पुण्य किसका : विक्रम बेताल की तीसरी कहानी | Vikram Betal Third Story In Hindi

फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम विक्रम बेताल की तीसरी कहानी (Vikram Betal Ki Teesri Kahani) शेयर कर रहे हैं. बेताल रास्ता काटने के लिए राजा विक्रम को तीसरी कहानी सुनता है. यह वीरवर नामक राजपूत की स्वामीभक्ति की कहानी है, जो रूपसेन नामक राजा का अंगरक्षक था. पढ़िए पूरी बेताल पच्चीसी की तीसरी कहानी :   

Vikram Betal Ki Teesri Kahani

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Vikram Betal Ki Teesri Kahani
Vikram Betal Ki Teesri Kahani

बहुत समय पहले रूपसेन नामक राजा वर्धमान नगर में शासन किया करता था। एक दिन उसके दरबार में एक राजपूत आया। उसका नाम वीरवर था। उसने राजा से कहा कि उसे वह अपने अंगरक्षक के रूप में रख ले।

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राजा ने पूछा, “इसके प्रतिफल में तुम क्या लोगे?”

वीरवर बोला, “महाराज, मैं प्रतिदिन हज़ार तोले सोना लूंगा।”

राजा चकित रह गया। उसने पूछा, “तुम्हारे परिवार में कौन-कौन हैं?”

वीरवर ने उत्तर दिया, “पत्नी, एक पुत्र और एक पुत्री।”

मात्र चार लोगों के परिवार के खर्च के लिए हजार तोला अत्यधिक था। फिर भी राजा ने वीरवर की मांग स्वीकार कर उसे अपना अंगरक्षक रख लिया। राजा ने कोषाध्यक्ष को आदेश दे दिया कि वीरवर को प्रतिदिन हजार तोले सोना दे दिया करे।

उस दिन के उपरांत से वीरवर जब आवश्यकता हो राजा की सेवा में उपस्थित रहता। पूरी रात उसके कक्ष में उसकी रखवाली करता। इसके बदले प्रतिदिन उसे हजार तोला सोना मिल जाया करता था। उसमें से आधा हिस्सा वह ब्राह्मणों में वितरित कर देता। शेष हिस्से के दो भाग करता। एक भाग सन्यासियों, वैरागियों और अतिथियों में बांट देता और दूसरे हिस्से से भोजन तैयार करवाकर पहले परिवार के लोगों को भोजन करवाता, फिर स्वयं भोजन करता। इसी तरह दिन व्यतीत हो रहे थे।

एक रात राजा को किसी के रोने कि आवाज़ की आवाज़ सुनाई पड़ी। राजा ने वीरवर को आदेश दिया, “जाओ पता करके आओ कि कौन रो रहा है!”

वीरवर आवाज़ की दिशा में जाने लगा। आवाज़ एक मसान से आ रही थी। वह मसान में पहुँचा, तो देखा कि वहाँ आभूषणों से लदी एक स्त्री ज़ोर-ज़ोर से सिर पीटकर रो रही है, किंतु उसकी आँखों से आँसू नहीं गिर रहे।

वह उसके पास गया और पूछा, “देवी! आप कौन हैं और क्यों रो रही हैं?”

स्त्री ने उत्तर दिया, “मैं राज लक्ष्मी हूँ। मैं राजा रूपसेन के दुर्भाग्य पर रो रही हूँ। कुछ दिनों बाद मैं उसका महल छोड़कर चली जाऊंगी, क्योंकि वहाँ अधर्म के कार्य हो रहे हैं। वो दरिद्र हो जायेगा और दु:खी राजा एक माह के भीतर ही मर जायेगा।”

“देवी इसके बचने का क्या कोई उपाय है?” वीरवर ने पूछा।

राज लक्ष्मी बोली, “हाँ है! पूर्व दिशा में जंगल में देवी का एक मंदिर है। यदि तुम वहाँ अपने पुत्र का शीश चढ़ा दो, तो राजमहल पर दरिद्रता का साया नहीं पड़ेगा और वह सौ वर्ष की आयु तक जीवित रहेगा।”

