राजा दुष्यंत और शकुंतला की प्रेम कथा | Raja Dushyant And Shakuntala Love Story In Hindi

दोस्तों, इस लेख में हम राजा दुष्यंत और शकुंतला की प्रेमकथा (Raja Dushyant Aur Shakuntala Ki Prem Kahani) प्रस्तुत कर रहे हैं.  महाकवि कालिदास की रचना ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ इस कथा पर ही आधारित है. मूल रूप से इस कथा का वर्णन महाभारत के ‘आदिपर्व’ में मिलता है. यह कथा ‘पद्मपुराण’ में भी वर्णित है. 

Dushyant Aur Shakuntala Ki Prem Kahani

Dushyant Aur Shakuntala Ki Prem Kahani
Dushyant Aur Shakuntala Ki Prem Kahani

शकुंतला स्वर्ग की अप्सरा मेनका और ऋषि विश्वामित्र की पुत्री थी. ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने देवराज इंद्र ने अप्सरा मेनका को भेजा था. मेनका ने अपने रूप और यौवन से ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग कर दी और दोनों के संसर्ग से ‘शकुंतला’ का जन्म हुआ.

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जन्म उपरांत ही मेनका ने शकुंलता का त्याग कर उसे वन में छोड़ दिया. शकुंत नामक पक्षी से नवजात शकुंलता की रक्षा कर कण्व ऋषि अपने आश्रम ले आये और पक्षी के नाम पर उसका नाम शकुंतला रख दिया. आश्रम में ही शकुंतला का पालन-पोषण हुआ. युवा होने पर शकुंतला अपनी माँ मेनका की तरह ही रूपसी हुई.

एक दिन आखेट खेलते हुए हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत वन में आये और कण्व ऋषि के दर्शन की अभिलाषा में उनके आश्रम पधारे. द्वार से ही उन्होंने ऋषि को पुकारा. पुकार सुनकर शकुंतला बाहर आई. शकुंतला के रूप को देखकर राजा दुष्यंत मुग्ध हो गये.

शकुंतला ने उन्हें बताया कि कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा पर गए हैं. जब राजा दुष्यंत ने शकुंतला का परिचय मांगा, तो शकुंलता ने बताया कि वह कण्व ऋषि की पुत्री है. कण्व ऋषि आजन्म ब्रह्मचारी थे. अतः शकुंलता का परिचय सुन राजा दुष्यंत आश्चर्य में पड़ गए. तब शकुंतला ने अपने जन्म और त्याग की कथा का वर्णन करते हुए बताया कि वह कण्व ऋषि की दत्तक पुत्री है.

शकुंतला को देखते ही राजा दुष्यंत उस पर मोहित हो गए और उसके प्रेम में पड़ गए. इधर शकुंतला ने भी उन्हें अपना ह्रदय अर्पित कर दिया.  इसलिए जब राजा ने उसके समक्ष विवाह प्रस्ताव रखा, तो उसने स्वीकार कर लिया. वन में ही दोनों का गंधर्व विवाह हुआ.

विवाह के उपरांत कुछ समय तक राजा दुष्यंत शकुंतला के साथ आश्रम में ही रहे. किंतु राज-पाट के दायित्व के कारण उन्हें राजमहल लौटना था. उन्होंने शकुंतला को वचन दिया कि कण्व ऋषि के लौटने पर वह उसे विदा कर महल ले जायेंगे. प्रेम के प्रतीक स्वरुप उन्होंने शकुंतला को स्वर्ण मुद्रिका प्रदान की और हस्तिनापुर लौट गए.

इस बीच एक दिन कण्व ऋषि के आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे और पुकार लगाई. राजा दुष्यंत के विचारों में खोई शकुंलता उनकी पुकार सुन नहीं पाई, जिसे दुर्वासा ऋषि ने अपना अपमान समझ लिया और शकुंतला को श्राप दे दिया कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा अपमान किया है, वह तुझे भूल जायेगा.

दुर्वासा ऋषि का श्राप सुनकर शकुंलता का ध्यान टूटा और वह अपने विचारों की दुनिया से बाहर आई. वह ऋषि के चरणों में गिर पड़ी और क्षमा याचना करने लगी. तब दुर्वासा ऋषि का ह्रदय द्रवित हुआ और उन्होंने कहा कि मैं अपना श्राप वापस तो नहीं ले सकता. किंतु तुम्हें ये आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे प्रेम का प्रतीक चिन्ह देखकर तुम्हारे प्रेमी को तुम्हारा पुनः स्मरण हो आएगा.

