25 सर्वश्रेष्ठ मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ | 25 Best Munshi Premchand Ki Kahaniya In Hindi

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Munshi Premchand Ki Kahaniyan

 Munshi Premchand Ki Kahaniya In Hindi 

Table of Contents

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ईदगाह मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है।

गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुर्ते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लौटना असंभव है।

लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ो के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयाँ खायेंगे। वह क्या जानें कि अब्बा जान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाये। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खज़ाना निकालकर गिनते हैं और ख़ुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहनसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लायेंगें — खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद।

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वह चार-पाँच साल का गरीब सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया, तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बा जान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आयेंगे। अम्मी जान अल्लहा मियां के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है।

आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बा जान थैलियाँ और अम्मी जान नियामतें लेकर आयेंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे।

अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती और चली जाती! इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने के क्या मतलब? उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितबन उसका विध्वंस कर देगी।

हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है — ‘तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले आऊंगा। बिल्कुल न डरना।‘

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अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे कैसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाये, तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जायेंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकायेगा? पैसे होते तो लौटते-लोटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। मांगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए, लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं है, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पाँच अमीना के बटुवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्ला ही बेड़ा पर लगाये। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आयेंगी। सभी को सेवेयाँ चाहिए और थोड़ा किसी को आँखों नहीं लगता। किस-किस से मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराये? साल-भर का त्यौहार है। ज़िन्दगी खैरियत से रहें, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है: बच्चे को ख़ुदा सलामत रखे, ये दिन भी कट जायेंगे।

गाँव से मेला चला और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतज़ार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है।

बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे ओर क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हें, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे और क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहाँ मुर्दो की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हें, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते। और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हें, मूँछो-दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्मा को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सके। घुमाते ही लुढ़क जायें।

महमूद ने कहा — ‘हमारी अम्मी जान का तो हाथ कांपने लगे, अल्ला कसम।‘

मोहसिन बोल — ‘चलों, मनों आटा पीस डालती हैं। जरा-सा बैट पकड़ लेगी, तो हाथ कांपने लगेंगे! सौकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आँखों तक अंधेरी आ जाये।

महमूद — ‘लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकती।‘

मोहसिन — हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मा इतना तेज दौड़ी कि मैं उन्हें न पा सका, सच।‘

आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुई। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता? देखो न, एक-एक दुकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी हर दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।

हामिद को यकीन न आया — ‘ऐसे रूपये जिन्नात को कहाँ से मिल जायेंगे?’

मोहसिन ने कहा — ‘जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहें चले जायें। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिये। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जायें।‘

हामिद ने फिर पूछा — ‘जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?’

मोहसिन — ‘एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाये, तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाये।‘

हामिद — ‘लोग उन्हें केसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिनन को खुश कर लूं।‘

मोहसिन — ‘अब यह तो न जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाये, चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे और चोर का नाम बता देगें। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।

अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।

आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जायें।‘

मोहसिन ने प्रतिवाद कि या— ‘यह कानिसटिबिल पहरा देते हें? तभी तुम बहुत जानते हों, अजी हज़रत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हें, सब इनसे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जाते रहो!’ पुकारते हें। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हें। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हें। बरस रूपया महीना पाते हें, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हें। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे—बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले—हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लायें। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाये।‘

हामिद ने पूछा — ‘यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?’

मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला – ‘अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूंजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोये, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाये, तो बरतन-भाड़े आये।‘

हामिद — ‘एक सौ तो पचास से ज्यादा होते है?’

‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आये?’

अब बस्ती घनी होने लगी। ईदगाह जाने वालो की टोलियाँ नज़र आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-तांगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, संतोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से हॉर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।

सहसा ईदगाह नज़र आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम ढिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हें। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गये। कितना सुंदर संचालन है, कितनी सुंदर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जायें, और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियायें, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं।

(2)

नमाज़ खत्म हो गई। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है, एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ो में लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन और नूरे और सम्मी इन घोड़ों और ऊँटो पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।

सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। उधर दुकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं — सिपाही और गुजरिया, राज और वकी, भिश्ती और धोबिन और साधु। वह! कित्ते सुंदर खिलौने हैं। अब बोलना ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता हे, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधें पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता हे, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं, मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम हे। कैसी विद्वत्ता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पौथा लिये हुये। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे है। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महंगे खिलौन वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े, तो चूर-चूर हो जाये। जरा पानी पड़े, तो सारा रंग घुल जाये। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के!

मोहसिन कहता है — ‘मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा, सांझ-सबेरे’

महमूद — ‘और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा, कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।‘

नूरे — ‘और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।‘

सम्मी — ‘और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी।‘

हामिद खिलौनों की निंदा करता है — ‘मिट्टी ही के तो हैं, गिरे तो चकनाचूर हो जायें।’

लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हें, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हैं, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचता रह जाता है।

खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हें, किसी ने गुलाब जामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं।

हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई आँखों से सबकी ओर देखता है।

मोहसिन कहता है — ‘हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!’

हामिद को संदेह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद है। मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे ओर सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।

मोहसिन — ‘अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जा।‘

हामिद — ‘रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है?’

सम्मी — ‘तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?’

महमूद — ‘हमसे गुलाबजामुन ले जाओ हामिद। मोहमिन बदमाश है।‘

हामिद — ‘मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।‘

मोहसिन — ‘लेकिन दिन मे कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?’

महमूद — ‘हम समझते हैं, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जायेंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा।‘

मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रूक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख़याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वह कितना प्रसन्न होगी! फिर उनकी उँगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जायेगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। ज़रा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जायेंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग मांगने आये, तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मा बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाजार आयें और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।

हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूंगा। खायें मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुंसियाँ निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चुरायेंगे और मार खायेंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी है। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्मा चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी — ‘मेरा बच्चा अम्मा के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआयें देगा? बड़ों की दुआयें सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूं? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मांगने तो नहीं जाते। आखिर अब्बा जान कभी न कभी आयेंगे। अम्मा भी आयेंगी ही। फिर इन लोगों से पूछूंगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने लूं और दिखा दूं कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसे! मेरी बला से!

उसने दुकानदार से पूछा — ‘यह चिमटा कितने का है?’

दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा —‘तुम्हारे काम का नहीं है जी!’

‘बिकाऊ है कि नहीं?’

‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाए हैं?’

‘तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’

‘छ: पैसे लगेंगे।‘

हामिद का दिल बैठ गया।

‘ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।‘

हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा तीन पैसे लोगे?

यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुनाये। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया।

हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनायें करते हैं!

मोहसिन ने हँसकर कहा — ‘यह चिमटा क्यों लाया पगले, इससे क्या करेगा?’

हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटककर कहा — ‘जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जायें।‘

महमूद बोला — ‘तो यह चिमटा कोई खिलौना है?’

हामिद — ‘खिलौना क्यों नही है! अभी कंधे पर रखा, बंदूक हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो, इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूं, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाये। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगायें, मेरे चिमटे का बाल भी बांका नही कर सकतें, मेरा बहादुर शेर है चिमटा।

सम्मी ने खंजरी ली थी।

प्रभावित होकर बोला — ‘मेरी खंजरी से बदलोगे? दो आने की है।‘

हामिद ने खंजरी की ओर उपेक्षा से देखा – ‘मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खंजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए, तो खत्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आंधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।‘

चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हैं, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।

अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रर्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हो गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए, मियां भिश्ती के छक्के छूट जायें, जो मियां सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागे, वकील साहब की नानी मर जाये, चोगे में मुँह छिपाकर जमीन पर लेट जायें। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गर्दन पर सवार हो जाएगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।

मोहसिन ने एड़ी—चोटी का ज़ोर लगाकर कहा — ‘अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?’

हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा — ‘भिश्ती को एक डांट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।‘

मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई — ‘अगर बचा पकड़ जायें, तो अदालम में बंधे-बंधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेगे।‘

हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा — ‘हमें पकड़ने कौन येगा?’

नूरे ने अकड़कर कहा — ‘यह सिपाही बंदूक वाला।‘

हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा — ‘यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे—हिंद को पकड़ेगें! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाये। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेगें क्या बेचारे!’

मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई — ‘तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।‘

उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जायेगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया — ‘आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लैडियों की तरह घर में घुस जायेंगे। आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।‘

महमूद ने एक जोर लगाया —व ‘कील साहब कुर्सी—मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावर्ची खाने में जमीन पर पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?’

इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजी कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावर्ची खाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?’

हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धांधली शुरू की — ‘मेरा चिमटा बावर्ची खाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेगें, तो जाकर उन्हें जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।‘

बात कुछ बनी नही। खाली गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालने वाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए, मानो कोई धेलचा कानकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज हे। उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है।

हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।

विजेता को हारने वालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जायेंगे। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?

संधि की शर्ते तय होने लगीं।

मोहसिन ने कहा — ‘जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो।‘

महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए।

हामिद को इन शर्तो को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।

हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे — ‘मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबर करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।‘

लेकिन मोहसनि की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।

मोहसिन — ‘लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?’

महमूद — ‘दुआ को लिये फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्मा जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?’

हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की माँ इतनी खुश न होगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था और उन पैसों के इस उपयों पर पछतावे की बिल्कुल ज़रूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमे—हिन्द है ओर सभी खिलौनों का बादशाह।

रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिये। महमून ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गये। यह उस चिमटे का प्रसाद था।

(3)

ग्यारह बजे गाँव में हलचल मच गई। मेले वाले आ गये। मोहसिन की छोटी बहन दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियां भिश्ती नीचे आ रहे और परलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खूब रोये। उसकी अम्मा यह शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चांटे और लगाये।

मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूंटियाँ गाड़ी गई। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भांति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। आदालतों में खर की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हें। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं? बांस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगें मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई।

अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हें। मगर रात तो अंधेरी होनी चाहिए, नूरे को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियां सिपाही अपनी बंदूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टांग में विकार आ जाता है।

महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है, जिससे वह टूटी टांग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टांग जावब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टांग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टांग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही सन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।

अब मियां हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।

‘यह चिमटा कहाँ था?’

‘मैंने मोल लिया है।‘

‘कै पैसे में?’

‘तीन पैसे दिये।‘

अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा!

‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?’

हामिद ने अपराधी-भाव से कहा — ‘तुम्हारी उंगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।‘

बुढ़िया का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना व्याग, कितना सद्भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गदगद हो गया।

और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआयें देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता?

बूढ़ी कहानी मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं। उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं।

उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालांतर हो चुका था। बेटे तरुण हो-होकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के अलावा और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी संपत्ति लिख दी। भतीजे ने सारी संपत्ति लिखाते समय ख़ूब लंबे-चौड़े वादे किये, किन्तु वे सब वादे केवल कुली-डिपो के दलालों के दिखाए हुए सब्ज़बाग थे।

यद्यपि उस संपत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रुपए से कम न थी, तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे पंडित बुद्धिराम का अपराध था अथवा उनकी अर्धांगिनी श्रीमती रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं। बुद्धिराम स्वभाव के सज्जन थे, किंतु उसी समय तक जब कि उनके कोष पर आँच न आये। रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी। अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी, जितनी बुद्धिराम की भलमनसाहत।

बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था। विचारते कि इसी संपत्ति के कारण मैं इस समय भलामानुष बना बैठा हूँ। यदि भौतिक आश्वासन और सूखी सहानुभूति से स्थिति में सुधार हो सकता हो, उन्हें कदाचित् कोई आपत्ति न होती, परन्तु विशेष व्यय का भय उनकी सुचेष्टा को दबाए रखता था। यहाँ तक कि यदि द्वार पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगतीं, तो वह आग हो जाते और घर में आकर उन्हें जोर से डांटते।

लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता-पिता का यह रंग देखते, तो वे बूढ़ी काकी को और सताया करते। कोई चुटकी काटकर भागता, कोई इन पर पानी की कुल्ली कर देता। काकी चीख़ मारकर रोतीं, परन्तु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिए रोती हैं, अतएव उनके संताप और अंतर्नाद पर कोई ध्यान नहीं देता था। हाँ, काकी क्रोधातुर होकर बच्चों को गालियाँ देने लगतीं, तो रूपा घटनास्थल पर आ पहुँचती। इस भय से काकी अपनी जिह्वा कृपाण का कदाचित् ही प्रयोग करती थीं, यद्यपि उपद्रव-शांति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था।

संपूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी को अनुराग था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली थी। लाडली अपने दोनों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई-चबैना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। यही उसका रक्षागार था और यद्यपि काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत मंहगी पड़ती थी, तथापि भाइयों के अन्याय से सुरक्षा कहीं सुलभ थी, तो बस यहीं। इसी स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था।

(2)

रात का समय था। बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी और गाँव के बच्चों का झुंड विस्मयपूर्ण नेत्रों से गाने का रसास्वादन कर रहा था। चारपाइयों पर मेहमान विश्राम करते हुए नाइयों से मुक्कियाँ लगवा रहे थे। समीप खड़ा भाट विरुदावली सुना रहा था और कुछ भावज्ञ मेहमानों की ‘वाह, वाह’ पर ऐसा ख़ुश हो रहा था, मानो इस ‘वाह-वाह’ का यथार्थ में वही अधिकारी है। दो-एक अंग्रेज़ी पढ़े हुए नवयुवक इन व्यवहारों से उदासीन थे। वे इस गँवार मंडली में बोलना अथवा सम्मिलित होना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थे।

आज बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम का तिलक आया है। यह उसी का उत्सव है। घर के भीतर स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन में व्यस्त थी। भट्टियों पर कड़ाह चढ़ रहे थे। एक में पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ निकल रही थीं, दूसरे में अन्य पकवान बनते थे। एक बड़े हंडे में मसालेदार तरकारी पक रही थी। घी और मसाले की क्षुधावर्धक सुगंधि चारों ओर फैली हुई थी।

बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भांति बैठी हुई थीं। यह स्वाद मिश्रित सुगंधि उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन-ही-मन विचार कर रही थीं, संभवतः मुझे पूड़ियाँ न मिलेंगीं। इतनी देर हो गई, कोई भोजन लेकर नहीं आया। मालूम होता है, सब लोग भोजन कर चुके हैं। मेरे लिए कुछ न बचा। यह सोचकर उन्हें रोना आया, परन्तु अपशकुन के भय से वह रो न सकीं।

‘आहा… कैसी सुगंधि है? अब मुझे कौन पूछता है। जब रोटियों के ही लाले पड़े हैं तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भरपेट पूड़ियाँ मिलें?’ यह विचार कर उन्हें रोना आया, कलेजे में हूक-सी उठने लगी। परंतु रूपा के भय से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया।

बूढ़ी काकी देर तक इन्ही दुखदायक विचारों में डूबी रहीं। घी और मसालों की सुगंधि रह-रहकर मन को आपे से बाहर किए देती थी। मुँह में पानी भर-भर आता था। पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। किसे पुकारूं, आज लाडली बेटी भी नहीं आई। दोनों छोकरे सदा दिक दिया करते हैं। आज उनका भी कहीं पता नहीं। कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है।

बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। ख़ूब लाल-लाल, फूली-फूली, नरम-नरम होंगीं। रूपा ने भली-भांति भोजन किया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती, तो जरा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चल कर कड़ाह के सामने ही बैठूं। पूड़ियाँ छन-छनकर तैयार होंगी। कड़ाह से गरम-गरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूंघ सकते हैं, परन्तु वाटिका में कुछ और बात होती है। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकडू बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई से चौखट से उतरीं और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास जा बैठीं। यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ, जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने में होता है।

रूपा उस समय कार्यभार से उद्विग्न हो रही थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास जाती, कभी भंडार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहा–‘महाराज ठंडई मांग रहे हैं।’ ठंडई देने लगी। इतने में फिर किसी ने आकर कहा–‘भाट आया है, उसे कुछ दे दो।’ भाट के लिए सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा–‘अभी भोजन तैयार होने में कितना विलंब है? जरा ढोल, मजीरा उतार दो।’

बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुंझलाती थी, कुढ़ती थी, परन्तु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी। भय होता, कहीं पड़ोसिनें यह न कहने लगें कि इतने में उबल पड़ीं। प्यास से स्वयं कंठ सूख रहा था। गर्मी के मारे फुंकी जाती थी, परन्तु इतना अवकाश न था कि जरा पानी पी ले अथवा पंखा लेकर झले। यह भी खटका था कि जरा आँख हटी और चीज़ों की लूट मची। इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठी देखा तो जल गई। क्रोध न रुक सका। इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी हुई हैं, मन में क्या कहेंगीं। पुरुषों में लोग सुनेंगे, तो क्या कहेंगे।

जिस प्रकार मेंढक केंचुये पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटक कर बोली—‘ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता था? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवार हो गई। जल जाये ऐसी जीभ। दिन भर खाती न होती, तो जाने किसकी हांडी में मुँह डालती? गाँव देखेगा, तो कहेगा कि बुढ़िया भरपेट खाने को नहीं पाती, तभी तो इस तरह मुँह बाये फिरती है। डायन न मरे न मांचा छोड़े। नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवा कर दम लेगी। इतनी ठूंसती है न जाने कहाँ भस्म हो जाता है। भला चाहती हो, तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे, तब तुम्हे भी मिलेगा। तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाये, परन्तु तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाये।‘

बूढ़ी काकी ने सिर उठाया, न रोईं न बोलीं। चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गईं। आवाज़ ऐसी कठोर थी कि हृदय और मष्तिष्क की संपूर्ण शक्तियाँ, संपूर्ण विचार और संपूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गए थे। नदी में जब कगार का कोई वृहद खंड कटकर गिरता है, तो आस-पास का जल समूह चारों ओर से उसी स्थान को पूरा करने के लिए दौड़ता है।

(3)

भोजन तैयार हो गया है। आंगन में पत्तलें पड़ गईं, मेहमान खाने लगे। स्त्रियों ने जेवनार-गीत गाना आरंभ कर दिया। मेहमानों के नाई और सेवकगण भी उसी मंडली के साथ, किंतु कुछ हटकर भोजन करने बैठे थे, परन्तु सभ्यतानुसार जब तक सब-के-सब खा न चुकें कोई उठ नहीं सकता था। दो-एक मेहमान जो कुछ पढ़े-लिखे थे, सेवकों के दीर्घाहार पर झुंझला रहे थे। वे इस बंधन को व्यर्थ और बेकार की बात समझते थे।

बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चाताप कर रही थी कि मैं कहाँ-से-कहाँ आ गई। उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था। अपनी जल्दबाज़ी पर दुख था। सच ही तो है जब तक मेहमान लोग भोजन न कर चुकेंगे, घर वाले कैसे खायेंगे। मुझसे इतनी देर भी न रहा गया। सबके सामने पानी उतर गया। अब जब तक कोई बुलाने नहीं आयेगा, न जाऊंगी।

मन-ही-मन इस प्रकार का विचार कर वह बुलाने की प्रतीक्षा करने लगीं। परन्तु घी की रुचिकर सुवास बड़ी धैर्य़-परीक्षक प्रतीत हो रही थी। उन्हें एक-एक पल एक-एक युग के समान मालूम होता था। अब पत्तल बिछ गई होगी। अब मेहमान आ गए होंगे। लोग हाथ पैर धो रहे हैं, नाई पानी दे रहा है। मालूम होता है लोग खाने बैठ गए। जेवनार गाया जा रहा है, यह विचार कर वह मन को बहलाने के लिए लेट गईं। धीरे-धीरे एक गीत गुनगुनाने लगीं। उन्हें मालूम हुआ कि मुझे गाते देर हो गई। क्या इतनी देर तक लोग भोजन कर ही रहे होंगे। किसी की आवाज़ सुनाई नहीं देती। अवश्य ही लोग खा-पीकर चले गये। मुझे कोई बुलाने नहीं आया है। रूपा चिढ़ गई है, क्या जाने न बुलाये। सोचती हो कि आप ही आवेंगीं, वह कोई मेहमान तो नहीं जो उन्हें बुलाऊं। बूढ़ी काकी चलने को तैयार हुईं। यह विश्वास कि एक मिनट में पूड़ियाँ और मसालेदार तरकारियाँ सामने आयेंगीं, उनकी स्वादेन्द्रियों को गुदगुदाने लगा। उन्होंने मन में तरह-तरह के मंसूबे बांधे–पहले तरकारी से पूड़ियाँ खाऊंगी, फिर दही और शक्कर से, कचौरियाँ रायते के साथ मज़ेदार मालूम होंगी। चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो मांग-मांगकर खाऊंगी। यही न लोग कहेंगे कि इन्हें विचार नहीं? कहा करें, इतने दिन के बाद पूड़ियाँ मिल रही हैं, तो मुँह झूठा करके थोड़े ही उठ जाऊंगी।

वह उकडू बैठकर सरकते हुए आंगन में आईं। परन्तु हाय दुर्भाग्य! अभिलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की मिथ्या कल्पना की थी। मेहमान-मंडली अभी बैठी हुई थी। कोई खाकर उंगलियाँ चाटता था, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं। कोई इस चिंता में था कि पत्तल पर पूड़ियाँ छूटी जाती हैं, किसी तरह इन्हें भीतर रख लेता। कोई दही खाकर चटकारता था, परन्तु दूसरा दोना मांगते संकोच करता था कि इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में आ पहुँची। कई आदमी चौंककर उठ खड़े हुए। पुकारने लगे—‘अरे, यह बुढ़िया कौन है? यहाँ कहाँ से आ गई? देखो, किसी को छू न दे।‘

पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गये। पूड़ियों का थाल लिए खड़े थे। थाल को ज़मीन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दयी महाजन अपने किसी बेइमान और भगोड़े कर्ज़दार को देखते ही उसका टेंटुआ पकड़ लेता है, उसी तरह लपक कर उन्होंने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अंधेरी कोठरी में धम से पटक दिया। आशारूपी वटिका लू के एक झोंके में विनष्ट हो गई।

मेहमानों ने भोजन किया। घरवालों ने भोजन किया। बाजे वाले, धोबी, चमार भी भोजन कर चुके, परन्तु बूढ़ी काकी को किसी ने न पूछा। बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी निर्लज्जता के लिए दंड देने क निश्चय कर चुके थे। उनके बुढ़ापे पर, दीनता पर, हत्ज्ञान पर किसी को करुणा न आई थी। अकेली लाडली उनके लिए कुढ़ रही थी।

लाडली को काकी से अत्यंत प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी। बाल-विनोद और चंचलता की उसमें गंध तक न थी। दोनों बार जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा तो लाडली का हृदय ऎंठकर रह गया। वह झुंझला रही थी कि हम लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं देते। क्या मेहमान सब-की-सब खा जाएंगे? और यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जायेगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी, परन्तु माता के भय से न जाती थी। उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ बिल्कुल न खाईं थीं। अपनी गुड़िया की पिटारी में बंद कर रखी थीं। उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी। उसका हृदय अधीर हो रहा था। बूढ़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगीं, पूड़ियाँ देखकर कैसी प्रसन्न होंगीं! मुझे खूब प्यार करेंगीं।

(4)

रात को ग्यारह बज गए थे। रूपा आंगन में पड़ी सो रही थी। लाडली की आँखों में नींद न आती थी। काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी उसे सोने न देती थी। उसने गु़ड़ियों की पिटारी सामने रखी थी। जब विश्वास हो गया कि अम्मा सो रही हैं, तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी, कैसे चलूं। चारों ओर अंधेरा था। केवल चूल्हों में आग चमक रही थी और चूल्हों के पास एक कुत्ता लेटा हुआ था। लाडली की दृष्टि सामने वाले नीम पर गई। उसे मालूम हुआ कि उस पर हनुमान जी बैठे हुए हैं। उनकी पूंछ, उनकी गदा, वह स्पष्ट दिखलाई दे रही है। मारे भय के उसने आँखें बंद कर लीं। इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाडली को ढाढ़स हुआ। कई सोये हुए मनुष्यों के बदले एक भागता हुआ कुत्ता उसके लिए अधिक धैर्य का कारण हुआ। उसने पिटारी उठाई और बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली।

(5)

बूढ़ी काकी को केवल इतना स्मरण था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़कर घसीटे, फिर ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाये लिए जाता है। उनके पैर बार-बार पत्थरों से टकराये, तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर से पटका, वे मूर्छित हो गईं।

जब वे सचेत हुईं तो किसी की ज़रा भी आहट न मिलती थी। समझी कि सब लोग खा-पीकर सो गये और उनके साथ मेरी तकदीर भी सो गई। रात कैसे कटेगी? राम! क्या खाऊं? पेट में अग्नि धधक रही है। हा! किसी ने मेरी सुधि न ली। क्या मेरा पेट काटने से धन जुड़ जाएगा? इन लोगों को इतनी भी दया नहीं आती कि न जाने बुढ़िया कब मर जाये? उसका जी क्यों दुखावें? मैं पेट की रोटियाँ ही खाती हूँ कि और कुछ? इस पर यह हाल। मैं अंधी, अपाहिज ठहरी, न कुछ सुनूं, न बूझूं। यदि आंगन में चली गई, तो क्या बुद्धिराम से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खाना खा रहे हैं फिर आना। मुझे घसीटा, पटका। उन्हीं पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने गालियाँ दीं। उन्हीं पूड़ियों के लिए इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा। सबको खिलाया, मेरी बात तक न पूछी। जब तब ही न दीं, तब अब क्या देंगे? यह विचार कर काकी निराशामय संतोष के साथ लेट गई। ग्लानि से गला भर-भर आता था, परन्तु मेहमानों के भय से रोती न थीं। सहसा कानों में आवाज़ आई– ‘काकी उठो, मैं पूड़ियाँ लाई हूँ।’ काकी ने लाड़ली की बोली पहचानी। चटपट उठ बैठीं। दोनों हाथों से लाडली को टटोला और उसे गोद में बिठा लिया। लाडली ने पूड़ियाँ निकालकर दीं।

काकी ने पूछा—‘क्या तुम्हारी अम्मा ने दी है?’

लाडली ने कहा—‘नहीं, यह मेरे हिस्से की हैं।‘

काकी पूड़ियों पर टूट पडीं। पाँच मिनट में पिटारी खाली हो गई। लाडली ने पूछा—‘काकी पेट भर गया।‘

जैसे थोड़ी-सी वर्षा ठंडक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती है, उस भांति इन थोड़ी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा और इक्षा को और उत्तेजित कर दिया था। बोलीं—‘नहीं बेटी, जाकर अम्मा से और मांग लाओ।‘

लाड़ली ने कहा—‘अम्मा सोती हैं, जगाऊंगी तो मारेंगीं।‘

काकी ने पिटारी को फिर टटोला। उसमें कुछ खुर्चन गिरी थी। बार-बार होंठ चाटती थीं, चटखारे भरती थीं।

हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कैसे पाऊं। संतोष-सेतु जब टूट जाता है, तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है। मतवालों को मद का स्मरण करना उन्हें मदांध बनाता है। काकी का अधीर मन इच्छाओं के प्रबल प्रवाह में बह गया। उचित और अनुचित का विचार जाता रहा। वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रहीं। सहसा लाडली से बोलीं—‘मेरा हाथ पकड़कर वहाँ ले चलो, जहाँ मेहमानों ने बैठकर भोजन किया है।‘

लाडली उनका अभिप्राय समझ न सकी। उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर झूठे पत्तलों के पास बिठा दिया। दीन, क्षुधातुर, हत् ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी। ओह… दही कितना स्वादिष्ट था, कचौड़ियाँ कितनी सलोनी, ख़स्ता कितने सुकोमल। काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं वह काम कर रही हूँ, जो मुझे कदापि न करना चाहिए। मैं दूसरों की झूठी पत्तल चाट रही हूँ। परन्तु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब संपूर्ण इच्छायें एक ही केन्द्र पर आ लगती हैं। बूढ़ी काकी में यह केन्द्र उनकी स्वादेन्द्रिय थी।

ठीक उसी समय रूपा की आँख खुली। उसे मालूम हुआ कि लाड़ली मेरे पास नहीं है। वह चौंकी, चारपाई के इधर-उधर ताकने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी। उसे वहाँ न पाकर वह उठी, तो क्या देखती है कि लाड़ली जूठे पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खा रही है। रूपा का हृदय सन्न हो गया। किसी गाय की गरदन पर छुरी चलते देखकर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई। एक ब्राह्मणी दूसरों की झूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असंभव था। पूड़ियों के कुछ ग्रासों के लिए उसकी चचेरी सास ऐसा निष्कृष्ट कर्म कर रही है। यह वह दृश्य था, जिसे देखकर देखने वालों के हृदय कांप उठते हैं। ऐसा प्रतीत होता, मानो ज़मीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई आपत्ति आने वाली है। रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आईं। इस अधर्म का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा—‘परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो। इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जायेगा।‘

रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी न दिख पड़े थे। वह सोचने लगी—‘हाय! कितनी निर्दय हूँ। जिसकी संपत्ति से मुझे दो सौ रुपया आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति। और मेरे कारण। हे दयामय भगवान! मुझसे बड़ी भारी चूक हुई है, मुझे क्षमा करो। आज मेरे बेटे का तिलक था। सैकड़ों मनुष्यों ने भोजन पाया। मैं उनके इशारों की दासी बनी रही। अपने नाम के लिए सैकड़ों रुपए व्यय कर दिए, परन्तु जिसकी बदौलत हज़ारों रुपए खाये, उसे इस उत्सव में भी भरपेट भोजन न दे सकी। केवल इसी कारण तो, वह वृद्धा असहाय है।

रूपा ने दिया जलाया, अपने भंडार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियाँ सजाकर बूढ़ी काकी की ओर चली।

आधी रात जा चुकी थी, आकाश पर तारों के थाल सजे हुए थे और उन पर बैठे हुए देवगण स्वर्गीय पदार्थ सजा रहे थे, परन्तु उसमें किसी को वह परमानंद प्राप्त न हो सकता था, जो बूढ़ी काकी को अपने सम्मुख थाल देखकर प्राप्त हुआ। रूपा ने कंठारुद्ध स्वर में कहा—‘काकी उठो, भोजन कर लो। मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर दो कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दें।‘

भोले-भोले बच्चों की भांति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थी। उनके एक-एक रोंयें  से सच्ची सदिच्छायें निकल रही थीं और रूपा बैठी स्वर्गीय दृश्य का आनंद लेने में निमग्न थी।

पूस की रात मुंशी प्रेमचंद की कहानी

हल्कू ने आकर स्त्री से कहा – सहना आया है। लाओं, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूं, किसी तरह गला तो छूटे।

मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली – तीन ही रुपये हैं, दे दोगे तो कंबल कहाँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी ? उससे कह दो, फसल पर दे देंगें। अभी नहीं ।

हल्कू एक क्षण अनिशिचत दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार मे रात को वह किसी तरह सो नहीं सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों मे मरेंगे, बला तो सिर से टल जायेगी। यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिध्द करता था) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला – दे दे, गला तो छूटे। कंबल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूंगा।

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आँखें तरेरती हुई बोली – कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूं तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कंबल? न जान कितनी बाकी है, जो किसी तरह चुकने ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो, तो बाकी दे दो, चलो छुटटी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जन्म हुआ हैं। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आये। मैं रुपयें न दूंगी, न दूंगी।

हल्कू उदास होकर बोला – तो क्या गाली खाऊं?

मुन्नी ने तड़पकर कहा – गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?

मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढ़ीली पड़ गई। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भांति उसे घूर रहा था।

उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिये। फिर बोली – तुम छोड़ दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस।
हल्कू न रुपयें लिये और इस तरह बाहर चला, मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-काटकर तीन रुपये कंबल के लिए जमा किए थे। वह आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक पानी दीनता के भार से दबा जा रहा था।

(2)

पूस की अंधेरी रात! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक छतरी के नीचे बांस के खटाले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा कांप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट मे मुँह डाले सर्दी से कूं-कूं कर रहा था। दो मे से एक को भी नींद नहीं आ रही थी।

हल्कू ने घुटनियों को गरदन में चिपकाते हुए कहा – क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहाँ क्या लेने आये थे? अब खाओ ठंड, मै क्या करूं? जानते थे, मैं यहाँ हलुआ-पूरी खाने आ रहा हूँ, दोड़े-दौड़े आगे-आगे चले आये। अब रोओ नानी के नाम को।

जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलायी और अपनी कूं-कूं को दीर्घ बनाता हुआ कहा – कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे। यह रांड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही है। उठूं, फिर एक चिलम भरूं। किसी तरह रात तो कटे! आठ चिलम तो पी चुका। यह खेती का मजा हैं! और एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा आये, तो गरमी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गददे, लिहाफ, कंबल। मज़ाल है, जाड़े का गुज़र हो जाये। जकदीर की खूबी! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें!

हल्कू उठा, गड्ढ़े मे से जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी। जबरा भी उठ बैठा।

हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा – पियेगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता हैं, हाँ जरा, मन बदल जाता है।

जबरा ने उनके मुँह की ओर प्रेम से छलकता हुई आँखों से देखा।

हल्कू – आज और जाड़ा खा ले। कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूंगा। उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा।

जबरा ने अपने पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिये और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया। हल्कू को उसकी गर्म साँस लगी।
चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊंगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कंपन होने लगा। कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा किसी पिशाच की भांति उसकी छाती को दबाये हुए था।

जब किसी तरह न रहा गया, उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसक सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया। कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद मे चिपटाये हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था। जबरा शायद यह समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न थी। अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता। वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुँचा दिया। नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिए थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था।

सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई। इस विशेष आत्मीयता ने उसमें एक नई स्फूर्ति पैदा कर रही थी, जो हवा के ठंडें झोकों को तुच्छ समझती थी। वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भूंकने लगा। हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया। हार मे चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूंकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरंत ही फिर दौड़ता। कर्त्तव्य उसके हृदय में अरमान की भांति ही उछल रहा था।

(3)

एक घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरु किया।

हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई, ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया हैं, धमनियों मे रक्त की जगह हिम बह रही है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े। ऊपर आ जायेंगे, तब कहीं सबेरा होगा। अभी पहर से ऊपर रात है।

हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था। पतझड़ शुरु हो गई थी। बाग में पत्तियो को ढेर लगा हुआ था। हल्कू ने सोच, चलकर पत्तियों बटोरूं और उन्हें जलाकर खूब तापूं। रात को कोई मुझे पत्तियों बटारते देख ले तो समझे, कोई भूत है। कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रह जाता।

उसने पास के अरहर के खेत मे जाकर कई पौधे उखाड़ लिये और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिये बगीचे की तरफ चला। जबरा ने उसे आते देखा, पास आया और दुम हिलाने लगा।

हल्कू ने कहा – अब तो नहीं रहा जाता जबरू। चलो बगीचे में पत्तियाँ बटोरकर तापें। टॉटे हो जायेंगे, तो फिर आकर सोयेंगें। अभी तो बहुत रात है।

जबरा ने कूं-कूं करके सहमति प्रकट की और आगे बगीचे की ओर चला गया।

बगीचे में खूब अंधेरा छाया हुआ था और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था। वृक्षों से ओस की बूंदे टप-टप नीचे टपक रही थीं।

एकाएक एक झोंका मेहंदी के फूलों की खूशबू लिए हुए आया।

हल्कू ने कहा – कैसी अच्छी महक आई जबरू! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही हैं?

जबरा को कहीं जमीन पर एक हड्डी पड़ी मिल गई थी। उसे चिंचोड़ रहा था।

हल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियाँ बटोरने लगा। जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया था। हाथ ठिठुरे जाते थे। नंगे पांव गले जाते थे। और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था। इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा।

थोड़ी देर में अलावा जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी। उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर संभाले हुए हों। अंधकार के उस अनंत सागर मे यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था।

हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था। एक क्षण में उसने दोहर उताकर बगल में दबा ली, दोनों पांव फैला दिये, मानो ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में आए सो कर। ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था।

उसने जबरा से कहा – क्यों जबीर, अब ठंड नहीं लग रही है?

जब्बर ने कूं-कूं करके मानो कहा – अब क्या ठंड लगती ही रहेगी?

‘पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खाते।’

जबरा ने पूंछ हिलायी ।

अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें। देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गए बचा, तो मैं दवा न करूंगा।

जबरा ने उस अग्नि-राशि की ओर कातर नेत्रों से देखा!

मुन्नी से कल न कह देना, नहीं लड़ाई करेगी।

यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ निकल गया। पैरों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी। जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ।

हल्कू ने कहा – चलो-चलो इसकी सही नहीं! ऊपर से कूदकर आओ। वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया।

(4)

पत्तियाँ जल चुकी थीं। बगीचे में फिर अंधेरा छा गया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर आँखें बंद कर लेती थी !

हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके बदन में गर्मी आ गई थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था।

जबरा जोर से भूंककर खेत की ओर भागा। हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुण्ड खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुण्ड था। उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थी। फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रहीं है। उनके चबाने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी।

उसने दिल में कहा – नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहाँ! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ!

उसने जोर से आवाज लगायी – जबरा, जबरा।

जबरा भूंकता रहा। उसके पास न आया।

फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दंदाया हुआ बैठा था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला।

उसने जोर से आवाज लगायी – हिलो! हिलो! हिलो!

जबरा फिर भूंक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार है। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते है।

हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा।

जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नील गाये खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था। अकर्मण्यता ने रस्सियों की भांति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था।

उसी राख के पस गर्म जमीन परद वही चादर ओढ़ कर सो गया।

सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैली गई थी और मुन्नी की रही थी-क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहॉ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया।

हल्कू न उठकर कहा – क्या तू खेत से होकर आ रही है?

मुन्नी बोली – हाँ, सारे खेत का सत्यनाश हो गया। भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहाँ मडैया डालने से क्या हुआ?

हल्कू ने बहाना किया – मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी हैं। पेट में ऐसा दरद हुआ, ऐसा दरद हुआ कि मै नहीं जानता हूँ!

दोनों फिर खेत के डांड पर आये। देखा सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मडैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों।

दोनों खेत की दशा देख रहे थे। मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था।

मुन्नी ने चिंतित होकर कहा – अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।

हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा – रात को ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।

पंच परमेश्वर मुंशी प्रेमचंद की कहानी 

(1)

जुम्मन शेख अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गये थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गये थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खाना-पाना का व्यवहार था, न धर्म का नाता; केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है।

इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों मित्र बालक ही थे, और जुम्मन के पूज्य पिता, जुमराती, उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरूजी की बहुत सेवा की थी, खूब प्याले धोये। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता था, क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी। अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे। उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-सुश्रूषा पर अधिक विश्वास था। वह कहते थे कि विद्या पढ़ने ने नहीं आती; जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से। बस, गुरुजी की कृपा-दृष्टि चाहिए। अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआ, तो यह मानकर संतोष कर लेना कि विद्योपार्जन में मैंने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी, विद्या उसके भाग्य ही में न थी, तो कैसे आती?

मगर जुमराती शेख स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे। उन्हें अपने सोटे पर अधिक भरोसा था, और उसी सोटे के प्रताप से आज-पास के गाँवों में जुम्मन की पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रेहननामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कदम न उठा सकता था। हल्के का डाकिया, कांस्टेबिल और तहसील का चपरासी – सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे। अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अनमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे।

(2)

जुम्मन शेख की एक बूढ़ी ख़ाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थी; परन्तु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लंबे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम लिखवा ली थी। जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक ख़ालाजान का खूब आदर-सत्कार किया गया; उन्हें खूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गये। हलवे-पुलाव की वर्षा-सी की गयी; पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन ख़ातिरदारियों पर भी मानों मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख भी निष्ठुर हो गये। अब बेचारी ख़ालाजान को प्राय: नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थी।

बुढ़िया न जाने कब तक जियेगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया, मानो मोल ले लिया है ! बघारी दाल के बिना रोटियाँ नहीं उतरती! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुके, उतने से तो अब तक गाँव मोल ले लेते।

कुछ दिन ख़ालाजान ने सुना और सहा; पर जब न सहा गया तब जुम्मन से शिकायत की। जुम्मन ने स्थानीय कर्मचारी—गृहस्वामी को प्रबंध देना उचित न समझा।

कुछ दिन तक दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा। अंत में एक दिन ख़ाला ने जुम्मन से कहा — ‘बेटा ! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपये दे दिया करो, मैं अपना पका-खा लूंगी।‘

जुम्मन ने घृष्टता के साथ उत्तर दिया — ‘रुपये क्या यहाँ फलते हैं?’

ख़ाला ने नम्रता से कहा — ‘मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए भी कि नहीं?’

जुम्मन ने गम्भीर स्वर से जवाब़ दिया — ‘तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि तु मौत से लड़कर आयी हो?’

ख़ाला बिगड़ गयीं, उन्होंने पंचायत करने की धमकी दी। जुम्मन हँसे, जिस तरह कोई शिकारी हिरण को जाली की तरफ जाते देख कर मन ही मन हँसता है। वह बोले — ‘हाँ, ज़रूर पंचायत करो। फ़ैसला हो जाये। मुझे भी यह रात-दिन की खटखट पसंद नहीं।‘

पंचायत में किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न थ। आस-पास के गाँवों में ऐसा कौन था, उसके अनुग्रहों का ऋणी न हो; ऐसा कौन था, जो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सके? किसमें इतना बल था, जो उसका सामना कर सके? आसमान के फ़रिश्ते तो पंचायत करने आवेंगे ही नहीं।

(3)

इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी ख़ाला हाथ में एक लकड़ी लिये आस-पास के गाँवों में दौड़ती रहीं। कमर झुक कर कमान हो गयी थी। एक-एक पग चलना दूभर था; मगर बात आ पड़ी थी। उसका निर्णय करना ज़रूरी था।

बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके समाने बुढ़िया ने दु:ख के आँसू न बहाये हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ-हाँ करके टाल दिया, और किसी ने इस अन्याय पर जमाने को गालियाँ दीं। कहा — ‘कब्र में पाँव अटके हुए हैं, आज मरे, कल दूसरा दिन, पर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिए? रोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। तुम्हें अब खेती-बारी से क्या काम है?’

कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें हास्य-रस के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमर, पोपला मुँह, सन के से बाल इतनी सामग्री एकत्र हों, तब हँसी क्यों न आवे? ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने इस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घाम कर बेचारी अलगू चौधरी के पास आयी। लाठी पटक दी और दम लेकर बोली —‘बेटा, तुम भी दम भर के लिये मेरी पंचायत में चले आना।‘

अलगू — ‘मुझे बुला कर क्या करोगी? कई गाँव के आदमी तो आवेंगे ही।‘

ख़ाला — ‘अपनी विपदा तो सबके आगे रो आयी। अब आने न आने का अख्तियार उनको है।‘

अलगू — ‘यों आने को आ जाऊंगा; मगर पंचायत में मुँह न खोलूंगा।‘

ख़ाला — ‘क्यों बेटा?’

अलगू — ‘अब इसका कया जवाब दूं? अपनी ख़ुशी। जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता।‘

ख़ाला — ‘बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?’

हमारे सोये हुए धर्म-ज्ञान की सारी संपत्ति लुट जाये, तो उसे ख़बर नहीं होता, परंतु ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का कोई उत्तर न दे सका, पर उसके

हृदय में ये शब्द गूंज रहे थे-

‘क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?’

(4)

संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख जुम्मन ने पहले से ही फर्श बिछा रखा था। उन्होंने पान, इलायची, हुक्के-तम्बाकू आदि का प्रबंध भी किया था। हाँ, वह स्वयं अलबत्ता अलगू चौधरी के साथ ज़रा दूर पर बैठे। जब पंचायत में कोई आ जाता था, तब दुआ सलाम से उसका स्वागत करते थे। जब सूर्य अस्त हो गया और चिड़ियों की कलरवयुक्त पंचायत पेड़ों पर बैठी, तब यहाँ भी पंचायत शुरू हुई। फर्श की एक-एक अंगुल जमीन भर गयी; पर अधिकांश दर्शक ही थे। निमंत्रित महाशयों में से केवल वे ही लोग पधारे थे, जिन्हें जुम्मन से अपनी कुछ कसर निकालनी थी। एक कोने में आग सुलग रही थी। नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असंभव था कि सुलगते हुए उपलों से अधिक धुआं निकलता था या चिलम के दमों से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आपस में गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ कोलाहल मच रहा था। गाँव के कुत्ते इस जमाव को भोज समझकर झुंड के झुंड जमा हो गए थे।

पंच लोग बैठ गये, तो बूढ़ी खाला ने उनसे विनती की –

‘पंचों, आज तीन साल हुए, मैंने अपनी सारी जायदाद अपने भानजे जुम्मन के नाम लिख दी थी। इसे आप लोग जानते ही होंगे। जुम्मन ने मुझे ता-हयात रोटी-कपड़ा देना कबूल किया। साल-भर तो मैंने इसके साथ रो-धोकर काटा। पर अब रात-दिन का रोना नहीं सहा जाता। मुझे न पेट की रोटी मिलती है न तन का कपड़ा। बेकस बेवा हूँ। कचहरी दरबार नहीं कर सकती। तुम्हारे सिवा और किसको अपना दु:ख सुनाऊं? तुम लोग जो राह निकाल दो, उसी राह पर चलूं। अगर मुझमें कोई ऐब देखो, तो मेरे मुँह पर थप्पड़ मारो। जुम्मन में बुराई देखो, तो उसे समझाओं, क्यों एक बेकस की आह लेता है ! मैं पंचों का हुक्म सिर-माथे पर चढ़ाऊंगी।’

रामधन मिश्र, जिनके कई असामियों को जुम्मन ने अपने गाँव में बसा लिया था, बोले — ‘जुम्मन मियां किसे पंच बदते हो? अभी से इसका निपटारा कर लो। फिर जो कुछ पंच कहेंगे, वही मानना पड़ेगा।‘

जुम्मन को इस समय सदस्यों में विशेषकर वे ही लोग दिख पड़े, जिनसे किसी न किसी कारण उनका वैमनस्य था। जुम्मन बोले — ‘पंचों का हुक्म अल्लाह का हुक्म है। ख़ालाजान जिसे चाहें, उसे बदें। मुझे कोई उज्र नहीं।‘

ख़ाला ने चिल्लाकर कहा – ‘अरे अल्लाह के बंदे! पंचों का नाम क्यों नहीं बता देता? कुछ मुझे भी तो मालूम हो।‘

जुम्मन ने क्रोध से कहा – ‘इस वक्त मेरा मुँह न खुलवाओ। तुम्हारी बन पड़ी है, जिसे चाहो, पंच बदो।‘

ख़ालाजान जुम्मन के आक्षेप को समझ गयीं, वह बोली – ‘बेटा, ख़ुदा से डरो। पंच न किसी के दोस्त होते हैं, ने किसी के दुश्मन। कैसी बात कहते हो! और तुम्हारा किसी पर विश्वास न हो, तो जाने दो; अलगू चौधरी को तो मानते हो, लो, मैं उन्हीं को सरपंच बदती हूँ।‘

जुम्मन शेख आनंद से फूल उठे, परंतु भावों को छिपा कर बोले – ‘अलगू ही सही, मेरे लिए जैसे रामधन वैसे अलगू।‘

अलगू इस झमेले में फंसना नहीं चाहते थे। वे कन्नी काटने लगे। बोले –‘ख़ाला, तुम जानती हो कि मेरी जुम्मन से गाढ़ी दोस्ती है।‘

खाला ने गंभीर स्वर में कहा – ‘बेटा, दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच के दिल में ख़ुदा बसता है। पंचों के मुँह से जो बात निकलती है, वह ख़ुदा की तरफ से निकलती है।’

अलगू चौधरी सरपंच हुए, रामधन मिश्र और जुम्मन के दूसरे विरोधियों ने बुढ़िया को मन में बहुत कोसा।

अलगू चौधरी बोले – ‘शेख जुम्मन! हम और तुम पुराने दोस्त हैं! जब काम पड़ा, तुमने हमारी मदद की है और हम भी जो कुछ बन पड़ा, तुम्हारी सेवा करते रहे हैं; मगर इस समय तुम और बूढ़ी ख़ाला, दोनों हमारी निगाह में बराबर हो। तुमको पंचों से जो कुछ अर्ज़ करनी हो, करो।‘

जुम्मन को पूरा विश्वास था कि अब बाज़ी मेरी है। अलग यह सब दिखावे की बातें कर रहा है। अतएव शांत-चित्त हो कर बोले – ‘पंचों, तीन साल हुए ख़ालाजान ने अपनी जायदाद मेरे नाम हिब्बा कर दी थी। मैंने उन्हें ता-हयात खाना-कपड़ा देना कबूल किया था। ख़ुदा गवाह है, आज तक मैंने ख़ालाजान को कोई तकलीफ़ नहीं दी। मैं उन्हें अपनी माँ के समान समझता हूँ। उनकी ख़िदमत करना मेरा फर्ज़ है; मगर औरतों में ज़रा अनबन रहती है, उसमें मेरा क्या बस है? ख़ालाजान मुझसे माहवार खर्च अलग मांगती है। जायदाद जितनी है; वह पंचों से छिपी नहीं। उससे इतना मुनाफ़ा नहीं होता है कि माहवार खर्च दे सकूं। इसके अलावा हिब्बानामे में माहवार खर्च का कोई ज़िक्र नहीं। नहीं तो मैं भूलकर भी इस झमेले मे न पड़ता। बस, मुझे यही कहना है। आइंदा पंचों का अख्तियार है, जो फैसला चाहें, करे।‘

अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी से काम पड़ता था। अतएव वह पूरा कानूनी आदमी था। उसने जुम्मन से ज़िरह शुरू की। एक-एक प्रश्न जुम्मन के हृदय पर हथौड़ी की चोट की तरह पड़ता था। रामधन मिश्र इस प्रश्नों पर मुग्ध हुए जाते थे। जुम्मन चकित थे कि अलगू को क्या हो गया। अभी यह अलगू मेरे साथ बैठी हुआ कैसी-कैसी बातें कर रहा था! इतनी ही देर में ऐसी कायापलट हो गयी कि मेरी जड़ खोदने पर तुला हुआ है। न मालूम कब की कसर यह निकाल रहा है? क्या इतने दिनों की दोस्ती कुछ भी काम न आवेगी?

जुम्मन शेख तो इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि इतने में अलगू ने फैसला सुनाया –

‘जुम्मन शेख! पंचों ने इस मामले पर विचार किया। उन्हें यह नीति संगत मालूम होता है कि ख़ालाजान को माहवार खर्च दिया जाये। हमारा विचार है कि ख़ाला की जायदाद से इतना मुनाफ़ा अवश्य होता है कि माहवार खर्च दिया जा सके। बस, यही हमारा फ़ैसला है। अगर जुम्मन को खर्च देना मंजूर न हो, तो हिब्वानामा रद्द समझा जाये।‘

यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गये। जो अपना मित्र हो, वह शत्रु का व्यवहार करे और गले पर छुरी फेरे, इसे समय के हेर-फेर के सिवा और क्या कहें? जिस पर पूरा भरोसा था, उसने समय पड़ने पर धोखा दिया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-सच्चे मित्रों की परीक्षा की जाती है। यही कलियुग की दोस्ती है। अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज न होते, तो देश में आपत्तियों का प्रकोप क्यों होता? यह हैजा-प्लेग आदि व्याधियाँ दुष्कर्मों के ही दंड हैं।

मगर रामधन मिश्र और अन्य पंच अलगू चौधरी की इस नीति-परायणता को प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे — ‘इसका नाम पंचायत है! दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। दोस्ती, दोस्ती की जगह है, किंतु धर्म का पालन करना मुख्य है। ऐसे ही सत्यवादियों के बल पर पृथ्वी ठहरी है, नहीं तो वह कब की रसातल को चली जाती।‘

इस फैसले ने अलगू और जुम्मन की दोस्ती की जड़ हिला दी। अब वे साथ-साथ बातें करते नहीं दिखायी देते। इतना पुराना मित्रता-रूपी वृक्ष

सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही जमीन पर खड़ा था।

उनमें अब शिष्टाचार का अधिक व्यवहार होने लगा। एक दूसरे की आवभगत ज्यादा करने लगा। वे मिलते-जुलते थे, मगर उसी तरह जैसे तलवार से ढाल मिलती है।

जुम्मन के चित्त में मित्र की कुटिलता आठों पहर खटका करती थी। उसे हर घड़ी यही चिंता रहती थी कि किसी तरह बदला लेने का अवसर मिले।

(5)

अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती है; पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं होती; जुम्मन को भी बदला लेने का अवसर जल्द ही मिल गया। पिछले साल अलगू चौधरी बटेसर से बैलों की एक बहुत अच्छी गोई मोल लाये थे। बैल पछाहीं जाति के सुंदर, बड़े-बड़े सीगों वाले थे। महीनों तक आस-पास के गाँव के लोग दर्शन करते रहे। दैवयोग से जुम्मन की पंचायत के एक महीने के बाद इस जोड़ी का एक बैल मर गया।

जुम्मन ने दोस्तों से कहा – ‘यह दग़ाबाज़ी की सजा है। इंसान सब्र भले ही कर जाये, पर ख़ुदा नेक-बद सब देखता है। अलगू को संदेह हुआ कि जुम्मन ने बैल को विष दिला दिया है।

चौधराइन ने भी जुम्मन पर ही इस दुर्घटना का दोषारोपण किया उसने कहा – ‘जुम्मन ने कुछ कर-करा दिया है।‘

चौधराइन और करीमन में इस विषय पर एक दिन खुब ही वाद-विवाद हुआ। दोनों देवियों ने शब्द-बाहुल्य की नदी बहा दी। व्यंगय, वक्तोक्ति अन्योक्ति और उपमा आदि अलंकारों में बातें हुईं। जुम्मन ने किसी तरह शांति स्थापित की। उन्होंने अपनी पत्नी को डांट-डपट कर समझा दिया। वह उसे उस रणभूमि से हटा भी ले गये। उधर अलगू चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तर्क-पूर्ण सोंटे से लिया।

अब अकेला बैल किस काम का? उसका जोड़ बहुत ढूंढा गया, पर न मिला। निदान यह सलाह ठहरी कि इसे बेच डालना चाहिए। गाँव में एक समझू साहु थे, वह इक्का-गाड़ी हांकते थे। गाँव के गुड़-घी लाद कर मंडी ले जाते, मंडी से तेल, नमक भर लाते, और गाँव में बेचते। इस बैल पर उनका मन लहराया। उन्होंने सोचा, यह बैल हाथ लगे तो दिन-भर में बेखटके तीन खेप हों। आज-कल तो एक ही खेप में लाले पड़े रहते हैं। बैल देखा, गाड़ी में दोड़ाया, बाल-भौरी की पहचान करायी, मोल-तोल किया और उसे ला कर द्वार पर बांध ही दिया। एक महीने में दाम चुकाने का वादा ठहरा। चौधरी को भी गरज थी ही, घाटे की परवाह न की।

समझू साहू ने नया बैल पाया, तो लगे उसे रगड़ने। वह दिन में तीन-तीन, चार-चार खेपें करने लगे। न चारे की फ़िक्र थी, न पानी की, बस खेपों से काम था। मंडी ले गये, वहाँ कुछ सूखा भूसा सामने डाल दिया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया था कि फिर जोत दिया। अलगू चौधरी के घर था, तो चैन की बंशी बचती थी। बैलराम छठे-छमाहे कभी बहली में जोते जाते थे। खूब उछलते-कूदते और कोसों तक दौड़ते चले जाते थे। वहाँ बैलराम का रातिब था, साफ पानी, दली हुई अरहर की दाल और भूसे के साथ खली, और यही नहीं, कभी-कभी घी का स्वाद भी चखने को मिल जाता था। शाम-सबेरे एक आदमी खरहरे करता, पोंछता और सहलाता था। कहाँ वह सुख-चैन, कहाँ यह आठों पहर कही खपत। महीने-भर ही में वह पिस-सा गया। इक्के का यह जुआ देखते ही उसका लहू सूख जाता था। एक-एक पग चलना दूभर था। हड्डियाँ निकल आयी थी; पर था वह पानीदार, मार बरदाश्त न थी।

एक दिन चौथी खेप में साहू जी ने दूना बोझ लादा। दिन-भर का थका जानवर, पैर न उठते थे। पर साहू जी कोड़े फटकारने लगे। बस, फिर क्या था, बैल कलेजा तोड़ कर चला। कुछ दूर दौड़ा और चाहा कि ज़रा दम ले लूं; पर साहू जी को जल्द पहुँचने की फ़िक्र थी; अतएव उन्होंने कई कोड़े बड़ी निर्दयता से फटकारे। बैल ने एक बार फिर जोर लगाया; पर अबकी बार शक्ति ने जवाब दे दिया। वह धरती पर गिर पड़ा, और ऐसा गिरा कि फिर न उठा। साहू जी ने बहुत पीटा, टांग पकड़कर खीचा, नथनों में लकड़ी ठूंस दी; पर कहीं मृतक भी उठ सकता है? तब साहु जी को कुछ शक हुआ। उन्होंने बैल को गौर से देखा, खोलकर अलग किया; और सोचने लगे कि गाड़ी कैसे घर पहुँचे। बहुत चीखे-चिल्लाये; पर देहात का रास्ता बच्चों की आँख की तरह सांझ होते ही बंद हो जाता है। कोई नज़र न आया। आस-पास कोई गाँव भी न था। मारे क्रोध के उन्होंने मरे हुए बैल पर और दुर्रे लगाये और कोसने लगे – ‘अभागे। तुझे मरना ही था, तो घर पहुँचकर मरता ! ससुरा बीच रास्ते ही में मर रहा। अब गाड़ी कौन खींचे? इस तरह साहु जी खूब जले-भुने। कई बोरे गुड़ और कई पीपे घी उन्होंने बेचे थे, दो-ढाई सौ रुपये कमर में बंधे थे। इसके सिवा गाड़ी पर कई बोरे नमक थे; अतएव छोड़ कर जा भी न सकते थे। लाचार वेचारे गाड़ी पर ही लेटे गये। वहीं रतजगा करने की ठान ली। चिलम पी, गाया। फिर हुक्का पिया। इस तरह साह जी आधी रात तक नींद को बहलाते रहें। अपनी जान में तो वह जागते ही रहे; पर पौ फटते ही जो नींद टूटी और कमर पर हाथ रखा, तो थैली गायब! घबरा कर इधर-उधर देखा, तो कई कनस्तर तेल भी नदारत! अफ़सोस में बेचारे ने सिर पीट लिया और पछाड़ खाने लगा। प्रात: काल रोते-बिलखते घर पहुँचे।

सहुआइन ने जब यह बूरी सुनावनी सुनी, तब पहले तो रोयी, फिर अलगू चौधरी को गालियाँ देने लगी – ‘निगोड़े ने ऐसा कुलच्छनी बैल दिया कि जन्म-भर की कमाई लुट गयी।‘

इस घटना को हुए कई महीने बीत गए। अलगू जब अपने बैल के दाम मांगते तब साहू और सहुआइन, दोनों ही झल्लाये हुए कुत्ते की तरह चढ़ बैठते और अंड-बंड बकने लगते — ‘वाह! यहाँ तो सारे जन्म की कमाई लुट गई, सत्यानाश हो गया, इन्हें दामों की पड़ी है। मुर्दा बैल दिया था, उस पर दाम मांगने चले हैं! आँखों में धूल झोंक दी, सत्यानाशी बैल गले बांध दिया, हमें निरा पोंगा ही समझ लिया है! हम भी बनिये के बच्चे है, ऐसे बुद्धू कहीं और होंगे। पहले जाकर किसी गड़हे में मुँह धो आओ, तब दाम लेना। न जी मानता हो, तो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना जोत लो। और क्या लोगे?’

चौधरी के अशुभचिंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसरें पर वे भी एकत्र हो जाते और साहू जी के बराने की पुष्टि करते। परंतु डेढ़ सौ रुपये से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वह भी गरम पड़े। साहू जी बिगड़ कर लाठी ढूंढने घर चले गए। अब सहुआइन ने मैदान लिया। प्रश्नोत्तर होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुँची। सहुआइन ने घर में घुस कर किवाड़ बंद कर लिये। शोरगुल सुनकर गाँव के भलेमानस घर से निकाला। वह परामर्श देने लगे कि इस तरह से काम न चलेगा। पंचायत कर लो। कुछ तय हो जाये, उसे स्वीकार कर लो। साहू जी राजी हो गए। अलगू ने भी हामी भर ली।

(6)

पंचायत की तैयारियाँ होने लगीं। दोनों पक्षों ने अपने-अपने दल बनाने शुरू किए। इसके बाद तीसरे दिन उसी वृक्ष के नीचे पंचायत बैठी। वही संध्या का समय था। खेतों में कौए पंचायत कर रहे थे। विवादग्रस्त विषय था यह कि मटर की फलियों पर उनका कोई स्वत्व है या नही, और जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, तब तक वे रखवाले की पुकार पर अपनी अप्रसन्नता प्रकट करना आवश्यकत समझते थे। पेड़ की डालियों पर बैठी शुक-मंडली में वह प्रश्न छिड़ा हुआ था कि मनुष्यों को उन्हें वेसुरौवत कहने का क्या अधिकार है, जब उन्हें स्वयं अपने मित्रों से दगा करने में भी संकोच नहीं होता।

पंचायत बैठ गई, तो रामधन मिश्र ने कहा – ‘अब देरी क्या है? पंचों का चुनाव हो जाना चाहिए। बोलो चौधरी; किस-किस को पंच बदते हो।‘

अलगू ने दीन भाव से कहा – ‘समझू साहू ही चुन ले।‘

समझू खड़े हुए और कड़कर बोले – ‘मेरी ओर से जुम्मन शेख।‘

जुम्मन का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगा, मानों किसी ने अचानक थप्पड़ मारा दिया हो। रामधन अलगू के मित्र थे। वह बात को ताड़ गए। पूछा – ‘क्यों चौधरी तुम्हें कोई उज्र तो नहीं।‘

चौधरी ने निराश हो कर कहा – ‘नहीं, मुझे क्या उज्र होगा?’

अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर भटकने लगते हैं तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है।

पत्र-संपादक अपनी शांति कुटी में बैठा हुआ कितनी धृष्टता और स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मंत्रिमंडल पर आक्रमण करता है: परंतु ऐसे अवसर आते हैं, जब वह स्वयं मंत्रिमंडल में सम्मिलित होता है। मंडल के भवन में पग धरते ही उसकी लेखनी कितनी मर्मज्ञ, कितनी विचारशील, कितनी न्याय-परायण हो जाती है। इसका कारण उत्तर-दायित्व का ज्ञान है। नवयुवक युवावस्था में कितना उद्दंड रहता है। माता-पिता उसकी ओर से कितने चिंतित रहते है! वे उसे कुल-कलंक समझते हैं, परंतु थोड़े ही समय में परिवार का बोझ सिर पर पड़ते ही वह अव्यवस्थित-चित्त उन्मत्त युवक कितना धैर्यशील, कैसा शांतचित्त हो जाता है, यह भी उत्तरदायित्व के ज्ञान का फल है।

जुम्मन शेख के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही अपनी जिम्मेदारी का भाव पैदा हुआ। उसने सोचा, मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूँ। मेरे मुँह से इस समय जो कुछ निकलेगा, वह देववाणी के सदृश है और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए। मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नही!

पंचों ने दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करने शुरू किए। बहुत देर तक दोनों दल अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते रहे। इस विषय में तो सब सहमत थे कि समझू को बैल का मूल्य देना चाहिए। परंतु वो महाशय इस कारण रियायत करना चाहते थे कि बैल के मर जाने से समझू को हानि हुई। उसके प्रतिकूल दो सभ्य मूल के अतिरिक्त समझू को दंड भी देना चाहते थे, जिससे फिर किसी को पशुओं के साथ ऐसी निर्दयता करने का साहस न हो। अंत में जुम्मन ने फ़ैसला सुनाया –

‘अलगू चौधरी और समझू साहु। पंचों ने तुम्हारे मामले पर अच्छी तरह विचार किया। समझू को उचित है कि बैल का पूरा दाम दें। जिस वक्त उन्होंने बैल लिया, उसे कोई बीमारी न थी। अगर उसी समय दाम दे दिए जाते, तो आज समझू उसे फेर लेने का आग्रह न करते। बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम लिया गया और उसके दाने-चारे का कोई प्रबंध न किया गया।‘

रामधन मिश्र बोले – ‘समझू ने बैल को जान-बूझ कर मारा है, अतएव उससे दंड लेना चाहिए।‘

जुम्मन बोले – ‘यह दूसरा सवाल है। हमको इससे कोई मतलब नहीं!’

झगडू साहू ने कहा – ‘समझू के साथ कुछ रियायत होनी चाहिए।‘

जुम्मन बोले – ‘यह अलगू चौधरी की इच्छा पर निर्भर है। यह रियायत करें, तो उनकी भलमनसी।‘

अलगू चौधरी फूले न समाए। उठ खड़े हुए और जोर से बोल- ‘पंच-परमेश्वर की जय!’

इसके साथ ही चारों ओर से प्रतिध्वनि हुई – ‘पंच परमेश्वर की जय! यह मनुष्य का काम नहीं, पंच में परमेश्वर वास करते हैं, यह उन्हीं की महिमा है। पंच के सामने खोटे को कौन खरा कह सकता है?’

थोड़ी देर बाद जुम्मन अलगू के पास आए और उनके गले लिपट कर बोले – ‘भैया, जब से तुमने मेरी पंचायत की तब से मैं तुम्हारा प्राण-घातक शत्रु बन गया था; पर आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठ कर न कोई किसी का दोस्त है, न दुश्मन। न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता। आज मुझे विश्वास हो गया कि पंच की ज़ुबान से ख़ुदा बोलता है। अलगू रोने लगे। इस पानी से दोनों के दिलों का मैल धुल गया। मित्रता की मुरझाई हुई लता फिर हरी हो गई।

सवा सेर गेहूं मुंशी प्रेमचंद की कहानी

किसी गाँव में शंकर नाम का एक कुर्मी किसान रहता था। सीधा-सादा गरीब आदमी था, अपने काम-से-काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में। छक्का-पंजा न जानता था, छल-प्रपंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिंता न थी, ठगविद्या न जानता था। भोजन मिला, खा लिया, न मिला, चबेने पर काट दी; चबैना भी न मिला, तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा। किन्तु जब कोई अतिथि द्वार पर आ जाता था, तो उसे इस निवृत्तिमार्ग का त्याग करना पड़ता था। विशेषकर जब साधु-महात्मा पदार्पण करते थे, तो उसे अनिवार्यत: सांसारिकता की शरण लेनी पड़ती थी। खुद भूखा सो सकता था, पर साधु को कैसे भूखा सुलाता। भगवान के भक्त जो ठहरे !

एक दिन संध्या समय एक महात्मा ने आकर उसके द्वार पर डेरा जमाया। तेजस्वी मूर्ति थी, पीताम्बर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊ पैर में, ऐनक आँखों पर, संपूर्ण वेष उन महात्माओं का-सा था, जो रईसों के प्रासादों में तपस्या, हवागाड़ियों पर देवस्थानों की परिक्रमा और योग-सिध्दि प्राप्त करने के लिए रुचिकर भोजन करते हैं। घर में जौ का आटा था, वह उन्हें कैसे खिलाता। प्राचीनकाल में जौ का चाहे जो कुछ महत्व रहा हो, पर वर्तमान युग में जौ का भोजन सिद्ध पुरुषों के लिए दुष्पाच्य होता है। बड़ी चिंता हुई, महात्माजी को क्या खिलाऊं। आखिर निश्चय किया कि कहीं से गेहूँ का आटा उधार लाऊं, पर गाँव-भर में गेहूँ का आटा न मिला। गाँव में सब मनुष्य-ही-मनुष्य थे, देवता एक भी न था, अतएव देवताओं का खाद्य पदार्थ कैसे मिलता। सौभाग्य से गाँव के विप्र महाराज के यहाँ से थोड़ा-सा मिल गया। उनसे सवा सेर गेहूँ उधार लिया और स्त्री से कहा, कि पीस दे। महात्मा ने भोजन किया, लंबी तानकर सोये। प्रात:काल आशीर्वाद देकर अपनी राह ली।

विप्र महाराज साल में दो बार खलिहानी लिया करते थे। शंकर ने दिल में कहा,सवा सेर गेहूँ इन्हें क्या लौटाऊं, पंसेरी के बदले कुछ ज्यादा खलिहानी दे दूंगा। यह भी समझ जायेंगे, मैं भी समझ जाऊंगा। चैत में जब विप्रजी पहुँचे, तो उन्हें डेढ़ पंसेरी के लगभग गेहूँ दे दिया और अपने को उऋण समझकर उसकी कोई चर्चा न की। विप्रजी ने फिर कभी न मांगा। सरल शंकर को क्या मालूम था कि यह सवा सेर गेहूँ चुकाने के लिए मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा।

सात साल गुजर गये। विप्रजी विप्र से महाजन हुए, शंकर किसान से मजूर हो गया। उसका छोटा भाई मंगल उससे अलग हो गया था। एक साथ रहकर दोनों किसान थे, अलग होकर मजूर हो गये थे। शंकर ने चाहा कि द्वेष की आग भड़कने न पाये, किन्तु परिस्थिति ने उसे विवश कर दिया। जिस दिन अलग-अलग चूल्हे जले, वह फूट-फूटकर रोया। आज से भाई-भाई शत्रु हो जायेंगे; एक रोयेगा, दूसरा हँसेगा; एक के घर मातम होगा, तो दूसरे के घर गुलगुले पकेंगे। प्रेम का बंधन, खून का बंधन, दूध का बंधन आज टूटा जाता है। उसने भगीरथ परिश्रम से कुल-मर्यादा का वृक्ष लगाया था, उसे अपने रक्त से सींचा था, उसको जड़ से उखड़ता देखकर उसके हृदय के टुकड़े हुए जाते थे। सात दिनों तक उसने दाने की सूरत तक न देखी। दिन-भर जेठ की धूप में काम करता और रात को मुँह लपेटकर सो रहता। इस भीषण वेदना और दुस्सह्य कष्ट ने रक्त को जला दिया, मांस और मज्जा को घुला दिया। बीमार पड़ा, तो महीनों खाट से न उठा। अब गुजर-बसर कैसे हो!

पाँच बीघे के आधे रह गये, एक बैल रह गया, खेती क्या खाक होती! अंत को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती केवल मर्यादा-रक्षा का साधन-मात्र रह गयी, जीविका का भार मजूरी पर आ पड़ा। सात वर्ष बीत गये। एक दिन शंकर मजूरी करके लौटा, तो राह में विप्रजी ने टोककर कहा, “शंकर, कल आकर के अपने बीज-बेंग का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कबके बाकी पड़े हुए हैं और तू देने का नाम नहीं लेता। हजम करने का मन है क्या?”

शंकर ने चकित होकर कहा, “मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए थे, जो साढ़े पाँच मन हो गये? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ किसी का छटांक-भर न अनाज है, न एक पैसा उधार।”

विप्र – “इसी नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता।”

यह कहकर विप्रजी ने उस सवा सेर गेहूँ का जिक्र किया, जो आज के सात वर्ष पहले शंकर को दिये थे। शंकर सुनकर अवाक् रह गया। ईश्वर मैंने इन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्होंने मेरा कौन-सा काम किया? जब पोथी-पत्र देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ-न-कुछ ‘दक्षिणा’ ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ! सवा सेर अनाज को अंडे की भांति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जायेगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते, तो मैं गेहूँ तौलकर दे देता। क्या इसी नीयत से चुप साध बैठे रहे? बोला, “महाराज! नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानों में सेर-सेर, दो-दो सेर दिया है। अब आप आज साढ़े पाँच मन मांगते हैं, मैं कहाँ से दूंगा?”

