Panchatantra Story In Hindi

पंचतंत्र की तीन कहानियाँ | Panchatantra Ki Teen Kahaniyan

फ्रेंड्स, इस पोस्ट में  हम पंचतंत्र की तीन कहानियाँ (Panchatantra Ki Teen Kahaniyan) पंचतंत्र की 3 कहानियाँ शेयर कर रहे हैं.

Panchatantra Ki Teen Kahaniyan

Panchatantra Ki Teen Kahaniyan

Panchatantra Ki Teen Kahaniyan

कबूतर का जोड़ा और शिकारी 

एक निर्जन स्थान में एक व्याध रहता था उसके परिजनों और सगे-संबंधियों ने उसका त्याग कर दिया था. वे उसके जीव-हत्या के कार्य से अप्रसन्न थे. उन्होंने उससे कई बार जीव हत्या का त्याग करने की प्रार्थना की. किंतु, व्याध नहीं माना. अंततः वे सब उससे दूर हो गए.

व्याध को शिकार में बड़ा आनंद आता था. वह अपना अधिकांश समय पशु-पक्षियों के शिकार में व्यतीत किया करता था. दिन भर वह जाल और लाठी लेकर वन में भटकता रहता था. वह दिन पर दिन निर्दयी और क्रूर होता जा रहा था.

एक दिन उसने जाल बिछाकर एक कबूतरी को फांस लिया. उसे लेकर प्रसन्नतापूर्वक वह अपने घर की ओर प्रस्थान करने लगा कि बीच रास्ते में बादल घिर आये और वर्षा होने लगी. वर्षा के जल से व्याध पूर्णतः भीग गया. वह सर्दी से ठिठुरने लगा.

वह वर्षा से बचने के लिए आश्रय ढूंढने लगा कुछ ही दूर पर उसे पीपल का क वृक्ष दिखाई पड़ा. उसमें एक बड़ा सा खोल था, जिसमें एक मनुष्य घुसकर बैठ सकता था. व्याध ने सोचा कि कुछ देर के लिए यहाँ शरण लेना उचित होगा.

वह खोल में घुस गया और बोला, “इस खोल में रहने वाले जीव मैं यहाँ कुछ देर आश्रय ले रहा हूँ. आशा है तुम्हें कोई आपत्ति नहीं होगी. इस सहायता के लिए मैं आजीवन तुम्हारा ऋणी रहूंगा.”

उस खोल उस कबूतरी का पति रहता था, जिसे व्याध ने पकड़ लिया था. वह अपने पत्नी के बिछड़ जाने के कारण दु:खी था और विलाप कर रहा था.

कबूतरी ने जब स्वयं के प्रति अपने पति का प्रेम देखा, तो भावुक हो गई. वह मन ही मन सोचने लगी कि मैं कितनी भाग्यशाली हूँ, जो मुझे इस जीवन में ऐसा प्रेम करने वाला पति मिला. इन्हें पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया.

वह अपने पति से बोली, “स्वामी! विलाप मत करो. मैं यहीं हूँ. इस व्याध ने मुझे जाल में पकड़ लिया है. कदाचित ये मेरे कर्मों का फ़ल है. किंतु, आप मेरी चिंता में व्याकुल ना हो. अपना कर्तव्य निभाते हुए शरण में आये अतिथि की सेवा-सत्कार करो. अन्यथा, तुम पाप के भागी बनोगे.

कबूतरी की बात मानकर कबूतर व्याध से बोला, “वधिक, आपका स्वागत है. आप यहाँ निःसंकोच विश्राम करें. यदि आपको किसी प्रकार का कष्ट हो, तो मुझे बताएं. मैं उसके निवारण का हर संभव प्रयास करूंगा.”

व्याध बोला, “मैं वर्षा के जल में भीग गया हुआ. मुझे ठंड लग रही है. कुछ ताप की व्यवस्था कर दो.”

कबूतर ने लकड़ियाँ जमा की और उसे जला दिया. अतिथि आग सेंकने लगा और उसकी ठंड दूर हो गई.

फिर कबूतर ने सोचा कि अतिथि अवश्य भूखा होगा. मुझे इसके लिए भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए. किंतु, उस समय उसके पास अन्न का एक दाना नहीं था. वह विचार करने लगा कि क्या करूं कि अतिथि की भूख शांत कर सकूं.

