सॉइचिरो होंडा की सफलता की कहानी, Soichiro Honda Success Story In Hindi, Soichiro Honda Ki Safalta Ki Kahani
“सफ़लता आपके कार्य के उस एक प्रतिशत को प्रदर्शित करती है, जो आपकी 99 प्रतिशन असफ़लता के परिणामस्वरुप प्राप्त हुई है.” – Soichiro Honda
गाँव की गलियों में फोर्ड टाइप-ए मॉडल कार (Ford Model-A Car) के पीछे बेतहाशा भागते हुए एक धूल-धूसरित बच्चे ने वैसी ही फर्राटे से दौड़ने वाली कार बनाने का स्वप्न देखा, जो 1958 में ‘होंडा मोटर कंपनी लिमिटेड’ (Honda Motor Company Limited) की स्थापना के साथ पूर्ण हुआ. प्रसिद्ध उद्योगपति सॉइचिरो होंडा (Soichiro Honda) के द्वारा स्थापित यह मल्टीबिलियनर कंपनी विश्व की सर्वश्रेष्ठ मोटर साइकिल निर्माता कंपनी के साथ विश्व की अग्रणी कार निर्माता कंपनियों में से एक है.
प्रसिद्ध उद्योगपति और ‘होंडा मोटर कंपनी लिमिटेड’ (Honda Motor Company Limited) के संस्थापक सॉइचिरो होंडा (Soichiro Honda) की कहानी कभी हार न मानने वाले एक जुझारू व्यक्ति की कहानी है, जो न कभी परिस्थितियों का गुलाम हुआ, न ही जीवन की विषमताओं के समक्ष हार मानकर बैठा. फिर वह धन का अभाव हो या शिक्षा की कमी, शारीरिक चोट हो या प्राकृतिक आपदा से उत्पन्न हुई तबाही, संसाधनों का अभाव हो या तकनीकी ज्ञान की कमी, अस्वीकृति की निराशा हो या फिर प्रतिस्पर्धा का तनाव – कोई भी दुर्गमता सफ़लता के पथ पर उसकी बाधक नहीं बन पाई. आइये जानते हैं सॉइचिरो होंडा की जीवनी और सफ़लता की कहानी (Soichiro Honda Biography And Success Story In Hindi) :
Short Biography Of Soichiro Honda
Name | Soichiro Honda |
Born | 17 November 1906 |
Place Of Birth | Hamamatsu, Japan |
Died | 5 August 1991 |
Nationality | Japanese |
Occupation | Founder Of Honda Motor Company |
17 नवंबर 1906 को जापान के हामामात्सु के कोमयो गाँव (वर्तमान में तेन्रयू शहर) में जन्मे सॉइचिरो होंडा (Soichiro Honda) अपने माता-पिता की पहली संतान थे. उनके पिता गिहेई होंडा (Gihei Honda) एक दक्ष लोहार थे. किंतु नवीन कार्यों के प्रति रोमांच और परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने की चेष्टा में वे लोहारी के अतिरिक्त अन्य कार्यों में भी अपने हाथ अजमाया करते थे. उनकी पत्नि मीका होंडा (Mika Honda) बुनाई कर परिवार चलाने में उनकी मदद किया करती थी. परिवार की आर्थिक स्थिति साधारण थी, किंतु जीवन संतोषप्रद था.
उन दिनों जापान (Japan) में आवागमन के साधन के तौर पर साइकिल का प्रचलन बढ़ने लगा था. अपनी किस्मत आजमाने के लिए गिहोई होंडा ने भी गाँव में साइकिल की एक छोटी सी दुकान खोल ली. वे बिगड़ी हुई साइकिलें कम दाम पर ख़रीदकर लाते और उनकी मरम्मत कर बेचा करते थे. धीरे-धीरे लोग उनकी दुकान में साइकिल खरीदने आने लगे और उनकी दुकान चल निकली.
सॉइचिरो होंडा (Soichiro Honda) बचपन से ही अपने पिता के कार्यों में उनका हाथ बंटाया करते थे, फिर चाहे वो गढ़ाई हो या साइकिल रिपेयरिंग. कार्य के प्रति रोमांच, सीखने की ललक और फिर पूर्ण अनुशासन व तन्मयता के साथ कार्य में जुट जाने का गुण होंडा को अपने पिता से ही विरासत में प्राप्त हुआ था. पिता की साइकिल की दुकान में उन्हें अपनी इंजीनियरिंग कला को निखारने का सुअवसर भी प्राप्त हो गया था. वे भांति-भांति के प्रयोगों द्वारा अपनी कला को निखारने का प्रयास किया करते थे.