विप्र -‘लेखा जौ-जौ, बखसीस सौ-सौ, तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की जगह चार पसेरी दे दो। तुम्हारे नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है; जिससे चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो, तो तुम्हारा नाम छेक दूं, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा।”

शंकर – “पाँडे, क्यों एक गरीब को सताते हो, मेरे खाने का ठिकाना नहीं, इतना गेहूँ किसके घर से लाऊंगा।”

विप्र – “ज़िसके घर से चाहे लाओ, मैं छटांक भर भी न छोडूंगा, यहाँ न दोगे, भगवान के घर तो दोगे।”

शंकर कांप उठा। हम पढ़े-लिखे आदमी होते, तो कह देते, “अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देंगे; वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी। कम-से-कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिंता। किन्तु शंकर इतना तार्किक, इतना व्यवहार-चतुर न था। एक तो ऋण, वह भी ब्राह्मण का। बही में नाम रह गया, तो सीधे नरक में जाऊंगा, इस खयाल ही से उसे रोमांच हो गया। बोला, ‘ महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूंगा, ईश्वर के यहाँ क्यों दूं, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों कांटे बोऊं? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे दूंगा, लेकिन तुम्हें भगवान के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।”

विप्र – “वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बंधु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं; देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, संभाल लेंगे। तो कब देते हो?”

शंकर – “मेरे पास रक्खा तो है नहीं, किसी से मांग जांचकर लाऊंगा, तभी न दूंगा ! ‘

विप्र -‘मैं यह न मानूंगा। सात साल हो गये, अब एक दिन का भी मुलाहिजा न करुंगा। गेहूँ नहीं दे सकते, तो दस्तावेज लिख दो।”

शंकर — “मुझे तो देना है। चाहे गेहूँ लो, चाहे दस्तावेज लिखाओ; किस हिसाब से दाम रक्खोगे?”

विप्र “‘बाजार-भाव पाँच सेर का है, तुम्हें सवा पाँच सेर का काट दूंगा।”

शंकर- “ज़ब दे ही रहा हूँ तो बाजार-भाव काटूंगा,, पाव-भर छुड़ाकर क्यों दोषी बनूं। ‘

हिसाब लगाया, तो गेहूँ के दाम 60/- हुए। 60/- का दस्तावेज लिखा गया, 3/- सैकड़े सूद। साल-भर में न देने पर सूद की दर ढाई रुपये सैकड़े। आठ आने का स्टाम्प, चार आने दस्तावेज की तहरीर शंकर को ऊपर से देनी पड़ी।

गाँव भर ने विप्रजी की निंदा की, लेकिन मुँह पर नहीं। महाजन से सभी का काम पड़ता है, उसके मुँह कौन आये। शंकर ने साल भर तक कठिन तपस्या की। मियाद के पहले रुपये अदा करने का उसने व्रत-सा कर लिया। दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था, चबैने पर बसर होती थी, अब वह भी बंद हुआ। केवल लड़के के लिए रात को रोटियाँ रख दी जातीं। पैसे रोज का तंबाकू पी जाता था। यही एक व्यसन था, जिसका वह कभी न त्याग कर सका था। अब वह व्यसन भी इस कठिन व्रत की भेंट हो गया। उसने चिलम पटक दी, हुक्का तोड़ दिया और तमाखू की हाँड़ी चूर-चूर कर डाली। कपड़े पहले भी त्याग की चरम सीमा तक पहुँच चुके थे, अब वह प्रकृति की न्यूनतम रेखाओं में आबद्ध हो गये। शिशिर की अस्थिबेधक शीत को उसने आग तापकर काट दिया। इस संकल्प का फल आशा से बढ़कर निकला। साल के अंत में उसके पास 60 रु.जमा हो गये। उसने समझा पंडितजी को इतने रुपये दे दूंगा और कहूंगा महाराज, बाकी रुपये भी जल्द ही आपके सामने हाजिर करूंगा। 15 रु. की तो और बात है, क्या पंडितजी इतना भी न मानेंगे ! उसने रुपये लिये और ले जाकर पंडितजी के चरण-कमलों पर अर्पण कर दिये। पंडितजी ने विस्मित होकर पूछा, “क़िसी से उधार लिये क्या?”

शंकर – “नहीं महाराज! आपके असीस से अबकी मजूरी अच्छी मिली।”

विप्र – “लेकिन यह तो 60 रु. ही हैं।”

शंकर — “हाँ महाराज! इतने अभी ले लीजिए। बाकी मैं दो-तीन महीने में दे दूंगा, मुझे उऋण कर दीजिए।”

विप्र – “उऋण तो जभी होगे, जबकि मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे 15 रु. और लाओ।”

शंकर – “महाराज! इतनी दया करो; अब साँझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाँव में हूँ तो कभी-न-कभी दे ही दूंगा।”

विप्र – “मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बातें करना जानता हूँ। अगर मेरे पूरे रुपये न मिलेंगे तो आज से 3 रु. सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रुपये चाहे अपने घर में रक्खो, चाहे मेरे यहाँ छोड़ जाओ।”

शंकर – “अच्छा जितना लाया हूँ, उतना रख लीजिए। मैं जाता हूँ, कहीं से 15 रु. और लाने की फिक्र करता हूँ।”

शंकर ने सारा गाँव छान मारा, मगर किसी ने रुपये न दिये, इसलिए नहीं कि उसका विश्वास न था, या किसी के पास रुपये न थे, बल्कि इसलिए कि पंडितजी के शिकार को छेड़ने की किसी की हिम्मत न थी।

क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। शंकर साल-भर तक तपस्या करने पर भी जब ऋण से मुक्त होने में सफल न हो सका, तो उसका संयम निराशा के रूप में परिणत हो गया। उसने समझ लिया कि जब इतना कष्ट सहने पर भी साल-भर में 60 रु. से अधिक न जमा कर सका, तो अब और कौन सा उपाय है, जिसके द्वारा इसके दूने रुपये जमा हों। जब सिर पर ऋण का बोझ ही लादना है तो क्या मन-भर का और क्या सवा मन का। उसका उत्साह क्षीण हो गया, मेहनत से घृणा हो गयी। आशा उत्साह की जननी है। आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। शंकर आशाहीन होकर उदासीन हो गया। वह जरूरतें, जिनको उसने साल-भर तक टाल रखा था, अब द्वार पर खड़ी होनेbवाली भिखारिणी न थीं, बल्कि छाती पर सवार होनेवाली पिशाचनियाँ थीं, जो अपनी भेंट लिये बिना जान नहीं छोड़तीं। कपड़ों में चकत्तियों के लगने की भी एक सीमा होती है। अब शंकर को चिट्ठा मिलता, तो वह रुपये जमा न करता, कभी कपड़े लाता, कभी खाने की कोई वस्तु। जहाँ पहले तमाखू ही पिया करता था, वहाँ अब गाँजे और चरस का चस्का भी लगा। उसे अब रुपये अदा करने की कोई चिंता न थी, मानो उसके ऊपर किसी का एक पैसा भी नहीं आता। पहले जूड़ी चढ़ी होती थी, पर वह काम करने अवश्य जाता था, अब काम पर न जाने के लिए बहाना खोजा करता।

इस भांति तीन वर्ष निकल गये। विप्रजी महाराज ने एक बार भी तकाजा न किया। वह चतुर शिकारी की भांति अचूक निशाना लगाना चाहते थे। पहले से शिकार को चौंकाना उनकी नीति के विरुद्ध था। एक दिन पंडितजी ने शंकर को बुलाकर हिसाब दिखाया। 60 रु. जो जमा थे, वह मिनहा करने पर अब भी शंकर के जिम्मे 120 रु. निकले। शंकर -“इतने रुपये तो उसी जन्म में दूंगा, इस जन्म में नहीं हो सकते।”

विप्र – “मैं इसी जन्म में लूंगा। मूल न सही, सूद तो देना ही पड़ेगा।”

शंकर — “एक बैल है, वह ले लीजिए और मेरे पास रक्खा क्या है।”

विप्र – “एममुझे बैल-बधिया लेकर क्या करना है। मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है।”

शंकर – “और क्या है महाराज?”

विप्र – “क़ुछ है, तुम तो हो। आखिर तुम भी कहीं मजूरी करने जाते ही हो, मुझे भी खेती के लिए मजूर रखना ही पड़ता है। सूद में तुम हमारे यहाँ काम किया करो, जब सुभीता हो, मूल को दे देना। सच तो यों है कि अब तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते, जब तक मेरे रुपये नहीं चुका दो। तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतबार पर छोड़ दूं। कौन इसका जिम्मा लेगा कि तुम मुझे महीने-महीने सूद देते जाओगे। और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते, तो मूल की कौन कहे?”

शंकर – “महाराज, सूद में तो काम करूंगा और खाऊंगा क्या?”

विप्र – “तुम्हारी घरवाली है, लड़के हैं, क्या वे हाथ-पाँव कटाके बैठेंगे। रहा मैं, तुम्हें आधा सेर जौ रोज कलेवा के लिए दे दिया करुंगा। ओढ़ने को साल में एक कंबल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करुंगा, और क्या चाहिए। यह सच है कि और लोग तुम्हें छ: आने देते हैं लेकिन मुझे ऐसी गरज नहीं है, मैं तो तुम्हें रुपये भरने के लिए रखता हूँ।”

शंकर ने कुछ देर तक गहरी चिंता में पड़े रहने के बाद कहा, ” महाराज यह तो जन्म-भर की गुलामी हुई।”

विप्र – “ग़ुलामी समझो, चाहे मजूरी समझो। मैं अपने रुपये भराये बिना तुमको कभी न छोडूँगा। तुम भागोगे, तो तुम्हारा लड़का भरेगा। हाँ, जब कोई न रहेगा तब की बात दूसरी है।”

इस निर्णय की कहीं अपील न थी। मजूर की जमानत कौन करता, कहीं शरण न थी। भागकर कहाँ जाता, दूसरे दिन से उसने विप्रजी के यहाँ काम करना शुरू कर दिया। सवा सेर गेहूँ की बदौलत उम्र-भर के लिए गुलामी की बेड़ी पैरों में डालनी पड़ी। उस अभागे को अब अगर किसी विचार से संतोष होता था, तो यह था कि वह मेरे पूर्व-जन्म का संस्कार है। स्त्री को वे काम करने पड़ते थे, जो उसने कभी न किये थे, बच्चे दानों को तरसते थे, लेकिन शंकर चुपचाप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था। वह गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भांति यावज्जीवन उसके सिर से न उतरे।

शंकर ने विप्रजी के यहाँ 20 वर्ष तक गुलामी करने के बाद इस दुस्सार संसार से प्रस्थान किया। 120 अभी तक उसके सिर पर सवार थे। पंडितजी ने उस गरीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट देना उचित न समझा। इतने अन्यायी, इतने निर्दयी न थे। उसके जवान बेटे की गर्दन पकड़ी। आज तक वह विप्रजी के यहाँ काम करता है। उसका उद्धार कब होगा; होगा भी या नहीं, ईश्वर ही जाने।

पाठक ! इस वृत्तांत को कपोल-कल्पित न समझिए। यह सत्य घटना है। ऐसे शंकरों और ऐसे विप्रों से दुनिया खाली नहीं है।

ठाकुर का कुआं मुंशी प्रेमचंद की कहानी

जोखू ने लोटा मुँह से लगाया, तो पानी में सख्त बदबू आई। गंगी से बोला – ‘यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाए देती है!’

गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआं दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। ज़रुर कोई जानवर कुएं में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?

ठाकुर के कुएं पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डांट बतायेंगे। साहू का कुआं गाँव के उस सिरे पर है, परन्तु वहाँ कौन पानी भरने देगा? कोई कुआं गाँव में नहीं है।

जोखू कई दिन से बीमार हैं। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला – ‘अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूं।‘

गंगी ने पानी न दिया। खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी, इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती हैं। बोली – ‘यह पानी कैसे पियोगे? न जाने कौन जानवर मरा हैं। कुएं से मैं दूसरा पानी लाए देती हूँ।‘

जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा – ‘पानी कहाँ से लायेगी?’

‘ठाकुर और साहू के दो कुएं तो हैं। क्यों एक लोटा पानी न भरने देंगे?’

‘हाथ-पांव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्राह्मण  देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक पांच लेंगे। गरीबी का दर्द कौन समझता हैं! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झांकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएं से पानी भरने देंगे?’

इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किंतु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।

(2)

रात के नौ बजे थे। थके-मांदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफिक्रे जमा थे मैदान में। बहादुरी का तो न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे की नकल ले आये। नाजिर और मोहतिमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती। कोई पचास मांगता, कोई सौ। यहाँ बे-पैसे-कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने ढंग चाहिए।

इसी समय गंगी कुएं से पानी लेने पहुँची।

कुप्पी की धुंधली रोशनी कुएं पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतज़ार करने लगी। इस कुएं का पानी सारा गाँव पीता हैं। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते।

गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा – ‘हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊचें हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छंटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर सांप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!

कुएं पर किसी के आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक-धक करने लगी। कहीं देख ले, तो गजब हो जाये। एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साये में जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर! बेचारे महगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी। इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं?

कुएं पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी। इनमें बात हो रही थी।

‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं है।’

‘हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती हैं।’

‘हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं।’

‘लौडिंयाँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं? दस-पाँच रुपये भी छीन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौडियाँ कैसी होती हैं!’

‘मत लजाओ, दीदी! दिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता! यहाँ काम करते-करते मर जाओ, पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता।’

दोनों पानी भरकर चली गई, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएं  की जगत के पास आयी। बेफिक्रे चले गऐ थे। ठाकुर भी दरवाजा बंदर कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे।

गंगी ने क्षणिक सुख की साँस  ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो। गंगी दबे पाँव कुएं की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ।

उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दायें-बायें चौकन्नी दृष्टी से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं। अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएं में डाल दिया।

घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। ज़रा-सी आवाज न हुई। गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे। घड़ा कुएं के मुँह तक आ पहुँचा। कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।

गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखें कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया। शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।

गंगी के हाथ रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं।
ठाकुर कौन है, कौन है? पुकारते हुए कुएं की तरफ जा रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी।

घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाए वही मैला गंदा पानी पी रहा है।

बड़े भाई साहब मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

मेरे भाई साहब मुझसे पांच साल बड़े थे, लेकिन तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था, जब मैंने शुरू किया; लेकिन तालीम जैसे महत्व के मामले में वह जल्दबाजी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भवन की बुनियाद खूब मजबूत डालना चाहते थे, जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पाएदार बने।

मैं छोटा था, वह बड़े थे। मेरी उम्र नौ साल थी। वह चौदह साल के थे। उन्हें मेरी तम्बीह और निगरानी का पूरा जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को कानून समझूं।

वह स्वभाव से बडे अघ्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कॉपी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थें। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षर से नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कॉपी पर मैने यह इबारत देखी-स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राघेश्याम, श्रीयुत राघेश्याम, एक घंटे तक—इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने चेष्टा की‍ कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूं; लेकिन असफल रहा और उसने पूछने का साहस न हुआ। वह नवी जमात में थे, मैं पाँचवी में। उनकि रचनाओ को समझना मेरे लिए छोटा मुंह बड़ी बात थी।

मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौका पाते ही हॉस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरिययाँ उछालता, कभी कागज कि तितलियाँ उडाता, और कहीं कोई साथी मिल गया, तो पूछना ही क्या? कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे है, कभी फाटक पर वार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे है। लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता-‘कहां थें?‘ हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुंह से यह बात क्यों न निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें।

‘इस तरह अंग्रेजी पढ़ोगे, तो जिन्दगी-भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ न आएगा। अंग्रेज़ी पढ़ना कोई हंसी-खेल नही है कि जो चाहे पढ़ लें, नहीं तो ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंग्रेज़ी के विद्धान हो जाते। यहां रात-दिन आंखे फोड़नी पड़ती है और खून जलाना पड़ता है, तब कही यह विधा आती है। और आती क्या है, हां, कहने को आ जाती है। बड़े-बड़े विद्धान भी शुद्ध अंग्रेज़ी नहीं लिख सकते, बोलना तो दुर रहा। और मैं कहता हूं, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूं, तुम अपनी आंखो देखते हो, अगर नहीं देखते, जो यह तुम्हारी आंखो का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है। इतने मेले-तमाशे होते है, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज ही क्रिकेट और हॉकी मैच होते हैं। मैं पास नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहा हूं, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पडा रहता हूं। फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कुद में वक्त गंवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो-ही-तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे। अगर तुम्हें इस तरह उम्र गंवानी है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मजे से गुल्ली-डंडा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रूपये क्यों बर्बाद करते हो?’

मैं यह लताड़ सुनकर आंसू बहाने लगता। जवाब ही क्या था। अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे? भाई साहब उपदेश की कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति-बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्मत छूट जाती। इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने की शक्ति मैं अपने में न पाता था और उस निराशा मे जरा देर के लिए मैं सोचने लगता-क्यों न घर चला जाऊं। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमे हाथ डालकर क्यों अपनी जिंदगी खराब करूं। मुझे अपना मूर्ख रहना मंजूर था; लेकिन उतनी मेहनत से मुझे तो चक्कर आ जाता था। लेकिन घंटे–दो घंटे बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढूंगा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता। बिना पहले से नक्शा बनाए, बिना कोई स्कीम तैयार किए काम कैसे शुरूं करूं? टाइम-टेबिल में, खेल-कूद की मद बिल्कुल उड़ जाती। प्रात:काल उठना, छ: बजे मुंह-हाथ धो, नाश्ता कर पढ़ने बैठ जाना। छ: से आठ तक अंग्रेजी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, फिर भोजन और स्कूल। साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घंण्टा आराम, चार से पांच तक भूगोल, पांच से छ: तक ग्रामर, आघा घंटा हॉस्टल के सामने टहलना, साढे छ: से सात तक अंग्रेजी कम्पोजीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिन्दी, दस से ग्यारह तक विविध विषय, फिर विश्राम। मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन से उसकी अवहेलना शुरू हो जाती। मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हल्के-हल्के झोंके, फुटबाल की उछल-कूद, कबड्डी के वह दांव-घात, वॉली-बाल की वह तेजी और फुर्ती मुझे अज्ञात और अनिर्वाय रूप से खींच ले जाती और वहां जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जान-लेवा टाइम-टेबिल, वह आंखफोड़ पुस्तकें किसी की याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता। मैं उनके साये से भागता, उनकी आंखो से दूर रहने कि चेष्टा करता। कमरे मे इस तरह दबे पांव आता कि उन्हें खबर न हो। उनकी नजर मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले। हमेशा सिर पर नंगी तलवार-सी लटकती मालूम होती। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच मे भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुड़कियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता।

(2)

सालाना इम्तहान हुआ। भाई साहब फेल हो गए, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और उनके बीच केवल दो साल का अंतर रह गया। जी में आया, भाई साहब को आड़े हाथो लूं—आपकी वह घोर तपस्या कहाँ गई? मुझे देखिए, मजे से खेलता भी रहा और दरजे में अव्वल भी हूं। लेकिन वह इतने दु:खी और उदास थे कि मुझे उनसे दिली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही लज्जास्पद जान पास। हां, अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और आत्माभिमान भी बढ़ा। भाई साहब का वह रौब मुझ पर न रहा। आजादी से खेल–कूद में शरीक होने लगा। दिल मजबूत था। अगर उन्होंने फिर मेरी फजीहत की, तो साफ कह दूंगा —आपने अपना खून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो खेलते-कूदते दरजे में अव्वल आ गया। जबाव से यह हेकड़ी जताने का साहस न होने पर भी मेरे रंग-ढंग से साफ जाहिर होता था कि भाई साहब का वह आतंक अब मुझ पर नहीं है। भाई साहब ने इसे भांप लिया-उनकी ससहसत बुद्धि बड़ी तीव्र थी और एक दिन जब मैं भोर का सारा समय गुल्ली-डंडे की भेंट करके ठीक भोजन के समय लौटा, तो भाई साइब ने मानो तलवार खींच ली और मुझ पर टूट पड़े-देखता हूं, इस साल पास हो गए और दरजे में अव्वल आ गए, तो तुम्हें दिमाग हो गया है; मगर भाईजान, घमंड तो बड़े-बड़े का नहीं रहा, तुम्हारी क्या हस्ती है, इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा। उसके चरित्र से तुमने कौन-सा उपदेश लिया? या यो ही पढ़ गए? महज इम्तहान पास कर लेना कोई चीज नहीं, असल चीज है बुद्धि का विकास। जो कुछ पढ़ो,, उसका अभिप्राय समझो। रावण भूमंडल का स्वामी था। ऐसे राजा को चक्रवर्ती कहते है। आजकल अंग्रेज़ों के राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा हुआ है, पर इन्हें चक्रवर्ती नहीं कह सकते। संसार में अनेको राष्ट़्र अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार नहीं करते। बिलकुल स्वाधीन हैं। रावण चक्रवर्ती राजा था। संसार के सभी महीप उसे कर देते थे। बड़े – बड़े देवता उसकी गुलामी करते थे। आग और पानी के देवता भी उसके दास थे; मगर उसका अंत क्या हुआ, घमंड ने उसका नाम-निशान तक मिटा दिया, कोई उसे एक चुल्लू पानी देने वाला भी न बचा। आदमी जो कुकर्म चाहे करें; पर अभिमान न करे, इतराए नहीं। अभिमान किया और दीन-दुनिया से गया।

शैतान का हाल भी पढ़ा ही होगा। उसे यह अनुमान हुआ था कि ईश्वर का उससे बढ़कर सच्चा भक्त कोई है ही नहीं। अंत में यह हुआ कि स्वर्ग से नरक में ढकेल दिया गया। शाहेरूम ने भी एक बार अहंकार किया था। भीख मांग-मांगकर मर गया। तुमने तो अभी केवल एक दरजा पास किया है और अभी से तुम्हारा सिर फिर गया, तब तो तुम आगे बढ़ चुके। यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नहीं पास हुए, अंधे के हाथ बटेर लग गई। मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं। कभी-कभी गुल्ली-डंडे में भी अंधा चोट निशाना पड़ जाता है। उससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता। सफल खिलाड़ी वह है, जिसका कोई निशाना खाली न जाए।

मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दांतों पसीना आयगा। जब अलजबरा और जामेंट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे और इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ना पड़ेंगा! बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ हेनरी को गुजरे है कौन-सा कांड किस हेनरी के समय हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवां लिखा और सब नंबर गायब! सफाचट। सिर्फ भी न मिलगा, सिफर भी! हो किस ख्याल में! दर्जनों तो जेम्स हुए हैं, दर्जनों विलियम, कौड़ियों चार्ल्स दिमाग चक्कर खाने लगता है। आंधी रोग हो जाता है। इन अभागों को नाम भी न जुड़ते थे। एक ही नाम के पीछे दोयम, तेयम, चहारम, पंचम नगाते चले गए। मुझसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता।

और जामेट्री तो बस खुदा की पनाह! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नंबर कट गए। कोई इन निर्दयी मुमतहिनों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्या फर्क है और व्यर्थ की बात के लिए क्यों छात्रों का खून करते हो। दाल-भात-रोटी खायी या भात-दाल-रोटी खायी, इसमें क्या रखा है; मगर इन परीक्षको को क्या परवाह! वह तो वही देखते है, जो पुस्तक में लिखा है। चाहते हैं कि लड़के अक्षर-अक्षर रट डाले। और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है और आखिर इन बे-सिर-पैर की बातों को पढ़ने से क्या फायदा?

इस रेखा पर वह लंब गिरा दो, तो आधार लंब से दुगना होगा। पूछिए, इससे प्रयोजन? दुगना नहीं, चौगुना हो जाए, या आधा ही रहे, मेरी बला से, लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद करनी पड़ेगी। कह दिया-‘समय की पाबंदी’ पर एक निबन्ध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। अब आप कॉपी सामने खोले, कलम हाथ में लिये, उसके नाम को रोइए।

कौन नहीं जानता कि समय की पाबंदी बहुत अच्छी बात है। इससे आदमी के जीवन में संयम आ जाता है, दूसरों का उस पर स्नेह होने लगता है और उसके करोबार में उन्नति होती है; जरा-सी बात पर चार पन्ने कैसे लिखें? जो बात एक वाक्य में कही जा सके, उसे चार पन्ने में लिखने की जरूरत? मैं तो इसे हिमाकत समझता हूं। यह तो समय की किफायत नहीं, बल्कि उसका दुरूपयोग है कि व्यर्थ में किसी बात को ठूंस दिया। हम चाहते है, आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह ले। मगर नहीं, आपको चार पन्ने रंगने पडेंगे, चाहे जैसे लिखिए और पन्ने भी पूरे फुल्सकेप आकार के। यह छात्रों पर अत्याचार नहीं तो और क्या है? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है, संक्षेप में लिखो। समय की पाबंदी4 पर संक्षेप में एक निबंध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। ठीक! संक्षेप में चार पन्ने हुए, नहीं तो शायद सौ-दो सौ पन्ने लिखवाते। तेज भी दौड़िए और धीरे-धीरे भी। है उल्टी बात या नहीं? बालक भी इतनी-सी बात समझ सकता है, लेकिन इन अध्यापकों को इतनी तमीज भी नहीं। उस पर दावा है कि हम अध्यापक है। मेरे दरजे में आओगे लाला, तो ये सारे पापड बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। इस दरजे में अव्वल आ गए हो, वो जमीन पर पांव नहीं रखते। इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फेल हो गया हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूँ, संसार का मुझे तुमसे ज्यादा अनुभव है। जो कुछ कहता हूँ, उसे गिरह बांधिए, नहीं तो पछताएंगे। 

स्कूल का समय निकट था, नहीं ईश्वर जाने, यह उपदेश-माला कब समाप्त होती। भोजन आज मुझे निस्स्वाद-सा लग रहा था। जब पास होने पर यह तिरस्कार हो रहा है, तो फेल हो जाने पर तो शायद प्राण ही ले लिए जाएं। भाई साहब ने अपने दरजे की पढ़ाई का जो भयंकर चित्र खीचा था; उसने मुझे भयभीत कर दिया। कैसे स्कूल छोड़कर घर नहीं भागा, यही ताज्जुब है; लेकिन इतने तिरस्कार पर भी पुस्तकों में मेरी अरूचि ज्यो-कि-त्यों बनी रही। खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता। पढ़ता भी था, मगर बहुत कम। बस, इतना कि रोज का टास्क पूरा हो जाए और दरजे में जलील न होना पडें। अपने ऊपर जो विश्वास पैदा हुआ था, वह फिर लुप्त हो गया और फिर चोरों का-सा जीवन कटने लगा।

(3)

फिर सालाना इम्तहान हुआ, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं फिर पास हुआ और भाई साहब फिर फेल हो गए। मैंने बहुत मेहनत न की, पर न जाने कैसे दरजे में अव्वल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया था। कोर्स का एक-एक शब्द चाट गये थे; दस बजे रात तक इधर, चार बजे भोर से उभर, छ: से साढ़े नौ तक स्कूल जाने के पहले। मुद्रा कांतिहीन हो गई थी, मगर बेचारे फेल हो गए। मुझे उन पर दया आत थी। नतीजा सुनाया गया, तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने पास होने वाली खुशी आधी हो गई। मैं भी फेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दु:ख न होता, लेकिन विधि की बात कौन टाले?

मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अंतर और रह गया। मेरे मन में एक कुटिल भावना उदय हुई कि कहीं भाई साहब एक साल और फेल हो जाएं, तो मैं उनके बराबर हो जाऊं, फिर वह किस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेगे, लेकिन मैंने इस कमीने विचार को दिल से बलपूर्वक निकाल डाला। आखिर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डांटते हैं। मुझे उस वक्त अप्रिय लगता है अवश्य, मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही असर हो कि मैं दनादन पास होता जाता हूँ और इतने अच्छे नंबरों से।

अबकी भाई साहब बहुत-कुछ नर्म पड़ गए थे। कई बार मुझे डांटने का अवसर पाकर भी उन्होंने धीरज से काम लिया। शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे डांटने का अधिकार उन्हें नहीं रहा; या रहा, तो बहुत कम। मेरी स्वच्छंदता भी बढी। मैं उनकी सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा। मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई कि मैं तो पास ही हो जाऊंगा, पढू या न पढूं मेरी तकदीर बलवान है, इसलिए भाई साहब के डर से जो थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करता था, वह भी बंद हुआ। मुझे कनकौए उड़ाने का नया शौक पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाजी ही की भेंट होता था, फिर भी मैं भाई साहब का अदब करता था, और उनकी नजर बचाकर कनकौए उड़ाता था। मांझा देना, कन्ने बांधना, पतंग टूर्नामेंट की तैयारियां आदि समस्याएं अब गुप्त रूप से हल की जाती थीं। भाई साहब को यह संदेह न करने देना चाहता था कि उनका सम्मान और लिहाज मेरी नजरो से कम हो गया है।

एक दिन संध्या समय हॉस्टल से दूर मैं एक कनकौआ लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। आंखे आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मंद गति से झूमता पतन की ओर चला जा रहा था, मानो कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर विरक्त मन से नए संस्कार ग्रहण करने जा रही हो। बालकों की एक पूरी सेना लग्गे और झड़दार बांस लिये उनका स्वागत करने को दौड़ी आ रही थी। किसी को अपने आगे-पीछे की खबर न थी। सभी मानो उस पतंग के साथ ही आकाश में उड़ रहे थे, जहॉं सब कुछ समतल है, न मोटरकारे है, न ट्राम, न गाडियाँ। सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड़ हो गई, जो शायद बाजार से लौट रहे थे। उन्होंने वहीं मेरा हाथ पकड़ लिया और उग्रभाव से बोले- “इन बाजारी लौंडो के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्हें शर्म नहीं आती? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में आ गये हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो। आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोजीशन का ख्याल करना चाहिए। एक जमाना था कि कि लोग आठवां दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे। मैं कितने ही मिडलचियों को जानता हूँ, जो आज अव्वल दरजे के डिप्टी मजिस्ट्रेट या सुपरिटेंडेंट है। कितने ही आठवी जमाअत वाले हमारे लीडर और समाचार-पत्रों के संपादक हैं। बड़े बड़े विद्धान उनकी मातहती में काम करते है और तुम उसी आठवें दरजे में आकर बाजारी लौंडों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो। मुझे तुम्हारी इस कमअकली पर दु:ख होता है। तुम जहीन हो, इसमें शक नहीं। लेकिन वह जेहन किस काम का, जो हमारे आत्मगौरव की हत्या कर डाले? तुम अपने दिल में समझते होगे, मैं भाई साहब से महज एक दर्जा नीचे हूँ और अब उन्हें मुझको कुछ कहने का हक नहीं है; लेकिन यह तुम्हारी गलती है। मैं तुमसे पांच साल बड़ा हूँ और चाहे आज तुम मेरी ही जमाअत में आ जाओ–और परीक्षकों का यही हाल है, तो निस्संदेह अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद तुम मुझसे आगे निकल जाओ-लेकिन मुझमें और जो पांच साल का अंतर है, उसे तुम क्या, खुदा भी नही मिटा सकता। मैं तुमसे पांच साल बड़ा हूँ और हमेशा रहूंगा। मुझे दुनिया का और जिन्दगी का जो तजुर्बा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते, चाहे तुम एम. ए., डी. फिल. और डी. लिट. ही क्यों न हो जाओ। समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती है। हमारी अम्मा ने कोई दरजा पास नहीं किया, और दादा भी शायद पांचवी जमाअत के आगे नहीं गये, लेकिन हम दोनो चाहे सारी दुनिया की विधा पढ़ लें, अम्मा और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा। केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्मदाता है, बल्कि इसलिए कि उन्हें दुनिया का हमसे ज्यादा तजुर्बा है और रहेगा। अमेरिका में किस जरह कि राज्य-व्यवस्था है और आठवे हेनरी ने कितने विवाह किये और आकाश में कितने नक्षत्र है, यह बाते चाहे उन्हें न मालूम हो, लेकिन हजारों ऐसी बातें हैं, जिनका ज्ञान उन्हें हमसे और तुमसे ज्यादा है।

दैव न करें, आज मैं बीमार हो आऊं, तो तुम्हारे हाथ-पांव फूल जाएंगे। दादा को तार देने के सिवा तुम्हें और कुछ न सूझेंगा; लेकिन तुम्हारी जगह पर दादा हों, तो किसी को तार न दें, न घबराएं, न बदहवास हों। पहले खुद मरज पहचानकर इलाज करेंगे, उसमें सफल न हुए, तो किसी डॉक्टर को बुलायेगें। बीमारी तो खैर बड़ी चीज है। हम-तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने-भर का महीने-भर कैसे चले। जो कुछ दादा भेजते है, उसे हम बीस-बाईस तक खर्च कर डालते है और पैसे-पैसे को मोहताज हो जाते है। नाश्ता बंद हो जाता है, धोबी और नाई से मुंह चुराने लगते है; लेकिन जितना आज हम और तुम खर्च कर रहे है, उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बड़ा भाग इज्जत और नेकनामी के साथ निभाया है और एक कुटुम्ब का पालन किया है, जिसमें सब मिलाकर नौ आदमी थे। अपने हेडमास्टर साहब ही को देखो। एम. ए. हैं कि नहीं, और यहा के एम. ए. नहीं, ऑक्सफोर्ड के। एक हजार रूपये पाते हैं, लेकिन उनके घर इंतजाम कौन करता है? उनकी बूढी मां। हेडमास्टर साहब की डिग्री यहां बेकार हो गई। पहले खुद घर का इंतजाम करते थे। खर्च पूरा न पड़ता था। कर्ज़दार रहते थे। जब से उनकी माताजी ने प्रबंध अपने हाथ में ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्मी आ गई है। तो भाईजान, यह जरूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गये हो और अब स्वतंत्र हो। मेरे देखते तुम बेराह नहीं चल पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे, तो मैं (थप्पड़ दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूं। मैं जानता हूं, तुम्हें मेरी बातें जहर लग रही है।

मैं उनकी इस नई युक्ति से नतमस्तक हो गया। मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे तम में श्रद्धा उत्पन्न हुईं। मैंने सजल आंखों से कहा-हरगिज नहीं। आप जो कुछ फरमा रहे है, वह बिल्कुल सच है और आपको कहने का अधिकार है।

भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बोले-कनकाए उड़ान को मना नहीं करता। मेरा जी भी ललचाता है, लेकिन क्या करूं,, खुद बेराह चलूं, तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूं? यह कर्त्तव्य भी तो मेरे सिर पर है।

संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुजरा। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों का एक दल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। भाई साहब लंबे हैं ही, उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा होटल की तरफ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था।

विमाता मुंशी प्रेमचंद की कहानी

स्त्री की मृत्यु के तीन ही मास बाद पुनर्विवाह करना मृतात्मा के साथ ऐसा अन्याय और उसकी आत्मा पर ऐसा आघात है, जो कदापि क्षम्य नहीं हो सकता। मैं यह कहूंगा कि उस स्वर्गवासिनी की मुझसे अंतिम प्रेरणा थी और न मेरा शायद यह कथन ही मान्य समझा जाए कि हमारे छोटे बालक के लिए ‘माँ’ की उपस्थिति परमावश्यक थी। परन्तु इस विषय में मेरी आत्मा निर्मल है और मैं आशा करता हूँ कि स्वर्गलोक में मेरे इस कार्य की निर्दय आलोचना न की जाएगी। सारांश यह कि मैंने विवाह किया और यद्यपि एक नव-विवाहिता वधू को मातृत्व उपदेश बेसुरा राग था, पर मैंने पहले ही दिन अम्बा से कह दिया कि मैंने तुमसे केवल इस अभिप्राय से विवाह किया है कि तुम मेरे भोले बालक की माँ बनो और उसके हृदय से उसकी माँ की मृत्यु का शोक भुला दो।

दो मास व्यतीत हो गये। मैं संध्या समय मुन्नू को साथ ले कर वायु सेवन को जाया करता था। लौटते समय कतिपय मित्रों से भेंट भी कर लिया करता था। उन संगतों में मुन्नू श्यामा की भांति चहकता। वास्तव में इन संगतों से मेरा अभिप्राय मनोविनोद नहीं, केवल मुन्नू के असाधारण बुद्धि चमत्कार को प्रदर्शित करना था। मेरे मित्रगण जब मुन्नू को प्यार करते और उसकी विलक्षण बुद्धि की सराहना करते, तो मेरा हृदय बाँसों उछलने लगता था। 

एक दिन मैं मुन्नू के साथ बाबू ज्वालासिंह के घर बैठा हुआ था। ये मेरे परम मित्र थे। मुझमें और उनमें कुछ भेदभाव न था। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपनी क्षुद्रताएँ, अपने पारिवारिक कलहादि और अपनी आर्थिक कठिनाइयाँ बयान किया करते थे। नहीं, हम इन मुलाकातों में भी अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करते थे और अपनी दुरवस्था का जिक्र कभी हमारी जबान पर न आता था। अपनी कालिमाओं को सदैव छिपाते थे। एकता में भी भेद था और घनिष्ठता में भी अंतर। 

अचानक बाबू ज्वालासिंह ने मुन्नू से पूछा – ‘क्यों तुम्हारी अम्मा तुम्हें खूब प्यार करती हैं न?’’ 

मैंने मुस्करा कर मुन्नू की ओर देखा। उसके उत्तर के विषय में मुझे कोई संदेह न था। मैं भली-भांति जानता था कि अम्मा उसे बहुत प्यार करती है। परन्तु मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब मुन्नू ने इस प्रश्न का उत्तर मुख से न देकर नेत्रों से दिया। उसके नेत्रों से आँसू की बूंदें टपकने लगीं। 

मैं लज्जा से गड़ गया। इस अश्रु-जल ने अम्बा के उस सुंदर चित्र को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया, जो गत दो मास से मैंने हृदय में अंकित कर रखा था। 

ज्वालासिंह ने कुछ संशय की दृष्टि से देखा और पुनः मुन्नू से पूछा – ‘क्यों रोते हो बेटा ?’ 

मुन्नू बोला – ‘रोता नहीं हूँ, आँखों में धुआँ लग गया था।’ 

ज्वालासिंह का विमाता की ममता पर संदेह करना स्वाभाविक बात थी; परन्तु वास्तव में मुझे भी संदेह हो गया ! अम्बा सहृदयता और स्नेह की वह देवी नहीं है, जिसकी सराहना करते मेरी जिह्ना न थकती थी। वहाँ से उठा, तो मेरा हृदय भरा हुआ था और लज्जा से माथा न उठता था।

मैं घर की ओर चला, तो मन में विचार करने लगा कि किस प्रकार अपने क्रोध को प्रकट करूं। क्यों न मुँह ढाँक कर सो रहूं। अम्बा जब पूछे, तो कठोरता से कह दूं कि सिर में पीड़ा है, मुझे तंग मत करो। भोजन के लिए उठाये, तो झिड़क कर उत्तर दूं। अम्बा अवश्य समझ जायेगी कि कोई बात मेरी इच्छा के प्रतिकूल हुई है। मेरे पाँव पकड़ने लगेगी। उस समय अपनी व्यंग्यपूर्ण बातों से उसका हृदय बेध डालूंगा। ऐसा रुलाऊंगा कि वह भी याद करे। पुनः विचार आया कि उसका हँसमुख चेहरा देख कर मैं अपने हृदय को वश में रख सकूंगा या नहीं। उसकी एक प्रेम-पूर्ण दृष्टि, एक मीठी बात, एक रसीली चुटकी मेरी शिलातुल्य रुष्टता के टुकड़े-टुकड़े कर सकती है। परन्तु हृदय की इस निर्बलता पर मेरा मन झुंझला उठा। यह मेरी क्या दशा है, क्यों इतनी जल्दी मेरे चित्त की काया पलट गयी ? मुझे पूर्ण विश्वास था कि मैं इन मृदुल वाक्यों की आंधी और ललित कटाक्षों के बहाव में भी अचल रह सकता हूँ और कहाँ अब यह दशा हो गयी कि मुझमें साधारण झोंके को भी सहन करने की सामर्थ्य नहीं ! इन विचारों से हृदय में कुछ दृढ़ता आयी, तिस पर भी क्रोध की लगाम पग-पग पर ढीली होती जाती थी। अंत में मैंने हृदय को बहुत दबाया और बनावटी क्रोध का भाव धारण किया। ठान लिया कि चलते ही चलते एकदम से बरस पडूँगा।

ऐसा न हो कि विलम्बरूपी वायु इस क्रोधरूपी मेघ को उड़ा ले जाए, परंतु ज्यों ही घर पहुँचा, अम्बा ने दौड़ कर मुन्नू को गोदी में ले लिया और प्यार से सने हुए कोमल स्वर से बोली – ‘आज तुम इतनी देर तक कहाँ घूमते रहे? चलो देखो, मैंने तुम्हारे लिए कैसी अच्छी-अच्छी फुलौड़ियाँ बनायी हैं।’ 

मेरा कृत्रिम क्रोध एक क्षण में उड़ गया। मैंने विचार किया, इस देवी पर क्रोध करना भारी अत्याचार है। मुन्नू अबोध बालक है। संभव है कि वह अपनी माँ का स्मरण कर रो पड़ा हो। अम्बा इसके लिए दोषी नहीं ठहरायी जा सकती। हमारे मनोभाव पूर्व विचारों के अधीन नहीं होते, हम उनको प्रकट करने के निमित्त कैसे-कैसे शब्द गढ़ते हैं, परंतु समय पर शब्द हमें धोखा दे जाते हैं और वे ही भावनाएँ स्वाभाविक रूप से प्रकट होती हैं। मैंने अम्बा को न तो कोई व्यंग्यपूर्ण बातें ही कहीं और न क्रोधित हो मुख ढाँक कर सोया ही, बल्कि अत्यंत कोमल स्वर में बोला – “मुन्नू ने आज मुझे अत्यंत लज्जित किया। खजानची साहब ने पूछा तुम्हारी नयी अम्मा तुम्हें प्यार करती हैं या नहीं, तो ये रोने लगा। मैं लज्जा से गड़ गया। मुझे तो स्वप्न में भी यह विचार नहीं हो सकता कि तुमने इसे कुछ कहा होगा। परंतु अनाथ बच्चों का हृदय उस चित्र की भांति होता है, जिस पर एक बहुत ही साधारण परदा पड़ा हुआ हो। पवन का साधारण झोंका भी उसे हटा देता है।”

ये बातें कितनी कोमल थीं, तिस पर भी अम्बा का विकसित मुखमंडल कुछ मुरझा गया। वह सजल नेत्र हो कर बोली – “इस बात का विचार तो मैंने यथासाध्य पहले ही दिन से रखा है। परंतु यह असंभव है कि मैं मुन्नू के हृदय से माँ का शोक मिटा दूं। मैं चाहे अपना सर्वस्व अर्पण कर दूं, परंतु मेरे नाम पर जो सौतेलेपन की कालिमा लगी हुई है, वह मिट नहीं सकती।”

मुझे भय था कि इस वार्तालाप का परिणाम कहीं विपरीत न हो, परन्तु दूसरे ही दिन मुझे अम्बा के व्यवहार में बहुत अंतर दिखायी देने लगा। मैं उसे प्रातः-सायंकाल पर्यंत मुन्नू की ही सेवा में लगी हुई देखता, यहाँ तक कि उस धुन में उसे मेरी भी चिंता न रहती थी। परंतु मैं ऐसा त्यागी न था कि अपने आराम को मुन्नू पर अर्पण कर देता। कभी-कभी मुझे अम्बा की यह अश्रद्धा न भाती, परंतु मैं कभी भूल कर भी इसकी चर्चा न करता। एक दिन मैं अनियमित रूप से दफ्तर से कुछ पहले ही आ गया। क्या देखता हूँ कि मुन्नू द्वार पर भीतर की ओर मुख किये खड़ा है। मुझे इस समय आँख-मिचौली खेलने की सूझी। मैंने दबे पाँव पीछे से जा कर उसके नेत्र मूँद लिये। पर शोक ! उसके दोनों गाल अश्रुपूरित थे। मैंने तुरंत दोनों हाथ हटा लिये। ऐसा प्रतीत हुआ मानो सर्प ने डस लिया हो। हृदय पर एक चोट लगी। मुन्नू को गोद में लेकर बोला – “मुन्नू, क्यों रोते हो?” यह कहते-कहते मेरे नेत्र भी सजल हो आये।

मुन्नू आँसू पी कर बोला- “जी नहीं, रोता नहीं हूँ।”

मैंने उसे हृदय से लगा लिया और कहा- “अम्मा ने कुछ कहा तो नहीं?”

मुन्नू ने सिसकते हुए कहा- “जी नहीं, मुझे वह बहुत प्यार करती हैं।”

मुझे विश्वास न हुआ, पूछा- “वह प्यार करती, तो तुम रोते क्यों? उस दिन खजानची के घर भी तुम रोये थे। तुम मुझसे छिपाते हो। कदाचित् तुम्हारी अम्मा अवश्य तुमसे कुछ क्रुद्ध हुई हैं।”

मुन्नू ने मेरी ओर कातर दृष्टि से देख कर कहा- “जी नहीं, वह मुझे प्यार करती हैं इसी कारण मुझे बारम्बार रोना आता है। मेरी अम्मा मुझे अत्यंत प्यार करती थीं। वह मुझे छोड़कर चली गयीं। नयी अम्मा उससे भी अधिक प्यार करती हैं। इसीलिए मुझे भय लगता है कि उसकी तरह यह भी मुझे छोड़कर न चली जाए।”

यह कह कर मुन्नू पुनः फूट-फूटकर रोने लगा। मैं भी रो पड़ा। अम्बा के इस स्नेहमय व्यवहार ने मुन्नू के सुकोमल हृदय पर कैसा आघात किया था। थोड़ी देर तक मैं स्तम्भित रह गया। किसी कवि की यह वाणी स्मरण आ गयी कि पवित्र आत्माएँ इस संसार में चिरकाल तक नहीं ठहरतीं। कहीं भावी ही इस बालक की जिह्ना से तो यह शब्द नहीं कहला रही है। ईश्वर न करे कि वह अशुभ दिन देखना पड़े। परन्तु मैंने तर्क द्वारा इस शंका को दिल से निकाल दिया। समझा कि माता की मृत्यु ने प्रेम और वियोग में एक मानसिक संबंध उत्पन्न कर दिया है और कोई बात नहीं है। मुन्नू को गोद में लिये हुए अम्बा के पास गया और मुस्करा कर बोला -‘इनसे पूछो क्यों रो रहे हैं?”

अम्बा चौंक पड़ी। उसके मुख की कांति मलिन हो गयी। बोली – “तुम्हीं पूछो।”

मैंने कहा – “यह इसलिए रोते हैं कि तुम इन्हें अत्यंत प्यार करती हो और इनको भय है कि तुम भी इनकी माता की भांति इन्हें छोड़कर न चली जाओ।”

जिस प्रकार गर्द साफ हो जाने से दर्पण चमक उठता है, उसी भांति अम्बा का मुखमंडल प्रकाशित हो गया। उसने मुन्नू को मेरी गोद से छीन लिया और कदाचित् यह प्रथम अवसर था कि उसने ममतापूर्ण स्नेह से मुन्नू के पाँव का चुंबन किया।

शोक ! महा शोक ! ! मैं क्या जानता था कि मुन्नू की अशुभ कल्पना इतनी शीघ्र पूर्ण हो जायेगी। कदाचित् उसकी बाल-दृष्टि ने होनहार को देख लिया था, कदाचित् उसके बाल श्रवण मृत्यु दूतों के विकराल शब्दों से परिचित थे।

छह मास भी व्यतीत न होने पाये थे कि अम्बा बीमार पड़ी और एन्फ़्लुएंजा ने देखते-देखते उसे हमारे हाथों से छीन लिया। पुनः वह उपवन मरुतुल्य हो गया, पुनः वह बसा हुआ घर उजड़ गया। अम्बा ने अपने को मुन्नू पर अर्पण कर दिया था। हाँ, उसने पुत्र-स्नेह का आदर्श रूप दिखा दिया। शीतकाल था और वह घड़ी रात्रि शेष रहते ही मुन्नू के लिए प्रातःकाल का भोजन बनाने उठती थी। उसके इस स्नेह-बाहुल्य ने मुन्नू पर स्वाभाविक प्रभाव डाल दिया था। वह हठीला और नटखट हो गया था। जब तक अम्बा भोजन कराने न बैठे, मुँह में कौर न डालता, जब तक अम्बा पंखा न झले, वह चारपाई पर पाँव न रखता। उसे छेड़ता, चिढ़ाता और हैरान कर डालता। परंतु अम्बा को इन बातों से आत्मिक सुख प्राप्त होता था। एन्फ़्लुएंजा से कराह रही थी, करवट लेने तक की शक्ति न थी, शरीर तवा हो रहा था, परंतु मुन्नू के प्रातःकाल के भोजन की चिंता लगी रहती थी। हाय! वह निःस्वार्थ मातृ-स्नेह अब स्वप्न हो गया। उस स्वप्न के स्मरण से अब भी हृदय गद्‌गद हो जाता है। अम्बा के साथ मुन्नू का चुलबुलापन तथा बाल क्रीड़ा विदा हो गयी। अब वह शोक और नैराश्य की जीवित मूर्ति है, वह अब भी नहीं रोता। ऐसा पदार्थ खो कर अब उसे कोई खटका, कोई भय नहीं रह गया।

बड़े घर की बेटी मुंशी प्रेमचंद की कहानी 

(1)

बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गाँव के जमींदार और नम्बरदार थे। उनके पितामह किसी समय बड़े धन-धान्य संपन्न थे। गाँव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं के कीर्ति-स्तंभ थे। कहते हैं इस दरवाजे पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीर में अस्थि-पंजर के सिवा और कुछ शेष न रहा था; पर दूध शायद बहुत देती थी; क्योंकि एक न एक आदमी हॉँड़ी लिए उसके सिर पर सवार ही रहता था। बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक संपत्ति वकीलों को भेंट कर चुके थे। उनकी वर्तमान आय एक हजार रुपये वार्षिक से अधिक न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था। उसने बहुत दिनों के परिश्रम और उद्योग के बाद बी.ए. की डिग्री प्राप्त की थी। अब एक दफ्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल-बिहारी सिंह दोहरे बदन का, सजीला जवान था। भरा हुआ मुखड़ा, चौड़ी छाती। भैंस का दो सेर ताजा दूध वह उठ कर सबेरे पी जाता था। श्रीकंठ सिंह की दशा बिलकुल विपरीत थी। इन नेत्रप्रिय गुणों को उन्होंने बी०ए०–इन्हीं दो अक्षरों पर न्योछावर कर दिया था। इन दो अक्षरों ने उनके शरीर को निर्बल और चेहरे को कांतिहीन बना दिया था। इसी से वैद्यक ग्रंथों पर उनका विशेष प्रेम था। आयुर्वेदिक औषधियों पर उनका अधिक विश्वास था। शाम-सबेरे उनके कमरे से प्राय: खरल की सुरीली कर्णमधुर ध्वनि सुनाई दिया करती थी। लाहौर और कलकत्ते के वैद्यों से बड़ी लिखा-पढ़ी रहती थी।

श्रीकंठ इस अंग्रेजी डिग्री के अधिपति होने पर भी अंग्रेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे; बल्कि वह बहुधा बड़े जोर से उसकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे। इसी से गाँव में उनका बड़ा सम्मान था। दशहरे के दिनों में वह बड़े उत्साह से रामलीला में होते और स्वयं किसी न किसी पात्र का पार्ट लेते थे। गौरीपुर में रामलीला के वही जन्मदाता थे। प्राचीन हिंदू सभ्यता का गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अंग था। सम्मिलित कुटुम्ब के तो वह एक-मात्र उपासक थे। आज-कल स्त्रियों को कुटुम्ब में मिल-जुल कर रहने की जो अरुचि होती है, उसे वह जाति और देश दोनों के लिए हानिकारक समझते थे। यही कारण था कि गाँव की ललनायें उनकी निंदक थीं! कोई-कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी संकोच न करती थीं। स्वयं उनकी पत्नी को ही इस विषय में उनसे विरोध था। यह इसलिए नहीं कि उसे अपने सास-ससुर, देवर या जेठ आदि घृणा थी; बल्कि उसका विचार था कि यदि बहुत कुछ सहने और तरह देने पर भी परिवार के साथ निर्वाह न हो सके, तो आये-दिन की कलह से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकायी जाये।

आनंदी एक बड़े उच्च कुल की लड़की थी। उसके बाप एक छोटी-सी रियासत के ताल्लुकेदार थे। विशाल भवन, एक हाथी, तीन कुत्ते, बाज, बहरी-शिकरे, झाड़-फानूस, आनरेरी मजिस्ट्रेट और ऋण, जो एक प्रतिष्ठित ताल्लुकेदार के भोग्य पदार्थ हैं, सभी यहाँ विद्यमान थे। नाम था भूपसिंह। बड़े उदार-चित्त और प्रतिभाशाली पुरुष थे; पर दुर्भाग्य से लड़का एक भी न था। सात लड़कियाँ हुईं और दैवयोग से सब की सब जीवित रहीं। पहली उमंग में तो उन्होंने तीन ब्याह दिल खोलकर किये; पर पंद्रह-बीस हजार रुपयों का कर्ज सिर पर हो गया, तो आँखें खुलीं, हाथ समेट लिया। आनंदी चौथी लड़की थी। वह अपनी सब बहनों से अधिक रूपवती और गुणवती थी। इससे ठाकुर भूपसिंह उसे बहुत प्यार करते थे। सुंदर संतान को कदाचित् उसके माता-पिता भी अधिक चाहते हैं। ठाकुर साहब बड़े धर्म-संकट में थे कि इसका विवाह कहाँ करें? न तो यही चाहते थे कि ऋण का बोझ बढ़े और न यही स्वीकार था कि उसे अपने को भाग्यहीन समझना पड़े। एक दिन श्रीकंठ उनके पास किसी चंदे का रुपया मांगने आये। शायद नगरी-प्रचार का चंदा था। भूपसिंह उनके स्वभाव पर रीझ गये और धूमधाम से श्रीकंठसिंह का आनंदी के साथ ब्याह हो गया।

आनंदी अपने नये घर में आयी, तो यहाँ का रंग-ढंग कुछ और ही देखा। जिस टीम-टाम की उसे बचपन से ही आदत पड़ी हुई थी, वह यहाँ नाम-मात्र को भी न थी। हाथी-घोड़ों का तो कहना ही क्या, कोई सजी हुई सुंदर बहली तक न थी। रेशमी स्लीपर साथ लायी थी; पर यहाँ बाग कहाँ। मकान में खिड़कियाँ तक न थीं, न जमीन पर फर्श, न दीवार पर तस्वीरें। यह एक सीधा-सादा देहाती गृहस्थी का मकान था; किन्तु आनंदी ने थोड़े ही दिनों में अपने को इस नयी अवस्था के ऐसा अनुकूल बना लिया, मानों उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे।

(2)

एक दिन दोपहर के समय लाल बिहारी सिंह दो चिड़िया लिये हुए आया और भावज से बोला – “जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है।“

आनंदी भोजन बनाकर उसकी राह देख रही थी। अब वह नया व्यंजन बनाने बैठी। हांड़ी में देखा, तो घी पाव-भर से अधिक न था। बड़े घर की बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब घी मांस में डाल दिया। लाल बिहारी खाने बैठा, तो दाल में घी न था, बोला – “दाल में घी क्यों नहीं छोड़ा?”

आनंदी ने कहा – “घी सब मांस में पड़ गया।

लाल बिहारी जोर से बोला – “अभी परसों घी आया है। इतना जल्द उठ गया?”

आनंदी ने उत्तर दिया – “आज तो कुल पाव–भर रहा होगा। वह सब मैंने मांस में डाल दिया।“

जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य जरा-जरा सी बात पर तिनक जाता है। लाल बिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई, तिनक कर बोला – “मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो!”

स्त्री गालियाँ सह लेती हैं, मार भी सह लेती हैं; पर मैके की निंदा उनसे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह फेर कर बोली — “हाथी मरा भी, तो नौ लाख का। वहाँ इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं।“

लाल बिहारी जल गया, थाली उठाकर पलट दी, और बोला – “जी चाहता है, जीभ पकड़ कर खींच लूं।“

आनंद को भी क्रोध आ गया। मुँह लाल हो गया, बोली – “वह होते, तो आज इसका मजा चखाते।“

अब अपढ़, उजड्ड ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमींदार की बेटी थी। जब जी चाहता, उस पर हाथ साफ कर लिया करता था। खड़ाऊ उठाकर आनंदी की ओर जोर से फेंकी, और बोला – “जिसके गुमान पर फूली हुई हो, उसे भी देखूंगा और तुम्हें भी।“

आनंदी ने हाथ से खड़ाऊ रोकी, सिर बच गया; पर उंगली में बड़ी चोट आयी। क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भांति कांपती हुई अपने कमरे में आ कर खड़ी हो गयी। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घमंड होता है। आनंदी खून का घूंट पी कर रह गयी।

(3)

श्रीकंठ सिंह शनिवार को घर आया करते थे। बृहस्पति को यह घटना हुई थी। दो दिन तक आनंदी कोप-भवन में रही। न कुछ खाया न पिया, उनकी बाट देखती रही। अंत में शनिवार को वह नियमानुकूल संध्या समय घर आये और बाहर बैठ कर कुछ इधर-उधर की बातें, कुछ देश-काल संबंधी समाचार तथा कुछ नये मुकदमों आदि की चर्चा करने लगे। यह वार्तालाप दस बजे रात तक होता रहा। गाँव के भद्र पुरुषों को इन बातों में ऐसा आनंद मिलता था कि खाने-पीने की भी सुधि न रहती थी। श्रीकंठ को पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। ये दो-तीन घंटे आनंदी ने बड़े कष्ट से काटे। किसी तरह भोजन का समय आया। पंचायत उठी। एकांत हुआ, तो लाल बिहारी ने कहा – “भैया, आप जरा भाभी को समझा दीजियेगा कि मुँह संभाल कर बातचीत किया करें, नहीं तो एक दिन अनर्थ हो जायेगा।“

बेनी माधव सिंह ने बेटे की ओर साक्षी दी – “हाँ, बहू-बेटियों का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि मर्दों के मुँह लगें।“

लाल बिहारी – “वह बड़े घर की बेटी हैं, तो हम भी कोई कुर्मी-कहार नहीं है।“

श्रीकंठ ने चिंतित स्वर से पूछा – “आखिर बात क्या हुई?”

लालबिहारी ने कहा – “कुछ भी नहीं; यों ही आप ही आप उलझ पड़ीं। मैके के सामने हम लोगों को कुछ समझती ही नहीं।“

श्रीकंठ खा-पीकर आनंदी के पास गये। वह भरी बैठी थी। यह हजरत भी कुछ तीखे थे। आनंदी ने पूछा – “चित्त तो प्रसन्न है?”

श्रीकंठ बोले – “बहुत प्रसन्न है; पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रखा है?”

आनंदी की त्योरियों पर बल पड़ गये, झुंझलाहट के मारे बदन में ज्वाला-सी दहक उठी। बोली – “जिसने तुमसे यह आग लगायी है, उसे पाऊं, मुँह झुलस दूं।“

श्रीकंठ – “इतनी गरम क्यों होती हो, बात तो कहो।“

आनंदी – “क्या कहूं, यह मेरे भाग्य का फेर है। नहीं तो गंवार छोकरा, जिसको चपरासगिरी करने का भी शऊर नहीं, मुझे खड़ाऊ से मारकर यों न अकड़ता।“

श्रीकंठ – “सब हाल साफ-साफ कहा, तो मालूम हो। मुझे तो कुछ पता नहीं।“

आनंदी – “परसों तुम्हारे लाड़ले भाई ने मुझसे मांस पकाने को कहा। घी हांडी में पाव-भर से अधिक न था। वह सब मैंने मांस में डाल दिया। जब खाने बैठा तो कहने लगा–दाल में घी क्यों नहीं है? बस, इसी पर मेरे मैके को बुरा-भला कहने लगा–मुझसे न रहा गया। मैंने कहा कि वहाँ इतना घी तो नाई-कहार खा जाते हैं, और किसी को जान भी नहीं पड़ता। बस इतनी सी बात पर इस अन्यायी ने मुझ पर खड़ाऊ फेंक मारी। यदि हाथ से न रोक लूं, तो सिर फट जाये। उसी से पूछो, मैंने जो कुछ कहा है, वह सच है या झूठ।“

श्रीकंठ की आँखें लाल हो गयीं। बोले – “यहाँ तक हो गया, इस छोकरे का यह साहस! आनंदी स्त्रियों के स्वभावानुसार रोने लगी; क्योंकि आँसू उनकी पलकों पर रहते हैं। श्रीकंठ बड़े धैर्यवान् और शांत पुरुष थे। उन्हें कदाचित् ही कभी क्रोध आता था; स्त्रियों के आँसू पुरुष की क्रोधाग्नि भड़काने में तेल का काम देते हैं। रात भर करवटें बदलते रहे। उद्विग्नता के कारण पलक तक नहीं झपकी। प्रात:काल अपने बाप के पास जाकर बोले – “दादा, अब इस घर में मेरा निबाह न होगा।“

इस तरह की विद्रोह-पूर्ण बातें कहने पर श्रीकंठ ने कितनी ही बार अपने कई मित्रों को आड़े हाथों लिया था; परन्तु दुर्भाग्य, आज उन्हें स्वयं वे ही बातें अपने मुँह से कहनी पड़ी! दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है!

बेनीमाधव सिंह घबरा उठे और बोले — “क्यों?”

श्रीकंठ – “इसलिए कि मुझे भी अपनी मान–प्रतिष्ठा का कुछ विचार है। आपके घर में अब अन्याय और हठ का प्रकोप हो रहा है। जिनको बड़ों का आदर–सम्मान करना चाहिए, वे उनके सिर चढ़ते हैं। मैं दूसरे का नौकर ठहरा, घर पर रहता नहीं। यहाँ मेरे पीछे स्त्रियों पर खड़ाऊ और जूतों की बौछारें होती है। कड़ी बात तक चिंता नहीं। कोई एक की दो कह ले, वहाँ तक मैं सह सकता हूँ, किन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात-घूंसे पड़ें और मैं दम न मारूं।“

बेनी माधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकंठ सदैव उनका आदर करते थे। उनके ऐसे तेवर देखकर बूढ़ा ठाकुर अवाक् रह गया। केवल इतना ही बोला – “बेटा, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो? स्त्रियाँ इस तरह घर का नाश कर देती हैं। उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं।“

श्रीकंठ – “इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीर्वाद से ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने-बुझाने से, इसी गाँव में कई घर संभल गये, पर जिस स्त्री की मान-प्रतिष्ठा का ईश्वर के दरबार में उत्तरदाता हूँ, उसके प्रति ऐसा घोर अन्याय और पशुवत् व्यवहार मुझे असह्य है। आप सच मानिये, मेरे लिए यही कुछ कम नहीं है कि लाल बिहारी को कुछ दंड नहीं होता।“
अब बेनीमाधव सिंह भी गरमाये। ऐसी बातें और न सुन सके। बोले – “लाल बिहारी तुम्हारा भाई है। उससे जब कभी भूल–चूक हो, उसके कान पकड़ो, लेकिन…”

श्रीकंठ — “लाल बिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता।“

बेनीमाधव सिंह – “स्त्री के पीछे?”

श्रीकंठ — “जी नहीं! उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण।“

दोनों कुछ देर चुप रहे। ठाकुर साहब लड़के का क्रोध शांत करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लाल बिहारी ने कोई अनुचित काम किया है। इसी बीच में गाँव के और कई सज्जन हुक्के-चिलम के बहाने वहाँ आ बैठे। कई स्त्रियों ने जब यह सुना कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने की तैयार हैं, तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। दोनों पक्षों की मधुर वाणियाँ सुनने के लिए उनकी आत्मायें तिलमिलाने लगीं। गाँव में कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे, जो इस कुल की नीतिपूर्ण गति पर मन ही मन जलते थे। वे कहा करते थे—श्रीकंठ अपने बाप से दबता है, इसीलिए वह दब्बू है। उसने विद्या पढ़ी, इसलिए वह किताबों का कीड़ा है। बेनी माधव सिंह उसकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते, यह उनकी मूर्खता है। इन महानुभावों की शुभकामनायें आज पूरी होती दिखायी दीं। कोई हुक्का पीने के बहाने और कोई लगान की रसीद दिखाने आ कर बैठ गया। बेनी माधव सिंह पुराने आदमी थे। इन भावों को ताड़ गये। उन्होंने निश्चय किया, चाहे कुछ ही क्यों न हो, इन द्रोहियों को ताली बजाने का अवसर न दूंगा। तुरंत कोमल शब्दों में बोले – “बेटा, मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ। तुम्हारा जो जी चाहे करो, अब तो लड़के से अपराध हो गया।“

इलाहाबाद का अनुभव-रहित झल्लाया हुआ ग्रेजुएट इस बात को न समझ सका। उसे डिबेटिंग-क्लब में अपनी बात पर अड़ने की आदत थी, इन हथकंडों की उसे क्या खबर? बाप ने जिस मतलब से बात पलटी थी, वह उसकी समझ में न आया। बोला — “लाल बिहारी के साथ अब इस घर में नहीं रह सकता।“

बेनी माधव — “बेटा! बुद्धिमान लोग मूर्खों की बात पर ध्यान नहीं देते। वह बेसमझ लड़का है। उससे जो कुछ भूल हुई, उसे तुम बड़े होकर क्षमा करो।“

श्रीकंठ — “उसकी इस दुष्टता को मैं कदापि नहीं सह सकता। या तो वही घर में रहेगा, या मैं ही। आपको यदि वह अधिक प्यारा है, तो मुझे विदा कीजिये, मैं अपना भार आप संभाल लूंगा। यदि मुझे रखना चाहते हैं तो उससे कहिये, जहाँ चाहे चला जाये। बस यह मेरा अंतिम निश्चय है।

लाल बिहारी सिंह दरवाजे की चौखट पर चुपचाप खड़ा बड़े भाई की बातें सुन रहा था। वह उनका बहुत आदर करता था। उसे कभी इतना साहस न हुआ था कि श्रीकंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाये, हुक्का पी ले या पान खा ले। बाप का भी वह इतना मान न करता था। श्रीकंठ का भी उस पर हार्दिक स्नेह था। अपने होश में उन्होंने कभी उसे घुड़का तक न था। जब वह इलाहाबाद से आते, तो उसके लिए कोई न कोई वस्तु अवश्य लाते। मुगदर की जोड़ी उन्होंने ही बनवा दी थी। पिछले साल जब उसने अपने से ड्यौढ़े जवान को नागपंचमी के दिन दंगल में पछाड़ दिया, तो उन्होंने पुलकित होकर अखाड़े में ही जा कर उसे गले लगा लिया था, पाँच रुपये के पैसे लुटाये थे। ऐसे भाई के मुँह से आज ऐसी हृदय-विदारक बात सुनकर लाल बिहारी को बड़ी ग्लानि हुई। वह फूट-फूट कर रोने लगा। इसमें संदेह नहीं कि अपने किये पर पछता रहा था। भाई के आने से एक दिन पहले से उसकी छाती धड़कती थी कि देखूं भैया क्या कहते हैं। मैं उनके सम्मुख कैसे जाऊंगा, उनसे कैसे बोलूंगा, मेरी आँखें उनके सामने कैसे उठेगी। उसने समझा था कि भैया मुझे बुलाकर समझा देंगे। इस आशा के विपरीत आज उसने उन्हें निर्दयता की मूर्ति बने हुए पाया। वह मूर्ख था। परंतु उसका मन कहता था कि भैया मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं। यदि श्रीकंठ उसे अकेले में बुलाकर दो-चार बातें कह देते; इतना ही नहीं दो-चार तमाचे भी लगा देते तो कदाचित् उसे इतना दु:ख न होता; पर भाई का यह कहना कि अब मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता, लाल बिहारी से सहा न गया। वह रोता हुआ घर आया। कोठारी में जा कर कपड़े पहने, आँखें पोंछी, जिसमें कोई यह न समझे कि रोता था। तब आनंदी के द्वार पर आकर बोला — “भाभी! भैया ने निश्चय किया है कि वह मेरे साथ इस घर में न रहेंगे। अब वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए अब मैं जाता हूँ। उन्हें फिर मुँह न दिखाऊंगा। मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, उसे क्षमा करना।

यह कहते-कहते लाल बिहारी का गला भर आया।

(4)

जिस समय लाल बिहारी सिंह सिर झुकाये आनंदी के द्वार पर खड़ था, उसी समय श्रीकंठ सिंह भी आँखें लाल किये बाहर से आये। भाई को खड़ा देखा, तो घृणा से आँखें फेर लीं, और कतरा कर निकल गये। मानों उसकी परछाई से दूर भागते हों।

आनंदी ने लाल बिहारी की शिकायत तो की थी, लेकिन अब मन में पछता रही थी। वह स्वभाव से ही दयावती थी। उसे इसका तनिक भी ध्यान न था कि बात इतनी बढ़ जायेगी। वह मन में अपने पति पर झुंझला रही थी कि यह इतने गरम क्यों होते हैं। उस पर यह भय भी लगा हुआ था कि कहीं मुझसे इलाहाबाद चलने को कहें, तो कैसे क्या करूंगी। इस बीच में जब उसने लाल बिहारी को दरवाजे पर खड़े यह कहते सुना कि अब मैं जाता हूँ, मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, क्षमा करना, तो उसका रहा-सहा क्रोध भी पानी हो गया। वह रोने लगी। मन का मैल धोने के लिए नयन-जल से उपयुक्त और कोई वस्तु नहीं है।

श्रीकंठ को देखकर आनंदी ने कहा — “लाला बाहर खड़े बहुत रो रहे हैं।“

श्रीकंठ – “तो मैं क्या करूं?”

आनंदी — “भीतर बुला लो। मेरी जीभ में आग लगे। मैंने कहाँ से यह झगड़ा उठाया।“

श्रीकंठ – “मैं न बुलाऊंगा।“

आनंदी – “पछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि हो गयी है, ऐसा न हो, कहीं चल दें।“

श्रीकंठ न उठे। इतने में लाल बिहारी ने फिर कहा – “भाभी! भैया से मेरा प्रणाम कह दो। वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए मैं भी अपना मुँह उन्हें न दिखाऊंगा।“

लाल बिहारी इतना कह कर लौट पड़ा, और शीघ्रता से दरवाजे की ओर बढ़ा। अंत में आनंदी कमरे से निकली और उसका हाथ पकड़ लिया। लाल बिहारी ने पीछे फिर कर देखा और आँखों में आँसू भरे बोला – “मुझे जाने दो।“

आनंदी – “कहाँ जाते हो?”

लालबिहारी – “जहाँ कोई मेरा मुँह न देखे।“

आनंदी — “मैं न जाने दूंगी?”

