोड़ा सही-सलामत नहीं है, इसलिए तेनालीराम बहाना कर रहा है. हमें वहाँ जाकर वास्तविकता का पता लगाना चाहिए.”

महाराज ने राजगुरु को कुछ सैनिकों के साथ तेनालीराम के घर जाकर घोड़े को लाने का आदेश दे दिया. राजगुरु सैनिक लेकर तेनालीराम के घर पहुँच गए. साथ में तेनालीराम भी था. तेनालीराम ने उसे वह कुटिया दिखाई, जहाँ घोड़ा बंधा हुआ था.    

राजगुरु जब कुटिया के पास पहुँछे, तो तेनालीराम बोला, “राजगुरु जी संभल के! घोड़ा सच में बहुत खूंखार हो गया है. आप पहले खिड़की से उसका मुआइना कर लीजिये.”

राजगुरु ने भी सोचा कि पहले खिड़की से ही मुआइना कर लेना उचित होगा. वह अपना मुँह खिड़की के पास ले गए. दिन भर से घोड़े ने कुछ खाया नहीं था. तेनालीराम शाम के समय ही उसे सूखी घास दिया करता था. इसलिए जैसे ही राजगुरु खिड़की के पास अपना मुँह लेकर गये, उनकी दाढ़ी को सूखी घास समझकर घोड़े ने मुँह में दबा लिया और खींचने लगा.

राजगुरु दर्द से चीख पड़े. यह देख तेनालीराम बोला, “मैंने कहा था न राजगुरु जी कि घोड़ा बड़ा खूंखार हो गया है.”

राजगुरु क्या कहते? बस दर्द से चीखते रहे और अपनी दाढ़ी छुड़ाने का प्रयास करते रहे. किंतु भूखा घोड़ा भी दाढ़ी छोड़ने तैयार नहीं था. आखिरकार, सैनिकों द्वारा तलवार से दाढ़ी काटकर अलग कर दी गई, तब राजगुरु की जान छूटी.

उसके बाद राजगुरु ने सैनिकों को आदेश दिया कि वे घोड़े को पकड़कर राजमहल ले चलें. घोड़े को राजमहल में महाराज के सामने ले जाया गया. राजा ने जब घोड़े को देखा, तो आश्चर्यचकित रह गए. इतने महिने ढंग से कुछ खाने-पीने को न दिए जाने के कारण उसका शरीर सूख गया था और वह एकदम मरियल दिख रहा था.

अपने घोड़े की ये हालात देख महाराज बहुत क्रोधित हुए और तेनालीराम से बोले, “ये क्या हालत कर दी तुमने घोड़े की?”

तेनालीराम बोला, “महाराज, एक स्वर्ण मुद्रा में मैं इसे जितना दाना-पानी दे सकता था, उतना मैंने दिया. बाकी लोग आपके डर से अपना पेट काट-काटकर घोड़े की देखभाल करते रहे.”

वह आगे कहता गया, “…महाराज! राज्य के राजा का धर्म प्रजा की देखभाल करना है, न कि उन पर अतिरिक्त बोझ डालना. इन घोड़ों की देखभाल करते-करते और उन्हें बलवान व तंदरुस्त बनाये रखने में आपकी प्रजा दुर्बल हो गई है. आप ही बताएं महाराज, क्या ये उचित है?”

महाराज को तेनालीराम की बात समझ में आ गई और उन्हें अपनी भूल का अहसास हो गया. अपनी इस भूल के लिए उन्होंने सबसे क्षमा मांगी और उन्हें इन महिनों में हुए खर्चों की भरपाई भी दी.

9. तेनालीराम और दो चोर 

राजा कृष्णदेवराय समय-समय पर कारागृह का निरीक्षण करते रहते थे. इसी क्रम में जब एक दिन वे कारागृह का निरीक्षण कर रहे थे, तो एक कोठरी में बंद दो चोर उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए और दया की भीख मांगने लगे.

वे कहने लगे,  “महाराज, हम चोरी में माहिर है. चोरी के हर पैंतरे जानते हैं. राज्य के चोरों के बारे भी जानकारी रखते हैं. यदि आप दया कर हमें छोड़ देंगे, तो हम आपके गुप्तचर बन उन चोरों को पकड़वाने में आपकी सहायता करेंगे.”

महाराज ने उन दो चोरों को छोड़ तो दिया, लेकिन एक शर्त भी रख दी. शर्त अनुसार उन्हें तेनाली राम के घर से बहुमूल्य वस्तुओं की चोरी करनी थी. सफ़ल रहने पर उनकी महाराज के गुप्तचर के रूप में नियुक्ति निश्चित थी. लेकिन असफ़ल रहने पर उन्हें फिर से कारागृह में बंद कर दिया जाना था.

दोनों चोरों ने महाराज की शर्त स्वीकार कर ली. रात में तेनालीराम के घर के बगीचे में झाड़ियों के पीछे छुपकर बैठ गए और तेनालीराम के परिवार की सोने की प्रतीक्षा करने लगे.

रात का भोजन ग्रहण करने के बाद तेनालीराम रोज़ की तरह अपने बाग़ में घूमने निकला, तो उसे झाड़ियों के पीछे कुछ हलचल महसूस हूँ. तेनालीराम तीव्र बुद्धि का था. उसने अंदाज़ लगा लिया कि हो न हो, घर में चोर घुस आये हैं.

लेकिन वह सामान्य बना रहा. उसने चोरों को ये भनक नहीं लगने दी कि उसे उनके होने का आभास हो गया है. बगीचे का एक चक्कर लगाने के बाद वह घर के अंदर गया और पत्नि को इशारों-इशारों में बता दिया कि घर में चोर घुस आये हैं.

फिर चोरों की सुनाते हुए ऊँची आवाज़ में पत्नि से कहने लगा, “सुनती हो, इन दिनों राज्य में चोरी की वारदात बढ़ गई है. हमें भी सतर्क रहना होगा. क्यों न हम तुम्हारे जेवर और अन्य बहुमूल्य वस्तुएं एक संदूक में भरकर कुएं में छुपा दें? कोई भी चोर कुएं में बहुमूल्य सामान होने की बात सोच ही नहीं पायेगा.”

पत्नि ने हामी भर दी. उसके बाद तेनालीराम एक संदूक लेकर बाहर आया और उसे जाकर कुएं में डाल दिया.

झाड़ियों में छुपे चोरों ने तेनालीराम की बात सुन ली. वे बड़े ख़ुश हुए कि अब तो आराम से वे तेनालीराम के घर से चोरी कर महाराज की शर्त पूरी कर लेंगे. वहीं बैठकर वे तेनालीराम के परिवार के सोने की प्रतीक्षा करने लगे.

जब तेनालीराम का परिवार सो गया, तो वे झाड़ियों से निकले और कुएं के पास गए. वहाँ बाल्टी और रस्सी रखी हुई थी. बिना देर किये वे बाल्टी से कुएं का पानी निकालने लगे और बगीचे में फेंकने लगे. 

पूरी रात वे कुएं से पानी निकालते रहे. भोर हो गई, तब कहीं वे कुएं से संदूक निकालने में कामयाब हो सके. संदूक बाहर आ जाने के बाद उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी संदूक खोलने लगे. लेकिन जैसे ही संदूक खुला, उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. उसमें जेवर या बहुमूल्य वस्तुएं नहीं, बल्कि पत्थर भरे हुए थे.

उन्हें समझते देर नहीं लगी कि वे तेनालीराम द्वारा मूर्ख बनाए जा चुके हैं. तेनालीराम भी तब भी उठ चुका था. वह चोरों के पास गया और अपने बगीचे को सींचने के लिए धन्यवाद देने लगा. दोनों चोर बहुत शर्मिंदा हुए.

तेनालीराम ने महाराज के सैनिकों को बुलवा भेजा था. कुछ ही देर वे तेनालीराम के घर पहुँच गया और दोनों चोरों को ले जाकर कारागृह में डाल दिया गया.