5-6 वर्ष के होने तक होंडा ने कार नहीं देखी थी. एक बार एक व्यक्ति उनके गाँव में फोर्ड मॉडल-टी कार (Ford Model-T Car) लेकर आया. पहली बार कार देख रहे होंडा जिज्ञासावश जैसे ही उसे छूने उसके करीब पहुँचे, धुएं का गुबार छोड़ते हुए वह चल पड़ी. धूल-धूसरित होंडा तब तक उसके पीछे दौड़ते रहे, जब तक वह उनकी नज़रों से ओझल न हो गई. गैसोलीन की वह गंध उनके रोम-रोम में बस गई थी. उस पल उन्होंने खुली आँखों से एक सपना देखा – सड़कों पर फ़र्राटे से दौड़ने वाली कार बनाने का और यह उनके जीवन का लक्ष्य बन गया.
होंडा ने फ्यूतामाता सीनियर एलेमेंट्री स्कूल (Futamata Senior Elementary School) में 8 जमात तक की पढ़ाई की. पढ़ाई में कमज़ोर थे. इसलिए कक्षा में पिछली बेंच पर बैठा करते थे, ताकि शिक्षकों की नज़रों से बच सके. जब वे 15 वर्ष के हुए, तो एक दिन अख़बार में सहायक के पद के लिए टोकियो की ‘आर्ट शोकाई ऑटो रिपेयर शॉप’ (Art Shokai Auto Repaire Shop, Tokyo) के एक विज्ञापन पर उनकी नज़र पड़ी. विज्ञापन पढ़कर उन्हें महसूस हुआ कि उनके सपनों को दिशा देने का मार्ग यहीं से होकर गुजरता है और वे अपनी पढ़ाई, परिवार तथा गाँव छोड़कर टोकियो (Tokyo) चले गए.
टोकियो पहुँचकर उन्हें ज्ञात हुआ कि आर्ट शोकाई ऑटो रिपेयर शॉप (Art Shokai Auto Repaire Shop, Tokyo) में अब मात्र साफ़-सफाई कर्मचारी की जगह ही शेष है. साफ़-सफाई करते हुए रिपेयरिंग सीखने का अवसर प्राप्त हो सकेगा, इस आशा में वे वहीं रूककर साफ़-सफ़ाई का काम करने लगे.
वे छुप-छुपकर मैकेनिकों को कार की रिपेयरिंग करते हुए देखा करते थे और जब कोई आस-पास न हो, तब कार को नज़दीक से जाकर छूकर देखा करते थे. कई महिनों तक वे उस दिन का इंतज़ार करते रहे, जब उन्हें रिपेयरिंग कार्य सीखने का अवसर प्राप्त होगा. किंतु वर्कशॉप के मालिक सिनिची साकीबहारा रिपेयरिंग के बारे में सिखाना तो दूर, उन्हें कार के समीप भी जाने नहीं देते थे.
समय गुजरने के साथ होंडा की उम्मीदें टूटने लगी. उन्हें महसूस होने लगा कि जिस आशा से वे अपनी पढ़ाई, परिवार और गाँव छोड़कर टोकियो आये हैं, वह कभी पूर्ण नहीं हो पाएंगी. वे अन्यत्र काम की तलाश में जाने के बारे में सोचने लगे. फिर एक दिन उनके दिमाग में विचार आया कि हो सकता है कि अब तक अपने काम से वे मालिक को प्रभावित न कर पाए हों, क्यों न कुछ समय यहीं रूककर अधिक मेहनत से काम किया जाए, ताकि मालिक की उनके काम पर दृष्टि पड़े और वे उन्हें रिपेयरिंग का काम सिखाने राजी हो जाये. इस सोच के साथ उन्होंने अन्यत्र जाने का विचार त्याग दिया.
दूसरे दिन से वे वर्कशॉप की फर्श को और अधिक चमकाने लगे तथा ऑटो शॉप को और अधिक साफ़-सुथरा रखने लगे. आखिरकार, उनकी मेहनत और लगन पर ऑटो शॉप के मालिक साकीबहारा की दृष्टि पड़ ही गई और वह उन्हें रिपेयरिंग का प्रशिक्षण प्रदान करने राज़ी हो गए.
उस दौर में अधिकांश ऑटोमोबाइल व्यवसाय विदेशी कंपनियों द्वारा चलाये जाते थे. इन कंपनियों का कारोबार संभालने के लिए दूसरे देशों में होस्ट हुआ करते थे. इस कारण ‘आर्ट शोकाई ऑटो रिपेयर शॉप’ में सभी प्रकार की ऑटोमोबाइल्स रिपेयरिंग के लिए आती थी, जिनकी रिपेयरिंग द्वारा उनके बारे में सीखने का अवसर होंडा को अवसर प्राप्त हुआ और वे इसमें माहिर होते चले गए.