कुछ देर विचार करने के बाद उसने निर्णय लिया कि अब तो कबूतरी भी मेरे साथ नहीं है. मैं जीवित रहकर क्या करूंगा? मुझे अपने ही शरीर त्याग कर व्याध का भोजन बन जाना चाहिए. यह सोचकर वह आग में कूद गया.

उसका ये बलिदान देख, व्याध की आत्मा व्याकुल हो गई. वह आत्म-ग्लानि में डूब गया और मन ही मन स्वयं को धिक्कारने लगा. उसी क्षण उसने कबूतरी को मुक्त कर दिया.     

कबूतरी ने जब अपने पति को आग में जलता हुआ देखा, तो विलाप करने लगी और कहने लगी कि ये मेरे कर्मों का फल है, जिसकी सजा आपको मिली. अब मैं अकेली इस संसार में जीकर क्या करूंगी?

कबूतरी ने भी आग में कूदकर अपने प्राणों का त्याग कर दिया. कबूरत और कबूतरी का ये बलिदान देख व्याध की आँखें खुल गई. उसने उसी समय जीव-हत्या त्याग देने का प्रण किया.


एक निर्जन स्थान में एक व्याध रहता था उसके परिजनों और सगे-संबंधियों ने उसका त्याग कर दिया था. वे उसके जीव-हत्या के कार्य से अप्रसन्न थे. उन्होंने उससे कई बार जीव हत्या का त्याग करने की प्रार्थना की. किंतु, व्याध नहीं माना. अंततः वे सब उससे दूर हो गए.

व्याध को शिकार में बड़ा आनंद आता था. वह अपना अधिकांश समय पशु-पक्षियों के शिकार में व्यतीत किया करता था. दिन भर वह जाल और लाठी लेकर वन में भटकता रहता था. वह दिन पर दिन निर्दयी और क्रूर होता जा रहा था.

एक दिन उसने जाल बिछाकर एक कबूतरी को फांस लिया. उसे लेकर प्रसन्नतापूर्वक वह अपने घर की ओर प्रस्थान करने लगा कि बीच रास्ते में बादल घिर आये और वर्षा होने लगी. वर्षा के जल से व्याध पूर्णतः भीग गया. वह सर्दी से ठिठुरने लगा.

वह वर्षा से बचने के लिए आश्रय ढूंढने लगा कुछ ही दूर पर उसे पीपल का क वृक्ष दिखाई पड़ा. उसमें एक बड़ा सा खोल था, जिसमें एक मनुष्य घुसकर बैठ सकता था. व्याध ने सोचा कि कुछ देर के लिए यहाँ शरण लेना उचित होगा.

वह खोल में घुस गया और बोला, “इस खोल में रहने वाले जीव मैं यहाँ कुछ देर आश्रय ले रहा हूँ. आशा है तुम्हें कोई आपत्ति नहीं होगी. इस सहायता के लिए मैं आजीवन तुम्हारा ऋणी रहूंगा.”

उस खोल उस कबूतरी का पति रहता था, जिसे व्याध ने पकड़ लिया था. वह अपने पत्नी के बिछड़ जाने के कारण दु:खी था और विलाप कर रहा था.

कबूतरी ने जब स्वयं के प्रति अपने पति का प्रेम देखा, तो भावुक हो गई. वह मन ही मन सोचने लगी कि मैं कितनी भाग्यशाली हूँ, जो मुझे इस जीवन में ऐसा प्रेम करने वाला पति मिला. इन्हें पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया.

वह अपने पति से बोली, “स्वामी! विलाप मत करो. मैं यहीं हूँ. इस व्याध ने मुझे जाल में पकड़ लिया है. कदाचित ये मेरे कर्मों का फ़ल है. किंतु, आप मेरी चिंता में व्याकुल ना हो. अपना कर्तव्य निभाते हुए शरण में आये अतिथि की सेवा-सत्कार करो. अन्यथा, तुम पाप के भागी बनोगे.

कबूतरी की बात मानकर कबूतर व्याध से बोला, “वधिक, आपका स्वागत है. आप यहाँ निःसंकोच विश्राम करें. यदि आपको किसी प्रकार का कष्ट हो, तो मुझे बताएं. मैं उसके निवारण का हर संभव प्रयास करूंगा.”