लाल बिहारी — “मैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ।“

आनंदी — “तुम्हें मेरी सौगंध अब एक पग भी आगे न बढ़ाना।“

लाल बिहारी — “जब तक मुझे यह न मालूम हो जाये कि भैया का मन मेरी तरफ से साफ हो गया, तब तक मैं इस घर में कदापि न रहूंगा।“

आनंदी — “मैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहती हूँ कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में तनिक भी मैल नहीं है।“

अब श्रीकंठ का हृदय भी पिघला। उन्होंने बाहर आकर लाल बिहारी को गले लगा लिया। दोनों भाई खूब फूट-फूट कर रोये।

लाल बिहारी ने सिसकते हुए कहा — “भैया! अब कभी मत कहना कि तुम्हारा मुँह न देखूंगा। इसके सिवा आप जो दंड देंगे, मैं सहर्ष स्वीकार करूंगा।

श्रीकंठ ने कांपते हुए स्वर में कहा – “लल्लू! इन बातों को बिल्कुल भूल जाओ। ईश्वर चाहेगा, तो फिर ऐसा अवसर न आवेगा।“

बेनी माधव सिंह बाहर से आ रहे थे। दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर आनंद से पुलकित हो गये। बोल उठे — “बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं।“

गाँव में जिसने यह वृत्तांत सुना, उसी ने इन शब्दों में आनंदी की उदारता को सराहा — ‘बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।‘

झांकी मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

कई दिन से घर में कलह मचा हुआ था। माँ अलग मुँह फुलाए बैठी थीं, स्त्री अलग। घर की वायु में जैसे विष भरा हुआ था। रात को भोजन नहीं बना, दिन को मैंने स्टोव पर खिचड़ी डाली: पर खाया किसी ने नहीं। बच्चों को भी आज भूख न थी।

छोटी लड़की कभी मेरे पास आकर खड़ी हो जाती, कभी माता के पास, कभी दादी के पास: पर कहीं उसके लिए प्यार की बातें न थीं। कोई उसे गोद में न उठाता था, मानो उसने भी अपराध किया हो। लड़का शाम को स्कूल से आया। किसी ने उसे कुछ खाने को न दिया, न उससे बोला, न कुछ पूछा। दोनों बरामदे में मन मारे बैठे हुए थे और शायद सोच रहे थे – ‘घर में आज क्यों लोगों के हृदय उनसे इतने फिर गए हैं। भाई-बहिन दिन में कितनी बार लड़ते हैं, रोनी-पीटना भी कई बार हो जाता है: पर ऐसा कभी नहीं होता कि घर में खाना न पके या कोई किसी से बोले नहीं। यह कैसा झगड़ा है कि चौबीस घंटे गुजर जाने पर भी शांत नहीं होता, यह शायद उनकी समझ में न आता था।‘

झगड़े की जड़ कुछ न थी। अम्मा ने मेरी बहन के घर तीजा भेजन के लिए जिन सामानों की सूची लिखायी, वह पत्नीजी को घर की स्थिति देखते हुए अधिक मालूम हुई। अम्मा खुद समझदार हैं। उन्होंने थोड़ी-बहुत काट-छांट कर दी थी: लेकिन पत्नीजी के विचार से और काट-छांट होनी चाहिए थी। पाँच साड़ियों की जगह तीन रहें, तो क्या बुराई है। खिलौने इतने क्या होंगे, इतनी मिठाई की क्या ज़रुरत?

उनका कहना था — “जब रोजगार में कुछ मिलता नहीं, दैनिक कार्यो में खींच-तान करनी पड़ती है, दूध-घी के बजट में तकलीफ हो गई, तो फिर तीजे में क्यों इतनी उदारता की जाये? पहले घर में दिया जलाकर तब मस्ज़िद में जलाते हैं। यह नहीं कि मस्ज़िद में तो दिया जला दें और घर अंधेरा पड़ा रहे।“

इसी बात पर सास-बहू में तकरार हो गई, फिर शाखें फूट निकलीं। बात कहाँ से कहाँ जा पहुँची, गड़े हुए मुर्दे उखाड़े गये। अन्योक्तियों की बारी आई, व्यंग्य का दौर शुरु हुआ और मौनालंकार पर समाप्त हो गया।

मैं बड़े संकट में था। अगर अम्मा की तरफ से कुछ कहता हूँ, तो पत्नीजी रोना-धोना शुरु करती हैं, अपने नसीबों को कोसने लगती हैं: पत्नी की-सी कहता हूँ तो जनमुरीद की उपाधि मिलती है। इसलिए बारी-बारी से दोनों पक्षों का समर्थन करता जाता था: पर स्वार्थवश मेरी सहानुभूति पत्नी के साथ ही थी। खुल कर अम्मा से कुछ न कहा सकता था: पर दिल में समझ रहा था कि ज्यादती इन्हीं की है। दुकान का यह हाल है कि कभी-कभी बोहनी भी नहीं होती। असामियों से टका वसूल नहीं होता, तो इन पुरानी लकीरों को पीटकर क्यों अपनी जान संकट में डाली जाये?

बार-बार इस गृहस्थी के जंजाल पर तबीयत झुंझलाती थी। घर में तीन तो प्राणी हैं और उनमें भी प्रेम भाव नहीं! ऐसी गृहस्थी में तो आग लगा देनी चाहिए। कभी-कभी ऐसी सनक सवार हो जाती थी कि सबको छोड़-छाड़कर कहीं भाग जाऊं। जब अपने सिर पड़ेगा, तब इनको होश आयेगा: तब मालूम होगा कि गृहस्थी कैसे चलती है? क्या जानता था कि यह विपत्ति झेलनी पड़ेगी, नहीं विवाह का नाम ही न लेता। तरह-तरह के कुत्सित भाव मन में आ रहे थे। कोई बात नहीं, अम्मा मुझे परेशान करना चाहती हैं। बहू उनके पांव नहीं दबाती, उनके सिर में तेल नहीं डालती, तो इसमें मेरा क्या दोष? मैंने उसे मना तो नहीं कर दिया है! मुझे तो सच्चा आनंद होगा, यदि सास-बहू में इतना प्रेम हो जाये: लेकिन यह मेरे वश की बात नहीं कि दोनों में प्रेम डाल दूं। अगर अम्मा ने अपनी सास की साड़ी धोई है, उनके पांव दबाये हैं, उनकी घुड़कियाँ खाई हैं, तो आज वह पुराना हिसाब बहू से क्यों चुकाना चाहती हैं? उन्हें क्यों नहीं दिखाई देता कि अब समय बदल गया है? बहुयें अब भयवश सास की गुलामी नहीं करतीं। प्रेम से चाहे उनके सिर के बाल नोच लो, लेकिन जो रौब दिखाकर उन पर शासन करना चाहो, तो वह दिन लद गये।

सारे शहर में जन्माष्टमी का उत्सव हो रहा था। मेरे घर में संग्राम छिड़ा हुआ था। संध्या हो गई थी: पर घर अंधेरा पड़ा था। मनहूसियत छायी हुई थी। मुझे अपनी पत्नी पर क्रोध आया। लड़ती हो, लड़ो: लेकिन घर में अंधेरा क्यों न रखा है? जाकर कहा – “क्या आज घर में चिराग न जलेंगे?”

पत्नी ने मुँह फुलाकर कहा – “जला क्यों नहीं लेते। तुम्हारे हाथ नहीं हैं?”

मेरी देह में आग लग गई। बोला – “तो क्या जब तुम्हारे चरण नहीं आये थे, तब घर में चिराग न जलते थे?”

अम्मा ने आग को हवा दी – “नहीं, तब सब लोग अंधेरे ही में पड़े रहते थे।“

पत्नीजी को अम्मा की इस टिप्पणी ने जामें के बाहर कर दिया। बोलीं – “जलाते होंगे, मिट्टी की कुप्पी! लालटेन तो मैंने नहीं देखी। मुझे इस घर में आये दस साल हो गये।“

मैंने डांटा – “अच्छा चुप रहो, बहुत बढ़ो नहीं।“

“ओहो! तुम तो ऐसे डांट रहे हो, जेसे मुझे मोल लाए हो?”

“मैं कहती हूँ, चुप रहो!”

“क्यों चुप रहूँ? अगर एक कहोगे, तो दो सुनोगे।“

“इसी का नाम पतिव्रत है?”

जैसा परास्त होकर बाहर चला आया, और अंधेरी कोठरी में बैठा हुआ, उस मनहूस घड़ी को कोसने लगा, जब इस कुलच्छनी से मेरा विवाह हुआ था। इस अंधकार में भी दस साल का जीवन सिनेमा-चित्रों की भांति मेरे नेत्रों के सामने दौड़ गया। उसमें कहीं प्रकाश की झलक न थी, कहीं स्नेह की मृदुता न थी।

(2)

सहसा मेरे मित्र पंडित जयदेवजी ने द्वार पर पुकारा — “अरे, आज यह अंधेरा क्यों कर रखा है जी? कुछ सूझती ही नहीं। कहाँ हो?”
मैंने कोई जवाब न दिया। सोचा, यह आज कहाँ से आकर सिर पर सवार हो गये।

जयदेव से फिर पुकारा — “अरे, कहाँ हो भाई? बोलते क्यों नहीं? कोई घर में है या नहीं?”

कहीं से कोई जवाब न मिला।

जयदेव ने द्वार को इतनी जोर से झंझोड़ा कि मुझे भय हुआ, कहीं दरवाजा चौखट-बाजू समेत गिर न पड़े। फिर भी मैं बोला नहीं। उनका आना खल रहा था।

जयदेव चले गये। मैंने आराम की सांस ली। बारे शैतान टला, नहीं घंटों सिर खाता।

मगर पाँच ही मिनट में फिर किसी के पैरो की आहट मिली और अबकी टार्च के तीव्र प्रकाश से मेरा सारा कमरा भर उठा। जयदेव ने मुझे बैठे देखकर कुतूहल से पूछा— “तुम कहाँ गये थे जी? घंटों चीखा, किसी ने जवाब तक न दिया। यह आज क्या मामला है? चिराग क्यों नहीं जले?”

मैंने बहाना किया — “क्या जानें, मेरे सिर में दर्द था, दुकान से आकर लेटे, तो नींद आ गई।”

“और सोये तो घोड़ा बेचकर, मुर्दो से शर्त लगाकर?”

”हाँ यार, नींद आ गई।“

“मगर घर में चिराग तो जलाना चाहिए था या उसका रिट्रेंचमेंट कर दिया?”

“‘आज घर में लोग व्रत से हैं न। हाथ न खाली होगा।“

”खैर चलो, कहीं झांकी देखने चलते हो? सेठ घूरेमल के मंदिर में ऐसी झांकी बनी है कि देखते ही बनता है। ऐसे-ऐसे शीशे और बिजली के सामान सजाये हैं कि आँखें झपक उठती हैं। सिंहासन के ठीक सामने ऐसा फौहारा लगाया है कि उसमें से गुलाबजल की फुहारें निकलती हैं। मेरा तो चोला मस्त हो गया। सीधे तुम्हारे पास दौड़ा चला आ रहा हूँ। बहुत झाँकियाँ देखी होंगी तुमने, लेकिन यह और ही चीज है। आलम फटा पड़ता है। सुनते हैं दिल्ली से कोई चतुर कारीगर आया है। उसी की यह करामात है।“

मैंने उदासीन भाव से कहा — “मेरी तो जाने की इच्छा नहीं है भाई! सिर में जोर का दर्द है।“

“तब तो ज़रुर चलो। दर्द भाग न जाये, तो कहना।“

“तुम तो यार, बहुत दिक करते हो। इसी मारे मैं चुपचाप पड़ा था कि किसी तरह यह बला टले: लेकिन तुम सिर पर सवार हो गये। कहा दिया—मैं न जाऊंगा।“

“और मैंने कह दिया—मैं ज़रुर ले जाऊंगा।”

मुझ पर विजय पाने का मेरे मित्रों का बहुत आसान नुस्खा हैं, यों हाथा-पाई, धींगा-मुश्ती, धौल-धप्पे में किसी से पीछे रहने वाला नहीं हूँ लेकिन किसी ने मुझे गुदगुदाया और परास्त हुआ। फिर मेरी कुछ नहीं चलती। मैं हाथ जोड़ने लगता हूँ, घिघियाने लगता हूँ और कभी-कभी रोने भी लगता हूँ। जयदेव ने वही नुस्खा आजमाया और उसकी जीत हो गई। संधि की वही शर्त ठहरी कि मैं चुपके से झांकी देखने चला चलूं।

(3)

सेठ घूरेलाल उन आदमियों में हैं, जिनका प्रात: को नाम ले लो, तो दिन-भर भोजन न मिले। उनके मक्खीचूसपने की सैकड़ों ही दंतकथायें नगर में प्रचलित हैं। कहते हैं, एक बार मारवाड़ का एक भिखारी उनके द्वार पर डट गया कि भिक्षा लेकर ही जाऊंगा। सेठजी भी अड़ गये कि भिक्षा न दूंगा, चाहे कुछ हो। मारवाड़ी उन्हीं के देश का था। कुछ देर तो उनके पूर्वजों का बखान करता रहा, फिर उनकी निंदा करने लगा, अंत में द्वार पर लेट रहा। सेठजी ने रत्ती-भर परवाह न की। भिक्षुक भी अपनी धुन का पक्का था। सारा दिन द्वार पर बे-दाना-पानी पड़ा रहा और अंत में वही मर गया। तब सेठजी पसीजे और उसकी क्रिया इतनी धूम-धाम से की कि बहुत कम किसी ने की होगी। भिक्षुक का सत्याग्रह सेठजी ने के लिए वरदान हो गया। उनके अंत:करण में भक्ति का जैसे स्रोत खुल गया। अपनी सारी संपत्ति धर्मार्थ अर्पण कर दी।
हम लोग ठाकुरदारे में पहुँचे: तो दर्शकों की भीड़ लगी हुई थी। कंधे से कंधा छिलता था। आने और जाने के मार्ग अलग थे, फिर हमें आध घंटे के बाद भीतर जाने का अवसर मिला। जयदेव सजावट देख-देखकर लोट-पोट हुए जाते थे, पर मुझे ऐसा मालूम होता था कि इस बनावट और सजावट के मेले में कृष्ण की आत्मा कहीं खो गई है। उनकी वह रत्नजटित, बिजली से जगमगाती मूर्ति देखकर मेरे मन में ग्लानि उत्पन्न हुई। इस रुप में भी प्रेम का निवास हो सकता है? मैंने तो रत्नों में दर्प और अहंकार ही भरा देखा है। मुझे उस वक्त यही याद न रही, कि यह एक करोड़पति सेठ का मंदिर है और धनी मनुष्य धन में लोटने वाले ईश्वर ही की कल्पना कर सकता है। धनी ईश्वर में ही उसकी श्रद्धा हो सकती है। जिसके पास धन नहीं, वह उसकी दया का पात्र हो सकता है, श्रद्धा का कदापि नहीं।

मंदिर में जयदेव को सभी जानते हैं। उन्हें तो सभी जगह सभी जानते हैं। मंदिर के आंगन में संगीत-मंडली बैठी हुई थी। केलकर जी अपने गंधर्व-विद्यालय के शिष्यों के साथ तम्बूरा लिये बैठे थे। पखावज, सितार, सरोद, वीणा और जाने कौन-कौन बाजे, जिनके नाम भी मैं नहीं जानता, उनके शिष्यों के पास थे। कोई गीत बजाने की तैयारी हो रही थी। जयदेव को देखते ही केलकर जी ने पुकारा! मै भी तुफैल में जा बैठा। एक क्षण में गीत शुरु हुआ। समा बंध गया।

जहाँ इतना शोर-गुल था कि तोप की आवाज भी न सुनाई देती, वहाँ जैसे माधुर्य के उस प्रवाह ने सब किसी को अपने में डुबा लिया। जो जहाँ था, वहीं मंत्र मुग्ध-सा खड़ा था। मेरी कल्पना कभी इतनी सचित्र और संजीव न थी। मेरे सामने न वही बिजली का चका-चौंध थी, न वह रत्नों की जगमगाहट, न वह भौतिक विभूतियों का समारोह। मेरे सामने वही यमुना का तट था, गुल्म-लताओं का घूंघट मुँह पर डाले हुये। वही मोहिनी गउयें थीं, वही गोपियों की जल-क्रीड़ा, वहीं वंशी की मधुर ध्वनि, वही शीतल चांदनी और वहीं प्यारा नंदकिशोर, जिसके मुख-छबि में प्रेम और वात्सल्य की ज्योति थी, जिसके दर्शनों ही से हृदय निर्मल हो जाते थे।

(4)

मैं इसी आनंद-विस्मृत की दशा में था कि कंसर्ट बंद हो गया और आचार्य केलकर के एक किशोर शिष्य ने ध्रुपद अलापना शुरु किया। कलाकारों की आदत है कि शब्दों को कुछ इस तरह तोड़-मरोड़ देते हैं कि अधिकांश सुनने वालों की समझ में नहीं आता कि क्या गा रहे हैं। इस गीत का एक शब्द भी मेरी समझ में न आया: लेकिन कंठ-स्वर में कुछ ऐसा मादकता भरा लालित्य था कि प्रत्येक स्वर मुझे रोमांचित कर देता था। कंठ-स्वर में इतनी जादुईशक्ति है, इसका मुझे आज कुछ अनुभव हुआ। मन में एक नये संसार की सृष्टि होने लगी, जहाँ आनंद-ही-आनंद है, प्रेम-ही-प्रेम, त्याग-ही-त्याग। ऐसा जान पड़ा, दु:ख केवल चित्त की एक वृत्ति है, सत्य है केवल आनंद। एक स्वच्छ, करुणा-भरी कोमलता, जैसे मन को मसोसने लगी। ऐसी भावना मन में उठी कि वहाँ जितने सज्जन बैठे हुए थे, सब मेरे अपने हैं, अभिन्न हैं। फिर अतीत के गर्भ से मेरे भाई की स्मृति-मूर्ति निकल आई।

मेरा छोटा भाई बहुत दिन हुए, मुझसे लड़कर, घर की जमा-जथा लेकर रंगून भाग गया था, और वहीं उसका देहांत हो गया था। उसके पाशविक व्यवहारों को याद करके मैं उन्मत्त हो उठता था। उसे जीता पा जाता, तो शयद उसका खून पी जाता, पर इस समय स्मृति-मूर्ति को देखकर मेरा मन जैसे मुखरित हो उठा। उसे आलिंगन करने के लिए व्याकुल हो गया। उसने मेरे साथ, मेरी स्त्री के साथ, माता के साथ्, मेरे बच्चे के साथ्, जो-जो कटु, नीच और घृणास्पद व्यवहार किये थे, वह सब मुझे भूल गये। मन में केवल यही भावना थी— ‘मेरा भैया कितना दु:खी है।‘ मुझे इस भाई के प्रति कभी इतनी ममता न हुई थी, फिर तो मन की वह दशा हो गई, जिसे विहव्लता कह सकते है!

शत्रु-भाव जैसे मन से मिट गया था। जिन-जिन प्राणियों से मेरा बैर-भाव था, जिनसे गाली-गलौज, मार-पीट मुकदमाबाजी सब कुछ हो चुकी थी, वह सभी जैसे मेरे गले में लिपट-लिपटकर हँस रहे थे। फिर विद्या (पत्नी) की मूर्ति मेरे सामन आ खड़ी हुई—वह मूर्ति जिसे दस साल पहले मैंने देखा था—उन आँखों में वही विकल कंपन था, वहीं संदिग्ध विश्वास, कपोलों पर वही लज्जा-लालिमा, जैसे प्रेम सरोवर से निकला हुआ कोई कमल पुष्प हो। वही अनुराग, वही आवेश, वही याचना-भरी उत्सुकता, जिसमें मैंने उस न भूलने वाली रात को उसका स्वागत किया था, एक बार फिर मेरे हृदय में जाग उठी। मधुर स्मृतियों का जैसे स्रोत-सा खुल गया। जी ऐसा तड़पा कि इसी समय जाकर विद्या के चरणों पर सिर रगड़कर रोऊं और रोते-रोते बेसुध हो जाऊं। मेरी आँखें सजल हो गई। मेरे मुँह से जो कटु शब्द निकले थे, वह सब जैसे ही हृदय में गड़ने लगे। इसी दशा में, जैसे ममतामयी माता ने आकर मुझे गोद में उठा लिया। बालपन में जिस वात्सल्य का आनंद उठाने की मुझमें शक्ति न थीं, वह आनंद आज मैंने उठाया।

गाना बंद हो गया। सब लोग उठ-उठकर जाने लगे। मैं कल्पना-सागर में ही डूबा रहा।

सहसा जयदेव ने पुकारा — “चलते हो, या बैठे ही रहोगे?”

बेटों वाली विधवा मुंशी प्रेमचंद

(1)

पंडित अयोध्यानाथ का देहांत हुआ तो सबने कहा, ईश्वर आदमी की ऐसी ही मौत दे। चार जवान बेटे थे, एक लड़की। चारों लड़कों के विवाह हो चुके थे, केवल लड़की क्‍वाँरी थी। संपत्ति भी काफ़ी छोड़ी थी। एक पक्का मकान, दो बग़ीचे, कई हज़ार के गहने और बीस हज़ार नकद। विधवा फूलमती को शोक तो हुआ और कई दिन तक बेहाल पड़ी रही, लेकिन जवान बेटों को सामने देखकर उसे ढाढ़स हुआ। चारों लड़के एक से एक सुशील, चारों बहुएँ एक से एक बढ़कर आज्ञाकारिणी। जब वह रात को लेटती, तो चारों बारी-बारी से उसके पाँव दबातीं; वह स्नान करके उठती, तो उसकी साड़ी छाँटतीं। सारा घर उसके इशारे पर चलता था। बड़ा लड़का कामतानाथ, एक दफ़्तर में 50 रु. पर नौकर था, छोटा उमानाथ, डॉक्टरी पास कर चुका था और कहीं औषधालय खोलने की फ़िक्र में था, तीसरा दयानाथ, बी. ए. में फेल हो गया था और पत्रिकाओं में लेख लिखकर कुछ न कुछ कमा लेता था, चौथा सीतानाथ, चारों में सबसे कुशाग्र बुद्धि और होनहार था और अबकी साल बी. ए. प्रथम श्रेणी में पास करके एम. ए. की तैयारी में लगा हुआ था। किसी लड़के में वह दुर्व्यसन, वह छैलापन, वह लुटाऊपन न था, जो माता-पिता को जलाता और कुल मर्यादा को डुबाता है। फूलमती घर की मालकिन थी। गोकि कुंजियाँ बड़ी बहू के पास रहती थीं – बुढ़िया में वह अधिकार प्रेम न था, जो वृद्धजनों को कटु और कलहशील बना दिया करता है; किन्तु उसकी इच्छा के बिना कोई बालक मिठाई तक न मँगा सकता था। संध्या हो गयी थी। पंडित को मरे आज बारहवाँ दिन था। कल तेरही है। ब्रह्मभोज होगा। बिरादरी के लोग निमंत्रित होंगे। उसी की तैयारियाँ हो रही थीं। फूलमती अपनी कोठरी में बैठी देख रही थी, पल्लेदार बोरे में आटा लाकर रख रहे हैं। घी के टिन आ रहे हैं। शाक-भाजी के टोकरे, शक्कर की बोरियाँ, दही के मटके चले आ रहे हैं। महापात्र के लिए दान की चीज़ें लायी गयीं- बर्तन, कपड़े, पलंग, बिछावन, छाते, जूते, छड़ियाँ, लालटेनें आदि; किन्तु फूलमती को कोई चीज़ नहीं दिखायी गयी। नियमानुसार ये सब सामान उसके पास आने चाहिए थे। वह प्रत्येक वस्तु को देखती, उसे पसंद करती, उसकी मात्रा में कमी बेशी का फैसला करती; तब इन चीज़ों को भंडारे में रखा जाता। क्यों उसे दिखाने और उसकी राय लेने की ज़रूरत नहीं समझी गयी? अच्छा वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया? उसने तो पाँच बोरों के लिए कहा था। घी भी पाँच ही कनस्तर है। उसने तो दस कनस्तर मँगवाए थे। इसी तरह शाक-भाजी, शक्कर, दही आदि में भी कमी की गयी होगी। किसने उसके हुक्म में हस्तक्षेप किया? जब उसने एक बात तय कर दी, तब किसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधिकार है? आज चालीस वर्षों से घर के प्रत्येक मामले में फूलमती की बात सर्वमान्य थी। उसने सौ कहा तो सौ खर्च किये गये, एक कहा तो एक। किसी ने मीनमेख न की। यहाँ तक कि पं. अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ न करते थे; पर आज उसकी आँखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से उसके हुक्म की उपेक्षा की जा रही है! इसे वह क्योंकर स्वीकार कर सकती? कुछ देर तक तो वह जब्त किये बैठी रही; पर अंत में न रहा गया। स्वायत्त शासन उसका स्वभाव हो गया था। वह क्रोध में भरी हुई आयी और कामतानाथ से बोली- ‘क्या आटा तीन ही बोरे लाये? मैंने तो पाँच बोरों के लिए कहा था और घी भी पाँच ही टिन मँगवाया! तुम्हें याद है, मैंने दस कनस्तर कहा था? किफ़ायत को मैं बुरा नहीं समझती; लेकिन जिसने यह कुआँ खोदा, उसी की आत्मा पानी को तरसे, यह कितनी लज्जा की बात है!’

कामतानाथ ने क्षमा-याचना न की, अपनी भूल भी स्वीकार न की, लज्जित भी नहीं हुआ। एक मिनट तो विद्रोही भाव से खड़ा रहा, फिर बोला- ‘हम लोगों की सलाह तीन ही बोरों की हुई और तीन बोरे के लिए पाँच टिन घी काफ़ी था। इसी हिसाब से और चीज़ें भी कम कर दी गयी हैं।’

फूलमती उग्र होकर बोली- ‘किसकी राय से आटा कम किया गया?’

‘हम लोगों की राय से।’

‘तो मेरी राय कोई चीज़ नहीं है?’

‘है क्यों नहीं; लेकिन अपना हानि-लाभ तो हम समझते हैं?’

फूलमती हक्की-बक्की होकर उसका मुँह ताकने लगी। इस वाक्य का आशय उसकी समझ में न आया। अपना हानि-लाभ! अपने घर में हानि-लाभ की ज़िम्मेदार वह आप है। दूसरों को, चाहे वे उसके पेट के जन्मे पुत्र ही क्यों न हों, उसके कामों में हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार? यह लौंडा तो इस ढिठाई से जवाब दे रहा है, मानो घर उसी का है, उसी ने मर-मरकर गृहस्थी जोड़ी है, मैं तो गैर हूँ! जरा इसकी हेकड़ी तो देखो।

उसने तमतमाये हुए मुख से कहा- ‘मेरे हानि-लाभ के ज़िम्मेदार तुम नहीं हो। मुझे अख़्तियार है, जो उचित समझूँ, वह करूँ। अभी जाकर दो बोरे आटा और पाँच टिन घी और लाओ और आगे के लिए खबरदार, जो किसी ने मेरी बात काटी।’

अपने विचार में उसने काफ़ी तंबीह कर दी थी। शायद इतनी कठोरता अनावश्यक थी। उसे अपनी उग्रता पर खेद हुआ। लड़के ही तो हैं, समझे होंगे कुछ किफ़ायत करनी चाहिए। मुझसे इसलिए न पूछा होगा कि अम्माँ तो ख़ुद हरेक काम में किफ़ायत करती हैं। अगर इन्हें मालूम होता कि इस काम में मैं किफ़ायत पसंद न करूँगी, तो कभी इन्हें मेरी उपेक्षा करने का साहस न होता। यद्यपि कामतानाथ अब भी उसी जगह खड़ा था और उसकी भावभंगी से ऐसा ज्ञात होता था कि इस आज्ञा का पालन करने के लिए वह बहुत उत्सुक नहीं, पर फूलमती निश्चिंत होकर अपनी कोठरी में चली गयी। इतनी तंबीह पर भी किसी को उसकी अवज्ञा करने की सामर्थ्य हो सकती है, इसकी संभावना का ध्यान भी उसे न आया।

पर ज्यों-ज्यों समय बीतने लगा, उस पर यह हकीकत खुलने लगी कि इस घर में अब उसकी वह हैसियत नहीं रही, जो दस बारह दिन पहले थी। संबंधियों के यहाँ के नेवते में शक्कर, मिठाई, दही, अचार आदि आ रहे थे। बड़ी बहू इन वस्तुओं को स्वामिनी भाव से सँभाल-सँभालकर रख रही थी। कोई भी उससे पूछने नहीं आता। बिरादरी के लोग जो कुछ पूछते हैं, कामतानाथ से या बड़ी बहू से। कामतानाथ कहाँ का बड़ा इंतजामकार है, रात-दिन भंग पिये पड़ा रहता हैं किसी तरह रो-धोकर दफ़्तर चला जाता है। उसमें भी महीने में पंद्रह नागों से कम नहीं होते। वह तो कहो, साहब पंडित जी का लिहाज़ करता है, नहीं अब तक कभी का निकाल देता और बड़ी बहू जैसी फूहड़ औरत भला इन सब बातों को क्या समझेगी! अपने कपड़े-लत्ते तक तो जतन से रख नहीं सकती, चली है गृहस्थी चलाने! भद होगी और क्या। सब मिलकर कुल की नाक कटवायेंगे। वक्त पर कोई न कोई चीज़ कम हो जायेगी। इन कामों के लिए बड़ा अनुभव चाहिए। कोई चीज़ तो इतनी बन जायेगी कि मारी-मारी फिरेगी। कोई चीज़ इतनी कम बनेगी कि किसी पत्तल पर पहुँचेगी, किसी पर नहीं। आख़िर इन सबों को हो क्या गया है! अच्छा, बहू तिजोरी क्यों खोल रही है? वह मेरी आज्ञा के बिना तिजोरी खोलने वाली कौन होती है? कुंजी उसके पास है अवश्य; लेकिन जब तक मैं रुपये न निकलवाऊँ, तिजोरी नहीं खुलती। आज तो इस तरह खोल रही है, मानो मैं कुछ हूँ ही नहीं। यह मुझसे न बर्दाश्त होगा!

वह झमककर उठी और बहू के पास जाकर कठोर स्वर में बोली- ‘तिजोरी क्यों खोलती हो बहू, मैंने तो खोलने को नहीं कहा?’

बड़ी बहू ने नि:संकोच भाव से उत्तर दिया- ‘बाज़ार से सामान आया है, तो दाम न दिया जायेगा।’

‘कौन चीज़ किस भाव में आयी है और कितनी आयी है, यह मुझे कुछ नहीं मालूम! जब तक हिसाब-किताब न हो जाये, रुपये कैसे दिये जायँ?’

‘हिसाब किताब सब हो गया है।’

‘किसने किया?’

‘अब मैं क्या जानूँ किसने किया? जाकर मरदों से पूछो! मुझे हुक्म मिला, रुपये लाकर दे दो, रुपये लिये जाती हूँ!’

फूलमती ख़ून का घूँट पीकर रह गयी। इस वक्त बिगड़ने का अवसर न था। घर में मेहमान स्त्री-पुरुष भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को डाँटा, तो लोग यही कहेंगे कि इनके घर में पंडित जी के मरते ही फूट पड़ गयी। दिल पर पत्थर रखकर फिर अपनी कोठरी में चली गयी। जब मेहमान विदा हो जायेंगे, तब वह एक-एक की खबर लेगी। तब देखेगी, कौन उसके सामने आता है और क्या कहता है। इनकी सारी चौकड़ी भुला देगी।

किन्तु कोठरी के एकांत में भी वह निश्चिंत न बैठी थी। सारी परिस्थिति को गिद्ध दृष्टि से देख रही थी, कहाँ सत्कार का कौन-सा नियम भंग होता है, कहाँ मर्यादाओं की उपेक्षा की जाती है। भोज आरम्भ हो गया। सारी बिरादरी एक साथ पंगत में बैठा दी गयी। आँगन में मुश्किल से दो सौ आदमी बैठ सकते हैं। ये पाँच सौ आदमी इतनी-सी जगह में कैसे बैठ जायेंगे? क्या आदमी के ऊपर आदमी बिठाए जायेंगे? दो पंगतों में लोग बिठाये जाते, तो क्या बुराई हो जाती? यही तो होता कि बारह बजे की जगह भोज दो बजे समाप्त होता; मगर यहाँ तो सबको सोने की जल्दी पड़ी हुई है। किसी तरह यह बला सिर से टले और चैन से सोयें! लोग कितने सटकर बैठे हुए हैं कि किसी को हिलने की भी जगह नहीं। पत्तल एक-पर-एक रखे हुए हैं। पूरियाँ ठंडी हो गईं। लोग गरम-गरम माँग रहे हैं। मैदे की पूरियाँ ठंडी होकर चिमड़ी हो जाती हैं। इन्हें कौन खायेगा? रसोइये को कढ़ाव पर से न जाने क्यों उठा दिया गया? यही सब बातें नाक काटने की हैं।

सहसा शोर मचा, तरकारियों में नमक नहीं। बड़ी बहू जल्दी-जल्दी नमक पीसने लगी। फूलमती क्रोध के मारे ओठ चबा रही थी, पर इस अवसर पर मुँह न खोल सकती थी। नमक पिसा और पत्तलों पर डाला गया। इतने में फिर शोर मचा- पानी गरम है, ठंडा पानी लाओ! ठंडे पानी का कोई प्रबन्ध न था, बर्फ़ भी न मँगाई गयी। आदमी बाज़ार दौड़ाया गया, मगर बाज़ार में इतनी रात गये बर्फ़ कहाँ? आदमी ख़ाली हाथ लौट आया। मेहमानों को वही नल का गरम पानी पीना पड़ा। फूलमती का बस चलता, तो लड़कों का मुँह नोंच लेती। ऐसी छीछालेदर उसके घर में कभी न हुई थी। उस पर सब मालिक बनने के लिए मरते हैं। बर्फ़ जैसी ज़रूरी चीज़ मँगवाने की भी किसी को सुधि न थी! सुधि कहाँ से रहे- जब किसी को गप लड़ाने से फुर्सत मिले। मेहमान अपने दिल में क्या कहेंगे कि चले हैं बिरादरी को भोज देने और घर में बर्फ़ तक नहीं!

अच्छा, फिर यह हलचल क्यों मच गयी? अरे, लोग पंगत से उठे जा रहे हैं। क्या मामला है?

फूलमती उदासीन न रह सकी। कोठरी से निकलकर बरामदे में आयी और कामतानाथ से पूछा- ‘क्या बात हो गयी लल्ला? लोग उठे क्यों जा रहे हैं?’ कामता ने कोई जवाब न दिया। वहाँ से खिसक गया। फूलमती झुँझलाकर रह गयी। सहसा कहारिन मिल गयी। फूलमती ने उससे भी यह प्रश्न किया। मालूम हुआ, किसी के शोरबे में मरी हुई चुहिया निकल आयी। फूलमती चित्रलिखित-सी वहीं खड़ी रह गयी। भीतर ऐसा उबाल उठा कि दीवार से सिर टकरा ले! अभागे भोज का प्रबन्ध करने चले थे। इस फूहड़पन की कोई हद है, कितने आदमियों का धर्म सत्यानाश हो गया! फिर पंगत क्यों न उठ जाये? आँखों से देखकर अपना धर्म कौन गँवायेगा? हा! सारा किया-धरा मिट्टी में मिल गया। सैकड़ों रुपये पर पानी फिर गया! बदनामी हुई वह अलग।

मेहमान उठ चुके थे। पत्तलों पर खाना ज्यों-का-त्यों पड़ा हुआ था। चारों लड़के आँगन में लज्जित खड़े थे। एक दूसरे को इल्जाम दे रहा था। बड़ी बहू अपनी देवरानियों पर बिगड़ रही थी। देवरानियाँ सारा दोष कुमुद के सिर डालती थी। कुमुद खड़ी रो रही थी। उसी वक्त फूलमती झल्लायी हुई आकर बोली- ‘मुँह में कालिख लगी कि नहीं या अभी कुछ कसर बाकी है? डूब मरो, सब-के-सब जाकर चिल्लू-भर पानी में! शहर में कहीं मुँह दिखाने लायक़ भी नहीं रहे।’ किसी लड़के ने जवाब न दिया।

फूलमती और भी प्रचंड होकर बोली- ‘तुम लोगों को क्या? किसी को शर्म-हया तो है नहीं। आत्मा तो उनकी रो रही है, जिन्होंने अपनी ज़ि न्दगी घर की मरजाद बनाने में ख़राब कर दी। उनकी पवित्र आत्मा को तुमने यों कलंकित किया? शहर में थुड़ी-थुड़ी हो रही है। अब कोई तुम्हारे द्वार पर पेशाब करने तो आयेगा नहीं!’

कामतानाथ कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ा सुनता रहा। आखिर झुँझला कर बोला- ‘अच्छा, अब चुप रहो अम्माँ। भूल हुई, हम सब मानते हैं, बड़ी भयंकर भूल हुई, लेकिन अब क्या उसके लिए घर के प्राणियों को हलाल-कर डालोगी? सभी से भूलें होती हैं। आदमी पछताकर रह जाता है। किसी की जान तो नहीं मारी जाती?’

बड़ी बहू ने अपनी सफाई दी- ‘हम क्या जानते थे कि बीबी (कुमुद) से इतना-सा काम भी न होगा। इन्हें चाहिए था कि देखकर तरकारी कढ़ाव में डालतीं। टोकरी उठाकर कढ़ाव मे डाल दी! हमारा क्या दोष!’

कामतानाथ ने पत्नी को डाँटा- ‘इसमें न कुमुद का कसूर है, न तुम्हारा, न मेरा। संयोग की बात है। बदनामी भाग में लिखी थी, वह हुई। इतने बड़े भोज में एक-एक मुट्ठी तरकारी कढ़ाव में नहीं डाली जाती! टोकरे-के-टोकरे उड़ेल दिए जाते हैं। कभी-कभी ऐसी दुर्घटना होती है। पर इसमें कैसी जग-हँसाई और कैसी नक-कटाई। तुम खामखाह जले पर नमक छिड़कती हो!’

फूलमती ने दाँत पीसकर कहा- ‘शरमाते तो नहीं, उलटे और बेहयाई की बातें करते हो।’

कामतानाथ ने नि:संकोच होकर कहा- ‘शरमाऊँ क्यों, किसी की चोरी की हैं? चीनी में चींटे और आटे में घुन, यह नहीं देखे जाते। पहले हमारी निगाह न पड़ी, बस, यहीं बात बिगड़ गयी। नहीं, चुपके से चुहिया निकालकर फेंक देते। किसी को खबर भी न होती।’

फूलमती ने चकित होकर कहा- ‘क्या कहता है, मरी चुहिया खिलाकर सबका धर्म बिगाड़ देता?’

कामता हँसकर बोला- ‘क्या पुराने जमाने की बातें करती हो अम्माँ। इन बातों से धर्म नहीं जाता? यह धर्मात्मा लोग जो पत्तल पर से उठ गये हैं, इनमें से कौन है, जो भेड़-बकरी का मांस न खाता हो? तालाब के कछुए और घोंघे तक तो किसी से बचते नहीं। ज़रा-सी चुहिया में क्या रखा था!’

फूलमती को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब प्रलय आने में बहुत देर नहीं है। जब पढे-लिखे आदमियों के मन मे ऐसे अधार्मिक भाव आने लगे, तो फिर धर्म की भगवान ही रक्षा करें। अपना-सा मुँह लेकर चली गयी।

(2)

दो महीने गुजर गये हैं। रात का समय है। चारों भाई दिन के काम से छुट्टी पाकर कमरे में बैठे गप-शप कर रहे हैं। बड़ी बहू भी षड्यंत्र में शरीक है। कुमुद के विवाह का प्रश्न छिड़ा हुआ है।

कामतानाथ ने मसनद पर टेक लगाते हुए कहा- ‘दादा की बात दादा के साथ गयी। पंडित विद्वान् भी हैं और कुलीन भी होंगे। लेकिन जो आदमी अपनी विद्या और कुलीनता को रुपयों पर बेचे, वह नीच है। ऐसे नीच आदमी के लड़के से हम कुमुद का विवाह सेंत में भी न करेंगे, पाँच हज़ार तो दूर की बात है। उसे बताओ धता और किसी दूसरे वर की तलाश करो। हमारे पास कुल बीस हज़ार ही तो हैं। एक-एक के हिस्से में पाँच-पाँच हज़ार आते हैं। पाँच हज़ार दहेज में दे दें, और पाँच हज़ार नेग-न्योछावर, बाजे-गाजे में उड़ा दें, तो फिर हमारी बधिया ही बैठ जायेगी।’

उमानाथ बोले- ‘मुझे अपना औषधालय खोलने के लिए कम-से-कम पाँच हज़ार की ज़रूरत है। मैं अपने हिस्से में से एक पाई भी नहीं दे सकता। फिर खुलते ही आमदनी तो होगी नहीं। कम-से-कम साल-भर घर से खाना पड़ेगा।’

दयानाथ एक समाचार-पत्र देख रहे थे। आँखों से ऐनक उतारते हुए बोले- ‘मेरा विचार भी एक पत्र निकालने का है। प्रेस और पत्र में कम-से-कम दस हज़ार का कैपिटल चाहिए। पाँच हज़ार मेरे रहेंगे तो कोई-न-कोई साझेदार भी मिल जायेगा। पत्रों में लेख लिखकर मेरा निर्वाह नहीं हो सकता।’

कामतानाथ ने सिर हिलाते हुए कहा- ‘अजी, राम भजो, सेंत में कोई लेख छापता नहीं, रुपये कौन देता है।’

दयानाथ ने प्रतिवाद किया- ‘नहीं, यह बात तो नहीं है। मैं तो कहीं भी बिना पेशगी पुरस्कार लिये नहीं लिखता।’

कामता ने जैसे अपने शब्द वापस लिये- ‘तुम्हारी बात मैं नहीं कहता भाई। तुम तो थोड़ा-बहुत मार लेते हो, लेकिन सबको तो नहीं मिलता।’

बड़ी बहू ने श्रद्धा भाव ने कहा- ‘कन्या भाग्यवान हो तो दरिद्र घर में भी सुखी रह सकती है। अभागी हो, तो राजा के घर में भी रोयेगी। यह सब नसीबों का खेल है।’

कामतानाथ ने स्त्री की ओर प्रशंसा-भाव से देखा- ‘फिर इसी साल हमें सीता का विवाह भी तो करना है।’

सीतानाथ सबसे छोटा था। सिर झुकाये भाइयों की स्वार्थ-भरी बातें सुन-सुनकर कुछ कहने के लिए उतावला हो रहा था। अपना नाम सुनते ही बोला- ‘मेरे विवाह की आप लोग चिन्ता न करें। मैं जब तक किसी धंधे में न लग जाऊँगा, विवाह का नाम भी न लूँगा; और सच पूछिये तो मैं विवाह करना ही नहीं चाहता। देश को इस समय बालकों की ज़रूरत नहीं, काम करने वालों की ज़रूरत है। मेरे हिस्से के रुपये आप कुमुद के विवाह में खर्च कर दें। सारी बातें तय हो जाने के बाद यह उचित नहीं है कि पंडित मुरारीलाल से संबंध तोड़ लिया जाये।’

उमा ने तीव्र स्वर में कहा- ‘दस हज़ार कहाँ से आयेंगे?’

सीता ने डरते हुए कहा- ‘मैं तो अपने हिस्से के रुपये देने को कहता हूँ।’

‘और शेष?’

‘मुरारीलाल से कहा जाये कि दहेज में कुछ कमी कर दें। वे इतने स्वार्थांध नहीं हैं कि इस अवसर पर कुछ बल खाने को तैयार न हो जायें, अगर वह तीन हज़ार में संतुष्ट हो जाएं, तो पाँच हज़ार में विवाह हो सकता है।’

उमा ने कामतानाथ से कहा- ‘सुनते हैं भाई साहब, इसकी बातें।’

दयानाथ बोल उठे- ‘तो इसमें आप लोगों का क्या नुकसान है? मुझे तो इस बात से खुशी हो रही है कि भला, हममें कोई तो त्याग करने योग्य है। इन्हें तत्काल रुपये की ज़रूरत नहीं है। सरकार से वज़ीफ़ा पाते ही हैं। पास होने पर कहीं-न-कहीं जगह मिल जायेगी। हम लोगों की हालत तो ऐसी नहीं है।’

कामतानाथ ने दूरदर्शिता का परिचय दिया- ‘नुकसान की एक ही कही। हममें से एक को कष्ट हो तो क्या और लोग बैठे देखेंगे? यह अभी लड़के हैं, इन्हें क्या मालूम, समय पर एक रुपया एक लाख का काम करता है। कौन जानता है, कल इन्हें विलायत जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वज़ीफ़ा मिल जाये या सिविल सर्विस में आ जायें। उस वक़्त सफर की तैयारियों में चार-पाँच हज़ार लग जाएँगे। तब किसके सामने हाथ फैलाते फिरेंगे? मैं यह नहीं चाहता कि दहेज के पीछे इनकी ज़िन्दगी नष्ट हो जाये।’

इस तर्क ने सीतानाथ को भी तोड़ लिया। सकुचाता हुआ बोला- ‘हाँ, यदि ऐसा हुआ तो बेशक मुझे रुपये की ज़रूरत होगी।’

‘क्या ऐसा होना असंभव है?

‘असभंव तो मैं नहीं समझता; लेकिन कठिन अवश्य है। वजीफे उन्हें मिलते हैं, जिनके पास सिफारिशें होती हैं, मुझे कौन पूछता है।’

‘कभी-कभी सिफारिशें धरी रह जाती हैं और बिना सिफारिश वाले बाज़ी मार ले जाते हैं।’

‘तो आप जैसा उचित समझें। मुझे यहाँ तक मंजूर है कि चाहे मैं विलायत न जाऊँ; पर कुमुद अच्छे घर जाये।‘

कामतानाथ ने निष्ठा-भाव से कहा- ‘अच्छा घर दहेज देने ही से नहीं मिलता भैया! जैसा तुम्हारी भाभी ने कहा, यह नसीबों का खेल है। मैं तो चाहता हूँ कि मुरारीलाल को जवाब दे दिया जाये और कोई ऐसा घर खोजा जाये, जो थोड़े में राजी हो जाये। इस विवाह में मैं एक हज़ार से ज़्यादा नहीं खर्च कर सकता। पंडित दीनदयाल कैसे हैं?’

उमा ने प्रसन्न होकर कहा- ‘बहुत अच्छे। एम.ए., बी.ए. न सही, यजमानों से अच्छी आमदनी है।’

दयानाथ ने आपत्ति की- ‘अम्माँ से भी पूछ तो लेना चाहिए।’

कामतानाथ को इसकी कोई ज़रूरत न मालूम हुई। बोले- ‘उनकी तो जैसे बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी। वही पुराने युग की बातें! मुरारीलाल के नाम पर उधार खाये बैठी हैं। यह नहीं समझतीं कि वह ज़माना नहीं रहा। उनको तो बस, कुमुद मुरारी पंडित के घर जाये, चाहे हम लोग तबाह हो जायें।’

उमा ने एक शंका उपस्थित की- ‘अम्माँ अपने सब गहने कुमुद को दे देंगी, देख लीजिएगा।’

कामतानाथ का स्वार्थ नीति से विद्रोह न कर सका। बोले- ‘गहनों पर उनका पूरा अधिकार है। यह उनका स्त्रीधन है। जिसे चाहें, दे सकती हैं।’

उमा ने कहा- ‘स्त्रीधन है तो क्या वह उसे लुटा देंगी। आख़िर वह भी तो दादा ही की कमाई है।’

‘किसी की कमाई हो। स्त्रीधन पर उनका पूरा अधिकार है!’

‘यह क़ानूनी गोरखधंधे हैं। बीस हज़ार में तो चार हिस्सेदार हों और दस हज़ार के गहने अम्माँ के पास रह जायें। देख लेना, इन्हीं के बल पर वह कुमुद का विवाह मुरारी पंडित के घर करेंगी।‘

उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकता। वह कपट-नीति में कुशल है। कोई कौशल रचकर माता से सारे गहने ले लेगा। उस वक्त तक कुमुद के विवाह की चर्चा करके फूलमती को भड़काना उचित नहीं। कामतानाथ ने सिर हिलाकर कहा- ‘भाई, मैं इन चालों को पसंद नहीं करता।’

उमानाथ ने खिसियाकर कहा- ‘गहने दस हज़ार से कम के न होंगे।’

कामता अविचलित स्वर में बोले- ‘कितने ही के हों; मैं अनीति में हाथ नहीं डालना चाहता।’

‘तो आप अलग बैठिए। हाँ, बीच में भांजी न मारिएगा।‘

‘मैं अलग रहूँगा।‘

‘और तुम सीता?’

‘अलग रहूँगा।‘

लेकिन जब दयानाथ से यही प्रश्न किया गया, तो वह उमानाथ से सहयोग करने को तैयार हो गया। दस हज़ार में ढ़ाई हज़ार तो उसके होंगे ही। इतनी बड़ी रकम के लिए यदि कुछ कौशल भी करना पड़े तो क्षम्य है।

(3)

फूलमती रात को भोजन करके लेटी थी कि उमा और दया उसके पास जा कर बैठ गये। दोनों ऐसा मुँह बनाए हुए थे, मानो कोई भारी विपत्ति आ पड़ी है। फूलमती ने सशंक होकर पूछा- ‘तुम दोनों घबड़ाये हुए मालूम होते हो?’

उमा ने सिर खुजलाते हुए कहा- ‘समाचार-पत्रों में लेख लिखना बड़े जोखिम का काम है अम्माँ! कितना ही बचकर लिखो, लेकिन कहीं-न-कहीं पकड़ हो ही जाती है। दयानाथ ने एक लेख लिखा था। उस पर पाँच हज़ार की जमानत माँगी गयी है। अगर कल तक जमा न कर दी गयी, तो गिरफ़्तार हो जायेंगे और दस साल की सज़ा ठुक जायेगी।’

फूलमती ने सिर पीटकर कहा- ‘ऐसी बातें क्यों लिखते हो बेटा? जानते नहीं हो, आजकल हमारे अदिन आए हुए हैं। जमानत किसी तरह टल नहीं सकती?’

दयानाथ ने अपराधी-भाव से उत्तर दिया- ‘मैंने तो अम्माँ, ऐसी कोई बात नहीं लिखी थी; लेकिन किस्मत को क्या करूँ। हाकिम ज़िला इतना कड़ा है कि ज़रा भी रियायत नहीं करता। मैंने जितनी दौड़-धूप हो सकती थी, वह सब कर ली।’

‘तो तुमने कामता से रुपये का प्रबन्ध करने को नहीं कहा?’

उमा ने मुँह बनाया- ‘उनका स्वभाव तो तुम जानती हो अम्माँ, उन्हें रुपये प्राणों से प्यारे हैं। इन्हें चाहे कालापानी ही हो जाये, वह एक पाई न देंगे।’

दयानाथ ने समर्थन किया- ‘मैंने तो उनसे इसका ज़िक्र ही नहीं किया।’

फूलमती ने चारपाई से उठते हुए कहा- ‘चलो, मैं कहती हूँ, देगा कैसे नहीं? रुपये इसी दिन के लिए होते हैं कि गाड़कर रखने के लिए?’

उमानाथ ने माता को रोककर कहा- ‘नहीं अम्माँ, उनसे कुछ न कहो। रुपये तो न देंगे, उल्टे और हाय-हाय मचायेंगे। उनको अपनी नौकरी की ख़ैरियत मनानी है, इन्हें घर में रहने भी न देंगे। अफ़सरों में जाकर खबर दे दें तो आश्चर्य नहीं।’

फूलमती ने लाचार होकर कहा- ‘तो फिर जमानत का क्या प्रबन्ध करोगे? मेरे पास तो कुछ नहीं है। हाँ, मेरे गहने हैं, इन्हें ले जाओ, कहीं गिरों रखकर जमानत दे दो। और आज से कान पकड़ो कि किसी पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे।’

दयानाथ कानों पर हाथ रखकर बोला- ‘यह तो नहीं हो सकता अम्माँ, कि तुम्हारे जेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊँ। दस-पाँच साल की क़ैद ही तो होगी, झेल लूँगा। यहीं बैठा-बैठा क्या कर रहा हूँ!’

फूलमती छाती पीटते हुए बोली- ‘कैसी बातें मुँह से निकालते हो बेटा, मेरे जीते-जी तुम्हें कौन गिरफ़्तार कर सकता है! उसका मुँह झुलस दूँगी। गहने इसी दिन के लिए हैं या और किसी दिन के लिए! जब तुम्हीं न रहोगे, तो गहने लेकर क्या आग में झोकूँगीं!’

उसने पिटारी लाकर उसके सामने रख दी।

दया ने उमा की ओर जैसे फरियाद की आँखों से देखा और बोला- ‘आपकी क्या राय है भाई साहब? इसी मारे मैं कहता था, अम्माँ को बताने की ज़रूरत नहीं। जेल ही तो हो जाती या और कुछ?’

उमा ने जैसे सिफारिश करते हुए कहा- ‘यह कैसे हो सकता था कि इतनी बड़ी वारदात हो जाती और अम्माँ को खबर न होती। मुझसे यह नहीं हो सकता था कि सुनकर पेट में डाल लेता; मगर अब करना क्या चाहिए, यह मैं खुद निर्णय नहीं कर सकता। न तो यही अच्छा लगता है कि तुम जेल जाओ और न यही अच्छा लगता है कि अम्माँ के गहने गिरों रखे जायें।’

फूलमती ने व्यथित कंठ से पूछा- ‘क्या तुम समझते हो, मुझे गहने तुमसे ज़्यादा प्यारे हैं? मैं तो प्राण तक तुम्हारे ऊपर न्योछावर कर दूँ, गहनों की बिसात ही क्या है।’

दया ने दृढ़ता से कहा- ‘अम्माँ, तुम्हारे गहने तो न लूँगा, चाहे मुझ पर कुछ ही क्यों न आ पड़े। जब आज तक तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका, तो किस मुँह से तुम्हारे गहने उठा ले जाऊँ? मुझ जैसे कपूत को तो तुम्हारी कोख से जन्म ही न लेना चाहिए था। सदा तुम्हें कष्ट ही देता रहा।’

फूलमती ने भी उतनी ही दृढ़ता से कहा- ‘अगर यों न लोगे, तो मैं खुद जाकर इन्हें गिरों रख दूँगी और खुद हाकिम ज़िला के पास जाकर जमानत जमा कर आऊँगी; अगर इच्छा हो तो यह परीक्षा भी ले लो। आँखें बंद हो जाने के बाद क्या होगा, भगवान जानें, लेकिन जब तक जीती हूँ तुम्हारी ओर कोई तिरछी आँखों से देख नहीं सकता।’

उमानाथ ने मानो माता पर एहसान रखकर कहा- अब तो तुम्हारे लिए कोई रास्ता नहीं रहा दयानाथ। क्या हरज है, ले लो; मगर याद रखो, ज्यों ही हाथ में रुपये आ जायें, गहने छुड़ाने पड़ेंगे। सच कहते हैं, मातृत्व दीर्घ तपस्या है। माता के सिवाय इतना स्नेह और कौन कर सकता है? हम बड़े अभागे हैं कि माता के प्रति जितनी श्रद्‌धा रखनी चाहिए, उसका शतांश भी नहीं रखते।

दोनों ने जैसे बड़े धर्मसंकट में पड़कर गहनों की पिटारी सँभाली और चलते बने। माता वात्सल्य-भरी आँखों से उनकी ओर देख रही थी और उसकी संपूर्ण आत्मा का आशीर्वाद जैसे उन्हें अपनी गोद में समेट लेने के लिए व्याकुल हो रहा था। आज कई महीने के बाद उसके भग्न मातृ-हृदय को अपना सर्वस्व अर्पण करके जैसे आनन्द की विभूति मिली। उसकी स्वामिनी कल्पना इसी त्याग के लिए, इसी आत्मसमर्पण के लिए जैसे कोई मार्ग ढूँढ़ती रहती थी। अधिकार या लोभ या ममता की वहाँ गँध तक न थी। त्याग ही उसका आनन्द और त्याग ही उसका अधिकार है। आज अपना खोया हुआ अधिकार पाकर अपनी सिरजी हुई प्रतिमा पर अपने प्राणों की भेंट करके वह निहाल हो गयी।

(4)

तीन महीने और गुजर गये। माँ के गहनों पर हाथ साफ़ करके चारों भाई उसकी दिलजोई करने लगे थे। अपनी स्त्रियों को भी समझाते थे कि उसका दिल न दुखायें। अगर थोड़े-से शिष्टाचार से उसकी आत्मा को शांति मिलती है, तो इसमें क्या हानि है। चारों करते अपने मन की, पर माता से सलाह ले लेते या ऐसा जाल फैलाते कि वह सरला उनकी बातों में आ जाती और हरेक काम में सहमत हो जाती। बाग़ को बेचना उसे बहुत बुरा लगता था;लेकिन चारों ने ऐसी माया रची कि वह उसे बेचने पर राजी हो गयी, किन्तु कुमुद के विवाह के विषय में मतैक्य न हो सका। माँ पं. मुरारीलाल पर जमी हुई थी, लड़के दीनदयाल पर अड़े हुए थे। एक दिन आपस में कलह हो गयी।

फूलमती ने कहा- माँ-बाप की कमाई में बेटी का हिस्सा भी है। तुम्हें सोलह हज़ार का एक बाग़ मिला, पच्चीस हज़ार का एक मकान। बीस हज़ार नकद में क्या पाँच हज़ार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है?

कामता ने नम्रता से कहा- अम्माँ, कुमुद आपकी लड़की है, तो हमारी बहन है। आप दो-चार साल में प्रस्थान कर जायेंगी; पर हमारा और उसका बहुत दिनों तक संबंध रहेगा। तब हम यथाशक्ति कोई ऐसी बात न करेंगे, जिससे उसका अमंगल हो; लेकिन हिस्से की बात कहती हो, तो कुमुद का हिस्सा कुछ नहीं। दादा जीवित थे, तब और बात थी। वह उसके विवाह में जितना चाहते, खर्च करते। कोई उनका हाथ न पकड़ सकता था; लेकिन अब तो हमें एक-एक पैसे की किफायत करनी पड़ेगी। जो काम हज़ार में हो जाये, उसके लिए पाँच हज़ार खर्च करना कहाँ की बुद्धिमानी है?

उमानाथ से सुधारा- पाँच हज़ार क्यों, दस हज़ार कहिए।

कामता ने भवें सिकोड़कर कहा- नहीं, मैं पाँच हज़ार ही कहूँगा; एक विवाह में पाँच हज़ार खर्च करने की हमारी हैसियत नहीं है।

फूलमती ने ज़िद पकड़कर कहा- विवाह तो मुरारीलाल के पुत्र से ही होगा, पाँच हज़ार खर्च हों, चाहे दस हजार। मेरे पति की कमाई है। मैंने मर-मरकर जोड़ा है। अपनी इच्छा से खर्च करूँगी। तुम्हीं ने मेरी कोख से नहीं जन्म लिया है। कुमुद भी उसी कोख से आयी है। मेरी आँखों में तुम सब बराबर हो। मैं किसी से कुछ माँगती नहीं। तुम बैठे तमाशा देखो, मैं सब-कुछ कर लूँगी। बीस हज़ार में पाँच हज़ार कुमुद का है।

कामतानाथ को अब कड़वे सत्य की शरण लेने के सिवा और मार्ग न रहा। बोला- अम्माँ, तुम बरबस बात बढ़ाती हो। जिन रुपयों को तुम अपना समझती हो, वह तुम्हारे नहीं हैं; तुम हमारी अनुमति के बिना उनमें से कुछ नहीं खर्च कर सकती।

फूलमती को जैसे सर्प ने डस लिया- क्या कहा! फिर तो कहना! मैं अपने ही संचे रुपये अपनी इच्छा से नहीं खर्च कर सकती?

‘वह रुपये तुम्हारे नहीं रहे, हमारे हो गये।‘

‘तुम्हारे होंगे; लेकिन मेरे मरने के पीछे।‘

‘नहीं, दादा के मरते ही हमारे हो गये!’

उमानाथ ने बेहयाई से कहा- अम्माँ, क़ानून-कायदा तो जानतीं नहीं, नाहक उछलती हैं।

फूलमती क्रोध-विह्वल रोकर बोली- भाड़ में जाये तुम्हारा क़ानून। मैं ऐसे क़ानून को नहीं जानती। तुम्हारे दादा ऐसे कोई धन्नासेठ नहीं थे। मैंने ही पेट और तन काटकर यह गृहस्थी जोड़ी है, नहीं आज बैठने की छाँह न मिलती! मेरे जीते-जी तुम मेरे रुपये नहीं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के विवाह में दस-दस हज़ार खर्च किये हैं। वही मैं कुमुद के विवाह में भी खर्च करूँगी।

कामतानाथ भी गर्म पड़ा- ‘आपको कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है।’

उमानाथ ने बड़े भाई को डाँटा- ‘आप खामख्वाह अम्माँ के मुँह लगते हैं भाई साहब! मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिए कि तुम्हारे यहाँ कुमुद का विवाह न होगा। बस, छुट्टी हुई। कायदा-क़ानून तो जानतीं नहीं, व्यर्थ की बहस करती हैं।’

फूलमती ने संयमित स्वर में कहा- ‘अच्छा, क्या क़ानून है, जरा मैं भी सुनूँ।’

उमा ने निरीह भाव से कहा- ‘क़ानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है। माँ का हक केवल रोटी-कपड़े का है।’

फूलमती ने तड़पकर पूछा- ‘किसने यह क़ानून बनाया है?’

उमा शांत स्थिर स्वर में बोला- ‘हमारे ऋषियों ने, महाराज मनु ने, और किसने?’

फूलमती एक क्षण अवाक रहकर आहत कंठ से बोली- ‘तो इस घर में मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ?’

उमानाथ ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहा- ‘तुम जैसा समझो।’

फूलमती की संपूर्ण आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने लगी। उसके मुख से जलती हुई चिनगारियों की भाँति यह शब्द निकल पड़े- ‘मैंने घर बनवाया, मैंने संपत्ति जोड़ी, मैंने तुम्हें जन्म दिया, पाला और आज मैं इस घर में गैर हूँ? मनु का यही क़ानून है? और तुम उसी क़ानून पर चलना चाहते हो? अच्छी बात है। अपना घर-द्‌वार लो। मुझे तुम्हारी आश्रिता बनकर रहता स्वीकार नहीं। इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊँ। वाह रे अंधेर! मैंने पेड़ लगाया और मैं ही उसकी छाँह में खड़ी नहीं हो सकती; अगर यही क़ानून है, तो इसमें आग लग जाये।’

चारों युवकों पर माता के इस क्रोध और आतंक का कोई असर न हुआ। क़ानून का फ़ौलादी कवच उनकी रक्षा कर रहा था। इन काँटों का उन पर क्या असर हो सकता था?

जरा देर में फूलमती उठकर चली गयी। आज जीवन में पहली बार उसका वात्सल्य मग्न मातृत्व अभिशाप बनकर उसे धिक्कारने लगा। जिस मातृत्व को उसने जीवन की विभूति समझा था, जिसके चरणों पर वह सदैव अपनी समस्त अभिलाषाओं और कामनाओं को अर्पित करके अपने को धन्य मानती थी, वही मातृत्व आज उसे अग्निकुंड-सा जान पड़ा, जिसमें उसका जीवन जलकर भस्म हो गया।

संध्या हो गयी थी। द्वार पर नीम का वृक्ष सिर झुकाए, निस्तब्ध खड़ा था, मानो संसार की गति पर क्षुब्ध हो रहा हो। अस्ताचल की ओर प्रकाश और जीवन का देवता फूलवती के मातृत्व ही की भाँति अपनी चिता में जल रहा था।

(5)

फूलमती अपने कमरे में जाकर लेटी, तो उसे मालूम हुआ, उसकी कमर टूट गयी है। पति के मरते ही अपने पेट के लड़के उसके शत्रु हो जायेंगे, उसको स्वप्न में भी अनुमान न था। जिन लड़कों को उसने अपना हृदय-रक्त पिला-पिलाकर पाला, वही आज उसके हृदय पर यों आघात कर रहे हैं! अब वह घर उसे काँटों की सेज हो रहा था। जहाँ उसकी कुछ कद्र नहीं, कुछ गिनती नहीं, वहाँ अनाथों की भाँति पड़ी रोटियाँ खाये, यह उसकी अभिमानी प्रकृति के लिए असह्य था। पर उपाय ही क्या था? वह लड़कों से अलग होकर रहे भी तो नाक किसकी कटेगी! संसार उसे थूके तो क्या, और लड़कों को थूके तो क्या; बदनामी तो उसी की है। दुनिया यही तो कहेगी कि चार जवान बेटों के होते बुढ़िया अलग पड़ी हुई मजूरी करके पेट पाल रही है! जिन्हें उसने हमेशा नीच समझा, वही उस पर हँसेंगे। नहीं, वह अपमान इस अनादर से कहीं ज़्यादा हृदयविदारक था। अब अपना और घर का परदा ढका रखने में ही कुशल है। हाँ, अब उसे अपने को नयी परिस्थितियों के अनुकूल बनाना पड़ेगा। समय बदल गया है। अब तक स्वामिनी बनकर रही, अब लौंडी बनकर रहना पड़ेगा। ईश्वर की यही इच्छा है। अपने बेटों की बातें और लातें गैरों की बातों और लातों की अपेक्षा फिर भी गनीमत हैं।

वह बड़ी देर तक मुँह ढाँपे अपनी दशा पर रोती रही। सारी रात इसी आत्म-वेदना में कट गयी। शरद का प्रभाव डरता-डरता उषा की गोद से निकला, जैसे कोई क़ैदी छिपकर जेल से भाग आया हो। फूलमती अपने नियम के विरुद्ध आज तड़के ही उठी, रात-भर में उसका मानसिक परिवर्तन हो चुका था। सारा घर सो रहा था और वह आँगन में झाडू लगा रही थी। रात-भर ओस में भीगी हुई उसकी पक्की ज़मीन उसके नंगे पैरों में काँटों की तरह चुभ रही थी। पंडित जी उसे कभी इतने सवेरे उठने न देते थे। शीत उसके लिए बहुत हानिकारक था। पर अब वह दिन नहीं रहे। प्रकृति उस को भी समय के साथ बदल देने का प्रयत्न कर रही थी। झाडू से फुरसत पाकर उसने आग जलायी और चावल-दाल की कंकड़ियाँ चुनने लगी। कुछ देर में लड़के जागे। बहुएँ उठीं। सभी ने बुढ़िया को सर्दी से सिकुड़े हुए काम करते देखा; पर किसी ने यह न कहा कि अम्माँ, क्यों हलकान होती हो? शायद सब-के-सब बुढ़िया के इस मान-मर्दन पर प्रसन्न थे।

आज से फूलमती का यही नियम हो गया कि जी तोड़कर घर का काम करना और अंतरंग नीति से अलग रहना। उसके मुख पर जो एक आत्मगौरव झलकता रहता था, उसकी जगह अब गहरी वेदना छायी हुई नजर आती थी। जहाँ बिजली जलती थी, वहाँ अब तेल का दिया टिमटिमा रहा था, जिसे बुझा देने के लिए हवा का एक हल्का-सा झोंका काफ़ी है।

मुरारीलाल को इंकारी-पत्र लिखने की बात पक्की हो चुकी थी। दूसरे दिन पत्र लिख दिया गया। दीनदयाल से कुमुद का विवाह निश्चित हो गया। दीनदयाल की उम्र चालीस से कुछ अधिक थी, मर्यादा में भी कुछ हेठे थे, पर रोटी-दाल से खुश थे। बिना किसी ठहराव के विवाह करने पर राजी हो गये। तिथि नियत हुई, बारात आयी, विवाह हुआ और कुमुद बिदा कर दी गयी फूलमती के दिल पर क्या गुजर रही थी, इसे कौन जान सकता है; पर चारों भाई बहुत प्रसन्न थे, मानो उनके हृदय का काँटा निकल गया हो। ऊँचे कुल की कन्या, मुँह कैसे खोलती? भाग्य में सुख भोगना लिखा होगा, सुख भोगेगी; दु:ख भोगना लिखा होगा, दु:ख झेलेगी। हरि इच्छा बेकसों का अंतिम अवलंब है। घरवालों ने जिससे विवाह कर दिया, उसमें हज़ार ऐब हों, तो भी वह उसका उपास्य, उसका स्वामी है। प्रतिरोध उसकी कल्पना से परे था।

फूलमती ने किसी काम में दख़ल न दिया। कुमुद को क्या दिया गया, मेहमानों का कैसा सत्कार किया गया, किसके यहाँ से नेवते में क्या आया, किसी बात से भी उसे सरोकार न था। उससे कोई सलाह भी ली गयी तो यही कहा- ‘बेटा, तुम लोग जो करते हो, अच्छा ही करते हो। मुझसे क्या पूछते हो!’

जब कुमुद के लिए द्वार पर डोली आ गयी और कुमुद माँ के गले लिपटकर रोने लगी, तो वह बेटी को अपनी कोठरी में ले गयी और जो कुछ सौ पचास रुपये और दो-चार मामूली गहने उसके पास बच रहे थे, बेटी की अंचल में डालकर बोली- ‘बेटी, मेरी तो मन की मन में रह गयी, नहीं तो क्या आज तुम्हारा विवाह इस तरह होता और तुम इस तरह विदा की जातीं!’