10. तेनालीराम और मनहूस आदमी 

विजयनगर राज्य के एक गाँव में रमैया नामक व्यक्ति रहता था. गाँव के सभी लोग उसे मनहूस मानते थे. उनका मानना था कि यदि सुबह उठकर किसी ने सबसे पहले रमैया का चेहरा देख लिया, तो उसे पूरे दिन भोजन नसीब नहीं होगा.

जब यह बात महाराज कृष्णदेव राय तक पहुँची, तो उन्होंने इसकी वास्तविकता जानने का निर्णय लिया. उस रात रमैया को राजमहल बुलाया गया और महाराज के कक्ष के सामने वाले कक्ष में उसके रहने की व्यवस्था की गई.

रात भर रमैया उस कक्ष में सोया. अगली सुबह महाराज कृष्णदेव सीधे रमैया के कक्ष में गए और उसका चेहरा देखा. दिन का प्रारंभ रमैया का चेहरा देखने के बाद अब महाराज को देखना था कि उनका दिन कैसा गुज़रता है.

उस दिन दरबार में जाने के पूर्व वे भोजन के लिए बैठे ही थे कि उन्हें तुरंत किसी आवश्यक मंत्रणा हेतु बुलवा लिया गया. वे बिना भोजन करे ही दरबार चले गए.

दरबार की कार्यवाही जो प्रारंभ हुई, तो देर रात तक चलती रही. दरबार की कार्यवाही समाप्त होते तक महाराज कृष्णदेव राय को ज़ोरों की भूख लग आई थी. जब उन्हें भोजन परोसा गया, तो उन्होंने देखा कि उनकी थाली पर मक्खी बैठी हुई है. उन्होंने भोजन छोड़ दिया और अपने शयन कक्ष चले गए.

कुछ देर बाद रसोइया जब पुनः भोजन बनाकर लाया, तब तक उनकी भूख मर चुकी थी. वे बिना खाए ही सो गए. अब महाराज को विश्वास हो गया कि रमैया मनहूस है. उन्होंने उसे फांसी पर चढ़ा देने का आदेश दे दिया.

रमैया की फांसी की बात जब उसकी पत्नि तक पहुँची, तो वह रोते-रोते तेनालीराम के पास गई और उससे सहायता की गुहार लगाई. तेनालीराम ने उसे आश्वासन देकर घर भिजवा दिया.

अगली सुबह जब सैनिक रमैया को फांसी पर लटकाने ले जा रहे थे, तो रास्ते में उनकी भेंट तेनालीराम से हुई. तेनालीराम ने रमैया के कान में कुछ कहा और चला गया.

इधर फांसीगृह पहुँचने के बाद सैनिकों ने रमैया से उसकी अंतिम इच्छा पूछी. रमैया ने कहा कि मैं महाराज को एक संदेश भिजवाना चाहता हूँ. एक सैनिक द्वारा वह संदेश महाराज तक पहुँचाया गया.

संदेश इस प्रकार था : “महाराज, सुबह सबसे पहले मेरा चेहरा देखने से किसी को पूरे दिन भोजन नसीब नहीं होता. लेकिन महाराज आपका मुँह देखने पर तो जीवन से हाथ धोना पड़ता है. बताइए ऐसे में ज्यादा मनहूस कौन है?”

संदेश पढ़ने के बाद महाराज को अपनी अंधविश्वासी सोच पर शर्म आई. उन्होंने सैनिकों से कहकर रमैया को बुलवाया और पूछा कि उसे ऐसा संदेश भेजने का परामर्श किसने दिया था?

रमैया ने तेनालीराम का नाम लिया. महाराज तेनालीराम की बुद्धिमत्ता से बहुत प्रसन्न हुए. उन्होंने रमैया की फांसी की सजा निरस्त कर दी और तेनालीराम को पुरुस्कृत किया.

इस तरह तेनालीराम की वजह से रमैया के प्राण बच पाए.

 11. तेनालीराम और अदृश्य वस्त्र 

एक दिन राजा कृष्णदेव राय के राज दरबार में एक स्त्री आई. वह सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थी. उसका सौंदर्य देख हर कोई मंत्र-मुग्ध रह गया.

स्त्री राजा का सादर अभिवादन कर बोली, “महाराज, मैं एक बुनकर हूँ. मैं हर प्रकार की बुनाई में पारंगत हूँ और अपने सहयोगियों के साथ जादुई वस्त्र निर्मित करने की दिशा में प्रयोग कर रहे हैं. अपने बुने वस्त्र का एक नमूना मैं आपके लिए लाई हूँ.”

इतना कहकर उसने हाथ में पकड़ी एक माचिस की डिबिया खोली और उसमें से एक सिल्क की साड़ी निकाली. उस साड़ी का कपड़ा अत्यंत मुलायम और हल्का थी. उसने वह साड़ी राजा को भेंट कर दी. राजा वह साड़ी देख आश्चर्यचकित रह गए..

राजा बोले, “त्तुम्हारा काम देख हम प्रसन्न हैं. आज तक बुनकरी का इतना शानदार नमूना हमने नहीं देखा.”

स्त्री बोली, “महाराज, मैं और मेरे सहयोगी एक विशेष तकनीक पर काम कर रहे हैं. उसी तकनीक से हमने इस वस्त्र को निर्मित किया है. साथ ही हम एक ऐसे वस्त्र भी बना रहे हैं, जो इस साड़ी से भी मुलायम, पतले और हल्के हों. उसे ईश्वरीय वस्त्र कहा जा सकता है, क्योंकि वैसे वस्त्र मात्र देवतागण धारण करते हैं.”

राजा बोले, “बहुत अच्छी बात है. बताओ, किस प्रयोजन से हमारे पास आई हो?’

स्त्री बोली, “महाराज, मैं आपकी सहायता की आस में आई हूँ. यदि आप हमारी योजना के लिए धन प्रदान कर दें, तो आपका बड़ा उपकार होगा.”

राजा बोले, “अवश्य, हम नई तकनीक विकसित करने के समर्थक रहे हैं. हम अवश्य तुम्हारी योजना के लिए धन प्रदान करेंगे. किन्तु, समय-समय पर तुम्हें हमें अपनी योजना की प्रगति से अवगत कराना होगा और योजन पूर्ण होने के उपरांत सर्वप्रथम वह वस्त्र हमें दिखाना होगा.”

स्त्री प्रसन्न हो गई और सिर झुकाकर बोली, “महाराज, मैं उस योजना में बुना पहला वस्त्र आपको भेंट करूंगी.”

राजा ने राजकोष से उसे स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली दिलवा दी. थैला लेकर वह प्रसन्नतापूर्वक चली गई.

समय बीतने लगा. किंतु, बुनकर स्त्री ने अपनी योजना की प्रगति से राजा को अवगत नहीं कराया. राजा चिंतित हुए और अपने मंत्रियों और सेवकों को कार्य की प्रगति का मुआइना करने बुनकार स्त्री के पास भेजा.

जब मंत्री और सेवक बुनाकरशाला में पहुंचे, तो चकित रह गए. वहाँ करघे पर सात व्यक्ति पूरी तन्मयता से वस्त्र बुन रहे थे. किन्तु, करघे पर कोई वस्त्र नहीं था, न ही कोई बुना हुआ वस्त्र वहाँ रखा था.

वे वापस लौट आई और सारी जानकारी राजा को दी. राजा क्रोधित हो गए और तत्काल बुनकर स्त्री को प्रस्तुत करने का आदेश दिया.

बुनकर स्त्री दरबार में उपस्थित हुई. उसके साथ एक कन्या भी थी, जो हाथ में थाल लिए हुए थी.

वह बोली, “प्रणाम महाराज, मेरी भेंट स्वीकार करें. ये उस ईश्वरीय वस्त्र का नमूना है, जिसके संबंध में मैंने आपको बताया था. इस वस्त्र की विशेषता यह है कि यह केवल उस व्यक्ति को ही दिखाई पड़ता है, जो बुद्धिमान और चतुर है. मूर्ख व्यक्तियों के लिए यह अदृश्य है. देखिये महाराज, इतना शानदार वस्त्र आपने पहले कभी नहीं देखा होगा.”