व्याध बोला, “मैं वर्षा के जल में भीग गया हुआ. मुझे ठंड लग रही है. कुछ ताप की व्यवस्था कर दो.”

कबूतर ने लकड़ियाँ जमा की और उसे जला दिया. अतिथि आग सेंकने लगा और उसकी ठंड दूर हो गई.

फिर कबूतर ने सोचा कि अतिथि अवश्य भूखा होगा. मुझे इसके लिए भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए. किंतु, उस समय उसके पास अन्न का एक दाना नहीं था. वह विचार करने लगा कि क्या करूं कि अतिथि की भूख शांत कर सकूं.

कुछ देर विचार करने के बाद उसने निर्णय लिया कि अब तो कबूतरी भी मेरे साथ नहीं है. मैं जीवित रहकर क्या करूंगा? मुझे अपने ही शरीर त्याग कर व्याध का भोजन बन जाना चाहिए. यह सोचकर वह आग में कूद गया.

उसका ये बलिदान देख, व्याध की आत्मा व्याकुल हो गई. वह आत्म-ग्लानि में डूब गया और मन ही मन स्वयं को धिक्कारने लगा. उसी क्षण उसने कबूतरी को मुक्त कर दिया.     

कबूतरी ने जब अपने पति को आग में जलता हुआ देखा, तो विलाप करने लगी और कहने लगी कि ये मेरे कर्मों का फल है, जिसकी सजा आपको मिली. अब मैं अकेली इस संसार में जीकर क्या करूंगी?

कबूतरी ने भी आग में कूदकर अपने प्राणों का त्याग कर दिया. कबूरत और कबूतरी का ये बलिदान देख व्याध की आँखें खुल गई. उसने उसी समय जीव-हत्या त्याग देने का प्रण किया.


साधु और चूहा 

दक्षिण भारत के महिलारोप्य नामक नगर में भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर था. मंदिर की देखभाल, पूजा-पाठ और अन्य समस्त कार्यों की ज़िम्मेदारी एक साधु के जिम्मे थी, जो उसी मंदिर के प्रांगण में स्थित एक कक्ष में रहा करता था.

साधु की दिनचर्या भोर होते ही प्रारंभ हो जाती, जब वह स्नान कर मंदिर में आरती संपन्न करता और फ़िर गाँव में भिक्षा मांगने निकल जाता. गाँव के लोग साधु को बहुत मानते थे, इसलिए भिक्षा में अपने सामर्थ्य से अधिक ही दिया करते थे.

साधु भिक्षा में प्राप्त अनाज से स्वयं के लिए भोजन बनाता, कुछ मंदिर में काम करने वाले निर्धन मजदूरों में बांट देता और शेष एक पात्र में सुरक्षित रख देता था.

उसी मंदिर के प्रांगण में एक चूहा भी बिल बनाकर रहता था. वह रोज़ रात साधु के कक्ष में आता और पात्र में रखे अनाज में से कुछ अनाज चुरा लेता. जब साधु को चूहे की करतूत के बारे में ज्ञात हुआ, तो वह पात्र को एक ऊँचे स्थान पर लटकाकर रखने लगा. लेकिन इसके बाद भी चूहा किसी न किसी तरह पात्र तक पहुँच जाता. उसमें इतनी शक्ति थी कि वह छलांग लगाकर इतनी ऊँचाई पर रखे पात्र तक आसानी से पहुँच जाता था. 

इसलिए, चूहे को भगाने के लिए साधु अपने साथ एक छड़ी रखने लगा. जब भी चूहा पात्र के पास पहुँचने का प्रयास करता, वह छड़ी से वार कर उसे भगाने का प्रयास करता. हालांकि, बहुत प्रयासों के बाजवूद अवसर पाकर चूहा कुछ न कुछ पात्र से चुरा ही लेता था.

एक दिन एक सन्यासी मंदिर में दर्शन के लिए आये. वे साधु से मिलने उसके कक्ष में गए. साधु ने उनका स्वागत किया और दोनों बैठकर वार्तालाप करने लगे. परन्तु, साधु का पूरा ध्यान सन्यासी की बातों में नहीं था. वह हाथ में छड़ी पकड़े हुए था और उससे बार-बार जमीन को ठोक रहा था.