आज तक फूलमती ने अपने गहनों की बात किसी से न कही थी। लड़कों ने उसके साथ जो कपट-व्यवहार किया था, इसे चाहे अब तक न समझी हो, लेकिन इतना जानती थी कि गहने फिर न मिलेंगे और मनोमालिन्य बढ़ने के सिवा कुछ हाथ न लगेगा; लेकिन इस अवसर पर उसे अपनी सफाई देने की ज़रूरत मालूम हुई। कुमुद यह भाव मन मे लेकर जाये कि अम्माँ ने अपने गहने बहुओं के लिए रख छोड़े, इसे वह किसी तरह न सह सकती थी, इसलिए वह उसे अपनी कोठरी में ले गयी थी। लेकिन कुमुद को पहले ही इस कौशल की टोह मिल चुकी थी; उसने गहने और रुपये आँचल से निकालकर माता के चरणों में रख दिये और बोली- ‘अम्माँ, मेरे लिए तुम्हारा आशीर्वाद लाखों रुपयों के बराबर है। तुम इन चीज़ों को अपने पास रखो। न जाने अभी तुम्हें किन विपत्तियों का सामना करना पड़े।’

फूलमती कुछ कहना ही चाहती थी कि उमानाथ ने आकर कहा- ‘क्या कर रही है कुमुद? चल, जल्दी कर। साइत टली जाती है। वह लोग हाय-हाय कर रहे हैं, फिर तो दो-चार महीने में आयेगी ही, जो कुछ लेना-देना हो, ले लेना।’

फूलमती के घाव पर जैसे मनों नमक पड़ गया। बोली- ‘मेरे पास अब क्या है भैया, जो इसे मैं दूँगी? जाओ बेटी, भगवान तुम्हारा सोहाग अमर करें।’

कुमुद विदा हो गयी। फूलमती पछाड़ खाकर गिर पड़ी। जीवन की लालसा नष्ट हो गयी।

(6)

एक साल बीत गया।

फूलमती का कमरा घर में सब कमरों से बड़ा और हवादार था। कई महीनों से उसने बड़ी बहू के लिए ख़ाली कर दिया था और खुद एक छोटी-सी कोठरी में रहने लगी, जैसे कोई भिखारिन हो। बेटों और बहुओं से अब उसे जरा भी स्नेह न था, वह अब घर की लौंडी थी। घर के किसी प्राणी, किसी वस्तु, किसी प्रसंग से उसे प्रयोजन न था। वह केवल इसलिए जीती थी कि मौत न आती थी। सुख या दु:ख का अब उसे लेशमात्र भी ज्ञान न था। उमानाथ का औषधालय खुला, मित्रों की दावत हुई, नाच-तमाशा हुआ। दयानाथ का प्रेस खुला, फिर जलसा हुआ। सीतानाथ को वज़ीफ़ा मिला और विलायत गया, फिर उत्सव हुआ। कामतानाथ के बड़े लड़के का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ, फिर धूम-धाम हुई; लेकिन फूलमती के मुख पर आनंद की छाया तक न आयी! कामताप्रसाद टाइफाइड में महीने-भर बीमार रहा और मरकर उठा। दयानाथ ने अबकी अपने पत्र का प्रचार बढ़ाने के लिए वास्तव में एक आपत्तिजनक लेख लिखा और छ: महीने की सज़ा पायी। उमानाथ ने एक फ़ौजदारी के मामले में रिश्वत लेकर ग़लत रिपोर्ट लिखी और उसकी सनद छीन ली गयी; पर फूलमती के चेहरे पर रंज की परछायीं तक न पड़ी। उसके जीवन में अब कोई आशा, कोई दिलचस्पी, कोई चिन्ता न थी। बस, पशुओं की तरह काम करना और खाना, यही उसकी ज़िन्दगी के दो काम थे। जानवर मारने से काम करता है; पर खाता है मन से। फूलमती बेकहे काम करती थी; पर खाती थी विष के कौर की तरह। महीनों सिर में तेल न पड़ता, महीनों कपड़े न धुलते, कुछ परवाह नहीं। चेतनाशून्य हो गयी थी।

सावन की झड़ी लगी हुई थी। मलेरिया फैल रहा था। आकाश में मटियाले बादल थे, ज़मीन पर मटियाला पानी। आर्द्र वायु शीत-ज्वर और श्वास का वितरण करती फिरती थी। घर की महरी बीमार पड़ गयी। फूलमती ने घर के सारे बरतन माँजे, पानी में भीग-भीगकर सारा काम किया। फिर आग जलायी और चूल्हे पर पतीलियाँ चढ़ा दीं। लड़कों को समय पर भोजन मिलना चाहिए। सहसा उसे याद आया, कामतानाथ नल का पानी नहीं पीते। उसी वर्षा में गंगाजल लाने चली।

कामतानाथ ने पलंग पर लेटे-लेटे कहा- ‘रहने दो अम्माँ, मैं पानी भर लाऊँगा, आज महरी खूब बैठ रही।’

फूलमती ने मटियाले आकाश की ओर देखकर कहा- ‘तुम भीग जाओगे बेटा, सर्दी हो जायगी।’

कामतानाथ बोले- ‘तुम भी तो भीग रही हो। कहीं बीमार न पड़ जाओ।’

फूलमती निर्मम भाव से बोली- ‘मैं बीमार न पडूँगी। मुझे भगवान ने अमर कर दिया है।’

उमानाथ भी वहीं बैठा हुआ था। उसके औषधालय में कुछ आमदनी न होती थी, इसलिए बहुत चिन्तित था। भाई-भावज की मुँहदेखी करता रहता था। बोला- ‘जाने भी दो भैया! बहुत दिनों बहुओं पर राज कर चुकी हैं, उसका प्रायश्चित तो करने दो।’

गंगा बढ़ी हुई थी, जैसे समुद्र हो। क्षितिज के सामने के कूल से मिला हुआ था। किनारों के वृक्षों की केवल फुनगियाँ पानी के ऊपर रह गयी थीं। घाट ऊपर तक पानी में डूब गये थे। फूलमती कलसा लिये नीचे उतरी, पानी भरा और ऊपर जा रही थी कि पाँव फिसला। सँभल न सकी। पानी में गिर पड़ी। पल-भर हाथ-पाँव चलाये, फिर लहरें उसे नीचे खींच ले गयीं। किनारे पर दो-चार पंडे चिल्लाए- ‘अरे दौड़ो, बुढ़िया डूबी जाती है।’ दो-चार आदमी दौड़े भी लेकिन फूलमती लहरों में समा गयी थी, उन बल खाती हुई लहरों में, जिन्हें देखकर ही हृदय काँप उठता था।

एक ने पूछा- ‘यह कौन बुढ़िया थी?’

‘अरे, वही पंडित अयोध्यानाथ की विधवा है।‘

‘अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थे?’

‘हाँ थे तो, पर इसके भाग्य में ठोकर खाना लिखा था।‘

‘उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े हैं और सब कमाते हैं?’

‘हाँ, सब हैं भाई; मगर भाग्य भी तो कोई वस्तु है!’

खून सफेद मुंशी प्रेमचंद की कहानी

चैत का महीना था, लेकिन वे खलियान, जहाँ अनाज की ढेरियाँ लगी रहती थीं, पशुओं के शरणास्थल बने हुए थे; जहाँ घरों से फाग और बसंत का अलाप सुनाई पड़ता, वहाँ आज भाग्य का रोना था। सारा चौमासा बीत गया, पानी की एक बूंद न गिरी। जेठ में एक बार मूसलाधार वृष्टि हुई थी, किसान फूले न समाए। खरीफ की फसल बो दी, लेकिन इंद्रदेव ने अपना सर्वस्व शायद एक ही बार लुटा दिया था। पौधे उगे, बढ़े और फिर सूख गए। गोचर भूमि में घास न जमी। बादल आते, घटाएं उमड़तीं, ऐसा मालूम होता कि जल-थल एक हो जाएगा, परन्तु वे आशा की नहीं, दुःख की घटाएँ थीं।

किसानों ने बहुतेरे जप-तप किए, ईंट और पत्थर देवी-देवताओं के नाम से पुजाएं, बलिदान किए, पानी की अभिलाषा में रक्त के पनाले बह गए, लेकिन इंद्रदेव किसी तरह न पसीजे। न खेतों में पौधे थे, न गोचरों में घास, न तालाबों में पानी। बड़ी मुसीबत का सामना था। जिधर देखिए, धूल उड़ रही थी। दरिद्रता और क्षुधा-पीड़ा के दारुण दृश्य दिखाई देते थे। लोगों ने पहले तो गहने और बर्तन गिरवी रखे और अंत में बेच डाले। फिर जानवरों की बारी आयी और अब जीविका का अन्य कोई सहारा न रहा, तब जन्म भूमि पर जान देने वाले किसान बाल बच्चों को लेकर मजदूरी करने निकल पड़े। अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए कहीं-कहीं सरकार की सहायता से काम खुल गया था। बहुतेरे वहीं जाकर जमे। जहाँ जिसको सुभीता हुआ, वह उधर ही जा निकला।

संध्या का समय था। जादोराय थका-मांदा आकर बैठ गया और स्त्री से उदास होकर बोला- “दरखास्त नामंजूर हो गई।” 

यह कहते-कहते वह आँगन में जमीन पर लेट गया। उसका मुख पीला पड़ रहा था और आंतें सिकुड़ी जा रही थीं। आज दो दिन से उसने दाने की सूरत नहीं देखी। घर में जो कुछ विभूति थी, गहने कपड़े, बर्तन-भांड़े सब पेट में समा गए। गाँव का साहूकार भी पतिव्रता स्त्रियों की भांति आँखें चुराने लगा। केवल तकाबी का सहारा था, उसी के लिए दरखास्त दी थी, लेकिन आज वह भी नामंजूर हो गई, आशा का झिलमिलाता हुआ दीपक बुझ गया।

देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा। उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये। पति दिन भर का थका-मांदा घर आया है। उसे क्या खिलाए? लज्जा के मारे वह हाथ-पैर धोने के लिए पानी भी न लायी। जब हाथ-पैर धोकर आशा-भरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा, तब वह उसे क्या खाने को देगी? उसने आप कई दिन से दाने की सूरत नहीं देखी थी। लेकिन इस समय उसे जो दुख हुआ, वह क्षुधातुरता के कष्ट से कई गुना अधिक था। स्त्री घर की लक्ष्मी है। घर के प्राणियों को खिलाना-पिलाना वह अपना कर्त्तव्य समझती है। और चाहे यह उसका अन्याय ही क्यों न हो, लेकिन अपनी दीनहीन दशा पर जो मानसिक वेदना उसे होती है, वह पुरुषों को नहीं हो सकती।

हठात् उसका बच्चा साधो नींद से चौंका और मिठाई के लालच में आकर वह बाप से लिपट गया। इस बच्चे ने आज प्रायः काल चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था। और तब से कई बार उठा और कई बार रोते-रोते सो गया। चार वर्ष का नादान बच्चा, उसे वर्षा और मिठाई में कोई संबंध नहीं दिखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा लिया और उसकी ओर दुःख भरी दृष्टि से देखा। गर्दन झुक गई और हृदय-पीड़ा आँखों में न समा सकी।

दूसरे दिन वह परिवार भी घर से बाहर निकला। जिस तरह पृरुष के चित्त अभिमान और स्त्री की आँख से लज्जा नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से रोटी कमाने वाला किसान भी मजदूरी की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता। लेकिन हा पापी पेट! तू सब कुछ कर सकता है ! मान और अभिमान, ग्लानि और लज्जा के सब चमकते हुए तारे तेरी काली घटाओं की ओट में छिप जाते हैं।

प्रभात का समय था। ये दोनों विपत्ति के सताये घर से निकले। जादोराय ने लड़के को पीठ पर लिया। देवकी ने फटे-पुराने कपड़ों की वह गठरी सिर पर रखी, जिस पर विपत्ति को भी तरस आता। दोनों की आँखें आँसुओं से भरी थीं। देवकी रोती रही। जादोराय चुपचाप था। गाँव के दो-चार आदमियों से भेंट भी हुई, किसी ने इतना भी नहीं पूछा कि कहाँ जाते हो? किसी के हृदय में सहानुभूति का वास न था।

जब ये लोग लालगंज पहुँचे, उस समय सूर्य ठीक सिर पर था। देखा, मीलों तक आदमी-ही-आदमी दिखाई देते थे। लेकिन हर चेहरे पर दीनता और दुख के चिन्ह झलक रहे थे।

बैसाख की जलती हुई धूप थी। आग के झोंके जोर-जोर से हरहराते हुए चल रहे थे। ऐसे समय में हड्डियों के अगणित ढांचे, जिनके शरीर पर किसी प्रकार का कपड़ा न था, मिट्टी खोदने में लगे हुए थे, मानों वह मरघट भूमि थी, जहाँ मुर्दे अपने हाथों अपनी कब्र खोद रहे थे। बूढ़े और जवान, मर्द और बच्चे, सबके-सब ऐसे निराश और विवश होकर काम में लगे हुए थे, मानो मृत्यु और भूख उनके सामने बैठी घूर रही है। इस आफत में न कोई किसी का मित्र था न हितू (हितैषी)। दया, सहृदयता और प्रेम ये सब मानवीय भाव हैं, जिनका कर्ता मनुष्य है; प्रकृति ने हमको केवल एक भाव प्रदान किया है और वह स्वार्थ है। मानवीय भाव बहुधा कपटी मित्रों की भांति हमारा साथ छोड़ देते हैं, पर यह ईश्वर-प्रदत्त गुण हमारा गला नहीं छोड़ता।

आठ दिन बीत गए थे। संध्या समय काम समाप्त हो चुका था। डेरे से कुछ दूर आम का एक बाग था। वहीं एक पेड़ के नीचे जादोराय और देवकी बैठी हुई थी। दोनों ऐसे कृश (कमज़ोर) हो रहे थे कि उनकी सूरत नहीं पहचानी जाती थी। अब वह स्वाधीन कृषक नहीं रहे। समय के हेर-फेर से आज दोनों मजदूर बने बैठे हैं।

जादोराय ने बच्चे को जमीन पर सुला दिया। उसे कई दिन से बुखार आ रहा है। कमल-सा चेहरा मुरझा गया है। देवकी ने धीरे से हिलाकर कहा- “बेटा ! आँखें खोलो, देखो सांझ हो गई।”

साधों ने आँख खोल दीं, बुखार उतर गया था, बोला- “क्या हम घर आ गये माँ?

घर की याद आ गई। देवकी की आँखें डबडबा आयीं। उसने कहा- “नहीं, बेटा ! तुम अच्छे हो जाओगे तो घर चलेगें। उठकर देखो, कैसा अच्छा बाग है!”

साधो माँ के हाथों के सहारे उठा और बोला- “माँ, मुझे बड़ी भूख लगी है; लेकिन तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। मुझे क्या खाने को दोगी?”

देवकी के हृदय में चोट लगी, पर धीरज धरके बोली- “नहीं बेटा! तुम्हारे खाने को मेरे पास सब कुछ है। तुम्हारे दादा पानी लाते हैं, तो नरम-नरम रोटियाँ अभी बनाये देती हूँ।”

साधों ने माँ की गोद में सिर रख लिया और बोला- “माँ मैं न होता, तो तुम्हें इतना दुःख न होता।”

यह कहकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। यह वही बेसमझ बच्चा है, जो दो सप्ताह पहले मिठाइयों के लिए दुनिया सिर पर उठा लेता था। दुख और चिंता ने कैसा अनर्थ कर दिया है। यह विपत्ति का फल है। कितना दुःखपूर्ण, कितना करुणाजनक व्यापार है।

इसी बीच में कई आदमी लालटेन लिये हुए वहाँ आये। फिर गाड़ियाँ आयीं। उन पर डेरे और खेमे लदे हुए थे। दम-के-दम यहां खेमे गड़ गए। सारे बाग में चहल-पहल नजर आने लगी। देवकी रोटियाँ सेंक रही थी, साधो धीरे-धीरे उठा और आश्चर्य से देखता हुआ, एक डेरे के नजदीक जाकर खड़ा हो गया।

पादरी मोहनदास खेमे से बाहर निकले, तो साधो उन्हें खड़ा दिखाई दिया। उसकी सूरत पर उन्हें तरस आ गया। प्रेम की नदी उमड़ आयी। बच्चे को गोद में लेकर खेमे में एक गद्देदार कोच पर बिठा दिया और तब बिस्कुट और केले खाने को दिये। लड़के ने अपनी ज़िन्दगी में इन स्वादिष्ट चीजों को कभी न देखा था। बुखार की बेचैन करने वाली भूख अलग मार रही थी। उसने खूब मन-भर खाया और तब कृतज्ञ नेत्रों से देखते हुए पादरी साहब के पास जाकर बोला- “तुम हमको रोज ऐसी चीजें खिलाओगे?”

पादरी साहब इन भोलेपन पर मुस्कुरा के बोले- “मेरे पास इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें हैं।”

इस पर साधोराय ने कहा- “अब मैं रोज तुम्हारे पास आऊंगा। माँ के पास ऐसी अच्छी चीजें कहाँ? वह मुझे रोज चने की रोटियाँ खिलाती है।”

उधर देवकी ने रोटियाँ बनायीं और साधो को पुकारने लगी। साधो ने माँ के पास जाकर कहा–”मुझे साहब ने अच्छी-अच्छी चीजें खाने को दी हैं। साहब बड़े अच्छे हैं।”

देवकी ने कहा- “मैंने तुम्हारे लिए नरम-नरम रोटियाँ बनायी हैं। आओ तुम्हें खिलाऊं।”

साधो बोला- “अब मैं न खाऊंगा। साहब कहते थे कि मैं तुम्हें रोज अच्छी-अच्छी चीजें खिलाऊंगा। मैं अब उनके साथ रहा करूंगा।”

माँ ने समझा कि लड़का हँसी कर रहा है। उसे छाती से लगाकर बोली – “क्यों बेटा, हमको भूल जाओगे? देखो, मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूँ।”

साधो तुतलाकर बोला -“तुम तो मुझे रोज चने की रोटियाँ दिया करती हो। तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। साहब मुझे केले और आम खिलाएंगे।”

यह कहकर वह फिर खेमे की ओर भागा और रात को वही सो रहा।

पादरी मोहनदास का पड़ाव वहाँ तीन दिन रहा। साधो दिन-भर उन्हीं के पास रहता। साहब ने उसे मीठी दवाइयाँ दीं। उसका बुखार जाता रहा। वह भोले-भाले किसान यह देखकर साहब को आशार्वाद देने लगे। लड़का चंगा हो गया और आराम से है। साहब को परमात्मा सुखी रखे। उन्होंने बच्चे की जान रख ली।

चौथे दिन रात को ही वहाँ से पादरी साहब ने कूच किया। सुबह को जब देवकी उठी, तो साधो का यहाँ पता न था। उसने समझा, कहीं टपके (टपका हुआ फल) ढूंढने गया होगा; किंतु थोड़ी देर देखकर उसने जादोराय से कहा- “लल्लू यहाँ नहीं है।”

उसने भी यही कहा- “कहीं टपके ढूंढता होगा।”

लेकिन जब सूरज निकल आया और काम पर चलने का वक्त हुआ, तब जादोराय को कुछ संशय हुआ। उसने कहा- “तुम यहीं बैठी रहना, मैं अभी उसे लिये आता हूं।”

जादो ने आस-पास के सब बागों को छान डाला और अंत में जब दस बज गए, तो निराश लौट आया। साधो न मिला, यह देखकर देवकी ढाढ़ें मारकर रोने लगी।

फिर दोनों अपने लाल की तलाश में निकले। अनेक विचार चित्त में आने-जाने लगे। देवकी को पूरा विश्वास था कि उस साहब ने उस पर कोई मंत्र डालकर वश में कर लिया। लेकिन जादो को इस कल्पना के मान लेने में कुछ संदेह था। बच्चा इतनी दूर अनजान रास्ते पर अकेले नहीं जा सकता। फिर भी दोनों गाड़ी के पहियों और घोड़े के टापों के निशान देखते चले जाते थे। यहाँ तक कि एक सड़क पर आ पहुँचे। वहां गाड़ी के बहुत से निशान थे। उस विशेष लीक की पहचान न हो सकती थी। घोड़े के टाप भी एक झाड़ी की तरफ जाकर गायब हो गए। आशा का सहारा टूट गया। दोपहर हो गई थी। दोनों धूप के मारे बेचैन और निराशा से पागल हो रहे थे। वहीं एक वृक्ष की छाया में बैठ गए। देवकी विलाप करने लगी। जादोराय ने उसे समझाना शुरू किया।

जब जरा धूप की तेजी कम हुई, तो दोनों फिर आगे चले। किंतु अब आशा की जगह निराशा साथ थी, घोड़े के टापों के साथ उम्मीद का धुंधला निशान गायब हो गया था।

शाम हो गई। इधर-उधर गायों, बैलों के झुण्ड निर्जीव से पड़े दिखाई देते थे। यह दोनों दुखिया हिम्मत हारकर एक पेड़ के नीचे टिक रहे। उसी वृक्ष पर मैने का एक जोड़ा बसेरा लिये हुए था। उनका नन्हा-सा शावक आज ही एक शिकारी के चंगुल में फंस गया था। दोनों दिन-भर उसे खोजते फिरे। इस समय निराश होकर बैठ रहे। देवकी और जादो को अभी तक आशा की झलक दिखाई देती थी। इसी लिए वे बेचैन थे।

तीन दिन तक ये दोनों अपने खोए हुए लाल की तलाश करते रहे। दाने से भेंट नहीं; प्यास से बेचैन होते दो-चार घूंट पानी गले के नीचे उतार लेते।

आशा की जगह निराशा का सहारा था। दुख और करुणा के सिवाय और कोई वस्तु नहीं। किसी बच्चे के पैर के निशान देखते, तो उनके दिलों में आशा तथा भय की लहरें उठने लगतीं थी।

लेकिन प्रत्येक पग उन्हें अभीष्ट स्थान से दूर लिये जाता था।

इस घटना को हुए चौदह वर्ष बीत गए। इन चौदह वर्षों में सारी काया पलट गई। चारों ओर रामराज्य दिखाई देने लगा। इंद्रदेव ने कभी उस तरह अपनी निर्दयता न दिखाई और न जमीन ने ही। उमड़ी हुई नदियों की तरह अनाज से ढेकियाँ भरी चलीं। उजड़े हुए गाँव बस गए। मजदूर किसान बन बैठे और किसान जायदाद का तलाश में दौड़ने लगे। वही चैत के दिन थे। खलियानों में अनाज के पहाड़ खड़े थे। भाट और भिखमंगे किसानों की बढ़ती के तराने गा रहे थे। सुनारों के दरवाजे पर सारे दिन और आधी रात तक गाहकों का जमघट लगा रहता था। दर्जी को सिर उठाने की फुर्सत न थी। इधर-उधर दरवाजों पर घोड़े हिनहिना रहे थे। देवी के पुजारियों को अजीर्ण हो रहा था।

जादोराय के दिन भी फिरे। घर पर छप्पर की जगह खपरैल हो गया है। दरवाजे पर अच्छे बैलों की जोड़ी बंधी हुई है। वह अब अपनी बहली पर सवार होकर बाजार जाया करता है। उसका बदन अब उतना सुडौल नहीं है। पेट पर इस सुदशा का विशेष प्रभाव पड़ा है और बाल भी सफेद हो चले हैं। देवकी की गिनती भी गाँव की बूढ़ी औरतों में होने लगी है। व्यवहारिक बातों में उसकी बड़ी पूछ हुआ करती है। जब वह किसी पड़ोसिन के घर जाती है, तो वहाँ की बहुएं भय के मारे थरथराने लगती हैं। उसके कटु वाक्य और तीव्र आलोचना की सारे गाँव में धाक बंधी हुई है। महीन कपड़े अब उसे अच्छे नहीं लगते, लेकिन गहनों के बारे में वह उतनी उदासीन नहीं है।

उनके लिए जीवन का दूसरा भाग इससे कम उज्जवल नहीं है। उनकी दो संतानें हैं। लड़का माधोसिंह, अब खेतीबारी के काम में बाप की मदद करता है। लड़की का नाम शिवगौरी है। वह भी माँ को चक्की पीसने में सहायता दिया करती है और खूब गाती है। बर्तन धोना उसे पसंद नहीं, लेकिन चौका लगाने में निपुण है। गुड़ियों के ब्याह करने से उसका जी कभी नहीं भरता। आये दिन गुड़ियों के विवाह होते रहते हैं। हाँ, इनमें किफायत का पूरा ध्यान रहता है। खोए हुए साधो की याद अभी बाकी है। उसकी चर्चा नित्य हुआ करती है और कभी बिना रुलाये नहीं रहती। देवकी कभी-कभी सारे दिन उस लाड़ले बेटे की सुध में अधीर रहा करती है।

सांझ हो गई थी। बैल दिन-भर के थके-मांदे सिर झुकाये चले आते थे। पुजारी ने ठाकुरद्वारे में घंटा बजाना शुरू किया।

आजकल फसल के दिन है। रोज पूजा होती है। जादोराय खाट पर बैठे नारियल पी रहे थे। शिवगौरी रास्ते में खड़ी उन बैलों को कोस रही थी, जो उसके भूमिस्थ विशाल भवन का निरादर करके उसे रौंदते चले जाते थे। घड़ियाल और घंटे की आवाज सुनते ही जादोराय भगवान का चरणामृत लेने के लिए उठे ही थे कि उन्हें अकस्मात् एक नवयुवक दिखाई पड़ा, जो भूंकते हुए कुत्तों को दुत्कारता, बाईसिकल को आगे बढ़ाता हुआ चला आ रहा था। उसने उनके चरणों पर अपना सिर रख दिया। जादोराय ने गौर से देखा और तब दोनों एक दूसरे से लिपट गए। माधो भौंचक होकर बाईसिकल को देखने लगा। शिवगौरी रोती हुई घर में भागी और देवकी से बोली- “दादा को साहब ने पकड़ लिया है।” 

देवकी घबरायी हुई बाहर आयी। साधो उसे देखते ही उसके पैरों पर गिर पड़ा। देवकी से छाती से लगाकर रोने लगी। गाँव के मर्द, औरतें और बच्चे सब जमा हो गए। मेला-सा लग गया।

साधो ने अपने माता-पिता से कहा- “मुझ अभागे से जो कुछ अपराध हुआ हो, उसे क्षमा कीजिए। मैंने अपनी नादानी से स्वयं बहुत कष्ट उठाए और आप लोगों को भी दुःख दिया, लेकिन अब मुझे अपनी गोद में लीजिए।”

देवकी ने रोकर कहा- “जब हमको छोड़कर भागे थे, तो हम लोग तुम्हें तीन दिन तक बे-दाना-पानी के ढूंढते रहे, पर जब निराश हो गए, तब अपने भाग्य को रोकर बैठ रहे। तब से आज तक कोई ऐसा दिन न गया कि तुम्हारी सुधि न आयी हो। रोते-रोते एक युग बीत गया; अब तुमने खबर ली है। बताओ बेटा! उस दिन तुम कैसे भागे और कहां जाकर रहे?”

साधो ने लज्जित होकर उत्तर दिया- “माताजी! अपना हाल क्या कहूं! मैं पहर रात रहे, आपके पास से उठकर भागा। पादरी साहब के पड़ाव का पता शाम ही को पूछ लिया था। बस पूछता हुआ उनके पास दोपहर को पहुँच गया। साहब ने मुझे पहले समझाया कि अपने घर लौट जाओ, लेकिन जब मैं किसी तरह राजी न हुआ, तो उन्होंने मुझे पूना भेज दिया। मेरी तरह वहाँ सैकड़ों लड़के थे। वहाँ बिस्कुट और नारंगियों का भला क्या जिक्र! जब मुझे आप लोगों की याद आती, मैं अक्सर रोया करता। मगर बचपन की उम्र थी, धीरे-धीरे उन्हीं लोगों से हिल-मिल गया। हाँ, जब से कुछ होश हुआ है और अपना-पराया समझने लगा हूँ, तब से अपनी नादानी पर हाथ मलता रहा हूँ। रात-दिन आप लोगों की रट लगी हुई थी। आज आप लोगों के आशीर्वाद से यह शुभ दिन देखने को को मिला। दूसरों में बहुत दिन काटे, बहुत दिनों तक अनाथ रहा। अब मुझे अपनी सेवा में रखिए। मुझे अपनी गोद में लीजिए। मैं प्रेम का भूखा हूँ। बरसों से मुझे जो सौभाग्य नहीं मिला, वह अब दीजिए।

गाँव के बहुत से बुढ्ढे जमा थे। उनमें से जगतसिंह बोले- “तो क्यों बेटा, तुम इतने दिनों तक पादरियों के साथ रहे? उन्होंने तुमको भी पादरी बना लिया होगा?”

साधो ने सिर झुकाकर कहा— “जी हाँ, यह तो उनका दस्तूर है।”

जगतसिंह ने जादोराय की तरफ देखकर कहा – “यह बड़ी कठिन बात है।”

साधो बोला- “बिरादरी मुझे जो प्रायश्चित बतलाएगी, मैं उसे करूंगा। मुझसे जो कुछ बिरादरी का अपराध हुआ है, नादानी से हुआ है, लेकिन मैं उसका दण्ड भोगने के लिए तैयार हूँ।”

जगतसिंह ने फिर जादोराय की तरफ कनखियों से देखा और गंभीरता से बोले- “हिन्दू धर्म में ऐसा कभी नहीं हुआ है। यों तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें अपने घर में रख लें, तुम उनके लड़के हो, मगर बिरादरी कभी इस काम में शरीक न होगी। बोलो जादोराय! क्या कहते हो, कुछ तुम्हारे मन की भी तो सुन लें?”

जादोराय बड़ी दुविधा में था। एक ओर तो अपने प्यारे बेटे की प्रीति थी, दूसरी ओर बिरादरी का भय मारे डालता था। जिस लड़के के लिए रोते-रोते आँखें फूट गईं, आज वही सामने खड़ा आँखों में आँसू भरे कहता है, पिताजी ! मुझे अपनी गोद में लीजिए; और मैं पत्थर की तरह अचल खड़ा हूँ। शोक ! इन निर्दयी भाइयों को किस तरह समझाऊं, क्या करूं, क्या न करूं?”

लेकिन माँ की ममता उमड़ आयी। देवकी से न रहा गया। उसने अधीर होकर कहा- “मैं अपने घर में रखूंगी और कलेजे से लगाऊंगी। इतने दिनों के बाद मैंने उसे पाया है, अब उसे नहीं छोड़ सकती।”

जगतसिंह रुष्ट होकर बोले- “चाहे बिरादरी छूट ही क्यों न जाए?”

देवकी ने भी गरम होकर जवाब दिया- “हाँ! चाहे बिरादरी छूट जाए। लड़के–वालों ही के लिए आदमी बिरादरी की आड़ पकड़ता है। जब लड़का न रहा, तो भला बिरादरी किस काम आएगी?”

इस पर कई ठाकुर लाल-लाल आँखें निकालकर बोले – “ठाकुराइन! ठकुराइन बिरादरी की तो खूब मर्यादा करती हो। लड़का चाहे किसी रास्ते पर जाए, लेकिन बिरादरी चूं तक न करे? ऐसी बिरादरी कहीं होगी! हम साफ-साफ कहे देते हैं कि अगर यह लड़का तुम्हारे घर में रहा, तो बिरादरी भी बता देगी कि वह क्या कर सकती है।”

जगतसिंह कभी-कभी जादोराय से रुपये उधार लिया करते थे। मधुर स्वर से बोले- “भाभी ! बिरादरी यह थोड़े ही कहती है कि तुम लड़के को घर से निकाल दो। लड़का इतने दिनों के बाद घर आया है, तो हमारे सिर आँखों पर रहे बस, जरा खाने–पीने और छूत-छात का बचाव बना रहना चाहिए। बोलो जादो भाई ! अब बिरादरी को कहां तक दबाना चाहते हो?”

जादोराय ने साधो की तरफ करुणा भरे नेत्रों से देखकर कहा- “बेटा, जहाँ तुमने हमारे साथ इतना सलूक किया है, वहाँ जगत भाई का इतनी कहा और मान लो।”

साधो ने कुछ तीक्ष्ण शब्दों में कहा- ” क्या मान लूं? यह कि अपनों में गैर बनकर रहूं, अपमान सहूं; मिट्टी का घड़ा भी मेरे छूने से अशुद्ध हो जाए! न, यह मेरा किया न होगा, इतना निर्लज्ज नहीं।”

जादोराय को पुत्र की यह कठोरता अप्रिय मालूम हुई। वे चाहते थे कि इस वक्त बिरादरी के लोग जमा हैं, उनके सामने किसी तरह समझौता हो जाये, फिर कौन देखता है कि हम उसे किस तरह रखते हैं ? चिढ़कर बोले- “इतनी बात तो तुम्हें माननी ही पड़ेगी।”

साधोराय इस रहस्य को न समझ सका। बाप की इस बात में उसे निष्ठुरता की झलक दिखाई पड़ी। बोला- “मैं आपका लड़का हूँ। आपके लड़के की तरह रहूंगा। आपके भक्ति और प्रेम की प्रेरणा मुझे यहाँ तक लायी है। मैं अपने घर में रहने आया हूँ। अगर यह नहीं है, तो इसके सिवा मेरे लिए इसके और कोई उपाय नहीं है कि जितनी जल्दी हो सके, यहाँ से भाग जाऊं। जिनका खून सफेद है, उनके बीच में रहना व्यर्थ है।”

देवकी ने रोकर कहा- “लल्लू मैं अब तुम्हें न जाने दूंगी।”

साधो की आँखें भर आयीं, पर मुस्कराकर बोला- “मैं तो तुम्हारी थाली में खाऊंगा।”

देवकी ने उसे ममता और प्रेम की दृष्टि से देखकर कहा- “मैंने तो तुझे छाती से दूध पिलाया है। तू मेरी थाली में खायेगा, तो क्या? मेरा बेटा ही तो है, कोई और तो नहीं हो गया।”

साधो इन बातों को सुनकर मतवाला हो गया। इनमें कितना स्नेह कितना अपनापन था। बोला- “माँ, आया तो मैं इसी इरादे से था कि अब कहीं न जाऊंगा, लेकिन बिरादरी ने मेरे कारण यदि तुम्हें जातिच्युत कर दिया, तो मुझसे न सका जायेगा। मुझसे इन गंवारों का कोरा अभिमान न देखा जाएगा। इसलिए। इस वक्त मुझे जाने दो। जब मुझे अवसर मिला करेगा, तो तुम्हें देख जाया करूंगा। तुम्हारा प्रेम मेरे चित्त से नहीं जा सकता। लेकिन यह असंभव है कि मैं इस घर में रहूं और अलग खाना खाऊं, अलग बैंठू। इसके लिए मुझे क्षमा करना।”

देवकी घर में से पानी लायी । साधो मुँह धोने लगा। शिवगौरी ने माँ का इशारा पाया, तो डरते-डरते साधो के पास गयी, साधो को आदरपूर्वक दंडवत की। साधो ने पहले उन दोनों को आश्चर्य से देखा। फिर अपनी माँ को मुस्कराते देख समझ गया। दोनों लड़कों को छाती से लगा लिया और तीनों भाई-बहिन प्रेम से हँसने-खेलने लगे। माँ खड़ी यह दृश्य देखती थी और उमंग से फूली न समाती थी।

जलपान करके साधो ने बाईसिकल संभाली और माँ-बाप के सामने सिर झुकाकर चल खड़ा हुआ – वहीं, जहाँ से तंग होकर आया था; उसी क्षेत्र में, जहाँ अपना कोई न था।

देवकी फूट-फूटकर रो रही थी और जादोराय आँखों में आँसू भरे, हृदय में एक ऐंठन-सी अनुभव करता हुआ सोचता था, हाय! मेरे लाल, तू मुझसे अलग हुआ जाता है। ऐसा योग्य और होनहार लड़का हाथ से निकला जाता है और केवल इसलिए कि अब हमारा खून सफेद हो गया।

कर्मों का फल मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

मुझे हमेशा आदमियों के परखने की सनक रही है और अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि यह अध्ययन जितना मनोरंजक, शिक्षाप्रद और उदधाटनों से भरा हुआ है, उतना शायद और कोई अध्ययन न होगा। लेकिन अपने दोस्त लाला साईंदयाल से बहुत अर्से तक दोस्ती और बेतकल्लुफी के सम्बन्ध रहने पर भी मुझे उनकी थाह न मिली। मुझे ऐसे दुर्बल शरीर में ज्ञानियों की-सी शान्ति और संतोष देखकर आश्चर्य होता था जो एक़ नाजुक पौधे की तरह मुसीबतों के झोंकों में भी अचल और अटल रहता था। ज्यों वह बहुत ही मामूली दरजे का आदमी था जिसमें मानव कमजोरियों की कमी न थी। वह वादे बहुत करता था लेकिन उन्हें पूरा करने की जरूरत नहीं समझता था। वह मिथ्याभाषी न हो लेकिन सच्चा भी न था। बेमुरौवत न हो लेकिन उसकी मुरौवत छिपी रहती थी। उसे अपने कर्त्तव्य पर पाबन्द रखने के लिए दबाव ओर निगरानी की जरुरत थी, किफायतशारी के उसूलों से बेखबर, मेहनत से जी चुराने वाला, उसूलों का कमजोर, एक ढीला-ढाला मामूली आदमी था। लेकिन जब कोई मुसीबत सिर पर आ पड़ती तो उसके दिल में साहस और दृढ़ता की वह जबर्दस्त ताकत पैदा हो जाती थी जिसे शहीदों का गुण कह सकते हैं। उसके पास न दौलत थी न धार्मिक विश्वास, जो ईश्वर पर भरोसा करने और उसकी इच्छाओं के आगे सिर झुका देने का स्त्रोत है। एक छोटी-सी कपड़े की दुकान के सिवाय कोई जीविका न थी। ऐसी हालतों में उसकी हिम्मत और दृढ़ता का सोता कहॉँ छिपा हुआ है, वहॉँ तक मेरी अन्वेषण-दृष्टि नहीं पहुँचती थी।

(2)

बाप के मरते ही मुसीबतों ने उस पर छापा मारा कुछ थोड़ा-सा कर्ज विरासत में मिला जिसमें बराबर बढ़ते रहने की आश्चर्यजनक शक्ति छिपी हुई थी। बेचारे ने अभी बरसी से छुटकारा नहीं पाया था कि महाजन ने नालिश की और अदालत के तिलस्मी अहाते में पहुँचते ही यह छोटी-सी हस्ती इस तरह फूली जिस तरह मशक फलती है। डिग्री हुई। जो कुछ जमा-जथा थी; बर्तन-भॉँड़ें, हॉँडी-तवा, उसके गहरे पेट में समा गये। मकान भी न बचा। बेचारे मुसीबतों के मारे साईंदयाल का अब कहीं ठिकाना न था। कौड़ी-कौड़ी को मुहताज, न कहीं घर, न बार। कई-कई दिन फाके से गुजर जाते। अपनी तो खैर उन्हें जरा भी फिक्र न थी लेकिन बीवी थी, दो-तीन बच्चे थे, उनके लिए तो कोई-न-कोई फिक्र करनी पड़ती थी। कुनबे का साथ और यह बेसरोसामानी, बड़ा दर्दनाक दृश्य था। शहर से बाहर एक पेड़ की छॉँह में यह आदमी अपनी मुसीबत के दिन काट रहा था। सारे दिन बाजारों की खाक छानता। आह, मैंने एक बार उस रेलवे स्टेशन पर देखा। उसके सिर पर एक भारी बोझ था। उसका नाजुग, सुख-सुविधा में पला हुआ शरीर, पसीना-पसीना हो रहा था। पैर मुश्किल से उठते थे। दम फूल रहा था लेकिन चेहरे से मर्दाना हिम्मत और मजबूत इरादे की रोशनी टपकती थी। चेहरे से पूर्ण संतोष झलक रहा था। उसके चेहरे पर ऐसा इत्मीनान था कि जैसे यही उसका बाप-दादों का पेशा है। मैं हैरत से उसका मुंह ताकता रह गया। दुख में हमदर्दी दिखलाने की हिम्मत न हुई। कई महीने तक यही कैफियत रही। आखिरकार उसकी हिम्मत और सहनशक्ति उसे इस कठिन दुर्गम घाटी से बाहर निकल लायी।

(3)

थोड़े ही दिनों के बाद मुसीबतों ने फिर उस पर हमला किया। ईश्वर ऐसा दिन दुश्मन को भी न दिखलाये। मैं एक महीने के लिए बम्बई चला गया था, वहॉँ से लौटकर उससे मिलने गया। आह, वह दृश्य याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ओर दिल डर से कॉँप उठता है। सुबह का वक्त था। मैंने दरवाजे पर आवाज दी और हमेशा की तरह बेतकल्लुफ अन्दर चला गया, मगर वहॉँ साईंदयाल का वह हँसमुख चेहरा, जिस पर मर्दाना हिम्मत की ताजगी झलकती थी, नजर न आया। मैं एक महीने के बाद उनके घर जाऊँ और वह आँखों से रोते लेकिन होंठों से हँसते दौड़कर मेरे गले लिपट न जाय! जरूर कोई आफत है। उसकी बीवी सिर झुकाये आयी और मुझे उसके कमरे में ले गयी। मेरा दिल बैठ गया। साईंदयाल एक चारपाई पर मैले-कुचैले कपड़े लपेटे, आँखें बन्द किये, पड़ा दर्द से कराह रहा था। जिस्म और बिछौने पर मक्खियों के गुच्छे बैठे हुए थे। आहट पाते ही उसने मेरी तरफ देखा। मेरे जिगर के टुकड़े हो गये। हड्डियों का ढॉँचा रह गया था। दुर्बलता की इससे ज्यादा सच्ची और करुणा तस्वीर नहीं हो सकती। उसकी बीवी ने मेरी तरफ निराशाभरी आँखों से देखा। मेरी आँसू भर आये। उस सिमटे हुए ढॉँचे में बीमारी को भी मुश्किल से जगह मिलती होगी, जिन्दगी का क्या जिक्र! आखिर मैंने धीरे पुकारा। आवाज सुनते ही वह बड़ी-बड़ी आँखें खुल गयीं लेकिन उनमें पीड़ा और शोक के आँसू न थे, सन्तोष और ईश्वर पर भरोसे की रोशनी थी और वह पीला चेहरा! आह, वह गम्भीर संतोष का मौन चित्र, वह संतोषमय संकल्प की सजीव स्मृति। उसके पीलेपन में मर्दाना हिम्मत की लाली झलकती थी। मैं उसकी सूरत देखकर घबरा गया। क्या यह बुझते हुए चिराग की आखिरी झलक तो नहीं है?

मेरी सहमी हुई सूरत देखकर वह मुस्कराया और बहुत धीमी आवाज में बोला—तुम ऐसे उदास क्यों हो, यह सब मेरे कर्मों का फल है।

(4)

मगर कुछ अजब बदकिस्मत आदमी था। मुसीबतों को उससे कुछ खास मुहब्बत थी। किसे उम्मीद थी कि वह उस प्राणघातक रोग से मुक्ति पायेगा। डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया था। मौत के मुंह से निकल आया। अगर भविष्य का जरा भी ज्ञान होता तो सबसे पहले मैं उसे जहर दे देता। आह, उस शोकपूर्ण घटना को याद करके कलेजा मुंह को आता है। धिककार है इस जिन्दगी पर कि बाप अपनी आँखों से अपनी इकलौते बेटे का शोक देखे।

कैसा हँसमुख, कैसा खूबसूरत, होनहार लड़का था, कैसा सुशील, कैसा मधुरभाषी, जालिम मौत ने उसे छॉँट लिया। प्लेग की दुहाई मची हुई थी। शाम को गिल्टी निकली और सुबह को—कैसी मनहूस, अशुभ सुबह थी—वह जिन्दगी सबेरे के चिराग की तरह बुझ गयी। मैं उस वक्त उस बच्चे के पास बैठा हुआ था और साईंदयाल दीवार का सहारा लिए हुए खामोशा आसमान की तरफ देखता था। मेरी और उसकी आँखों के सामने जालिम और बेरहम मौत ने उस बचे को हमारी गोद से छीन लिया। मैं रोते हुए साईंदयाल के गले से लिपट गया। सारे घर में कुहराम मचा हुआ था। बेचारी मॉँ पछाड़ें खा रही थी, बहनें दौड-दौड़कर भाई की लाश से लिपटती थीं। और जरा देर के लिए ईर्ष्या ने भी समवेदना के आगे सिर झुका दिया था—मुहल्ले की औरतों को आँस बहाने के लिए दिल पर जोर डालने की जरूरत न थी।

जब मेरे आँसू थमे तो मैंने साईंदयाल की तरफ देखा। आँखों में तो आँसू भरे हुए थे—आह, संतोष का आँखों पर कोई बस नहीं, लेकिन चेहरे पर मर्दाना दृढ़ता और समर्पण का रंग स्पष्ट था। इस दुख की बाढ़ और तूफानों मे भी शान्ति की नैया उसके दिल को डूबने से बचाये हुए थी।

इस दृश्य ने मुझे चकित नहीं स्तम्भित कर दिया। सम्भावनाओं की सीमाएँ कितनी ही व्यापक हों ऐसी हृदय-द्रावक स्थिति में होश-हवास और इत्मीनान को कायम रखना उन सीमाओं से परे है। लेकिन इस दृष्टि से साईंदयाल मानव नहीं, अति-मानव था। मैंने रोते हुए कहा—भाईसाहब, अब संतोष की परीक्षा का अवसर है। उसने दृढ़ता से उत्तर दिया—हॉँ, यह कर्मों का फल है।

मैं एक बार फिर भौंचक होकर उसका मुंह ताकने लगा।

(5)

लेकिन साईंदयाल का यह तपस्वियों जैसा धैर्य और ईश्वरेच्छा पर भरोसा अपनी आँखों से देखने पर भी मेरे दिल में संदेह बाकी थे। मुमकिन है, जब तक चोट ताजी है सब्र का बाँध कायम रहे। लेकिन उसकी बुनियादें हिल गयी हैं, उसमें दरारें पड़ गई हैं। वह अब ज्यादा देर तक दुख और शोक की जहरों का मुकाबला नहीं कर सकता।

क्या संसार की कोई दुर्घटना इतनी हृदयद्रावक, इतनी निर्मम, इतनी कठोर हो सकता है! संतोष और दृढ़ता और धैर्य और ईश्वर पर भरोसा यह सब उस आँधी के समान घास-फूस से ज्यादा नहीं। धार्मिक विश्वास तो क्या, अध्यात्म तक उसके सामने सिर झुका देता है। उसके झोंके आस्था और निष्ठा की जड़ें हिला देते हैं।

लेकिन मेरा अनुमान गलत निकला। साईंदयाल ने धीरज को हाथ से न जाने दिया। वह बदस्तूर जिन्दगी के कामों में लग गया। दोस्तों की मुलाकातें और नदी के किनारे की सैर और तफरीह और मेलों की चहल-पहल, इन दिलचस्पियों में उसके दिल को खींचने की ताकत अब भी बाकी थी। मैं उसकी एक-एक क्रिया को, एक-एक बात को गौर से देखता और पढ़ता। मैंने दोस्ती के नियम-कायदों को भुलाकर उसे उस हालत में देखा जहॉँ उसके विचारों के सिवा और कोई न था। लेकिन उस हालत में भी उसके चेहरे पर वही पुरूषोचित धैर्य था और शिकवे-शिकायत का एक शब्द भी उसकी जबान पर नहीं आया।

(6)

इसी बीच मेरी छोटी लड़की चन्द्रमुखी निमोनिया की भेंट चढ़ गयी। दिन के धंधे से फुरसत पाकर जब मैं घर पर आता और उसे प्यार से गोद में उठा लेता तो मेरे हृदय को जो आनन्द और आत्मिक शक्ति मिलती थी, उसे शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता। उसकी अदाएँ सिर्फ दिल को लुभानेवाली नहीं गम को भुलानेवाली हैं। जिस वक्त वह हुमककर मेरी गोद में आती तो मुझे तीनों लोक की संपत्ति मिल जाती थी। उसकी शरारतें कितनी मनमोहक थीं। अब हुक्के में मजा नहीं रहा, कोई चिलम को गिरानेवाला नहीं! खाने में मजा नहीं आता, कोई थाली के पास बैठा हुआ उस पर हमला करनेवाला नहीं! मैं उसकी लाश को गोद में लिये बिलख-बिलखकर रो रहा था। यही जी चाहता था कि अपनी जिन्दगी का खात्मा कर दूँ। यकायक मैंने साईंदयाल को आते देखा। मैंने फौरन आँसू पोंछ डाले और उस नन्हीं-सी जान को जमीन पर लिटाकर बाहर निकल आया। उस धैर्य और संतोष के देवता ने मेरी तरफ संवेदनशील की आँखों से देखा और मेरे गले से लिपटकर रोने लगा। मैंने कभी उसे इस तरह चीखें मारकर रोते नहीं देखा। रोते-रोते उसी हिचकियॉँ बंध गयीं, बेचैनी से बेसुध और बेहार हो गया। यह वही आदमी है जिसका इकलौता बेटा मरा और माथे पर बल नहीं आया। यह कायापलट क्यों?

(7)

इस शोक पूर्ण घटना के कई दिन बाद जबकि दुखी दिल सम्हलने लगा, एक रोज हम दोनों नदी की सैर को गये। शाम का वक्त था। नदी कहीं सुनहरी, कहीं नीली, कहीं काली, किसी थके हुए मुसाफिर की तरह धीरे-धीरे बह रही थी। हम दूर जाकर एक टीले पर बैठ गये लेकिन बातचीत करने को जी न चाहता था। नदी के मौन प्रवाह ने हमको भी अपने विचारों में डुबो दिया। नदी की लहरें विचारों की लहरों को पैदा कर देती हैं। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि प्यारी चन्द्रमुखी लहरों की गोद में बैठी मुस्करा रही है। मैं चौंक पड़ा ओर अपने आँसुओं को छिपाने के लिए नदी में मुंह धोने लगा। साईंदयाल ने कहा—भाईसाहब, दिल को मजबूत करो। इस तरह कुढ़ोगे तो जरूर बीमार हो जाओगे।

मैंने जवाब दिया—ईश्वर ने जितना संयम तुम्हें दिया है, उसमें से थोड़ा-सा मुझे भी दे दो, मेरे दिल में इतनी ताकत कहॉँ।

साईंदयाल मुस्कराकर मेरी तरफ ताकने लगे।

मैंने उसी सिलसिले में कहा—किताबों में तो दृढ़ता और संतोष की बहुत-सी कहानियॉँ पढ़ी हैं मगर सच मानों कि तुम जैसा दृढ़, कठिनाइयों में सीधा खड़ा रहने वाला आदमी आज तक मेरी नजर से नहीं गुजरा। तुम जानते हो कि मुझे मानव स्वभाव के अध्ययन का हमेशा से शौक है लेकिन मेरे अनुभव में तुम अपनी तरह के अकेले आदमी हो। मैं यह न मानूँगा कि तुम्हारे दिल में दर्द और घुलावट नहीं है। उसे मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ। फिर इस ज्ञानियों जैसे संतोष और शान्ति का रहस्य तुमने कहॉँ छिपा रक्खा है? तुम्हें इस समय यह रहस्य मुझसे कहना पड़ेगा। साईंदयाल कुछ सोच-विचार में पड़ गया और जमीन की तरफ ताकते हुए बोला—यह कोई रहस्य नहीं, मेरे कर्मों का फल है।

यह वाक्य मैंने चौथी बार उसकी जबान से सुना और बोला—जिन, कर्मों का फल ऐसा शक्तिदायक है, उन कर्मों की मुझे भी कुछ दीक्षा दो। मैं ऐसे फलों से क्यों वंचित रहूँ।

साईंदयाल ने व्याथापूर्ण स्वर में कहा—ईश्वर न करे कि तुम ऐसा कर्म करो और तुम्हारी जिन्दगी पर उसका काला दाग लगे। मैंने जो कुछ किया है, व मुझे ऐसा लज्जाजनक और ऐसा घृणित मालूम होता है कि उसकी मुझे जो कुछ सजा मिले, मैं उसे खुशी के साथ झेलने को तैयार हूँ। आह! मैंने एक ऐसे पवित्र खानदान को, जहॉँ मेरा विश्वास और मेरी प्रतिष्ठा थी, अपनी वासनाओं की गन्दगी में लिथेड़ा और एक ऐसे पवित्र हृदय को जिसमें मुहब्बत का दर्द था, जो सौन्दर्य-वाटिका की एक अनोखी-नयी खिली हुई कली थी, और सच्चाई थी, उस पवित्र हृदय में मैंने पाप और विश्वासघात का बीज हमेशा के लिएबो दिया। यह पाप है जो मुझसे हुआ है और उसका पल्ला उन मुसीबतों से बहुत भारी है जो मेरे ऊपर अब तक पड़ी हैं या आगे चलकर पडेंगी। कोई सजा, कोई दुख, कोई क्षति उसका प्रायश्चित नहीं कर सकती।

मैंने सपने में भी न सोचा था कि साईंदयाल अपने विश्वासों में इतना दृढ़ है। पाप हर आदमी से होते हैं, हमारा मानव जीवन पापों की एक लम्बी सूची है, वह कौन-सा दामन है जिस पर यह काले दाग न हों। लेकिन कितने ऐसे आदमी हैं जो अपने कर्मों की सजाओं को इस तरह उदारतापूर्वक मुस्कराते हुए झेलने के लिए तैयार हों। हम आग में कूदते हैं लेकिन जलने के लिए तैयार नहीं होते।

मैं साईंदयाल को हमेशा इज्जत की निगाह से देखता हूँ, इन बातों को सुनकर मेरी नजरों में उसकी इज्जत तिगुनी हो गयी। एक मामूली दुनियादार आदमी के सीने में एक फकीर का दिल छिपा हुआ था जिसमें ज्ञान की ज्योति चमकती थी। मैंने उसकी तरफ श्रद्धापूर्ण आँखों से देखा और उसके गले से लिपटकर बोला—साईंदयाल, अब तक मैं तुम्हें एक दृढ़ स्वभाव का आदमी समझता था, लेकिन आज मालूम हुआ कि तुम उन पवित्र आत्माओं में हो, जिनका अस्तित्व संसार के लिए वरदान है। तुम ईश्वर के सच्चे भक्त हो और मैं तुम्हारे पैरों पर सिर झुकाता हूँ।

(‘प्रेम पचीसी’ से)

अंधेर मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

नागपंचमी आई। साठे के जिन्दादिल नौजवानों ने रंग-बिरंगे जांघिये बनवाये। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदायें गूँजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजायीं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चावल लिए नाग पूजने चलीं।

साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियाँ खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया। उसी तरह पाठेवाले अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचा दिखलाना ही जिन्दगी का सबसे बड़ा काम समझते थे। उनका इतिहास विजयों की कहानियों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चलते थे:

साठेवाले कायर सगरे पाठेवाले हैं सरदार

और साठे के धोबी गाते:

साठेवाले साठ हाथ के जिनके हाथ सदा तरवार

उन लोगन के जनम नसाये जिन पाठे मान लीन अवतार

गरज आपसी होड़ का यह जोश बच्चों में माँ दूध के साथ दाखिल होता था और उसके प्रदर्शन का सबसे अच्छा और ऐतिहासिक मौका यही नागपंचमी का दिन था। इस दिन के लिए साल भर तैयारियाँ होती रहती थीं। आज उनमें मार्के की कुश्ती होने वाली थी। साठे को गोपाल पर नाज था, पाठे को बलदेव का गर्रा। दोनों सूरमा अपने-अपने फरीक की दुआएँ और आरजुएँ लिए हुए अखाड़े में उतरे। तमाशाइयों पर चुम्बक का-सा असर हुआ। मौजें के चौकीदारों ने लट्ठ और डण्डों का यह जमघट देखा और मर्दों की अंगारे की तरह लाल आँखें तो पिछले अनुभव के आधार पर बेपता हो गये। इधर अखाड़े में दांव-पेंच होते रहे। बलदेव उलझता था, गोपाल पैंतरे बदलता था। उसे अपनी ताकत का जोम था, इसे अपने करतब का भरोसा। कुछ देर तक अखाड़े से ताल ठोंकने की आवाजें आती रहीं, तब यकायक बहुत-से आदमी खुशी के नारे मार-मार उछलने लगे, कपड़े और बर्तन और पैसे और बताशे लुटाये जाने लगे। किसी ने अपना पुराना साफा फेंका, किसी ने अपनी बोसीदा टोपी हवा में उड़ा दी साठे के मनचले जवान अखाड़े में पिल पड़े। और गोपाल को गोद में उठा लाये। बलदेव और उसके साथियों ने गोपाल को लहू की आँखों से देखा और दाँत पीसकर रह गये।

(2)

दस बजे रात का वक्त और सावन का महीना। आसमान पर काली घटाएँ छाई थीं। अंधेरे का यह हाल था कि जैसे रोशनी का अस्तित्व ही नहीं रहा। कभी-कभी बिजली चमकती थी मगर अँधेरे को और ज्यादा अंधेरा करने के लिए। मेंढकों की आवाजें जिन्दगी का पता देती थीं वर्ना और चारों तरफ मौत थी। खामोश, डरावने और गम्भीर साठे के झोंपड़े और मकान इस अंधेरे में बहुत गौर से देखने पर काली-काली भेड़ों की तरह नजर आते थे। न बच्चे रोते थे, न औरतें गाती थीं। पावित्रात्मा बुड्ढे राम नाम न जपते थे।

मगर आबादी से बहुत दूर कई पुरशोर नालों और ढाक के जंगलों से गुजरकर ज्वार और बाजरे के खेत थे और उनकी मेंड़ों पर साठे के किसान जगह-जगह मड़ैया ड़ाले खेतों की रखवाली कर रहे थे। तले जमीन, ऊपर अंधेरा, मीलों तक सन्नाटा छाया हुआ। कहीं जंगली सुअरों के गोल, कहीं नीलगायों के रेवड़, चिलम के सिवा कोई साथी नहीं, आग के सिवा कोई मददगार नहीं। जरा खटका हुआ और चौंके पड़े। अंधेरा भय का दूसरा नाम है, जब मिट्टी का एक ढेर, एक ठूँठा पेड़ और घास का ढेर भी जानदार चीजें बन जाती हैं। अंधेरा उनमें जान ड़ाल देता है। लेकिन यह मजबूत हाथोंवाले, मजबूत जिगरवाले, मजबूत इरादे वाले किसान हैं कि यह सब सख्तियाँ झेलते हैं ताकि अपने ज्यादा भाग्यशाली भाइयों के लिए भोग-विलास के सामान तैयार करें। इन्हीं रखवालों में आज का हीरो, साठे का गौरव गोपाल भी है जो अपनी मड़ैया में बैठा हुआ है और नींद को भगाने के लिए धीमें सुरों में यह गीत गा रहा है:

मैं तो तोसे नैना लगाय पछतायी रे

अचाकन उसे किसी के पाँव की आहट मालूम हुई। जैसे हिरन कुत्तों की आवाजों को कान लगाकर सुनता है उसी तरह गोपाल ने भी कान लगाकर सुना। नींद की अंघाई दूर हो गई। लट्ठ कंधे पर रक्खा और मड़ैया से बाहर निकल आया। चारों तरफ कालिमा छाई हुई थी और हलकी-हलकी बूंदें पड़ रही थीं। वह बाहर निकला ही था कि उसके सर पर लाठी का भरपूर हाथ पड़ा। वह त्योराकर गिरा और रात भर वहीं बेसुध पड़ा रहा। मालूम नहीं उस पर कितनी चोटें पड़ीं। हमला करनेवालों ने तो अपनी समझ में उसका काम तमाम कर ड़ाला। लेकिन जिन्दगी बाकी थी। यह पाठे के गैरतमन्द लोग थे जिन्होंने अंधेरे की आड़ में अपनी हार का बदला लिया था।

3

गोपाल जाति का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बिलकुल अक्खड़। दिमाग रौशन ही नहीं हुआ तो शरीर का दीपक क्यों घुलता। पूरे छ: फुट का कद, गठा हुआ बदन, ललकान कर गाता तो सुननेवाले मील भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मजा लेते। गाने-बजाने का आशिक, होली के दिनों में महीने भर तक गाता, सावन में मल्हार और भजन तो रोज का शगल था। निड़र ऐसा कि भूत और पिशाच के अस्तित्व पर उसे विद्वानों जैसे संदेह थे। लेकिन जिस तरह शेर और चीते भी लाल लपटों से डरते हैं उसी तरह लाल पगड़ी से उसकी रूह असाधारण बात थी लेकिन उसका कुछ बस न था। सिपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन में उसके दिल पर खींची गई थी, पत्थर की लकीर बन गई थी। शरारतें गयीं, बचपन गया, मिठाई की भूख गई लेकिन सिपाही की तस्वीर अभी तक कायम थी। आज उसके दरवाजे पर लाल पगड़ीवालों की एक फौज जमा थी लेकिन गोपाल जख्मों से चूर, दर्द से बेचैन होने पर भी अपने मकान के अंधेरे कोने में छिपा हुआ बैठा था। नम्बरदार और मुखिया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढंग से खड़े दारोगा की खुशामद कर रहे थे। कहीं अहीर की फरियाद सुनाई देती थी, कहीं मोदी रोना-धोना, कहीं तेली की चीख-पुकार, कहीं कमाई की आँखों से लहू जारी। कलवार खड़ा अपनी किस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की गर्मबाजारी थी। दारोगा जी निहायत कारगुजार अफसर थे, गालियों में बात करते थे। सुबह को चारपाई से उठते ही गालियों का वजीफा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फरियाद की-हुजूर, अण्डे नहीं हैं, दारोगाजी हण्टर लेकर दौड़े और उस गरीब का भुरकुस निकाल दिया। सारे गाँव में हलचल पड़ी हुई थी। कांसिटेबल और चौकीदार रास्तों पर यों अकड़ते चलते थे गोया अपनी ससुराल में आये हैं। जब गाँव के सारे आदमी आ गये तो वारदात हुई और इस कम्बख्त गोपाल ने रपट तक न की।

मुखिया साहब बेंत की तरह कांपते हुए बोले–हुजूर, अब माफी दी जाय।

दारोगाजी ने गजबनाक निगाहों से उसकी तरफ देखकर कहा–यह इसकी शरारत है। दुनिया जानती है कि जुर्म को छुपाना जुर्म करने के बराबर है। मैं इस बदकाश को इसका मजा चखा दूँगा। वह अपनी ताकत के जोम में भूला हुआ है, और कोई बात नहीं। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।

मुखिया साहब ने सिर झुकाकर कहा–हुजूर, अब माफी दी जाय।

दारोगाजी की त्योरियाँ चढ़ गयीं और झुंझलाकर बोले–अरे हजूर के बच्चे, कुछ सठिया तो नहीं गया है। अगर इसी तरह माफी देनी होती तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा था कि यहाँ तक दौड़ा आता। न कोई मामला, न ममाले की बात, बस माफी की रट लगा रक्खी है। मुझे ज्यादा फुरसत नहीं है। नमाज पढ़ता हूँ, तब तक तुम अपना सलाह मशविरा कर लो और मुझे हँसी-खुशी रुखसत करो वर्ना गौसखाँ को जानते हो, उसका मारा पानी भी नही मांगता!

दारोगा तकवे व तहारत के बड़े पाबन्द थे पाँचों वक्त की नमाज पढ़ते और तीसों रोजे रखते, ईदों में धूमधाम से कुर्बानियाँ होतीं। इससे अच्छा आचरण किसी आदमी में और क्या हो सकता है!

(4)

मुखिया साहब दबे पाँव गुपचुप ढंग से गौरा के पास और बोले–यह दारोगा बड़ा काफिर है, पचास से नीचे तो बात ही नहीं करता। अब्बल दर्जे का थानेदार है। मैंने बहुत कहा, हुजूर, गरीब आदमी है, घर में कुछ सुभीता नहीं, मगर वह एक नहीं सुनता।

गौरा ने घूँघट में मुँह छिपाकर कहा–दादा, उनकी जान बच जाए, कोई तरह की आंच न आने पाए, रूपये-पैसे की कौन बात है, इसी दिन के लिए तो कमाया जाता है।

गोपाल खाट पर पड़ा सब बातें सुन रहा था। अब उससे न रहा गया। लकड़ी गांठ ही पर टूटती है। जो गुनाह किया नहीं गया वह दबता है मगर कुचला नहीं जा सकता। वह जोश से उठ बैठा और बोला–पचास रुपये की कौन कहे, मैं पचास कौड़ियाँ भी न दूँगा। कोई गदर है, मैंने कसूर क्या किया है?

मुखिया का चेहरा फक हो गया। बड़प्पन के स्वर में बोले-धीरे बोलो, कहीं सुन ले तो गजब हो जाए।

लेकिन गोपाल बिफरा हुआ था, अकड़कर बोला–मैं एक कौड़ी भी न दूँगा। देखें कौन मेरे फांसी लगा देता है।

गौरा ने बहलाने के स्वर में कहा–अच्छा, जब मैं तुमसे रूपये मांगूँ तो मत देना। यह कहकर गौरा ने, जो इस वक्त लौड़ी के बजाय रानी बनी हुई थी, छप्पर के एक कोने में से रुपयों की एक पोटली निकाली और मुखिया के हाथ में रख दी। गोपाल दांत पीसकर उठा, लेकिन मुखिया साहब फौरन से पहले सरक गये। दारोगा जी ने गोपाल की बातें सुन ली थीं और दुआ कर रहे थे कि ऐ खुदा, इस मरदूद के दिल को पलट। इतने में मुखिया ने बाहर आकर पचीस रूपये की पोटली दिखाई। पचीस रास्ते ही में गायब हो गये थे। दारोगा जी ने खुदा का शुक्र किया। दुआ सुनी गयी। रुपया जेब में रक्खा और रसद पहुँचाने वालों की भीड़ को रोते और बिलबिलाते छोड़कर हवा हो गये। मोदी का गला घुंट गया। कसाई के गले पर छुरी फिर गयी। तेली पिस गया। मुखिया साहब ने गोपाल की गर्दन पर एहसान रक्खा गोया रसद के दाम गिरह से दिए। गाँव में सुर्खरू हो गया, प्रतिष्ठा बढ़ गई। इधर गोपाल ने गौरा की खूब खबर ली। गाँव में रात भर यही चर्चा रही। गोपाल बहुत बचा और इसका सेहरा मुखिया के सिर था। बड़ी विपत्ति आई थी। वह टल गयी। पितरों ने, दीवान हरदौल ने, नीम तलेवाली देवी ने, तालाब के किनारे वाली सती ने, गोपाल की रक्षा की। यह उन्हीं का प्रताप था। देवी की पूजा होनी जरूरी थी। सत्यनारायण की कथा भी लाजिमी हो गयी।

(5)

फिर सुबह हुई लेकिन गोपाल के दरवाजे पर आज लाल पगड़ियों के बजाय लाल साड़ियों का जमघट था। गौरा आज देवी की पूजा करने जाती थी और गाँव की औरतें उसका साथ देने आई थीं। उसका घर सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू से महक रहा था जो खस और गुलाब से कम मोहक न थी। औरतें सुहाने गीत गा रही थीं। बच्चे खुश हो-होकर दौड़ते थे। देवी के चबूतरे पर उसने मिटटी का हाथी चढ़ाया। सती की मांग में सेंदुर डाला। दीवान साहब को बताशे और हलुआ खिलाया। हनुमान जी को लड्डू से ज्यादा प्रेम है, उन्हें लड्डू चढ़ाये तब गाती बजाती घर को आयी और सत्यनारायण की कथा की तैयारियाँ होने लगीं । मालिन फूल के हार, केले की शाखें और बन्दनवारें लायीं। कुम्हार नये-नये दिये और हांडियाँ दे गया। बारी हरे ढाक के पत्तल और दोने रख गया। कहार ने आकर मटकों में पानी भरा। बढ़ई ने आकर गोपाल और गौरा के लिए दो नयी-नयी पीढ़ियाँ बनायीं। नाइन ने आंगन लीपा और चौक बनायी। दरवाजे पर बन्दनवारें बँध गयीं। आंगन में केले की शाखें गड़ गयीं। पण्डित जी के लिए सिंहासन सज गया। आपस के कामों की व्यवस्था खुद-ब-खुद अपने निश्चित दायरे पर चलने लगी । यही व्यवस्था संस्कृति है जिसने देहात की जिन्दगी को आडम्बर की ओर से उदासीन बना रक्खा है । लेकिन अफसोस है कि अब ऊँच-नीच की बेमतलब और बेहूदा कैदों ने इन आपसी कर्तव्यों को सौहार्द्र सहयोग के पद से हटा कर उन पर अपमान और नीचता का दाग लगा दिया है।

शाम हुई। पण्डित मोटेरामजी ने कन्धे पर झोली डाली, हाथ में शंख लिया और खड़ाऊँ पर खटपट करते गोपाल के घर आ पहुँचे। आंगन में टाट बिछा हुआ था। गाँव के प्रतिष्ठित लोग कथा सुनने के लिए आ बैठे। घण्टी बजी, शंख फुंका गया और कथा शुरू हुईं। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में फूंका गया और कथा शुरू हुई। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में दीवार के सहारे बैठा हुआ था। मुखिया, नम्बरदार और पटवारी ने मारे हमदर्दी के उससे कहा—सत्यनारायण क महिमा थी कि तुम पर कोई आंच न आई।

गोपाल ने अँगड़ाई लेकर कहा—सत्यनारायण की महिमा नहीं, यह अंधेर है।

(जमाना, जुलाई १९१३)

एक आँच की कसर मुंशी प्रेमचंद की कहानी

सारे नगर में महाशय यशोदानन्द का बखान हो रहा था। नगर ही में नही, समस्त प्रान्त में उनकी कीर्ति की जाती थी, समाचार पत्रों में टिप्पणियां हो रही थी, मित्रों से प्रशंसापूर्ण पत्रों का तांता लगा हुआ था। समाज-सेवा इसको कहते है ! उन्नत विचार के लोग ऐसा ही करते है। महाशय जी ने शिक्षित समुदाय का मुख उज्जवल कर दिया। अब कौन यह कहने का साहस कर सकता है कि हमारे नेता केवल बात के धनी है, काम के धनी नही है ! महाशय जी चाहते तो अपने पुत्र के लिए उन्हें कम से कम बीस हजार रूपये दहेज में मिलते, उस पर खुशामद घाते में ! मगर लाला साहब ने सिद्वांत के सामने धन की रत्ती बराबर परवाह न की और अपने पुत्र का विवाह बिना एक पाई दहेज लिए स्वीकार किया। वाह ! वाह ! हिम्मत हो तो ऐसी हो, सिद्वांत प्रेम हो तो ऐसा हो, आदर्श-पालन हो तो ऐसा हो । वाह रे सच्चे वीर, अपनी माता के सच्चे सपूत, तूने वह कर दिखाया जो कभी किसी ने किया था। हम बड़े गर्व से तेरे सामने मस्तक नवाते है।

महाशय यशोदानन्द के दो पुत्र थे। बड़ा लड़का पढ़ लिख कर फाजिल हो चुका था। उसी का विवाह तय हो रहा था और हम देख चुके है, बिना कुछ दहेज लिये।

आज का तिलक था। शाहजहांपुर स्वामीदयाल तिलक ले कर आने वाले थे। शहर के गणमान्य सज्जनों को निमन्त्रण दे दिये गये थे। वे लोग जमा हो गये थे। महफिल सजी हुई थी। एक प्रवीण सितारिया अपना कौशल दिखाकर लोगों को मुग्ध कर रहा था। दावत को सामान भी तैयार था ? मित्रगण यशोदानन्द को बधाईयां दे रहे थे।

एक महाशय बोले—तुमने तो कमाल कर दिया !

दूसरे—कमाल ! यह कहिए कि झण्डे गाड़ दिये। अब तक जिसे देखा मंच पर व्याख्यान झाड़ते ही देखा। जब काम करने का अवसर आता था तो लोग दुम लगा लेते थे।

तीसरे—कैसे-कैसे बहाने गढ़े जाते है—साहब हमें तो दहेज से सख्त नफरत है। यह मेरे सिद्वांत के विरुद्व है, पर क्या करुं क्या, बच्चे की अम्मीजान नहीं मानती। कोई अपने बाप पर फेंकता है, कोई और किसी खर्राट पर।

चौथे—अजी, कितने तो ऐसे बेहया है जो साफ-साफ कह देते है कि हमने लड़के को शिक्षा – दीक्षा में जितना खर्च किया है, वह हमें मिलना चाहिए। मानो उन्होंने यह रूपये किसी बैंक में जमा किये थे।

पांचवें—खूब समझ रहा हूं, आप लोग मुझ पर छींटे उड़ा रहे है।

इसमें लड़के वालों का ही सारा दोष है या लड़की वालों का भी कुछ है।

पहले—लड़की वालों का क्या दोष है सिवा इसके कि वह लड़की का बाप है।

दूसरे—सारा दोष ईश्वर का जिसने लड़कियां पैदा कीं । क्यों ?

पांचवे—मैं यह नही कहता। न सारा दोष लड़की वालों का हैं, न सारा दोष लड़के वालों का। दोनों की दोषी है। अगर लड़की वाला कुछ न दे तो उसे यह शिकायत करने का कोई अधिकार नही है कि डाल क्यों नही लायें, सुंदर जोड़े क्यों नही लाये, बाजे-गाजे पर धूमधाम के साथ क्यों नही आये ? बताइए !