कहकर उसने अपने साथ आई कन्या को इशारा किया और उस कन्या ने थाल राजा के सामना ले जाकर रख दी.

राजा और मंत्रियों ने देखा कि वह थाली खाली है. किंतु, स्त्री ने सबको अपनी बातों के जाल में उलझा दिया था. यदि कोई ये कहता कि उन्हें वस्त्र दिखाई नहीं पड़ रहा, तो मूर्ख कहलाता. कोई मूर्ख नहीं कहलाना चाहता था.

इसलिए सभी एक स्वर में बोले, “अतिसुंदर……कारीगरी का ऐसा नामूना तो हमने पहले कभी नहीं देखा. ऐसा अद्वितीय वस्त्र मात्र महाराज को ही शोभा दे सकता है.”

राजा उलझन में पड़ गए, क्योंकि उन्हें वस्त्र दिखाई नहीं दे रहा था. किंतु, वे ये बात कह नहीं सकते थे. अगर कहते, तो मूर्ख कहलाते और नहीं कहने पर वह स्त्री स्वर्ण मुद्राएं हड़प लेती.

उन्होंने तेनालीराम को अपने पास बुलाया और बोले, “तेनालीराम, तुम तो सारा माज़रा समझ रह हो. अब तुम ही समाधान निकालो.”

तेनालीराम ने मुस्कुराते हुए उस स्त्री से कहा, “देवी, आपकी कला वाकई बेमिसाल है. महाराज भी उपहार स्वरुप इस ईश्वरीय वस्त्र को देखकर बहुत प्रसन्न हैं. मगर उनकी इच्छा है कि पहले इसे धारण कर दरबार में सबको दिखायें, ताकि सभी इसकी सुन्दरता की प्रशंसा कर सकें.”

स्त्री राजा को धोखा देकर धन हड़पना चाहती थी. किंतु, अब उसकी पोल खुल चुकी थी. वह उस वस्त्र को कैसे पहन सकती थी, जो था ही नहीं. कोई चारा न देख वह राजा के पैरों पर गिर गई और क्षमायाचना करने लगी.

स्त्री होने के कारण और गलती स्वीकार कर लेने के कारण राजा ने दया प्रदर्शित करते हुए उसे क्षमा कर दिया. किंतु, उस स्त्री को स्वर्ण मुद्राओं की थैली वापस करनी पड़ी.


Tenali Raman Stories In Hindi # 12 : स्वर्ग की कुंजी 

एक बार विजयनगर में एक साधु का आगमन हुआ. वह नगर के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठकर साधना करने लगा. विजयनगर में उसके बारे में यह बात प्रसारित हो गई की वह एक सिद्ध साधु है, जो चमत्कार कर सकता है.

सभी लोग उसके दर्शन के लिए धन, भोजन, फल-फूल के चढ़ावे के साथ जाने लगे. तेनाली राम को जब इस संबंध में ज्ञात हुआ, तो वह भी साधु से मिलने पहुँचा. वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि साधु के सामने चढ़ावे का ढेर लगा हुआ है और नगर के लोग आँखें बंद कर आराधना में लीन हैं.

उसने देखा कि साधु अपनी आँखें बंद कर कुछ बुदबुदा रहा है. तेनाली राम कुशाग्र बुद्धि था. साधु के होंठों की गति देख वह क्षण भर में ही समझ गया कि साधु कोई मंत्रोच्चार नहीं कर रहा है है, बल्कि अनाप-शनाप कह रहा है. साधु ढोंगी था. तेनालीराम ने  उसे सबक सिखाने का निर्णय किया.

वह साधु के पास गया और उसकी दाढ़ी का एक बाल खींचकर तोड़ दिया और कहने लगा की कि उसे स्वर्ग की कुंजी मिल गई है.

उसने घोषणा की कि ये साधु चमत्कारी हैं. इनके दाढ़ी का एक अबर अपने पास रखने से मृत्यु उपरांत स्वर्ग की प्राप्ति होगी.

यह सुनना था कि वहाँ उपस्थित समस्त लोग साधु की दाढ़ी का बाल तोड़ने के लिए तत्पर हो गए. तेनालीराम द्वारा अपनी दाढ़ी का बाल खींचे जाने से हुई पीड़ा से साधु उबरा नहीं था. उसकी घोषणा सुन वह तुरंत समझ गया कि लोग उसके साथ क्या करने वाले हैं.

वह जान बचाकर वहाँ से भाग गया. तब तेनालीराम ने उपस्थित लोगों को वस्तुस्थिति से अवगत काराया और ऐसे ढोंगियों से दूर रहने की नसीहत दी.

 13. तेनालीराम और गुलाब का चोर 

महाराज कृष्णदेव राय के राजमहल में एक बगीचा था, जिसमें विभिन्न प्रकार के फूल लगे हुए थे. सारे फूलों में लाल गुलाब के फूल महाराज को अतिप्रिय थे. इसलिए, माली को उन्होंने उन फूलों का विशेष ध्यान रखने का निर्देश दिया था.

महाराज जब भी बगीचे में भ्रमण करने आते, तो लाल गुलाब के फूलों को देख प्रसन्न हो जाते. एक दिन जब वे बगीचे में भ्रमण के लिए आये, तो पाया कि पौधों में लगे लाल गुलाब के फूलों की संख्या कुछ कम है. गुलाबों के कम होने का क्रम कई दिनों तक चला. ऐसे में उन्हें संदेह हुआ कि अवश्य कोई लाल गुलाब के फूलों की चोरी कर रहा है.

उन्होंने बगीचे में पहरेदार लगवा दिए और उन्हें आदेश दिया कि जो भी लाल गुलाब का फूल तोड़ते हुए दिखे, उसे तत्काल बंदी बनाकर उनके समक्ष प्रस्तुत किया जाए.

पहरेदार सतर्कता से बगीचे की निगरानी करने लगे. उनकी निगरानी रंग लाई और एक दिन चोर उनके हाथ लग गया. यह चोर और कोई नहीं बल्कि तेनालीराम का पुत्र था. जब यह बात तेनालीराम के घर तक पहुँची, तो उसकी पत्नि बहुत चिंतित हुई और तेनालीराम से मिन्नतें करने लगी कि किसी भी तरह उसके पुत्र को छुड़ाकर लाये.

तेनालीराम अविलंब राजमहल के बगीचे की ओर चल पड़ा, ताकि महाराज के सम्मुख प्रस्तुत करने के पूर्व वह अपने पुत्र से मिल सके. रास्ते भर वह उसे बचाने का उपाय सोचता रहा.

जब वह राजमहल के बगीचे में पहुँचा, तो देखा कि पहरेदार उसके पुत्र को महाराज के सम्मुख प्रस्तुत करने की तैयारी में है. जब वह अपने पुत्र से बात करने को हुआ, तो पहरेदारों ने यह कहकर रोक दिया कि अब अपने पुत्र से बंदीगृह में मिलना.

तेनालीराम क्या करता? दूर खड़ा अपने पुत्र को पहरेदारों द्वारा ले जाता हुआ देखता रहा. उसका पुत्र जोर-जोर से रो रहा था और कह रहा था, “पिताजी! आगे से मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा. मुझे बचा लीजिये. कृपया कुछ करिए.”

तेनालीराम दूर से ही चिल्लाया, “मैं क्या कर सकता हूँ. अपनी तीखी ज़ुबान का प्रयोग करो. शायद वही तुम्हें बचा पाए.”

पुत्र सोचने लगा कि ये पिताजी क्या कह गए? क्या इसका कोई अर्थ था? वह सोचने लगा और कुछ देर में उसे पिता द्वारा कही बात का अर्थ समझ में आ गया. उसका अर्थ था कि तीखी ज़ुबान का प्रयोग कर गुलाब के फूलों को खा लो.

उसने ऐसा ही किया और रास्ते भर गुलाब के फूलों को खाता रहा. जब पहरेदार महाराज के सामने पहुँचे, तब तक वह सारे गुलाब खा चुका था.      