उनके मालिक ने उन्हें न सिर्फ़ ऑटोमोबाइल रिपेयरिंग की तकनीक का प्रशिक्षण दिया, बल्कि व्यवसाय संबंधी बारीकियों और ग्राहकों से डील करने के तरीकों की भी जानकारी दी. इस प्रकार आर्ट शोकाई ऑटो रिपेयर शॉप होंडा के लिए एक आदर्श प्रशिक्षण स्थल साबित हुआ और सिनिची साकीबहारा एक आदर्श गुरू, जिनकी छत्रछाया में लगभग ६ साल तक प्रशिक्षण प्राप्त करते हुए होंडा कार्बुरेटर से लेकर ट्रांसमिशन तक ऑटोमोबाइल संबंधी हर बारीकियाँ सीखकर कार की रिपेयरिंग और डिज़ाइनिंग में निपुण हो गये.
1923 में टोकियो में एक विनाशकारी भूकंप आया, जिसमें लगभग एक लाख लोगों की जान चली गई. ‘आर्ट शोकाई ऑटो वर्कशॉप’ तहस-नहस हो गया और लगा उसके साथ होंडा के सपने भी. भूकंप के उपरांत मैकेनिक पुनर्निवास में अपने परिवार की मदद करने गैराज का काम छोड़ अपने-अपने गाँव लौटने लगे और गैराजों में काम करने के लिए मैकेनिकों की कमी पड़ने लगी. होंडा अपने गाँव वापस नहीं लौटे, बल्कि वहीं रुके रहे.
जब साकीबहारा ने ‘आर्ट शोकाई वर्कशॉप’ के तहस-नहस होने के बाद एक अस्थायी वर्कशॉप का निर्माण किया, तो अन्य कोई विकल्प न देख होंडा को वहाँ का प्रमुख मैकेनिक बना दिया. वहाँ भूकंप में क्षतिग्रस्त कारों को रिपेयर कर बेचा जाता था.
नए वर्कशॉप में साकीबहारा ने अपने छोटे भाई, होंडा व कुछ मैकेनिकों की टीम बनाकर रेसिंग कार (Racing Car) की डिज़ाइनिंग प्रारंभ की. उनके द्वारा निर्मित पहली कार ‘Art Daimler’ थी, जिसे सेकंड हैंड Daimler Engine से बनाया गया था.
दूसरी कार ‘Curtiss’ थी, जिसमें अमरीकन Curtiss “Jenny” A1 biplane को अमरीकन कार मिटशेल (Mitchell) के चेसिस में फिट करके बनाया था. जब १९२४ की जापान की मोटर कार चैम्पियनशिप में इस कार को उतारा गया, तो इस रेस में होंडा राइडिंग मैकेनिक के तौर पर शामिल हुए. उनकी टीम इस चैम्पियनशिप की विजेता रही और इस जीत के साथ ही होंडा के मन में स्पोर्ट्स कार व मोटर रेसिंग के प्रति जूनून जाग गया.
1928 तक ‘आर्ट शोकाई ऑटो रिपेयर शॉप’ जापान का मशहूर ऑटो रिपेयर शॉप बन गया था. तब तक होंडा भी अपना प्रशिक्षण पूर्ण कर चुके थे. साकीबहारा उनसे बहुत प्रभावित थे. इसलिए जब व्यवसाय का विस्तार करते हुए उन्होंने देश के विभिन्न क्षेत्रों में अपने वर्कशॉप की शाखाएं खोली, तो उन्हें हमामत्सु शाखा (Hamamatsu Branch) का मैनजर बना दिया. वहाँ होंडा ने हर प्रकार की कार रिपेयर की और अच्छी आय अर्जित कर ली. एक कर्मचारी से प्रारंभ हुई यह शाखा प्रगति करते हुए 30 कर्मचारियों तक विस्तृत हो गई. सब कुछ अच्छा चलने लगा, तो होंडा (Soichiro Honda) ने एक स्कूल शिक्षिका सची (Sachi) से विवाह कर लिया. अब उनका जीवन संतोषप्रद था.
1923 के भूकंप के बाद होंडा यह समझ चुके थे कि कार में मजबूत एवं टिकाऊ स्पेयर पार्ट्स की आवश्यकता है. इस समस्या के निदान के लिए वे नए-नए प्रयोगों और अविष्कारों में लग गये. उन्होंने लकड़ी के स्पोक के स्थान पर कास्ट आयरन के स्पोक का निर्माण किया. नेशनल इंडस्ट्रियल एक्स्जिबिशन में प्रशंषा प्राप्त होने के उपरांत होंडा का आत्मविश्वास बढ़ गया और वे कास्ट आयरन स्पोक का दूसरे देशों में निर्यात करने लगे.
