श्रेष्ठ 10 हिंदी नैतिक कहानियां | Top 10 Hindi Naitik Kahaniyan

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Hindi Naitik Kahaniyan

Hindi Naitik Kahaniyan

ज्ञान हमेशा झुककर लो नैतिक कहानी

शास्त्रों में पारंगत एक विख्यात पंडित एक वृद्ध साधु के पास गया और बोला, “महात्मा जी! मैं सत्य की खोज में हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।”

साधु ने पूछा, “तुम कौन हो वत्स?”

पंडित बोला, “महात्मा जी! आप मुझे नहीं जानते। मैं कई शास्त्रों में पारंगत पंडित हूँ। इस नगर में मेरी बड़ी प्रतिष्ठा है। किंतु सत्य खोज न सका हूँ। आपसे ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ, ताकि सत्य को पा सकूं।”

साधु बोले, “तुम लिखकर ले लाओ कि तुम क्या जानते हो। जो तुम जानते हो, उसे बताने का कोई औचित्य नहीं। जो तुम नहीं जानते, वो ज्ञान मैं तुम्हें दे दूंगा।”

व्यक्ति लौट गया। उसे शास्त्रों का इतना अधिक ज्ञान था कि उसे लिखते-लिखते तीन वर्ष बीत गए। तीन वर्ष बाद जब वह साधु के पास पहुँचा, तो उसके हाथ में हजार पृष्ठों की पोथी थी।

साधु और वृद्ध हो चले थे, पोथी देखकर बोले, “मेरी आयु हो चली है। इतना तो मैं पढ़ न पाऊंगा। इसका सार लिखकर ले आओ।”

पंडित लौट गया और सार लिखने लगा। इसमें उसे तीन माह लग गए। तीन माह बाद जब वो साधु के पास पहुँचा, तो उसके हाथ में सौ पृष्ठ थे।

साधु बोले, “ये भी बहुत अधिक है। शरीर दुर्बल हो चला हैं। आँखें कमजोर हो चली हैं कि इतना पढ़ पाना भी संभव नहीं। इसे और संक्षिप्त कर आओ।”

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पंडित वापस चला गया और सात दिन बाद एक पृष्ठ में सार सूत्र लिखकर ले आया। साधु मृत्यु शैय्या पर थे। पंडित ने वो एक पृष्ठ साधु की ओर बढ़ाया, तो वे बोले, “मैं तुम्हारी ही बाट जोह रहा था। देख रहे हो कि मेरा अंतिम समय आ चुका है। तुम कब मेरी बात समझोगे। जाओ इसे और संक्षिप्त कर लाओ।”

साधु की बात सुनकर मानो पंडित की आँखें खुल गई। वह तत्काल दूसरे कक्ष में गया और एक कोरा कागज ले आया।

साधु मुस्कुराये और बोले, “इस कोरे कागज़ का अर्थ है कि मैं कोरा हूँ। पूर्णतः खाली…अज्ञानी…अब तुम मेरा ज्ञान प्राप्त करने के योग्य हुए। शिष्य वह है, जो गुरु के समक्ष ये भाव रखे कि वह कुछ नहीं जानता। जो सर्वज्ञाता हो, उसे गुरु की क्या आवश्यकता।”

साधु ने उसे जीवन के सत्य का ज्ञान दिया और प्राण त्याग दिए।

सीख 

मित्रों, ज्ञान सदा अज्ञानी बनकर ही प्राप्त किया जाता है।

मिथ्या अभिमान नैतिक कहानी

एक राज्य में एक पराक्रमी राजा राज करता था। वह एक कुशल योद्धा था और हर युद्ध में विजयी होता था। आस पड़ोस के राज्य के राजा भी उसके पराक्रम का लोहा मानते थे।

एक बार वह एक युद्ध में विजयी होकर अपने नगर लौट रहा था। उसके मंत्री और सैनिक उसके साथ थे।

रास्ते में एक पेड़ के नीचे उसे एक बौद्ध भिक्षुक बैठा दिखा। वह घोड़े से उतरा और भिक्षुक के पास जाकर उनके चरणों पर अपना सिर रख दिया। मंत्री और सैनिक ये दृश्य देख रहे थे। एक मंत्री को अपने राजा का भिक्षुक के चरणों पर शीश झुकाना अच्छा नहीं लगा।

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महल आने के बाद उसने राजा से कहा, “महाराज! आप इतने पराक्रमी राजा हैं। आपने कितने युद्ध जीते। सब आपका लोहा मानते हैं। आपका शीश तो गर्व से तना रहना चाहिए। किंतु आपने एक भिक्षुक के चरणों पर शीश झुका दिया। मुझे ये उचित नहीं जान पड़ा।”