पहरेदार महाराज से बोले, “महाराज, ये बालक ही लाल गुलाब के फूलों का चोर है. हमने इसे रंगे हाथ पकड़ा है.”

“लज्जा नहीं आती. इतने छोटी उम्र में चोरी करते हो? बड़े होकर क्या कारोगे.” महाराज क्रुद्ध होकर बोले.

तेनालीराम का पुत्र बोला, “मैंने कोई चोरी नहीं की महाराज. मैं तो बस बगीचे से जा रहा था और आपके पहरेदारों ने मुझे पकड़ लिया. कदाचित् इनका ध्येय आपकी प्रशंषा का पात्र बनना हैं. किंतु, महाराज इसमें मुझ निर्दोष को सजा क्यों? अगर मैंने गुलाब चुराए होते, तो मेरे पास गुलाब भी होते. लेकिन देखिये मेरे हाथ खाली है.”

महाराज ने देखा कि उसके हाथ में कोई गुलाब नहीं है. पहरेदार भी चकित थे कि सारे गुलाब कहाँ नदारत हो गये. रास्ते में अपनी धुन में वे ध्यान नहीं दे पाए कि कब तेनाली का पुत्र सारे गुलाब चट कर गया.

अब बिना प्रमाण के यह साबित करना असंभव था कि वह गुलाब चोर हैं.

महाराज पहरेदारों को फटकारने लगे, “एक निर्दोष बालक को तुम कैसे पकड़ लाये? इसे अपराधी सिद्ध करने का क्या प्रमाण है तुम्हारे पास? भविष्य में प्रमाण के साथ चोर को लेकर आना. इसे तत्काल छोड़ दो.”

तेनाली राम के पुत्र को छोड़ दिया गया. वह घर पहुँचा और अपने माता-पिता से क्षमा माँगी और उन्हें वचन दिया कि भविष्य में बिना पूछे कभी किसी की कोई वस्तु नहीं लेगा, क्योंकि वह चोरी कहलाती है. तेनालीराम ने उसे क्षमा कर दिया.

 14. तेनालीराम और लाल मोर 

राजा कृष्णदेव राय अद्भुत और दुर्लभ वस्तुएं संग्रहित करने के शौक़ीन थे. ऐसी वस्तुएं लाने वाले व्यक्ति को वे उचित पुरुस्कार दिया करते थे. इसलिए उनके दरबारी पुरुस्कार की आशा और महाराज की नज़र में चढ़ने के लिए विभिन्न प्रकार की दुर्लभ वस्तुओं की ख़ोज में रहते थे.

इसी क्रम में एक दिन उनका एक दरबारी अपने साथ लाल रंग का एक मोर लेकर दरबार में उपस्थित हुआ. जब उसने वह मोर महाराज को भेंट स्वरुप प्रस्तुत किया, तो महाराज के आश्चर्य की कोई सीमा न रही. सारे दरबारी भी चकित थे, क्योंकि ऐसा अनोखा मोर कभी किसी ने नहीं देखा था.

महाराज ने उस दरबारी से पूछा, “तुम्हें यह अनोखा मोर कहाँ से मिला?”

दरबारी ने बताया, “महाराज! मैं आपके लिए एक दुर्लभ भेंट की ख़ोज में था. इसलिए पूरे देश में मैंने सेवक भेजे. मध्यप्रदेश के घने जंगलों में ये लाल मोर पाए जाते हैं. जब सेवक ने मुझे प्रकृति की इस सुंदर और अद्भुत रचना के बारे में सूचित किया, तो मुझे आपके लिये ये सर्वोत्तम भेंट प्रतीत हुई और २०० स्वर्ण मुद्राओं में मैंने ये लाल मोर ख़रीद लिया.”

महाराज ने कोषाध्यक्ष से कहकर दो सौ स्वर्ण मुद्राएं तुरंत उस दरबारी को दिलवा दी और बोले, “ये सुंदर लाल मोर हमारे राजमहल में बगीचे की शोभा बढ़ाएंगे. इसका मूल्य तुम्हें अभी दिया जा रहा है और एक सप्ताह में तुम्हें उचित पुरूस्कार भी दिया जायेगा.”

धन्यवाद कह वह दरबारी अपने स्थान पर बैठ गया. दरबार में उपस्थित तेनालीराम को प्रारंभ से ही दाल में कुछ काला प्रतीत हो रहा था. उनसे इस पूरी बात की पड़ताल करने का निश्चय किया.

जब उसने पड़ताल की, तो उसे ज्ञात हुआ कि उस दरबारी द्वारा नगर के ही एक होनहार रंगकार द्वारा सामान्य मोर को लाल रंग से रंगवाकर महाराज के समक्ष प्रस्तुत किया गया है.

तेनालीराम ने उस रंगकार से कहकर चार मोरों को सुर्ख लाल रंग में रंगवा लिया और अगले दिन उन्हें लेकर दरबार पहुँच गया.

वह महाराज से बोला, “महाराज! मेरे मित्र दरबारी द्वारा दो सौ स्वर्ण मुद्राओं में एक लाल मोर मंगवाया गया था. मैंने आपके लिए उतने ही मूल्य में चार सुर्ख लाल मोर लेकर आया हूँ.”

तेनालीराम द्वारा लाये गए चारों मोर पहले लाये मोर से भी सुंदर थे. महाराज प्रसन्न हो गए और कोषाध्यक्ष से बोले, “तेनालीराम को तुरंत २०० स्वर्ण मुद्राएं दी जाये.”

इस पर तेनालीराम अपने साथ खड़े व्यक्ति की ओर इशारा करते हुए बोला, “महाराज, इस स्वर्ण मुद्राओं पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. बल्कि इन महाशय का अधिकार है. ये हमारे नगर के एक रंगकार हैं. इनके द्वारा ही इन चार मोरों को लाल रंग से रंगा गया है और मित्र दरबारी द्वारा लाये गए मोर को भी.”

ये सुनना थे कि महाराज उस दरबारी पर क्रुद्ध हो गए, जो पहले उनके लिए लाल मोर लेकर आया था. उन्होंने उसे दो सौ स्वर्ण मुद्राएं तत्काल लौटाने का आदेश दिया. साथ ही पचास स्वर्ण मुद्राओं का जुर्माना भी लगाया.

तेनालीराम की बुद्धिमानी ने धूर्त दरबारी की पोल खोलकर रख दी और महाराज को मूर्ख बनने से बचा लिया. महाराज ने तेनालीराम की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उसे उचित पुरुस्कार भी दिया गया.

 15. तेनालीराम और संतुष्ट व्यक्ति के लिए उपहार

तेनालीराम की बुद्धिमत्ता और वाक्पटुता से महाराज कृष्णदेव राय सदा प्रसन्न रहते थे और समय-समय पर तेनालीराम को भेंट प्रदान किया करते थे. तेनालीराम ने भी इन भेंटों को संग्रह कर अच्छी धन-संपदा एकत्रित कर ली थी.

एक दिन जब वह राजदरबार पहुँचा, तो उसने कीमती वस्त्र और आभूषण धारण कर रखे थे. जिसे देख महाराज ने कहा, “तेनाली! क्या तुम्हें आभास है कि तुम्हारी वेश-भूषा और रहन-सहन में बहुत परिवर्तन आ चुका है. प्रारंभ में तुम्हारी वेश-भूषा अति-साधारण रहा करती थी. क्या बात है?”

तेनालीराम ने उत्तर दिया, “महाराज! समय के साथ मनुष्य की वेश-भूषा और रहन-सहन परिवर्तित होती है और इसमें धन की विशेष भूमिका रहती है. आपके द्वारा दी गई भेंटों से मैंने पर्याप्त बचत की है. उन्हें ही खर्च कर मैं ऐसी वेश-भूषा धारण कर पा रहा हूँ.”

“तो इसका अर्थ ये हुआ कि तुम्हारे पास धन की कोई कमी नहीं है. इस स्थिति में तो तुम्हें दान-पुण्य करना चाहिए.” महाराज बोले.