मोटर रेसिंग कारों के प्रति होंडा की दीवानगी अब भी कम नहीं हुई थी. 1936 में जापान की पहली रेस ‘तामागावा स्पीड-वे’ (Tamagawa Speed-way) पर वे ह्मामत्सु शाखा की बनी रेसिंग कार के साथ प्रतिभागी बने. किंतु दुर्भाग्य से कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई और कार में सवार उनके छोटे भाई और वे स्वयं चोटिल हो गए. इस दुर्भाघना के उपरांत पत्नि के कहने पर उन्होंने कार रेसिंग में भाग लेना छोड़ दिया.
होंडा मात्र कार रिपेयरिंग के कार्य से संतुष्ट नहीं थे. वे रेसिंग कार निर्माण की तरह ही कुछ नवीन रोमांच की तलाश में थे. उन्होंने पिस्टन रिंग का निर्माण करने का लक्ष्य अपने समक्ष रखा. वे टोयोटा कॉरपोरेशन (Toyota Corporation) में पिस्टन रिंग के मॉस सप्लायर बनना चाहते थे.
उन्होंने ह्ममात्सु शाखा को पिस्टन रिंग निर्माण की एक पृथक कंपनी बनाने का विचार पूंजी निवेशकों के समक्ष रखा. किंतु निवेशकों को अच्छी आय प्रदान कर रहे रिपेयरिंग कार्य को छोड़कर निर्माण के क्षेत्र में कूदने का निर्णय बचकाना प्रतीत हुआ. वे उनके विचार से सहमत नहीं हुए. होंडा के इरादे भी अटल थे, उन्होंने अपने एक परिचित सिचिरो काटो से मदद प्राप्त की और उन्हें प्रेसिडेंट बनाकर ‘Tokai Seiki Heavy Industry’ प्रारंभ कर ली.
दिन में वे आर्ट शोकाई में काम किया करते और रात में पिस्टन रिंग (Piston Ring) निर्माण के लिए प्रयोग किया करते थे. किंतु रात-दिन की मेहनत के बाद भी वे पिस्टन रिंग का निर्माण करने में असमर्थ रहे. पिस्टन रिंग का कम्पोजीशन उनकी मुख्य समस्या थी, जिसके निदान के लिए वे हमामात्सु टेक्निकल स्कूल (Hamamatsu Technical School) के प्रोफेसर टाकाशी टिशिरा से मिले, जिन्होंने उन्हें मेटलर्जी सीखने की सलाह दी. होंडा भी जान चुके थे कि ज्ञान का अभाव ही उनके राह का रोड़ा है. अतः 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने ‘हामामात्सु टेक्निकल स्कूल’ (Hamamatsu Technical School) में मेटलर्जी की शिक्षा प्राप्त करने के लिए दाखिला ले लिया. स्कूल के किशोरवय विद्यार्थी उन्हें देखकर हँसते और उनका मज़ाक उड़ाते थे. लेकिन होंडा इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए और ज्ञान अर्जन में लगे रहे. डिप्लोमा प्राप्त करने का भी उनका कोई इरादा नहीं था. अतः वे परीक्षा में भी नहीं बैठे.
आखिरकार उन्होंने पिस्टन रिंग बनाने में सफ़लता प्राप्त कर ली. जिसके उपरांत ‘आर्ट शोकाई हामामात्सु शाखा’ एक प्रशिक्षु के हवाले कर वे ‘Tokai Seiki Heavy Industry’ कंपनी के प्रेसिडेंट बन गए, जहाँ पिस्टन रिंग का निर्माण कर उसके ५५ सैंपल उन्होंने टोयोटा मोटर कॉरपोरेशन लिमिटेड (Toyota Motor Corporation Limited) को भेजे, लेकिन मात्र ३ पिस्टन रिंग ही क्वालिटी टेस्ट पास कर सके. होंडा फिर असफ़ल हो गए थे, पर हौसला बनाये रखते हुए वे फिर से मेहनत में जुट गए.