चौथे—हां, आपका यह प्रश्न गौर करने लायक है। मेरी समझ में तो ऐसी दशा में लड़कें के पिता से यह शिकायत न होनी चाहिए।

पांचवें—तो यों कहिए कि दहेज की प्रथा के साथ ही डाल, गहनें और जोड़ों की प्रथा भी त्याज्य है। केवल दहेज को मिटाने का प्रयत्न करना व्यर्थ है।

यशोदानन्द—-यह भी Lame excuse है। मैंने दहेज नहीं लिया है।, लेकिन क्या डाल-गहने ने ले जाऊंगा।

पहले—महाशय आपकी बात निराली है। आप अपनी गिनती हम दुनियां वालों के साथ क्यों करते हैं ? आपका स्थान तो देवताओं के साथ है।

दूसरा—-20 हजार की रकम छोड़ दी ? क्या बात है।

यशोदानन्द– मेरा तो यह निश्चय है कि हमें सदैव principles पर स्थिर रहना चाहिए। principal के सामने money की कोई value नही है। दहेज की कुप्रथा पर मैंने खुद कोई व्याख्यान नही दिया, शायद कोई नोट तक नहीं लिखा। हां, conference में इस प्रस्ताव को second कर चुका हूं। मैं उसे तोड़ना भी चाहूं, तो आत्मा न तोड़ने देगी। मैं सत्य कहता हूं, यह रूपये लूं, तो मुझे इतनी मानसिक वेदना होगी कि शायद मैं इस आघात स बच ही न सकूं।

पांचवें– अब की conference आपको सभापति न बनाये तो उसका घोर अन्याय है।

यशोदानन्द—मैंने अपनी duty कर दी उसका recognition हो या न हो, मुझे इसकी परवाह नही। इतने में खबर हुई कि महाशय स्वामीदयाल आ पंहुचे । लोग उनका अभिवादन करने को तैयार हुए, उन्हें मसनद पर ला बिठाया और तिलक का संस्कार आरंम्भ हो गया। स्वामीदयाल ने एक ढाक के पत्तल पर नारियल, सुपारी, चावल पान आदि वस्तुएं वर के सामने रखीं। ब्राहृम्णों ने मंत्र पढें हवन हुआ और वर के माथे पर तिलक लगा दिया गया। तुरन्त घर की स्त्रियो ने मंगलाचरण गाना शुरू किया। यहां पहफिल में महाशय यशोदानन्द ने एक चौकी पर खड़े होकर दहेज की कुप्रथा पर व्याख्यान देना शुरू किया। व्याख्यान पहले से लिखकर तैयार कर लिया गया था। उन्होंने दहेज की ऐतिहासिक व्याख्या की थी।

पूर्वकाल में दहेज का नाम भी न थ। महाशयों ! कोई जानता ही न था कि दहेज या ठहरोनी किस चिड़िया का नाम है। सत्य मानिए, कोई जानता ही न था कि ठहरौनी है क्या चीज, पशु या पक्षी, आसमान में या जमीन में, खाने में या पीने में । बादशाही जमाने में इस प्रथा की बुंनियाद पड़ी। हमारे युवक सेनाओं में सम्मिलित होने लगे । यह वीर लोग थें, सेनाओं में जाना गर्व समझते थे। माताएं अपने दुलारों को अपने हाथ से शस्त्रों से सजा कर रणक्षेत्र भेजती थीं। इस भांति युवकों की संख्या कम होने लगी और लड़कों का मोल-तोल शुरू हुआ। आज यह नौवत आ गयी है कि मेरी इस तुच्छ –महातुच्छ सेवा पर पत्रों में टिप्पणियां हो रही है मानों मैंने कोई असाधारण काम किया है। मै कहता हूं ; अगर आप संसार में जीवित रहना चाहते हो, तो इस प्रथा क तुरन्त अन्त कीजिए।

एक महाशय ने शंका की—-क्या इसका अंत किये बिना हम सब मर जायेगें ?

यशोदानन्द-अगर ऐसा होता है तो क्या पूछना था, लोगो को दंड मिल जाता और वास्तव में ऐसा होना चाहिए। यह ईश्वर का अत्याचार है कि ऐसे लोभी, धन पर गिरने वाले, बुर्दा-फरोश, अपनी संतान का विक्रय करने वाले नराधम जीवित है। और समाज उनका तिरस्कार नही करता । मगर वह सब बुर्द-फरोश है——इत्यादि।

व्याख्यान बहुंतद लम्बा ओर हास्य भरा हुआ था। लोगों ने खूब वाह-वाह की । अपना वक्तव्य समाप्त करने के बाद उन्होने अपने छोटे लड़के परमानन्द को, जिसकी अवस्था ७ वर्ष की थी, मंच पर खड़ा किया। उसे उन्होनें एक छोटा-सा व्याख्यान लिखकर दे रखा था। दिखाना चाहते थे कि इस कुल के छोटे बालक भी कितने कुशाग्र बुद्वि है। सभा समाजों में बालकों से व्याख्यान दिलाने की प्रथा है ही, किसी को कुतूहल न हुआ।बालक बड़ा सुंदर, होनहार, हंसमुख था। मुस्कराता हुआ मंच पर आया और एक जेब से कागज निकाल कर बड़े गर्व के साथ उच्च स्वर में पढ़ने लगा…………

प्रिय बंधुवर,

नमस्कार !

आपके पत्र से विदित होता है कि आपको मुझ पर विश्वास नही है। मैं ईश्वर को साक्षी करके धन आपकी सेवा में इतनी गुप्त रीति से पहुंचेगा कि किसी को लेशमात्र भी सन्देह न होगा । हां केवल एक जिज्ञासा करने की धृष्टता करता हूं। इस व्यापार को गुप्त रखने से आपको जो सम्मान और प्रतिष्ठा – लाभ होगा और मेरे निकटवर्ती में मेरी जो निंदा की जाएगी, उसके उपलक्ष्य में मेरे साथ क्या रिआयत होगी ? मेरा विनीत अनुरोध है कि २५ में से ५ निकालकर मेरे साथ न्याय किया जाए………..।

महाशय यशोदानन्द घर में मेहमानों के लिए भोजन परसने का आदेश करने गये थे। निकले तो यह वाक्य उनके कानों में पड़ा—२५ में से ५ मेरे साथ न्याय किया कीजिए ।‘ चेहरा फक हो गया, झपट कर लड़के के पास गये, कागज उसके हाथ से छीन लिया और बौले— नालायक, यह क्या पढ़ रहा है, यह तो किसी मुवक्किल का खत है, जो उसने अपने मुकदमें के बारें में लिखा था। यह तू कहां से उठा लाया, शैतान जा वह कागज ला, जो तुझे लिखकर दिया गया था।

एक महाशय—–पढ़ने दीजिए, इस तहरीर में जो लुत्फ है, वह किसी दूसरी तकरीर में न होगा।

दूसरे—जादू वह जो सिर चढ़ के बोलें !

तीसरे—अब जलसा बरखास्त कीजिए । मैं तो चला।

चौथै—यहां भी चलतु हुए।

यशोदानन्द—बैठिए-बैठिए, पत्तल लगाये जा रहे है।

पहले—बेटा परमानन्द, जरा यहां तो आना, तुमने यह कागज कहां पाया ?

परमानन्द—बाबू जी ही तो लिखकर अपने मेज के अन्दर रख दिया था। मुझसे कहा था कि इसे पढना। अब नाहक मुझसे खफा रहे है।

यशोदानन्द—- वह यह कागज था कि सुअर ! मैंने तो मेज के ऊपर ही रख दिया था। तूने ड्राअर में से क्यों यह कागज निकाला ?

परमानन्द—मुझे मेज पर नहीं मिला ।

यशोदान्नद—तो मुझसे क्यों नहीं कहा, ड्राअर क्यों खोला ? देखो, आज ऐसी खबर लेता हूं कि तुम भी याद करोगे। पहले यह आकाशवाणी है।

दूसरे—-इस को लीडरी कहते है कि अपना उल्लू सीधा करो और नेकनाम भी बनो।

तीसरे—-शरम आनी चाहिए। यह त्याग से मिलता है, धोखेधड़ी से नहीं।

चौथे—मिल तो गया था, पर एक आंच की कसर रह गयी।

पांचवे—ईश्वर पांखंडियों को यों ही दण्ड देता है

यह कहते हुए लोग उठ खड़े हुए। यशोदानन्द समझ गये कि भंडा फूट गया, अब रंग न जमेगा। बार-बार परमानन्द को कुपित नेत्रों से देखते थे और डंडा तौलकर रह जाते थे। इस शैतान ने आज जीती-जिताई बाजी खो दी, मुंह में कालिख लग गयी, सिर नीचा हो गया। गोली मार देने का काम किया है। उधर रास्ते में मित्र-वर्ग यों टिप्पणियां करते जा रहे थे——-

एक ईश्वर ने मुंह में कैसी कालिमा लगायी कि हयादार होगा तो अब सूरत न दिखाएगा।

दूसरा–ऐसे-ऐसे धनी, मानी, विद्वान लोग ऐसे पतित हो सकते है। मुझे यही आश्चर्य है। लेना है तो खुले खजाने लो, कौन तुम्हारा हाथ पकड़ता है; यह क्या कि माल चुपके-चुपके उडाओ और यश भी कमाओ !

तीसरा–मक्कार का मुंह काला !

चौथा—यशोदानन्द पर दया आ रही है। बेचारे ने इतनी धूर्तता की, उस पर भी कलई खुल ही गयी। बस एक आंच की कसर रह गई।

प्रायश्चित मुंशी प्रेमचंद की कहानी

दफ्तर में ज़रा देर से आना अफसरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उत्तरी ही देर में आता है; और उतने ही सबेरे जाता भी है। चपरासी की हाजिरी चौबीसों घंटे की। वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता। अपना एवज़ देना पड़ता है। खैर, जब बरेली जिला-बोर्ड़ के हेड क्लर्क बाबू मदारीलाल ग्यारह बजे दफ्तर आये, तब मानो दफ्तर नींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड़ कर पैर-गाड़ी ली, अरदली ने दौड़कर कमरे की चिक उठा दी और जमादार ने डाक की किश्त मेज पर लाकर रख दी।

मदारीलाल ने पहला ही सरकारी लिफाफा खोला था कि उनका रंग फक हो गया। वे कई मिनट तक आश्चर्यान्वित हालत में खड़े रहे, मानो सारी ज्ञानेन्द्रियाँ शिथिल हो गयी हों। उन पर बड़े-बड़े आघात हो चुके थे; पर इतने बहदवास वे कभी न हुए थे। बात यह थी कि बोर्ड़ के सेक्रेटरी की जो जगह एक महीने से खाली थी, सरकार ने सुबोधचंद्र को वह जगह दी थी और सुबोधचंद्र वह व्यक्ति था, जिसके नाम ही से मदारीलाल को घृणा थी। वह सुबोधचंद्र, जो उनका सहपाठी था, जिस जक देने को उन्होंने कितनी ही चेष्टा की; पर कभी सफ़ल न हुए थे। वही सुबोध आज उनका अफ़सर होकर आ रहा था।

सुबोध की इधर कई सालों से कोई खबर न थी। इतना मालूम था कि वह फौज में भरती हो गया था। मदारीलाल ने समझा—वहीं मर गया होगा; पर आज वह मानो जी उठा और सेक्रेटरी होकर आ रहा था। मदारीलाल को उसकी मातहती में काम करना पड़ेगा। इस अपमान से तो मर जाना कहीं अच्छा था। सुबोध को स्कूल और कालेज की सारी बातें अवश्य ही याद होंगी। मदारीलाल ने उसे कालेज से निकलवा देने के लिए कई बार मंत्र चलाए, झूठे आरोप किये, बदनाम किया। क्या सुबोध सब कुछ भूल गया होगा? नहीं, कभी नहीं। वह आते ही पुरानी कसर निकालेगा। मदारी बाबू को अपनी प्राणरक्षा का कोई उपाय न सूझता था।

मदारी और सुबोध के ग्रहों में ही विरोध था। दोनों एक ही दिन, एक ही शाला में भरती हुए थे, और पहले ही दिन से दिल में ईर्ष्या और द्वेष की वह चिंगारी पड़ गयी, जो आज बीस वर्ष बीतने पर भी न बुझी थी। सुबोध का अपराध यही था कि वह मदारीलाल से हर एक बात में बढ़ा हुआ था। डील-डौल, रंग-रूप, रीति-व्यवहार, विद्या-बुद्धि ये सारे मैदान उसके हाथ थे। मदारीलाल ने उसका यह अपराध कभी क्षमा नहीं किया। सुबोध बीस वर्ष तक निरंतर उनके हृदय का कांटा बना रहा। जब सुबोध डिग्री लेकर अपने घर चला गया और मदारी फेल होकर इस दफ्तर में नौकर हो गये, तब उनका चित्त शांत हुआ। किन्तु जब यह मालूम हुआ कि सुबोध बसरे जा रहा है, जब तो मदारीलाल का चेहरा खिल उठा। उनके दिल से वह पुरानी फांस निकल गयी। पर हा हतभाग्य! आज वह पुराना नासूर शतगुण टीस और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी किस्मत सुबोध के हाथ में थी। ईश्वर इतना अन्यायी है! विधि इतना कठोर!

जब जरा चित्त शांत हुआ, तब मदारी ने दफ्तर के क्लर्को को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा — “अब आप लोग जरा हाथ-पांव संभाल कर रहियेगा। सुबोधचंद्र वे आदमी नहीं हें, जो भूलो को क्षमा कर दें?”

एक क्लर्क ने पूछा — “क्या बहुत सख्त है।“

मदारीलाल ने मुस्करा कर कहा — “वह तो आप लोगों को दो-चार दिन ही में मालूम हो जायेगा। मैं अपने मुँह से किसी की क्यों शिकायत करूं? बस, चेतावनी दे दी कि जरा हाथ-पांव संभाल कर रहियेगा। आदमी योग्य है, पर बड़ा ही क्रोधी, बड़ा दंभी। गुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। खुद हजारों हज़म कर जाये और डकार तक न ले; पर क्या मजाल कि कोइ मातहत एक कौड़ी भी हज़म करने जाये। ऐसे आदमी से ईश्वर ही बचाये! मैं तो सोच रहा हूँ कि छुट्टी लेकर घर चला जाऊं। दोनों वक्त घर पर हाजिरी बजानी होगी। आप लोग आज से सरकार के नौकर नहीं, सेक्रटरी साहब के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढ़ायेगा। कोई बाजार से सौदा-सुलुफ लायेगा और कोई उन्हें अखबार सुनायेगा। और चपरासियों के तो शायद दफ्तर में दर्शन ही न हों।”

इस प्रकार सारे दफ्तर को सुबोधचंद्र की तरफ से भड़का कर मदारीलाल ने अपना कलेजा ठंडा किया।

(2)

इसके एक सप्ताह बाद सुबोधचंद्र गाड़ी से उतरे, तब स्टेशन पर दफ्तर के सब कर्मचारियों को हाजिर पाया। सब उनका स्वागत करने आये थे। मदारीलाल को देखते ही सुबोध लपककर उनके गले से लिपट गये और बोले — “तुम खूब मिले भाई। यहाँ कैसे आये? ओह! आज एक युग के बाद भेंट हुई!”

मदारीलाल बोले — “यहाँ जिला-बोर्ड़ के दफ्तर में हेड-क्लर्क हूँ। आप तो कुशल से हैं?”

सुबोध — “अजी, मेरी न पूछो। बसरा, फ्रांस, मिश्र और न-जाने कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरा। तुम दफ्तर में हो, यह बहुत ही अच्छा हुआ। मेरी तो समझ ही में न आता था कि कैसे काम चलेगा। मैं तो बिल्कुल कोरा हूँ; मगर जहाँ जाता हूँ, मेरा सौभाग्य ही मेरे साथ जाता है। बसरे में सभी अफ़सर खुश थे। फांस में भी खूब चैन किये। दो साल में कोई पचीस हजार रूपये बना लाया और सब उड़ा दिया। वहाँ से आकर कुछ दिनों को-आपरेशन दफ्तर में मटरगश्त करता रहा। यहाँ आया, तब तुम मिल गये। (क्लर्को को देख कर) – “ये लोग कौन हैं?”

मदारीलाल के हृदय में बछिया-सी चल रही थीं। दुष्ट पच्चीस हजार रूपये बसरे में कमा लाया! यहाँ कलम घिसते-घिसते मर गये और पाँच सौ भी न जमा कर सके। बोले — “कर्मचारी हैं। सलाम करने आये है।“

सबोध ने उन सब लोगों से बारी-बारी से हाथ मिलाया और बोला — “आप लोगों ने व्यर्थ यह कष्ट किया। बहुत आभारी हूँ। मुझे आशा हे कि आप सब सज्जनों को मुझसे कोई शिकायत न होगी। मुझे अपना अफ़सर नहीं, अपना भाई समझिये। आप सब लोग मिलकर इस तरह काम कीजिए कि बोर्ड की नेकनामी हो और मैं भी सुख रहूं। आपके हेड क्लर्क साहब तो मेरे पुराने मित्र और लंगोटिया यार है।“

एक वाकचतुर क्लर्क ने कहा — “हम सब हुजूर के ताबेदार हैं। यथाशक्ति आपको असंतुष्ट न करेंगे; लेकिन आदमी ही है, अगर कोई भूल हो भी जाय, तो हुजूर उसे क्षमा करेंगे।“

सुबोध ने नम्रता से कहा — “यही मेरा सिद्धांत है और हमेशा से यही सिद्धांत रहा है। जहाँ रहा, मातहतों से मित्रों का-सा बर्ताव किया। हम और आज दोनों ही किसी तीसरे के गुलाम हैं। फिर रौब कैसा और अफ़सरी कैसी? हाँ, हमें नेकनीयत के साथ अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिए।“

जब सुबोध से विदा होकर कर्मचारी लोग चले, तब आपस में बातें होनी लगीं —

“आदमी तो अच्छा मालूम होता है।“

“हेड क्लर्क के कहने से तो ऐसा मालूम होता था कि सबको कच्चा ही खा जायेगा।“

“पहले सभी ऐसे ही बातें करते है।“

“ये दिखाने के दांत है।“

(3)

सुबोध को आये एक महीना गुजर गया। बोर्ड के क्लर्क, अरदली, चपरासी सभी उसके बर्ताव से खुश हैं। वह इतना प्रसन्नचित है, इतना नम्र है कि जो उससे एक बार मिला है, सदैव के लिए उसका मित्र हो जाता है। कठोर शब्द तो उनकी ज़बान पर आता ही नहीं। इंकार को भी वह अप्रिय नहीं होने देता; लेकिन द्वेष की आँखों में गुण और भी भयंकर हो जाता है।

सुबोध के ये सारे सदगुण मदारीलाल की आँखों में खटकते रहते हैं। उसके विरूद्ध कोई न कोई गुप्त षड्यंत्र रचते ही रहते हैं। पहले कर्मचारियों को भड़काना चाहा, सफल न हुए। बोर्ड के मेम्बरों को भड़काना चाहा, मुँह की खायी। ठेकेदारों को उभारने का बीड़ा उठाया, लज्जित होना पड़ा। वे चाहते थे कि भूस में आग लगाकर दूर से तमाशा देखें। सुबोध से यों हँस कर मिलते, यों चिकनी-चुपड़ी बातें करते, मानो उसके सच्चे मित्र है, पर घात में लगे रहते। सुबोध में सब गुण थे, पर आदमी पहचानना न जानते थे। वे मदारीलाल को अब भी अपना दोस्त समझते हैं।

एक दिन मदारीलाल सेक्रटरी साहब के कमरे में गए, तब कुर्सी खाली देखी। वे किसी काम से बाहर चले गए थे। उनकी मेज पर पाँच हजार के नोट पुलिदों में बंधे हुए रखे थे। बोर्ड के मदरसों के लिए कुछ लकड़ी के सामान बनवाये गये थे। उसी के दाम थे। ठेकेदार वसूली के लिए बुलाया गया था। आज ही सेक्रेटरी साहब ने चेक भेज कर खजाने से रूपये मंगवाये थे। मदारीलाल ने बरामदे में झांककर देखा, सुबोध कहीं नज़र आता नहीं। उनकी नीयत बदल गयी। ईर्ष्या में लोभ का सम्मिश्रण हो गया। कांपते हुए हाथों से पुलिंदे उठाये; पतलून की दोनों जेबों में भर कर तुरन्त कमरे से निकले ओर चपरासी को पुकार कर बोले — “बाबू जी भीतर है?”

चपरासी आप ठेकेदार से कुछ वसूल करने की खुशी में फूला हुआ था। सामने वाले तमोली के दुकान से आकर बोला — “जी नहीं, कचहरी में किसी से बातें कर रहे है। अभी-अभी तो गये हैं।“

मदारीलाल ने दफ्तर में आकर एक क्लर्क से कहा — “यह मिसिल ले जाकर सेक्रेटरी साहब को दिखाओ।“

क्लर्क मिसिल लेकर चला गया। ज़रा देर में लौट कर बोला — “सेक्रेटरी साहब कमरे में न थे। फाइल मेज पर रख आया हूँ।“

मदारीलाल ने मुँह सिकोड़ कर कहा — “कमरा छोड़ कर कहाँ चले जाया करते हैं? किसी दिन धोखा उठायेंगे।“

क्लर्क ने कहा — “उनके कमरे में दफ्तवालों के सिवा और जाता ही कौन है?”

मदारीलाल ने तीव्र स्वर में कहा — “तो क्या दफ्तरवाले सब के सब देवता हैं? कब किसकी नीयत बदल जाये, कोई नहीं कह सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर अच्छों-अच्छों की नीयतें बदलते देखी हैं। इस वक्त हम सभी साह हैं; लेकिन अवसर पाकर शायद ही कोई चूके। मनुष्य की यही प्रकृति है। आप जाकर उनके कमरे के दोनों दरवाजे बंद कर दीजिये।“

क्लर्क ने टाल कर कहा — “चपरासी तो दरवाजे पर बैठा हुआ है।“

मदारीलाल ने झुंझला कर कहा — “आप से मैं जो कहता हूँ, वह कीजिये। कहने लगे, चपरासी बैठा हुआ है। चपरासी कोई ऋषि है, मुनि है? चपरासी ही कुछ उड़ा दे, तो आप उसका क्या कर लेंगे? जमानत भी है तो तीन सौ की। यहाँ एक-एक कागज लाखों का है।“

यह कह कर मदारीलाल खुद उठे और दफ्तर के द्वार दोनों तरफ से बंद कर दिये। जब चित्त शांत हुआ, तब नोटों के पुलिंदे जेब से निकाल कर एक आलमारी में कागजों के नीचे छिपा कर रख दिये। फिर आकर अपने काम में व्यस्त हो गये।

सुबोधचंद्र कोई घंटे-भर में लौटे। तब उनके कमरे का द्वार बंद था। दफ्तर में आकर मुस्कराते हुए बोले — “मेरा कमरा किसने बंद कर दिया है, भाई क्या मेरी बेदखली हो गयी?”

मदारीलाल ने खड़े होकर मृदु तिरस्कार दिखाते हुए कहा —“साहब, गुस्ताखी माफ हो, आप जब कभी बाहर जायें, चाहे एक ही मिनट के लिए क्यों न हो, तब दरवाजा बंद कर दिया करें। आपकी मेज पर रूपये-पैसे और सरकारी कागज-पत्र बिखरे पड़े रहते हैं, न जाने किस वक्त किसकी नीयत बदल जाये। मैंने अभी सुना कि आप कहीं गये हैं, जब दरवाजे बंद कर दिये।“

सुबोधचंद्र द्वार खोल कर कमरे में गये और सिगार पीने लगे। मेज पर नोट रखे हुए है, इसकी खबर ही न थी।

सहसा ठेकेदार ने आकर सलाम किया। सुबोध कुर्सी से उठ बैठे और बोले — “तुमने बहुत देर कर दी, तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था। दस ही बजे रूपये मंगवा लिये थे। रसीद लिखवा लाये हो न?”

ठेकेदार — “हुजूर रसीद लिखवा लाया हूँ।“

सुबोध — “तो अपने रूपये ले जाओ। तुम्हारे काम से मैं बहुत खुश नहीं हूँ। लकड़ी तुमने अच्छी नहीं लगायी और काम में सफाई भी नहीं हैं। अगर ऐसा काम फिर करोंगे, तो ठेकेदारों के रजिस्टर से तुम्हारा नाम निकाल दिया जायेगा।“

यह कहकर सुबोध ने मेज पर निगाह डाली, तब नोटों के पुलिंदे न थे। सोचा, शायद किसी फाइल के नीचे दब गये हों। कुरसी के समीप के सब कागज उलट-पुलट डाले; मगर नोटो का कहीं पता नहीं। ये नोट कहाँ गये! अभी तो यही मैंने रख दिये थे। जा कहाँ सकते हें। फिर फाइलों को उलटने-पुलटने लगे। दिल में ज़रा-ज़रा धड़कन होने लगी। सारी मेज़ के कागज छान डाले, पुलिंदों का पता नहीं।

तब वे कुरसी पर बैठकर इस आधे घंटे में होने वाली घटनाओं की मन में आलोचना करने लगे—‘चपरासी ने नोटों के पुलिंदे लाकर मुझे दिये, खूब याद है। भला, यह भी भूलने की बात है और इतनी जल्द! मैने नोटों को लेकर यहीं मेज पर रख दिया, गिना तक नहीं। फिर वकील साहब आ गये, पुराने मुलाकाती हैं। उनसे बातें करता ज़रा उस पेड़ तक चला गया। उन्होंने पान मंगवाये, बस इतनी ही देर रहुई। जब गया हूँ, तब पुलिंदे रखे हुए थे। खूब अच्छी तरह याद है। तब ये नोट कहाँ गायब हो गये? मैंने किसी संदूक, दराज या आलमारी में नहीं रखे। फिर गये तो कहाँ? शायद दफ्तर में किसी ने सावधानी के लिए उठाकर रख दिये हों, यही बात है। मैं व्यर्थ ही इतना घबरा गया। छि:!”

तुरन्त दफ्तर में आकर मदारीलाल से बोले — “आपने मेरी मेज पर से नोट तो उठा कर नहीं रख दिये?”

मदारीलाल ने भौंचक्के होकर कहा — “क्या आपकी मेज पर नोट रखे हुए थे? मुझे तो खबर ही नहीं। अभी पंडित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे, तब आपको कमरे में न देखा। जब मुझे मालूम हुआ कि आप किसी से बातें करने चले गये हैं, तब दरवाजे बंद करा दिये। क्या कुछ नोट नहीं मिल रहे हैं?”

सुबोध आँखें फैलाकर बोले — “अरे साहब, पूरे पाँच हजार के है। अभी-अभी चेक भुनाया है।“

मदारीलाल ने सिर पीट कर कहा — “पूरे पाँच हजार! हे भगवान! आपने मेज़ पर खूब देख लिया है?”

“अजी पंद्रह मिनट से तलाश कर रहा हूँ।“

“चपरासी से पूछ लिया कि कौन-कौन आया था?”

“आइए, ज़रा आप लोग भी तलाश कीजिये। मेरे तो होश उड़े हुए है।“

सारा दफ्तर सेक्रेटरी साहब के कमरे की तलाशी लेने लगा। मेज, आलमारियाँ, संदूक सब देखे गये। रजिस्टरों के वर्क उलट-पुलट कर देंखे गये; मगर नोटों का कहीं पता नहीं। कोई उड़ा ले गया, अब इसमें कोई शुबहा न था। सुबोध ने एक लंबी सांस ली और कुर्सी पर बैठ गये। चेहरे का रंग फक हो गया। ज़रा-सा मुँह निकल आया। इस समय कोई उन्हें देखता, तो समझता कि महीनों से बीमार है।

मदारीलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा — “गजब हो गया और क्या! आज तक कभी ऐसा अंधेर न हुआ था। मुझे यहाँ काम करते दस साल हो गये, कभी धेले की चीज भी गायब न हुई। मैं आपको पहले दिन सावधान कर देना चाहता था कि रूपये-पैसे के विषय में होशियार रहियेगा; मगर सुध न थी, ख़याल न रहा। ज़रूर बाहर से कोई आदमी आया और नोट उड़ाकर गायब हो गया। चपरासी का यही अपराध है कि उसने किसी को कमरे में जोने ही क्यों दिया? वह लाख कसम खाये कि बाहर से कोई नहीं आया; लेकिन में इसे मान नहीं सकता। यहाँ से तो केवल पण्डित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे; मगर दरवाजे ही से झांककर चले आये।“

सोहनलाल ने सफाई दी — “मैंने तो अंदर कदम ही नहीं रखा, साहब! अपने जवान बेटे की कसम खाता हूँ, जो अंदरर कदम रखा भी हो”।

मदारीलाल ने माथा सिकोड़कर कहा — “आप व्यर्थ में कसम क्यों खाते हैं। कोई आपसे कुछ कहता? (सुबोध के कान में) बैंक में कुछ रूपये हों, तो निकाल कर ठेकेदार को दे लिये जाये, वरना बड़ी बदनामी होगी। नुकसान तो हो ही गया, अब उसके साथ अपमान क्यों हो?”

सुबोध ने करूण-स्वर में कहा — “बैंक में मुश्किल से दो-चार सौ रूपये होंगे, भाईजान! रूपये होते तो क्या चिंता थी। समझ लेता, जैसे पच्चीस हजार उड़ गये, वैसे ही तीस हजार भी उड़ गये। यहाँ तो कफ़न को भी कौड़ी नहीं।“

उसी रात को सुबोधचंद्र ने आत्महत्या कर ली। इतने रूपयों का प्रबंध करना उनके लिए कठिन था। मृत्यु के परदे के सिवा उन्हें अपनी वेदना, अपनी विवशता को छिपाने की और कोई आड़ न थी।

(4)

दूसरे दिन प्रात: चपरासी ने मदारीलाल के घर पहुँचकर आवाज दी। मदारी को रात-भर नींद न आयी थी। घबरा कर बाहर आये। चपरासी उन्हें देखते ही बोला — “हुजूर! बड़ा गजब हो गया, सेक्रेटरी साहब ने रात को गर्दन पर छुरी फेर ली।“

मदारीलाल की आँखें ऊपर चढ़ गयीं, मुँह फैल गया ओर सारी देह सिहर उठी, मानो उनका हाथ बिजली के तार पर पड़ गया हो।

“छुरी फेर ली?”

“जी हाँ, आज सबेरे मालूम हुआ। पुलिसवाले जमा हैं। आपको बुलाया है।“

“लाश अभी पड़ी हुई हैं?”

“जी हाँ, अभी डाक्टरी होने वाली हैं।“

“बहुत से लोग जमा हैं?”

“सब बड़े-बड़े अफ़सर जमा हैं। हुजूर, लाश की ओर ताकते नहीं बनता। कैसा भलामानुष हीरा आदमी था! सब लोग रो रहे हैं। छोटे-छोटे दो बच्चे हैं, एक सयानी लड़की हे ब्याहने लायक। बहूजी को लोग कितना रोक रहे हैं, पर बार-बार दौड़ कर लाश के पास आ जाती हैं। कोई ऐसा नहीं हे, जो रूमाल से आँखें न पोछ रहा हो। अभी इतने ही दिन आये हुए, पर सबसे कितना मेल-जोल हो गया था। रूपये की तो कभी परवाह ही नहीं थी। दिल दरिया था!”

मदारीलाल के सिर में चक्कर आने लगा। द्वारा की चौखट पकड़ कर अपने को संभाल न लेते, तो शायद गिर पड़ते। पूछा — “बहूजी बहुत रो रही थीं?”

“कुछ न पूछिए, हुजूर। पेड़ की पत्तियाँ झड़ी जाती हैं। आँख फूलकर गूलर हो गयी है।“

“कितने लड़के बतलाये तुमने?”

“हुजूर, दो लड़के हैं और एक लड़की।“

“‘नोटों के बारे में भी बातचीत हो रही होगी?”

“जी हाँ, सब लोग यही कहते हें कि दफ्तर के किसी आदमी का काम है। दारोगा जी तो सोहनलाल को गिरफ्तार करना चाहते थे; पर शायद आपसे सलाह लेकर करेंगे। सेक्रेटरी साहब तो लिख गए हैं कि मेरा किसी पर शक नहीं है।“

“‘क्या सेक्रेटरी साहब कोई खत लिखकर छोड़ गये है?”

“हाँ, मालूम होता है, छुरी चलाते बखत याद आयी कि शुबहे में दफ्तर के सब लोग पकड़ लिए जायेंगे। बस, कलक्टर साहब के नाम चिट्ठी लिख दी।“

“चिट्ठी में मेरे बारे में भी कुछ लिखा है? तुम्हें कुछ क्या मालूम होगा?”

“हुजूर, अब मैं क्या जानूं, मगर इतना सब लोग कहते थे कि आपकी बड़ी तारीफ लिखी है।“

मदारीलाल की सांस और तेज हो गयी। आँखों से आँसू की दो बड़ी-बड़ी बूंदे गिर पड़ी। आँखें पोंछते हुए बोले — “वे ओर मैं एक साथ के पढ़े थे, नंदू! आठ-दस साल साथ रहा। साथ उठते-बैठते, साथ खाते, साथ खेलते। बस, इसी तरह रहते थे, जैसे दो सगे भाई रहते हों। खत में मेरी क्या तरीफ लिखी है? मगर तुम्हें क्या मालूम होगा?”

“आप तो चल ही रहे है, देख लीजियेगा।“

“कफन का इंतज़ाम हो गया है?”

“नहीं हुजूर, कहा न कि अभी लाश की डाक्टरी होगी। मगर अब जल्दी चलिए। ऐसा न हो, कोई दूसरा आदमी बुलाने आता हो।“

“हमारे दफ्तर के सब लोग आ गये होंगे?”

‘जी हाँ; इस मुहल्लेवाले तो सभी थे।“

“मदारीलाल जब सुबोधचंद्र के घर पहुँचे, तब उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि सब लोग उनकी तरफ संदेह की आँखों से देख रहे हैं। पुलिस इंस्पेक्टर ने तुरन्त उन्हें बुला कर कहा — “आप भी अपना बयान लिखा दें और सबके बयान तो लिख चुका हूँ।“

मदारीलाल ने ऐसी सावधानी से अपना बयान लिखाया कि पुलिस के अफ़सर भी दंग रह गये। उन्हें मदारीलाल पर शुबहा होता था, पर इस बयान ने उसका अंकुर भी निकाल डाला।

इसी वक्त सुबोध के दोनों बालक रोते हुए मदारीलाल के पास आये और कहा — “चलिए, आपको अम्मा बुलाती हैं। दोनों मदारीलाल से परिचित थे। मदारीलाल यहाँ तो रोज ही आते थे; पर घर में कभी नहीं गये थे। सुबोध की स्त्री उनसे पर्दा करती थी। यह बुलावा सुनकर उनका दिल धड़क उठा—कही इसका मुझ पर शुबहा न हो। कहीं सुबोध ने मेरे विषय में कोई संदेह न प्रकट किया हो। कुछ झिझकते और कुछ डरते हुए भीतर गए, तब विधवा का करुण-विलाप सुन कर कलेजा कांप उठा। इन्हें देखते ही उस अबला के आँसुओं का कोई दूसरा स्रोत खुल गया और लड़की तो दौड़कर इनके पैरों से लिपट गई। दोनों लड़को ने भी घेर लिया। मदारीलाल को उन तीनों की आँखों में ऐसी अथाह वेदना, ऐसी विदारक याचना भरी हुई मालूम हुई कि वे उनकी ओर देख न सके। उनकी आत्मा अन्हें धिक्कारने लगी। जिन बेचारों को उन पर इतना विश्वास, इतना भरोसा, इतनी अत्मीयता, इतना स्नेह था, उन्हीं की गर्दन पर उन्होंने छुरी फेरी! उन्हीं के हाथों यह भरा-पूरा परिवार धूल में मिल गया! इन असहायों का अब क्या हाल होगा? लड़की का विवाह करना है; कौन करेगा? बच्चों के लालन-पालन का भार कौन उठाएगा? मदारीलाल को इतनी आत्मग्लानि हुई कि उनके मुँह से तसल्ली का एक शब्द भी न निकला। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि मेरे मुख में कालिख पुती है, मेरा कद कुछ छोटा हो गया है। उन्होंने जिस वक्त नोट उड़ाये थे, उन्हें गुमान भी न था कि उसका यह फल होगा। वे केवल सुबोध की जांच करना चाहते थे, उनका सर्वनाश करने की इच्छा न थी।

शोकातुर विधवा ने सिसकते हुए कहा – “भैया जी, हम लोगों को वे मझधार में छोड़ गये। अगर मुझे मालूम होता कि मन में यह बात ठान चुके हैं, तो अपने पास जो कुछ था; वह सब उनके चरणों पर रख देती। मुझसे तो वे यही कहते रहे कि कोई न कोई उपाय हो जायेगा। आप ही के मार्फत वे कोई महाजन ठीक करना चाहते थे। आपके ऊपर उन्हें कितना भरोसा था कि कह नहीं सकती।“

मदारीलाल को ऐसा मालूम हुआ कि कोई उनके हृदय पर नश्तर चला रहा है। उन्हें अपने कंठ में कोई चीज फंसी हुई जान पड़ती थी।

रामेश्वरी ने फिर कहा — “रात सोये, तब खूब हँस रहे थे। रोज की तरह दूध पिया, बच्चो को प्यार किया, थोड़ी देर हारमोनियम बजाया और तब कुल्ला करके लेटे। कोई ऐसी बात न थी, जिससे लेश्मात्र भी संदेह होता। मुझे चिंतित देखकर बोले—तुम व्यर्थ घबराती हों, बाबू मदारीलाल से मेरी पुरानी दोस्ती है। आखिर वह किस दिन काम आयेगी? मेरे साथ के खेले हुए हैं। इन नगर में उनका सबसे परिचय है। रूपयों का प्रबंध आसानी से हो जायेगा। फिर न जाने कब मन में यह बात समायी। मैं नसीबों-जली ऐसी सोयी कि रात को मिनकी तक नहीं। क्या जानती थी कि वे अपनी जान पर खेले जायेंगे?

मदारीलाल को सारा विश्व आँखों में तैरता हुआ मालूम हुआ। उन्होंने बहुत जब्त किया; मगर आँसुओं के प्रभाव को न रोक सके।

रामेश्वरी ने आँखें पोंछकर फिर कहा — “भैया जी, जो कुछ होना था, वह तो हो चुका; लेकिन आप उस दुष्ट का पता ज़रूर लगाइए, जिसने हमारा सर्वनाश कर दिया है। यह दफ्तर ही के किसी आदमी का काम है। वे तो देवता थे। मुझसे यही कहते रहे कि मेरा किसी पर संदेह नहीं है, पर है यह किसी दफ्तरवाले का ही काम। आप से केवल इतनी विनती करती हूँ कि उस पापी को बचकर न जाने दीजियेगा। पुलिसवाले शायद कुछ रिश्वत लेकर उसे छोड़ दें। आपको देखकर उनका यह हौसला न होगा। अब हमारे सिर पर आपके सिवा कौन है। किससे अपना दु:ख कहें? लाश की यह दुर्गति होनी भी लिखी थी।“

मदारीलाल के मन में एक बार ऐसा उबाल उठा कि सब कुछ खोल दें। साफ कह दें, मैं ही वह दुष्ट, वह अधम, वह पापी हूँ। विधवा के पैरों पर गिर पड़ें और कहें, वही छुरी इस हत्यारे की गर्दन पर फेर दो। पर ज़बान न खुली; इसी दशा में बैठे-बैठे उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि वे जमीन पर गिर पड़े।

(5)

तीसरे पहर लाश की परीक्षा समाप्त हुई। अर्थी जलाशय की ओर चली। सारा दफ्तर, सारे हुक्काम और हजारों आदमी साथ थे। दाह-संस्कार लड़कों को करना चाहिए था, पर लड़के नाबालिग थे। इसलिए विधवा चलने को तैयार हो रही थी कि मदारीलाल ने जाकर कहा — “बहूजी, यह संस्कार मुझे करने दो। तुम क्रिया पर बैठ जाओगी, तो बच्चों को कौन संभालेगा। सुबोध मेरे भाई थे। ज़िन्दगी में उनके साथ कुछ सलूक न कर सका, अब ज़िन्दगी के बाद मुझे दोस्ती का कुछ हक अदा कर लेने दो। आखिर मेरा भी तो उन पर कुछ हक था।“

रामेश्वरी ने रोकर कहा — “आपको भगवान ने बड़ा उदार हृदय दिया है भैया जी, नहीं तो मरने पर कौन किसको पूछता है। दफ्तर के ओर लोग जो आधी-आधी रात तक हाथ बांधे खड़े रहते थे, झूठी बात पूछने न आये कि ज़रा ढाढ़स होता।“

मदारीलाल ने दाह-संस्कार किया। तेरह दिन तक क्रिया पर बैठे रहे। तेरहवें दिन पिंडदान हुआ; ब्रहामणों ने भोजन किया, भिखरियों को अन्न-दान दिया गया, मित्रों की दावत हुई, और यह सब कुछ मदारीलाल ने अपने खर्च से किया। रामेश्वरी ने बहुत कहा कि आपने जितना किया उतना ही बहुत है। अब मैं आपको और ज़ेरबार (अहसानमंद, आभारी) नहीं करना चाहती। दोस्ती का हक इससे ज्यादा और कोई क्या अदा करेगा, मगर मदारीलाल ने एक न सुनी। सारे शहर में उनके यश की धूम मच गयीं, मित्र हो तो ऐसा हो।

सोलहवें दिन विधवा ने मदारीलाल से कहा — “भैया जी, आपने हमारे साथ जो उपकार और अनुग्रह किये हें, उनसे हम मरते दम तक उऋण नहीं हो सकते। आपने हमारी पीठ पर हाथ न रखा होता, तो न-जाने हमारी क्या गति होती। कहीं रूख की भी छांह तो नहीं थी। अब हमें घर जाने दीजिये। वहाँ देहात में खर्च भी कम होगा और कुछ खेती बारी का सिलसिला भी कर लूंगी। किसी न किसी तरह विपत्ति के दिन कट ही जायेंगे। इसी तरह हमारे ऊपर दया रखियेगा।“

मदारीलाल ने पूछा — “घर पर कितनी जायदाद है?”

रामेश्वरी — “जायदाद क्या है, एक कच्चा मकान है और दस-बारह बीघे की काश्तकारी है। पक्का मकान बनवाना शुरू किया था; मगर रूपये पूरे न पड़े। अभी अधूरा पड़ा हुआ है। दस-बारह हजार खर्च हो गये और अभी छत पड़ने की नौबत नहीं आयी।“

मदारीलाल — “कुछ रूपये बैंक में जमा हैं, या बस खेती ही का सहारा है?”

विधवा — “जमा तो एक पाई भी नहीं हैं, भैया जी! उनके हाथ में रूपये रहने ही नहीं पाते थे। बस, वही खेती का सहारा है।“

मदारीलाल — “तो उन खेतों में इतनी पैदावार हो जायेगी कि लगान भी अदा हो जाये ओर तुम लोगो की गुज़र-बसर भी हो?”

रामेश्वरी — “और कर ही क्या सकते हैं, भैया जी! किसी न किसी तरह ज़िन्दगी तो काटनी ही है। बच्चे न होते तो मैं ज़हर खा लेती।“

मदारीलाल — “और अभी बेटी का विवाह भी तो करना है।“

विधवा — “उसके विवाह की अब कोई चिंता नहीं। किसानों में ऐसे बहुत से मिल जायेंगे, जो बिना कुछ लिये-दिये विवाह कर लेंगे।“

मदारीलाल ने एक क्षण सोचकर कहा — “अगर में कुछ सलाह दूं, तो उसे मानेंगी आप?”

रामेश्वरी — “भैया जी, आपकी सलाह न मानूंगी, तो किसकी सलाह मानूंगी और दूसरा है ही कौन?”

मदारीलाल — “तो आप अपने घर जाने के बदले मेरे घर चलिये। जैसे मेरे बाल-बच्चे रहेंगें, वैसे ही आप के भी रहेंगे। आपको कष्ट न होगा। ईश्वर ने चाहा तो कन्या का विवाह भी किसी अच्छे कुल में हो जायेगा।“

विधवा की आँखें सजल हो गयीं। बोली — “मगर भैया जी, सोचिये…..”

मदारीलाल ने बात काट कर कहा — “मैं कुछ न सोचूंगा और न कोई उज्र सुनूंगा। क्या दो भाइयों के परिवार एक साथ नहीं रहते? सुबोध को मैं अपना भाई समझता था और हमेशा समझूंगा।“

विधवा का कोई उज्र न सुना गया। मदारीलाल सबको अपने साथ ले गये और आज दस साल से उनका पालन कर रहे है। दोनों बच्चे कालेज में पढ़ते है और कन्या का एक प्रतिष्ठित कुल में विवाह हो गया है। मदारीलाल और उनकी स्त्री तन-मन से रामेश्वरी की सेवा करते हैं और उनके इशारों पर चलते हैं। मदारीलाल सेवा से अपने पाप का प्रायश्चित कर रहे हैं।

रंगीले बाबू मुंशी प्रेमचंद की कहानी

बाबू रसिकलाल को मैं उस वक्त से जानता हूँ, जब वह लॉ कॉलेज में पढ़ते थे। मेरे सामने ही वह वकील हुए और आनन-फानन चमके। देखते-देखते बंगला बन गया, जमीन खरीद ली और शहर के रईसों में शुमार में शुमार होने लगे, लेकिन मुझे न जाने क्यों उनके रंग-ढंग कुछ जंचते न थे। मैं यह नहीं देख सकता कि कोई भला आदमी ख्वाहमख्वाह टेढ़ी टोपी लगाकर निकले या सुरमा लगाकर, मांग निकालकर, मुंह को पान से फुलाकर, गले मे मोतिया या बेले के गजरे डाले, तंजेब का चुन्नटदार कुरता और महीन धोती पहने बाजार में कोठों की ताक-झांक करता, ठट्ठे मारता निकले। मुझे उससे चिढ़ हो जाती है।

वह मेरे पास म्यूनिसिपल मेम्बरी के लिए वोट मांगने आये तो कभी न दूं, उससे याराना निभाना तो दूर की बात है। भले आदमी जरा गंभीर, जरा सादगी-पसंद देखना चाहता हूँ। अगर मुझे किसी मुकदमे में वकील करना पड़े, तो मैं ऐसे आदमी को कभी न करूं, चाहे वह रासबिहारी घोष ही का-सा कानूनदां क्यों न हो। रसिकलाल इसी तरह के रंगीले आदमी हैं। उनकी तर्क-शक्ति ऊँचे दर्ज़े की है, मानता हूँ। ज़िरह भी अच्छी करते हैं, यह भी मुझे स्वीकार है, लेकिन सीधी टोपी लगाने और सीधी चाल चलने से वकालत कुछ ठंडी न पड़ जायेगी। मेरा तो खयाल यह है कि बांकपन छोड़कर भले आदमी बन जाये, तो उनकी प्रैक्टिस दूनी हो सकती हैम लेकिन अपने को क्या पड़ी है, किसी की बातों में दखल दें?

जब कभी सामना हो जाता है, तो मैं दूसरी ओर ताकने लगता हूँ या किसी गली में हो रहता हूँ। मैं सड़क पर उनसे बातें करना मुनासिब नहीं समझता। क्या हुआ, वह नामी वकील हैं और मैं बेचारा स्कूल-मास्टर हूँ? मुझे उनसे किसी तरह का द्वेष नहीं। उन्होंने मेरा क्या बिगाड़ा है, जो मैं उनसे जलूं? मेरी तो वह बड़ी इज्जत और खातिर करते हैं। अपनी लड़की की शादी में मैं उनसे दरियाँ और दूसरा सामान मांगने गया था। उन्होंने दो ठेले भर दरियाँ, कालीनें, जाजिम, चेकियाँ, मसनदें भेज दीं। नहीं, मुझे उनसे जरा भी द्वेष नहीं- बहुत दिनों के परिचय के नाते मुझे उनसे स्नेह है, लेकिन उनका यह बांकपन मुझे अच्छा नहीं लगता। वह चलते हैं, तो ऐसा जान पड़ता है, जैसे दुनिया को ललकारते चलते हों – देखूं मेरा कोई क्या कर सकता है? मुझे किसी की परवाह नहीं है। एक बार मुझे स्टेशन पर मिले। लपककर मेरे कंधे पर ही हाथ रख दिया- ‘आप तो मास्टर साहब, कभी नज़र नहीं आते। कभी भला साल में एक-आध बार तो दर्शन दे दिया कीजिए।’ मैंने अपना कंधा छुड़ाते हुए कहा – ‘क्या करें, साहब अवकाश ही नहीं मिलता।’ बस, आपने झट से बाजारी शेर पढ़ा –

तुम्हें गैरों से कब फ़ुरसत,

हम अपने गम से कब खाली?

चलो, बस हो चुका मिलना,

न तुम खाली न हम खाली।

मैं हँस तो दिया- जो आदमी अपना लिहाज करे, उससे कोई कैसे रूखाई करे? फिर बड़े आदमियों से बिगाड़ करना नहीं चाहता, न जाने कब अपनी गरज लेकर उनके पास जाना पड़े। लेकिन मुझे उनकी यह बेतकल्लुफी कुछ अच्छी न लगी। यों मैं न कोई तपस्वी हूँ, न जाहिद। अरसिक होना उस बाकपन से भी बुरा है। शुष्क जीवन भी कोई जीवन है, जिसमें विनोद के लिए स्थान न हो? वन की शोभा हरे-भरे, सरस वृक्षों से है, सूखे हुए ठूंठों से नहीं, लेकिन मैं चाहता हूँ, आदमी जो कुछ करे छिपाकर करे। शराब पीना चाहते हो, पियो, मगर पियो एकांत में, इसकी क्या ज़रूरत कि शराब में मस्त होकर बहकते फिरो? रूप के उपासक बनना चाहते हो, बनो। लेकिन इसकी क्या ज़रूरत है कि वेश्याओं को दायें-बायें बैठाये मोटर में अपने छैलपन का ढिंढोरा पीटते फिरो? फिर रसिकता की उम्र भी होती है। जब लड़के जवान हो गये, लड़कियों की शादी हो गई, बाल पक चले, तो मेरे खयाल में आदमी को कुछ गंभीर हो जाना चाहिए। आपका दिल अभी जवान है, बहुत अच्छी बात है, मैं तुम्हें इस पर बधाई देता हूँ। वासना कभी बूढ़ी नहीं होती, मेरा तो अनुभव है कि उम्र के साथ-साथ वह भी प्रगाढ़ होती जाती है, लेकिन इस उम्र में कुलेलें करना मुझे ओछापन मालूम होता है। सींग कटाकर बछड़ा बनने वाली मनोवृत्ति का मैं कायल नहीं। कोई किसी का क्या कर लेगा? लेकिन चार भले आदमी उंगली उठायें, ऐसा काम क्यों करें? तुम्हें भगवान ने संपन्न बनाया है, बहुत अच्छी बात है, लेकिन अपनी संपन्नता को इस विपन्न संसार में दिखाते फिरना, जो क्षुधा से व्याकुल हैं, उनके सामने रसगुल्ले उड़ाना, इसमें न तो रसिकता है, न आदमियता।

रसिकलाल की बड़ी लड़की का विवाह था। मथुरा से बारात आयी थी। ऐसे ठाठ की बारात यहाँ शायद ही कभी आयी हो। बड़ी धर्मशाला में जनवासा था। वर का पिता किसी रियासत का दीवान था। मैं भी बारातियों की सेवा-सत्कार में लगा हुआ था। एक हज़ार आदमी से कम न थे। इतने आदमियों का सत्कार करना हँसी नहीं है। यहाँ तो किसी बारात में से पचास आदमी आ जाते हैं, तो अच्छी तरह ख़ातिर नहीं हो पाती। फिर बारातियों के मिजाज का क्या कहना? सभी तानाशाह बन जाते हैं। कोई चमेली का तेल मांगता है, कोई आंवले का, कोई केशरंजना, कोई शराब मांगता है, कोई अफीम। साबुन चाहिए, इत्र चाहिए। एक हजार आदमियों के खाने का प्रबंध करना कितना कठिन है। मैं समझता हूँ, 20-25 हज़ार के वारे-न्यारे हुए होंगे, लेकिन रसिकलाल के माथे पर शिकन न आयी। वही बांकपन था, वही विनोद, वही बेफिक्री। न झुंझलाना, न बिगड़ना। बारातियों की ओर से ऐसी-ऐसी बेहूदा फरमाइशें होती थीं कि हमें गुस्सा आ जाता था। पाव-आध पाव भांग बहुत है, यह पंसेरी भर भांग लेकर क्या उनकी धूनी देंगे? जब सिनेमा के एक से अव्वल दरजे के टिकटों की फरमाईश हुई, तो मुझसे न रहा गया। रसिकलाल को खूब डांट बताई, और उसी क्रोध में जनासे की ओर चला कि एक-एक को फटकारूं। लड़के का ब्याह करने आये हैं या किसी भले आदमी की इज्जत बिगाड़ने? एक दिन बगैर सिनेमा देखे नहीं रहा जाता? ऐसे ही बड़े शौकीन हैं, तो जेब से पैसा क्यों नहीं खर्च करते? लेकिन रसिकलाल खड़े हँस रहे थे। भाईसाहब, क्यों इतना बिगड़ रहे हो? ये लोग तुम्हारे मेहमान हैं, मेहमान दस जूते भी लगाये तो बुरा न मानिये। यह सब जिन्दगी के तमाशे हैं। तमाशे में हम खुश होने जाते हैं। वहाँ रोना भी पड़े, तो उसमें भी आनंद है। लपककर सिनेमाघर से से टिकट ला दीजिए, सौ-दो से रूपये का मुँह न देखिए। मैंने मन में कहा, मुफ्त का धन बटोरा है, तो लुटाओ और नाम लूटो। यह कोई सत्कार नहीं है कि मेहमान की गुलामी की जाये। मेहमान उसी वक्त तक मेहमान है, जब तक वह मेहमान की तरह रहे। जब रौब जमाने लगे, बेइज्जती करने पर आमादा हो जाये, वह मेहमान नहीं शैतान है।

इसके तीन महीने बाद सुना कि रसिकलाल का दामाद मर गया, वही जिसकी नयी शादी हुई थी। सिविल सर्विस के लिए इंग्लैण्ड गया हुआ था। वहीं न्यूमोनिया हो गया। यह खबर सुनते ही मुझे रोमांच हो गया। उस युवक की सूरत आँखों में दौड़ गयी। कितना सौम्य, कितना प्रतिभाशाली लड़का था और मरा जाकर इंग्लैण्ड में कि घरवाले देख भी न सके और उस लड़की की क्या दशा होगी, जिसका सर्वनाश हो गया? वाह रे दयालु भगवान्! और वाह रे तुम्हारी लीला! प्राणियों की होली बनाकर उसकी सूरत देखते ही मन की कुछ ऐसी दशा हुई कि चिंघाड़ मारकर रो पड़ा। रसिकलाल आरामकुर्सी पर लेटे हुए थे। उठकर मुझे गले लगा लिया और उसी स्थिर, अविचलित, निर्द्वन्द्व भाव से बोले, ‘वाह मास्टर साहब, आपने ने तो बालकों को भी मात कर दिया, जिनकी मिठाई कोई छीनकर खा जाये, तो रोने लगते हैं? बालक तो इसलिए रोता है कि उसके बदले में दूसरी मिठाई मिल जाये। आप तो ऐसी चीज के लिए रो रहे हैं, जो किसी तरह मिल ही नहीं सकती। अरे साहब, यहाँ बेहया बनकर रहिये। मार खाते जाइए और मूंछों पर ताव देते जाइये। मज़ा तो तब है कि जल्लाद के पैरों तले आकर भी वहीं अकड़ बनी रहे। अगर ईश्वर है, मुझे तो कुछ मालूम नहीं, लेकिन सुनता हूँ; कि वह दयालु है और दयालु ईश्वर भला निर्दयी कैसे हो सकता है? वह किसे मारता है, किसे जिलाता है, हमसे मतलब नहीं। उसके खिलौने हैं, खेले या तोड़े, हम क्यों उसके बीच में दखल दें? वह हमारा दुश्मन नहीं, न जालिम बादशाह है कि हमें सताकर खुश हो। मेरा लड़का घर में आग भी लगा दे, तो मैं उसका दुश्मन न बनूंगा। मैंने तो उसे पाल-पोस कर बड़ा किया है, उससे क्या दुश्मनी करूं? भला ईश्वर कभी निर्दयी हो सकता है, जिसके प्रेम का स्वरूप् यह ब्रह्माण्ड है? अगर ईश्वर नहीं है, मुझे मालूम नहीं, कोई ऐसी शक्ति है, जिसे विपत्ति में आनंद मिलता है, तो साहब यहाँ रोने वाले नहीं। हाथों में ताकत होती है और दुश्मन नज़र आता, तो हम भी कुछ जवांमर्दी दिखाते। अब अपनी बहादुरी दिखाने का इसके सिवा और क्या साधन है कि मार खाते जाओ और हँसते जाओ, अकड़ते जाओ। रोये तो अपनी हार को स्वीकार करेंगे। मार ले साले, जितना चाहे मार ले, लेकिन हँसते ही रहेंगे। मक्कार भी है, जादूगर भी। छिपकर वार करता है। आ जाय सामने तो दिखाऊं। हमें तो अपने बेचारे शायरों की अदा पसंद है, जो कब्र में भी माशूक के पाजेब की झंकार सुनकर मस्त होते रहते हैं।’

इसके बाद रसिकलाल ने उर्दू शेरों का तांता बांध दिया और इस तरह तन्मय होकर उनका आनंद उठाने लगे, मानो कुछ हुआ ही नहीं है। फिर बोले, ”लड़की रो रही है।” मैंने कहा, ऐसे बेवफा के लिए क्या रोना, जो तुम्हें छोड़कर चल दिया। अगर उससे प्रेम है, तो रोने की कोई जरूरत नहीं, प्रेम तो आनंद की वस्तु है। अगर कहो, क्या दिल नहीं मानता, तो दिल को मनाओ। बस, दु:खी मत हो। दु:खी होना ईश्वर का अपमान करना है, और मानवता को कलंकित करना।

मैं रसिकलाल का मुँह ताकने लगा। उन्होंने यह कथन कुछ ऐसे उदास भाव से किया कि एक क्षण के लिए मुझे पर भी उसने जादू कर दिया। थोड़ी देर के बाद मैं वहाँ से चला, तो दिल का बोझ बहुत कुछ हल्का हो गया था। मन में एक प्रकार का साहस उदय हो गया था, जो विपत्ति और बाधा पर हँस रहा था।

थोड़े दिनों के बाद वहाँ से तबादला हो गया और रसिकलाल जी की कोई खबर नहीं मिली। कोई साल भर के बाद एक दिन गुलाबी लिफ़ाफे पर सुनहरे अक्षरों में छपा हुआ एक निमंत्रण-पत्र मिला। रसिकलाल के बड़े लड़के का विवाह हो रहा था। नवेद के नीचे कलम से आग्रह किया गया था कि अवश्य आइए, वरना मुझे आपसे बड़ी शिकायत रहेगी। आधा मज़ा जाता रहेगा। एक उर्दू का शेर भी था –

इस शौके फिरावां की या रब,

आखिर कोई हद भी है कि नहीं?

इंकार करे वह या वादा,

हम रास्ता देखते रहते हैं।

एक सप्ताह का समय था। मैंने रेशमी अचकन बनवायी, नये जूते खरीदे और खूब बन-ठनकर चला। वधु के लिए एक अच्छी-सी साड़ी ले ली। महीनों एक जगह रहते-रहते और एक ही काम करते-करते मन कुछ कुण्ठित-सा हो गया था। तीन-चार दिन खूब जलसे रहेंगे, गाने सुनूंगा, दावतें उड़ाऊंगा। मन बहल ही जाएगा। रेलगाड़ी से उतरकर वेटिंग रूम में गया और अपना नया सूट पहना। बहुत दिनों बाद नया सूट पहनने की नौबत आई थी, पर आज भी मुझे नया सूट पनकर वही खुशी हुई, जो लड़कपन में होती थी। मन कितना ही उदास हो, नया सूट पहनकर हरा हो जाता है। मैं तो कहता हूँ, बीमारी में बहुत-सी दवायें न खाकर हम नया सूट बनवा लिया करें, तो कम-से-कम उतना फ़ायदा तो जरूर ही होगा, जितना दवा खाने से होता है। क्या यह कोई बात ही नहीं कि ज़रा देर के लिए आप अपनी आंखों में ऊँचे हो जायें? मेरा अनुभव तो यह कहता है कि नया सूट हमारे अंदर एक नया जीवन डाल देता है, जैसे सांप केंचुल बदले या बसंत में वृक्षों में नयी कोंपलें निकल आयें।

स्टेशन से निकलकर मैंने तांगा लिया और रसिकलाल के द्वार पर पहुँचा। तीन बजे होंगे। लू चल रही थी। मुँह झुलसा जाता था। द्वार पर शहनाइया बज रही थीं। बन्दनवारें बंधी हुई थीं। तांगे से उतरकर अंदर के सहन में पहुँचा। बहुत से आदमी आंगन के सहन के बीच में घेरा बांधे खड़े थे। मैंने समझा कि शायद जोड़े-गहने की नुमाइश हो रही होगी। भीड़ चीरकर घुसा-बस कुछ न पूछो, क्या देखा, जो ईश्वर सातवें बैरी को भी न दिखाये। अर्थी थी, पक्के काम के दोशाले से ढकी हुई, जिस पर फूल बिखरे हुए थे। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि गिर पडूंगा।

सहसा रसिकलाल पर मेरी निगाह पड़ गयी। रंगीन कपड़ों का एक गट्ठर लिये अंदर से आये थे। न आँखों में आँसू, न मुख पर वेदना, न माथे पर शिकन। वही बांकी टोपी थी, वही रेशमी कुरता, वही महीन तंजेब की धोती। सब रो रहे थे, कोई आँसुओं के वेग को रोके हुए था, कोई शोक में विह्नल! ये बाहर के आदमी थे। कोई मित्र था, कोई बंधु और जो मरने वाले का बाप था, वह इन डगमगाने वाली नेकाओं और जहाजों के बीच में स्तम्भ की भांति खड़ा था। मैं देड़कर उनके गले से लिपटकर रोने लगा। वह पानी की बूंद, जो पत्ते पर रूकी थी, ज़रा-सी हवा पाकर ढुलक पड़ी।

रसिकलाल ने मुझे गले से लगाते हुए कहा, ‘आप कब आये? क्या अभी चले आ रहे हैं? वाह, मुझे खबर ही न हुई। शादी की तैयारियों में ऐसा फंसा कि मेहमानों की खातिरदारी भी न कर सका। चलकर कपड़े उतारिए, मुँह-हाथ धोइए। अभी बारात में चलना पड़ेगा। पूरी तैयारी के साथ चलेंगे। बैण्ड, बीन, ताशें, शहनाई, डफली सभी कुछ साथ होंगे। कोतल, घोड़े, हाथी, सवारियाँ सब कुछ मंगवाई हैं। आतिशबाजी, फलों के तख्त, खूब धूम से चलेंगे। जेठे लड़के का ब्याह है, खूब दिल खोलकर करेंगे। गंगा के तट पर जनवासा होगा।’

इन शब्दों में शोक की कितनी भयंकर, कितनी अथाह वेदना थी? एक कुहराम मच गया।

रसिकलाल ने लाश के सिर पर बेलों का मेर पहनाकर कहा –

”क्या रोते हो भाइयों? यह कोई नयी बात नहीं हुई है। रोज ही तो यह तमाशा देखते हैं, कभी अपने घर में, कभी दूसरे के घर में। रोज ही तो रोते हो, कभी अपने दुख से, कभी पराये दुख से। कौन तुम्हारे रोने की परवाह करता है, कौन तुम्हारे आँसू पोंछता है, कौन तुम्हारी चीत्कार सुनता है? तुम रोये जाओ, वह अपना काम किये जायेगा। फिर रोकर क्यों अपनी दुर्बलता दिखाते हो? उसके चोटों को छाती पर लो और हंसकर दिखा दो कि तुम ऐसी चोटों की परवाह नहीं करते। उससे कहो, तेरे अस्त्रालय में जो सबसे घातक अस्त्र हो वह निकाल ला। यह क्या सुइया-सी चुभोता है? पर हमारी दलील नहीं सुनता। न सुने, हम भी अपनी अकड़ न छोड़ेंगे। उसी धूम-धाम से बारात निकालेंगे, खुशियाँ मनायेंगे।”

रसिकलाल रोते तो और लोग भी उन्हें समझाते। इस विद्रोहभरी ललकार ने सबको स्तम्भित कर दिया। समझाता कौन? हमें वह ललकार विक्षिप्त वेदना-सी जान पड़ी जो आंसुओं से कहीं मर्मान्तक थी। चिनगारी के स्पर्श से आबले (छाले) पड़ जाते हैं। दहकती हुई आग में पांव पड़ जाये, तो झुलस जायेगा, आबले न पड़ेंगे। रसिकलाल की वेदना वही दहकती हुई आग थी।

लाश मोटर पर रखी गयी। मोटर गुलाब के फूलों से सजाया गया था। किसी ने पुकारा, ”राम नाम सत्य है!”

रसिकलाल ने उसे विनोदभरी आँखों से देखा, ‘तुम भूले जाते हो, लाला। यह विवाह का उत्सव है। हमारे लिए सत्य जीवन है, उसके सिवा जो कुछ है, मिथ्या है।’

बाजे-गाजे के साथ बारात चली। इतना बड़ा जुलूस तो मैंने शहर में नहीं देखा। विवाह के जुलूस में दो-चार से आदमियों से ज्यादा न होते। इस जुलूस की संख्या लाखों से कम न थी। धन्य हो रसिकलाल! धन्य तुम्हारा कलेजा! रसिकलाल उस बांकी अदा से मोटर के पीछे घोड़े पर सवार चले जा रहे थे। जब लाश चिता पर रखी गयी, तो रसिकलाल ने एक बार ज़ोर से छाती पर हाथ मारा। मानवता ने विद्रोही आत्मा को आंदोलित किया। पर दूसरे ही क्षण उनके मुख पर वही कठोर मुस्कान चमक उठी। मानवता वह थी या यह, कौन कहे?

उसके दो दिन बाद मैं नौकरी पर लौट गया। जब छुट्टियाँ होती हैं, तो रसिकलाल से मिलने आता हूँ। उन्होंने उस विद्रोह का एक अंश मुझे भी दे दिया है। अब जो कोई उनके आचार-व्यवहार पर आक्षेप करता है, तो मैं केवल मुस्करा देता हूँ।

दो बैलों की कथा मुंशी प्रेमचंद की कहानी

जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुध्दिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को अल्ले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है, या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता।

गायें सींग मारती हैं, ब्यायी हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है। किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहे गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा।

उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ॠषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर कहीं न देखा। कादचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है।

देखिए न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्यों दुर्दशा हो रही है? क्यों अमेरिका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोड़कर काम करते हैं, किसी से लडाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं, फिर भी बदनाम हैं। कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे भी ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते, तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल समाने है। एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया। लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही गधा है, और वह है ‘बैल। जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में ‘बछिया के ताऊ’ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता है। और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।

झूरी काछी के दोनों बैलों के नाम थे – हीरा और मोती। दोनों पछाई जाति के थे – देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों से साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आसपास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है।

दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूंघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे – विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता।

जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिए जाते और गर्दन हिला-हिलाकर चलते उस वक्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज्याद-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। दिनभर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लेते। नांद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नांद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता, तो दूसरा भी हटा लेता था।

संयोग की बात है, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम वे क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमें बेच दिया। अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दांतों पसीना आ गया। पीछे से हांकता, तो दोनों दायें-बायें भागते, पगहिया पकडकर आगे से खींचता, तो दोनों पीछे को जोर लगाते। मारता, तो दोनों सींग नीचे करके हुँकरते।

अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो झूरी से पूछते – तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था, और काम ले लेते, हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथों क्यों बेच दिया?

संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे। दिनभर के भूखे थे, लेकिन जब नांद में लगाए गये, तो एक ने भी उसमें मुँह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव, नये आदमी, उन्हें बेगानों से लगते थे।

दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गये। जब गाँव में सोता पड़ गया, तो दोनों ने जोर मारकर पगहे तुड़ा डाले और घर की तरफ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा: पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं।

झूरी प्रात: सोकर उठा, तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खड़े हैं। दोनों ही गर्दनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा है। घुटने तक पाँव कीचड़ से भरे हैं और दोनों की आँखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है।

झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद् हो गया। दौड़कर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था।

घर और गाँव के लड़के जमा हो गये और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्वपूर्ण थी। बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों को अभिनंदन-पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड़, कोई चोकर, कोई भूसी।

एक बालक ने कहा – ऐसे बैल किसी के पास न होंगे।

दूसरे ने समर्थन किया – इतनी दूर से दोनों अकेले चले आये।

तीसरा बोला – बैल नहीं हैं वे, उस जनम के आदमी हैं।

इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस न हुआ।

झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा, तो जल उठी। बोली – कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन वहाँ काम न किया, भाग खड़े हुये।

झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका – नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते?

स्त्री ने रोब के साथ कहा – बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।

झूरी ने चिढ़ाया – चारा मिलता तो क्यों भागते?

स्त्री चिढ़ी – भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं, तो रगड़कर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूं’? कहाँ से खली और चोकर मिलता है, सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूँगी, खायें चाहे मरें।

वही हुआ। मजूर को बड़ी ताकीद कर दी गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाये।

बैलों ने नांद में मुँह डाला, तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्या खायें? आशा भरी ऑंखों से द्वार की ओर ताकने लगे।

झूरी ने मजूर से कहा – थोड़ी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे?

‘मालिकन मुझे मार ही डालेंगी।‘

‘चुराकर डाल आ।‘

‘ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।‘

दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाड़ी में जोता।

दो-चार बार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था।

संध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बांधा और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी सब कुछ दी।

दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छडी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहाँ मार पडी। आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा!

नांद की तरफ आँखें तक न उठाईं।

दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पाँव न उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डण्डे जमाये, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाट कर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होती, तो दोनों पकडाई में न आते।

हीरा ने मूक भाषा में कहा – भागना व्यर्थ है।

मोती ने उत्तर दिया – तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी।

‘अबकी बड़ी मार पड़ेगी।‘

‘पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है, तो मार से कहाँ तक बचेंगे।‘

‘गया दो आदमियों के साथ दौड़ा आ रहा है। दोनों के हाथों में लाठियाँ हैं।‘

मोती बोला – ‘कहो तो दिखा दूं कुछ मजा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा है।‘

हीरा ने समझाया – ‘नहीं भाई! खड़े हो जाओ।‘

‘मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूंगा।‘

‘नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।‘

मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकड़कर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पडता। उसके तेवर देखकर गया और उसके सहायक समझ गए कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।

आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खड़े रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उस वक्त छोटी-सी लड़की दो रोटियाँ लिए निकली, और दोनों के मुँह में देकर चली गई।

उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहाँ भी किसी सज्जन का वास है। लड़की भैरो की थी। उसकी माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी।

दोनों दिनभर जोते जाते, डण्डे खाते, अड़ते। शाम को थान पर बांध दिये जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की आँखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।

एक दिन मोती ने मूक भाषा में कहा – ‘अब तो नहीं सहा जाता हीरा!’

‘क्या करना चाहते हो?’

‘एकाध को सीगों पर उठाकर फेंक दूंगा।‘

‘लेकिन जानते हो, वह प्यारी लड़की, जो हमें रोटियाँ खिलाती है, उसी की लड़की है, जो इस घर का मालिक है। यह बेचारी अनाथ न हो जायेगी?

‘तो मालकिन को न फेंक दूं। वही तो उस लड़की को मारती है।‘

‘लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।‘

‘तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते। बताओ, तुड़ाकर भाग चलें।‘

‘हाँ, यह मैं स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे?’

‘इसका उपाय है। पहले रस्सी को थोडा-सा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।‘

रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गई, दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, पर मोटी रस्सी मुँह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे।

सहसा घर का द्वार खुला और वही बालिका निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूंछे खड़ी हो गईं।

उसने उनके माथे सहलाये और बोली – खोले देती हूँ। चुपके से भाग जाओ, नहीं तो यहाँ लोग मार डालेंगे। आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाये।

उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खड़े रहे।

मोती ने अपनी भाषा में पूछा – ‘अब चलते क्यों नहीं?’

हीरा ने कहा – ‘चलें तो, लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आयेगी। सब इसी पर संदेह करेंगे।‘

सहसा बालिका चिल्लाई – ‘दोनों फूफा वाले बैल भागे जा रहे हैं। ओ दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौडो।‘

गया हड़बड़ाकर भीतर से निकला और बैलों को पकडने चला। वे दोनों भागे। गया ने पीछा किया। और भी तेज हुये। गया ने शोर मचाया। फिर गाँव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सीधे दौड़ते चले गये। यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित मार्ग से आए थे, उसका यहाँ पता न था। नये-नये गाँव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए?