समय व्यतीत हुआ और कण्व ऋषि तीर्थ से आश्रम लौट आये. उनके वापस आने के पूर्व ही शकुंलता गर्भवती हो चुकी थी. उसने कण्व ऋषि को राजा दुष्यंत और स्वयं के गंधर्व विवाह के संबंध में पूरी बात बता दी. कण्व ऋषि उससे बोले कि विवाहित कन्या का अपने पिता के पास रहना उचित नहीं है. उसे अपने पति के घर जाना चाहिए और उन्होंने एक शिष्य के साथ शकुंतला को राजा दुष्यंत के पास भिजवा दिया.

हस्तिनापुर जाने के मार्ग में राजा दुष्यंत द्वारा शकुंतला को दी हुई स्वर्ण मुद्रिका पानी पीते हुए सरोवर में गिर पड़ी और एक मछली द्वारा निगल ली गई. जब शकुंतला राजमहल पहुँची, तो राजा दुष्यंत ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया. दुर्वासा ऋषि के श्राप के प्रभाव के कारण राजा दुष्यंत उसे भूल गए थे. उसी समय स्वर्ग से शकुंतला की माता मेनका आई और उसे अपने साथ ले गई. शकुंतला को कश्यप ऋषि के आश्रम में छोड़ वह वापस इंद्रलोक लौट गई. कश्यप ऋषि के आश्रम में ही शकुंतला ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया.

इधर शकुंतला को भूल चुके राजा दुष्यंत को एक दिन एक मछुवारे ने एक स्वर्ग मुद्रिका लाकर दी. वह स्वर्ण मुद्रिका मछुवारे को उस मछली के पेट में से मिली थी, जिसने वह मुद्रिका निगल ली थी. राज चिन्ह देखकर मछुवारा उसे राजा को लौटने आया था. मुद्रिका देखते ही राजा दुष्यंत की याददाश्त वापस आ गई और उन्हें शकुंलता के बारे में सब स्मरण हो गया. उन्होंने तुरंत सैनिकों को शकुंतला को ढूंढने भेजा. किंतु वे उसे ढूंढ न सके.

स्वर्ग में देवासुर संग्राम छिड़ा हुआ था. देवराज इंद्र के निमंत्रण पर राजा दुष्यंत उनकी सहायता हेतु इंद्र की नगरी अमरावती गए. युद्ध में विजयी होने के उपरांत वे आकाश मार्ग से वापस लौट रहे थे कि उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दिखाई पड़ा और वे उनके दर्शन के लिए रुक गए.

आश्रम के आँगन में राजा दुष्यंत एक सुंदर बालक खेलते हुए दिखा, जिसे देख उनका प्रेम उमड़ आया. वे उसे गोद में उठाने के लिए जैसे ही आगे बढ़ें, शकुंतला की सखी ने उन्हें रोकते हुए कहा, “राजन, इस बालक को न छुए. जो भी इसे छुएगा, इसकी भुजा में बंधा काला धागा नाग बनाकर उसे डस लेगा.”

किंतु राजा दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपनी गोद में उठा लिया. गोद में उठाते ही बालक की भुजा में बंधा काला धागा टूटकर गिर पड़ा. शकुंतला की सखी को ज्ञात था कि जब भी बालक का पिता उसे अपनी गोद में उठाएगा, तो उसकी भुजा में बंधा काला धागा टूटकर गिर जायेगा.

उसने जाकर शकुंतला को पूरी बात बता दी. शकुंतला राजा दुष्यंत के पास गई, तो वे उसे पहचान गए. क्षमा याचना कर उन्होंने उसे राजमहल चलने को कहा. शकुंतला मान गई. फिर कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर वे हस्तिनापुर लौट आये. इस तरह दोनों की प्रेम-कहानी पूर्ण हुई. दोनों के पुत्र का नाम ‘भरत’ था, जो आगे चलकर एक पराक्रमी राजा हुआ और उसके नाम पर भारत का नाम ‘भारतवंश’ पड़ा.


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