पिस्टन रिंग निर्माण की तकनीक सीखने के लिए 2 साल तक वे जापान के विभिन्न महा-विद्यालयों और स्टील मेकिंग कंपनियों में भ्रमण करते रहे. 2 साल उपरांत वे उस स्थिति में आ सके, जब उनके द्वारा निर्मित पिस्टन रिंग टोयोटा मोटर कॉरपोरेशन लिमिटेड (Toyota Motor Corporation Limited) का क्वालिटी टेस्ट पास कर सका. अब वे न केवल ‘टोयोटा मोटर कॉरपोरेशन लिमिटेड’ बल्कि ‘नाकाजीमा एयरक्राफ्ट कंपनी’ में भी पिस्टन रिंग के मास सप्लायर बन गए. उनकी कंपनी प्रगति करती गई. कंपनी की सर्वोच्च स्थिति में कंपनी में 2000 कर्मचारी कार्यरत थे.
1939 के द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) में होंडा को एक बड़ी चुनौती का करना पड़ा. उनकी कंपनी के पुरूष कर्मचारी युद्ध में भेज दिए गये. पुरुष कर्मचारियों की कमी से कंपनी का कार्य प्रभावित होने लगा. स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि उनकी कंपनी के 40% शेयर ‘टोयोटा मोटर कॉरपोरेशन लिमिटेड’ के हाथ में आ गए. अपनी ही कंपनी में वे प्रेसिडेंट पद से हटाकर सीनियर मैनेजिंग डायरेक्टर बना दिए गये. इस स्थिति से निपटने के लिए होंडा ने ऑटोमेटिक पिस्टन रिंग प्रोडक्शन मशीन का निर्माण किया. निप्पन गाक्की (वर्तमान में यामाहा) के प्रेसिडेंट काइची कावाकामी के निवेदन पर उन्होंने आटोमेटिक मिलिंग मशीन का भी निर्माण किया, जिससे 30 मिनट में दो प्रोपेलर का निर्माण किया जा सकता था. पहले इसी कार्य में एक सप्ताह का समय लगता था.
द्वितीय विश्व युद्ध में अमरीका के हवाई हमले से होंडा का हममात्सु और यामासीता स्थित प्लांट तबाह हो गया. किंतु इस विषम परिस्थिति में बुद्धिमानी का परिचय देते हुए होंडा ने अमरीकी फाइटर शिप/प्लेन द्वारा फेंके गए गैसोलीन कैन का उपयोग कर इटावा में जाकर प्लांट का पुनर्निर्माण किया और छोटे स्तर पर पिस्टन रिंग का उत्पादन कर युद्ध के दौरान अपनी कंपनी को जीवित रख पाए. लेकिन 1945 को आये भूकंप में टोकियो सहित कई औद्योगिक नगर तबाह हो गए. सारे खेत जल चुके थे, पूरे जापान में बर्बादी का आलम थे. होंडा के प्लांट भी नष्ट हो चुके थे. उधर द्वितीय विश्व युद्ध में भी जापान की हार हो गई, जिससे वहाँ मंदी का दौर प्रारंभ हो गया. स्थिति को भांपते हुए होंडा ने अपना रहा-सहा बिज़नेस ‘टोयोटा मोटर कॉरपोरेशन लिमिटेड’ को बेच दिया और प्राप्त पैसों से एक अल्कोहल टैंक खरीदा, जिसे अपने घर के प्रांगण में स्थापित कर पूरे साल दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करते रहे. लेकिन अधिक समय तक वे ऐसे नहीं रह सकते थे. अतः कई जगह कार्य खोजने की कोशिश की, किंतु असफ़ल रहे.
विश्व युद्ध के उपरांत गैसोलीन की कमी हो जाने से उसकी राशनिंग होने लगी. कार चलाने के लिए पर्याप्त गैसोलीन उपलब्ध न होने के कारण बस तथा ट्रेन में यात्रियों की संख्या ने वृद्धि हो गई. जिससे जापान में आवागमन की समस्या खड़ी हो गई. अब बस तथा ट्रेन खचाखच भरी रहती, शहर में कहीं भी आना-जाना एक बड़ी समस्या बन गई थी. लोग पैदल या साइकिल का उपयोग करने बाध्य हो गए. यह स्थिति देख होंडा के दिमाग में एक नया विचार कौंधा. उन्होंने युद्ध में अमरीकी विमानों द्वारा फेंकी गई सामग्रियों में से एक छोटे इंजन को अपनी साइकिल में लगाकर ‘मोटर बाइक’ (Motor Bike) बना ली.