राजा मुस्कुराया, किंतु कुछ बोला नहीं। अगले दिन उसने उस मंत्री को बुलवाया और एक थैला देकर कहा, “इस थैले में चार चीजें रखी हैं। बाज़ार जाओ और इन्हें बेच कर आओ। ध्यान रहे, बाज़ार जाने के पहले इस थैले में झांककर मत देखना।”

मंत्री थैला लेकर बाज़ार चला गया। बाज़ार में जब बेचने के लिए उसने चारों चीज़ें निकाली, तो चकित रह गया। थैले में एक मुर्गी का सिर, एक मछली का सिर, एक बकरी का सिर और एक इंसान का सिर था।

राजा की आज्ञा का पालन उसे करना ही था। उसने मुर्गी का सिर, मछली का सिर और बकरी का सिर तो बेच दिया। किंतु इंसान का सिर खरीदने को कोई तैयार नहीं हुआ। वह उसे बिना बेचे ही राजा के पास लौट आया।

राजा को उसने सारी बात बताई।

राजा ने कहा, “कोई बात नहीं। कल एक प्रयास और करना। अबकी बार तुम बिना कोई मूल्य लिए इंसान का सिर किसी को दे आना।”

अगले दिन मंत्री फिर बाजार गया। पूरे दिन उसने इंसान का सिर मुफ्त में लोगों को देने का प्रयास किया, किंतु मुफ़्त में भी किसी ने वह सिर नहीं लिया।

मंत्री महल लौट आया। वह समझ चुका था कि राजा ने उसे यह काम करने क्यों कहा था। वह राजा के पास पहुंचा, तो राजा ने पूछा, “क्या मेरी मृत्यु के बाद तुम मेरा सिर अपने पास रखोगे।”

मंत्री ने सिर झुका दिया।

राजा ने कहा, “जिस सिर को कोई बिना मोल भी लेना नहीं चाहता, उसे मैंने किसी भिक्षुक के चरणों में झुका दिया, तो क्या हो गया। विनम्रता से झुके मेरे सिर को भिक्षुक का आशीर्वाद तो मिला। स्मरण रखो, मिथ्या अभिमान का कोई अर्थ नहीं।”

सीख 

मिथ्या अभिमान व्यर्थ है। विनम्र व्यक्ति सदा फलता फूलता है और अभिमानी अपने अभिमान की तरह कभी न कभी टूट ही जाता है।

राजा और काना घोड़ा नैतिक कहानी

एक राजा के पास एक हृष्ट पुष्ट और सुंदर घोड़ी थी। वह उससे बहुत प्रेम करता था और उसका विशेष खयाल रखता था। इसका कारण ये था कि युद्ध क्षेत्र में घोड़ी ने कई बार राजा के प्राणों की रक्षा की थी। ये घोड़ी की वफादारी थी, जिसने राजा का दिल जीत लिया था।

घोड़ी ने कई वर्षों तक राजा की सेवा की और पूर्ण वफादार बनी रही। जब उसकी उम्र हो गई, तो उसकी जगह उसके बेटे ने ले ली। घोड़ी का बेटा हृष्ट पुष्ट था। मगर उसमें एक खामी थी। वह जन्म से ही काना था। इस बात को लेकर वह हमेशा दुखी रहा करता था।

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एक बार उसने घोड़ी से पूछा, “मां! मैं काना क्यों जन्मा?”

घोड़ी ने बताया, “बेटा! जब तू मेरे गर्भ में था। उस समय एक दिन राजा मेरी सवारी कर रहा था और मेरे कदम लड़खड़ा जाने पर आवेश में आकर उसने मुझे एक चाबुक मार दिया था। शायद यही कारण है कि तू काना जन्मा।”

ये सुनकर काने घोड़े का मन राजा के प्रति क्रोध से भर उठा। वह बोला, “मां! राजा ने मुझे जीवन भर का दुख दिया है। मैं उससे इसका प्रतिशोध लूंगा।”

घोड़ी ने समझाया, “नहीं बेटा! राजा हमारा पालक है। उसके प्रति प्रतिशोध की भावना अपने हृदय में मत ला। क्षणिक आवेग में उसे क्रोध आ गया और वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाया। इसका अर्थ ये कतई नहीं कि वह हमसे प्रेम नहीं करता। तू प्रतिशोध लेने का विचार अपने हृदय से निकाल दे।”

मां के समझाने पर भी काने घोड़े का क्रोध शांत नहीं हुआ। वह राजा से प्रतिशोध लेने का अवसर ढूंढने लगा। बहुत जल्द उसे यह अवसर मिल भी गया। 

राजा युद्ध के मैदान में काने घोड़े पर सवार था। उसके और उसके पड़ोसी राज्य के राजा के बीच घमासान युद्ध छिड़ा हुआ था। तलवारबाजी करते-करते अचानक राजा घोड़े से नीचे गिर पड़ा। मौत उसके करीब थी। काना घोड़ा उसे वहीं उसी हाल में छोड़कर भाग सकता था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने फुर्ती दिखाई और राजा को फिर से अपनी पीठ पर बिठाकर उसके प्राण बचा लिए।

वह चकित था कि उसने ऐसा क्यों किया। जिस व्यक्ति ने उसे काना बनाया, उसने उसके प्रति वफादारी क्यों दिखाई? क्यों उससे प्रतिशोध नहीं लिया?