हीरा ने कहा – ‘मालूम होता है, राह भूल गये।‘

‘तुम भी बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।‘

‘उसे मार गिराते, तो दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड़ दें, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोड़ें?

दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत में मटर खड़ी थी। चरने लगे। रह-रहकर आहट ले लेते थे, कोई आता तो नहीं है।

जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे। पहले दोनों ने डकार ली। फिर सींग मिलाये और एक-दूसरे को ठेलने लगे। मोती ने हीरा को कई कदम हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध आया। संभलकर उठा और फिर मोती से भिड़ गया। मोती ने देखा, खेल में झगड़ा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गया।

अरे! यह क्या? कोई साँड डौकता चला आ रहा है। हाँ, साँड ही है। वह सामने आ पहुँचा। दोनों मित्र बगलें झाँक रहे हैं। साँड पूरा हाथी है। उससे भिड़ना जान से हाथ धोना है, लेकिन न भिड़ने पर भी जान बचती नहीं नजर आती। इन्हीं की तरफ आ भी रहा है। कितनी भयंकर सूरत है।

मोती ने मूक भाषा में कहा – ‘बुरे फंसे। जान बचेगी? कोई उपाय सोचो।‘

हीरा ने चिंतित स्वर में कहा – ‘अपने घमण्ड से फूला हुआ है। आरजू-विनती न सुनेगा।‘

‘भाग क्यों न चलें?’

‘भागना कायरता है।‘

‘तो फिर यहीं मरो। बंदा तो नौ-दो- ग्यारह होता है।‘

‘और जो दौड़ाये?’

‘तो फिर कोई उपाय सोचो, जल्द!’

‘उपाय यही है कि उस पर दोनों जनें एक साथ चोट करें? मैं आगे से रगेदता हूँ, तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पडेगी, तो भाग खड़ा होगा। मेरी ओर झपटे, तुम बगल से उसके पेट में सींग घुसेड़ देना। जान जोखिम है, पर दूसरा उपाय नहीं है।

दोनों मित्र जान हथेलियों पर लेकर लपके। साँड को भी संगठित शत्रुओं से लड़ने का तजरबा न था। वह तो एक शत्रु से मल्लयुध्द करने का आदी था। ज्यों ही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौड़ाया। साँड उसकी तरफ मुड़ा, तो हीरा ने रगेदा। साँड चाहता था कि एक-एक करके दोनों को गिरा ले, पर ये दोनों भी उस्ताद थे। उसे वह अवसर न देते थे।

एक बार साँड झल्लाकर हीरा का अंत कर देने के लिए चला कि मोती ने बगल से आकर पेट में सींग भोंक दी। साँड क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग भोंक दिया। आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया। यहाँ तक कि साँड बेदम होकर गिर पडा। तब दोनों ने उसे छोड़ दिया। दोनों मित्र विजय के नशे में झूमते चले जाते थे।

मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा में कहा – ‘मेरा तो जी चाहता था कि बच्चा को मार ही डालूं।‘

हीरा ने तिरस्कार किया – ‘गिरे हुए बैरी पर सींग न चलाना चाहिए।‘

‘यह सब ढोंग है। बैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।‘

‘अब घर कैसे पहुँचेंगे, वह सोचो।‘

‘पहले कुछ खा लें, तो सोचें।‘

सामने मटर का खेत था ही। मोती उसमें घुस गया। हीरा मना करता रहा, पर उसने एक न सुनी। अभी दो चार ग्रास खाये थे कि दो आदमी लाठियाँ लिए दौड़ पड़े और दोनों मित्रों को घेर लिया। हीरा तो मेड़ पर था, निकल गया। मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड़ में धंसने लगे। न भाग सका। पकड़ लिया। हीरा ने देखा, संगी संकट में है, तो लौट पड़ा। फंसेंगे, तो दोनों फंसेगे। रखवालों ने उसे भी पकड़ लिया। प्रात:काल दोनों मित्र काँजीहौस में बंद कर दिए गये।

दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबिका पड़ा कि सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला। समझ ही में न आता था, यह कैसा स्वामी है? इससे तो गया फिर भी अच्छा था। यहाँ कई भैसे थीं, कई बकरियाँ, कई घोडे, कई गधे, पर किसी के सामने चारा न था, सब जमीन पर मुर्दों की तरह पड़े थे।

कई तो इतने कमजोर हो गए थे कि खड़े भी नहीं हो सकते थे। सारा दिन दोनों मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाए ताकते रहे, पर कोई चारा लेकर आता न दिखाई दिया। तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की, पर इससे क्या तृप्ति होती?

रात को भी जब कुछ भोजन न मिला, तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी।

मोती से बोला – ‘अब तो नहीं रहा जाता मोती!’

मोती ने सिर लटकाए हुए जवाब दिया – ‘मुझे तो मालूम होता है प्राण निकल रहे हैं।‘

‘इतनी जल्द हिम्मत न हारो भाई! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।‘

‘आओ दीवार तोड़ डालें।‘

‘मुझसे तो अब कुछ नहीं होगा।‘

‘बस इसी बूते पर अकड़ते थे?’

‘सारी अकड़ निकल गई।‘

बाड़े की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गडा दिए और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड़ निकल आया। फिर तो उसका साहस बढ़ा। इसने दौड़-दौड़कर दीवार पर चोटें की और हर चोट में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी गिराने लगा।

उसी समय काँजीहौंस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने निकला। हीरा का उजापन देखकर उसने उसे कई डण्डे रसीद किए और मोटी-सी रस्सी से बांध दिया।

मोती ने पड़े-पड़े कहा – ‘आखिर मार खाई, क्या मिला?’

‘अपने बूते-भर जोर तो मार दिया।‘

‘ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गये।‘

‘जोर तो मारता ही जाऊंगा, चाहे कितने ही बंधन पड़ते जायें।‘

‘जान से हाथ धोना पड़ेगा।‘

‘कुछ परवाह नहीं। यों भी मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती तो कितनी जानें बच जातीं। इतने भाई यहाँ बंद हैं। किसी के देह में जान नहीं है। दो-चार दिन और यही हाल रहा, तो सब मर जायेंगे।

‘हाँ, यह बात तो है। अच्छा, तो ला, फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।‘

मोती ने भी दीवार में उसी जगह सींग मारा। थोड़ी-सी मिट्टी गिरी तो हिम्मत और बढ़ी। फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानो किसी प्रतिद्वन्द्वी से लड़ रहा है। आखिर कोई दो घण्टे की जोर-आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गई। उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा, तो आधी दीवार गिर पड़ी।

दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे। तीनों घोडियाँ सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियाँ निकलीं। इसके बाद भैसें भी खिसक गईं, पर गधे अभी तक ज्यों-के-त्यों खड़े थे।

हीरा ने पूछा – तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?’

एक गधे ने कहा – ‘जो कहीं फिर पकड़ लिए जायें?’

‘तो क्या हरज है। अभी तो भागने का अवसर है।‘

‘हमें तो डर लगता है। हम यहीं पड़े रहेंगे।‘

आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे कि भागें या न भागें। मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था। जब वह हार गया, तो हीरा ने कहा – ‘तुम जाओ, मुझे यहीं पड़ा रहने दो। शायद कहीं भेंट हो जाये।‘

मोती ने आँखों में आँसू लाकर कहा – ‘तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो, हीरा? हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे हैं। आज तुम विपत्ति में पड़ गए, तो मैं तुम्हें छोड़कर अलग हो जाऊं।‘

हीरा ने कहा – ‘बहुत मार पड़ेगी। लोग समझ जायेंगे, यह तुम्हारी शरारत है।‘

मोती गर्व से बोला – ‘जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बंधन पड़ा, उसके लिए अगर मुझ पर मार पड़े, तो क्या चिंता! इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियों की जान बच गई। वे सब तो आर्शीवाद देंगे।‘

यह कहते हुए मोती ने दोनों गधों को सीगों से मार-मारकर बाड़े के बाहर निकाला और तब अपने बंधू के पास आकर सो रहा।

भोर होते ही मुंशी और चौकीदार तथा अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने की जरूरत नहीं। बस, इतना ही काफी है कि मोती की खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बांध दिया।

एक सप्ताह तक दोनों मित्र बंधे पड़े रहे। किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला। हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनों इतने दुर्बल हो गए थे कि उठा तक न जाता, ठठरियाँ निकल आई थीं।

एक दिन बाड़े के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहाँ पचास-साठ आदमी जमा हो गये। तब दोनों मित्र निकाले गए और उनकी देख-भाल होने लगी। लोग आ-आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीददार होता?

सहसा एक दढ़ियल आदमी, जिसकी ऑंखें लाल थीं और मुद्रा अत्यंत कठोर, आया और दोनों मित्रों के कूल्हों में उंगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। उसका चेहरा देखकर अंतर्ज्ञान से दोनों मित्रों के दिल कांप उठे। वह कौन है और उन्हें क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई संदेह न हुआ। दोनों ने एक दूसरे को भीत नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया।

हीरा ने कहा – ‘गया के घर से नाहक भागे। अब जान न बचेगी।‘

मोती ने अश्रध्दा के भाव से उत्तर दिया – ‘कहते हैं, भगवान सबके ऊपर दया करते हैं। उन्हें हमारे ऊपर क्यों दया नहीं आती?’

भगवान के लिए हमारा मरना-जीना दोनों बराबर है। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे। एक बार भगवान ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था। क्या अब न बचायेंगे?’

‘यह आदमी छुरी चलाएगा। देख लेना।‘

‘तो क्या चिंता है? माँस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी-न-किसी काम आ जायेगी।‘

नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढ़ियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी कांप रही थी। बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे, पर भय के मारे गिरते-पडते भागे जाते थे, क्योंकि वह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डण्डा जमा देता था।

राह में गाय-बैलों का रेवड़ हरे-हरे हार में चरता नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल, कोई उछलता था, कोई आनंद से बैठा पागुर करता था। कितना सुखी जीवन था इनका, पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिंता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दु:खी हैं।

सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह है। हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग, वही गाँव मिलने लगे। प्रतिक्षण उनकी चाल तेज होने लगी। सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गई। आह! यह लो! अपना ही घर आ गया। इसी कुएँ पर हम पुर चलाने आया करते थे, यही कुआं है।

मोती ने कहा – ‘हमारा घर नगीच आ गया।‘

हीरा बोला – ‘भगवान की दया है।‘

‘मैं तो अब घर भागता हूँ।‘

‘यह जाने देगा?’

‘इसे मार गिरता हूँ।‘

‘नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहाँ से हम आगे न जायेंगे।‘

दोनों उन्मत होकर बछड़ों की भांति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े। वह हमारा थान है। दोनों दौड़कर अपने थान पर आये और खड़े हो गये। दढ़ियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था।

झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आँखों में आनंद के आँसू बहने लगे। एक झूरी का हाथ चाट रहा था।

दढ़ियल ने जाकर बैलों की रस्सियाँ पकड़ लीं।

झूरी ने कहा – ‘मेरे बैल हैं।‘

‘तुम्हारे बैल कैसे? मैं मवेशीखाने से नीलाम लिए आता हूँ।‘

‘मैं तो समझता हूँ चुराये लिए आते हो! चुपके से चले जाओ। मेरे बैल हैं। मैं बेचूंगा, तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख्तियार है?’

‘जाकर थाने में रपट कर दूंगा।‘

‘मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं।‘

दढ़ियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया। दढ़ियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढ़ियल भागा।

मोती पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका, पर खड़ा दढ़ियल का रास्ता देख रहा था। दढ़ियल दूर खड़ा धमकियाँ दे रहा था, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था। और मोती विजयी शूर की भांति उसका रास्ता रोके खड़ा था। गाँव के लोग यह तमाशा देखते थे और हँसते थे। जब दढ़ियल हारकर चला गया, तो मोती अकड़ता हुआ लौटा।

हीरा ने कहा – ‘मैं डर रहा था कि कहीं तुम गुस्से में आकर मार न बैठो।‘

‘अगर वह मुझे पकड़ता, तो मैं बे-मारे न छोड़ता।‘

‘अब न आयेगा।‘

‘आयेगा, तो दूर ही से खबर लूंगा। देखूं, कैसे ले जाता है।‘

‘जो गोली मरवा दे?’

‘मर जाऊंगा, पर उसके काम तो न आऊंगा।‘

‘हमारी जान को कोई जान नहीं समझता।‘

‘इसलिए कि हम इतने सीधे हैं।‘

जरा देर में नांदों में खली, भूसा, चोकर और दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झूरी खड़ा दोनों को सहला रहा था और बीसों लडके तमाशा देख रहे थे। सारे गाँव में उछाह-सा मालूम होता था।

उसी समय मालकिन ने आकर दोनों के माथे चूम लिये।

चकमा मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

सेठ चंदूमल जब अपनी दूकान और गोदाम में भरे हुए माल को देखते तो मुँह से ठंडी साँस निकल जाती। यह माल कैसे बिकेगा बैंक का सूद बढ़ रहा है दूकान का किराया चढ़ रहा है कर्मचारियों का वेतन बाकी पड़ता जाता है। ये सभी रकमें गाँठ से देनी पड़ेंगी। अगर कुछ दिन यही हाल रहा तो दिवाले के सिवा और किसी तरह जान न बचेगी। तिस पर भी धरनेवाले नित्य सिर पर शैतान की तरह सवार रहते हैं।

सेठ चंदूमल की दूकान चाँदनी चौक दिल्ली में थी। मुफस्सिल में भी कई दूकानें थीं। जब शहर काँग्रेस कमेटी ने उनसे बिलायती कपड़े की खरीद और बिक्री के विषय में प्रतीक्षा करानी चाही तो उन्होंने कुछ ध्यान न दिया। बाजार के कई आढ़तियों ने उनकी देखा-देखी प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। चंदूमल को जो नेतृत्व कभी न नसीब हुआ था वह इस अवसर पर बिना हाथ-पैर हिलाये ही मिल गया। वे सरकार के खैरख्वाह थे। साहब बहादुरों को समय-समय पर डालियाँ नजर देते थे। पुलिस से भी घनिष्ठता थी। म्युनिसिपैलिटी के सदस्य भी थे। काँग्रेस के व्यापारिक कार्यक्रम का विरोध करके अमनसभा के कोषाध्यक्ष बन बैठे। यह इसी खैरख्वाही की बरकत थी। युवराज का स्वागत करने के लिए अधिकारियों ने उनसे पचीस हजार के कपड़े खरीदे। ऐसा सामर्थी पुरुष काँग्रेस से क्यों डरे काँग्रेस है किस खेत की मूली पुलिसवालों ने भी बढ़ावा दिया- मुआहिदे पर हरगिज दस्तखत न कीजिएगा। देखें ये लोग क्या करते हैं। एक-एक को जेल न भिजवा दिया तो कहिएगा। लाला जी के हौसले बढ़े। उन्होंने काँग्रेस से लड़ने की ठान ली। उसी के फलस्वरूप तीन महीनों से उनकी दूकान पर प्रातःकाल से 9 बजे रात तक पहरा रहता था। पुलिस-दलों ने उनकी दूकान पर वालंटियरों को कई बार गालियाँ दीं कई बार पीटा खुद सेठ जी ने भी कई बार उन पर बाण चलाये परंतु पहरेवाले किसी तरह न टलते थे। बल्कि इन अत्याचारों के कारण चंदूमल का बाजार और भी गिरता जाता। मुफस्सिल की दूकानों से मुनीम लोग और भी दुराशाजनक समाचार भेजते रहते थे। कठिन समस्या थी। इस संकट से निकलने का कोई उपाय न था। वे देखते थे कि जिन लोगों ने प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये हैं वे चोरी-छिपे कुछ-न-कुछ विदेशी माल लेते हैं। उनकी दूकानों पर पहरा नहीं बैठता। यह सारी विपत्ति मेरे ही सिर पर है।

उन्होंने सोचा पुलिस और हाकिमों की दोस्ती से मेरा भला क्या हुआ उनके हटाये ये पहरे नहीं हटते। सिपाहियों की प्रेरणा से ग्राहक नहीं आते ! किसी तरह पहरे बन्द हो जाते तो सारा खेल बन जाता।

इतने में मुनीम जी ने कहा-लाला जी यह देखिए कई व्यापारी हमारी तरफ आ रहे थे। पहरेवालों ने उनको न जाने क्या मंत्र पढ़ा दिया सब चले जा रहे हैं।

चंदूमल-अगर इन पापियों को कोई गोली मार देता तो मैं बहुत खुश होता। यह सब मेरा सर्वनाश करके दम लेंगे।

मुनीम-कुछ हेठी तो होगी यदि आप प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर कर देते तो यह पहरा उठ जाता। तब हम भी यह सब माल किसी न किसी तरह खपा देते।

चंदूमल-मन में तो मेरे भी यह बात आती है पर सोचो अपमान कितना होगा इतनी हेकड़ी दिखाने के बाद फिर झुका नहीं जाता। फिर हाकिमों की निगाहों में गिर जाऊँगा। और लोग भी ताने देंगे कि चले थे बच्चा काँग्रेस से लड़ने ! ऐसी मुँह की खायी कि होश ठिकाने आ गये। जिन लोगों को पीटा और पिटवाया जिनको गालियाँ दीं जिनकी हँसी उड़ायी अब उनकी शरण कौन मुँह ले कर जाऊँ मगर एक उपाय सूझ रहा है। अगर चकमा चल गया तो पौबारह है। बात तो तब है जब साँप को मारूँ मगर लाठी बचा कर। पहरा उठा दूँ पर बिना किसी की खुशामद किये।

(2)

नौ बज गये थे। सेठ चंदूमल गंगा-स्नान करके लौट आये थे और मसनद पर बैठ कर चिट्ठियाँ पढ़ रहे थे। अन्य दूकानों के मुनीमों ने अपनी विपत्ति-कथा सुनायी थी। एक-एक पत्र को पढ़ कर सेठ जी का क्रोध बढ़ता जाता था। इतने में दो वालंटियर गाड़ियाँ लिये हुए उनकी दूकान के सामने आ कर खड़े हो गये !

सेठ जी ने डाँट कर कहा-हट जाओ हमारी दूकान के सामने से।

एक वालंटियर ने उत्तर दिया-महाराज हम तो सड़क पर हैं। क्या यहाँ से भी चले जायँ

सेठ जी-मैं तुम्हारी सूरत नहीं देखना चाहता।

वालंटियर-तो आप काँग्रेस कमेटी को लिखिए। हमको तो वहाँ से यहाँ खड़े रह कर पहरा देने का हुक्म मिला है।

एक कान्सटेबिल ने आ कर कहा-क्या है सेठ जी यह लौंडा क्या टर्राता है।

चंदूमल बोले-मैं कहता हूँ कि दूकान के सामने से हट जाओ पर यह कहता है कि न हटेंगे न हटेंगे। जरा इसकी जबरदस्ती देखो।

कान्सटेबिल-(वालंटियरों से) तुम दोनों यहाँ से जाते हो कि आ कर गरदन नापूँ।

वालंटियर-हम सड़क पर खड़े हैं दूकान पर नहीं।

कान्सटेबिल का अभीष्ट अपनी कारगुजारी दिखाना था। यह सेठ जी को खुश करके कुछ इनाम-इकराम भी लेना चाहता था। उसने वालंटियरों को अपशब्द कहे और जब उन्होंने उसकी कुछ परवा न की तो एक वालंटियर को इतने जोर से धक्का दिया कि वह बेचारा मुँह के बल जमीन पर गिर पड़ा। कई वालंटियर इधर-उधर से आ कर जमा हो गये। कई सिपाही भी आ पहुँचे। दर्शकवृन्द को ऐसी घटनाओं में मजा आता ही है। उनकी भीड़ लग गयी। किसी ने हाँक लगायी महात्मा गाँधी की जय । औरों ने भी उसके सुर में सुर मिलाया देखते-देखते एक जनसमूह एकत्रित हो गया।

एक दर्शक ने कहा-क्या है लाला चंदूमल अपनी दूकान के सामने इन गरीबों की दुर्गति करा रहे हो और तुम्हें जरा भी लज्जा नहीं आती कुछ भगवान् का भी डर है या नहीं।

सेठ जी ने कहा-मुझसे कसम ले लो जो मैंने किसी सिपाही से कुछ कहा हो। ये लोग अनायास बेचारों के पीछे पड़ गये। मुझे सेंत में बदनाम करते हैं।

एक सिपाही-लाला जी आप ही ने तो कहा था कि ये दोनों वालंटियर मेरे ग्राहकों को छेड़ रहे हैं। अब आप निकले जाते हैं।

चंदूमल-बिलकुल झूठ सरासर झूठ सोलहों आना झूठ। तुम लोग अपनी कारगुजारी की धुन में इनसे उलझ पड़े। यह बेचारे तो दूकान से बहुत दूर खड़े थे। न किसी से बोलते थे न चालते थे। तुमने जबरदस्ती ही इन्हें गरदनी देनी शुरू की। मुझे अपना सौदा बेचना है कि किसी से लड़ना है

दूसरा सिपाही-लाला जी हो बड़े होशियार। मुझसे आग लगवा कर आप अलग हो गये। तुम न कहते तो हमें क्या पड़ी थी कि इन लोगों को धक्के देते दारोगा जी ने भी हमको ताकीद कर दी थी कि सेठ चन्दूमल की दूकान का विशेष ध्यान रखना। वहाँ कोई वालंटियर न आये। तब हम लोग आये थे। तुम फरियाद न करते तो दारोगा जी हमारी तैनाती ही क्यों करते

चंदूमल-दारोगा जी को अपनी कारगुजारी दिखानी होगी। मैं उनके पास क्यों फरियाद करने जाता सभी लोग काँग्रेस के दुश्मन हो रहे हैं। थाने वाले तो उनके नाम से ही जलते हैं। क्या मैं शिकायत करता तभी तुम्हारी तैनाती करते।

इतने में किसी ने थाने में इत्तिला दी कि चन्दूमल की दूकान पर कांस्टेबिलों और वालंटियरों में मारपीट हो गयी। काँग्रेस के दफ्तर में भी खबर पहुँची। जरा देर में मय सशस्त्र पुलिस के थानेदार और इन्सपेक्टर साहब आ पहुँचे। उधर काँग्रेस के कर्मचारी भी दल-बल सहित दौड़े। समूह और बढ़ा। बार-बार जयकार की ध्वनि उठने लगी। काँग्रेस और पुलिस के नेताओं में वाद-विवाद होने लगा। परिणाम यह हुआ कि पुलिसवालों ने दोनों को हिरासत में लिया और थाने की ओर चले।

पुलिस अधिकारियों के जाने के बाद सेठ जी ने काँग्रेस के प्रधान से कहा-आज मुझे मालूम हुआ कि ये लोग वालंटियरों पर इतना घोर अत्याचार करते हैं।

प्रधान-तब तो दो वालंटियरों का फँसना व्यर्थ नहीं हुआ। इस विषय में अब तो आपको कोई शंका नहीं है हम कितने लड़ाकू कितने द्रोही कितने शांतिभंगकारी हैं यह तो आपको खूब मालूम हो गया होगा

चंदूमल-जी हाँ मालूम हो गया।

प्रधान-आपकी शहादत तो अवश्य ही होगी।

चंदूमल-होगी तो मैं भी साफ-साफ कह दूँगा चाहे बने या बिगड़े। पुलिस की सख्ती अब नहीं देखी जाती। मैं भी भ्रम में पड़ा हुआ था।

मंत्री-पुलिसवाले आपको दबायेंगे बहुत।

चंदूमल-एक नहीं सौ दबाव पड़ें मैं झूठ कभी न बोलूँगा। सरकार उस दरबार में साथ न जायगी।

मंत्री-अब तो हमारी लाज आपके हाथ है।

चंदूमल-मुझे आप देश का द्रोही न पायेंगे।

यहाँ से प्रधान और मंत्री तथा अन्य पदाधिकारी चले तो मंत्री जी ने कहा-आदमी सच्चा जान पड़ता है।

प्रधान-(संदिग्ध भाव से) कल तक आप ही सिद्ध हो जायगा।

(3)

शाम को इन्सपेक्टर-पुलिस ने लाला चन्दूमल को थाने में बुलाया और कहा-आपको शहादत देनी होगी। हम आपकी तरफ से बेफिक्र हैं।

चंदूमल बोले-हाजिर हूँ।

इन्स.-वालंटियरों ने कान्स्टेबिलों को गालियाँ दीं

चंदूमल-मैंने नहीं सुनी।

इन्स.-सुनी या न सुनी यह बहस नहीं है। आपको यह कहना होगा वह सब खरीदारों को धक्के दे कर हटा रहे थे हाथापाई करते थे मारने की धमकी देते थे ये सभी बातें कहनी होंगी। दारोगा जी वह बयान लाइए जो मैंने सेठ जी के लिए लिखवाया है।

चंदूमल-मुझसे भरी अदालत में झूठ न बोला जायगा। अपने हजारों जाननेवाले अदालत में होंगे। किस-किस से मुँह छिपाऊँगा कहीं निकलने को जगह भी चाहिए।

इन्स.-यह सब बातें निज के मुआमलों के लिए हैं। पोलिटिकल मुआमलों में झूठ-सच शर्म और हया किसी का भी खयाल नहीं किया जाता।

चंदूमल-मुँह में कालिख लग जायगी।

इन्स.-सरकार की निगाह में इज्जत चौगुनी हो जायगी।

चंदू-(सोच कर) जी नहीं गवाही न दे सकूँगा। कोई और गवाह बना लीजिए।

इन्स.-याद रखिए यह इज्जत खाक में मिल जायगी।

चंदू-मिल जाय मजबूरी है।

इन्स.-अमन-सभा के कोषाध्यक्ष का पद छिन जायगा।

चंदू-उससे कौन रोटियाँ चलती हैं।

इन्स.-बंदूक का लाइसेंस छिन जायगा।

चंदू.-छिन जाय बला से !

इन्स.-इनकम टैक्स की जाँच फिर से होगी।

चंदू.-जरूर कराइए। यह तो मेरे मन की बात हुई।

इन्स.-बैठने को कुरसी न मिलेगी।

चंदू.-कुरसी ले कर चाटूँ दिवाला तो निकला जा रहा है।

इन्स.-अच्छी बात है। तशरीफ ले जाइए। कभी तो आप पंजे में आयेंगे।

(4)

दूसरे दिन इसी समय काँग्रेस के दफ्तर में कल के लिए कार्यक्रम निश्चित किया जा रहा था। प्रधान ने कहा-सेठ चंदूमल की दूकान पर धरना देने के लिए दो स्वयंसेवक भेजिए।

मंत्री-मेरे विचार में वहाँ अब धरना देने की कोई जरूरत नहीं।

प्रधान-क्यों उन्होंने अभी प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर तो नहीं किये

मंत्री-हस्ताक्षर नहीं किये पर हमारे मित्र अवश्य हो गये। पुलिस की तरफ से गवाही न देना यही सिद्ध करता है। अधिकारियों का कितना दबाव पड़ा होगा इसका अनुमान किया जा सकता है। यह नैतिक साहस में परिवर्तन हुए बिना नहीं आ सकता।

प्रधान-हाँ कुछ परिवर्तन तो अवश्य हुआ है।

मंत्री-कुछ नहीं महाशय ! पूरी क्रांति कहना चाहिए। आप जानते हैं ऐसे मुआमलों में अधिकारियों की अवहेलना करने का क्या अर्थ है यह राजविद्रोह की घोषणा के समान है ! त्याग में संन्यास से इसका महत्त्व कम नहीं है। आज जिले के सारे हाकिम उनके खून के प्यासे हो रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि गवर्नर महोदय को भी इसकी सूचना दी गयी हो।

प्रधान-और कुछ नहीं तो उन्हें नियम का पालन करने ही के लिए प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर देना चाहिए था। किसी तरह उन्हें यहाँ बुलाइए। अपनी बात तो रह जाय।

मंत्री-वह बड़ा आत्माभिमानी है कभी न आयेगा। बल्कि हम लोगों की ओर से इतना अविश्वास देख कर सम्भव है कि फिर उस दल में मिलने की चेष्टा करने लगे।

प्रधान-अच्छी बात है आपको उन पर इतना विश्वास हो गया है तो उनकी दूकान छोड़ दीजिए। तब भी मैं यही कहूँगा कि आपको स्वयं मिलने के बहाने से उस पर निगाह रखनी होगी।

मंत्री-आप नाहक इतना शक करते हैं।

नौ बजे सेठ चंदूमल अपनी दूकान पर आये तो वहाँ एक भी वालंटियर न था। मुख पर मुस्कराहट की झलक आयी। मुनीम से बोले-कौड़ी चित्त पड़ी।

मुनीम-मालूम तो होता है। एक महाशय भी नहीं आये।

चंदूमल-न आये और न आयेंगे। बाजी अपने हाथ रही। कैसा दाँव खेला-चारों खाने चित।

चंदू.-आप भी बातें करते हैं इन्हें दोस्त बनाते कितनी देर लगती है। कहिए अभी बुला कर जूतियाँ सीधी करवाऊँ। टके के गुलाम हैं न किसी के दोस्त न किसी के दुश्मन। सच कहिए कैसा चकमा दिया है

मुनीम-बस यही जी चाहता है कि आपके हाथ चूम लें। साँप भी मरा और लाठी भी न टूटी। मगर काँग्रेसवाले भी टोह में होंगे।

चंदूमल-तो मैं भी तो मौजूद हूँ। वह डाल-डाल चलेंगे तो मैं पात-पात चलूँगा। विलायती कपड़े की गाँठ निकलवाइए और व्यापारियों को देना शुरू कीजिए। एक में बेड़ा पार है।

माँ मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

आज बन्दी छूटकर घर आ रहा है। करुणा ने एक दिन पहले ही घर लीप-पोत रखा था। इन तीन वर्षो में उसने कठिन तपस्या करके जो दस-पाँच रूपये जमा कर रखे थे, वह सब पति के सत्कार और स्वागत की तैयारियों में खर्च कर दिए। पति के लिए धोतियों का नया जोड़ा लाई थी, नए कुरते बनवाए थे, बच्चे के लिए नए कोट और टोपी की आयोजना की थी। बार-बार बच्चे को गले लगाती ओर प्रसन्न होती। अगर इस बच्चे ने सूर्य की भाँति उदय होकर उसके अंधेरे जीवन को प्रदीप्त न कर दिया होता, तो कदाचित् ठोकरों ने उसके जीवन का अन्त कर दिया होता। पति के कारावास-दण्ड के तीन ही महीने बाद इस बालक का जन्म हुआ। उसी का मुँह देख-देखकर करुणा ने यह तीन साल काट दिए थे। वह सोचती—जब मैं बालक को उनके सामने ले जाऊँगी, तो वह कितने प्रसन्न होंगे! उसे देखकर पहले तो चकित हो जाऍंगे, फिर गोद में उठा लेंगे और कहेंगे—करुणा, तुमने यह रत्न देकर मुझे निहाल कर दिया। कैद के सारे कष्ट बालक की तोतली बातों में भूल जाऍंगे, उनकी एक सरल, पवित्र, मोहक दृष्टि दृदय की सारी व्यवस्थाओं को धो डालेगी। इस कल्पना का आन्नद लेकर वह फूली न समाती थी।

वह सोच रही थी—आदित्य के साथ बहुत—से आदमी होंगे। जिस समय वह द्वार पर पहुँचेगे, जय—जयकार’ की ध्वनि से आकाश गूँज उठेगा। वह कितना स्वर्गीय दृश्य होगा! उन आदमियों के बैठने के लिए करुणा ने एक फटा-सा टाट बिछा दिया था, कुछ पान बना दिए थे ओर बार-बार आशामय नेत्रों से द्वार की ओर ताकती थी। पति की वह सुदृढ़ उदार तेजपूर्ण मुद्रा बार-बार आँखों में फिर जाती थी। उनकी वे बातें बार-बार याद आती थीं, जो चलते समय उनके मुख से निकलती थी, उनका वह धैर्य, वह आत्मबल, जो पुलिस के प्रहारों के सामने भी अटल रहा था, वह मुस्कराहट जो उस समय भी उनके अधरों पर खेल रही थी; वह आत्मभिमान, जो उस समय भी उनके मुख से टपक रहा था, क्या करुणा के हृदय से कभी विस्मृत हो सकता था! उसका स्मरण आते ही करुणा के निस्तेज मुख पर आत्मगौरव की लालिमा छा गई। यही वह अवलम्ब था, जिसने इन तीन वर्षो की घोर यातनाओं में भी उसके हृदय को आश्वासन दिया था। कितनी ही राते फाकों से गुजरीं, बहुधा घर में दीपक जलने की नौबत भी न आती थी, पर दीनता के आँसू कभी उसकी आँखों से न गिरे। आज उन सारी विपत्तियों का अन्त हो जाएगा। पति के प्रगाढ़ आलिंगन में वह सब कुछ हँसकर झेल लेगी। वह अनंत निधि पाकर फिर उसे कोई अभिलाषा न रहेगी।

गगन-पथ का चिरगामी लपका हुआ विश्राम की ओर चला जाता था, जहाँ संध्या ने सुनहरा फर्श सजाया था और उज्जवल पुष्पों की सेज बिछा रखी थी। उसी समय करुणा को एक आदमी लाठी टेकता आता दिखाई दिया, मानो किसी जीर्ण मनुष्य की वेदना-ध्वनि हो। पग-पग पर रूककर खॉँसने लगता थी। उसका सिर झुका हुआ था, करणा उसका चेहरा न देख सकती थी, लेकिन चाल-ढाल से कोई बूढ़ा आदमी मालूम होता था; पर एक क्षण में जब वह समीप आ गया, तो करुणा पहचान गई। वह उसका प्यारा पति ही था, किन्तु शोक! उसकी सूरत कितनी बदल गई थी। वह जवानी, वह तेज, वह चपलता, वह सुगठन, सब प्रस्थान कर चुका था। केवल हड्डियों का एक ढॉँचा रह गया था। न कोई संगी, न साथी, न यार, न दोस्त। करुणा उसे पहचानते ही बाहर निकल आयी, पर आलिंगन की कामना हृदय में दबाकर रह गई। सारे मनसूबे धूल में मिल गए। सारा मनोल्लास आँसुओं के प्रवाह में बह गया, विलीन हो गया। आदित्य ने घर में कदम रखते ही मुस्कराकर करुणा को देखा। पर उस मुस्कान में वेदना का एक संसार भरा हुआ थां करुणा ऐसी शिथिल हो गई, मानो हृदय का स्पंदन रूक गया हो। वह फटी हुई आँखों से स्वामी की ओर टकटकी बॉँधे खड़ी थी, मानो उसे अपनी ऑखों पर अब भी विश्वास न आता हो। स्वागत या दु:ख का एक शब्द भी उसके मुँह से न निकला। बालक भी गोद में बैठा हुआ सहमी ऑखें से इस कंकाल को देख रहा था और माता की गोद में चिपटा जाता था। आखिर उसने कातर स्वर में कहा—यह तुम्हारी क्या दशा है? बिल्कुल पहचाने नहीं जाते!

आदित्य ने उसकी चिन्ता को शांत करने के लिए मुस्कराने की चेष्टा करके कहा—कुछ नहीं, जरा दुबला हो गया हूँ। तुम्हारे हाथों का भोजन पाकर फिर स्वस्थ हो जाऊँगा।

करुणा—छी! सूखकर काँटा हो गए। क्या वहाँ भरपेट भोजन नहीं मिलात? तुम कहते थे, राजनैतिक आदमियों के साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया जाता है और वह तुम्हारे साथी क्या हो गए जो तुम्हें आठों पहर घेरे रहते थे और तुम्हारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहते थे?

आदित्य की त्योरियों पर बल पड़ गए। बोले—यह बड़ा ही कटु अनुभव है करुणा! मुझे न मालूम था कि मेरे कैद होते ही लोग मेरी ओर से यों आँखें फेर लेंगे, कोई बात भी न पूछेगा। राष्ट्र के नाम पर मिटनेवालों का यही पुरस्कार है, यह मुझे न मालूम था। जनता अपने सेवकों को बहुत जल्द भूल जाती है, यह तो में जानता था, लेकिन अपने सहयोगी ओर सहायक इतने बेवफा होते हैं, इसका मुझे यह पहला ही अनुभव हुआ। लेकिन मुझे किसी से शिकायत नहीं। सेवा स्वयं अपना पुरस्कार हैं। मेरी भूल थी कि मैं इसके लिए यश और नाम चाहता था।

करुणा—तो क्या वहाँ भोजन भी न मिलता था?

आदित्य—यह न पूछो करुणा, बड़ी करूण कथा है। बस, यही गनीमत समझो कि जीता लौट आया। तुम्हारे दर्शन बदे थे, नहीं कष्ट तो ऐसे-ऐसे उठाए कि अब तक मुझे प्रस्थान कर जाना चाहिए था। मैं जरा लेटँगा। खड़ा नहीं रहा जाता। दिन-भर में इतनी दूर आया हूँ।

करुणा—चलकर कुछ खा लो, तो आराम से लेटो। (बालक को गोद में उठाकर) बाबूजी हैं बेटा, तुम्हारे बाबूजी। इनकी गोद में जाओ, तुम्हे प्यार करेंगे।

आदित्य ने आँसू-भरी आँखों से बालक को देखा और उनका एक-एक रोम उनका तिरस्कार करने लगा। अपनी जीर्ण दशा पर उन्हें कभी इतना दु:ख न हुआ था। ईश्वर की असीम दया से यदि उनकी दशा संभल जाती, तो वह फिर कभी राष्ट्रीय आन्दोलन के समीप न जाते। इस फूल-से बच्चे को यों संसार में लाकर दरिद्रता की आग में झोंकने का उन्हें क्या अधिकरा था? वह अब लक्ष्मी की उपासना करेंगे और अपना क्षुद्र जीवन बच्चे के लालन-पालन के लिए अपिर्त कर देंगे। उन्हें इस समय ऐसा ज्ञात हुआ कि बालक उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है, मानो कह रहा है—’मेरे साथ आपने कौन-सा कर्त्तव्य-पालन किया?’ उनकी सारी कामना, सारा प्यार बालक को हृदय से लगा देने के लिए अधीर हो उठा, पर हाथ फैल न सके। हाथों में शक्ति ही न थी।

करुणा बालक को लिये हुए उठी और थाली में कुछ भोजन निकलकर लाई। आदित्य ने क्षुधापूर्ण, नेत्रों से थाली की ओर देखा, मानो आज बहुत दिनों के बाद कोई खाने की चीज सामने आई हैं। जानता था कि कई दिनों के उपवास के बाद और आरोग्य की इस गई-गुजरी दशा में उसे जबान को काबू में रखना चाहिए पर सब्र न कर सका, थाली पर टूट पड़ा और देखते-देखते थाली साफ कर दी। करुणा सशंक हो गई। उसने दोबारा किसी चीज के लिए न पूछा। थाली उठाकर चली गई, पर उसका दिल कह रहा था-इतना तो कभी न खाते थे।

करुणा बच्चे को कुछ खिला रही थी, कि एकाएक कानों में आवाज आई—करुणा!

करुणा ने आकर पूछा—क्या तुमने मुझे पुकारा है?

आदित्य का चेहरा पीला पड़ गया था और सॉंस जोर-जोर से चल रही थी। हाथों के सहारे वही टाट पर लेट गए थे। करुणा उनकी यह हालत देखकर घबर गई। बोली—जाकर किसी वैद्य को बुला लाऊँ?

आदित्य ने हाथ के इशारे से उसे मना करके कहा—व्यर्थ है करुणा! अब तुमसे छिपाना व्यर्थ है, मुझे तपेदिक हो गया हे। कई बार मरते-मरते बच गया हूँ। तुम लोगों के दर्शन बदे थे, इसलिए प्राण न निकलते थे। देखों प्रिये, रोओ मत। करुणा ने सिसकियों को दबाते हुए कहा—मैं वैद्य को लेकर अभी आती हूँ।

आदित्य ने फिर सिर हिलाया—नहीं करुणा, केवल मेरे पास बैठी रहो। अब किसी से कोई आशा नहीं है। डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। मुझे तो यह आश्चर्य है कि यहाँ पहुँच कैसे गया। न जाने कौन दैवी शक्ति मुझे वहाँ से खींच लाई। कदाचित् यह इस बुझते हुए दीपक की अन्तिम झलक थी। आह! मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया। इसका मुझे हमेशा दु:ख रहेगा! मैं तुम्हें कोई आराम न दे सका। तुम्हारे लिए कुछ न कर सका। केवल सोहाग का दाग लगाकर और एक बालक के पालन का भार छोड़कर चला जा रहा हूं। आह!

करुणा ने हृदय को दृढ़ करके कहा—तुम्हें कहीं दर्द तो नहीं है? आग बना लाऊँ? कुछ बताते क्यों नहीं?

आदित्य ने करवट बदलकर कहा—कुछ करने की जरूरत नहीं प्रिये! कहीं दर्द नहीं। बस, ऐसा मालूम हो रहा हे कि दिल बैठा जाता है, जैसे पानी में डूबा जाता हूँ। जीवन की लीला समाप्त हो रही हे। दीपक को बुझते हुए देख रहा हूँ। कह नहीं सकता, कब आवाज बन्द हो जाए। जो कुछ कहना है, वह कह डालना चाहता हूँ, क्यों वह लालसा ले जाऊँ। मेरे एक प्रश्न का जवाब दोगी, पूछूँ?

करुणा के मन की सारी दुर्बलता, सारा शोक, सारी वेदना मानो लुप्त हो गई और उनकी जगह उस आत्मबल काउदय हुआ, जो मृत्यु पर हँसता है और विपत्ति के साँपों से खेलता है। रत्नजटित मखमली म्यान में जैसे तेज तलवार छिपी रहती है, जल के कोमल प्रवाह में जैसे असीम शक्ति छिपी रहती है, वैसे ही रमणी का कोमल हृदय साहस और धैर्य को अपनी गोद में छिपाए रहता है। क्रोध जैसे तलवार को बाहर खींच लेता है, विज्ञान जैसे जल-शक्ति का उदघाटन कर लेता है, वैसे ही प्रेम रमणी के साहस और धैर्य को प्रदीप्त कर देता है।

करुणा ने पति के सिर पर हाथ रखते हुए कहा—पूछते क्यों नहीं प्यारे!

आदित्य ने करुणा के हाथों के कोमल स्पर्श का अनुभव करते हुए कहा—तुम्हारे विचार में मेरा जीवन कैसा था? बधाई के योग्य? देखो, तुमने मुझसे कभी पर्दा नहीं रखा। इस समय भी स्पष्ट कहना। तुम्हारे विचार में मुझे अपने जीवन पर हँसना चाहिए या रोना चाहिऍं?

करुणा ने उल्लास के साथ कहा—यह प्रश्न क्यों करते हो प्रियतम? क्या मैंने तुम्हारी उपेक्षा कभी की हैं? तुम्हारा जीवन देवताओं का—सा जीवन था, नि:स्वार्थ, निर्लिप्त और आदर्श! विघ्न-बाधाओं से तंग आकर मैंने तुम्हें कितनी ही बार संसार की ओर खींचने की चेष्टा की है; पर उस समय भी मैं मन में जानती थी कि मैं तुम्हें ऊँचे आसन से गिरा रही हूं। अगर तुम माया-मोह में फँसे होते, तो कदाचित् मेरे मन को अधिक संतोष होता; लेकिन मेरी आत्मा को वह गर्व और उल्लास न होता, जो इस समय हो रहा है। मैं अगर किसी को बड़े-से-बड़ा आर्शीवाद दे सकती हूँ, तो वह यही होगा कि उसका जीवन तुम्हारे जैसा हो।

यह कहते-कहते करुणा का आभाहीन मुखमंडल जयोतिर्मय हो गया, मानो उसकी आत्मा दिव्य हो गई हो। आदित्य ने सगर्व नेत्रों से करुणा को देखकर कहा बस, अब मुझे संतोष हो गया, करुणा, इस बच्चे की ओर से मुझे कोई शंका नहीं है, मैं उसे इससे अधिक कुशल हाथों में नहीं छोड़ सकता। मुझे विश्वास है कि जीवन-भर यह ऊँचा और पवित्र आदर्श सदैव तुम्हारे सामने रहेगा। अब मैं मरने को तैयार हूँ।

(2)

सात वर्ष बीत गए।

बालक प्रकाश अब दस साल का रूपवान, बलिष्ठ, प्रसन्नमुख कुमार था, बल का तेज, साहसी और मनस्वी। भय तो उसे छू भी नहीं गया था। करुणा का संतप्त हृदय उसे देखकर शीतल हो जाता। संसार करुणा को अभागिनी और दीन समझे। वह कभी भाग्य का रोना नहीं रोती। उसने उन आभूषणों को बेच डाला, जो पति के जीवन में उसे प्राणों से प्रिय थे, और उस धन से कुछ गायें और भैंसे मोल ले लीं। वह कृषक की बेटी थी, और गो-पालन उसके लिए कोई नया व्यवसाय न था। इसी को उसने अपनी जीविका का साधन बनाया। विशुद्ध दूध कहाँ मयस्सर होता है? सब दूध हाथों-हाथ बिक जाता। करुणा को पहर रात से पहर रात तक काम में लगा रहना पड़ता, पर वह प्रसन्न थी। उसके मुख पर निराशा या दीनता की छाया नहीं, संकल्प और साहस का तेज है। उसके एक-एक अंग से आत्मगौरव की ज्योति-सी निकल रही है; आँखों में एक दिव्य प्रकाश है, गंभीर, अथाह और असीम। सारी वेदनाऍं—वैधव्य का शोक और विधि का निर्मम प्रहार—सब उस प्रकाश की गहराई में विलीन हो गया है।

प्रकाश पर वह जान देती है। उसका आनंद, उसकी अभिलाषा, उसका संसार उसका स्वर्ग सब प्रकाश पर न्यौछावर है; पर यह मजाल नहीं कि प्रकाश कोई शरारत करे और करुणा ऑखें बंद कर ले। नहीं, वह उसके चरित्र की बड़ी कठोरता से देख-भाल करती है। वह प्रकाश की माँ नहीं, माँ-बाप दोनों हैं। उसके पुत्र-स्नेह में माता की ममता के साथ पिता की कठोरता भी मिली हुई है। पति के अन्तिम शब्द अभी तक उसके कानों में गूँज रहे हैं। वह आत्मोल्लास, जो उनके चेहरे पर झलकने लगा था, वह गर्वमय लाली, जो उनकी आँखो में छा गई थी, अभी तक उसकी ऑखों में फिर रही है। निरंतर पति-चिन्तन ने आदित्य को उसकी आँखों में प्रत्यक्ष कर दिया है। वह सदैव उनकी उपस्थिति का अनुभव किया करती है। उसे ऐसा जान पड़ता है कि आदित्य की आत्मा सदैव उसकी रक्षा करती रहती है। उसकी यही हार्दिक अभिलाषा है कि प्रकाश जवान होकर पिता का पथगामी हो।

संध्या हो गई थी। एक भिखारिन द्वार पर आकर भीख माँगने लगी। करुणा उस समय गउओं को पानी दे रही थी। प्रकाश बाहर खेल रहा था। बालक ही तो ठहरा! शरारत सूझी। घर में गया और कटोरे में थोड़ा-सा भूसा लेकर बाहर निकला। भिखारिन ने अबकी झेली फैला दी। प्रकाश ने भूसा उसकी झोली में डाल दिया और जोर-जोर से तालियाँ बजाता हुआ भागा।

भिखारिन ने अग्निमय नेत्रों से देखकर कहा—वाह रे लाड़ले! मुझसे हँसी करने चला है! यही माँ-बाप ने सिखाया है! तब तो खूब कुल का नाम जगाओगे!

करुणा उसकी बोली सुनकर बाहर निकल आयी और पूछा—क्या है माता? किसे कह रही हो?

भिखारिन ने प्रकाश की तरफ इशारा करके कहा—वह तुम्हारा लड़का है न। देखो, कटोरे में भूसा भरकर मेरी झोली में डाल गया है। चुटकी-भर आटा था, वह भी मिट्टी में मिल गया। कोई इस तरह दुखियों को सताता है? सबके दिन एक-से नहीं रहते! आदमी को घंमड न करना चाहिए।

करुणा ने कठोर स्वर में पुकारा—प्रकाश?

प्रकाश लज्जित न हुआ। अभिमान से सिर उठाए हुए आया और बोला—वह हमारे घर भीख क्यों माँगने आयी है? कुछ काम क्यों नहीं करती?

करुणा ने उसे समझाने की चेष्टा करके कहा—शर्म नहीं आती, उल्टे और आँख दिखाते हो।

प्रकाश—शर्म क्यों आए? यह क्यों रोज भीख माँगने आती है? हमारे यहाँ क्या कोई चीज मुफ्त आती है?

करुणा—तुम्हें कुछ न देना था तो सीधे से कह देते; जाओ। तुमने यह शरारत क्यों की?

प्रकाश—उनकी आदत कैसे छूटती?

करुणा ने बिगड़कर कहा—तुम अब पिटोंगे मेरे हाथों।

प्रकाश—पिटूँगा क्यों? आप जबरदस्ती पीटेंगी? दूसरे मुल्कों में अगर कोई भीख माँगे, तो कैद कर लिया जाए। यह नहीं कि उल्टे भिखमंगो को और शह दी जाए।

करुणा—जो अपंग है, वह कैसे काम करे?

प्रकाश—तो जाकर डूब मरे, जिन्दा क्यों रहती है?

करुणा निरूत्तर हो गई। बुढ़िया को तो उसने आटा-दाल देकर विदा किया, किन्तु प्रकाश का कुतर्क उसके हृदय में फोड़े के समान टीसता रहा। उसने यह धृष्टता, यह अविनय कहाँ सीखी? रात को भी उसे बार-बार यही ख्याल सताता रहा। आधी रात के समीप एकाएक प्रकाश की नींद टूटी। लालटेन जल रही है और करुणा बैठी रो रही है। उठ बैठा और बोला—अम्माँ, अभी तुम सोई नहीं?

करुणा ने मुँह फेरकर कहा—नींद नहीं आई। तुम कैसे जग गए? प्यास तो नही लगी है?

प्रकाश—नही अम्माँ, न जाने क्यों आँख खुल गई—मुझसे आज बड़ा अपराध हुआ, अम्माँ !

करुणा ने उसके मुख की ओर स्नेह के नेत्रों से देखा।

प्रकाश—मैंने आज बुढ़िया के साथ बड़ी नटखट की। मुझे क्षमा करो, फिर कभी ऐसी शरारत न करूँगा।

यह कहकर रोने लगा। करुणा ने स्नेहार्द्र होकर उसे गले लगा लिया और उसके कपोलों का चुम्बन करके बोली—बेटा, मुझे खुश करने के लिए यह कह रहे हो या तुम्हारे मन में सचमुच पछतावा हो रहा है?

प्रकाश ने सिसकते हुए कहा—नहीं, अम्माँ, मुझे दिल से अफसोस हो रहा है। अबकी वह बुढ़िया आएगी, तो में उसे बहुत-से पैसे दूँगा।

करुणा का हृदय मतवाला हो गया। ऐसा जान पड़ा, आदित्य सामने खड़े बच्चे को आर्शीवाद दे रहे हैं और कह रहे हैं, करुणा, क्षोभ मत कर, प्रकाश अपने पिता का नाम रोशन करेगा। तेरी संपूर्ण कामनाँ पूरी हो जाएँगी।

(3)

लेकिन प्रकाश के कर्म और वचन में मेल न था और दिनों के साथ उसके चरित्र का अंग प्रत्यक्ष होता जाता था। जहीन था ही, विश्वविद्यालय से उसे वजीफे मिलते थे, करुणा भी उसकी यथेष्ट सहायता करती थी, फिर भी उसका खर्च पूरा न पड़ता था। वह मितव्ययता और सरल जीवन पर विद्वत्ता से भरे हुए व्याख्यान दे सकता था, पर उसका रहन-सहन फैशन के अंधभक्तों से जौ-भर घटकर न था। प्रदर्शन की धुन उसे हमेशा सवार रहती थी। उसके मन और बुद्धि में निरंतर द्वन्द्व होता रहता था। मन जाति की ओर था, बुद्धि अपनी ओर। बुद्धि मन को दबाए रहती थी। उसके सामने मन की एक न चलती थी। जाति-सेवा ऊसर की खेती है, वहाँ बड़े-से-बड़ा उपहार जो मिल सकता है, वह है गौरव और यश; पर वह भी स्थायी नहीं, इतना अस्थिर कि क्षण में जीवन-भर की कमाई पर पानी फिर सकता है। अतएव उसका अन्त:करण अनिवार्य वेग के साथ विलासमय जीवन की ओर झुकता था। यहां तक कि धीरे-धीरे उसे त्याग और निग्रह से घृणा होने लगी। वह दुरवस्था और दरिद्रता को हेय समझता था। उसके हृदय न था, भाव न थे, केवल मस्तिष्क था। मस्तिष्क में दर्द कहाँ? वहाँ तो तर्क हैं, मनसूबे हैं।

सिन्ध में बाढ़ आई। हजारों आदमी तबाह हो गए। विद्यालय ने वहाँ एक सेवा समिति भेजी। प्रकाश के मन में द्वंद्व होने लगा—जाऊँ या न जाऊँ? इतने दिनों अगर वह परीक्षा की तैयारी करे, तो प्रथम श्रेणी में पास हो। चलते समय उसने बीमारी का बहाना कर दिया। करुणा ने लिखा, तुम सिन्ध न गये, इसका मुझे दुख है। तुम बीमार रहते हुए भी वहां जा सकते थे। समिति में चिकित्सक भी तो थे! प्रकाश ने पत्र का उत्तर न दिया।

उड़ीसा में अकाल पड़ा। प्रजा मक्खियों की तरह मरने लगी। कांग्रेस ने पीड़ितो के लिए एक मिशन तैयार किया। उन्हीं दिनों विद्यालयों ने इतिहास के छात्रों को ऐतिहासिक खोज के लिए लंका भेजने का निश्चय किया। करुणा ने प्रकाश को लिखा—तुम उड़ीसा जाओ। किन्तु प्रकाश लंका जाने को लालायित था। वह कई दिन इसी दुविधा में रहा। अंत को सीलोन ने उड़ीसा पर विजय पाई। करुणा ने अबकी उसे कुछ न लिखा। चुपचाप रोती रही।

सीलोन से लौटकर प्रकाश छुट्टियों में घर गया। करुणा उससे खिंची-खिंची रहीं। प्रकाश मन में लज्जित हुआ और संकल्प किया कि अबकी कोई अवसर आया, तो अम्माँ को अवश्य प्रसन्न करूँगा। यह निश्चय करके वह विद्यालय लौटा। लेकिन यहां आते ही फिर परीक्षा की फिक्र सवार हो गई। यहाँ तक कि परीक्षा के दिन आ गए; मगर इम्तहान से फुरसत पाकर भी प्रकाश घर न गया। विद्यालय के एक अध्यापक काश्मीर सैर करने जा रहे थे। प्रकाश उन्हीं के साथ काश्मीर चल खड़ा हुआ। जब परीक्षा-फल निकला और प्रकाश प्रथम आया, तब उसे घर की याद आई! उसने तुरन्त करुणा को पत्र लिखा और अपने आने की सूचना दी। माता को प्रसन्न करने के लिए उसने दो-चार शब्द जाति-सेवा के विषय में भी लिखे—अब मै आपकी आज्ञा का पालन करने को तैयार हूँ। मैंने शिक्षा-सम्बन्धी कार्य करने का निश्चक किया हैं इसी विचार से मेंने वह विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। हमारे नेता भी तो विद्यालयों के आचार्यो ही का सम्मान करते हें। अभी वक इन उपाधियों के मोह से वे मुक्त नहीं हुए हे। हमारे नेता भी योग्यता, सदुत्साह, लगन का उतना सम्मान नहीं करते, जितना उपाधियों का! अब मेरी इज्जत करेंगे और जिम्मेदारी को काम सौपेंगें, जो पहले माँगे भी न मिलता।

करुणा की आस फिर बँधी।

(4)

विद्यालय खुलते ही प्रकाश के नाम रजिस्ट्रार का पत्र पहुँचा। उन्होंने प्रकाश का इंग्लैंड जाकर विद्याभ्यास करने के लिए सरकारी वजीफे की मंजूरी की सूचना दी थी। प्रकाश पत्र हाथ में लिये हर्ष के उन्माद में जाकर माँ से बोला—अम्माँ, मुझे इंग्लैंड जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वजीफा मिल गया।

करुणा ने उदासीन भाव से पूछा—तो तुम्हारा क्या इरादा है?

प्रकाश—मेरा इरादा? ऐसा अवसर पाकर भला कौन छोड़ता है!

करुणा—तुम तो स्वयंसेवकों में भरती होने जा रहे थे?

प्रकाश—तो आप समझती हैं, स्वयंसेवक बन जाना ही जाति-सेवा है? मैं इंग्लैंड से आकर भी तो सेवा-कार्य कर सकता हूँ और अम्माँ, सच पूछो, तो एक मजिस्ट्रेट अपने देश का जितना उपकार कर सकता है, उतना एक हजार स्वयंसेवक मिलकर भी नहीं कर सकते। मैं तो सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठूँगा और मुझे विश्वास है कि सफल हो जाऊँगा। करुणा ने चकित होकर पूछा-तो क्या तुम मजिस्ट्रेट हो जाओगे?

प्रकाश—सेवा-भाव रखनेवाला एक मजिस्ट्रेट कांग्रेस के एक हजार सभापतियों से ज्यादा उपकार कर सकता है। अखबारों में उसकी लम्बी-लम्बी तारीफें न छपेंगी, उसकी वक्तृताओं पर तालियाँ न बजेंगी, जनता उसके जुलूस की गाड़ी न खींचेगी और न विद्यालयों के छात्र उसको अभिनंदन-पत्र देंगे; पर सच्ची सेवा मजिस्ट्रेट ही कर सकता है।

करुणा ने आपत्ति के भाव से कहा—लेकिन यही मजिस्ट्रेट तो जाति के सेवकों को सजाऍं देते हें, उन पर गोलियाँ चलाते हैं?

प्रकाश—अगर मजिस्ट्रेट के हृदय में परोपकार का भाव है, तो वह नरमी से वही काम करता है, जो दूसरे गोलियाँ चलाकर भी नहीं कर सकते।

करुणा—मैं यह नहीं मानूँगी। सरकार अपने नौकरों को इतनी स्वाधीनता नहीं देती। वह एक नीति बना देती है और हरएक सरकारी नौकर को उसका पालन करना पड़ता है। सरकार की पहली नीति यह है कि वह दिन-दिन अधिक संगठित और दृढ़ हों। इसके लिए स्वाधीनता के भावों का दमन करना जरूरी है; अगर कोई मजिस्ट्रेट इस नीति के विरूद्ध काम करता है, तो वह मजिस्ट्रेट न रहेगा। वह हिन्दुस्तानी था, जिसने तुम्हारे बाबूजी को जरा-सी बात पर तीन साल की सजा दे दी। इसी सजा ने उनके प्राण लिये बेटा, मेरी इतनी बात मानो। सरकारी पदों पर न गिरो। मुझे यह मंजूर है कि तुम मोटा खाकर और मोटा पहनकर देश की कुछ सेवा करो, इसके बदले कि तुम हाकिम बन जाओ और शान से जीवन बिताओ। यह समझ लो कि जिस दिन तुम हाकिम की कुरसी पर बैठोगे, उस दिन से तुम्हारा दिमाग हाकिमों का-सा हो जाएगा। तुम यही चाहेगे कि अफसरों में तुम्हारी नेकनामी और तरक्की हो। एक गँवारू मिसाल लो। लड़की जब तक मैके में क्वॉँरी रहती है, वह अपने को उसी घर की समझती है, लेकिन जिस दिन ससुराल चली जाती है, वह अपने घर को दूसरो का घर समझने लगती है। माँ-बाप, भाई-बंद सब वही रहते हैं, लेकिन वह घर अपना नहीं रहता। यही दुनिया का दस्तूर है।

प्रकाश ने खीझकर कहा—तो क्या आप यही चाहती हैं कि मैं जिंदगी-भर चारों तरफ ठोकरें खाता फिरूँ?

करुणा कठोर नेत्रों से देखकर बोली—अगर ठोकर खाकर आत्मा स्वाधीन रह सकती है, तो मैं कहूँगी, ठोकर खाना अच्छा है।

प्रकाश ने निश्चयात्मक भाव से पूछा—तो आपकी यही इच्छा है?

करुणा ने उसी स्वर में उत्तर दिया—हाँ, मेरी यही इच्छा है।

प्रकाश ने कुछ जवाब न दिया। उठकर बाहर चला गया और तुरन्त रजिस्ट्रार को इनकारी-पत्र लिख भेजा; मगर उसी क्षण से मानों उसके सिर पर विपत्ति ने आसन जमा लिया। विरक्त और विमन अपने कमरें में पड़ा रहता, न कहीं घूमने जाता, न किसी से मिलता। मुँह लटकाए भीतर आता और फिर बाहर चला जाता, यहाँ तक महीना गुजर गया। न चेहरे पर वह लाली रही, न वह ओज; आँखें अनाथों के मुख की भाँति याचना से भरी हुई, ओठ हँसना भूल गए, मानों उन इनकारी-पत्र के साथ उसकी सारी सजीवता, और चपलता, सारी सरलता बिदा हो गई। करुणा उसके मनोभाव समझती थी और उसके शोक को भुलाने की चेष्टा करती थी, पर रूठे देवता प्रसन्न न होते थे। आखिर एक दिन उसने प्रकाश से कहा—बेटा, अगर तुमने विलायत जाने की ठान ही ली है, तो चले जाओ। मना न करूँगी। मुझे खेद है कि मैंने तुम्हें रोका। अगर मैं जानती कि तुम्हें इतना आघात पहुँचेगा, तो कभी न रोकती। मैंने तो केवल इस विचार से रोका था कि तुम्हें जाति-सेवा में मग्न देखकर तुम्हारे बाबूजी की आत्मा प्रसन्न होगी। उन्होंने चलते समय यही वसीयत की थी।

प्रकाश ने रूखाई से जवाब दिया—अब क्या जाऊँगा! इनकारी-खत लिख चुका। मेरे लिए कोई अब तक बैठा थोड़े ही होगा। कोई दूसरा लड़का चुन लिया होगा और फिर करना ही क्या है? जब आपकी मर्जी है कि गॉँव-गॉँव की खाक छानता फिरूँ, तो वही सही।

करुणा का गर्व चूर-चूर हो गया। इस अनुमति से उसने बाधा का काम लेना चाहा था; पर सफल न हुई। बोली—अभी कोई न चुना गया होगा। लिख दो, मैं जाने को तैयार हूं।

प्रकाश ने झुंझलाकर कहा—अब कुछ नहीं हो सकता। लोग हँसी उड़ाऍंगे। मैंने तय कर लिया है कि जीवन को आपकी इच्छा के अनुकूल बनाऊँगा।

करुणा—तुमने अगर शुद्ध मन से यह इरादा किया होता, तो यों न रहते। तुम मुझसे सत्याग्रह कर रहे हो; अगर मन को दबाकर, मुझे अपनी राह का काँटा समझकर तुमने मेरी इच्छा पूरी भी की, तो क्या? मैं तो जब जानती कि तुम्हारे मन में आप-ही-आप सेवा का भाव उत्पन्न होता। तुम आप ही रजिस्ट्रार साहब को पत्र लिख दो।

प्रकाश—अब मैं नहीं लिख सकता।

‘तो इसी शोक में तने बैठे रहोगे?’

‘लाचारी है।’

करुणा ने और कुछ न कहा। जरा देर में प्रकाश ने देखा कि वह कहीं जा रही है; मगर वह कुछ बोला नहीं। करुणा के लिए बाहर आना-जाना कोई असाधारण बात न थी; लेकिन जब संध्या हो गई और करुणा न आयी, तो प्रकाश को चिन्ता होने लगी। अम्मा कहाँ गयीं? यह प्रश्न बार-बार उसके मन में उठने लगा।

प्रकाश सारी रात द्वार पर बैठा रहा। भाँति-भाँति की शंकाऍं मन में उठने लगीं। उसे अब याद आया, चलते समय करुणा कितनी उदास थी; उसकी आंखे कितनी लाल थी। यह बातें प्रकाश को उस समय क्यों न नजर आई? वह क्यों स्वार्थ में अंधा हो गया था?

हाँ, अब प्रकाश को याद आया—माता ने साफ-सुथरे कपड़े पहने थे। उनके हाथ में छतरी भी थी। तो क्या वह कहीं बहुत दूर गयी हैं? किससे पूछे? अनिष्ट के भय से प्रकाश रोने लगा।

श्रावण की अँधेरी भयानक रात थी। आकाश में श्याम मेघमालाऍं, भीषण स्वप्न की भाँति छाई हुई थीं। प्रकाश रह-रहकार आकाश की ओर देखता था, मानो करुणा उन्हीं मेघमालाओं में छिपी बैठी हे। उसने निश्चय किया, सवेरा होते ही माँ को खोजने चलूँगा और अगर….

किसी ने द्वार खटखटाया। प्रकाश ने दौड़कर खोल, तो देखा, करुणा खड़ी है। उसका मुख-मंडल इतना खोया हुआ, इतना करूण था, जैसे आज ही उसका सोहाग उठ गया है, जैसे संसार में अब उसके लिए कुछ नहीं रहा, जैसे वह नदी के किनारे खड़ी अपनी लदी हुई नाव को डूबते देख रही है और कुछ कर नहीं सकती।

प्रकाश ने अधीर होकर पूछा—अम्माँ कहाँ चली गई थीं? बहुत देर लगाई?

करुणा ने भूमि की ओर ताकते हुए जवाब दिया—एक काम से गई थी। देर हो गई।

यह कहते हुए उसने प्रकाश के सामने एक बंद लिफाफा फेंक दिया। प्रकाश ने उत्सुक होकर लिफाफा उठा लिया। ऊपर ही विद्यालय की मुहर थी। तुरन्त ही लिफाफा खोलकर पढ़ा। हलकी-सी लालिमा चेहरे पर दौड़ गयी। पूछा—यह तुम्हें कहाँ मिल गया अम्मा?

करुणा—तुम्हारे रजिस्ट्रार के पास से लाई हूँ।

‘क्या तुम वहाँ चली गई थी?’

‘और क्या करती।’

‘कल तो गाड़ी का समय न था?’