अपनी बातों के प्रति साधु का विरक्त भाव देख सन्यासी क्रुद्ध हो गए और बोले, “प्रतीत होता है कि मेरे आगमन से तुम्हें कोई प्रसन्नता नहीं हुई. मुझसे भूल हो गई, जो मैं तुमसे मिलने आ गया. अब मैं कभी यहाँ नहीं आऊंगा.”

सन्यासी का क्रोध देख साधु क्षमा मांगने लगा, “क्षमा गुरुवर क्षमा, मैं कई दिनों से एक चूहे से परेशान हूँ, जो रोज़ मेरे द्वारा भिक्षा में लाये अनाज को चुरा लेता है. अनाज के पात्र को ऊँचे स्थान पर लटकाकर मैं छड़ी से जमीन को ठोकता रहता हूँ, ताकि चूहा डर से यहाँ न आये. किंतु, वह किसी न किसी तरह पात्र में से अन्न चुरा ही लेता है. उस चूहे के कारण मैं आपकी ओर पूर्णत: ध्यान नहीं दे पाया. क्षमा करें.”

सन्यासी साधु की परेशानी समझ गया और बोला, “अवश्य ही वह चूहा शक्तिशाली है, तभी इतनी ऊँचाई पर रखे पात्र तक छलांग लगाकर अन्न चुरा लेता है. हमें उसकी शक्ति के पीछे का रहस्य पता करना होगा.”

“शक्ति का रहस्य??” साधु बोला.

“हाँ, उस चूहे ने अवश्य कहीं अनाज संचित कर रखा होगा. वही उसके आत्मविश्वास का कारण है. उससे ही उसका भयहीन है और शक्ति का अनुभव करता है और इतना ऊँचा कूद पाता है.”

साधु और सन्यासी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि किसी भी तरह चूहे के बिल को ढूंढना होगा और उसके अनाज के भंडार तक पहुँचना होगा. अगली सुबह दोनों ने चूहे का पीछा करने का निश्चय किया.

प्रातः दोनों चूहे का पीछा करते हुए उसके बिल के प्रवेश द्वार तक पहुँच गए. सन्यासी ने साधु से कहा, “इस बिल की खुदाई करो.”

साधु ने कुछ मजदूरों को बुलवाया. फिर उस समय जब चूहा बिल में नहीं था, मजदूरों द्वारा बिल की ख़ुदाई की गई. खुदाई में वहाँ अनाज का विशाल भंडार मिला, जो चूहे द्वारा चुराकर वहाँ एकत्रित किया गया था. सन्यासी के कहने पर साधु ने वह सारा अनाज वहाँ से हटवा दिया.

इधर जब चूहा अपने बिल में लौटा, तो सारा अनाज नदारत देख दु:खी हो गया. उसका सारा आत्मविश्वास चला गया. कुछ दिनों तक वह साधु के पात्र में से अनाज चुराने नहीं गया. किंतु, वह कब तक भूखा रहता?

एक दिन अपना आत्मविश्वास बटोरकर वह साधु के कक्ष में गया और वहाँ छत पर लटके अनाज के पात्र तक पहुँचने के लिए छलांग लगाने लगा. किंतु, उसकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी. कई बार छलांग लगाने पर भी वह पात्र तक पहुँच नहीं पाया.

अवसर देख साधु ने उस पर छड़ी से ज़ोरदार वार किया. चूहा किसी तरह अपने प्राण बचाकर घायल अवस्था में वहाँ से भागा. उसके बाद वह कभी न मंदिर गया न ही साधु के कक्ष.

सार

साधन संपन्न व्यक्तियों में अपने संसाधनों के कारण उच्च आत्म-विश्वास और आत्मबल होता है. किंतु, संसाधनों का अभाव उनका आत्म-विश्वास और आत्मबल क्षीण कर देता है और वे कमज़ोर पड़ जाते हैं. इस स्थिति में उन पर नियंत्रण प्राप्त करना और उन्हें पराजित कर पाना सरल हो जाता है.

चार ब्राहमण और शेर 

एक नगर में एक ब्राह्मण रहता था. उसके चार पुत्र थे. तीनों बड़े ब्राह्मण पुत्रों द्वारा शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया गया था, परन्तु बुद्धि की उनमें कमी थी. चौथे ब्राह्मण पुत्र को शास्त्र-ज्ञान नहीं था, परन्तु वह बुद्धिमान था.