ये प्रश्न उसने घोड़ी से पूछा, तो वह मुस्कुराते हुए बोली, “तू आखिर बेटा किसका है? मेरा ना! मेरी छत्रछाया में तू पला बढ़ा है। जो संस्कार मैंने तुझे दिए हैं, वे तेरी रग रग में रच बस गए हैं। उन संस्कारों के विपरीत तू जा ही नहीं सकता। वफादारी तेरे खून में है बेटा। तू वफादार ही रहेगा।”

सीख 

दोस्तों! संस्कारों का आचरण पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। जिन संस्कारों के साए में बच्चे का पालन पोषण होता है, वे उसके अवचेतन में गहरे तक समाहित हो जाते हैं। ऐसे में अपने संस्कारों के विपरीत वह जा ही नहीं सकता।

संस्कारों का सबसे बड़ा आधार परिवार है, जहां से संस्कारों की नींव पड़ती है। हर माता पिता की जिम्मेदारी है कि वे अपने परिवार को अच्छे संस्कारों की नींव दे। अच्छे संस्कार के परिवार का व्यक्ति संस्कारी बनेगा और अपने कर्मों से समाज में सदा सम्मान पायेगा। 

ज्ञान बिना परख नहीं नैतिक कहानी

एक गाँव में रहने वाले जौहरी परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, जब जौहरी चल बसा. परिवार में अब जौहरी का सोलह-सत्रह बरस का लड़का और पत्नी रह गए.

घर की आर्थिक स्थिति दिनों दिन ख़राब होती जा रही थी. एक दिन माँ ने बेटे को अपने पास बुलाया और संदूक से निकालकर नीलम का हार देकर कहा, “बेटा, अब इसे बेचने के सिवा और कोई चारा नहीं. इसे लेकर अपने चाचाजी के पास चले जा. उनसे कहना कि इसे बेचने में हमारी मदद कर दें.”

लड़का नीलम का हार लेकर चाचा के पास गया और उन्हें हार देकर माँ की बात दोहरा दी.

लड़के का चाचा भी जौहरी था. उसने हार अपने हाथ में लिया और उसे जांचने-परखने के बाद बोला, “बेटा! चाहूं तो मैं ये हार अभी बेच दूं, पर बाज़ार मंदा होने से सही दाम न मिल सकेंगे. मेरी मानो, तो कुछ दिन रुक जाओ. अभी मैं तुम्हें कुछ पैसे दे देता हूँ. इससे कुछ दिनों तक घर चलाओ. और हाँ, कल से मेरे काम में मेरी मदद करो और काम भी सीखो.”

लड़का नीलम का हार और चाचा के दिए पैसे लेकर लौट गया. अगले दिन से वह रोज़ चाचा की दुकान पर हीरे-जवाहरात और रत्नों की परख का काम सीखने लगा. साल भर में वो रत्नों की परख में इतना पारगंत हो गया कि उस गाँव में ही नहीं आसपास के गाँव में भी उसका नाम हो गया. दूर-दूर से लोग रत्नों की परख के लिए उसके पास आने लगे.

एक दिन चाचा ने उससे कहा, “बेटा! ऐसा करो, अपनी माँ का नीलम का हार हार ले आओ. अब मंदी रही नहीं. हमें उसके अच्छे दाम मिल जायेंगे.”

घर जाकर, लड़के ने माँ से नीलम का हार मांगा और खुद ही उसे परखने लगा. परखने पर उसे पता चला कि वो हार तो नकली है.

अगले दिन वह खाली हाथ चाचा के पास पहुँचा. चाचा ने पूछा, “बेटा! तुम हार नहीं लाये.’

लड़के ने कहा, “चाचाजी, वो हार तो नकली था.”

तब चाचा ने उसे बताया, “बेटा! जब तुम पहली बार वो हार लेकर मेरे पास आये थे, मैंने तब ही उसी परख लिया था कि वो नकली है. लेकिन मैंने तुम्हें बताया नहीं. उस वक़्त तुम लोग बुरे दौर से गुजर रहे थे. सोचते कि बुरे वक़्त में तुम्हारा चाचा तुमसे दगा कर रहा है. इस तरह हमारे रिश्ते बिगड़ जाते. आज तुम खुद इस काबिल हो चुके हो कि खुद ही परखकर हार की असलियत जान गए. अब किसी और पर शंका करने का प्रश्न ही नहीं उठता.”