ये सुनकर तेनालीराम बात पलटते हुए बोला, “महाराज! धन मेरे पास अवश्य है. किंतु इतना नहीं कि उसमें से दान-पुण्य कर सकूं.”

तेनालीराम की ये बात महाराज को खटक गई. उन्होंने उसे लताड़ा कि राज्य के मुख्य सलाहकार के पद पर होते हुए उन्हें ऐसी बातें शोभा नहीं देती.

तेनालीराम क्या करता? क्षमा याचना करते हुए बोला, “महाराज! क्षमा करें. मैं अवश्य दान करूंगा. आप ही मुझे बतायें कि मुझे क्या दान करना चाहिए.”

महाराज ने उसे एक भव्य भवन का निर्माण कर दान में देने का परामर्श दिया. तेनालीराम ने महाराज के परामर्श पर अपनी स्वीकृति दे दी.

उस दिन के बाद से तेनालीराम भव्य भवन के निर्माण में जुट गया. कुछ माह में भवन निर्मित भी हो गया. अब उसे दान में देने की बारी थी. लेकिन किसे? भवन यूं ही किसी को भी दान में दिया जाना उचित नहीं था.

तेनालीराम के सोच-समझकर उस भवन के सामने एक तख्ती टांग दी, जिस पर लिखा हुआ था – “जो व्यक्ति, उसके पास जो कुछ है, उसमें प्रसन्न और संतुष्ट होगा, वही इस भवन को दान में लेने का पात्र होगा.”

समय व्यतीत होने लगा, किंतु कोई भी तेनालीराम के पास वह भवन दान में मांगने नहीं आया. एक दिन एक निर्धन व्यक्ति उस भवन के पास से गुजरा, तो उसकी दृष्टि उस पर लगी तख्ती पढ़ी.

तख्ती पढ़कर वह सोचने लगा कि इस नगर के लोग कितने मूर्ख हैं, जो इस भवन को दान में मांगने नहीं जाते. क्यों न मैं ही इस भवन को मांग लूं? वह तेनालीराम के पास पहुँचा और उससे भवन दान में देने की याचना करने लगा.

तेनालीराम ने पूछा, “क्या तुमनें भवन पर लगी हुई तख्ती पढ़ी है?”

“हाँ, मैंने एक-एक शब्द पढ़ा है.” निर्धन व्यक्ति बोला.

“तो क्या तुम तुम्हारे पास जो कुछ है, तुम उसमें प्रसन्न और संतुष्ट हो.” तेनालीराम ने फिर से पूछा.

“मैं पूर्णतः संतुष्ट हूँ.” निर्धन व्यक्ति ने उत्तर दिया.

“तो फिर तुम्हें इस भवन की क्या आवश्यकता है? यदि तुम्हें इसकी आवश्यकता है, तो फिर तुम्हारी ये बात झूठी है कि तुम अपने जीवन में उपलब्ध चीज़ों से संतुष्ट हो. ऐसे में तुम इस भवन को दान में लेने के पात्र नहीं हो.”   

तेनालीराम की बात सुनकर निर्धन व्यक्ति अपना सा मुँह लेकर चला गया. उसके बाद कभी कोई उस भवन को दान में मांगने नहीं आया.

कई दिन बीत जाने पर भी भवन दान में न दिए जाने की बात जब महाराज के कानों में नहीं पड़ी, तो उन्होंने तेनालीराम को बुलाया और इसका कारण पूछा.

तेनालीराम ने सारी बात बता दी. महाराज यह बात सुन हँस पड़े कि तेनालीराम अपनी बुद्धिमत्ता से दान देने से भी बच गया.

फिर उन्होंने पूछा कि अब इस भवन का क्या करोगे, तो तेनालीराम बोल पड़ा, “किसी दिन शुभ मुहूर्त देखकर गृह-प्रवेश करूंगा.”

 16. तेनालीराम और महाराज का सपना

एक दिन जब राजा कृष्णदेव राय दरबार में पहुँचे, तो किसी गहरी सोच में डूबे हुए थे. जब वे सिंहासन पर विराजे, तो दरबार की कार्यवाही प्रारंभ करने के पूर्व दरबारियों को बीती रात देखा अपना सपना सुनाने लगे.

सपने में महाराज ने बादलों के बीच उड़ता हुआ एक सुंदर महल देखा था, जो बहुमूल्य पत्थरों से बना हुआ था. हरा-भरा बगीचा और फ़व्वारा उस महल की शोभा बढ़ा रहे थे. इतने में ही सपना टूट गया था. किंतु महाराज उसे भुला नहीं पा रहे थे.

उन्होंने दरबारियों से पूछा कि इस सपने का क्या अर्थ है? क्या यह सपना पूरा करने योग्य है?

तेनालीराम कहना चाहता था कि इस तरह का सपना व्यर्थ होता है. इसे भूल जाना चाहिए. किंतु उसके कहने के पहले ही राजगुरु बोल पड़ा, “महाराज! मेरे विचार में आपको ये सपना इसलिए आया, ताकि आप इसे पूरा कर सकें. आपको अपने सपनों के महल का निर्माण करवाना चाहिए.”

राजगुरु लोभी और धूर्त प्रवृत्ति का व्यक्ति था. वह चाहता था कि महल निर्माण की ज़िम्मेदारी उसे दे दी जाये, ताकि वह निर्माण में व्यय किये जाने वाले धन को स्वयं हड़प ले.

तेनालीराम राजगुरु की योजना समझ गया था, किंतु वह कुछ कहता उसके पहले ही महाराज ने महल निर्माण की ज़िम्मेदारी राजगुरु को सौंप दी और उसे अगले ही दिन से कार्य प्रारंभ करने का आदेश दे दिया.

दिन गुजरते रहे. राजगुरु ने महल निर्माण का कार्य प्रारंभ नहीं किया. महाराज जब भी उससे महल के बारे में पूछते, तो वह निर्माण में हो रही देरी का कोई न कोई बहाना बना देता. वह महाराज से उनके सपने के बारे में तरह-तरह के प्रश्न पूछता और उनके समय बढ़ाने के साथ-साथ बजट के नाम पर धन भी ऐंठ लेता.

एक दिन महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में एक वृद्ध व्यक्ति आया और न्याय की गुहार लगाने लगा. महाराज अपनी न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध थे. उन्होंने वृद्ध को आश्वासन दिया कि उसे न्याय अवश्य दिया जायेगा और उससे उसकी समस्या पूछी.

वृद्ध व्यक्ति बताने लगा कि वह एक धनी व्यापारी था. लेकिन एक सप्ताह पहले उसका धन लूट लिया गया और उसके परिवार की हत्या कर दी. महाराज से पूछा कि क्या वह जानता है कि ऐसा किसने किया.

वृद्ध व्यक्ति बोला, “कल रात मुझे एक सपना आया और उसमें मैंने देखा कि महाराज आपने और राजगुरु ने मेरा धन लूटा है और मेरे परिवार की हत्या की है.”

यह सुनकर महाराज क्रोधित हो गये और बोले, “क्या अनाप-शनाप बक रहे हो. तुम्हारा सपना मात्र एक सपना है, वो सच कैसे हो सकता है?”

वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया, “मैं उस राज्य का निवासी हूँ, जहाँ के राजा ने एक सपना देखा और अब उस असंभव सपने को पूर्ण करने में लगा हुआ है. तो अवश्य ही मेरा सपना भी सच ही होगा.”

उत्तर सुनकर महाराज को अपनी गलती का अहसास हुआ. उन्होंने ध्यान से वृद्ध व्यक्ति तो देखा, तो समझ गए कि वह तेनालीराम ही है, जो वेश बदलकर उन्हें उनकी गलती समझाने आया है.

उन्होंने उसी समय अपने सपनों का महल बनाने का आदेश निरस्त कर दिया.

तेनालीराम और तीन गुड़ियां 

एक बार राजा कृष्णदेव राय के दरबार में पड़ोसी राज्य का एक धनी व्यापारी आया. महाराज को प्रणाम कर वह बोला, “महाराज! आपके राज्य में व्यापार के उद्देश्य से मेरा आगमन हुआ था. जहाँ भी मैं गया, वहाँ आपके दरबार के मंत्रियों की बहुत प्रशंषा सुनी. तो मैं आपसे और आपके मंत्रियों से भेंट करने आ गया.”