जब वे इस मोटर बाइक में शहर में निकले, तो इस नई चीज़ ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया. इसमें फ्यूल की खपत कम थी और कम दूरी को कम कीमत तथा सीमित समय में तय करने के लिए यह एक अच्छा साधन साबित हो सकता था. फिर क्या था? लोग ऐसी मोटर बाइक की डिमांड लेकर होंडा के पास आने लगे. उस समय होंडा के समक्ष पूंजी की समस्या थी, जिसका समाधान निकालते हुए उन्होंने जापान के कई साइकिल विक्रेताओं को अपने इस व्यवसाय में पूंजी निवेश करने के प्रस्ताव का पत्र लिखा. कुछ निवेशकों से प्राप्त पूंजी के दम पर 1946 में होंडा ने एक फैक्ट्री प्रारंभ की, जिसका नाम था – होंडा टेक्नोलॉजी रिसर्च इंस्टिट्यूट (Honda Technology Research Institute). वहाँ वे मोपेड की डिजाइनिंग में जुट गए. उन्होंने आर्मी रेडियो के छोटे से जनरेटर इंजन को साइकिल में लगाकर, रबर हॉट वाटर बॉटल का फ्यूल टैंक की तरह उपयोग कर एक मोपेड तैयार किया और उसे ‘चू-चू’ नाम देकर लगभग १५०० मोपेड बेचे.
1947 में होंडा (Soichiro Honda) ने स्वयं का टू-स्ट्रोक इंजन डिजाईन कर मॉडल-ए टाइप मोटर साइकिल (Model-A Type Motor Cycle) बनाई. १९४९ में उनका यह इंस्टिट्यूट ‘होंडा मोटर कंपनी’ (Honda Motor Company) बन गया. मॉडल-ए टाइप के उपरांत बाज़ार में आई अगली मोटर साइकिल ने जापान की टू-व्हीलर इंडस्ट्रीज को बदल कर रख दिया. तब तक होंडा समझ चुके थे कि एक अच्छे प्रॉडक्ट को एक अच्छी मार्केटिंग नीति की आवश्यकता होती है. अपनी मार्केटिंग नीति के तहत उन्होंने इस नए मॉडल को ‘द ड्रीम टाइप डी’ (The Dream Type-D) नाम दिया. ‘द ड्रीम’ टैग से वे अधिक से अधिक ग्राहकों को आकर्षित करना चाहते थे. उनकी नीति कारगर रही और लोगों के मध्य उनका यह मॉडल बेहद लोकप्रिय रहा.
होंडा इंजीनियरिंग में तो दक्ष थे, किंतु बिज़नस व फाइनेंस में कमज़ोर. फलस्वरुप कंपनी के खर्चे उनके नियंत्रण के बाहर होने लगे. कंपनी नुकसान में जाने लगी और उसकी आर्थिक स्थिति गिरने लगी, जिस पर लगाम लगा पाना होंडा के सामर्थ्य से बाहर हो गया. ऐसे समय में एक दिन किस्मत से स्वयं के ही प्लांट में होंडा की मुलाकात टिकोई फुज़ीसोवा से हुई. रूचि एक समान होने के कारण दोनों घंटों चर्चा में लीन रहे और चर्चा के अंत में दोनों ने ‘होंडा मोटर कंपनी’ (Honda Motor Company) को संभालने व सँवारने के लिए हाथ मिला लिया. फुज़ीसोवा ने बिज़नस की जिम्मेदारी संभाल ली और होंडा ने रिसर्च व डेवलपमेंट की.
अपनी बिज़नेस नीति के तहत फुज़ीसोवा ने होंडा को कस्टमर की सुविधा को दृष्टिगत रखकर हल्की मोटर बाइक बनाने का सुझाव दिया. जिसके उपरांत 50 सी.सी. और 5.5 सी.सी. हॉर्स पॉवर की 4 स्ट्रोक टाइप-ई मोटर साइकिल (4 Stroke Type-E Motor Cycle) को बाज़ार में उतारा गया. बाज़ार में आते ही इस बाइक ने उन लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया, जो महंगी कार खरीद सकने में असमर्थ थे. इस बाइक की मांग इतनी बढ़ गई कि कंपनी को नई फैक्ट्री और रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैब बनाने पड़ गये. 1955 में कंपनी पब्लिक कर दी गई.
पब्लिक ऑफरिंग के बाद कंपनी अपनी स्थिति मजबूत करते हुए 1956 तक जापान की मुख्य मोटर साइकिल निर्माता कंपनी बन गई और साथ ही होंडा और फुज़ीसोवा मिलियनर बन गये. 1950 के दशक के अंत में हुए कोरियाई युद्ध (Korean War) के दौरान अमरीकी फौज़ ने अच्छी गुणवत्ता, मजबूती और कम मेंटेनेंस कॉस्ट के कारण होंडा कंपनी को अपना लॉजिस्टिक पार्टनर बना लिया. अब होंडा कंपनी की बिक्री आसमान छूने लगी. जापान की शिपिंग व स्टील इंडस्ट्रीज को भी युद्ध के दौरान काफी लाभ हुआ. इस तरह देश के आर्थिक विकास में भी होंडा कंपनी ने एक अभूतपूर्व योगदान दिया.