‘मोटर ले ली थी।’

प्रकाश एक क्षण तक मौन खड़ा रहा, फिर कुंठित स्वर में बोला—जब तुम्हारी इच्छा नहीं है तो मुझे क्यों भेज रही हो? करुणा ने विरक्त भाव से कहा—इसलिए कि तुम्हारी जाने की इच्छा है। तुम्हारा यह मलिन वेश नहीं देखा जाता। अपने जीवन के बीस वर्ष तुम्हारी हितकामना पर अर्पित कर दिए; अब तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा की हत्या नहीं कर सकती। तुम्हारी यात्रा सफल हो, यही हमारी हार्दिक अभिलाषा है।

करुणा का कंठ रूँध गया और कुछ न कह सकी।

(5)

प्रकाश उसी दिन से यात्रा की तैयारियाँ करने लगा। करुणा के पास जो कुछ था, वह सब खर्च हो गया। कुछ ऋण भी लेना पड़ा। नए सूट बने, सूटकेस लिए गए। प्रकाश अपनी धुन में मस्त था। कभी किसी चीज की फरमाइश लेकर आता, कभी किसी चीज का।

करुणा इस एक सप्ताह में इतनी दुर्बल हो गयी है, उसके बालों पर कितनी सफेदी आ गयी है, चेहरे पर कितनी झुर्रियाँ पड़ गई हैं, यह उसे कुछ न नजर आता। उसकी आँखों में इंगलैंड के दृश्य समाये हुए थे। महत्त्वाकांक्षा आँखों पर परदा डाल देती है।

प्रस्थान का दिन आया। आज कई दिनों के बाद धूप निकली थी। करुणा स्वामी के पुराने कपड़ों को बाहर निकाल रही थी। उनकी गाढ़े की चादरें, खद्दर के कुरते, पाजामें और लिहाफ अभी तक सन्दूक में संचित थे। प्रतिवर्ष वे धूप में सुखाये जाते और झाड़-पोंछकर रख दिये जाते थे। करुणा ने आज फिर उन कपड़ो को निकाला, मगर सुखाकर रखने के लिए नहीं गरीबों में बॉँट देने के लिए। वह आज पति से नाराज है। वह लुटिया, डोर और घड़ी, जो आदित्य की चिरसंगिनी थीं और जिनकी बीस वर्ष से करुणा ने उपासना की थी, आज निकालकर आँगन में फेंक दी गई; वह झोली जो बरसों आदित्य के कन्धों पर आरूढ़ रह चुकी थी, आप कूड़े में डाल दी गई; वह चित्र जिसके सामने बीस वर्ष से करुणा सिर झुकाती थी, आज वही निर्दयता से भूमि पर डाल दिया गया। पति का कोई स्मृति-चिन्ह वह अब अपने घर में नहीं रखना चाहती। उसका अन्त:करण शोक और निराशा से विदीर्ण हो गया है और पति के सिवा वह किस पर क्रोध उतारे? कौन उसका अपना हैं? वह किससे अपनी व्यथा कहे? किसे अपनी छाती चीरकर दिखाए? वह होते तो क्या आप प्रकाश दासता की जंजीर गले में डालकर फूला न समाता? उसे कौन समझाए कि आदित्य भी इस अवसर पर पछताने के सिवा और कुछ न कर सकते।

प्रकाश के मित्रों ने आज उसे विदाई का भोज दिया था। वहाँ से वह संध्या समय कई मित्रों के साथ मोटर पर लौटा। सफर का सामान मोटर पर रख दिया गया, तब वह अन्दर आकर माँ से बोला—अम्मा, जाता हूँ। बम्बई पहूँचकर पत्र लिखूँगा। तुम्हें मेरी कसम, रोना मत और मेरे खतों का जवाब बराबर देना।

जैसे किसी लाश को बाहर निकालते समय सम्बन्धियों का धैर्य छूट जाता है, रूके हुए आँसू निकल पड़ते हैं और शोक की तरंगें उठने लगती हैं, वही दशा करुणा की हुई। कलेजे में एक हाहाकार हुआ, जिसने उसकी दुर्बल आत्मा के एक-एक अणु को कंपा दिया। मालूम हुआ, पाँव पानी में फिसल गया है और वह लहरों में बही जा रही है। उसके मुख से शोक या आर्शीवाद का एक शब्द भी न निकला। प्रकाश ने उसके चरण छुए, अश्रू-जल से माता के चरणों को पखारा, फिर बाहर चला। करुणा पाषाण मूर्ति की भाँति खड़ी थी।

सहसा ग्वाले ने आकर कहा—बहूजी, भइया चले गए। बहुत रोते थे।

तब करुणा की समाधि टूटी। देखा, सामने कोई नहीं है। घर में मृत्यु का-सा सन्नाटा छाया हुआ है, और मानो हृदय की गति बन्द हो गई है।

सहसा करुणा की दृष्टि ऊपर उठ गई। उसने देखा कि आदित्य अपनी गोद में प्रकाश की निर्जीव देह लिए खड़े हो रहे हैं। करुणा पछाड़ खाकर गिर पड़ी।

(6)

करुणा जीवित थी, पर संसार से उसका कोई नाता न था। उसका छोटा-सा संसार, जिसे उसने अपनी कल्पनाओं के हृदय में रचा था, स्वप्न की भाँति अनन्त में विलीन हो गया था। जिस प्रकाश को सामने देखकर वह जीवन की अँधेरी रात में भी हृदय में आशाओं की सम्पत्ति लिये जी रही थी, वह बुझ गया और सम्पत्ति लुट गई। अब न कोई आश्रय था और न उसकी जरूरत। जिन गउओं को वह दोनों वक्त अपने हाथों से दाना-चारा देती और सहलाती थी, वे अब खूँटे पर बँधी निराश नेत्रों से द्वार की ओर ताकती रहती थीं। बछड़ो को गले लगाकर पुचकारने वाला अब कोई न था, जिसके लिए दुध दुहे, मुट्ठा निकाले। खानेवाला कौन था? करुणा ने अपने छोटे-से संसार को अपने ही अंदर समेट लिया था। किन्तु एक ही सप्ताह में करुणा के जीवन ने फिर रंग बदला। उसका छोटा-सा संसार फैलते-फैलते विश्वव्यापी हो गया। जिस लंगर ने नौका को तट से एक केन्द्र पर बॉँध रखा था, वह उखड़ गया। अब नौका सागर के अशेष विस्तार में भ्रमण करेगी, चाहे वह उद्दाम तरंगों के वक्ष में ही क्यों न विलीन हो जाए।

करुणा द्वार पर आ बैठती और मुहल्ले-भर के लड़कों को जमा करके दूध पिलाती। दोपहर तक मक्खन निकालती और वह मक्खन मुहल्ले के लड़के खाते। फिर भाँति-भाँति के पकवान बनाती और कुत्तों को खिलाती। अब यही उसका नित्य का नियम हो गया। चिड़ियाँ, कुत्ते, बिल्लियाँ चींटे-चीटियाँ सब अपने हो गए। प्रेम का वह द्वार अब किसी के लिए बन्द न था। उस अंगुल-भर जगह में, जो प्रकाश के लिए भी काफी न थी, अब समस्त संसार समा गया था।

एक दिन प्रकाश का पत्र आया। करुणा ने उसे उठाकर फेंक दिया। फिर थोड़ी देर के बाद उसे उठाकर फाड़ डाला और चिड़ियों को दाना चुगाने लगी; मगर जब निशा-योगिनी ने अपनी धूनी जलायी और वेदनाऍं उससे वरदान माँगने के लिए विकल हो-होकर चलीं, तो करुणा की मनोवेदना भी सजग हो उठी—प्रकाश का पत्र पढ़ने के लिए उसका मन व्याकुल हो उठा। उसने सोचा, प्रकाश मेरा कौन है? मेरा उससे क्य प्रयोजन? हाँ, प्रकाश मेरा कौन है? हाँ, प्रकाश मेरा कौन है? हृदय ने उत्तर दिया, प्रकाश तेरा सर्वस्व है, वह तेरे उस अमर प्रेम की निशानी है, जिससे तू सदैव के लिए वंचित हो गई। वह तेरे प्राण है, तेरे जीवन-दीपक का प्रकाश, तेरी वंचित कामनाओं का माधुर्य, तेरे अश्रूजल में विहार करने वाला करने वाला हंस। करुणा उस पत्र के टुकड़ों को जमा करने लगी, माना उसके प्राण बिखर गये हों। एक-एक टुकड़ा उसे अपने खोये हुए प्रेम का एक पदचिन्ह-सा मालूम होता था। जब सारे पुरजे जमा हो गए, तो करुणा दीपक के सामने बैठकर उसे जोड़ने लगी, जैसे कोई वियोगी हृदय प्रेम के टूटे हुए तारों को जोड़ रहा हो। हाय री ममता! वह अभागिन सारी रात उन पुरजों को जोड़ने में लगी रही। पत्र दोनों ओर लिखा था, इसलिए पुरजों को ठीक स्थान पर रखना और भी कठिन था। कोई शब्द, कोई वाक्य बीच में गायब हो जाता। उस एक टुकड़े को वह फिर खोजने लगती। सारी रात बीत गई, पर पत्र अभी तक अपूर्ण था।

दिन चढ़ आया, मुहल्ले के लौंड़े मक्खन और दूध की चाह में एकत्र हो गए, कुत्तों ओर बिल्लियों का आगमन हुआ, चिड़ियाँ आ-आकर आंगन में फुदकने लगीं, कोई ओखली पर बैठी, कोई तुलसी के चौतरे पर, पर करुणा को सिर उठाने तक की फुरसत नहीं।

दोपहर हुआ, करुणा ने सिर न उठाया। न भूख थीं, न प्यास। फिर संध्या हो गई। पर वह पत्र अभी तक अधूरा था। पत्र का आशय समझ में आ रहा था—प्रकाश का जहाज कहीं-से-कहीं जा रहा है। उसके हृदय में कुछ उठा हुआ है। क्या उठा हुआ है, यह करुणा न सोच सकी? करुणा पुत्र की लेखनी से निकले हुए एक-एक शब्द को पढ़ना और उसे हृदय पर अंकित कर लेना चाहती थी।

इस भाँति तीन दिन गूजर गए। सन्ध्या हो गई थी। तीन दिन की जागी आँखें जरा झपक गई। करुणा ने देखा, एक लम्बा-चौड़ा कमरा है, उसमें मेजें और कुर्सियाँ लगी हुई हैं, बीच में ऊँचे मंच पर कोई आदमी बैठा हुआ है। करुणा ने ध्यान से देखा, प्रकाश था।

एक क्षण में एक कैदी उसके सामने लाया गया, उसके हाथ-पाँव में जंजीर थी, कमर झुकी हुई, यह आदित्य थे। करुणा की आंखें खुल गई। आँसू बहने लगे। उसने पत्र के टुकड़ों को फिर समेट लिया और उसे जलाकर राख कर डाला। राख की एक चुटकी के सिवा वहाँ कुछ न रहा, जो उसके हृदय में विदीर्ण किए डालती थी। इसी एक चुटकी राख में उसका गुड़ियोंवाला बचपन, उसका संतप्त यौवन और उसका तृष्णामय वैधव्य सब समा गया।

प्रात:काल लोगों ने देखा, पक्षी पिंजड़े में उड़ चुका था! आदित्य का चित्र अब भी उसके शून्य हृदय से चिपटा हुआ था। भग्नहृदय पति की स्नेह-स्मृति में विश्राम कर रहा था और प्रकाश का जहाज योरप चला जा रहा था।

 लांछन मुंशी प्रेमचंद की कहानी 

(1)

अगर संसार में ऐसा प्राणी होता, जिसकी आँखें लोगों के हृदयों के भीतर घुस सकतीं, तो ऐसे बहुत कम स्त्री-पुरुष होंगे, जो उसके सामने सीधी आँखें करके ताक सकते ! महिला-आश्रम की जुगनूबाई के विषय में लोगों की धारणा कुछ ऐसी ही हो गयी थी। वह बेपढ़ी-लिखी, गरीब, बूढ़ी औरत थी, देखने में बड़ी सरल, बड़ी हँसमुख; लेकिन जैसे किसी चतुर प्रूफरीडर की निगाह गलतियों ही पर जा पड़ती है; उसी तरह उसकी आँखें भी बुराइयों ही पर पहुँच जाती थीं। शहर में ऐसी कोई महिला न थी; जिसके विषय में दो-चार लुकी-छिपी बातें उसे न मालूम हों। उसका ठिगना स्थूल शरीर, सिर के खिचड़ी बाल, गोल मुँह, फूले-फूले गाल, छोटी-छोटी आँखें उसके स्वभाव की प्रखरता और तेजी पर परदा-सा डाले रहती थीं; लेकिन जब वह किसी की कुत्सा करने लगती, तो उसकी आकृति कठोर हो जाती, आँखें फैल जातीं और कंठ-स्वर कर्कश हो जाता। उसकी चाल में बिल्लियों का-सा संयम था; दबे पाँव धीरे-धीरे चलती, पर शिकार की आहट पाते ही, जस्त मारने को तैयार हो जाती थी। उसका काम था, महिला-आश्रम में महिलाओं की सेवा-टहल करना; पर महिलाएँ उसकी सूरत से काँपती थीं। उसका आतंक था, कि ज्यों ही वह कमरे में कदम रखती, ओठों पर खेलती हुई हँसी जैसे रो पड़ती थी। चहकने वाली आवाजें जैसे बुझ जाती थीं, मानो उनके मुख पर लोगों को अपने पिछले रहस्य अंकित नजर आते हों। पिछले रहस्य ! कौन है, जो अपने अतीत को किसी भयंकर जंतु के समान कटघरों में बंद करके न रखना चाहता हो। धनियों को चोरों के भय से निद्रा नहीं आती, मानियों को उसी भाँति मान की रक्षा करनी पड़ती है। वह जंतु, जो पहले कीट के समान अल्पाकार रहा होगा, दिनों के साथ दीर्घ और सबल होता जाता है, यहाँ तक हम उसकी याद ही से काँप उठते हैं; और अपने ही कारनामों की बात होती, तो अधिकांश देवियाँ जुगनू को दुत्कारतीं; पर यहाँ तो मैके और ससुराल, ननियाल, ददियाल, फुफियाल और मौसियाल, चारों ओर की रक्षा करनी थी और जिस किले में इतने द्वार हों, उसकी रक्षा कौन कर सकता है। वहाँ तो हमला करने वाले के सामने मस्तक झुकाने में ही कुशल है। जुगनू के दिल में हजारों मुरदे गड़े पड़े थे और वह जरूरत पड़ने पर उन्हें उखाड़ दिया करती थी। जहाँ किसी महिला ने दून की ली, या शान दिखायी, वहाँ जुगनू की त्योरियाँ बदलीं। उसकी एक कड़ी निगाह अच्छे- अच्छे को दहला देती थी; मगर यह बात न थी कि स्त्रियाँ उससे घृणा करती हों। नहीं, सभी बड़े चाव से उससे मिलतीं और उसका आदर-सत्कार करतीं। अपने पड़ोसियों की निंदा सनातन से मनुष्य के लिए मनोरंजन का विषय रही है और जुगनू के पास इसका काफी सामान था।

(2)

नगर में इंदुमती-महिला-पाठशाला नाम का एक लड़कियों का हाईस्कूल था। हाल में मिस खुरशेद उसकी हेड मिस्ट्रेस होकर आयी थीं। शहर में महिलाओं का दूसरा क्लब न था। मिस खुरशेद एक दिन आश्रम में आयीं। ऐसी ऊँचे दर्जे की शिक्षा पायी हुई आश्रम में कोई देवी न थी। उनकी बड़ी आवभगत हुई। पहले ही दिन मालूम हो गया, मिस खुरशेद के आने से आश्रम में एक नये जीवन का संचार होगा। कुछ इस तरह दिल खोलकर हरेक से मिलीं, कुछ ऐसी दिलचस्प बातें कीं, कि सभी देवियाँ मुग्ध हो गयीं। गाने में चतुर थीं। व्याख्यान भी खूब देती थीं और अभिनय-कला में तो उन्होंने लंदन में नाम कमा लिया था। ऐसी सर्वगुण-संपन्न देवी का आना आश्रम का सौभाग्य था। गुलाबी गोरा रंग, कोमल गाल, मदभरी आँखें, नये फैशन के कटे हुए केश, एक-एक अंग साँचे में ढला हुआ; मादकता की इससे अच्छी प्रतिमा न बन सकती थी।

चलते समय मिस खुरशेद ने मिसेज टंडन को, जो आश्रम की प्रधान थीं, एकांत में बुलाकर पूछा- वह बुढ़िया कौन है?

जुगनू कई बार कमरे में आकर मिस खुरशेद को अन्वेषण की आँखों से देख चुकी थी, मानो कोई शहसवार किसी नयी घोड़ी को देख रहा हो।

मिसेज टंडन ने मुस्कराकर कहा- यहाँ ऊपर का काम करने के लिए नौकर है। कोई काम हो, तो बुलाऊँ?

मिस खुरशेद ने धन्यवाद देकर कहा- जी नहीं, कोई विशेष काम नहीं है। मुझे चालबाज मालूम होती है। यह भी देख रही हूँ, कि वह सेविका नहीं स्वामिनी है। मिसेज टंडन तो जुगनू से जली बैठी ही थीं, इनके वैधव्य को लांछित करने के लिए, वह उन्हें सदा-सोहागिन कहा करती थी। मिस खुरशेद से उसकी जितनी बुराई हो सकी, वह की और उससे सचेत रहने का आदेश दिया।

मिस खुरशेद ने गंभीर होकर कहा- तब तो भयंकर स्त्री है। तभी सब देवियाँ इससे काँपती हैं। आप इसे निकाल क्यों नहीं देतीं? ऐसी चुड़ैल को एक दिन न रखना चाहिए।

मिसेज टंडन ने अपनी मजबूरी बताई- निकाल कैसे दूँ; जिंदा रहना मुश्किल हो जाय। हमारा भाग्य उसकी मुट्ठी में है। आपको दो-चार दिन में उसके जौहर खुलेंगे। मैं तो डरती हूँ, कहीं आप भी उसके पंजे में न फँस जायें ! उसके सामने भूलकर भी किसी पुरुष से बातें न कीजिएगा। इसके गोयंदे न जाने कहाँ-कहाँ लगे हुए हैं। नौकर से मिलकर भेद यह ले, डाकिये से मिलकर चिट्ठियाँ यह देखे, लड़कों को फुसलाकर घर का हाल यह पूछे। इस राँड को खुफिया पुलिस में जाना चाहिए था। यहाँ न जाने क्यों आ मरी।

मिस खुरशेद चिंतित हो गयीं, मानो इस समस्या को हल करने की फिक्र में हों। एक क्षण बाद बोलीं- अच्छा मैं इसे ठीक करूँगी; अगर न निकाल दूँ, तो कहना।

मिसेज टंडन- निकाल देने ही से क्या होगा। उसकी जबान तो न बंद होगी। तब तो वह और भी निडर होकर कीचड़ फेंकेगी।

मिस खुरशेद ने निश्चिंत स्वर में कहा- मैं उसकी जबान भी बंद कर दूँगी बहन। आप देख लीजिएगा। टके की औरत, यहाँ बादशाहत कर रही है। मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकती।

वह चली गयी, तो मिसेज टंडन ने जुगनू को बुलाकर कहा- इस नयी मिस साहब को देख। यहाँ प्रिंसिपल हैं।

जुगनू ने द्वेष भरे हुए स्वर में कहा- आप देखें। मैं ऐसी सैकड़ों छोकरियाँ देख चुकी हूँ। आँखो का पानी जैसे मर गया हो।

मिसेज टंडन धीरे से बोलीं- तुम्हें कच्चा ही खा जायेंगी। उनसे डरती रहना। कह गयी हैं, मैं इसे ठीक करके छोडूँगी। मैंने सोचा, तुम्हें चेता दूँ। ऐसा न हो, उसके सामने कुछ ऐसी-वैसी बातें कह बैठो।

जुगनू ने मानो तलवार खींचकर कहा- मुझे चेताने का काम नहीं, उन्हें चेता दीजिएगा। यहाँ का आना न बंद कर दूँ, तो अपने बाप की नहीं। वह घूमकर दुनिया देख आयी हैं, तो यहाँ घर बैठे दुनिया देख चुकी हूँ।

मिसेज टंडन ने पीठ ठोंकी- मैंने समझा दिया भाई, आगे तुम जानो तुम्हारा काम जाने।

जुगनू- आप चुपचाप देखती जाइए। कैसा तिगनी का नाच नचाती हूँ। इसने अब तक ब्याह क्यों नहीं किया? उमिर तो तीस के लगभग होगी?

मिसेज टंडन ने रद्दा जमाया- कहती है, मैं शादी करना ही नहीं चाहती। किसी पुरुष के हाथ क्यों अपनी आजादी बेचूँ?

जुगनू ने आँखें नचाकर कहा- कोई पूछता ही न होगा। ऐसी बहुत-सी क्वाँरियाँ देख चुकी हूँ। सत्तर चूहे खाकर, बिल्ली चली हज्ज को !

और कई लौंडियाँ आ गयीं और बात का सिलसिला बंद हो गया।

(3)

दूसरे दिन सबेरे जुगनू मिस खुरशेद के बँगले पर पहुँची। मिस खुरशेद हवा खाने गयी हुई थीं। खानसामा ने पूछा – कहाँ से आती हो?

जुगनू- यहीं रहती हूँ बेटा। मेम साहब कहाँ से आयी हैं, तुम तो इनके पुराने नौकर होंगे?

खानसामा- नागपुर से आयी हैं ! मेरा घर भी वहीं है। दस साल से इनके साथ हूँ।

जुगनू- किसी ऊँचे खानदान की होंगी? वह तो रंग-ढंग से ही मालूम होता है।

खानसामा- खानदान तो कुछ ऐसा ऊँचा नहीं, हाँ तकदीर की अच्छी हैं। इनकी माँ अभी तक मिशन में 30/- पाती हैं। यह पढ़ने में तेज थीं वजीफा मिल गया, विलायत चली गयीं, बस तकदीर खुल गयी। अब तो अपनी माँ को बुलानेवाली हैं, लेकिन वह बुढ़िया शायद ही आये। यह गिरजे-विरजे नहीं जातीं, इससे दोनों में पटती नहीं।

जुगनू- मिजाज की तेज मालूम होती हैं।

खानसामा- नहीं; यों तो बहुत नेक हैं, गिरजे नहीं जातीं। तुम क्या नौकरी की तलाश में हो? करना चाहो, तो कर लो, एक आया रखना चाहती हैं।

जुगनू- नहीं बेटा, मैं अब क्या नौकरी करूँगी। इस बँगले में पहले जो मेम साहब रहती थीं, वह मुझ पर बड़ी निगाह रखती थीं। मैंने समझा, चलूँ नयी मेम साहब को आसीरबाद दे आऊँ।

खानसामा- यह आसीरबाद लेनेवाली मेम साहब नहीं हैं। ऐसों से बहुत चिढ़ती हैं। कोई मँगता आया और उसे डाँट बताई। कहती हैं, बिना काम किये किसी को जिंदा रहने का हक नहीं है। भला चाहती हो, तो चुपके से राह लो।

जुगनू- तो यह कहो, इनका कोई धरम-करम नहीं। फिर भला गरीबों पर क्यों दया करने लगीं।

जुगनू को अपनी दीवार खड़ी करने के लिए काफी सामान मिल गया- नीच खानदान की है, माँ से नहीं पटती; धर्म से विमुख है। पहले धावे में इतनी सफलता कुछ कम न थी। चलते-चलते खानसामा से इतना और पूछा- इनके साहब क्या करते हैं?

खानसामा ने मुस्कराकर कहा- इनकी तो अभी शादी ही नहीं हुई। साहब कहाँ से होंगे।

जुगनू ने बनावटी आश्चर्य से कहा- अरे, अब तक ब्याह ही नहीं हुआ। हमारे यहाँ तो दुनिया हँसने लगे।

खानसामा- अपना-अपना रिवाज है। इनके यहाँ तो कितनी ही औरतें उम्र भर ब्याह नहीं करतीं !

जुगनू ने मार्मिक भाव से कहा- ऐसी क्वाँरियों को मैं बहुत देख चुकी। हमारी बिरादरी में कोई इस तनो रहे, तो थुड़ी-थुड़ी हो जाय। मुदा इनके यहाँ जो जी में आवे करो, कोई नहीं पूछता।

इतने में मिस खुरशेद आ पहुँचीं। गुलाबी जाड़ा पड़ने लगा था। मिस साहब साड़ी के ऊपर ओवरकोट पहने हुए थीं। एक हाथ में छतरी थी, दूसरे में छोटे कुत्ते की जंजीर। प्रभात की शीतल वायु में व्यायाम ने कपोलों को ताजा और सुर्ख कर दिया था। जुगनू ने झुककर सलाम किया, पर उन्होंने उसे देखकर भी न देखा। अंदर जाते ही खानसामा को बुलाकर पूछा- यह औरत क्या करने आयी है।

खानसामा ने जूते का फीता खोलते हुए कहा- भिखारिन है हुजूर ! पर औरत समझदार है। मैंने कहा, यहाँ नौकरी करेगी, तो राजी नहीं हुई। पूछने लगी, इनके साहब क्या करते हैं। जब मैंने बता दिया, तो इसे बड़ा ताज्जुब हुआ और होना ही चाहे। हिंदुओं में तो दुधमुँहे बालकों तक का विवाह हो जाता है।

खुरशेद ने जाँच की- और क्या कहती थी?

‘और तो कोई बात नहीं हुजूर !’

‘अच्छा, उसे मेरे पास भेज दो !’

(4)

जुगनू ने ज्यों ही कमरे में कदम रक्खा, मिस खुरशेद ने कुरसी से उठकर स्वागत किया- आइए माँजी ! मैं जरा सैर करने चली गई थी। आपके आश्रम में तो सब कुशल है?

जुगनू एक कुरसी का तकिया पकड़कर खड़ी-खड़ी बोली- कुशल है मिस साहब ! मैंने कहा, आपको आसीरबाद दे आऊँ। मैं आपकी चेरी हूँ। जब कोई काम पड़े मुझे याद कीजिएगा। यहाँ अकेले तो हुजूर को अच्छा न लगता होगा।

मिस खुरशेद- मुझे अपने स्कूल की लड़कियों के साथ बड़ा आनंद मिलता है, वह सब मेरी ही लड़कियाँ हैं।

जुगनू ने मातृ-भाव से सिर हिलाकर कहा- यह ठीक है मिस साहब, पर अपना, अपना ही है। दूसरा अपना हो जाय, तो अपनों के लिए कोई क्यों रोये !

सहसा एक सुंदर सजीला युवक रेशमी सूट धारण किये जूते चरमर करता हुआ अंदर आया। मिस खुरशेद ने इस तरह दौड़कर प्रेम से उसका अभिवादन किया, मानो जामे में फूली न समाती हों। जुगनू उसे देखकर कोने में दुबक गयी !

खुरशेद ने युवक से गले मिलकर कहा- प्यारे ! मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूँ। (जुगनू से) माँजी, आप जायें फिर कभी आना। यह हमारे परम मित्र विलियम किंग हैं। हम और यह बहुत दिनों तक साथ-साथ पढ़े हैं।

जुगनू चुपके से निकलकर बाहर आई। खानसामा खड़ा था। पूछा- यह लौंडा कौन है?

खानसामा ने सिर हिलाया- मैंने इसे आज ही देखा है। शायद अब क्वाँरपन से जी ऊबा ! अच्छा तरहदार जवान है।

जुगनू- दोनों इस तरह टूटकर गले मिले हैं कि मैं तो लाज के मारे गड़ गयी। ऐसा चूमा-चाटी तो जोरू-खसम में नहीं होती। दोनों लिपट गये। लौंडा तो मुझे देखकर कुछ झिझकता था; पर तुम्हारी मिस साहब तो जैसे मतवाली हो गई थीं।

खानसामा ने मानो अमंगल के आभास से कहा- मुझे तो कुछ बेढब मुआमला नजर आता है।

जुगनू तो यहाँ से सीधे मिसेज टंडन के घर पहुँची। इधर मिस खुरशेद और युवक में बातें होने लगीं।

मिस खुरशेद ने कहकहा मारकर कहा- तुमने अपना पार्ट खूब खेला लीला, बुढ़िया सचमुच चौंधिया गयी !

लीला- मैं तो डर रही थी, कि कहीं बुढ़िया भाँप न जाय।

मिस खुरशेद- मुझे विश्वास था, वह आज जरूर आयेगी। मैंने दूर ही से उसे बरामदे में देखा और तुम्हें सूचना दी। आज आश्रम में बड़े मजे रहेंगे। जी चाहता है, महिलाओं की कनफुसकियाँ सुनती ! देख लेना, सभी उसकी बातों पर विश्वास करेंगी।

लीला- तुम भी तो जान-बूझकर दलदल में पाँव रख रही हो।

मिस खुरशेद- मुझे अभिनय में मजा आता है। दिल्लगी रहेगी। बुढ़िया ने बड़ा जुल्म कर रखा है। जरा उसे सबक देना चाहती हूँ। कल तुम इसी वक्त इसी ठाट से फिर आ जाना। बुढ़िया कल फिर आयेगी। उसके पेट में पानी न हजम होगा। नहीं, ऐसा क्यों? जिस वक्त वह आयेगी, मैं तुम्हें खबर दूँगी। बस, तुम छैला बनी हुई पहुँच जाना।

(5)

आश्रम में उस दिन जुगनू को दम मारने की फुर्सत न मिली। उसने सारा वृत्तांत मिसेज टंडन से कहा। मिसेज टंडन दौड़ी हुई आश्रम पहुँचीं और अन्य महिलाओं को खबर सुनायी। जुगनू उसकी तसदीक करने के लिए बुलायी गयी। जो महिला आती, वह जुगनू के मुँह से यह कथा सुनती। हर एक रिहर्सल में कुछ-कुछ रंग और चढ़ जाता। यहाँ तक कि दोपहर होते-होते सारे शहर के सभ्य समाज में वह खबर गूँज उठी।

एक देवी ने पूछा- यह युवक है कौन !

मिसेज टंडन- सुना तो, उनके साथ का पढ़ा हुआ है। दोनों में पहले से कुछ बातचीत रही होगी। वही तो मैं कहती थी कि इतनी उम्र हो गयी, यह क्वाँरी कैसे बैठी है? अब कलई खुली।

जुगनू- और कुछ हो या न हो, जवान तो बाँका है।

टंडन- यह हमारी विद्वान बहनों का हाल है।

जुगनू- मैं तो उसकी सूरत देखते ही ताड़ गयी थी। धूप में बाल नहीं सुफेद किये हैं।

टंडन- कल फिर जाना।

जुगनू- कल नहीं, मैं आज रात ही को जाऊँगी। लेकिन रात को जाने के लिए कोई बहाना जरूरी था। मिसेज टंडन ने आश्रम के लिए एक किताब मँगवा भेजी। रात को नौ बजे जुगनू मिस खुरशेद के बँगले पर जा पहुँची। संयोग से लीलावती उस वक्त मौजूद थी; बोली, बुढ़िया तो बेतरह पीछे पड़ गयी।

मिस खुरशेद- मैंने तुमसे कहा, था, उसके पेट में पानी न पचेगा। तुम जाकर रूप भर जाओ। तब तक मैं बातों में लगाती हूँ। शराबियों की तरह अंट-संट बकना शुरू करना। मुझे भगा ले जाने के प्रस्ताव भी करना, बस यों बन जाना जैसे अपने होश में नहीं हो।

लीला मिशन में डाक्टर थी। उसका बँगला भी पास ही था। वह चली गयी, तो मिस खुरशेद ने जुगनू को बुलाया।

जुगनू ने एक पुरजा उसको देकर कहा- मिसेज टंडन ने यह किताब माँगी है। मुझे आने में देर हो गयी। मैं इस वक्त आपको कष्ट न देती; पर सबेरे ही वह मुझसे माँगेंगी। हजारों रुपये महीने की आमदनी है मिस साहब, मगर एक-एक कौड़ी दाँत से पकड़ती हैं। इनके द्वारे पर भिखारी को भीख तक नहीं मिलती।

मिस खुरशेद ने पुरजा देखकर कहा- इस वक्त तो यह किताब नहीं मिल सकती, सुबह ले जाना। तुमसे कुछ बातें करनी हैं। बैठो, मैं अभी आती हूँ।

वह परदा उठाकर पीछे के कमरे में चली गयी और वहाँ से कोई पंद्रह मिनट में एक सुंदर रेशमी साड़ी पहने, इत्र में बसी हुई, मुँह पर पाउडर लगाये निकली। जुगनू ने उसे आँखें फाड़कर देखा। ओ हो ! यह ऋंगार ! शायद इस समय वह लौंडा आनेवाला होगा। तभी यह तैयारियाँ हैं। नहीं, सोने के समय क्वाँरियों को बनाव-सँवार की क्या जरूरत? जुगनू की नीति में स्त्रियों के ऋंगार का केवल एक उद्देश्य था, पति को लुभाना। इसलिए सोहागिनों के सिवा ऋंगार और सभी के लिए वर्जित था ! अभी खुरशेद कुरसी पर बैठने भी न पायी थी कि जूतों का चरमर सुनाई दिया और एक क्षण में विलियम किंग ने कमरे में कदम रक्खा। उसकी आँखें चढ़ी हुई मालूम होती थीं, और कपड़ों से शराब की गन्ध आ रही थी। उसने बेधड़क मिस खुरशेद को छाती से लगा लिया और बार-बार उसके कपोलों के चुंबन लेने लगा।

मिस खुरशेद ने अपने को उसके कर-पाश से छुड़ाने की चेष्टा करके कहा- चलो हटो, शराब पीकर आये हो।

किंग ने उसे और चिमटाकर कहा- आज तुम्हें भी पिलाऊँगा प्रिये! तुमको पीना होगा। फिर हम दोनों लिपटकर सोवेंगे। नशे में प्रेम कितना सजीव हो जाता है, इसकी परीक्षा कर लो।

मिस खुरशेद ने इस तरह जुगनू की उपस्थिति का उसे संकेत किया कि जुगनू पर नजर पड़ जाय। पर किंग नशे में मस्त था, जुगनू की तरफ देखा ही नहीं।

मिस खुरशेद ने रोष के साथ अपने को अलग करके कहा- तुम इस वक्त आपे में नहीं हो। इतने उतावले क्यों हुए जाते हो? क्या मैं कहीं भागी जा रही हूँ?

किंग- इतने दिनों से चोरों की तरह आया हूँ, आज से मैं खुले खजाने आऊँगा।

खुरशेद- तुम तो पागल हो रहे हो। देखते नहीं हो, कमरे में कौन बैठा हुआ है?

किंग ने हकबकाकर जुगनू की तरफ देखा और झिझककर बोला- यह बुढ़िया यहाँ कब आयी? तू यहाँ क्यों आयी बुड्ढी ! शैतान की बच्ची ! यहाँ भेद लेने आती है? हमको बदनाम करना चाहती है? मैं तेरा गला घोंट दूँगा। ठहर भागती कहाँ है? मैं तुझे जिंदा न छोडूँगा !

जुगनू बिल्ली की तरह कमरे से निकली और सिर पर पाँव रखकर भागी। उधर कमरे से कहकहे उठ-उठकर छत को हिलाने लगे।

जुगनू उसी वक्त मिसेज टंडन के घर पहुँची, उसके पेट में बुलबुले उठ रहे थे; पर मिसेज टंडन सो गयी थीं। वहाँ से निराश होकर उसने कई दूसरे घरों की कुंडी खटखटाई; पर कोई द्वार न खुला और दुखिया को सारी रात इसी तरह काटनी पड़ी, मानो कोई रोता हुआ बच्चा गोद में हो। प्रात:काल वह आश्रम में जा कूदी।

कोई आधा घंटे में मिसेज टंडन भी आयीं। उन्हें देखकर उसने मुँह फेर लिया।

मिसेज टंडन ने पूछा- रात क्या तुम मेरे घर आयी थीं? इस वक्त मुझसे महाराज ने कहा।

जुगनू ने विरक्त भाव से कहा- प्यासा ही तो कुएँ के पास जाता है। कुआँ थोड़े ही प्यासे के पास आता है। मुझे आग में झोंककर आप दूर हट गयीं। भगवान ने मेरी रक्षा की, नहीं कल जान ही गयी थी।

मिसेज टंडन ने उत्सुकता से कहा- क्या, हुआ क्या, कुछ कहो तो? मुझे तुमने जगा क्यों न लिया? तुम तो जानती हो, मेरी आदत सबेरे सो जाने की है।

‘महाराज ने घर में घुसने ही न दिया। जगा कैसे लेती? आपको इतना तो सोचना चाहिए था, कि वह वहाँ गयी है, तो आती होगी? घड़ी भर बाद ही सोतीं, तो क्या बिगड़ जाता; पर आपको किसी की क्या परवाह !’

‘तो क्या हुआ, मिस खुरशेद मारने दौड़ीं?’

‘वह नहीं मारने दौड़ीं, उनका वह खसम है, वह मारने दौड़ा। लाल आँखें निकाले आया और मुझसे कहा, निकल जा। जब तक मैं निकलूँ, तब तक हंटर खींचकर दौड़ ही तो पड़ा। मैं सिर पर पाँव रखकर न भागती तो चमड़ा उधोड़ डालता। और वह राँड बैठी तमाशा देखती रही। दोनों में पहले से सधी-बदी थी। ऐसी कुलटाओं का मुँह देखना पाप है। बेसवा भी इतनी निर्लज्ज न होगी।’

जरा देर में और देवियाँ आ पहुँचीं। यह वृत्तांत सुनने के लिए सभी उत्सुक हो रही थीं। जुगनू की कैंची अविश्रांत रूप से चलती रही। महिलाओं को इस वृत्तांत में इतना आनंद आ रहा था कि कुछ न पूछो। एक-एक बात को खोद-खोदकर पूछती थीं। घर के काम-धंधे भूल गये, खाने-पीने की सुधि भी न रही; और एक बार सुनकर उनकी तृप्ति न होती थी, बार-बार वही कथा नये आनंद से सुनती थीं।

मिसेज टंडन ने अंत में कहा- हमें आश्रम में ऐसी महिलाओं को लाना अनुचित है। आप लोग इस प्रश्न पर विचार करें।

मिसेज पांडया ने समर्थन किया- हम आश्रम को आदर्श से गिराना नहीं चाहते। मैं तो कहती हूँ, ऐसी औरत किसी संस्था की प्रिंसिपल बनने के योग्य नहीं।

मिसेज बाँगड़ा ने फरमाया- जुगनूबाई ने ठीक कहा था, ऐसी औरत का मुँह देखना भी पाप है। उससे साफ कह देना चाहिए, आप यहाँ तशरीफ न लावें।

अभी यह खिचड़ी पक रही थी कि आश्रम के सामने एक मोटर आकर रुकी। महिलाओं ने सिर उठा-उठाकर देखा, गाड़ी में मिस खुरशेद और विलियम किंग बैठे हुए थे।

जुगनू ने मुँह फैलाकर हाथ से इशारा किया, वही लौंडा है। महिलाओं का संपूर्ण समूह चिक के सामने आने के लिए विकल हो गया।

मिस खुरशेद ने मोटर से उतरकर हुड बंद कर दिया और आश्रम के द्वार की ओर चलीं। महिलाएँ भाग-भागकर अपनी-अपनी जगह आ बैठीं।

मिस खुरशेद ने कमरे में कदम रक्खा। किसी ने स्वागत न किया। मिस खुरशेद ने जुगनू की ओर नि:संकोच आँखों से देखकर मुस्कराते हुए कहा- कहिए बाईजी, रात आपको चोट तो नहीं आयी?

जुगनू ने बहुतेरी दीदा-दिलेर स्त्रियाँ देखी थीं; पर इस ढिठाई ने उसे चकित कर दिया। चोर हाथ में चोरी का माल लिये, साह को ललकार रहा था।

जुगनू ने ऐंठकर कहा- जी न भरा हो, तो अब पिटवा दो। सामने ही तो है।

खुरशेद- वह इस वक्त तुमसे अपना अपराध क्षमा कराने आये हैं। रात वह नशे में थे।

जुगनू ने मिसेज टंडन की ओर देखकर कहा- और आप भी तो कुछ कम नशे में नहीं थीं।

खुरशेद ने व्यंग्य समझकर कहा- मैंने आज तक कभी नहीं पी, मुझ पर झूठा इलजाम मत लगाओ।

जुगनू ने लाठी मारी- शराब से भी बड़ी नशे की चीज है कोई; वह उसी का नशा होगा। उन महाशय को परदे में क्यों ढक दिया। देवियाँ भी तो उनकी सूरत देखतीं।

मिस खुरशेद ने शरारत की- सूरत तो उनकी लाख-दो-लाख में एक है।

मिसेज टंडन ने आशंकित होकर कहा- नहीं, उन्हें यहाँ लाने की जरूरत नहीं ! आश्रम को हम बदनाम नहीं करना चाहते।

मिस खुरशेद ने आग्रह किया- मुआमले को साफ करने के लिए उनका आप लोगों के सामने आना जरूरी है। एकतरफा फैसला आप क्यों करती हैं?

मिसेज टंडन ने टालने के लिए कहा- यहाँ कोई मुकदमा थोड़े ही पेश है !

मिस खुरशेद- वाह ! मेरी इज्जत में बट्टा लगा जा रहा है, और आप कहती हैं, कोई मुकदमा नहीं है? मिस्टर किंग आयेंगे और आपको उनका बयान सुनना होगा।

मिसेज टंडन को छोड़कर और सभी महिलाएँ किंग को देखने के लिए उत्सुक थीं। किसी ने विरोध न किया।

खुरशेद ने द्वार पर आकर ऊँची आवाज से कहा- तुम जरा यहाँ चले आओ !

हुड खुला और मिस लीलावती रेशमी साड़ी पहने मुस्कराती हुई निकल आईं।

आश्रम में सन्नाटा छा गया। देवियाँ विस्मित आँखो से लीलावती को देखने लगीं।

जुगनू ने आँखें चमकाकर कहा- उन्हें कहाँ छिपा दिया आपने?

खुरशेद- छूमंतर से उड़ गये। जाकर गाड़ी देख लो।

जुगनू लपककर गाड़ी के पास गयी और खूब देख-भालकर मुँह लटकाये हुए लौटी।

मिस खुरशेद ने पूछा- क्या हुआ, मिला कोई?

जुगनू- मैं यह तिरिया-चरित्तर क्या जानूँ। (लीलावती को गौर से देखकर) और मरदों को साड़ी पहनाकर आँखो में धूल झोंक रही हो। यही तो हैं, वह रात वाले साहब !

खुरशेद- खूब पहचानती हो?

जुगनू- हाँ-हाँ, क्या अंधी हूँ?

मिसेज टंडन- क्या पागलों-सी बातें करती हो जुगनू, यह तो डाक्टर लीलावती हैं।

जुगनू- (उँगली चमकाकर) चलिए-चलिए, लीलावती हैं। साड़ी पहनकर औरत बनते लाज भी नहीं आती ! तुम रात को इनके घर नहीं थे?

लीलावती ने विनोद-भाव से कहा- मैं कब इनकार कर रही हूँ। इस वक्त लीलावती हूँ। रात को विलियम किंग बन जाती हूँ। इसमें बात ही क्या है !

देवियों को अब यथार्थ की लालिमा दिखाई दी। चारों तरफ कहकहे पड़ने लगे। कोई तालियाँ बजाती थीं, कोई डाक्टर लीलावती की गरदन से लिपट जाती थीं; कोई मिस खुरशेद की पीठ पर थपकियाँ देती थीं। कई मिनट तक हू-हक मचता रहा। जुगनू का मुँह उस लालिमा में बिलकुल जरा-सा निकल आया। जबान बंद हो गयी। ऐसा चरका उसने कभी न खाया था। इतनी जलील कभी न हुई थी।

मिसेज मेहरा ने डाँट बताई- अब बोलो दाई, लगी मुँह में कालिख कि नहीं?

मिसेज बाँगड़ा- इसी तरह सबको बदनाम करती है।

लीलावती- आप लोग भी तो जो यह कहती है, उस पर विश्वास कर लेती हैं।

इस हरबोंग में जुगनू को किसी ने जाते न देखा। अपने सिर पर यह तूफान उठते देखकर उसे चुपके से सरक जाने में ही अपनी कुशल मालूम हुई। पीछे के द्वार से निकली और गलियों-गलियों भागी।

मिस खुरशेद ने कहा- जरा उससे पूछो; मेरे पीछे क्यों पड़ गयी थी?

मिसेज टंडन ने पुकारा, पर जुगनू कहाँ ! तलाश होने लगी। जुगनू गायब !

उस दिन से शहर में फिर किसी ने जुगनू की सूरत नहीं देखी। आश्रम के इतिहास में यह मुआमला आज भी उल्लेख और मनोरंजन का विषय बना हुआ है।

स्वामिनी मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

शिवदास ने भंडारे की कुंजी अपनी बहू रामप्यारी के सामने फेंककर अपनी बूढ़ी आँखों में आँसू भरकर कहा- बहू, आज से गिरस्ती की देखभाल तुम्हारे ऊपर है। मेरा सुख भगवान से नहीं देखा गया, नहीं तो क्या जवान बेटे को यों छीन लेते! उसका काम करने वाला तो कोई चाहिए। एक हल तोड़ दूँ, तो गुजारा न होगा। मेरे ही कुकरम से भगवान का यह कोप आया है, और मैं ही अपने माथे पर उसे लूँगा। बिरजू का हल अब मैं ही संभालूँगा। अब घर की देख-रेख करने वाला, धरने-उठाने वाला तुम्हारे सिवा दूसरा कौन है? रोओ मत बेटा, भगवान की जो इच्छा थी, वह हुआ; और जो इच्छा होगी वह होगा। हमारा-तुम्हारा क्या बस है? मेरे जीते-जी तुम्हें कोई टेढ़ी आँख से देख भी न सकेगा। तुम किसी बात का सोच मत किया करो। बिरजू गया, तो अभी बैठा ही हुआ हूँ।

रामप्यारी और रामदुलारी दो सगी बहनें थीं। दोनों का विवाह मथुरा और बिरजू दो सगे भाइयों से हुआ। दोनों बहनें नैहर की तरह ससुराल में भी प्रेम और आनंद से रहने लगीं। शिवदास को पेंशन मिली। दिन-भर द्वा र पर गप-शप करते। भरा-पूरा परिवार देखकर प्रसन्न होते और अधिकतर धर्म-चर्चा में लगे रहते थे; लेकिन दैवगति से बड़ा लड़का बिरजू बिमार पड़ा और आज उसे मरे हुए पंद्रह दिन बीत गये। आज क्रिया-कर्म से फुरसत मिली और शिवदास ने सच्चे कर्मवीर की भाँति फिर जीवन संग्राम के लिए कमर कस ली। मन में उसे चाहे कितना ही दु:ख हुआ हो, उसे किसी ने रोते नहीं देखा। आज अपनी बहू को देखकर एक क्षण के लिए उसकी आँखें सजल हो गयीं; लेकिन उसने मन को संभाला और रूद्ध कंठ से उसे दिलासा देने लगा। कदाचित् उसने, सोचा था, घर की स्वामिनी बनकर विधवा के आँसू पुंछ जायेंगे, कम-से-कम उसे इतना कठिन परिश्रम न करना पड़ेगा, इसलिए उसने भंडारे की कुंजी बहू के सामने फेंक दी थी। वैधव्य की व्यथा को स्वामित्व के गर्व से दबा देना चाहता था।

रामप्यारी ने पुलकित कंठ से कहा- यह कैसे हो सकता है दादा, कि तुम मेहनत-मजदूरी करो और मैं मालकिन बनकर बैठूँ? काम धंधे में लगी रहूँगी, तो मन बदला रहेगा। बैठे-बैठे तो रोने के सिवा और कुछ न होगा।

शिवदास ने समझाया- बेटा, दैवगति में तो किसी का बस नहीं, रोने-धोने से हलकानी के सिवा और क्या हाथ आयेगा? घर में भी तो बीसों काम हैं। कोई साधु-संत आ जायँ, कोई पाहुना ही आ पहुँचे, तो उनके सेवा-सत्कार के लिए किसी को घर पर रहना ही पड़ेगा।

बहू ने बहुत-से हीले किये, पर शिवदास ने एक न सुनी।

(2)

शिवदास के बाहर चले जाने पर रामप्यारी ने कुंजी उठायी, तो उसे मन में अपूर्व गौरव और उत्तरदायित्व का अनुभव हुआ। जरा देर के लिए पति-वियोग का दु:ख उसे भूल गया। उसकी छोटी बहन और देवर दोनों काम करने गये हुए थे। शिवदास बाहर था। घर बिलकुल खाली था। इस वक्त वह निश्चित होकर भंडारे को खोल सकती है। उसमें क्या-क्या सामान है, क्या-क्या विभूति है, यह देखने के लिए उसका मन लालायित हो उठा। इस घर में वह कभी न आयी थी। जब कभी किसी को कुछ देना या किसी से कुछ लेना होता था, तभी शिवदास आकर इस कोठरी को खोला करता था। फिर उसे बंदकर वह ताली अपनी कमर में रख लेता था।

रामप्यारी कभी-कभी द्वार की दरारों से भीतर झाँकती थी, पर अंधेरे में कुछ न दिखाई देता। सारे घर के लिए वह कोठरी तिलिस्म या रहस्य था, जिसके विषय में भाँति-भाँति की कल्पनाएँ होती रहती थीं। आज रामप्यारी को वह रहस्य खोलकर देखने का अवसर मिल गया। उसने बाहर का द्वार बंद कर दिया, कि कोई उसे भंडार खोलते न देख ले, नहीं सोचेगा, बेजरूरत उसने क्यों खोला, तब आकर काँपते हुए हाथों से ताला खोला। उसकी छाती धड़क रही थी कि कोई द्वार न खटखटाने लगे। अंदर पाँव रखा तो उसे कुछ उसी प्रकार का, लेकिन उससे कहीं तीव्र आनंद हुआ, जो उसे अपने गहने-कपड़े की पिटारी खोलने में होता था। मटकों में गुड़, शक्कर, गेहूँ, जौ आदि चीजें रखी हुई थीं। एक किनारे बड़े-बड़े बरतन धरे थे, जो शादी-ब्याह के अवसर पर निकाले जाते थे, या माँगे दिये जाते थे। एक आले पर मालगुजारी की रसीदें और लेन-देन के पुरजे बंधे हुए रखे थे। कोठरी में एक विभूति-सी छायी थी, मानो लक्ष्मी अज्ञात रूप से विराज रही हों। उस विभूति की छाया में रामप्यारी आधे घंटे तक बैठी अपनी आत्मा को तृप्त करती रही। प्रतिक्षण उसके हृदय पर ममत्व का नशा-सा छाया जा रहा था। जब वह उस कोठरी से निकली, तो उसके मन के संस्कार बदल गये थे, मानो किसी ने उस पर मंत्र डाल दिया हो।

उसी समय द्वार पर किसी ने आवाज दी। उसने तुरंत भंडारे का द्वार बंद किया और जाकर सदर दरवाजा खोल दिया। देखा तो पड़ोसिन झुनिया खड़ी है और एक रूपया उधार माँग रही है।

रामप्यारी ने रूखाई से कहा- अभी तो एक पैसा घर में नहीं है जीजी, क्रिया-कर्म में सब खरच हो गया।

झुनिया चकरा गयी। चौधरी के घर में इस समय एक रूपया भी नहीं है, यह विश्वास करने की बात न थी। जिसके यहाँ सैकड़ों का लेन-देन है, वह सब कुछ क्रिया-कर्म में नहीं खर्च कर सकता। अगर शिवदास ने बहाना किया होता, तो उसे आश्चर्य न होता। प्यारी तो अपने सरल स्वभाव के लिए गाँव में मशहूर थी। अकसर शिवदास की आँखें बचाकर पड़ोसियों को इच्छित वस्तुएँ दे दिया करती थी। अभी कल ही उसने जानकी को सेर-भर दूध दिया। यहाँ तक कि अपने गहने तक माँगे दे देती थी। कृपण शिवदास के घर में ऐसी सखरज बहू का आना गाँव वाले अपने सौभाग्य की बात समझते थे।

झुनिया ने चकित होकर कहा- ऐसा न कहो जीजी, बड़े गाढ़े में पड़कर आयी हूँ, नहीं तुम जानती हो, मेरी आदत ऐसी नहीं है। बाकी का एक रूपया देना है। प्यादा द्वार पर खड़ा बकझक कर रहा है। रूपया दे दो, तो किसी तरह यह विपत्ति टले। मैं आज के आठवें दिन आकर दे जाऊँगी। गाँव में और कौन घर है, जहाँ माँगने जाऊँ?

प्यारी टस से मस न हुई।

उसके जाते ही प्यारी साँझ के लिए रसोई-पानी का इंतजाम करने लगी। पहले चावल-दाल बिनना अपाढ़ लगता था और रसोई में जाना तो सूली पर चढ़ने से कम न था। कुछ देर बहनों में झाँव- झाँव होती, तब शिवदास आकर कहते, क्या आज रसोई न बनेगी, तो दो में से एक उठती और मोटे- मोटे टिक्कड़ लगाकर रख देती, मानो बैलों का रातिब हो। आज प्यारी तन-मन से रसोई के प्रबंध में लगी हुई है। अब वह घर की स्वामिनी है।

तब उसने बाहर निकलकर देखा, कितना कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है! बुढ़ऊ दिन-भर मक्खी मारा करते हैं। इतना भी नहीं होता कि जरा झाड़ू ही लगा दें। अब क्या इनसे इतना भी न होगा? द्वार चिकना होना चाहिए कि देखकर आदमी का मन प्रसन्न हो जाय। यह नहीं कि उबकाई आने लगे। अभी कह दूँ, तो तिनक उठें। अच्छा, मुन्नी नाँद से अलग क्यों खड़ी है?

उसने मुन्नी के पास जाकर नाँद में झाँका। दुर्गन्ध आ रही थी। ठीक! मालूम होता है, महीनों से पानी ही नहीं बदला गया। इस तरह तो गाय रह चुकी। अपना पेट भर लिया, छुट्टी हुई, और किसी से क्या मतलब? हाँ,दूध सबको अच्छा लगता है। दादा द्वार पर बैठे चिलम पी रहे हैं,मगर इतना नहीं होता कि चार घड़ा पानी नाँद में डाल दें। मजूर रखा है वह भी तीन कौड़ी का। खाने को डेढ़ सेर; काम करते नानी मरती है। आज आता है तो पूछती हूँ, नाँद में पानी क्यों नहीं बदला। रहना हो, रहे या जाय। आदमी बहुत मिलेंगे। चारों ओर तो लोग मारे-मारे फिर रहे हैं।

आखिर उससे न रहा गया। घड़ा उठाकर पानी लाने चली।

शिवदास ने पुकारा- पानी क्या होगा बहू? इसमें पानी भरा हुआ है।

प्यारी ने कहा- नाँद का पानी सड़ गया है। मुन्नी भूसे में मुँह नहीं डालती। देखते नहीं हो, कोस-भर पर खड़ी है।

शिवदास मार्मिक भाव से मुसकराये और आकर बहू के हाथ से घड़ा ले लिया।

(3)

कई महीने बीत गये। प्यारी के अधिकार मे आते ही उस घर मे जैसे वसंत आ गया। भीतर-बाहर जहाँ देखिए, किसी निपुण प्रबंधक के हस्तकौशल, सुविचार और सुरूचि के चिह्न दिखते थे। प्यारी ने गृहयंत्र की ऐसी चाभी कस दी थी कि सभी पुरजे ठीक-ठाक चलने लगे थे। भोजन पहले से अच्छा मिलता है और समय पर मिलता है। दूध ज्यादा होता है, घी ज्यादा होता है, और काम ज्यादा होता है। प्यारी न खुद विश्राम लेती है, न दूसरों को विश्राम लेने देती है। घर में ऐसी बरकत आ गयी है कि जो चीज माँगो, घर ही में निकल आती है। आदमी से लेकर जानवर तक सभी स्वस्थ दिखाई देते हैं। अब वह पहले की-सी दशा नहीं है कि कोई चिथड़े लपेटे घूम रहा है, किसी को गहने की धुन सवार है। हाँ अगर कोई रूग्ण और चिंतित तथा मलिन वेष में है, तो वह प्यारी है; फिर भी सारा घर उससे जलता है। यहाँ तक कि बूढ़े शिवदास भी कभी-कभी उसकी बदगोई करते हैं। किसी को पहर रात रहे उठना अच्छा नहीं लगता। मेहनत से सभी जी चुराते हैं। फिर भी यह सब मानते हैं कि प्यारी न हो, तो घर का काम न चले। और तो और, दोनों बहनों में भी अब उतना अपनापन नहीं।

प्रात:काल का समय था। दुलारी ने हाथों के कड़े लाकर प्यारी के सामने पटक दिये और घुन्नाई हुई बोली- लेकर इसे भी भंडारे में बंद कर दे।

प्यारी ने कड़े उठा लिये और कोमल स्वर से कहा- कह तो दिया, हाथ में रूपये आने दे, बनवा दूँगी। अभी ऐसा घिस नहीं गया है कि आज ही उतारकर फेंक दिया जाय।

दुलारी लड़ने को तैयार होकर आयी थी। बोली- तेरे हाथ में काहे को कभी रूपये आयेंगे और काहे को कड़े बनेंगे। जोड़- जोड़ रखने में मजा आता है न?

प्यारी ने हॅंसकर कहा- जोड़-जोड़ रखती हूँ तो तेरे ही लिए कि मेरे कोई और बैठा हुआ है, कि मैं सबसे ज्यादा खा-पहन लेती हूँ। मेरा अनंत कब का टूटा पड़ा है।

दुलारी- तुम न खाओ-न पहनो, जस तो पाती हो। यहाँ खाने-पहनने के सिवा और क्या है? मैं तुम्हारा हिसाब-किताब नहीं जानती, मेरे कड़े आज बनने को भेज दो।

प्यारी ने सरल विनोद के भाव से पूछा- रूपये न हों, तो कहाँ से लाऊँ?

दुलारी ने उद्दंडता के साथ कहा- मुझे इससे कोई मतलब नहीं। मैं तो कड़े चाहती हूँ।

इसी तरह घर के सब आदमी अपने-अपने अवसर पर प्यारी को दो-चार खोटी-खरी सुना जाते थे, और वह गरीब सबकी धौंस हँसकर सहती थी। स्वामिनी का यह धर्म है कि सबकी धौंस सुन ले और करे वही, जिसमें घर का कल्याण हो! स्वामित्व के कवच पर धौंस, ताने, धमकी किसी का असर न होता। उसकी स्वामिनी की कल्पना इन आघातों से और भी स्वस्थ होती थी। वह गृहस्थी की संचालिका है। सभी अपने-अपने दु:ख उसी के सामने रोते हैं, पर जो कुछ वह करती है, वही होता है। इतना उसे प्रसन्न करने के लिए काफी था। गाँव में प्यारी की सराहना होती थी। अभी उम्र ही क्या है, लेकिन सारे घर को सँभाले हुए है। चाहती तो सगाई करके चैन से रहती। इस घर के पीछे अपने को मिटाये देती है। कभी किसी से हँसती-बोलती भी नहीं, जैसे काया पलट हो गयी।

कई दिन बाद दुलारी के कड़े बनकर आ गये। प्यारी खुद सुनार के घर दौड़-दौड़ गयी।

संध्या हो गयी थी। दुलारी और मथुरा हाट से लौटे। प्यारी ने नये कड़े दुलारी को दिये। दुलारी निहाल हो गयी। चटपट कड़े पहने और दौड़ी हुई बरौठे में जाकर मथुरा को दिखाने लगी। प्यारी बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह दृश्य देखने लगी। उसकी आँखें सजल हो गयीं। दुलारी उससे कुल तीन ही साल तो छोटी है! पर दोनों में कितना अंतर है। उसकी आँखें मानों उस दृश्य पर जम गयीं, दम्पति का वह सरल आनंद, उनका प्रेमालिंगन, उनकी मुग्ध मुद्रा- प्यारी की टकटकी-सी बँध गयी, यहाँ तक कि दीपक के धुँधले प्रकाश में वे दोनों उसकी नजरों से गायब हो गये और अपने ही अतीत जीवन की एक लीला आँखों के सामने बार-बार नये-नये रूप में आने लगी।

सहसा शिवदास ने पुकारा- बड़ी बहू! एक पैसा दो। तमाखू मॅंगवाऊँ।

प्यारी की समाधि टूट गयी। आँसू पोंछती हुई भंडारे में पैसा लेने चली गयी।

(4)

एक-एक करके प्यारी के गहने उसके हाथ से निकलते जाते थे। वह चाहती थी, मेरा घर गाँव में सबसे संपन्न समझा जाय, और इस महत्वाकांक्षा का मूल्य देना पड़ता था। कभी घर की मरम्मत के लिए और कभी बैलों की नयी गोई खरीदने के लिए, कभी नातेदारों के व्यवहारों के लिए, कभी बीमारों की दवा- दारू के लिए रूपये की जरूरत पड़ती रहती थी, और जब बहुत कतरब्योंत करने पर भी काम न चलता तो वह अपनी कोई-न-कोई चीज निकाल देती। और चीज एक बार हाथ से निकलकर फिर न लौटती थी। वह चाहती, तो इनमें से कितने ही खर्चों को टाल जाती; पर जहाँ इज्जत की बात आ पड़ती थी, वह दिल खोलकर खर्च करती। अगर गाँव में हेठी हो गयी, तो क्या बात रही! लोग उसी का नाम तो धरेंगे। दुलारी के पास भी गहने थे। दो-एक चीजें मथुरा के पास भी थीं, लेकिन प्यारी उनकी चीजें न छूती। उनके खाने-पहनने के दिन हैं। वे इस जंजाल में क्यों फॅंसें!

दुलारी को लड़का हुआ, तो प्यारी ने धूम से जन्मोत्सव मनाने का प्रस्ताव किया।

शिवदास ने विरोध किया- क्या फायदा? जब भगवान की दया से सगाई-ब्याह के दिन आयेंगे, तो धूम-धाम कर लेना।

प्यारी का हौसलों से भरा दिल भला क्यों मानता! बोली- कैसी बात कहते हो दादा? पहलौठे लड़के के लिए भी धूम-धाम न हुई तो कब होगी? मन तो नहीं मानता। फिर दुनिया क्या कहेगी? नाम बड़े, दर्शन थोड़े। मैं तुमसे कुछ नहीं माँगती। अपना सारा सरंजाम कर लूँगी।

गहनों के माथे जायगी, और क्या?- शिवदास ने चिंतित होकर कहा- इस तरह एक दिन धागा भी न बचेगा। कितना समझाया, बेटा, भाई-भौजाई किसी के नहीं होते। अपने पास दो चीजें रहेंगी, तो सब मुँह जोहेंगे; नहीं कोई सीधे बात भी न करेगा।

प्यारी ने ऐसा मुँह बनाया, मानो वह ऐसी बूढ़ी बातें बहुत सुन चुकी है, और बोली- जो अपने हैं, वे भी न पूछें, तो भी अपने ही रहते हैं। मेरा धरम मेरे साथ है, उनका धरम उनके साथ है। मर जाऊँगी तो क्या छाती पर लाद ले जाऊँगी?

धूम-धाम से जन्मोत्सव मनाया गया। बरही के दिन सारी बिरादरी का भोज हुआ। लोग खा-पीकर चले गये, प्यारी दिन-भर की थकी-माँदी आँगन में एक टाट का टुकड़ा बिछाकर कमर सीधी करने लगी। आँखें झपक गयीं। मथुरा उसी वक्त घर में आया। नवजात पुत्र को देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। दुलारी सौर-गृह से निकल चुकी थी। गर्भावस्था में उसकी देह क्षीण हो गयी थी, मुँह भी उतर गया था, पर आज स्वस्थता की लालिमा मुख पर छायी हुई थी। सौर के संयम और पौष्टिक भोजन ने देह को चिकना कर दिया था। मथुरा उसे आँगन में देखते ही समीप आ गया और एक बार प्यारी की ओर ताककर उसके निद्रामग्न होने का निश्चय करके उसने शिशु को गोद में ले लिया और उसका मुँह चूमने लगा।

आहट पाकर प्यारी की आँखें खुल गयीं; पर उसने नींद का बहाना किया और अधखुली आँखों से यह आनंद-क्रीड़ा देखने लगी। माता और पिता दोनों बारी-बारी से बालक को चूमते, गले लगाते और उसके मुख को निहारते थे। कितना स्वर्गीय आनंद था! प्यारी की तृषित लालसा एक क्षण के लिए स्वामिनी को भूल गयी। जैसे लगाम से मुखबद्ध, बोझ से लदा हुआ, हाँकने वाले के चाबुक से पीड़ित, दौड़ते-दौड़ते बेदम तुरंग हिनहिनाने की आवाज सुनकर कनौतियाँ खड़ी कर लेता है और परिस्थिति को भूलकर एक दबी हुई हिनहिनाहट से उसका जवाब देता है, कुछ वही दशा प्यारी की हुई। उसका मातृत्व जो पिंजरे में बंद, मूक, निश्चेष्ट पड़ा हुआ था, समीप से आनेवाली मातृत्व की चहकार सुनकर जैसे जाग पड़ा और चिन्ताओं के उस पिंजरे से निकलने के लिए पंख फड़फड़ाने लगा।

मथुरा ने कहा- यह मेरा लड़का है।

दुलारी ने बालक को गोद में चिपटाकर कहा- हाँ, क्यों नहीं। तुम्हीं ने तो नौ महीने पेट में रखा है। साँसत तो मेरी हुई, बाप कहलाने के लिए तुम कूद पड़े।

मथुरा- मेरा लड़का न होता, तो मेरी सूरत का क्यों होता। चेहरा-मोहरा, रंग-रूप सब मेरा ही-सा है कि नहीं?

दुलारी- इससे क्या होता है। बीज बनिये के घर से आता है। खेत किसान का होता है। उपज बनिये की नहीं होती, किसान की होती है।

मथुरा- बातों में तुमसे कोई न जीतेगा। मेरा लड़का बड़ा हो जायगा, तो मैं द्वार पर बैठकर मजे से हुक्का पिया करूँगा।

दुलारी- मेरा लड़का पढ़े-लिखेगा, कोई बड़ा हुद्दा पाएगा। तुम्हारी तरह दिन-भर बैल के पीछे न चलेगा। मालकिन से कहना है, कल एक पालना बनवा दें।

मथुरा- अब बहुत सबेरे न उठा करना और छाती फाड़कर काम भी न करना।

दुलारी- यह महारानी जीने देंगी?

मथुरा- मुझे तो बेचारी पर दया आती है। उसके कौन बैठा हुआ है? हमीं लोगों के लिए मरती है। भैया होते, तो अब तक दो-तीन बच्चों की माँ हो गयी होती।

प्यारी के कंठ में आँसुओं का ऐसा वेग उठा कि उसे रोकने में सारी देह काँप उठी। अपना वंचित जीवन उसे मरूस्थल-सा लगा, जिसकी सूखी रेत पर वह हरा-भरा बाग लगाने की निष्फल चेष्टा कर रही थी।

(5)

कुछ दिनों के बाद शिवदास भी मर गया। उधर दुलारी के दो बच्चे और हुए। वह भी अधिकतर बच्चों के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी। खेती का काम मजदूरों पर आ पड़ा। मथुरा मजदूर तो अच्छा था, संचालक अच्छा न था। उसे स्वतंत्र रूप से काम लेने का कभी अवसर न मिला। खुद पहले भाई की निगरानी में काम करता रहा। बाद को बाप की निगरानी में काम करने लगा। खेती का तार भी न जानता था। वही मजूर उसके यहाँ टिकते थे, जो मेहनत नहीं, खुशामद करने में कुशल होते थे, इसलिए प्यारी को अब दिन में दो-चार चक्कर हार के भी लगाना पड़ता। कहने को वह अब भी मालकिन थी, पर वास्तव में घर-भर की सेविका थी। मजूर भी उससे त्योरियाँ बदलते, जमींदार का प्यादा भी उसी पर धौंस जमाता। भोजन में भी किफायत करनी पड़ती; लड़कों को तो जितनी बार माँगे, उतनी बार कुछ-न-कुछ चाहिए। दुलारी तो लड़कौरी थी, उसे भरपूर भोजन चाहिए। मथुरा घर का सरदार था, उसके इस अधिकार को कौन छीन सकता था? मजूर भला क्यों रियायत करने लगे थे। सारी कसर प्यारी पर निकलती थी। वही एक फालतू चीज थी; अगर आधा पेट खाय, तो किसी को हानि न हो सकती थी। तीस वर्ष की अवस्था में उसके बाल पक गये, कमर झुक गयी, आँखों की जोत कम हो गयी; मगर वह प्रसन्न थी। स्वामित्व का गौरव इन सारे जख्मों पर मरहम का काम करता था।

एक दिन मथुरा ने कहा- भाभी, अब तो कहीं परदेश जाने का जी होता है। यहाँ तो कमाई में बरकत नहीं। किसी तरह पेट की रोटी चल जाती है। वह भी रो-धोकर। कई आदमी पूरब से आये हैं। वे कहते हैं, वहाँ दो-तीन रूपये रोज की मजदूरी हो जाती है। चार-पाँच साल भी रह गया, तो मालामाल हो जाऊँगा। अब आगे लड़के-बाले हुए, इनके लिए कुछ तो करना ही चाहिए।

दुलारी ने समर्थन किया- हाथ में चार पैसे होंगे, लड़कों को पढ़ायेंगे-लिखायेंगे। हमारी तो किसी तरह कट गयी, लड़कों को तो आदमी बनाना है।

प्यारी यह प्रस्ताव सुनकर अवाक् रह गयी। उनका मुँह ताकने लगी। इसके पहले इस तरह की बातचीत कभी न हुई थी। यह धुन कैसे सवार हो गयी? उसे संदेह हुआ, शायद मेरे कारण यह भावना उत्पन्न हुई। बोली- मैं तो जाने को न कहूँगी, आगे जैसी इच्छा हो। लड़कों को पढ़ाने-लिखाने के लिए यहाँ भी तो मदरसा है। फिर क्या नित्य यही दिन बने रहेंगे। दो-तीन साल भी खेती बन गयी, तो सब कुछ हो जायगा।

मथुरा- इतने दिन खेती करते हो गये, जब अब तक न बनी, तो अब क्या बन जायगी! इस तरह एक दिन चल देंगे, मन-की-मन में रह जायगी। फिर अब पौरूख भी तो थक रहा है। यह खेती कौन संभालेगा। लड़कों को मैं चक्की में जोतकर उनकी जिंदगी नहीं खराब करना चाहता।

प्यारी ने आँखों में आँसू लाकर कहा- भैया, घर पर जब तक आधी मिले, सारी के लिए न धावना चाहिए, अगर मेरी ओर से कोई बात हो, तो अपना घर-बार अपने हाथ में करो, मुझे एक टुकड़ा दे देना, पड़ी रहूँगी।

मथुरा आर्द्र कंठ होकर बोला- भाभी, यह तुम क्या कहती हो। तुम्हारे ही सॅंभाले यह घर अब तक चला है, नहीं रसातल में चला गया होता। इस गिरस्ती के पीछे तुमने अपने को मिट्‍टी में मिला दिया, अपनी देह घुला डाली। मैं अंधा नहीं हूँ। सब कुछ समझता हूँ। हम लोगों को जाने दो। भगवान ने चाहा, तो घर फिर संभल जायगा। तुम्हारे लिए हम बराबर खरच-बरच भेजते रहेंगे।

प्यारी ने कहा- जो ऐसा ही है तो तुम चले जाओ, बाल-बच्चों को कहाँ-कहाँ बाँधे फिरोगे।

दुलारी बोली- यह कैसे हो सकता है बहन, यहाँ देहात में लड़के क्या पढ़े-लिखेंगे। बच्चों के बिना इनका जी भी वहाँ न लगेगा। दौड़-दौड़कर घर आयेंगे और सारी कमाई रेल खा जायगी। परदेश में अकेले जितना खरचा होगा, उतने में सारा घर आराम से रहेगा।

प्यारी बोली- तो मैं ही यहाँ रहकर क्या करूँगी? मुझे भी लेते चलो।

दुलारी उसे साथ ले चलने को तैयार न थी। कुछ दिन जीवन का आनंद उठाना चाहती थी, अगर परदेश में भी यह बंधन रहा, तो जाने से फायदा ही क्या। बोली- बहन, तुम चलतीं तो क्या बात थी, लेकिन फिर यहाँ का कारोबार तो चौपट हो जायगा। तुम तो कुछ-न-कुछ देखभाल करती ही रहोगी।

प्रस्थान की तिथि के एक दिन पहले ही रामप्यारी ने रात-भर जागकर हलुआ और पूरियाँ पकायीं। जब से इस घर में आयी, कभी एक दिन के लिए अकेले रहने का अवसर नहीं आया। दोनों बहनें सदा साथ रहीं। आज उस भयंकर अवसर को सामने आते देखकर प्यारी का दिल बैठा जाता था। वह देखती थी, मथुरा प्रसन्न है, बाल-वृंद यात्रा के आनंद में खाना-पीना तक भूले हुए हैं, तो उसके जी में आता, वह भी इसी भाँति निर्द्वंद्व रहे, मोह और ममता को पैरों से कुचल डाले, किन्तु वह ममता जिस खाद्यल को खा-खाकर पली थी, उसे अपने सामने से हटाये जाते देखकर क्षुब्ध होने से न रूकती थी। दुलारी तो इस तरह निश्चिंत होकर बैठी थी, मानो कोई मेला देखने जा रही है। नयी- नयी चीजों को देखने, नयी दुनिया में विचरने की उत्सुकता ने उसे क्रियाशून्य-सा कर दिया था। प्यारी के सिरे सारे प्रबंध का भार था। धोबी के घर से सब कपड़े आये हैं, या नहीं, कौन-कौन-से बरतन साथ जायेंगे, सफर-खर्च के लिए कितने रूपये की जरूरत होगी। एक बच्चे को खाँसी आ रही थी। दूसरे को कई दिन से दस्त आ रहे थे, उन दोनों की औषधियों को पीसना-कूटना आदि सैकड़ों ही काम व्यस्त किए हुए थे। लड़कोरी न होकर भी वह बच्चों के लालन-पोषण में दुलारी से कुशल थी। देखो, बच्चों को बहुत मारना-पीटना मत। मारने से बच्चे जिद्दी या बेहया हो जाते हैं। बच्चों के साथ आदमी को बच्चा बन जाना पड़ता है। जो तुम चाहो कि हम आराम से पड़े रहें और बच्चे चुपचाप बैठे रहें, हाथ-पैर न हिलायें, तो यह हो नहीं सकता। बच्चे तो स्वभाव के चंचल होते हैं। उन्हें किसी-न-किसी काम में फॅंसाये रखो। धेले का खिलौना हजार घुड़कियों से बढ़कर होता है। दुलारी इन उपदेशों को इस तरह बेमन होकर सुनती थी, मानों कोई सनककर बक रहा हो।

विदाई का दिन प्यारी के लिए परीक्षा का दिन था। उसके जी में आता था कहीं चली जाय, जिसमें वह दृश्य देखना न पड़े। हा! घड़ी-भर में यह घर सूना हो जायगा। वह दिन-भर घर में अकेली पड़ी रहेगी। किससे हॅंसेगी-बोलेगी। यह सोचकर उसका हृदय काँप जाता था। ज्यों-ज्यों समय निकट आता था, उसकी वृत्तियाँ शिथिल होती जातीं थीं।वह कोई काम करते-करते जैसे खो जाती थी और अपलक नेत्रों से किसी वस्तु को ताकने लगती। कभी अवसर पाकर एकांत में जाकर थोड़ा-सा रो आती थी। मन को समझा रही थी, यह लोग अपने होते तो क्या इस तरह चले जाते। यह तो मानने का नाता है; किसी पर कोई जबरदस्ती है? दूसरों के लिए कितना ही मरो, तो भी अपने नहीं होते। पानी तेल में कितना ही मिले, पिर भी अलग ही रहेगा।बच्चे नये-नये कुरते पहने, नवाब बने घूम रहे थे। प्यारी उन्हें प्यार करने के लिए गोद लेना चाहती, तो रोने का-सा मुँह बनाकर छुड़ाकर भाग जाते। वह क्या जानती थी कि ऐसे अवसर पर बहुधा अपने बच्चे भी निष्ठुर हो जाते हैं।

दस बजते-बजते द्वार पर बैलगाड़ी आ गयी। लड़के पहले ही से उस पर जा बैठे। गाँव के कितने स्त्री-पुरूष मिलने आये। प्यारी को इस समय उनका आना बुरा लग रहा था। वह दुलारी से थोड़ी देर एकांत गले मिलकर रोना चाहती थी, मथुरा से हाथ जोड़कर कहना चाहती थी, मेरी खोज-खबर लेते रहना, तुम्हारे सिवा मेरा संसार में कौन है, लेकिन इस भम्भड़ में उसको इन बातों का मौका न मिला। मथुरा और दुलारी दोनों गाड़ी में जा बैठे और प्यारी द्वार पर रोती खड़ी रह गयी। वह इतनी विहृवल थी कि गाँव के बाहर तक पहुँचाने की भी उसे सुधि न रही।

(6)

कई दिन तक प्यारी मूर्छित-सी पड़ी रही। न घर से निकली, न चूल्हा जलाया, न हाथ-मुँह धोया। उसका हलवाहा जोखू बार-बार आकर कहता – ‘मालकिन, उठो, मुँह-हाथ धोओ, कुछ खाओ-पियो। कब तक इस तरह पड़ी रहोगी। इस तरह की तसल्ली गाँव की और स्त्रियाँ भी देती थीं। पर उनकी तसल्ली में एक प्रकार की ईर्ष्या का भाव छिपा हुआ जान पड़ता था।

जोखू के स्वर में सच्ची सहानुभूति झलकती थी। जोखू कामचोर, बातूनी और नशेबाज था। प्यारी उसे बराबर डाँटती रहती थी। दो-एक बार उसे निकाल भी चुकी थी। पर मथुरा के आग्रह से फिर रख लिया था। आज भी जोखू की सहानुभूति-भरी बातें सुनकर प्यारी झुंझलाती, यह काम करने क्यों नहीं जाता। यहाँ मेरे पीछे क्यों पड़ा हुआ है, मगर उसे झिड़क देने को जी न चाहता था। उसे उस समय सहानुभूति की भूख थी। फल काँटेदार वृक्ष से भी मिलें तो क्या उन्हें छोड़ दिया जाता है?