“आपने ठीक सुना है. हमारे मंत्री कर्मठ और बुद्धिमान हैं.” महाराज कृष्णदेव राय बोले.

“महाराज आप आज्ञा दें, तो मैं आपके मंत्रियों की एक छोटी सी परीक्षा लेना चाहता हूँ.” व्यापारी बोला.

जब महाराज ने आज्ञा दे दी, तब व्यापारी ने अपने थैले में से तीन गुड़िया निकाली, जो दिखने में एक सरीखी थीं.

उन्हें महाराज को देते हुए वह बोला, “महाराज! ये तीनों गुड़ियाँ दिखने में एक जैसी हैं, लेकिन इन सबमें एक-एक अंतर है. आपके मंत्रियों को वही अंतर पता लगाना है. मैं ३० दिनों के उपरांत पुनः दरबार में उपस्थित होऊंगा. आशा है, तब तक आपके मंत्रीगण इसका उत्तर ढूंढ लेंगे.”

इतना कहकर वह चला गया. महाराज ने वो तीनों गुड़ियाँ तेनालीराम को छोड़कर अपने हर मंत्री को तीन-तीन दिनों के लिए दी, ताकि वे उनमें अंतर ढूंढ सके. लेकिन कोई भी मंत्री इसमें सफ़ल नहीं हो पाया. महाराज ने स्वयं भी उन गुड़ियों में अंतर ढूंढने का प्रयास किया, लेकिन वे भी सफ़ल न हो सके.

ऐसे में उन्हें चिंता सताने लगी कि यदि व्यापारी वापस आया और उसे पता लगा कि हमारा कोई भी मंत्री उसके प्रश्न का उत्तर नहीं ढूंढ पाया है, तो ये राज्य के मंत्रियों के साथ-साथ पूरे राज्य के लिए लज्जा की बात होगी.

व्यापारी के आने में मात्र तीन दिन ही शेष रह गए थे. अब महाराज के पास अपने सबसे विश्वासपात्र तेनालीराम को बुलाने के अलावा कोई चारा शेष न था.

उन्होंने तेनालीराम को बुलाया और उसे वह तीनों गुड़ियाँ देते हुए बोले, “तेनालीराम! हमें लगा था कि व्यापारी की दी हुई इन तीन गुड़ियों में अंतर हमारे दरबार के मंत्री ही ढूंढ लेंगे. लेकिन ऐसा हो न सका. हम भी इसमें सफ़ल न हो सके. अब तुम ही हमारी आखिरी आशा हो. हमें तुम पर पूर्ण विश्वास है कि तुम राज्य के सम्मान की रक्षा करोगे.”

तेनालीराम तीनों गुड़ियाँ लेकर घर चला गया. दो दिनों तक बहुत देखने, समझने और सोचने के बाद भी उसे गुड़ियों में कोई अंतर समझ नहीं आया. तीसरे दिन भी वह सोचता रहा और शाम होते तक उसने वह अंतर ढूंढ लिया. रात में वह आराम से सोया और अगले दिन नियत समय पर दरबार पहुँच गया.

वहाँ महाराज कृष्णदेव राय और सारे दरबारी उपस्थित थे, साथ ही पड़ोसी राज्य का व्यापारी भी.

महाराज बोले, “तेनालीराम! व्यापारी महाशय को तीनों गुड़ियों का अंतर बताओ.”

तेनालीराम अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ और कहने लगा, “महाराज! ये तीनों गुड़ियाँ दिखने में एक जैसी हैं, लेकिन इन सबमें एक अंतर है, जो इन्हें एक-दूसरे से अलग करती हैं. पहली गुड़िया के एक कान और मुँह में छेद है. दूसरी गुड़िया के दोनों कान में छेद है. तीसरी गुड़िया के बस एक कान में छेद है.”

“बिल्कुल सही बोले तेनालीराम. लेकिन ये भी बताओ कि इन छेदों का अर्थ क्या है?” व्यापारी बोल पड़ा.

तेनालीराम ने सेवक से कहकर तीन पतले तार मंगवाये. पहला तार पहली गुड़िया के कान के छेद में डाला. वह मुँह के छेद से बाहर आ गया. सबको यह दिखाते हुए तेनालीराम बोला, “ये पहली गुड़िया, जिसके एक कान और मुँह में छेद है, ऐसे व्यक्ति को दर्शाती है, जिसे कोई गुप्त बात बताने पर वह उसे गुप्त न रखकर दूसरों को बता देता है. ऐसे व्यक्ति पर विश्वास नहीं किया जा सकता.”

फिर उसने दूसरी गुड़िया के कान के छेद में तार डाला, वह तार दूसरे कान के छेद से बाहर निकल आया. वह बोला, “यह दूसरी गुड़िया, जिसके दोनों कान में छेद है, ऐसे व्यक्ति को दर्शाती है, जो किसी भी बात को एक कान से सुनता है और दूसरे से निकाल देता है. ऐसा व्यक्ति आपकी किसी बात को कोई महत्व नहीं देता.”

फिर उसने तीसरी गुड़िया के कान में तार डाला. वह तार उसके अंदर ही रहा. यह दिखाकर तेनालीराम बोला, “यह तीसरी गुड़िया, ऐसे व्यक्ति को दर्शाती है, जो किसी भी गुप्त बात को अपने हृदय में छुपाकर रखता है. ऐसे व्यक्ति पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है.”

तेनालीराम का उत्तर सुनकर महाराज और व्यापारी प्रसन्न हो गये. उन्होंने उसकी बुद्धिमानी की दिल खोलकर प्रशंषा की और पुरूस्कार भी दिए.

तब तेनालीराम बोला, “महाराज! मैंने आपको इन तीन गुड़ियों के चरित्र का एक अन्य वर्णन भी बताता हूँ. पहली गुड़िया ऐसे व्यक्ति को दर्शाती है, जो स्वयं ज्ञान प्राप्त कर वह ज्ञान दूसरों में बांटता है. दूसरी गुड़िया ऐसे व्यक्ति को दर्शाती है, जो ज्ञान की बात भी कभी ध्यान से नहीं सुनता. तीसरी गुड़िया ऐसे व्यक्ति को दर्शाती है, जो स्वयं तो ज्ञान प्राप्त कर लेता है, लेकिन वह ज्ञान अपने भीतर ही छुपाकर रखता है और कभी दूसरों को नहीं बताता.”

यह वर्णन सुनकर व्यापारी कहता है, “तेनालीराम तुम्हारे बारे में जितना सुना था, तुम उससे भी कहीं अधिक बुद्धिमान हो.”

व्यापारी महाराज कृष्णदेव राय से विदा लेकर चला जाता है. इस तरह तेनालीराम के कारण राज्य का सम्मान व्यापारी के सामने बच जाता है. 

तेनालीराम और चोटी का किस्सा

एक बार महाराज कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से पूछा, “बताओ तेनाली, ब्राह्मण अधिक चतुर होते हैं या व्यापारी?”

“महाराज! इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यापारी ब्राह्मणों से कहीं अधिक चतुर होते हैं.” तेनालीराम ने उत्तर दिया.

“ऐसा तुम कैसे कह सकते हो तेनाली?” महाराज बोले.

“महाराज! यदि आप अवसर प्रदान करें, तो जो मैं जो कह रहा हूँ, वह प्रमाणित करके भी दिखा सकता हूँ.” तेनालीराम ने आत्मविश्वास के साथ कहा. 

“ठीक है! तो कल प्रमाणित करके दिखाओ.”

“जैसी महाराज की आज्ञा, किंतु मेरी एक शर्त है कि कल मैं जो कुछ भी करूं, आप उसके बीच में कुछ न कहें, न ही किसी अन्य को कोई रोड़ा डालने दें.”

महाराज ने तेनालीराम की बात मान ली.