जापान में सफ़ल होने के उपरांत होंडा अपनी बाइक को विदेशी बाज़ार में ले जाना चाहते थे. अतः उन्होंने 1959 में यू०एस० के मार्केट में कदम रखा, जहाँ मोटर बाइक ‘Harley Davidson & Indian’ का बोलबाला था. कंपनी का हेड ऑफिस लॉस एंजेलिस (Los Angeles) में स्थापित किया गया. किंतु होंडा की बाइक यू०एस० मार्केट में खलबली नहीं मचा सकी. वहाँ के लोगों का मानना था कि केवल पुलिस और क्रिमिनल ही बाइक चलाते हैं. ऐसे में यू०एस० के ग्राहकों की मनोवृत्ति में परिवर्तन लाया जाना आवश्यक था. अतः वहाँ के ग्राहकों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए एक नवीन मार्केटिंग नीति अपनाते हुए वे अपनी कंपनी की बाइक हर हार्डवेयर स्टोर, स्पोर्ट्स इक्विपमेंट स्टोर, सुपर मार्केट में प्रदर्शित करने लगे. ताकि वहाँ के युवाओं को आकर्षित कर सकें.
उनकी यह नीति काम कर गई और जब 1958 में बनाई गई 4.5 एच.पी. क्षमता वाले 50 सी.सी. इंजन की सुपर बाइक यू०एस० में रि-लांच की गई, तो उसने अमरीकी युवाओं में अपनी पैठ बना ली. हल्की और चलाने में आसान होने एक कारण यह बाइक महिलाओं में ख़ासी लोकप्रिय हो गई. पहले साल होंडा की बिक्री 15000 यूनिट की थी. यह यू०एस० में किसी भी विदेशी कंपनी की एक असाधारण सफ़लता थी. किंतु होंडा का लक्ष्य प्रति माह 15000 यूनिट बिक्री का था. जब इस संबंध में उन्होंने फुज़ीसोवा से चर्चा की, तो फुज़ीसोवा ने मार्केटिंग का एक गैर परंपरागत तरीका सुझाया. होंडा ने उसे अमल में लाते हुए अपनी सुपर बाइक को ट्रकों में लदवाकर विभिन्न शहरों में घुमवाया और लोगों के घरों में जाकर बाइक बेचने लगे. वितरण का यह तरीका काम कर गया और कंपनी की बिक्री बढ़ गई.
एक दिन होंडा (Soichiro Honda) अपनी कंपनी के रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेक्शन का दौरा कर रहे थे. तब वहाँ की टीम ने उनके समक्ष बाइक रेसिंग में हिस्सा लेने की इच्छा व्यक्त की, जिसे सुनकर होंडा का रेसिंग के प्रति उत्साह पुनः जाग जाया. बाइक रेसिंग के माध्यम से वे अपनी कंपनी द्वारा निर्मित बाइक्स की तकनीकी सीमाओं को समझना चाहते थे, जिससे वे उनमें सुधार लाकर उन्हें और उन्नत कर सकें.
1959 की बाइक रेस में होंडा की टीम ने हिस्सा लिया और अपने प्रतिद्वंद्वियों को खुली चुनौती दे डाली. लेकिन प्रारंभिक वर्षों की रेसिंग प्रतियोगितायें होंडा की टीम के लिए जीत की सौगात लेकर नहीं आई. उनकी बाइक्स के इंजन का बार-बार ब्रेक-डाउन होता रहा, साथ ही तकनीकी समस्याओं भी दिखाई पड़ी. लेकिन असफ़लतायें होंडा के लिए सीखने का ज़रिया थी. वे लगातार अपनी बाइकों में सुधार करते गए और अपनी टीम का हौसला कभी गिरने नहीं दिया. आखिर वह समय भी आया, जब उनकी टीम 125 और 250 सी.सी. ग्रुप की रेस में प्रथम 5 पायदानों पर विजेता रही.
इसके उपरांत अमरीकी होंडा कंपनी एकेडमी अवार्ड और सुपरबॉल की प्रायोजक बनकर सबकी आँखों का तारा बन गई और उसकी बिक्री एक माह में ही 1 लाख के आंकड़े को पार कर गई. कंपनी ने अपना नया स्लोगन भी बनाया – ‘यू मीट दि नाइसेस्ट पीपल इन होंडा’ (You meet the nicest people in Honda) – जिसने भी कंपनी के ग्राफ को और ऊँचा उठाया. होंडा ने ग्लोबल मार्केट में विजय प्राप्त कर ली थी, किंतु उनके कदम वहीं पर नहीं थमे. अब वे नई चुनौतियों के लिए तैयार थे. उन्होंने कार निर्माण के क्षेत्र में उतरने की घोषण कर दी. उनके पास संसाधन थे, तकनीकी दक्षता और योग्यता थी. अतः उनका यह निर्णय स्वाभाविक था.
