फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम तेनालीराम की कहानी (Tenaliram Ki Katha) “संतुष्ट व्यक्ति के लिए उपहार” शेयर कर रहे हैं. इस कहानी में महाराज कृष्णदेव राय तेनालीराम को दान-पुण्य करने को कहते हैं. तेनालीराम दान देने में अनिच्छुक था, किंतु उसके लिए महाराज की आज्ञा का उल्लंघन करना भी असंभव था. ऐसे में उसने क्या युक्ति लगाई? क्या वह दान देने से बच पाया? यही इस कहानी में बताया गया है. पढ़िए पूरी कहानी :
Tenaliram Ki Katha
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“तेनालीराम की कहानियों” का पूरा संकलन यहाँ पढ़ें : click here
तेनालीराम की बुद्धिमत्ता और वाक्पटुता से महाराज कृष्णदेव राय सदा प्रसन्न रहते थे और समय-समय पर तेनालीराम को भेंट प्रदान किया करते थे. तेनालीराम ने भी इन भेंटों को संग्रह कर अच्छी धन-संपदा एकत्रित कर ली थी.
एक दिन जब वह राजदरबार पहुँचा, तो उसने कीमती वस्त्र और आभूषण धारण कर रखे थे. जिसे देख महाराज ने कहा, “तेनाली! क्या तुम्हें आभास है कि तुम्हारी वेश-भूषा और रहन-सहन में बहुत परिवर्तन आ चुका है. प्रारंभ में तुम्हारी वेश-भूषा अति-साधारण रहा करती थी. क्या बात है?”
तेनालीराम ने उत्तर दिया, “महाराज! समय के साथ मनुष्य की वेश-भूषा और रहन-सहन परिवर्तित होती है और इसमें धन की विशेष भूमिका रहती है. आपके द्वारा दी गई भेंटों से मैंने पर्याप्त बचत की है. उन्हें ही खर्च कर मैं ऐसी वेश-भूषा धारण कर पा रहा हूँ.”
“तो इसका अर्थ ये हुआ कि तुम्हारे पास धन की कोई कमी नहीं है. इस स्थिति में तो तुम्हें दान-पुण्य करना चाहिए.” महाराज बोले.
ये सुनकर तेनालीराम बात पलटते हुए बोला, “महाराज! धन मेरे पास अवश्य है. किंतु इतना नहीं कि उसमें से दान-पुण्य कर सकूं.”
तेनालीराम की ये बात महाराज को खटक गई. उन्होंने उसे लताड़ा कि राज्य के मुख्य सलाहकार के पद पर होते हुए उन्हें ऐसी बातें शोभा नहीं देती.
तेनालीराम क्या करता? क्षमा याचना करते हुए बोला, “महाराज! क्षमा करें. मैं अवश्य दान करूंगा. आप ही मुझे बतायें कि मुझे क्या दान करना चाहिए.”
महाराज ने उसे एक भव्य भवन का निर्माण कर दान में देने का परामर्श दिया. तेनालीराम ने महाराज के परामर्श पर अपनी स्वीकृति दे दी.
उस दिन के बाद से तेनालीराम भव्य भवन के निर्माण में जुट गया. कुछ माह में भवन निर्मित भी हो गया. अब उसे दान में देने की बारी थी. लेकिन किसे? भवन यूं ही किसी को भी दान में दिया जाना उचित नहीं था.
तेनालीराम के सोच-समझकर उस भवन के सामने एक तख्ती टांग दी, जिस पर लिखा हुआ था – “जो व्यक्ति, उसके पास जो कुछ है, उसमें प्रसन्न और संतुष्ट होगा, वही इस भवन को दान में लेने का पात्र होगा.”
समय व्यतीत होने लगा, किंतु कोई भी तेनालीराम के पास वह भवन दान में मांगने नहीं आया. एक दिन एक निर्धन व्यक्ति उस भवन के पास से गुजरा, तो उसकी दृष्टि उस पर लगी तख्ती पढ़ी.
तख्ती पढ़कर वह सोचने लगा कि इस नगर के लोग कितने मूर्ख हैं, जो इस भवन को दान में मांगने नहीं जाते. क्यों न मैं ही इस भवन को मांग लूं? वह तेनालीराम के पास पहुँचा और उससे भवन दान में देने की याचना करने लगा.
तेनालीराम ने पूछा, “क्या तुमनें भवन पर लगी हुई तख्ती पढ़ी है?”
“हाँ, मैंने एक-एक शब्द पढ़ा है.” निर्धन व्यक्ति बोला.
“तो क्या तुम तुम्हारे पास जो कुछ है, तुम उसमें प्रसन्न और संतुष्ट हो.” तेनालीराम ने फिर से पूछा.
“मैं पूर्णतः संतुष्ट हूँ.” निर्धन व्यक्ति ने उत्तर दिया.
“तो फिर तुम्हें इस भवन की क्या आवश्यकता है? यदि तुम्हें इसकी आवश्यकता है, तो फिर तुम्हारी ये बात झूठी है कि तुम अपने जीवन में उपलब्ध चीज़ों से संतुष्ट हो. ऐसे में तुम इस भवन को दान में लेने के पात्र नहीं हो.”
तेनालीराम की बात सुनकर निर्धन व्यक्ति अपना सा मुँह लेकर चला गया. उसके बाद कभी कोई उस भवन को दान में मांगने नहीं आया.
कई दिन बीत जाने पर भी भवन दान में न दिए जाने की बात जब महाराज के कानों में नहीं पड़ी, तो उन्होंने तेनालीराम को बुलाया और इसका कारण पूछा.
तेनालीराम ने सारी बात बता दी. महाराज यह बात सुन हँस पड़े कि तेनालीराम अपनी बुद्धिमत्ता से दान देने से भी बच गया.
फिर उन्होंने पूछा कि अब इस भवन का क्या करोगे, तो तेनालीराम बोल पड़ा, “किसी दिन शुभ मुहूर्त देखकर गृह-प्रवेश करूंगा.”
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