सीख 

दोस्तों, पूर्ण ज्ञान या जानकारी के अभाव में किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थति के बारे में हम जो भी धारणा बनाते हैं, उसमें शंका और अविश्वास का समावेश होता है, जो सिर्फ गलतफहमियों को बढ़ावा देता है. ज्ञान के प्रकाश में ही वस्तुस्थिति को स्पष्ट तरीके से समझा जा सकता है. इसलिए किसी भी चीज़ के बारे में सही तरीके से समझने के लिए, उसके बारे में सारा ज्ञान या जानकारी ज़रूर हासिल करें.

पंडितजी का बेटा नैतिक कहानी

एक राज्य में एक पंडितजी रहा करते थे. वे अपनी बुद्धिमत्ता के लिए प्रसिद्ध थे. उनकी बुद्धिमत्ता के चर्चे दूर-दूर तक हुआ करते थे.

एक दिन उस राज्य के राजा ने पंडितजी को अपने दरबार में आमंत्रित किया. पंडित जी दरबार में पहुँचे. राजा ने उनसे कई विषयों पर गहन चर्चा की. चर्चा समाप्त होने के पश्चात् जब पंडितजी प्रस्थान करने लगे, तो राजा ने उनसे कहा, “पंडितजी! आप आज्ञा दें, तो मैं एक बात आपसे पूछना चाहता हूँ.”

पंडित ने कहा, “पूछिए राजन.”

“आप इतने बुद्धिमान है पंडितजी, किंतु आपका पुत्र इतना मूर्ख क्यों हैं?” राजा ने पूछा.

राजा का प्रश्न सुनकर पंडितजी को बुरा लगा. उन्होंने पूछा, “आप ऐसा क्यों कह रहे हैं राजन?”

“पंडितजी, आपके पुत्र को ये नहीं पता कि सोने और चाँदी में अधिक मूल्यवान क्या है.” राजा बोला.

ये सुनकर सारे दरबारी हँसने लगे.

सबको यूं हँसता देख पंडितजी ने स्वयं को बहुत अपमानित महसूस किया. किंतु वे बिना कुछ कहे अपने घर लौट आये.

घर पहुँचने पर उनका पुत्र उनके लिए जल लेकर आया और बोला, “पिताश्री, जल ग्रहण करें.”

उस समय भी सारे दरबारियों की हँसी पंडितजी के दिमाग में गूंज रही थी. वे अत्यंत क्रोध में थे. उन्होंने जल लेने से मना कर दिया और बोले, “पुत्र, जल तो मैं तब पिऊंगा, जब तुम मेरे इस प्रश्न का उत्तर दोगे.”

“पूछिये पिताश्री.” पुत्र बोला.

“ये बताओ कि सोने और चाँदी में अधिक मूल्यवान क्या है?” पंडितजी ने पूछा.

“सोना अधिक मूल्यवान है.” पुत्र के तपाक से उत्तर दिया,

पुत्र का उत्तर सुनने के बाद पंडितजी ने पूछा, “तुमने इस प्रश्न का सही उत्तर दिया है. फिर राजा तुम्हें मूर्ख क्यों कहते हैं? वे कहते हैं कि तुम्हें सोने और चाँदी के मूल्य का ज्ञान नहीं है.”

पंडितजी की बात सुनकर पुत्र सारा माज़रा समझ गया. वह उन्हें बताने लगा, “पिताश्री! मैं प्रतिदिन सुबह जिस रास्ते से विद्यालय जाता हूँ, उस रास्ते के किनारे राजा अपना दरबार लगाते हैं. वहाँ ज्ञानी और बुद्धिमान लोग बैठकर विभिन्न विषयों पर चर्चा करतेहैं.विभिन्न विषयों पर चर्चा करते हैं. मुझे वहाँ से जाता हुआ देख राजा अक्सर मुझे बुलाते है और अपने एक हाथ में सोने और एक हाथ में चाँदी का सिक्का रखकर कहते हैं कि इन दोनों में से तुम्हें जो मूल्यवान लगे, वो उठा लो. मैं रोज़ चाँदी का सिक्का उठाता हूँ. यह देख वे लोग मेरा परिहास करते हैं और मुझ पर हँसते हैं. मैं चुपचाप वहाँ से चला जाता हूँ.”

पूरी बात सुनकर पंडितजी ने कहा, “पुत्र, जब तुम्हें ज्ञात है कि सोने और चाँदी में से अधिक मूल्यवान सोना है, तो सोने का सिक्का उठाकर ले आया करो. क्यों स्वयं को उनकी दृष्टि में मूर्ख साबित करते हो? तुम्हारे कारण मुझे भी अपमानित होना पड़ता है.”

पुत्र हँसते हुए बोला, “पिताश्री मेरे साथ अंदर आइये. मैं आपको कारण बताता हूँ.”