अगले दिन दरबार लगा. समस्त दरबारी दरबार में उपस्थित थे, राजगुरु भी. अचानक तेनालीराम राजगुरु से बोला, “राजगुरु जी! मेरा आपसे एक निवेदन है. यदि आपको मेरा निवेदन बुरा लगे, तो क्षमा करें. किंतु ये अति-आवश्यक है.”

“ऐसा क्या निवेदन है तेनालीराम?” राजगुरु ने पूछा.

“महाराज को आपको चोटी चाहिए. इसलिए उनके लिए आपको अपनी चोटी का बलिदान देना होगा अर्थात् आपको अपनी चोटी कटवानी पड़ेगी.” हाथ जोड़कर तेनालीराम बोला.

ये सुनते ही राजगुरू का खून खौल उठा. क्रोध में लाल-पीला होकर वह तेनालीराम को खरी-खोटी सुनाने लगा. तब तेनालीराम उन्हें शांत करते हुए बोला, “राजगुरू जी! बदले में चाहे आप मुँह-मांगा दाम मांग ले, किंतु चोटी तो आपको कटवानी ही पड़ेगी, क्योंकि ये महाराज की आज्ञा है.”

राजगुरू समझ गया कि वह महाराज की आज्ञा के विपरीत नहीं जा सकता. फिर चोटी का क्या है? वह कुछ दिनों में पुनः उग आयेगी. वह सोचने लगा कि इसके बदले उसे कितनी स्वर्ण मुद्रायें मांगनी चाहिए.

कुछ देर सोचने के बाद वह बोला, “ठीक है, यदि ऐसा करना अति-आवशयक है, तो मैं अपनी चोटी कटवाने तैयार हूँ. किंतु चोटी के बदले मुझे पांच स्वर्ण मुद्रायें चाहिए.”

खजांची को कह ख़जाने से ५ स्वर्ण मुद्रायें निकालकर राजगुरू को दे दी गई और नाई बुलवाकर उनकी चोटी कटवा दी गई.

कुछ देर बाद नगर के सबसे बड़े व्यापारी को बुलवाया गया. तेनालीराम ने उससे भी कहा कि महाराज कृष्णदेव राय को उसकी चोटी चाहिए. इसलिए उसे अपनी चोटी कटवानी पड़ेगी.

व्यापारी बोला, “महाराज की आज्ञा मैं कैसे टाल सकता हूँ. लेकिन मैं एक बहुत गरीब आदमी हूँ.”

“अपनी चोटी के बदले तुम जो कीमत मांगोगे, वह तुम्हें दी जायेगी.” तेनालीराम बोला.

व्यापारी कहने लगा, “मैं महाराज से क्या मांग सकता हूँ? किंतु इतना कहूंगा कि इस चोटी की लाज बचाने के लिए अपनी पुत्री के विवाह में मुझे पाँच हज़ार स्वर्ण मुद्रायें देनी पड़ी थी. फिर अपने पिता की मृत्यु के समय भी इस चोटी को बचाने के लिए मुझे पाँच हज़ार स्वर्ण मुद्रायें खर्च करनी पड़ी थी…..”

“….तो ठीक है तुम्हें दस हज़ार स्वर्ण मुद्रायें…” तेनालीराम कह ही रहा था कि व्यापारी बोला पड़ा, “मेरी बात पूरी सुन लीजिये श्रीमान्.”

“बोलो क्या कहना है?”

“श्रीमान्, आज भी बाज़ार में इस चोटी के बदले मुझे पाँच हज़ार स्वर्ण मुद्रायें आसानी से उधार मिल जायेंगी.” अपनी चोटी पर हाथ फ़िराते हुए व्यापारी बोला.

“तो इसका अर्थ है कि तुम्हें अपनी चोटी के बदले पंद्रह हज़ार स्वर्ण मुद्रायें चाहिए.” तेनालीराम ने पूछा.

“अब मैं क्या कहूं, बस महाराज की कृपा हो जाये.” व्यापारी खिसियाते हुए बोला.

तुरंत ख़जाने से पंद्रह हज़ार स्वर्ण मुद्रायें निकालकर व्यापारी को दी गई. नाई तो पहले से ही दरबार में उपस्थित था.

व्यापारी अपनी चोटी कटवाने बैठ गया. नाई भी उसकी चोटी काटने आगे आया. लेकिन जैसे ही उसने व्यापारी की चोटी काटने उस्तरा निकाला, व्यापारी तुनककर बोला, “ए नाई, ज़रा देख के, भूलना नहीं कि ये महाराज की चोटी है.”

व्यापारी के ये शब्द महाराज कृष्णदेव राय को अपमानजनक लगे. वे क्रोधित हो गए और उन्होंने सैनिकों से कहकर व्यापारी को दरबार से बाहर फिंकवा दिया.

व्यापारी के हाथ में पहले ही पंद्रह हज़ार स्वर्ण मुद्राओं की थैली थी. उसने भी वहाँ से चंपत होने में देर नहीं लगाईं.

इस पूरे घटनाक्रम के बाद तेनालीराम महाराज से बोला, “महाराज! मैंने अपनी बात सिद्ध कर दी. आपके देखा कि राजगुरू जी ने पाँच स्वर्ण मुद्राओं के बदले अपनी चोटी गंवा दी. लेकिन वो व्यापारी पंद्रह हज़ार स्वर्ण मुद्रायें भी ले गया और अपनी चोटी भी नहीं कटवाई. हुआ न व्यापारी ब्राहमण से अधिक चतुर.”

यह सुनकर महाराज सहित सारे दरबारी हंस पड़े.   

तेनालीराम और नाई की उच्च नियुक्ति

शाही नाई का महाराज कृष्णदेव राय के बाल काटने और दाढ़ी बनाने महल में आना-जाना लगा रहता था. जब वह राजदरबारियों को देखता, तो स्वयं भी राजदरबारी बनने सपने देखा करता था.

एक दिन जब वह महल आकर महाराज कृष्णदेव राय के शयन कक्ष में गया, तो देखा कि महाराज गहरी नींद में सोये हुए हैं. उसने सोते-सोते ही उनकी दाढ़ी बना दी.

महाराज जब उठे और देखा कि उनकी दाढ़ी बनी हुई है, तो बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने नाई को बुलवाकर कहा, “हम तुम्हारे काम से अति प्रसन्न है. मांगो क्या मांगते हो. आज हम तुम्हारी हर इच्छा पूरी करेंगे.”

नाई तो ऐसे ही किसी अवसर की ताक में था. वह हाथ जोड़कर बोला, “महाराज! यदि आप मेरी कोई इच्छा पूरी करना चाहते हैं, तो मुझे अपना दरबारी बना लीजिये क्योंकि मेरी आपका दरबारी बनने की इच्छा है.”

महाराज कृष्णदेव राय ने बिना सोचे-समझे ही उसे अपना दरबारी बनाने की हामी भर दी. नाई बहुत ख़ुश हुआ और सभी जगह यह बात बताने लगा. जब दरबारियों को ये बात पता चली, तो वे चिंतित हो गए.

नाई को दरबार के कार्यों की कोई जानकारी नहीं थी. वैसे अज्ञानी व्यक्ति को दरबारी बनाना राज्य के कार्यों पर विपरीत प्रभाव डाल सकता था. दरबारी ये बात समझते थे, लेकिन महाराज से कौन कहता? किसी में ये कहने का साहस नहीं था.

वे सभी तेनालीराम के पास गए और उसे सारी बात बताकर इस समस्या का कोई हल निकालने को कहा. तेनालीराम ने उन्हें आश्वासन देकर वापस भेज दिया.

अगले दिन रोज़ की तरह महाराज सुबह-सुबह नदी किनारे टहलने गए. वहाँ उन्होंने देखा कि तेनालीराम एक काले को कुत्ते को रगड़-रगड़कर नहला रहा है. ये देख उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ.

वे तेनालीराम से बोले, “सुबह-सुबह ये क्या कर रहे हो तेनाली?”

तेनालीराम बोला, “महाराज! मैं इस कुत्ते को रगड़-रगड़कर नहला रहा हूँ, ताकि ये सफ़ेद हो जाये.”

