Vikram Betal Hindi Story

अधिक साहसी कौन? : विक्रम बेताल की सातवीं कहानी | Vikram Betal Seventh Story In Hindi

vikram betal satvin kahani अधिक साहसी कौन? : विक्रम बेताल की सातवीं कहानी | Vikram Betal Seventh Story In Hindi
Written by Editor

फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम विक्रम बेताल की सातवीं कहानी (Vikram Betal Ki Satvi Kahani) शेयर कर रहे हैं। बेताल रास्ता काटने के लिए राजा विक्रम को सांतवी कहानी सुनाता है। ये कहानी राजा चंद्रसेन और सत्यशील नामक युवक की है। एक बार सत्यशील राजा पर एक उपकार करता है। राजा उस उपकार को कैसे चुकाता है? और जहाँ साहस का प्रश्न उठता हैं, वहाँ राजा और सत्यशील में से कौन अधिक साहसी होता है? यह जानने के लिए पढ़िए बेताल पच्चीसी की सातवीं कहानी

Vikram Betal Ki Satvi Kahani

Table of Contents

Vikram Betal Ki Satvi Kahani

Vikram Betal Ki Satvi Kahani

पूर्वी समुदी तट पर ताम्रलिपि नमक नगरी थी। वहाँ राजा चंद्रसेन का राज था। वह एक दयालु राजा था और अपनी प्रजा की खुशहाली के लिए तत्पर रहता था।

उस नगर में सत्यशील नामक एक निर्धन युवक भी रहता था। वह राजा के दरबार में नौकरी के लिए प्रयासरत था। इसलिए प्रतिदिन राजमहल जाता। मगर निवेदन करने पर भी इसे द्वारपाल राजमहल में घुसने नहीं देता। दिन बीत रहे थे, मगर सत्यशील की राजा से भेंट नहीं हो पा रही थी। इसलिए उसने उन स्थानों पर जाना प्रारंभ किया, जहाँ-जहाँ राजा की सवारी जाती थी। इसके बाद भी सत्यशील की भेंट राजा से नहीं हो पाई। किंतु उसने प्रयास करना नहीं छोड़ा।

एक दिन राजा चंद्रसेन अपने सैनिकों के साथ आखेट पर गये। वे वन में एक जंगली सूअर का पीछा करते-करते दूर निकल गये और रास्ता भटक गये। उस समय सूरज सिर पर आ था। तेज धूप के कारण राजा को प्यास लग आई थी। किंतु दूर-दूर तक पानी नहीं था। सैनिक पानी ढूंढने इधर-उधर दौड़े, किंतु खाली हाथ लौट आये. रास्ते का भी उन्हें कुछ पता न चला।

उसी समय एक पगडंडी के किनारे राजा चेंद्रसेन को एक युवक दिखाई पड़ा. उन्होंने उसे अपने पास बुलाया। वह युवक सत्यशील था। उसने राजा को प्रणाम किया और अपने पास का पानी उन्हें प्रस्तुत किया। साथ ही कुछ फल भी प्रस्तुत किये. राजा ने उस पानी से अपनी प्यास बुझाई और मीठे फल खाकर तृप्त हो गये।

वे सत्यशील से अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले, “युवक! कल दरबार चले आना। हम भेंट देकर तुम्हारा उपकार चुकाना चाहते हैं।”

तब सत्यशील ने कहा, “महाराज! मुझे काम चाहिए, भेंट नहीं। मुझे अपने दरबार में नौकरी दे दीजिये। आपका बड़ा उपकार होगा।”

राजा चंद्रसेन ने उसे दरबार में काम दे दिया और कहा कि उसने उसे पानी पिलाया है, जिसका उपकार वह जीवन पर्यन्त स्मरण रखेंगे।

अगले दिन से सत्यशील दरबार में नौकरी करने लगा। वह बुद्धिमान और कर्मठ युवक था। शीघ्र ही वह राजा चंद्रसेन का विश्वासपात्र बन गया। राजा उसे विचार-विमर्श में भी सम्मिलित करने लगे।

राजा चंद्रसेन सिंहल द्वीप के राजा की पुत्री से विवाह करना चाहते थे। उन्होंने सत्यशील को यह दायित्व सौंपा कि वो सिंहल द्वीप जाकर यह प्रस्ताव वहाँ के राजा के समक्ष रखे। सत्यशील ने अपने अभीष्ट देव का पूजन किया और कुछ ब्राह्मणों को लेकर जहाज पर बैठकर सिंहल द्वीप की यात्रा प्रारंभ की।

वे समुद्र के मध्य पहुँचे ही थे कि पानी से एक ध्वज बाहर निकलने लगा। सभी चकित थे. उस ध्वज का दंड स्वर्ण से निर्मित था। उसमें लगी पताकायें रंग-बिरंगी थीं। ध्वज ऊँचा उठता चला गया, मानो आकाश को छू रहा हो। उसी समय काली घटायें छा गई और मुसलधार बरसात प्रारंभ हो गई।