वह पंडितजी को अंदर के कक्ष में ले गया. वहाँ एक कोने पर एक संदूक रखा हुआ था. उसने वह संदूक खोलकर पंडितजी को दिखाया. पंडितजी आश्चर्यचकित रह गए. उस संदूक में चाँदी के सिक्के भरे हुए थे.

पंडितजी ने पूछा, “पुत्र! ये सब कहाँ से आया?”

पुत्र ने उत्तर दिया, “पिताश्री! राजा के लिए मुझे रोकना और हाथ में सोने और चाँदी का सिक्का लेकर वह प्रश्न पूछना एक खेल बन गया है. अक्सर वे यह खेल मेरे साथ खेला करते हैं और मैं चाँदी का सिक्का लेकर आ जाता हूँ. उन्हीं चाँदी के सिक्कों से यह संदूक भर गया है. जिस दिन मैंने सोने का सिक्का उठा लिया. उस दिन ये खेल बंद हो जायेगा. इसलिए मैं कभी सोने का सिक्का नहीं उठाता.”

पंडितजी को पुत्र की बात समझ तो आ गई. किंतु वे पूरी दुनिया को ये बताना चाहते थे कि उनका पुत्र मूर्ख नहीं है. इसलिए उसे लेकर वे राजा के दरबार चले गए. वहाँ पुत्र ने राजा को सारी बात बता दी है कि वो जानते हुए भी चाँदी का सिक्का ही क्यों उठाता है.

पूरी बात जानकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ. उसने सोने के सिक्कों से भरा संदूक मंगवाया और उसे पंडितजी के पुत्र को देते हुए बोला “असली विद्वान तो तुम निकले.”

सीख

कभी भी अपने सामर्थ्य का दिखावा मत करो. कर्म करते चले जाओ. जब वक़्त आएगा, तो पूरी दुनिया को पता चल जायेगा कि आप कितने सामर्थ्यवान हैं. उस दिन आप सोने की तरह चमकोगे और पूरी दुनिया आपका सम्मान करेगी.

मनुष्य की कीमत नैतिक कहानी

एक शहर में एक लोहार रहता था। उसका एक सोलह सत्रह बरस का बेटा था। दोनों साथ मिलकर दुकान में काम लिएकरते थे। एक दिन काम करते-करते बेटे ने अपने पिता से पूछा, “पिताजी मनुष्य की कीमत क्या है?”

बेटे का यह सवाल सुनकर पिता पहले चकित हुआ, फिर शांत भाव से सोचते हुए बोला, “बेटा! मनुष्य का तो कोई मोल नहीं, वह तो अनमोल है। उसकी कीमत कैसे आंकोगे?”

बेटा पिता के इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ। उसने फिर सवाल किया, “पिताजी! क्या सभी मनुष्य अनमोल हैं?”

“हां बेटा!” पिता ने उत्तर दिया।

“यदि ऐसा है, तो सभी मनुष्य बराबर क्यों नहीं। कोई गरीब है, तो कोई अमीर! कोई मनुष्य समाज में अधिक सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, तो कोई अपमान का घूंट पीता है। ऐसा क्यों?” बेटे ने पूछा।

पिता ने बेटे का सवाल सुनकर कहा, “बेटा! मेरे हाथ में ये लोहे की छड़ देख रहे हो। यदि मैं इस बाजार जाकर बेचूं, तो इसकी कीमत क्या होगी?”

“यही कोई डेढ़ दो सौ रुपए!”

“और यदि मैं इससे छोटी छोटी कीलें बनाकर उनका सौ – सौ का पैक बाजार में बेचूं, तब उनकी कीमत क्या होगी?”

“1000 रुपए के आसपास!”

“और यदि मैं इससे लोहे के स्प्रिंग बनाकर बेचूं, तब उनकी कीमत क्या होगी?”

“अलग अलग तरह के स्प्रिंग की कीमत अलग अलग होगी। मगर कीलों से काफ़ी ज्यादा।”

“बिलकुल ठीक। इसी तरह इस लोहे की छड़ से मैं अलग अलग वस्तुएं बनाकर बेचूं, तो उन सबकी कीमत अलग अलग होगी। यही बात मनुष्यों पर भी लागू होती है। मनुष्य जो भी रहा हो, वह जीवन में जैसी शिक्षा प्राप्त करता है, जैसे गुणों का विकास करता है और स्वयं को उनके अनुसार ढाल कर जो बन जाता है, वही उसकी कीमत होती है। इसलिए तुम समाज में अमीर गरीब मनुष्यों को देखते हो; कुछ को अधिक सम्मानित देखते हो, तो कुछ को कम। यदि तुम्हें अपनी कीमत बढ़ानी है, तो खुद के गुणों को निखारो और सबकी दृष्टि में अमूल्य बन जाओ।”

सीख 

आपके गुण ही आपको मोल निर्धारित करते हैं। इसलिए अपने गुणों को निखारो।

जो चाहोगे सो पाओगे नैतिक कहानी

एक साधु घाट किनारे अपना डेरा डाले हुए था. वहाँ वह धुनी रमा कर दिन भर बैठा रहता और बीच-बीच में ऊँची आवाज़ में चिल्लाता, “जो चाहोगे सो पाओगे!

