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गुस्सैल साधु की कहानी | The Angry Monk Story In Hindi

गुस्सैल साधु की कहानी | The Angry Monk Story In Hindi 

मानव जीवन में क्रोध एक स्वाभाविक भाव है, जो परिस्थिति, अहंकार, या असंतुलन के कारण जन्म लेता है। परंतु जब यही क्रोध हमारे व्यवहार, निर्णय और संबंधों पर हावी हो जाता है, तो यह हमारी शांति और विकास का सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है।

आध्यात्मिक जीवन, तप और साधना का उद्देश्य केवल बाहरी नियमों का पालन नहीं, बल्कि भीतर की अशांति को शांत करना होता है। लेकिन क्या वास्तव में सभी साधु-संत इस आंतरिक विजय को प्राप्त कर पाते हैं? क्या ज्ञान का होना ही आत्म-नियंत्रण की गारंटी है?

इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजती है यह प्रेरणात्मक कथा — “गुस्सैल साधु”। यह कहानी केवल एक साधु की नहीं, बल्कि हम सभी की है, जो कभी-न-कभी अपने क्रोध से जूझते हैं। यह कथा दर्शाती है कि ज्ञान का सही स्वरूप तभी प्रकट होता है जब हम अपने भीतर की लड़ाई को जीतते हैं।

The Angry Monk Story In Hindi 

The Angry Monk Story In Hindi 

बहुत समय पहले की बात है, हिमालय की शांत और पवित्र घाटियों में एक प्राचीन आश्रम हुआ करता था। वहां एक तपस्वी साधु रहते थे, जिनका नाम था स्वामी विरक्तानंद। वे अत्यंत ज्ञानी, तपस्वी और धर्मपरायण माने जाते थे। लोग दूर-दूर से उनके दर्शन के लिए आते, उनसे जीवन के गूढ़ रहस्य पूछते और उनके चरणों में बैठकर ज्ञान प्राप्त करते।

परंतु एक बात जो सबको चौंकाती थी, वह यह कि स्वामी विरक्तानंद को क्रोध बहुत जल्दी आता था। यदि किसी शिष्य ने थोड़ा भी नियम भंग कर दिया, समय पर न आया, या ध्यान में गड़बड़ी कर दी, तो वे तुरंत क्रोधित हो जाते और कभी-कभी अपशब्द भी कह बैठते। सभी उन्हें आदर तो करते थे, पर भीतर से थोड़ा भयभीत भी रहते थे।

आश्रम में एक दिन एक नया युवा शिष्य आया – नाम था अर्जुन। वह सीधा-सादा, शांत स्वभाव वाला, लेकिन बहुत ही जिज्ञासु युवक था। उसे साधु बनने की इच्छा थी, पर साथ ही वह आत्म-विकास और क्रोध पर नियंत्रण की शिक्षा लेना चाहता था।

अर्जुन ने आश्रम में प्रवेश पाकर साधु से निवेदन किया –

“गुरुदेव, मैं आपके मार्गदर्शन में क्रोध पर नियंत्रण पाना चाहता हूँ। कृपया मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार करें।”

स्वामी विरक्तानंद ने उसे देखा और बोले, “यदि तुम नियमों का पालन करोगे और अनुशासन में रहोगे, तो तुम्हें स्वीकार किया जाएगा। पर यदि तुमने कोई भूल की, तो परिणाम भुगतने को तैयार रहना।”

अर्जुन ने विनम्रता से सिर झुका दिया।

अर्जुन ने साधु की हर बात को ध्यान से सुना, समय का पालन किया और पूर्ण श्रद्धा से सेवा करता रहा। परंतु साथ ही उसने स्वामी विरक्तानंद के स्वभाव का निरीक्षण करना शुरू कर दिया। वह देखता कि कैसे एक महान ज्ञानी भी छोटी-छोटी बातों पर क्रोधित हो जाते हैं।

एक दिन, अर्जुन ने साहस करके स्वामी से पूछा –

“गुरुदेव, क्या आप यह मानते हैं कि क्रोध मानव की कमजोरी है?”

स्वामी ने उत्तर दिया – “हाँ, क्रोध एक आग है जो भीतर से जला देती है। इसे जीतना आवश्यक है।”

अर्जुन ने फिर प्रश्न किया – “तो फिर गुरुदेव, जब आप स्वयं क्रोधित होते हैं, तब क्या आप इस आग को पहचान पाते हैं?”