“अरे काला कुत्ता सफ़ेद कैसे होगा तेनाली?” महाराज ने हँसते हुए पूछा.

“महाराज! जब एक अयोग्य व्यक्ति राजदरबारी बन सकता है, तो काला कुत्ता भी सफ़ेद हो सकता है.” तेनालीराम ने उत्तर दिया.

महाराज समझ गए कि तेनालीराम का इशारा किस ओर है. उन्होंने नाई को राजदरबारी न बनाकर वही स्थान दिया, जिसके लिए वह उपयुक्त था.  

 तेनालीराम और कर्ज़ का बोझ

उन दिनों तेनालीराम की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं चल रही थी. विवश होकर उसे महाराज कृष्णदेव राय से क़र्ज़ लेना पड़ा. क़र्ज़ लेते समय उसने महाराज को वचन दिया कि वह शीघ्रताशीघ्र क़र्ज़ चुका देगा.

दिन गुज़रते गए. तेनालीराम की आर्थिक स्थिति कुछ बेहतर अवश्य हुई, किंतु इतनी नहीं कि वह महाराज का क़र्ज़ उतार सके. वह क़र्ज़ को लेकर परेशान रहने लगा.

उस परेशानी के दो हल थे. एक कि वह किसी तरह महाराज का क़र्ज़ उतार दे. दो, किसी तरह उसे क़र्ज़ से मुक्ति मिल जाये. दूसरा हल उसे ज्यादा उचित प्रतीत हो रहा था. लेकिन वह महाराज से कहे तो कहे कैसे कि वे उसका क़र्ज़ माफ़ कर दें.

बहुत सोच-विचार कर उसने एक योजना बनाई और इस योजना में अपनी पत्नि को भी शामिल कर लिया. फिर एक दिन उसने अपनी पत्नि के माध्यम से महाराज को संदेश भिजवाया कि उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं है. इसलिए वह कुछ दिन दरबार में उपस्थित नहीं हो पायेगा.

संदेश भिजवाने के बाद उसने दरबार जाना बंद कर दिया. कई दिन बीत गए. तेनालीराम के दरबार न आने पर महाराज को चिंता हुई कि कहीं उसका स्वास्थ्य अधिक ख़राब तो नहीं हो गया और उन्होंने तेनालीराम के स्वास्थ्य की जानकारी लेने उसके घर जाने का निर्णय लिया.

एक शाम महाराज तेनालीराम के घर पहुँच गए. पत्नि ने जब महाराज को देखा, तो तेनालीराम को इशारा कर दिया और वह बिस्तर पर जाकर कंबल ओढ़कर लेट गया.

महाराज तेनालीराम के पास गए और उसका हाल-चाल पूछने लगे. तेनालीराम तो कुछ न बोला. लेकिन पत्नि बोल पड़ी, “महाराज! जब से आपसे क़र्ज़ लिया है. तब से परेशान रहते हैं. आपका क़र्ज़ चुकाना तो चाहते हैं, लेकिन चुका नहीं पा रहे हैं. क़र्ज़ के बोझ की चिंता इन्हें अंदर ही अंदर खाए जा रही है. इस कारण ये बीमार पड़ गए हैं.”

“अरे, इतनी सी बात की इतनी चिंता करने की क्या आवश्यकता थी तेनालीराम? चलो, मैं तुम्हें कर्ज़ के बोझ से मुक्त करता हूँ. चिंता छोड़ो और स्वस्थ हो जाओ.” तेनालीराम को सांत्वना देते हुए महाराज बोले.

ये सुनना था कि तेनालीराम कंबल फेंक तुरंत उठ बैठा और मुस्कुराते हुए बोला, “आपका बहुत-बहुत धन्यवाद महाराज.”

तेनालीराम को स्वस्थ देख महाराज बहुत क्रोधित हुए और बोले, “ये क्या तेनालीराम, तुम तो स्वस्थ हो. इसका अर्थ है कि क़र्ज़ से मुक्त होने के लिए तुम बीमारी का बहाना कर रहे थे. तुम्हारा इतना साहस. तुम दंड के पात्र हो.”

तेनालीराम ने हाथ जोड़ लिए और भोलेपन से बोला, “महाराज! मैंने कोई बहाना नहीं किया. मैं सच मैं क़र्ज़ के बोझ से बीमार पड़ गया था. लेकिन जैसे ही आपके मुझे उस बोझ से मुक्त किया, मैं स्वस्थ हो गया.”

महाराज क्या कहते? तेनालीराम की चतुराई और भोलेपन के मिश्रण ने उन्हें निःशब्द कर दिया था.  

 तेनालीराम और रसगुल्ले की जड़

एक बार एक ईरानी व्यापारी महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में आया. वह महाराज के लिए ढेर सारी भेंट लेकर आया. महाराज ख़ुश हो गए. उन्होंने भी अपनी तरफ़ से मेहमान-नवाज़ी में कोई कसर नहीं छोड़ी.

सेवकों से कहकर उन्होंने ईरानी व्यापारी के रहने की शानदार व्यवस्था करवाई. उसके लिए एक से बढ़कर एक पकवान परोसने को कहा. सेवक भी महाराज की आज्ञा के पालन में जुट गये.

एक दिन खाने के बाद सेवकों ने ईरानी व्यापारी को मीठे में रसगुल्ला परोसा. रसगुल्ला देखकर व्यापारी ने सेवकों से पूछा कि क्या वे उसे रसगुल्ले की जड़ के बारे में बता सकते हैं.

सेवक सोच में पड़ गए. वे रसोईये के पास गए और उससे ईरानी व्यापारी का प्रश्न बताते हुए उत्तर पूछा. रसोईये को तो बस रसगुल्ला बनाना आता है. उसकी जड़ के बारे में उसे कोई जानकारी नहीं थी. वह उस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाया.

सेवकों ने कई लोगों से इस प्रश्न का उत्तर पूछा. लेकिन कोई इसका उत्तर नहीं दे पाया. धीरे-धीरे महाराज के कानों में यह बात पहुँची कि ईरानी व्यापारी के द्वारा रसगुल्ले की जड़ के बारे में पूछा गया है और महल में कोई भी उसके इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पा रहा है.

उन्होंने अपने सबसे चतुर दरबारी तेनालीराम को बुलवाया और उसके सामने यह प्रश्न रख दिया. प्रश्न सुनने के बाद तेनालीराम बोला, “महाराज! कल दरबार में आप ईरानी व्यापारी को बुला लीजिये. मैं सबसे सामने इस प्रश्न का उत्तर दूंगा.”

अगले दिन सारा दरबार खचाखच भरा हुआ था. ईरानी व्यापारी भी दरबार में उपस्थित था. तेनालीराम जब दरबार में आया, तो अपने हाथ में एक कटोरा लिए हुए था, जो मलमल के कपड़े से ढका हुआ था.

महाराज ने पूछा, “तेनालीराम क्या तुम रसगुल्ले की जड़ के बारे में पता कर आये?”

“जी महाराज! मैं इस कटोरे में रसगुल्ले की जड़ लेकर आया हूँ.” कहते हुए तेनालीराम ने कटोरे के ऊपर से मलमल का कपड़ा हटा दिया.

कटोरे में गन्ने के कुछ टुकड़े पड़े हुए थे, जिसे देख महाराज सहित सारे दरबारी चकित रह गए. तेनालीराम ईरानी व्यापारी के पास जाकर उसे कटोरा देकर बोला, “महाशय! ये है रसगुल्ले की जड़.”

महाराज की समझ से अब भी सब बाहर था. उन्होंने तेनालीराम से पूछा, “तेनालीराम ये सब क्या है?”

तेनालीराम बोला, “महाराज! मिठाई शक्कर की बनती है. शक्कर को बनाया जाता है गन्ने से. इस तरह हुआ न गन्ना रसगुल्ले की जड़.”

यह उत्तर सुनकर महाराज ने हंसते हुए ईरानी व्यापारी की ओर देखा. वह भी तेनालीराम के उत्तर से संतुष्ट हो चुका था.


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