उस रास्ते से गुजरने वाले लोग उसे पागल समझते थे. वे उसकी बात सुनकर अनुसना कर देते और जो सुनते, वे उस पर हँसते थे.

एक दिन एक बेरोजगार युवक उस रास्ते से गुजर रहा था. साधु की चिल्लाने की आवाज़ उसके कानों में भी पड़ी – “जो चाहोगे सो पाओगे!” “जो चाहोगे सो पाओगे!”.

ये वाक्य सुनकर वह युवक साधु के पास आ गया और उससे पूछने लगा, “बाबा! आप बहुत देर से जो चाहोगे सो पाओगे  चिल्ला रहे हो. क्या आप सच में मुझे वो दे सकते हो, जो मैं पाना चाहता हूँ?”

साधु बोला, “हाँ बेटा, लेकिन पहले तुम मुझे ये बताओ कि तुम पाना क्या चाहते हो?”

“बाबा! मैं चाहता हूँ कि एक दिन मैं हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बनूँ. क्या आप मेरी ये इच्छा पूरी कर सकते हैं?” युवक बोला.

“बिल्कुल बेटा! मैं तुम्हें एक हीरा और एक मोती देता हूँ, उससे तुम जितने चाहे हीरे-मोती बना लेना.” साधु बोला. साधु की बात सुनकर युवक की आँखों में आशा की ज्योति चमक उठी.

फिर साधु ने उसे अपनी दोनों हथेलियाँ आगे बढ़ाने को कहा. युवक ने अपनी हथेलियाँ साधु के सामने कर दी. साधु ने पहले उसकी एक हथेली पर अपना हाथ रखा और बोला, “बेटा, ये इस दुनिया का सबसे अनमोल हीरा है. इसे ‘समय’ कहते हैं. इसे जोर से अपनी मुठ्ठी में जकड़ लो. इसके द्वारा तुम जितने चाहे उतने हीरे बना सकते हो. इसे कभी अपने हाथ से निकलने मत देना.”

फिर साधु ने अपना दूसरा हाथ युवक की दूसरी हथेली पर रखकर कहा, “बेटा, ये दुनिया का सबसे कीमती मोती है. इसे ‘धैर्य’ कहते हैं. जब किसी कार्य में समय लगाने के बाद भी वांछित परिणाम प्राप्त ना हो, तो इस धैर्य नामक मोती को धारण कर लेना. यदि यह मोती तुम्हारे पास है, तो तुम दुनिया में जो चाहो, वो हासिल कर सकते हो.”

युवक ने ध्यान से साधु की बात सुनी और उन्हें धन्यवाद कर वहाँ से चल पड़ा. उसे सफ़लता प्राप्ति के दो गुरुमंत्र मिल गए थे. उसने निश्चय किया कि वह कभी अपना समय व्यर्थ नहीं गंवायेगा और सदा धैर्य से काम लेगा.

कुछ समय बाद उसने हीरे के एक बड़े व्यापारी के यहाँ काम करना प्रारंभ किया. कुछ वर्षों तक वह दिल लगाकर व्यवसाय का हर गुर सीखता रहा और एक दिन अपनी मेहनत और लगन से अपना सपना साकार करते हुए हीरे का बहुत बड़ा व्यापारी बना.

सीख

लक्ष्य प्राप्ति के लिए सदा ‘समय’ और ‘धैर्य’ नाम के हीरे-मोती अपने साथ रखें. अपना समय कभी व्यर्थ ना जाने दें और कठिन समय  में धैर्य का दामन ना छोड़ें. सफ़लता अवश्य प्राप्त होगी.

 अभिमानी पंडित की नैतिक कहानी 

एक गांव में एक पंडित रहता था। उसे अपने व्याकरण ज्ञान पर बड़ा अभिमान था। वह जिससे भी मिलता, अपने व्याकरण ज्ञान का बखान करने लगता।

एक दिन उसे नदी पार कर दूसरे गांव जाना था। वह नदी किनारे पहुंचा और एक नाव पर बैठ गया। नाविक नाव खेने लगा। अपनी आदत अनुसार पंडित अपने व्याकरण ज्ञान का बखान करने लगा। उसने नाविक से पूछा, “क्यों क्या तुमने व्याकरण पढ़ा है?”

