एकलव्य की कहानी महाभारत | Eklavya Ki Kahani Mahabharata

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Eklavya Ki Kahani Mahabharata 

Eklavya Ki Kahani Mahabharata 

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एकलव्य की गुरुदक्षिणा की कहानी महाभारत महाकाव्य का हिस्सा है और यह एक प्रमुख नैतिक उपदेश देने वाली कहानी है। एकलव्य का कथा उनके गुरु-दक्षिणा के संदर्भ में है। 

एकलव्य एक निषाद बालक था। वह धनुर्विद्या में प्रवीण होना चाहता था और इसके लिए गुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। एक दिन वह गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचा और अपना शिष्य बना लेने का निवेदन किया। गुरु द्रोण केवल क्षत्रिय राजकुमारों को ही धनुर्विद्या सिखाते थे। इसलिए उन्होंने एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया। एकलव्य लौट गया। 

गुरु द्रोण के द्वारा मना कर देने पर भी उसने धनुर्विद्या को पूरे लगन से सीखने का प्रण किया। उसने मिट्टी से गुरु द्रोण की प्रतिमा का निर्माण किया और उसे अपना गुरु मानकर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा।

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गुरु द्रोण पांडु पुत्र कौरव को धनुर्विद्या की शिक्षा दे रहे थे। एक दिन वे पांचों पांडवों को लेकर जंगल में गए। एक कुत्ता भी उनके साथ था। जंगल में जाकर कुत्ता भौंकते हुए एकलव्य के आश्रम में घुस गया। एकलव्य उस समय गुरू द्रोण की प्रतिमा के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। कुत्ते का भौंकना उसका ध्यान भंग करने लगा। उसने बाणों से कुत्ते का मुंह इस प्रकार बंद कर दिया कि कुत्ते को कोई चोट भी नहीं आई।

कुत्ता जब गुरु द्रोण और पांडवों के पास पहुंचा, तो वे उसे देखकर दंग रह गए। वे उसके साथ एकलव्य के आश्रम में पहुंचे और उसे गुरु द्रोण की प्रतिमा के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता हुआ पाया।

गुरु द्रोण ने उससे पूछा कि क्या कुत्ते का मुंह बाणों द्वारा उसने ही बंद किया है? तो उसने हाथ जोड़कर सिर झुका लिया।

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गुरु द्रोण उसकी धनुर्विद्या से बहुत प्रभावित हुए और उससे पूछा, “तुम्हारा गुरू कौन है?”

एकलव्य ने गुरु द्रोण का नाम लिया। गुरु द्रोण चकित रह गए। उन्होंने कहा, “मैंने तो तुम्हें कभी धनुर्विद्या नहीं सिखाई, तो वह मैं तुम्हारा गुरु कैसे हुआ?”

एकलव्य ने उन्हें बताया कि वह निषाद पुत्र है। इसलिए गुरू द्रोण ने उस धनुर्विद्या की शिक्षा देने से मना कर दिया था। लेकिन वह निराश नहीं हुआ और गुरु द्रोण की प्रतिमा की गुरु मानकर अभ्यास करने लगा। इसलिए उसके गुरु द्रोण ही हैं और जो कुछ उसने सीखा है, उनके ही सानिध्य में सीखा है।

गुरु द्रोण एकलव्य की लगन देखकर प्रभावित हुए। किंतु वे जान गए कि एकलव्य एक महान धनुर्धर है। वह अर्जुन से भी श्रेष्ठ है और गुरु द्रोण अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का वचन दे चुके थे। इसलिए उन्होंने एकलव्य से कहा –

“तुम्हारे अनुसार मैं तुम्हारा गुरु हूं, तो तुम्हें मुझे गुरूदक्षिणा देनी चाहिए।”

एकलव्य ने पूछा, “गुरुवर, आप जो कहें, मैं गुरूदक्षिणा में देने की तैयार हूं।”

गुरु द्रोण ने गुरुदक्षिणा में एकलव्य से उसका अंगूठा मांग लिया। किसी भी धनुर्धर के लिए अंगूठा अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। उसकी ही सहायता से वह धनुष बाण चला पाता है। गुरु द्रोण के अंगूठा मांगने के पीछे की मंशा यही थी कि एकलव्य अर्जुन से अच्छा धनुर्धर न बन पाए।

एकलव्य ने एक क्षण भी न सोचा और अपना अंगूठा काटकर गुरु द्रोण को समर्पित कर दिया। उसके बाद वह बिना अंगूठे के ही धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा और उसमें भी निपुण हो गया।

सीख (Eklavya Katha Moral)

इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि समर्पण, लगन और दृढ़ निश्चय से किसी भी परिस्थिति में कोई भी लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता हैं।

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