तीव्र वायु से उनका जहाज डोलने लगा और फिर स्वमेव ध्वज के दंड से जाकर बंध गया. जहाज पर सवार ब्राह्मण भय से चीख रहे थे और अपने प्राण बचाने के लिए प्रार्थना कर रहे थे। सत्यशील ने साहस बटोरा और ध्वज के निकट समुद्र के पानी में कूद गया। उसे ज्ञान न था कि कैसे वह अपने जहाज को बचा पायेगा, किंतु फिर भी उसने अपने प्राणों की चिंता न की।

उधर वायु का वेग बढ़ता गया और उसने प्रचंड रूप धारण कर लिया। समुद्री लहरें उफान पर आ गई और जहाज दूर फिंका गया और नष्ट हो गया। जहाज पर बैठे समस्त ब्राह्मण समुद्र के जलचरों का भोजन बन गये।   

पानी में कूदा सत्यशील नीचे गहराई में उतरता चला गया। समुद्र की गहराई में वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचा, जहाँ ऊँचे-ऊँचे स्वर्ण महल थे। वहाँ कात्यायनी देवी का एक विशाल मंदिर भी था। सत्यशील मंदिर के भीतर चला गया और वहाँ जाकर देवी की स्तुति की। वह स्तुति करके उठा ही था कि मंदिर का द्वार खोलकर एक सुंदर कन्या ने मंदिर में प्रवेश किया। वह एक दीवार की ओट में छुप गया।

कन्या देवी प्रतिमा के समक्ष खड़ी होकर स्तुति करने लगी। सत्यशील मंत्र-मुग्ध होकर  उसका अतुल्य सौंदर्य निहारता था। कुछ देर बाद वह कन्या एक अन्य द्वार खोलकर बाहर चली गई। सत्यशील शील भी उसके पीछे-पीछे जाने लगा। बाहर पहुँचकर उसने एक सुंदर उपवन देखा, जहाँ वह कन्या अपनी सखियों के साथ गीत गा रही थी। सत्यशील उसके पास पहुँचा और उसे बताया कि वह ताम्रलिपि नगरी से आया है।

राजकुमारी ने उसे भोज का निमंत्रण दिया और कहा कि भोज के पहले वह एक सरोवर में स्नान कर ले। सखियाँ सत्यशील को एक सरोवर के पास ले गई। जैसे ही उसने सरोवर में डुबकी लगाईं, संपूर्ण दृश्य बदल गया। वह उद्यान, वह स्वर्ण महल, मंदिर अदृश्य हो गये और वह राजा चंद्रसेन के राज दरबार में पहुँच गया।

उसे देख राजा चंद्रसेन आश्चर्यचकित रह गये और पूछ बैठे, “सत्यशील तुम यहाँ कैसे?”

सत्यशील स्वयं चकित थ। उसने संपूर्ण घटना का वर्णन राजा के समक्ष कर दिया। परन्तु, यह बात नहीं बताई कि वह उस सुंदर कन्या पर मुग्ध है। दिन बीत रहे थे, किंतु वह उस कन्या का विचार अपने ह्रदय से निकाल नहीं पा रहा था। वह उदास रहने लगा। एक दिन महल के उद्यान में वह उस कन्या को स्मरण कर विलाप कर रहा था। उद्यान के माली ने आकर उससे विलाप करने का कारण पूछा, तो उसने उस अपने ह्रदय की स्थिति बता दी।

राजा चंद्रसेन भी कई दिनों से सत्यशील को उदास और दु:खी देख रहे थे, किंतु कारण से अज्ञान थे। माली ने उन्हें पूरी बात बता दी। तब राजा ने सत्यशील को बुलाया और उसे साथ लेकर उस कन्या से मिलने समुद्री यात्रा पर निकल पड़े। एक स्थान पर समुद्र से ध्वज निकलने लगा और सत्यशील ने राजा को बताया कि इसी स्थान पर समुद्र के नीचे स्वर्ण महल स्थित है, जहाँ उसकी उस कन्या से भेंट हुई थी।

सत्यशील और राजा ने वहाँ पानी में छलांग लगा दी और गहराई में उतरते चले गये. वहाँ उन्हें एक स्वान महल दिखाई पड़ा और कात्यायनी देवी का मंदिर। दोनों ने वहाँ देवी माँ की स्तुति की। कुछ देर बाद उसी सुंदर कन्या ने सखियों के साथ मंदिर में प्रवेश किया और स्तुति करने के बाद द्वार खोलकर उद्यान में चली गई।

राजा चंद्रसेन और सत्यशील भी उद्यान में चले गये और विचरण करने लगे। जब कन्या की दृष्टि उन पर पड़ी, तो उसे वे श्रेष्ठ पुरुष प्रतीत हुए। उसने अपनी सखियों को उन्हें बुलाने के लिए भेजा।

सखियाँ आया और राजा चंद्रसेन से बोली, “हे महापुरुष! हमारी राजकुमारी ने आपको अपना आतिथ्य स्वीकार करने बुलाया है। कृपा पधार कर हमें कृतार्थ करें।“