नाविक अनपढ़ था। बोला, “नहीं पंडित जी! मैं तो पढ़ा लिखा नहीं हूं। मेरा परिवार तो पीढ़ियों से नाव चला रहा है।”

पंडित उसे नीचा दिखाकर बोला, “ओह! बड़े दुख की बात है कि तुमने अपना जीवन व्यर्थ कर दिया।”

नाविक को बहुत बुरा लगा। किंतु वह पंडित को कुछ उत्तर नहीं दे पाया। बस चुपचाप नाव खेता रहा। 

नाव मझधार में पहुंच गई। तभी अचानक तेज तूफान आया और नाव डगमगाने लगी। पंडित डर गया। तब नाविक ने उससे पूछा, “पंडितजी! आपको तैरना आता है? “

“नहीं!” घबराए पंडित ने उत्तर दिया।

“तब तो पंडित जी आपका जीवन व्यर्थ जाने वाला है, क्योंकि नाव भंवर में फंस गई है और बस डूबने वाली है।” ये कहकर नाविक नाव से कूद गया।

व्याकरण का पंडित नाव में बैठा रह गया। कुछ ही देर में नाव पलट गई और पंडित पानी में डूबने लगा। उसका सारा व्याकरण का ज्ञान धरा का धरा रह गया। जान बचाने के लिए वह मदद की गुहार लगाने लगा। तब नाविक ने उसे बचाया और किनारे पर पहुंचाया।

पंडित का अभिमान चूर चूर हो चुका था। वह समझ चुका था कि अपने ज्ञान पर अभिमान नहीं करना चाहिए। 

सीख 

दोस्तों! हर व्यक्ति में कोई न कोई गुण होता है। परिस्थिति के अनुसार वह गुण काम आता है। इसलिए अपने गुण का अभिमान नहीं करना चाहिए।

राजा और वृद्ध की नैतिक कहानी

ठण्ड का मौसम था. शीतलहर पूरे राज्य में बह रही थी. कड़ाके की ठण्ड में भी उस दिन राजा सदा की तरह अपनी प्रजा का हाल जानने भ्रमण पर निकला था.  

महल वापस आने पर उसने देखा कि महल के मुख्य द्वार के पास एक वृद्ध बैठा हुआ है. पतली धोती और कुर्ता पहने वह वृद्ध ठण्ड से कांप रहा था. कड़ाके की ठण्ड में उस वृद्ध को बिना गर्म कपड़ों के देख राजा चकित रह गया.

उसके पास जाकर राजा ने पूछा, “क्या तुम्हें ठण्ड नहीं लग रही?”

“लग रही है. पर क्या करूं? मेरे पास गर्म कपड़े नहीं है. इतने वर्षों से कड़कड़ाती ठण्ड मैं यूं ही बिना गर्म कपड़ों के गुज़ार रहा हूँ. भगवान मुझे इतनी शक्ति दे देता है कि मैं ऐसी ठण्ड सह सकूं और उसमें जी सकूं.” वृद्ध ने उत्तर दिया.

राजा को वृद्ध पर दया आ गई. उसने उससे कहा, “तुम यहीं रुको. मैं अंदर जाकर तुम्हारे लिए गर्म कपड़े भिजवाता हूँ.”

वृद्ध प्रसन्न हो गया. उसने राजा को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया.

वृद्ध को आश्वासन देकर राजा महल के भीतर चला गया. किंतु महल के भीतर जाकर वह अन्य कार्यों में व्यस्त हो गया और वृद्ध के लिए गर्म कपड़े भिजवाना भूल गया.

अगली सुबह एक सिपाही ने आकर राजा को सूचना दी कि महल के बाहर एक वृद्ध मृत पड़ा है. उसके मृत शरीर के पास ज़मीन पर एक संदेश लिखा हुआ है, जो वृद्ध ने अपनी मृत्यु के पूर्व लिखा था.

संदेश यह था : “इतने वर्षों से मैं पतली धोता-कुर्ता पहने ही कड़ाके की ठण्ड सहते हुए जी रहा था. किंतु कल रात गर्म वस्त्र देने के तुम्हारे वचन ने मेरी जान ले ली.”

सीख

दूसरों से की गई अपेक्षायें अक्सर हमें उन पर निर्भर बना देती है, जो कहीं न कहीं हमारी दुर्बलता का कारण बनती है. इसलिए, अपनी अपेक्षाओं के लिए दूसरों पर निर्भर रहने के स्थान पर स्वयं को सबल बनाने का प्रयास करना चाहिए।

चिड़िया की सीख की नैतिक कहानी

एक समय की बात है. एक राज्य में एक राजा राज करता था. उसके महल में बहुत ख़ूबसूरत बगीचा था. बगीचे की देखरेख की ज़िम्मेदारी एक माली के कंधों पर थी. माली पूरा दिन बगीचे में रहता और पेड़-पौधों की अच्छे से देखभाल किया करता था. राजा माली के काम से बहुत ख़ुश था.

बगीचे में एक अंगूर की एक बेल लगी हुई थी, जिसमें ढेर सारे अंगूर फले हुए थे. एक दिन एक चिड़िया बगीचे में आई. उनसे अंगूर की बेल पर फले अंगूर चखे. अंगूर स्वाद में मीठे थे. उस दिन के बाद से वह रोज़ बाग़ में आने लगी.