धीरे-धीरे क्षोभ का वेग कम हुआ। जीवन के व्यापार होने लगे। अब खेती का सारा भार प्यारी पर था। लोगों ने सलाह दी, एक हल तोड़ दो और खेतों को उठा दो, पर प्यारी का गर्व यों ढोल बजाकर अपनी पराजय स्वीकार न करना था। सारे काम पूर्ववत् चलने लगे। उधर मथुरा के चिट्ठी-पत्री न भेजने से उसके अभिमान को और भी उत्तेजना मिली। वह समझता है, मैं उसके आसरे बैठी हूँ, उसके चिट्ठी भेजने से मुझे कोई निधि न मिल जाती। उसे अगर मेरी चिंता नहीं है, तो मैं कब उसकी परवाह करती हूँ।

घर में तो अब विशेष काम रहा नहीं, प्यारी सारे दिन खेती-बारी के कामों में लगी रहती। खरबूजे बोये थे। वह खूब फले और खूब बिके। पहले सारा दूध घर में खर्च हो जाता था, अब बिकने लगा। प्यारी की मनोवृत्तियों में भी एक विचित्र परिवर्तन आ गया। वह अब साफ कपड़े पहनती, माँग-चोटी की ओर से भी उतनी उदासीन न थी। आभूषणों में भी रूचि हुई। रूपये हाथ में आते ही उसने अपने गिरवी गहने छुड़ाए और भोजन भी संयम से करने लगी। सागर पहले खेतों को सींचकर खुद खाली हो जाता था। अब निकास की नालियाँ बंद हो गयी थीं। सागर में पानी जमा होने लगा और उसमें हल्की-हल्की लहरें भी थीं, खिले हुए कमल भी थे।

एक दिन जोखू हार से लौटा, तो अंधेरा हो गया था। प्यारी ने पूछा- अब तक वहाँ क्या करता रहा?

जोखू ने कहा- चार क्यारियाँ बच रही थी। मैंने सोचा, दस मोट और खींच दूँ। कल का झंझट कौन रखे?

जोखू अब कुछ दिनों से काम में मन लगाने लगा था। जब तक मालिक उसके सिर पर सवार रहते थे, वह हीले-बहाने करता था। अब सब-कुछ उसके हाथ में था। प्यारी सारे दिन हार में थोड़ी ही रह सकती थी, इसलिए अब उसमें जिम्मेदारी आ गयी थी।

प्यारी ने लोटे का पानी रखते हुए कहा- अच्छा, हाथ मुँह धो डालो। आदमी जान रखकर काम करता है, हाय-हाय करने से कुछ नहीं होता। खेत आज न होते, कल होते, क्या जल्दी थी।

जोखू ने समझा, प्यारी बिगड़ रही है। उसने तो अपनी समझ में कारगुजारी की थी और समझा था, तारीफ होगी। यहाँ आलोचना हुई। चिढ़कर बोला- मालकिन, दाहने-बायें दोनो ओर चलती हो। जो बात नहीं समझती हो, उसमें क्यों कूदती हो? कल के लिए तो उंचवा के खेत पड़े सूख रहे हैं। आज बड़ी मुश्किल से कुआँ खाली हुआ था। सवेरे मैं पहुँचता, तो कोई और आकर न छेंक लेता? फिर अठवारे तक राह देखनी पड़ती। तक तक तो सारी उख बिदा हो जाती।

प्यारी उसकी सरलता पर हॅंसकर बोली- अरे, तो मैं तुझे कुछ कह थोड़ी रही हूँ, पागल। मैं तो कहती हूँ कि जान रखकर काम कर। कहीं बीमार पड़ गया, तो लेने के देने पड़ जायेंगे।

जोखू- कौन बीमार पड़ जायगा, मैं? बीस साल में कभी सिर तक तो दुखा नहीं, आगे की नहीं जानता। कहो रात-भर काम करता रहूँ।

प्यारी- मैं क्या जानूँ, तुम्हीं अंतरे दिन बैठे रहते थे, और पूछा जाता था तो कहते थे- जुर आ गया था, पेट में दरद था।

जोखू झेंपता हुआ बोला- वह बातें जब थीं, जब मालिक लोग चाहते थे कि इसे पीस डालें। अब तो जानता हूँ, मेरे ही माथे हैं। मैं न करूँगा तो सब चौपट हो जायगा।

प्यारी- मै क्या देख-भाल नहीं करती?

जोखू- तुम बहुत करोगी, दो बेर चली जाओगी। सारे दिन तुम वहाँ बैठी नहीं रह सकतीं।

प्यारी को उसके निष्कपट व्यवहार ने मुग्ध कर दिया। बोली- तो इतनी रात गये चूल्हा जलाओगे। कोई सगाई क्यों नही कर लेते?

जोखू ने मुँह धोते हुए कहा- तुम भी खूब कहती हो मालकिन! अपने पेट-भर को तो होता नहीं, सगाई कर लूँ! सवा सेर खाता हूँ एक जून पूरा सवा सेर! दोनों जून के लिए दो सेर चाहिए।

प्यारी- अच्छा, आज मेरी रसोई में खाओ, देखूँ कितना खाते हो?

जोखू ने पुलकित होकर कहा- नहीं मालकिन, तुम बनाते-बनाते थक जाओगी। हाँ, आध-आध सेर के दो रोटा बनाकर खिला दो, तो खा लूँ। मैं तो यही करता हूँ। बस, आटा सानकर दो लिट बनाता हूँ और उपले पर सेंक लेता हूँ। कभी मठे से, कभी नमक से, कभी प्याज से खा लेता हूँ और आकर पड़ रहता हूँ।

प्यारी- मैं तुम्हे आज फुलके खिलाऊँगी।

जोखू- तब तो सारी रात खाते ही बीत जायगी।

प्यारी- बको मत, चटपट आकर बैठ जाओ।

जोखू-जरा बैलों को सानी-पानी देता जाऊँ तो बैठूँ।

(7)

जोखू और प्यारी में ठनी हुई थी।

प्यारी ने कहा- मैं कहती हूँ, धान रोपने की कोई जरूरत नहीं। झड़ी लग जाय, तो खेत डूब जाय। बर्खा बन्द हो जाय, तो खेत सूख जाय। जुआर, बाजरा, सन, अरहर सब तो हैं, धान न सही।

जोखू ने अपने विशाल कंधे पर फावड़ा रखते हुए कहा- जब सबका होगा, तो मेरा भी होगा। सबका डूब जायगा, तो मेरा भी डूब जायगा। मैं क्यों किसी से पीछे रहूँ? बाबा के जमाने में पाँच बीघा से कम नहीं रोपा जाता था, बिरजू भैया ने उसमें एक-दो बीघे और बढ़ा दिये। मथुरा ने भी थोड़ा-बहुत हर साल रोपा, तो मैं क्या सबसे गया-बीता हूँ? मैं पाँच बीघे से कम न लागाऊँगा।

‘तब घर में दो जवान काम करने वाले थे।’

‘मै अकेला उन दोनों के बराबर खाता हूँ। दोनों के बराबर काम क्यों न करूँगा?

‘चल, झूठा कहीं का। कहते थे, दो सेर खाता हूँ, चार सेर खाता हूँ। आध सेर में रह गये।’

‘एक दिन तौलो तब मालूम हो।’

‘तौला है। बड़े खानेवाले! मै कहे देती हूँ धान न रोपो मजूर मिलेंगे नहीं, अकेले हलकान होना पड़ेगा।

‘तुम्हारी बला से, मैं ही हलकान हूँगा न? यह देह किस दिन काम आयेगी।’

प्यारी ने उसके कंधे पर से फावड़ा ले लिया और बोली- तुम पहर रात से पहर रात तक ताल में रहोगे, अकेले मेरा जी ऊबेगा।

जोखू को ऊबने का अनुभव न था। कोई काम न हो, तो आदमी पड़ कर सो रहे। जी क्यों ऊबे? बोला- जी ऊबे तो सो रहना। मैं घर रहूँगा तब तो और जी ऊबेगा। मैं खाली बैठता हूँ तो बार- बार खाने की सूझती है। बातों में देर हो रही है और बादल घिरे आते हैं।

प्यारी ने कहा- अच्छा, कल से जाना, आज बैठो।

जोखू ने मानों बंधन में पड़कर कहा- अच्छा, बैठ गया, कहो क्या कहती हो?

प्यारी ने विनोद करते हुए पूछा- कहना क्या हे, मैं तुमसे पूछती हूँ, अपनी सगाई क्यों नही कर लेते? अकेले मरती हूँ। तब एक से दो हो जाऊँगी।

जोखू शरमाता हुआ बोला- तुमने फिर वही बेबात की बात छेड़ दी, मालकिन! किससे सगाई कर लूँ यहाँ? ऐसी मेहरिया लेकर क्या करूँगा, जो गहनों के लिए मेरी जान खाती रहे।

प्यारी- यह तो तुमने बड़ी कड़ी शर्त लगायी। ऐसी औरत कहाँ मिलेगी, जो गहने भी न चाहे?

जोखू- यह मैं थोड़े ही कहता हूँ कि वह गहने न चाहे;हाँ, मेरी जान न खाय। तुमने तो कभी गहनों के लिए हठ न किया, बल्कि अपने सारे गहने दूसरों के ऊपर लगा दिये।

प्यारी के कपोलों पर हल्का-सा रंग आ गया। बोली- अच्छा, और क्या चाहते हो?

जोखू- मैं कहने लगूँगा, तो बिगड़ जाओगी।

प्यारी की आँखों में लज्जा की एक रेखा नजर आयी, बोली- बिगड़ने की बात कहोगे, तो जरूर बिगडूँगी।

जोखू- तो मैं न कहूँगा।

प्यारी ने उसे पीछे की ओर ठेलते हुए कहा- कहोगे कैसे नहीं, मैं कहला के छोड़ूँगी।

जोखू- मैं चाहता हूँ कि वह तुम्हारी तरह हो, ऐसी गंभीर हो, ऐसी ही बातचीत में चतुर हो, ऐसा ही अच्छा पकाती हो, ऐसी ही किफायती हो, ऐसी ही हँसमुख हो। बस, ऐसी औरत मिलेगी, तो करूँगा, नहीं इसी तरह पड़ा रहूँगा।

प्यारी का मुख लज्जा से आरक्त हो गया। उसने पीछे हटकर कहा- तुम बड़े नटखट हो! हँसी- हँसी में सब कुछ कह गये।

अनाथ लड़की मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

सेठ पुरुषोत्तमदास पूना की सरस्वती पाठशाला का मुआयना करने के बाद बाहर निकले, तो एक लड़की ने दौड़कर उनका दामन पकड़ लिया। सेठ जी रुक गये और मुहब्बत से उसकी तरफ देखकर पूछा—क्या नाम है?

लड़की ने जवाब दिया—रोहिणी।

सेठ जी ने उसे गोद में उठा लिया और बोले—तुम्हें कुछ इनाम मिला?

लड़की ने उनकी तरफ बच्चों जैसी गंभीरता से देखकर कहा—तुम चले जाते हो, मुझे रोना आता है, मुझे भी साथ लेते चलो।

सेठजी ने हँसकर कहा—मुझे बड़ी दूर जाना है, तुम कैसे चालोगी?

रोहिणी ने प्यार से उनकी गर्दन में हाथ डाल दिये और बोली—जहॉँ तुम जाओगे वहीं मैं भी चलूँगी। मैं तुम्हारी बेटी हूँगी।

मदरसे के अफसर ने आगे बढ़कर कहा—इसका बाप साल भर हुआ नही रहा। मॉँ कपड़े सीती है, बड़ी मुश्किल से गुजर होती है।

सेठ जी के स्वभाव में करुणा बहुत थी। यह सुनकर उनकी आँखें भर आयीं। उस भोली प्रार्थना में वह दर्द था जो पत्थर-से दिल को पिघला सकता है। बेकसी और यतीमी को इससे ज्यादा दर्दनाक ढंग से जाहिर कना नामुमकिन था। उन्होंने सोचा—इस नन्हें-से दिल में न जाने क्या अरमान होंगे। और लड़कियां अपने खिलौने दिखाकर कहती होंगी, यह मेरे बाप ने दिया है। वह अपने बाप के साथ मदरसे आती होंगी, उसके साथ मेलों में जाती होंगी और उनकी दिलचस्पियों का जिक्र करती होंगी। यह सब बातें सुन-सुनकर इस भोली लड़की को भी ख्वाहिश होती होगी कि मेरे बाप होता। मस्त की मुहब्बत में गहराई और आत्मिकता होती है जिसे बच्चे समझ नहीं सकते। बाप की मुहब्बत में खुशी और चाव होता है जिसे बच्चे खूब समझते हैं।

सेठ जी ने रोहिणी को प्यार से गले लगा लिया और बोले—अच्छा, मैं तुम्हें अपनी बेटी बनाऊंगा। लेकिन खूब जी लगाकर पढ़ना। अब छुट्टी का वक्त आ गया है, मेरे साथ आओ, तुम्हारे घर पहुँचा दूं।

यह कहकर उन्होंने रोहिणी को अपनी मोटरकार में बिठा लिया। रोहिणी ने बड़े इत्मीनान और गर्व से अपनी सहेलियों की तरफ देखा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें खुशी से चमक रही थीं और चेहरा चांदनी रात की तरह खिला हुआ था।

(2)

सेठ ने रोहिणी को बाजार की खूब सैर करायी और कुछ उसकी पसंद से, कुछ अपनी पसंद से बहुत-सी चीजें खरीदीं, यहां तक कि रोहिणी बातें करते-करते कुछ थक-सी गयी और खामोश हो गई। उसने इतनी चीजें देखीं और इतनी बातें सुनीं कि उसका जी भर गया। शाम होते-होते रोहिणी के घर पहुँचे और मोटरकार से उतरकर रोहिणी को अब कुछ आराम मिला। दरवाजा बंद था। उसकी मां किसी ग्राहक के घर कपड़े देने गयी थी। रोहिणी ने अपने तोहफों को उलटना-पलटना शुरू किया—खूबसूरत रबड़ के खिलौने, चीनी की गुड़िया जरा दबाने से चूं-चूं करने लगतीं और रोहिणी यह प्यारा संगीत सुनकर फूली न समाती थी। रेशमी कपड़े और रंग-बिरंगी साड़ियों की कई बण्डल थे लेकिन मखमली बूटे की गुलकारियों ने उसे खूब लुभाया था। उसे उन चीजों के पाने की जितनी खुशी थी, उससे ज्यादा उन्हें अपनी सहेलियों को दिखाने की बेचैनी थी। सुंदरी के जूते अच्छे सही, लेकिन उनमें ऐसे फूल कहां हैं। ऐसी गुड़िया उसने कभी देखी भी न होंगी। इन खयालों से उसके दिल में उमंग भर आयी और वह अपनी मोहिनी आवाज में एक गीत गाने लगी। सेठ जी दरवाजे पर खड़े इन पवित्र दृश्य का हार्दिक आनंद उठा रहे थे। इतने में रोहिणी की मां रुक्मिणी कपड़ों की एक पोटली लिये हुए आती दिखायी दी। रोहिणी ने खुशी से पागल होकर एक छलांग भरी और उसके पैरों से लिपट गयी। रुक्मिणी का चेहरा पीला था, आँखों में हसरत और बेकसी छिपी हुई थी, गुप्त चिंता का सजीव चित्र मालूम होती थी, जिसके लिए जिंदगी में कोई सहारा नहीं।

मगर रोहिणी को जब उसने गोद में उठाकर प्यार से चूमा, तो जरा देर के लिए उसकी आंखों में उम्मीद और जिंदगी की झलक दिखायी दी। मुरझाया हुआ फूल खिल गया। बोली—आज तू इतनी देर तक कहां रही, मैं तुझे ढूंढने पाठशाला गयी थी।

रोहिणी ने हुमककर कहा—मैं मोटरकार पर बैठकर बाजार गयी थी। वहां से बहुत अच्छी-अच्छी चीजें लायी हूँ। वह देखो कौन खड़ा है?

मां ने सेठ जी की तरफ ताका और लजाकर सिर झुका लिया।

बरामदे में पहुँचते ही रोहिणी मां की गोद से उतरकर सेठजी के पास गयी और अपनी मां को यकीन दिलाने के लिए भोलेपन से बोली—क्यों, तुम मेरे बाप हो न?

सेठ जी ने उसे प्यार करके कहा—हां तुम मेरी प्यारी बेटी हो।

रोहिणी ने उनसे मुंह की तरफ याचना-भरी आँखों से देखकर कहा—अब तुम रोज यहीं रहा करोगे?

सेठ जी ने उसके बाल सुलझाकर जवाब दिया—मैं यहां रहूंगा, तो काम कौन करेगा? मैं कभी-कभी तुम्हें देखने आया करूंगा, लेकिन वहां से तुम्हारे लिए अच्छी-अच्छी चीजें भेजूंगा।

रोहिणी कुछ उदास-सी हो गयी। इतने में उसकी मां ने मकान का दरवाजा खोला ओर बड़ी फुर्ती से मैले बिछावन और फटे हुए कपड़े समेट कर कोने में डाल दिये कि कहीं सेठ जी की निगाह उन पर न पड़ जाए। यह स्वाभिमान स्त्रियों की खास अपनी चीज है।

रुक्मिणी अब इस सोच में पड़ी थी कि मैं इनकी क्या खातिर-तवाजो करूं। उसने सेठ जी का नाम सुना था, उसका पति हमेशा उनकी बड़ाई किया करता था। वह उनकी दया और उदारता की चर्चायें अनेकों बार सुन चुकी थी। वह उन्हें अपने मन का देवता समझा करती थी, उसे क्या उम्मीद थी कि कभी उसका घर भी उसके कदमों से रोशन होगा। लेकिन आज जब वह शुभ दिन संयोग से आया, तो वह इस काबिल भी नहीं कि उन्हें बैठने के लिए एक मोढ़ा दे सके। घर में पान और इलायची भी नहीं। वह अपने आँसुओं को किसी तरह न रोक सकी।

आखिर जब अंधेरा हो गया और पास के ठाकुरद्वारे से घण्टों और नगाड़ों की आवाजें आने लगीं, तो उन्होंने जरा ऊँची आवाज में कहा—बाईजी, अब मैं जाता हूँ। मुझे अभी यहां बहुत काम करना है। मेरी रोहिणी को कोई तकलीफ न हो। मुझे जब मौका मिलेगा, उसे देखने आऊंगा। उसके पालने-पोसने का काम मेरा है और मैं उसे बहुत खुशी से पूरा करूंगा। उसके लिए अब तुम कोई फिक्र मत करो। मैंने उसका वजीफा बांध दिया है और यह उसकी पहली किस्त है। यह कहकर उन्होंने अपना खूबसूरत बटुआ निकाला और रुक्मिणी के सामने रख दिया। गरीब औरत की आंखों में आँसू जारी थे। उसका जी बरबस चाहता था कि उसके पैरों को पकड़कर खूब रोये। आज बहुत दिनों के बाद एक सच्चे हमदर्द की आवाज उसके मन में आयी थी।

जब सेठ जी चले, तो उसने दोनों हाथों से प्रणाम किया। उसके हृदय की गहराइयों से प्रार्थना निकली—आपने एक बेबस पर दया की है, ईश्वर आपको इसका बदला दे।

दूसरे दिन रोहिणी पाठशाला गई, तो उसकी बांकी सज-धज आँखों में खुबी जाती थी। उस्तानियों ने उसे बारी-बारी प्यार किया और उसकी सहेलियां उसकी एक-एक चीज को आश्चर्य से देखती और ललचाती थी। अच्छे कपड़ों से कुछ स्वाभिमान का अनुभव होता है। आज रोहिणी वह गरीब लड़की न रही, जो दूसरों की तरफ विवश नेत्रों से देखा करती थी। आज उसकी एक-एक क्रिया से शैशवोचित गर्व और चंचलता टपकती थी और उसकी जबान एक दम के लिए भी न रुकती थी। कभी मोटर की तेजी का जिक्र था, कभी बाजार की दिलचस्पियों का बयान, कभी अपनी गुड़ियों के कुशल-मंगल की चर्चा थी और कभी अपने बाप की मुहब्बत की दास्तान। दिल था कि उमंगों से भरा हुआ था। एक महीने बाद सेठ पुरुषोत्तमदास ने रोहिणी के लिए फिर तोहफे और रुपये रवाना किये। बेचारी विधवा को उनकी कृपा से जीविका की चिंता से छुट्टी मिली। वह भी रोहिणी के साथ पाठशाला आती और दोनों मां बेटियां एक ही दरजे में साथ-साथ पढ़तीं, लेकिन रोहिणी का नंबर हमेशा मां से अव्वल रहा। सेठ जी जब पूना की तरफ से निकलते, तो रोहिणी को देखने जरूर आते और उनका आगमन उसकी प्रसन्नता और मनोरंजन के लिए महीनों का सामान इकट्ठा कर देता।

इसी तरह कई साल गुजर गये और रोहिणी ने जवानी के सुहाने हरे-भरे मैदान में पैर रक्खा, जबकि बचपन की भोली-भाली अदाओं में एक खास मतलब और इरादों का दखल हो जाता है।

रोहिणी अब आंतरिक और बाह्य सौंदर्य में अपनी पाठशाला की नाक थी। हाव-भाव में आकर्षक गंभीरता, बातों में गीत का-सा खिंचाव और गीत का-सा आत्मिक रस था। कपड़ों में रंगीन सादगी, आँखों में लाज-संकोच, विचारों में पवित्रता। जवानी थी, मगर घमण्ड और बनावट और चंचलता से मुक्त। उसमें एक एकाग्रता थी ऊँचे इरादों से पैदा होती है। स्त्रियोचित उत्कर्ष की मंजिलें वह धीरे-धीरे तय करती चली जाती थी।

(3)

सेठ जी के बड़े बेटे नरोत्तमदास कई साल तक अमेरिका और जर्मनी की यूनिवर्सिटियों की खाक छानने के बाद इंजीनियरिंग विभाग में कमाल हासिल करके वापस आए थे। अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित कालेज में उन्होंने सम्मान का पद प्राप्त किया था। अमेरिका के अखबार एक हिन्दोस्तानी नौजवान की इस शानदार कामयाबी पर चकित थे। उन्हीं का स्वागत करने के लिए बम्बई में एक बड़ा जलसा किया गया था। इस उत्सव में शरीक होने के लिए लोग दूर-दूर से आए थे। सरस्वती पाठशाला को भी निमंत्रण मिला और रोहिणी को सेठानी जी ने विशेष रूप से आमंत्रित किया। पाठशाला में हफ्तों तैयारियां हुई। रोहिणी को एक दम के लिए भी चैन न था। यह पहला मौका था कि उसने अपने लिए बहुत अच्छे-अच्छे कपड़े बनवाये। रंगों के चुनाव में वह मिठास थी, काट-छांट में वह फबन, जिससे उसकी सुंदरता चमक उठी। सेठानी कौशल्या देवी उसे लेने के लिए रेलवे स्टेशन पर मौजूद थीं। रोहिणी गाड़ी से उतरते ही उनके पैरों की तरफ झुकी, लेकिन उन्होंने उसे छाती से लगा लिया और इस तरह प्यार किया कि जैसे वह उनकी बेटी है। वह उसे बार-बार देखती थीं और आँखों से गर्व और प्रेम टपक पड़ता था।

इस जलसे के लिए ठीक समुंदर के किनारे एक हरे-भरे सुहाने मैदान में एक लंबा-चौड़ा शामियाना लगाया गया था। एक तरफ आदमियों का समुद्र उमड़ा हुआ था, दूसरी तरफ समुद्र की लहरें उमड़ रही थीं, गोया वह भी इस खुशी में शरीक थीं।

जब उपस्थित लोगों ने रोहिणी बाई के आने की खबर सुनी, तो हजारों आदमी उसे देखने के लिए खड़े हो गए। यही तो वह लड़की है, जिसने अबकी शास्त्री की परीक्षा पास की है। जरा उसके दर्शन करने चाहिये। अब भी इस देश की स्त्रियों में ऐसे रतन मौजूद हैं। भोले-भाले देशप्रेमियों में इस तरह की बातें होने लगीं। शहर की कई प्रतिष्ठित महिलाओं ने आकर रोहिणी को गले लगाया और आपस में उसके सौंदर्य और उसके कपड़ों की चर्चा होने लगी। आखिर मिस्टर पुरुषोत्तमदास तशरीफ लाए। हालांकि वह बड़ा शिष्ट और गम्भीर उत्सव था, लेकिन उस वक्त दर्शन की उत्कंठा पागलपन की हद तक जा पहुँची थी। एक भगदड़-सी मच गई। कुर्सियों की कतारे गड़बड़ हो गईं। कोई कुर्सी पर खड़ा हुआ, कोई उसके हत्थों पर। कुछ मनचले लोगों ने शामियाने की रस्सियां पकड़ीं और उन पर जा लटके। कई मिनट तक यही तूफान मचा रहा। कहीं कुर्सियां टूटीं, कहीं कुर्सियां उलटीं, कोई किसी के ऊपर गिरा, कोई नीचे। ज्यादा तेज लोगों में धौल-धप्पा होने लगा।

तब बीन की सुहानी आवाजें आने लगीं। रोहिणी ने अपनी मण्डली के साथ देशप्रेम में डूबा हुआ गीत शुरू किया। सारे उपस्थित लोग बिलकुल शांत थे और उस समय वह सुरीला राग, उसकी कोमलता और स्वच्छता, उसकी प्रभावशाली मधुरता, उसकी उत्साह भरी वाणी दिलों पर वह नशा-सा पैदा कर रही थी, जिससे प्रेम की लहरें उठती हैं, जो दिल से बुराइयों को मिटाता है और उससे जिन्दगी की हमेशा याद रहने वाली यादगारें पैदा हो जाती हैं। गीत बंद होने पर तारीफ की एक आवाज न आई। वहीं ताने कानों में अब तक गूंज रही थीं।

गाने के बाद विभिन्न संस्थाओं की तरफ से अभिनन्दन पेश हुए और तब नरोत्तमदास लोगों को धन्यवाद देने के लिए खड़े हुए। लेकिन उनके भाषाण से लोगों को थोड़ी निराशा हुई। यों दोस्तो की मण्डली में उनकी वक्तृता के आवेग और प्रवाह की कोई सीमा न थी, लेकिन सार्वजनिक सभा के सामने खड़े होते ही शब्द और विचार दोनों ही उनसे बेवफाई कर जाते थे। उन्होंने बड़ी-बड़ी मुश्किल से धन्यवाद के कुछ शब्द कहे और तब अपनी योग्यता की लज्जित स्वीकृति के साथ अपनी जगह पर आ बैठे। कितने ही लोग उनकी योग्यता पर ज्ञानियों की तरह सिर हिलाने लगे।

अब जलसा खत्म होने का वक्त आया। वह रेशमी हार जो सरस्वती पाठशाला की ओर से भेजा गया था, मेज पर रखा हुआ था। उसे हीरो के गले में कौन डाले? प्रेसिडेण्ट ने महिलाओं की पंक्ति की ओर नजर दौड़ाई। चुनने वाली आँख रोहिणी पर पड़ी और ठहर गई। उसकी छाती धड़कने लगी। लेकिन उत्सव के सभापति के आदेश का पालन आवश्यक था। वह सिर झुकाये हुए मेज के पास आयी और कांपते हाथों से हार को उठा लिया। एक क्षण के लिए दोनों की आँखें मिलीं और रोहिणी ने नरोत्तमदास के गले में हार डाल दिया।

दूसरे दिन सरस्वती पाठशाला के मेहमान विदा हुए, लेकिन कौशल्या देवी ने रोहिणी को न जाने दिया। बोली—अभी तुम्हें देखने से जी नहीं भरा, तुम्हें यहां एक हफ्ता रहना होगा। आखिर मैं भी तो तुम्हारी मां हूँ। एक मां से इतना प्यार और दूसरी मां से इतना अलगाव!

रोहिणी कुछ जवाब न दे सकी।

यह सारा हफ्ता कौशल्या देवी ने उसकी विदाई की तैयारियों में खर्च किया। सातवें दिन उसे विदा करने के लिए स्टेशन तक आयीं। चलते वक्त उससे गले मिलीं और बहुत कोशिश करने पर भी आँसुओं को न रोक सकीं। नरोत्तमदास भी आये थे। उनका चेहरा उदास था। कौशल्या ने उनकी तरफ सहानुभूतिपूर्ण आँखों से देखकर कहा—मुझे यह तो खयाल ही न रहा, रोहिणी क्या यहां से पूना तक अकेली जायेगी? क्या हर्ज है, तुम्हीं चले जाओ, शाम की गाड़ी से लौट आना।

नरोत्तमदास के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी, जो इन शब्दों में न छिप सकी—अच्छा, मैं ही चला जाऊंगा।

वह इस फिक्र में थे कि देखें बिदाई की बातचीत का मौका भी मिलता है या नहीं। अब वह खूब जी भरकर अपना दर्दे दिल सुनायेंगे और मुमकिन हुआ तो उस लाज-संकोच को, जो उदासीनता के परदे में छिपी हुई है, मिटा देंगे।

(4)

रुक्मिणी को अब रोहिणी की शादी की फिक्र पैदा हुई। पड़ोस की औरतों में इसकी चर्चा होने लगी थी। लड़की इतनी सयानी हो गयी है, अब क्या बुढ़ापे में ब्याह होगा? कई जगह से बात आयी, उनमें कुछ बड़े प्रतिष्ठित घराने थे। लेकिन जब रुक्मिणी उन पैमानों को सेठजी के पास भेजती, तो वे यही जवाब देते कि मैं खुद फिक्र में हूँ। रुक्मिणी को उनकी यह टाल-मटोल बुरी मालूम होती थी।

रोहिणी को बम्बई से लौटे महीना भर हो चुका था। एक दिन वह पाठशाला से लौटी, तो उसे अम्मा की चारपाई पर एक खत पड़ा हुआ मिला। रोहिणी पढ़ने लगी, लिखा था—बहन, जब से मैंने तुम्हारी लड़की को बम्बई में देखा है, मैं उस पर रीझ गई हूँ। अब उसके बगैर मुझे चैन नहीं है। क्या मेरा ऐसा भाग्य होगा कि वह मेरी बहू बन सके? मैं गरीब हूँ लेकिन मैंने सेठ जी को राजी कर लिया है। तुम भी मेरी यह विनती कबूल करो। मैं तुम्हारी लड़की को चाहे फूलों की सेज पर न सुला सकूं, लेकिन इस घर का एक-एक आदमी उसे आँखों की पुतली बनाकर रखेगा। अब रहा लड़का। मां के मुँह से लड़के का बखान कुछ अच्छा नहीं मालूम होता। लेकिन यह कह सकती हूँ कि परमात्मा ने यह जोड़ी अपनी हाथों बनायी है। सूरत में, स्वभाव में, विद्या में, हर दृष्टि से वह रोहिणी के योग्य है। तुम जैसे चाहे अपना इत्मीनान कर सकती हो। जवाब जल्द देना और ज्यादा क्या लिखूं नीचे थोड़े-से शब्दों में सेठजी ने उस पैगाम की सिफारिश की थी।

रोहिणी गालों पर हाथ रखकर सोचने लगी। नरोत्तमदास की तस्वीर उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई। उनकी वह प्रेम की बातें, जिनका सिलसिला बम्बई से पूना तक नहीं टूटा था, कानों में गूंजने लगीं। उसने एक ठण्डी सांस ली और उदास होकर चारपाई पर लेट गई।

(5)

सरस्वती पाठशाला में एक बार फिर सजावट और सफाई के दृश्य दिखाई दे रहे हैं। आज रोहिणी की शादी का शुभ दिन था। शाम का वक्त, बसंत का सुहाना मौसम। पाठशाला के दारो-दीवार मुस्करा रहे हैं और हरा-भरा बगीचा फूला नहीं समाता।

चन्द्रमा अपनी बारात लेकर पूरब की तरफ से निकला। उसी वक्त मंगलाचरण का सुहाना राग उस रूपहली चांदनी और हल्के-हल्के हवा के झोकों में लहरें मारने लगा। दूल्हा आया, उसे देखते ही लोग हैरत में आ गए। यह नरोत्तमदास थे। दूल्हा मण्डप के नीचे गया। रोहिणी की मां अपने को रोक न सकी, उसी वक्त जाकर सेठ जी के पैर पर गिर पड़ी। रोहिणी की आँखों से प्रेम और आनंद के आँसू बहने लगे।

मण्डप के नीचे हवन-कुण्ड बना था। हवन शुरू हुआ, खुशबू की लपेटें हवा में उठीं और सारा मैदान महक गया। लोगों के दिलो-दिमाग में ताजगी की उमंग पैदा हुई।

फिर संस्कार की बारी आई। दूल्हा और दुल्हन ने आपस में हमदर्दी; जिम्मेदारी और वफादारी के पवित्र शब्द अपनी जबानों से कहे। विवाह की वह मुबारक जंजीर गले में पड़ी, जिसमें वजन है, सख्ती है, पाबंदियां हैं, लेकिन वजन के साथ सुख और पाबंदियों के साथ विश्वास है। दोनों दिलों में उस वक्त एक नयी, बलवान, आत्मिक शक्ति की अनुभूति हो रही थी।

जब शादी की रस्में खत्म हो गयीं, तो नाच-गाने की मजलिस का दौर आया। मोहक गीत गूंजने लगे। सेठ जी थककर चूर हो गए थे। जरा दम लेने के लिए बागीचे में जाकर एक बेंच पर बैठ गये। ठण्डी-ठण्डी हवा आ रही आ रही थी। एक नशा-सा पैदा करने वाली शांति चारों तरफ छायी हुई थी। उसी वक्त रोहिणी उनके पास आयी और उनके पैरों से लिपट गयी। सेठ जी ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और हँसकर बोले—क्यों, अब तो तुम मेरी अपनी बेटी हो गयीं?

(जमाना, जून १९१४)

होली का उपहार मुंशी प्रेमचंद की कहानी

(1)

मैकूलाल अमरकांत के घर शतरंज खेलने आये, तो देखा, वह कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रहे हैं। पूछा – “कहीं बाहर की तैयारी कर रहे हो क्या भाई? फ़ुर्सत हो, तो आओ, आज दो-चार बाजियाँ हो जाये।”

अमरकांत ने संदूक में आईना-कंघी रखते हुए कहा – “नहीं भाई, आज तो बिल्कुल फ़ुर्सत नहीं है। कल ज़रा ससुराल जा रहा हूँ। सामान-आमान ठीक कर रहा हूँ।”

मैकू – “तो आज ही से क्या तैयारी करने लगे? चार कदम तो हैं। शायद पहली बार जा रहे हो?”

अमर- “हाँ यार! अभी एक बार भी नहीं गया। मेरी इच्छा तो अभी जाने को न थी; पर ससुरजी आग्रह कर रहे हैं।”

मैकू – “तो कल शाम को उठना और चल देना। आधे घण्टे में तो पहुँच जाओगे।”

अमर – “मेरे हृदय में तो अभी से जाने कैसी धड़कन हो रही है। अभी तक तो कल्पना में पत्नी-मिलन का आनंद लेता था। अब वह कल्पना प्रत्यक्ष हुई जाती है। कल्पना सुंदर होती है, प्रत्यक्ष क्या होगा, कौन जाने।”

मैकू – “तो कोई सौगात ले ली है? खाली हाथ न जाना, नहीं तो मुँह ही सीधा न होगा।”

अमरकांत ने कोई सौगात न लिया था। इस कला में अभी अभ्यस्त न हुए थे।

मैकू बोला – “तो अब ले लो भले आदमी! पहली बार जा रहे हो, भला वह दिल में क्या कहेंगी?”

अमर – “तो क्या चीज ले जाऊं? मुझे तो इसका ख़याल ही नहीं आया। कोई ऐसी चीज़ बताओ, जो कम खर्च और बालानशीन हो; क्योंकि घर भी रुपये भेजने हैं, दादा ने रुपये मांगे हैं।”

मैकू माँ-बाप से अलग रहता था। व्यंग्य करके बोला – “जब दादा ने रुपये मांगे हैं, तो भला कैसे टाल सकते हो! दादा का रुपये मांगना कोई मामूली बात तो है नहीं?”

अमरकांत ने व्यंग्य न समझकर कहा – “हाँ इसी वजह से तो मैंने होली के लिए कपड़े भी नहीं बनवाये। मगर जब कोई सौगात ले जाना भी ज़रूरी है, तो कुछ-न-कुछ लेना ही पड़ेगा। हल्के दामों की कोई चीज़ बतलाओ।”

दोनों मित्रों में विचार-विनिमय होने लगा। विषय बड़े ही महत्व का था। उसी आधार पर भावी दांपत्य-जीवन सुखमय या इसके प्रतिकूल हो सकता था। पहले दिन बिल्ली को मारना अगर जीवन पर स्थायी प्रभाव डाल सकता है, तो पहला उपहार क्या कम महत्व का विषय है? देर तक बहस होती रही; पर कोई निश्चय न हो सका।

उसी वक्त एक पारसी महिला एक नये फैशन की साड़ी पहने हुए मोटर पर निकल गयी। मैकूलाल ने कहा – “अगर ऐसी एक साड़ी ले लो, तो वह ज़रूर खुश हो जाये। कितना सूफियाना रंग है। और वज़ा कितनी निराली! मेरी आँखों में तो जैसे बस गयी। हाशिम की दुकान से ले लो। २५ रुपए में आ जाएगी।”

अमरकांत भी उस साड़ी पर मुग्ध हो रहा था। वधू यह साड़ी देखकर कितनी प्रसन्न होगी और उसके गोरे रंग यह पर कितनी खिलेगी, वह इसी कल्पना में मग्न था। बोला – “हाँ यार, पसंद तो मुझे भी है; लेकिन हाशिम की दुकान पर तो पिकेटिंग हो रही है।”

“तो होने दो। खरीदने वाले खरीदते ही हैं। अपनी इच्छा है, जो चीज चाहते हैं, खरीदते हैं, किसी के बाबा का साझा है।”

अमरकांत ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा – “यह तो सत्य है; लेकिन मेरे लिए स्वयंसेवकों के बीच से दुकान में जाना संभव नहीं है। फिर तमाशाइयों की हरदम भीड़ भी तो लगी रहती है।”

मैकू ने मानो उसकी कायरता पर दया करके कहा – “तो पीछे के द्वार से चले जाना। वहाँ पिकेटिंग नहीं होती।”

“किसी देशी दुकान पर न मिल जायेगी?”

“हाशिम की दुकान के सिवा और कहीं न मिलेगी।”

(2)

संध्या हो गयी थी। अमीनाबाद में आकर्षण का उदय हो गया था। सूर्य की प्रतिभा विद्युत-प्रकाश के बुलबुलों में अपनी स्मृति छोड़ गयी थी।

अमरकांटे दबे पाँव हाशिम की दुकान के सामने पहुँचा। स्वयंसेवकों का धरना भी था और तमाशाइयों की भीड़ भी। उसने दो-तीन बार अंदर जाने के लिए कलेजा मजबूत किया, पर फुटपाथ तक जाते-जाते हिम्मत ने जवाब दे दिया।”

मगर साड़ी लेना ज़रूरी था। वह उसकी आँखों में बस गयी थी। वह उसके लिए पागल हो रहा था।

आखिर उसने पिछवाड़े के द्वार से जाने का निश्चय किया। जाकर देखा, अभी तक वहाँ कोई वालण्टियर न था। जल्दी से एक सपाटे में भीतर चला गया और बीस-पचीस मिनट में उसी नमूने की एक साड़ी लेकर फिर उसी द्वार पर आया; पर इतनी ही देर में परिस्थिति बदल चुकी थी। तीन स्वयंसेवक आ पहुँचे थे। अमरकांत एक मिनट तक द्वार पर दुविधे में खड़ा रहा। फिर तीर की तरह निकल भागा और अंधाधुंध भागता चला गया। दुर्भाग्य की बात! एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई चली आ रही थी। अमरकांत उससे टकरा गया। बुढ़िया गिर पड़ी और लगी गालियाँ देने – “आँखों में चर्बी छा गयी है क्या? देखकर नहीं चलते? यह जवानी ढै जाएगी एक दिन।”

अमरकांत के पाँव आगे न जा सके। बुढ़िया को उठाया और उससे क्षमा मांग रहे थे कि तीनों स्वयंसेवकों ने पीछे से आकर उन्हें घेर लिया। एक स्वयंसेवक ने साड़ी के पैकेट पर हाथ रखते हुए कहा – “बिल्लाती कपड़ा ले जाए का हुक्म नहीं ना। बुलाइत है, तो सुनत नाहीं हौ।”

दूसरा बोला – “आप तो ऐसे भागे, जैसे कोई चोर भागे?”

तीसरा – “हज्जारन मनई पकर-पकरि के जेहल में भरा जात अहैं, देश में आग लगी है, और इनका मन बिल्लाती माल से नहीं भरा।”

अमरकांत ने पैकेट को दोनों हाथों से मजबूत करके कहा – “तुम लोग मुझे जाने दोगे या नहीं।”

पहले स्वयंसेवक ने पैकेट पर हाथ बढ़ाते हुए कहा – “जाए कसन देई। बिल्लाती कपड़ा लेके तुम यहाँ से कबौं नाहीं जाय सकत हौ।”

अमरकांत ने पैकेट को एक झटके से छुड़ाकर कहा – “तुम मुझे हर्गिज नहीं रोक सकते।”

उन्होंने कदम आगे बढ़ाया, मगर दो स्वयंसेवक तुरन्त उसके सामने लेट गये। अब बेचारे बड़ी मुश्किल में फंसे। जिस विपत्ति से बचना चाहते थे, वह ज़बरदस्ती गले पड़ गयी। एक मिनट में बीसों आदमी जमा हो गये। चारों तरफ से उन पर टिप्पणियाँ होने लगीं।

“कोई जण्टुलमैन मालूम होते हैं।”

“यह लोग अपने को शिक्षित कहते हैं। छि:! इस दुकान पर से रोज दस-पाँच आदमी गिरफ्तार होते हैं; पर आपको इसकी क्या परवाह!’

“कपड़ा छीन लो और कह दो, जाकर पुलिस में रपट करें।”

“बेचारे बेड़ियाँ-सी पहने खड़े थे। कैसे गला छूटे, इसका कोई उपाय न सूझता था। मैकूलाल पर क्रोध आ रहा था कि उसी ने यह रोग उनके सिर मढ़ा। उन्हें तो किसी सौग़ात की फिक्र न थी। आये वहाँ से कि कोई सौग़ात ले लो।

कुछ देर तक लोग टिप्पणियाँ ही करते रहे, फिर छीन-झपट शुरू हुई। किसी ने सिर से टोपी उड़ा दी। उसकी तरफ लपके, तो एक ने साड़ी का पैकेट हाथ से छीन लिया। फिर वह हाथों-हाथ गायब हो गयी।

अमरकांत ने बिगड़करक़र कहा – “मैं पुलिस में रिपोर्ट करता हूँ।”

एक आदमी ने कहा – “हाँ-हाँ, ज़रूर जाओ और हम सभी को फांसी चढ़वा दो!”

सहसा एक युवती खद्दर की साड़ी पहने, एक थैला लिए आ निकली। यहाँ यह हुड़दंग देखकर बोली – “क्या मुआमला है? तुम लोग क्यों इस भले आदमी को दिक कर रहे हो?”

अमरकांत की जान में जान आयी। उसके पास जाकर फ़रियाद करने लगे – “ये लोग मेरे कपड़े छीनकर भाग गये हैं और उन्हें गायब कर दिया। मैं इसे डाका कहता हूँ, यह चोरी है। इसे मैं न सत्याग्रह कहता हूँ, न देशप्रेम।”

युवती ने दिलासा दिया – “घबड़ाइए नहीं! आपके कपड़े मिल जायेंगे। होंगे तो इन्हीं लोगों के पास! कैसे कपड़े थे?”

एक स्वयंसेवक बोला – “बहनजी, इन्होंने हाशिम की दुकान से कपड़े लिये हैं।”

युवती – “किसी की दुकान से लिये हों, तुम्हें उनके हाथ से कपड़ा छीनने का कोई अधिकार नहीं है। आपके कपड़े वापस ला दो। किसके पास हैं?”

एक क्षण में अमरकांत की साड़ी जैसे हाथों-हाथ गयी थी, वैसे ही हाथों- हाथ वापस आ गयी। ज़रा देर में भीड़ भी गायब हो गयी। स्वयंसेवक भी चले गये। अमरकांत ने युवती को धन्यवाद देते हुए कहा – “आप इस समय न आयी होतीं, तो इन लोगों ने धोती तो गायब कर ही दी थी, शायद मेरी खबर भी लेते।”

युवती ने सरल भर्त्सना के भाव से कहा – “जन-संपत्ति का लिहाज सभी को करना पड़ता है; मगर आपने इस दुकान से कपड़े लिये ही क्यों? जब आप देख रहे हैं कि वहाँ हमारे ऊपर कितना अत्याचार हो रहा है, फिर भी आप न माने। जो लोग समझकर भी नहीं समझते, उन्हें कैसे कोई समझाये!”

अमरकांत इस समय लज्जित हो गये और अपने मित्रों में बैठकर वे जो स्वेच्छा के राग अलापा करते थे, वह भूल गये। बोले – “मैंने अपने लिए नहीं खरीदे हैं, एक महिला की फ़रमाइश थी; इसलिए मजबूर था।”

“उन महिला को आपने समझाया नहीं?”

“आप समझातीं, तो शायद समझ पातीं, मेरे समझाने से तो न समझीं।”

“कभी अवसर मिला, तो ज़रूर समझाने की चेष्टा करूंगी। पुरुषों की नकेल महिलाओं के हाथ में है! आप किस मुहल्ले में रहते हैं?”

“सआदगंज में।”

“शुभनाम?”

“अमरकांत!”

युवती ने तुरन्त ज़रा-सा घूंघट खींच लिया और सिर झुकाकर संकोच और स्नेह से सने स्वर में बोली – “आपकी पत्नी तो आपके घर में नहीं है, उसने फ़रमाइश कैसे की?”

अमरकांत ने चकित होकर पूछा – “आप किस मुहल्ले में रहती हैं?”

“घसियारी मण्डी।”

“आपका नाम सुखदादेवी तो नहीं है?”

“हो सकता है, इस नाम की कई स्त्रियाँ हैं।”

“आपके पिता का नाम ज्वालादत्तजी है?”

“उस नाम के भी कई आदमी हो सकते हैं।”

अमरकांत ने जेब से दियासलाई निकाली और वहीं सुखदा के सामने उस साड़ी को जला दिया।

सुखदा ने कहा – “आप कल आयेंगे?”

अमरकांत ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा – “नहीं सुखदा! जब तक इसका प्रायश्चित न कर लूंगा, न आऊंगा।”

सुखदा कुछ और कहने जा रही थी कि अमरकांत तेजी से कदम बढ़ाकर दूसरी तरफ चले गये।

(3)

आज होली है; मगर आजादी के मतवालों के लिए न होली है, न बसंत। हाशिम की दुकान पर आज भी पिकेटिंग हो रही है, और तमाशाई आज भी जमा हैं। आज के स्वयंसेवकों में अमरकांत भी खड़े पिकेटिंग कर रहे हैं। उनकी देह पर खद्दर का कुर्ता है और खद्दर की धोती। हाथ में तिरंगा झण्डा लिये हैं।

एक स्वयंसेवक ने कहा – “पानीदारों को यों बात लगती है। कल तुम क्या थे, आज क्या हो! सुखदा देवी न आ जातीं, तो बड़ी मुश्किल होती।”

अमर ने कहा – “मैं उनके लिए तुम लोगों को धन्यवाद देता हूँ। नहीं तो मैं आज यहाँ न होता।”

“आज तुम्हें न आना चाहिए था। सुखदा बहन तो कहती थीं, मैं आज उन्हें न जाने दूंगी।”

“कल के अपमान के बाद अब मैं उन्हें मुँह दिखाने योग्य नहीं हूँ। जब वह रमणी होकर इतना कर सकती हैं, तो हम तो हर तरह के कष्ट उठाने के लिए बने ही हैं। खासकर जब बाल-बच्चों का भार सिर पर नहीं है।”

उसी वक्त पुलिस की लारी आयी, एक सब इंस्पेक्टर उतरा और स्वयंसेवकों के पास आकर बोला – “मैं तुम लोगों को गिरफ्तार करता हूँ।”

‘वन्दे मातरम्’ की ध्वनि हुई। तमाशाइयों में कुछ हलचल हुई। लोग दो-दो कदम और आगे बढ़ आये। स्वयंसेवकों ने दर्शकों को प्रणाम किया और मुस्कराते हुए लारी में जा बैठे। अमरकांत सबसे आगे थे। लारी चलना ही चाहती थी, कि सुखदा किसी तरफ से दौड़ी हुई आ गयी। उसके हाथ में एक पुष्पमाला थी, लारी का द्वार खुला था। उसने ऊपर चढ़कर वह अमरकांत के गले में डाल दी। आँखों से स्नेह और गर्व की दो बूंदे टपक पड़ीं। लारी चली गयी। यही होली थी, यही होली का आनंद-मिलन था।

उसी वक्त सुखदा दुकान पर खड़ी होकर बोली- “विलायती कपड़े खरीदना और पहनना देशद्रोह है!”

कप्तान साहब मुंशी प्रेमचंद की कहानी

जगत सिंह को स्कूल जाना कुनैन खाने या मछली का तेल पीने से कम अप्रिय न था। वह सैलानी, आवारा, घुमक्कड़ युवक था, कभी अमरूद के बागों की ओर निकल जाता और अमरूदों के साथ माली की गालियाँ बड़े शौक से खाता। कभी दरिया की सैर करता और मल्लाहों को डोंगियों में बैठकर उस पार के देहातों में निकल जाता।

गालियाँ खाने में उसे मजा आता था। गालियाँ खाने का कोई अवसर वह हाथ से न जाने देता। सवार के घोड़े के पीछे ताली बजाना, एक्को को पीछे से पकड़ कर अपनी ओर खींचना, बूढों की चाल की नकल करना, उसके मनोरंजन के विषय थे।

आलसी काम तो नहीं करता; पर दुर्व्यसनों का दास होता है, और दुर्व्यसन धन के बिना पूरे नहीं होते। जगतसिंह को जब अवसर मिलता घर से रूपये उड़ा ले जाता। नकद न मिले, तो बर्तन और कपड़े उठा ले जाने में भी उसे संकोच न होता था। घर में शीशियाँ और बोतलें थीं, वह सब उसने एक-एक करके गुदड़ी बाजार पहुँचा दी। पुराने दिनों की कितनी चीजें घर में पड़ी थीं, उसके मारे एक भी न बची। इस कला में ऐसा दक्ष और निपुण था कि उसकी चतुराई और पटुता पर आश्चर्य होता था। एक बार बाहर ही बाहर, केवल कार्निसों के सहारे अपने दो-मंजिला मकान की छत पर चढ़ गया और ऊपर ही से पीतल की एक बड़ी थाली लेकर उतर आया। घरवालों को आहट तक न मिली।

उसके पिता ठाकुर भक्त सिंह अपने कस्बे के डाकखाने के मुंशी थे। अफसरों ने उन्हें शहर का डाकखाना बड़ी दौड़-धूप करने पर दिया था; किन्तु भक्तसिंह जिन इरादों से यहाँ आये थे, उनमें से एक भी पूरा न हुआ। उल्टे हानि यह हुई कि देहातो में जो भाजी-साग, उपले-ईंधन मुफ्त मिल जाते थे, वे सब यहाँ बंद हो गये। यहाँ सबसे पुराना घराव था, न किसी को दबा सकते थे, न सता सकते थे।

इस दुरवस्था में भक्तसिंह की हथलपकियाँ बहुत अखरतीं। उन्होंने कितनी ही बार उसे बड़ी निर्दयता से पीटा। जगतसिंह भीमकाय होने पर भी चुपके में मार खा लिया करता था। अगर वह अपने पिता के हाथ पकड़ लेता, तो वह हिल भी न सकते; पर जगतसिंह इतना सीनाजोर न था। हाँ, मार-पीट, घुड़की-धमकी किसी का भी उस पर असर न होता था।

जगतसिंह ज्यों ही घर में कदम रखता; चारों ओर से काँव-काँव मच जाती, माँ दूर-दूर करके दौड़ती, बहने गालियाँ देने लगती; मानो घर में कोई सांड घुस आया हो। घरवाले उसकी सूरत से जलते थे। इन तिरस्कारों ने उसे निर्लज्ज बना दिया था। कष्टों के ज्ञान से वह निर्द्वन्द्व-सा हो गया था। जहाँ नींद आ जाती, वहीं पड़ रहता; जो कुछ मिल जाता, वही खा लेता।

ज्यों-ज्यों घर वालें को उसकी चोर-कला के गुप्त साधनों का ज्ञान होता जाता था, वे उससे चौकन्ने होते जाते थे। यहाँ तक कि एक बार पूरे महीने-भर तक उसकी दाल न गली। चरस वाले के कई रूपये ऊपर चढ़ गये। गांजेवाले ने धुआंधार तकाजे करने शुरू किये। हलवाई कड़वी बातें सुनाने लगा। बेचारे जगत को निकलना मुश्किल हो गया। रात-दिन ताक-झांक में रहता; पर घात न मिलती थी। आखिर एक दिन बिल्ली के भागो छींका टूटा। भक्तसिंह दोपहर को डाकखाने से चले, तो एक बीमा-रजिस्ट्री जेब में डाल ली। कौन जाने कोई हरकारा या डाकिया शरारत कर जाये; किंतु घर आये, तो लिफाफे को अचकन की जेब से निकालने की सुधि न रही। जगतसिंह तो ताक लगाये हुए था ही। पैसे के लोभ से जेब टटोली, तो लिफ़ाफ़ा मिल गया। उस पर कई आने के टिकट लगे थे। वह कई बार टिकट चुराकर आधे दामों पर बेच चुका था। चट लिफ़ाफ़ा उड़ा दिया। यदि उसे मालूम होता कि उसमें नोट हैं, तो कदाचित वह न छूता; लेकिन जब उसने लिफ़ाफ़ा फाड़ डाला और उसमें से नोट निकल पड़े, तो वह बड़े संकट में पड़ गया। वह फटा हुआ लिफ़ाफ़ा गला फाड़कर उसके दुष्कृत्य को धिक्कारने लगा। उसकी दशा उस शिकारी की-सी हो गयी, जो चिड़ियों का शिकार करने जाये और अनजान में किसी आदमी पर निशाना मार दे। उसके मन में पश्चाताप था, लज्जा थी, दु:ख था, पर उसे भूल का दंड सहने की शक्ति न थी। उसने नोट लिफ़ाफ़े में रख दिये और बाहर चला गया।

गरमी के दिन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था; पर जगत की आँखों में नींद न थी। आज उसकी बुरी तरह कुंदी होगी— इसमें संदेह न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीं, दस-पाँच दिन के लिए उसे कहीं खिसक जाना चाहिए। तब तक लोगों का क्रोध शांत हो जाता। लेकिन कहीं दूर गये बिना काम न चलेगा। बस्ती में वह कई दिन तक अज्ञातवास नहीं कर सकता। कोई न कोई ज़रूर ही उसका पता देगा और वह पकड़ लिया जायेगा। दूर जाने के लिए कुछ न कुछ खर्च तो पास होना ही चाहिए। क्यों न वह लिफ़ाफ़े में से एक नोट निकाल ले? यह तो मालूम ही हो जायेगा कि उसी ने लिफ़ाफ़ा फाड़ा है, फिर एक नोट निकल लेने में क्या हानि है? दादा के पास रूपये तो हैं ही, झक मारकर दे देंगे। यह सोचकर उसने दस रूपये का एक नोट उड़ा लिया; मगर उसी वक्त उसके मन में एक नयी कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ। अगर ये सब रूपये लेकर किसी दूसरे शहर में कोई दुकान खोल ले, तो बड़ा मजा हो। फिर एक-एक पैसे के लिए उसे क्यों किसी की चोरी करनी पड़े! कुछ दिनों में वह बहुत-सा रूपया जमा करके घर आयेगा; तो लोग कितने चकित हो जायेंगे!

उसने लिफ़ाफ़े को फिर निकाला। उसमें कुल दो सौ रूपये के नोट थे। दो सौ में दूध की दुकान खूब चल सकती है। आखिर मुरारी की दुकान में दो-चार कढ़ाव और दो-चार पीतल के थालों के सिवा और क्या है? लेकिन कितने ठाट से रहता हे! रूपयों की चरस उड़ा देता हे। एक-एक दांव पर दस-दस रूपये रख देता है, नफ़ा न होता, तो वह ठाट कहाँ से निभाता? इस आनंद-कल्पना में वह इतना मग्न हुआ कि उसका मन उसके काबू से बाहर हो गया, जैसे प्रवाह में किसी के पांव उखड़ जाये और वह लहरों में बह जाये।

उसी दिन शाम को वह बंबई चल दिया। दूसरे ही दिन मुंशी भक्तसिंह पर गबन का मुकदमा दायर हो गया।

(2)

बंबई के किले के मैदान में बैंड बज रहा था और राजपूत रेजिमेंट के सजीले सुंदर जवान कवायद कर रहे थे, जिस प्रकार हवा बादलों को नये-नये रूप में बनाती और बिगाड़ती है, उसी भांति सेनानायक सैनिकों को नये-नये रूप में बना बिगाड़ रहा था।

जब कवायद ख़त्म हो गयी, तो एक छरहरे डील का युवक नायक के सामने आकर खड़ा हो गया।

नायक ने पूछा— “क्या नाम है?”

सैनिक ने फौजी सलाम करके कहा— “जगतसिंह?”

“क्या चाहते हो।“

“फौज में भरती कर लीजिए।“

“मरने से तो नहीं डरते?”

“बिल्कुल नहीं—राजपूत हूँ।“

“बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।“

“इसका भी डर नहीं।“

अदन जाना पड़ेगा।“

“खुशी से जाऊंगा।“

“कप्तान ने देखा, बला का हाजिर-जवाब, मनचला, हिम्मत का धनी जवान है, तुरंत फौज में भर्ती कर लिया। तीसरे दिन रेजिमेंट अदन को रवाना हुआ। मगर ज्यों-ज्यों जहाज आगे चलता था, जगत का दिल पीछे रह जाता था। जब तक जमीन का किनारा नज़र आता रहा, वह जहाज के डेक पर खड़ा अनुरक्त नेत्रों से उसे देखता रहा। जब वह भूमि-तट जल में विलीन हो गया, तो उसने एक ठंडी सांस ली और मुँह ढांप कर रोने लगा। आज जीवन में पहली बर उसे प्रियजनों की याद आयी। वह छोटा-सा कस्बा, वह गांजे की दुकान, वह सैर-सपाटे, वह सुहूद-मित्रों के जमघट आँखों में फिरने लगे। कौन जाने, फिर कभी उनसे भेंट होगी या नहीं। एक बार वह इतना बेचैन हुआ कि जी में आया, पानी में कूद पड़े।

(3)

जगतसिंह को अदन में रहते तीन महीने गुजर गये। भांति-भांति की नवीनताओं ने कई दिन तक उसे मुग्ध किये रखा; लेकिन पुराने संस्कार फिर जागृत होने लगे। अब कभी-कभी उसे स्नेहमयी माता की याद आने लगी, जो पिता के क्रोध, बहनों के धिक्कार और स्वजनों के तिरस्कार में भी उसकी रक्षा करती थी। उसे वह दिन याद आया, जब एक बार वह बीमार पड़ा था। उसके बचने की कोई आशा न थी, पर न तो पिता को उसकी कुछ चिंता थी, न बहनों को। केवल माता थी, जो रात की रात उसके सिरहाने बैठी अपनी मधुर, स्नेहमयी बातों से उसकी पीड़ा शांत करती रही थी। उन दिनों कितनी बार उसने उस देवी को नीव रात्रि में रोते देखा था। वह स्वयं रोगों से जीर्ण हो रही थी; लेकिन उसकी सेवा-सुश्रुषा में वह अपनी व्यथा को ऐसी भूल गयी थी, मानो उसे कोई कष्ट ही नहीं। क्या उसे माता के दर्शन फिर होंगे? वह इसी क्षोभ और नैराश्य में समुद्र-तट पर चला जाता और घण्टों अनंत जल-प्रवाह को देखा करता। कई दिनों से उसे घर पर एक पत्र भेजने की इच्छा हो रही थी, किंतु लज्जा और ग्लानि के कारण वह टालता जाता था। आखिर एक दिन उससे न रहा गया। उसने पत्र लिखा और अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगी। पत्र आदि से अंत तक भक्ति से भरा हुआ था। अंत में उसने इन शब्दों में अपनी माता को आश्वासन दिया था—‘माता जी, मैंने बड़े-बड़े उत्पात किये हैं, आप लोग मुझसे तंग आ गए थे, मैं उन सारी भूलों के लिए सच्चे हृदय से लज्जित हूँ और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जीता रहा, तो कुछ न कुछ करके दिखाऊंगा। तब कदाचित आपको मुझे अपना पुत्र कहने में संकोच न होगा। मुझे आर्शीवाद दीजिए कि अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर सकूं।‘

यह पत्र लिखकर उसने डाकखाने में छोड़ा और उसी दिन से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा; किंतु एक महीना गुज़र गया और कोई जवाब न आया। उसका जी घबड़ाने लगा। जवाब क्यों नहीं आता—‘कहीं माता जी बीमार तो नहीं हैं? शायद दादा ने क्रोध-वश जवाब न लिखा होगा? कोई और विपत्ति तो नहीं आ पड़ी?’

कैंप में एक वृक्ष के नीचे कुछ सिपाहियों ने शालिग्राम की एक मूर्ति रख छोड़ी थी। कुछ श्रद्धालु सैनिक रोज उस प्रतिमा पर जल चढ़ाया करते थे। जगतसिंह उनकी हँसी उड़ाया करता; पर आप वह विक्षिप्तों की भांति प्रतिमा के सम्मुख जाकर बड़ी देर तक मस्तक झुकाये बैठा रहा। वह इसी ध्यानावस्था में बैठा था कि किसी ने उसका नाम लेकर पुकारा, यह दफ्तर का चपरासी था और उसके नाम की चिट्ठी लेकर आया था। जगतसिंह ने पत्र हाथ में लिया, तो उसकी सारी देह कांप उठी। ईश्वर की स्तुति करके उसने लिफ़ाफ़ा खोला और पत्र पढ़ा। लिखा था—‘तुम्हारे दादा को गबन के अभियोग में पाँच वर्ष की सजा हो गई। तुम्हारी माता इस शोक में मरणासन्न है। छुट्टी मिले, तो घर चले आओ।‘

जगतसिंह ने उसी वक्त कप्तान के पास जाकर कहा —‘हुजूर, मेरी माँ बीमार है, मुझे छुट्टी दे दीजिये।‘

कप्तान ने कठोर आँखों से देखकर कहा—‘अभी छुट्टी नहीं मिल सकती।‘

‘तो मेरा इस्तीफा ले लीजिये।‘

‘अभी इस्तीफा नहीं लिया जा सकता।‘

‘मैं अब एक क्षण भी नहीं रह सकता।‘

‘रहना पड़ेगा। तुम लोगों को बहुत जल्द युद्ध पर जाना पड़ेगा।‘

‘लड़ाई छिड़ गयी! आह, तब मैं घर नहीं जाऊंगा? हम लोग कब तक यहाँ से जायेंगे?’

‘बहुत जल्द, दो ही चार दिनों में।‘

(4)

चार वर्ष बीत गये। कैप्टन जगतसिंह का-सा योद्धा उस रेजीमेंट में नहीं हैं। कठिन अवस्थाओं में उसका साहस और भी उत्तेजित हो जाता है। जिस महिम में सबकी हिम्मतें जवाब दे जाती हैं, उसे सर करना उसी का काम है। हल्ले और धावे में वह सदैव सबसे आगे रहता है, उसकी त्योरियों पर कभी बल नहीं आता; उसके साथ ही वह इतना विनम्र, इतना गंभीर, इतना प्रसन्नचित है कि सारे अफसर और मातहत उसकी बड़ाई करते हैं, उसका पुनर्जीवन-सा हो गया। उस पर अफसरों को इतना विश्वास है कि अब वे प्रत्येक विषय में उससे परामर्श करते हैं। जिससे पूछिए, वही वीर जगतसिंह की विरूदावली सुना देगा—‘कैसे उसने जर्मनों की मेगजीन में आग लगायी, कैसे अपने कप्तान को मशीनगनों की मार से निकाला, कैसे अपने एक मातहत सिपाही को कंधे पर लेकर निकल आया।‘ ऐसा जान पड़ता है, उसे अपने प्राणों का मोह नहीं, मानो वह काल को खोजता फिरता हो!

लेकिन नित्य रात्रि के समय, जब जगतसिंह को अवकाश मिलता है, वह अपनी छोलदारी में अकेले बैठकर घरवालों को याद कर लिया करता है—दो-चार आँसू की बूंदे अवश्य गिरा देता है। वह प्रतिमास अपने वेतन का बड़ा भाग घर भेज देता है, और ऐसा कोई सप्ताह नहीं जाता जब कि वह माता को पत्र न लिखता हो। सबसे बड़ी चिंता उसे अपने पिता की है, जो आज उसी के दुष्कर्मो के कारण कारावास की यातना झेल रहे हैं। हाय! वह कौन दिन होगा, जब कि वह उनके चरणों पर सिर रखकर अपना अपराध क्षमा करायेगा, और वह उसके सिर पर हाथ रखकर आर्शीवाद देंगे?

(5)

सवा चार वर्ष बीत गये। संध्या का समय है। नैनी जेल के द्वार पर भीड़ लगी हुई है। कितने ही कैदियों की मियाद पूरी हो गयी है। उन्हें लिवा जाने के लिए उनके घरवाले आये हुए है; किन्तु बूढ़ा भक्तसिंह अपनी अंधेरी कोठरी में सिर झुकाये उदास बैठा हुआ है। उसकी कमर झुक कर कमान हो गयी है। देह अस्थि-पंजर-मात्र रह गयी है। ऐसा जान पड़ता है, किसी चतुर शिल्पी ने एक अकाल-पीड़ित मनुष्य की मूर्ति बनाकर रख दी है। उसकी भी मियाद पूरी हो गयी है; लेकिन उसके घर से कोई नहीं आया। आये कौन? आने वाल था ही कौन?

एक बूढ़े किन्तु हृष्ट-पुष्ट कैदी ने आकर उसका कंधा हिलाया और बोला—‘कहो भगत, कोई घर से आया?’

भक्तसिंह ने कंपित कंठ-स्वर से कहा—‘घर पर है ही कौन?’

‘घर तो चलोगे ही?’

‘मेरा घर कहाँ है?’

‘तो क्या यहीं पड़े रहोंगे?’

‘अगर ये लोग निकाल न देंगे, तो यहीं पड़ा रहूंगा।‘

आज चार साल के बाद भगतसिंह को अपने प्रताड़ित, निर्वासित पुत्र की याद आ रही थी। जिसके कारण जीतन का सर्वनाश हो गया; आबरू मिट गयी; घर बर्बाद हो गया, उसकी स्मृति भी असह्य थी; किन्तु आज नैराश्य और दु:ख के अथाह सागर में डूबते हुए उन्होंने उसी तिनके का सहार लिया, न-जाने उस बेचारे की क्या दशा हुई। लाख बुरा है, तो भी अपना लड़का हे। खानदान की निशानी तो है। मरूंगा तो चार आँसू तो बहायेगा; दो चिल्लू पानी तो देगा। हाय! मैंने उसके साथ कभी प्रेम का व्यवहार नहीं किया। ज़रा भी शरारत करता, तो यमदूत की भांति उसकी गर्दन पर सवार हो जाता। एक बार रसोई में बिना पैर धोये चले जाने के दंड में मैंने उसे उल्टा लटका दिया था। कितनी बार केवल ज़ोर से बोलने पर मैंने उसे तमाचे लगाये थे। पुत्र-सा रत्न पाकर मैंने उसका आदर न किया। उसी का दंड है। जहाँ प्रेम का बंधन शिथिल हो, वहाँ परिवार की रक्षा कैसे हो सकती है?

(6)

सबेरा हुआ। आशा की सूर्य निकला। आज उसकी रश्मियाँ कितनी कोमल और मधुर थीं, वायु कितनी सुखद, आकाश कितना मनोहर, वृक्ष कितने हरे-भरे, पक्षियों का कलरव कितना मीठा! सारी प्रकृति आश के रंग में रंगी हुई थी; पर भक्तसिंह के लिए चारों ओर घना अंधकार था।

जेल का अफसर आया। कैदी एक पंक्ति में खड़े हुए। अफसर एक-एक का नाम लेकर रिहाई का परवाना देने लगा। कैदियों के चेहरे आशा से प्रफुलित थे। जिसका नाम आता, वह खुश-खुश अफसर के पास जाता, परवाना लेता, झुककर सलाम करता और तब अपने विपत्तिकाल के संगियों से गले मिलकर बाहर निकल जाता। उसके घरवाले दौड़कर उससे लिपट जाते। कोई पैसे लुटा रहा था, कहीं मिठाइयाँ बांटी जा रही थीं, कहीं जेल के कर्मचारियों को इनाम दिया जा रहा था। आज नरक के पुतले विनम्रता के देवता बने हुए थे।

अंत में भक्तसिंह का नाम आया। वह सिर झुकाये आहिस्ता-आहिस्ता जेलर के पास गये और उदासीन भाव से परवाना लेकर जेल के द्वार की ओर चले, मानो सामने कोई समुद्र लहरें मार रहा है। द्वार से बाहर निकल कर वह जमीन पर बैठ गये। कहाँ जाये?

सहसा उन्होंने एक सैनिक अफसर को घोड़े पर सवार जेल की ओर आते देखा। उसकी देह पर खाकी वर्दी थी, सिर पर कारचोबी साफ़ा।

अजीब शान से घोड़े पर बैठा हुआ था। उसके पीछे-पीछे एक फिटन आ रही थी। जेल के सिपाहियों ने अफसर को देखते ही बंदूकें संभाली और लाइन में खड़े हाकर सलाम किया।

भक्तससिंह ने मन में कहा—‘एक भाग्यवान वह है, जिसके लिए फिटन आ रही है; और एक अभागा मैं हूँ, जिसका कहीं ठिकाना नहीं।‘

फौजी अफसर ने इधर-उधर देखा और घोड़े से उतर कर सीधे भक्तसिंह के सामने आकर खड़ा हो गया।

भक्तसिंह ने उसे ध्यान से देखा और तब चौंककर उठ खड़े हुए और बोले—‘अरे! बेटा जगतसिंह!’

जगतसिंह रोता हुआ उनके पैरों पर गिर पड़ा।

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