स्वामी चुप हो गए। कुछ क्षणों तक उन्होंने अर्जुन को देखा, और फिर कहा – “तुम मेरे शिष्य हो, पर इस प्रश्न के उत्तर को तुम समय के साथ स्वयं जानोगे।”

कुछ सप्ताह बाद, अर्जुन ने एक प्रयोग करने की ठानी। हर दिन वह कोई छोटी सी गलती करता – कभी झाड़ू लगाना भूल जाता, कभी दीया ठीक से नहीं जलाता, कभी ध्यान के समय हँसी रोक नहीं पाता। हर बार स्वामी का क्रोध उमड़ पड़ता – वे डाँटते, शोर करते, और अर्जुन को दंडित करते।

पर अर्जुन शांत रहता। मुस्कराता और विनम्रता से कहता –

“गुरुदेव, मुझे क्षमा करें। मैं सीख रहा हूँ।”

धीरे-धीरे स्वामी ने महसूस किया कि अर्जुन की गलतियाँ जानबूझकर की जा रही हैं। एक दिन उन्होंने अर्जुन को बुलाकर पूछा –

“तुम यह सब क्यों कर रहे हो?”

अर्जुन ने सिर झुकाया और बोला –

“गुरुदेव, मैं यह समझना चाहता था कि कैसे एक महान तपस्वी भी क्रोध से बच नहीं पाता। मैंने जानबूझकर छोटी भूलें कीं, और आपने हर बार गुस्से में प्रतिक्रिया दी। इसका अर्थ है कि क्रोध अभी भी आपके अंदर है – वह भी बाहर की वजह से नहीं, भीतर से ही आता है।”

स्वामी एक क्षण के लिए स्तब्ध रह गए। यह सुनकर वे मौन हो गए। पहली बार किसी ने उनके अंदर की कमजोरी को इस स्पष्टता से उजागर किया था – और वह भी एक शिष्य ने।

उस रात स्वामी ने गहराई से ध्यान किया। उन्होंने अपने जीवन के वर्षों को याद किया – तप, यज्ञ, ध्यान, प्रवचन – सब कुछ किया था, पर क्रोध पर विजय नहीं पा सके थे। उन्होंने अनुभव किया कि अर्जुन ने उनकी आँखें खोल दी थीं।

सुबह होते ही उन्होंने आश्रम में सभी को बुलाया और कहा –

“आज मैं तुम्हें एक नई शिक्षा देने जा रहा हूँ – वह शिक्षा, जो मैंने अपने शिष्य अर्जुन से पाई है।”

वे बोले:

“ज्ञान, तप और उपदेश तब तक अधूरे हैं जब तक हम अपने अहंकार, क्रोध और भीतर के अंधकार को नहीं जीतते। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं अब तक केवल बाहर की दुनिया से लड़ रहा था, पर मेरी असली लड़ाई मेरे भीतर थी – और वह मैं हार रहा था।”

“पर आज से मैं अपने क्रोध से युद्ध करूँगा – न डंडे से, न आदेश से – बल्कि धैर्य, क्षमा और आत्म-निरीक्षण से।”

उस दिन के बाद स्वामी विरक्तानंद में एक अद्भुत परिवर्तन आया। वे अधिक शांत हो गए, क्रोध आने पर मौन धारण करते, और जब भी कोई भूल होती, तो गहराई से सोचते कि उसमें उनकी क्या भूमिका हो सकती है।

अर्जुन उनका प्रिय शिष्य बन गया – क्योंकि उसने उन्हें वह दिखाया जो अब तक कोई नहीं दिखा सका – स्वयं का दर्पण।

कहानी से सीख (Moral of the Story):

1. क्रोध बाहर की वस्तु नहीं है – वह भीतर की प्रतिक्रिया है।

कोई हमें क्रोधित नहीं करता, हम स्वयं होते हैं।

2. ज्ञान और तप तब तक अधूरे हैं, जब तक आत्म-निरीक्षण न हो।

बाहरी साधना से पहले अंदर की सफाई ज़रूरी है।

3. सच्चा गुरु वही है, जो शिष्य से भी सीखने को तैयार हो।

4. क्रोध को जीतने का मार्ग प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि स्वीकृति और आत्म-जागरूकता है।

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