उसके बाद वीरवर अपने घर आ गया और सोई हुई पत्नी को जगाकर सारी बात बताई। उसके पुत्र की आँख भी खुल गई थी। उसने भी सारी बात सुन ली। वह उठकर बैठ गया और अपने पिता से बोला, “पिताजी! आप नि:संकोच मेरा शीश काटकर देवी के मंदिर में चढ़ा दीजिये। आपकी हर आज्ञा सिरोधार्य है। उस पर अपने राजा के काम आना और देवी के समक्ष अपने प्राण न्योछावर करने से बड़ा कौन सा पुण्य होगा।”

वीरवर ने पत्नी से पूछा, तो वह बोली, “अपने पति की हर आज्ञा का पालन करना पत्नी का धर्म है। आप जो भी निर्णय लेंगे, मेरी सहमति उसमें होगी।”

उसके बाद बिना किसी विलंब किये चारों जंगल के मंदिर पहुँचे। वहाँ हाथ जोड़कर चारों देवी माँ की प्रतिमा के सामने खड़े हो गये।

वीरवर बोला, “देवी माँ मैं अपने पुत्र का शीश तुझे समर्पित करता हूँ। मेरे राजा को सौ वर्ष का जीवन प्रदान करें।”

उसके बाद उसने खांडे के वार से अपने पुत्र का शीश धड़ से अलग कर दिया। यह देख उसकी पुत्री ने दु:खी होकर उसी खांडे से अपना शीश भी काट दिया। अपने पुत्र और पुत्री की जीवन लीला समाप्त होते देख माँ से न रहा गया, उसने भी अपने प्राण त्याग दिये। अपना परिवार समाप्त होता देख वीरवर ने सोचा कि अब जीवन क्या अर्थ और उसने भी उसी खंडे से अपना शीश काट लिया।

अगले दिन जब यह समाचार राजा को प्राप्त हुआ, तो वह उसी मंदिर में पहुँचा। वहाँ वीरवर के पूरे परिवार का शव देख वह बहुत दु:खी हुआ। वह सोचने लगा कि उसके कारण उसकी प्रजा के चार लोगों ने अपने प्राण त्याग दिये। ऐसे राजा होने का क्या लाभ। वह भी अपनी तलवार से अपना शीश कटने को हुआ, तभी देवी माँ प्रकट हुई और उसे रोक कर बोली, “राजन , रुक जाओ। अपने प्राण मत दो। अपनी प्रजा के प्रति तुम्हारा प्रेम देख मैं अतिप्रसन्न हूँ। मुझसे जो चाहे, वरदान मांग लो।”

राजा ने वीरवर और उसके परिवार का जीवन मांगा। देवी ने तथास्तु कहा और वीरवर का परिवार जीवित हो गया।

इतनी कहानी सुनाकर बेताल रुक गया, फिर विक्रम से पूछा, “बता राजन! सबसे ज्यादा पुण्य किसको मिला? यदि जानते हुए भी तूने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया, तो तेरे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”

विक्रम को उत्तर ज्ञात था, वह बोला, “सबसे ज्यादा पुण्य राजा को मिला।”

“क्यों?” बेताल ने पूछा।

“इसलिए क्योंकि स्वामी के लिए सेवक द्वारा प्राण अर्पित कर देना उसका धर्म है। किंतु सेवक के लिए स्वामी द्वारा अपने प्राण अर्पण करना बहुत बड़ी बात है। इसलिए सबसे ज्यादा पुण्य राजा को मिला।”

विक्रम के उत्तर देते ही बेताल हवा में उड़ते हुए बोला, “तू बोला और मैं चला।”

वह फिर से मसान के उसी पेड़ पर जाकर लटक गया। विक्रम भी उसके पीछे-पीछे मसान तक गया और उसे पेड़ से उतारकर अपनी पीठ पर लाद लिया। उसने फिर से यात्रा प्रारंभ की और बेताल उसे नई कहानी सुनाने लगा।

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