होंडा (Soichiro Honda) अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सस्ती और तेज कारों का निर्माण करना चाहते थे. उस समय जापान की ट्रेड एंड कॉमर्स इंडस्ट्रीज किसी भी नई ऑटोमोबाइल निर्माण यूनिट को लाइसेंस नहीं दे रही थी, जो एक बड़ी समस्या बनकर होंडा के समक्ष खड़ी थी. होंडा ने पालिसी मेकर को इस बाबत मनाये जाने तक कार रेसिंग में उतरने का निर्णय लिया, ताकि तकनीकी दृष्टि से कारों में सुधार लाया जा सके. साथ ही वह स्वयं को साबित करने का सुअवसर भी था. 1964 की फार्मूला वन कार रेसिंग का पहला वर्ष होंडा के लिए निराशाजनक रहा. उसके अगले वर्ष भी यही स्थिति रही. अनवरत हार से वे यह सोचने पर विवश हो गए कि कहीं उनकी सफ़लता मात्र मोटर बाइक तक ही सीमित तो नहीं?
किंतु उन्होंने मोटर स्पोर्ट्स में हिस्सा लेना जारी रखा. अनवरत प्रयास का परिणाम ये हुआ कि 1967 की मैक्सिकन ग्रैंड प्रिक्स में उन्होंने विजय पताका लहराई. इटालियन ग्रैंड प्रिक्स में भी उन्हें विजय प्राप्त हुई. फार्मूला-टू-रेस में उनकी टीम ने ११ सीधी विजय प्राप्त की. मोटर स्पोर्ट्स के जरिये होंडा की कंपनी अपनी तकनीक विकसित कर रही थी. इस बीच किसी तरह उन्होंने जापानी मिनिस्ट्री से छोटी कारों की मैन्युफैक्चरिंग यूनिट के लाइसेंस की अनुमति प्राप्त कर ली. जिसके उपरांत वे रिसर्च और डिजाईन में लग गए.
अपने यूरोपियन दौरे में वे फियेट कार से बेहद प्रभावित हुए. यह कार आकार में छोटी थी, जिस कारण ट्रैफिक में सरलता से हैंडल की जा सकती थी और यह पार्किंग में भी कम स्थान घेरती थी. साथ ही फ्यूल एफिसिएंट भी थी. इससे प्रेरणा प्राप्त कर होंडा ने ‘होंडा सिविक’ का निर्माण किया. अमरीकी पर्यावरण नियमों पर खरा उतरने के उपरांत इस कार की बिक्री इतनी तीव्रता से बढ़ी कि यह शीघ्र ही अमरीका की नंबर एक कार बन गई. 1973 में होंडा कंपनी ने ओहियो के मारिसविले में अपना प्लांट स्थापित किया, जिसके उपरांत एक से बढ़कर एक कारों के मॉडल लांच किये गये जैसे एक्युरा, इंटिरा और द लीजेंड. होंडा की पहली सुपर कार एक्युरा एन.एस.एक्स. थी.
अपनी कंपनी की 25 वीं वर्षगांठ पर होंडा और फज़िसावा दोनों रिटायर हो गए और कंपनी की कमान युवा पीढ़ी के हाथों में सौंप दी. होंडा कंपनी के ब्रांड एम्बेसडर बने रहे. उनकी मृत्यु 5 अगस्त 1991 को लीवर कैंसर से हुई. किंतु अपने पीछे वे अपने विचार, जीवन-मूल्य और आत्मा होंडा मोटर कंपनी के नाम छोड़ गए.
आज होंडा कंपनी न केवल तेज कारों और मोटर बाइक्स का निर्माण कर रही है, बल्कि रोबोटिक्स, एविएशन, मल्टी यूटिलिटी इंजन और रेसिंग मशीन के निर्माण में भी संलग्न है. कंपनी के नए युवा इंजिनियर्स, रिसर्चर्स तथा मैनेजर्स आज भी होंडा (Soichiro Honda) के विज़न का अनुसरण करते हैं. कंपनी का पॉवर वाक्य ‘पॉवर ऑफ़ ड्रीम’ आज भी होंडा के सपनों को परिभाषित करता है.
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