चिड़िया अंगूर की बेल पर बैठती और चुन-चुनकर सारे मीठे अंगूर खा लेती. खट्टे और अधपके अंगूर वह नीचे गिरा देती. चिड़िया की इस हरक़त पर माली को बड़ा क्रोध आता. वह उसे भगाने का प्रयास करता, लेकिन सफ़ल नहीं हो पाता.

बहुत प्रयासों के बाद भी जब माली चिड़िया को भगा पाने में सफ़ल नहीं हो पाया, तो राजा के पास चला गया. उसने राजा को चिड़िया की पूरी कारिस्तानी बता दी और बोला, “महाराज! चिड़िया में मुझे तंग कर दिया है. उसे काबू में करना मेरे बस के बाहर है. अब आप ही कुछ करें.”

राजा ने ख़ुद ही चिड़िया से निपटने का निर्णय किया. अगले दिन वह बाग़ में गया और अंगूर की घनी बेल की आड़ में छुपकर बैठ गया. रोज़ की तरह चिड़िया आई और अंगूर की बेल पर बैठकर अंगूर खाने लगी. अवसर पाकर राजा ने उसे पकड़ लिया.

चिड़िया ने राजा की पकड़ से आज़ाद होने का बहुत प्रयास किया, किंतु सब व्यर्थ रहा. अंत में वह राजा से याचना करने लगी कि वो उसे छोड़ दें. राजा इसके लिए तैयार नहीं हुआ. तब चिड़िया बोली, “राजन, यदि तुम मुझे छोड़ दोगे, तो मैं तुम्हें ज्ञान की ४ बातें बताऊंगी.”

राजा चिड़िया पर क्रोधित था. किंतु इसके बाद भी उसने यह बात मान ली और बोला, “ठीक है, पहले तुम मुझे ज्ञान की वो ४ बातें बताओ. उन्हें सुनने के बाद ही मैं तय करूंगा कि तुम्हें छोड़ना ठीक रहेगा या नहीं.”

चिड़िया बोली, “ठीक है राजन. तो सुनो. पहली बात, कभी किसी हाथ आये शत्रु को जाने मत दो.”

“ठीक है और दूसरी बात?” राजा बोला.

“दूसरी ये है कि कभी किसी असंभव बात पर यकीन मत करो.” चिड़िया बोली.

“तीसरी बात?”

“बीती बात पर पछतावा मत करो.”

“और चौथी बात.”

“राजन! चौथी बात बड़ी गहरी है. मैं तुम्हें वो बताना तो चाहती हूँ, किंतु तुमनें मुझे इतनी जोर से जकड़ रखा है कि मेरा दम घुट रहा है. तुम अपनी पकड़ थोड़ी ढीली करो, तो मैं तुम्हें चौथी बात बताऊं.” चिड़िया बोली,

राजा ने चिड़िया की बात मान ली और अपनी पकड़ ढीली कर दी. पकड़ ढ़ीली होने पर चिड़िया राजा एक हाथ छूट गई और उड़कर पेड़ की ऊँची डाल पर बैठ गई. राजा उसे ठगा सा देखता रह गया.

पेड़ की ऊँची डाल पर बैठी चिड़िया बोली, “राजन! चौथी बात ये कि ज्ञान की बात सुनने भर से कुछ नहीं होता. उस पर अमल भी करना पड़ता है. अभी कुछ देर पहले मैंने तुम्हें ज्ञान की ३ बातें बताई, जिन्हें सुनकर भी आपने उन्हें अनसुना कर दिया. पहली बात मैंने आपसे ये कही थी कि हाथ में आये शत्रु को कभी मत छोड़ना. लेकिन आपने अपने हाथ में आये शत्रु अर्थात् मुझे छोड़ दिया. दूसरी बात ये थी कि असंभव बात पर यकीन मत करें. लेकिन जब मैंने कहा कि चौथी बात बड़ी गहरी है, तो आप मेरी बातों में आ गए. तीसरी बात मैंने आपको बताई थी कि बीती बात पर पछतावा न करें और देखिये, मेरे आपके चंगुल से छूट जाने पर आप पछता रहे हैं.”

इतना कहकर चिड़िया वहाँ से उड़ गई और राजा हाथ मलता रह गया.

सीख 

  • मात्र ज्ञान अर्जित करने से कोई ज्ञानी नहीं बन जाता. ज्ञानी वो होता है, जो अर्जित ज्ञान पर अमल करता है.
  • जीवन में जो बीत गया, उस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं. किंतु वर्तमान हमारे हाथों में हैं. आज का वर्तमान कल के भविष्य कल का निर्माण करेगा. इसलिए वर्तमान में रहकर कर्म करें और अपना भविष्य बनायें.

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