एक दिन चारों भाई भविष्य की चर्चा करने लगे. बड़ा भाई बोला, “हमने इतनी विद्या अर्जित की है. किंतु, जब तक इसका उपयोग न किया जाये, यह व्यर्थ है. सुना है, हमारे राज्य के राजा विद्वानों का बड़ा सम्मान करते हैं. क्यों न हम राज-दरबार जाकर उन्हें अपने ज्ञान से प्रभावित करें? पुरूस्कार स्वरुप वह अवश्य हमें अपार धन-संपदा प्रदान करेंगे.”

सभी भाइयों को यह बात उचित प्रतीत हुई और अगले ही दिन वे राजा से मिलने चल पड़े. उन्होंने आधा रास्ता ही पार किया था कि बड़ा भाई कुछ सोचते हुए बोला, “हममें से तीन के पास विद्या है. हम राजा के पास जाकर उनसे धन अर्जित करने के पात्र हैं. किंतु, सबसे छोटा बुद्धिमान तो है, पर उसके पास विद्या नहीं है. मात्र बुद्धि के बल पर राजा से धन का अर्जन संभव नहीं है. हम इसे अपने हिस्से में से कुछ नहीं देंगे. इसका घर लौट जाना ही उचित होगा.”

दूसरे भाई ने भी बड़े भाई का समर्थन किया, किंतु तीसरा भाई बोला, “यह हमारा भाई है. हम सब साथ पले-बढ़े हैं. इसलिए इसके साथ ऐसा व्यवहार अनुचित होगा. इसे साथ चलने देना चाहिए. मैं अपना कुछ धन इसे दे दूंगा.”

अंत में, सभी सहमत हो और आगे की यात्रा प्रारंभ की.

मार्ग में एक घना जंगल पड़ा. जंगल से गुजरते हुए उन्हें शेर की हड्डियों का ढेर दिखाई पड़ा. उसे देखकर बड़ा भाई बोला, “भाइयों, आज अपनी विद्या का परीक्षण करने का समय आ गया है. देखो, इस मृत शेर को. हमें अपनी-अपनी विद्या का प्रयोग कर इसे जीवित करना चाहिए.”

सबसे बड़े भाई ने शेर की हड्डियों को इकट्ठा कर उसका ढांचा बना दिया. दूसरे भाई ने अपनी सिद्धि से हड्डियों के ढांचे पर मांस चढ़ाकर रक्त का संचार कर दिया. तीसरा भाई अपनी विद्या से शेर में प्राणों का संचार करने आगे बढ़ा, तो चौथे भाई ने उसे रोक दिया और बोला, “भैया, कृपा कर ऐसा अनर्थ मत कीजिये. यदि यह शेर जीवित हुआ, तो हम सबके प्राण हर लेगा.”

यह सुनकर तीसरा भाई क्रोधित हो गया, वह बोला, “मूर्ख, तुम्हारे साथ चलने का समर्थन कर कदाचित् मैंने त्रुटि कर दी है. तुम चाहते हो कि मैं अपनी विद्या नष्ट कर दूं. किंतु, ऐसा कतई नहीं होगा. मैंने इस शेर को अवश्य जीवित करूंगा.”

चौथा भाई बोला, “क्षमा करें भैया. मेरा अर्थ यह कतई नहीं था. आपको जो उचित लगे करें. बस मुझे किसी वृक्ष पर चढ़ जाने दें.”

यह कहकर वह एक ऊँचे वृक्ष पर चढ़ गया. तीसरे भाई ने अपने विद्या से शेर को जीवित कर दिया. परन्तु, जैसे ही शेर जीवित हुआ, उसने तीनों भाइयों पर आक्रमण कर उन्हें मार डाला.

चौथा भाई, जिसने बुद्धि का प्रयोग किया था, वह वृक्ष पर बैठा यह सब देख रहा था. वह वृक्ष से तब तक नहीं उतरा, जब तब शेर चला नहीं गया. सिंह के जाने के बाद वह वृक्ष से उतरा और गाँव लौट गया.

शिक्षा

बुद्धि सदैव विद्या से श्रेष्ठ होती है. शास्त्रों में निपुण होने पर भी लोक-व्यवहार न जानने वाला व्यक्ति हमेशा उपहास का पात्र बनता है या समस्या को आमंत्रित करता है.

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