राजा चंद्रसेन ने आतिथ्य अस्वीकार करते हुए कहा, “हम यहाँ देवी दर्शन के लिए आये थे। वो हम कर चुके, अब हम वापस प्रस्थान करेंगे। इसलिए हमारे लिए कोई कष्ट न करें।“

तब स्वयं वह कन्या राजा के पास आई और हाथ जोड़कर उनसे आतिथ्य स्वीकार करने का निवेदन करने लगी। राजा ने इस बार उसका आतिथ्य स्वीकार कर लिया। वह उन्हें एक द्वार से एक अन्य नगरी में ले गई। वहाँ का वैभव देख राजा चंद्रसेन और सत्यशील दंग रह गये।

कन्या उन्हें एक विशाल स्वर्ण महल ले गई और वहाँ राजा चंद्रसेन को एक राज सिंहासन पर बिठाया. फिर हाथ जोड़कर बोली, “महाराज! मैं असुरराज कालनेमि की पुत्री हूँ। भगवान विष्णु के चक्र से वे मृत्यु को प्राप्त हुई। उसके बाद से नगरी राजा विहीन है। आप मेरे पिता तुल्य हैं। मेरी आपसे प्रार्थना है कि इस राज्य की बागडोर अपने हाथों लेकर इसका उद्धार करें। यह राज्य ऐसा है, जहाँ वृधावस्था और मृत्यु की बाधा नहीं है। यहाँ सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं।“

राजा चंद्रसेन बोले, “पुत्री! तुमने मुझे पिता तुल्य माना है, तो मैं चाहता हूँ कि तुम सत्यशील से विवाह कर लो। यह एक वीर और धैर्यवान पुरुष है। यह मुझे अतिप्रिय है। यह तुमसे प्रेम करता है और विवाह का इच्छुक है। वही तुम्हारे साथ इस नगरी की बागडोर संभालेगा“

असुर राजकुमारी ने राजा चंद्रसेन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उसके बाद वहीँ सत्यशील और उसका धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ। कुछ दिन उस नगर में रहने के उपरांत राजा ने नगर की बागडोर सत्यशील को सौंप दी और वहाँ से विदा ली। उसके जाने के पूर्व असुर राजकुमारी ने उन्हें एक फल दिया, जिसके खाने से व्यक्ति को वृद्धावस्था छू भी नहीं पाती और एक ‘अपराजित’ नामक खड्ग दिया, जिसे धारण करने वाले को कोई पराजित नहीं कर सकता।

उसके बाद राजा ने एक सरोवर ने डुबकी लगाईं और अपने राजमहल पहुँच गया। सत्यशील असुर राजकुमारी के साथ समुद्रलोक की दोनों नगरी का राजपाट संभालने लगा और आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। इस प्रकार राजा चंद्रसेन ने सत्यशील द्वारा किये उपकार को चुकाया।

इतनी कहानी सुनाकर बेताल ने विक्रम से कहा, “राजन्! बता समुद्र में डुबकी लगाने में राजा चंद्रसेन और सत्यशील में से अधिक साहसी कौन था? यदि उत्तर जानते हुए भी तूने उत्तर नहीं  दिया, तो तेरे सिर के टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे।”

विक्रम ने उत्तर दिया, “दोनों में सत्यशील अधिक साहसी था।”

बेताल ने पूछा, “‘कैसे?”

विक्रम ने कहा, “राजन्! सत्यशील ने जब समुद्र के पास पानी में ध्वज देखा, तो वहाँ खतरे की संभावना होते हुए भी अपने प्राणों की चिंता किये बिना पानी में कूद गया। दूसरी तरफ राजा को पहले से ही ज्ञात था कि वहाँ पानी में कोई खतरा नहीं है। इसलिए सत्यशील अधिक साहसी था।”

विक्रम के उत्तर देते ही बेताल यह कहते हुए उड़ गया, “तू बोला और मैं चला।”

वह फिर से मसान के उसी पेड़ पर लटक गया। विक्रम भी उसके पीछे गया और उसे पेड़ से उतारकर कंधे पर लाद लिया और चलने लगा। बेताल रास्ता काटने के लिए फिर से एक कहानी सुनाने लगा।

Previous Story | Next Story | Complete Betal Pachchisi

Friends, आपको “Vikram Betal Seventh Story In Hindi” कैसी लगी? आप अपने comments के द्वारा हमें अवश्य बतायें. “Betal Pachchisi Seventh Story In Hindi” पसंद आने पर Like और Share करें. ऐसी ही अन्य Hindi Kahaniyan पढ़ने के लिए हमें Subscribe कर लें. Thanks.

पढ़ें : 

भारत और विश्व की प्रसिद्ध लोक कथायें

पंचतंत्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ

शेख चिल्ली की मज़ेदार कहानियाँ

मुल्ला नसरुद्दीन की कहानियाँ  

About the author

Editor

Leave a Comment