Mythological Story

क्यों मनाया जाता है रक्षाबंधन? : पौराणिक कथा और इतिहास

फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम रक्षाबंधन की कहानी (Raksha Bandhan Story In Hindi) शेयर कर रहे हैं. भारत में भाई-बहन के स्नेह का पर्व रक्षाबंधन श्रवण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इस दिन बहनें अपने भाइयों की कलाई पर स्नेह बंधन ‘राखी’ बांधती हैं और भाई आजीवन उनकी रक्षा करने का वचन देते हैं.

रक्षाबंधन (Raksha Bandhan) का ये पावन पर्व कब प्रारंभ हुआ, इसकी स्पष्ट तिथि की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. लेकिन इस संबध में कई कथायें प्रचलित है. पुराणों में भी इन कथाओं का वर्णन मिलता है.

आइये जानते हैं रक्षाबंधन की कहानियाँ (Rakshabandhan Ki Kahaniyan) :

Raksha Bandhan Story In Hindi

Raksha Bandhan Story In Hindi

Raksha Bandhan Story In Hindi | Raksha Bandhan Story In Hindi

१. राजा बलि और माता लक्ष्मी की कथा 

रक्षाबंधन की एक पौराणिक कथा भगवान विष्णु, देवी लक्ष्मी और राजा बलि से जुड़ी हुई है.

असुरों का राजा बलि १०० यज्ञ पूर्ण कर अजेय हो गया. धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित कर वह स्वर्ग का सिंहासन प्राप्त करने की तैयारी करने लगा. यह ज्ञात होने पर देवराज इंद्र चिंतित हो गए और भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे.

इंद्र ने भगवान विष्णु से स्वर्ग का सिंहासन बचाने की प्रार्थना की. तब वामन अवतार धारण कर भगवान विष्णु राजा बलि के दरबार में गए और उनसे भिक्षा की याचना की. राजा बलि दानवीर था. उसने वामन अवतार भगवान विष्णु को वचन दिया कि वह भिक्षा में जो भी मांगेगा, उसे प्रदान किया जायेगा.

भगवान विष्णु ने भिक्षा में तीन पग भूमि मांग ली. राजा बलि ने अपना वचन निभाते हुए वामन अवतार भगवान विष्णु को तीन पग भूमि दान में प्रदाय कर दी और कहा कि वह तीन पग भूमि नाप ले.

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भगवान विष्णु ने पहले पग में पृथ्वी को नाप लिया और दूसरे पग में स्वर्ग को. तीसरे पग के पूर्व ही राजा बलि भांप चुका था कि उसके समक्ष उपस्थित वामन कोई साधारण व्यक्ति नहीं है. उसने अपना शीश वामन रूपी भगवान विष्णु के आगे झुका दिया और उनसे तीसरा पग अपने शीश पर रखने का निवेदन दिया.

भगवान विष्णु ने वैसा ही किया. इस तरह राजा बलि अपना संपूर्ण राज्य गंवाकर पाताल लोक में रहने को विवश हो गया. पाताल लोक जाने के पूर्व राजा बलि की प्रार्थना पर भगवान विष्णु अपने वास्तविक रूप में आये. वे बलि की दानपूर्णता देख अत्यंत प्रसन्न थे. उन्होंने उससे वर मांगने को कहा.

राजा बलि बोला, “भगवान्! मेरा तो सर्वस्व चला गया है. मेरी आपसे बस यही प्रार्थना है कि आप हर घड़ी मेरे समक्ष रहें.”

भगवान विष्णु ने तथास्तु कहा और राजा बलि के साथ पाताल लोक चले आये.

बैकुंठ में भगवान विष्णु की प्रतीक्षा कर रही देवी लक्ष्मी को जब यह सूचना मिली, तो वे चिंतित हो उठी. उन्होंने नारद मुनि को बुलाकर मंत्रणा की और इस समस्या का तोड़ पूछा. नारद मुनि ने उन्हें सुझाया कि वे राजा बलि को रक्षासूत्र बांधकर अपना भाई बना ले और उपहार स्वरूप भगवान विष्णु को मांग लें.

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देवी लक्ष्मी गरीब महिला का भेष धरकर पाताल लोक पहुँची और नारद के सुझाये अनुसार राजा बलि की कलाई में रक्षासूत्र बांधा.

तब राजा बलि बोला, “आपको देने मेरे पास कुछ नहीं है.”

तब देवी लक्ष्मी अपने वास्तविक स्वरुप में आई और बोली, “आपके पास तो साक्षात भगवान विष्णु हैं. मुझे वही चाहिए.”

राजा बलि ने भगवान विष्णु को देवी लक्ष्मी के साथ जाने दिया. जाते-जाते भगवान विष्णु ने राजा बलि से कहा कि वे हर साल चार माह पाताल लोक में निवास करेंगे. वे चार माह ‘चतुर्दशी’ कहलाते हैं और देवशयनी एकादशी से प्रारंभ होकर देवउठनी एकादशी तक चलते हैं.

जिस दिन देवी लक्ष्मी ने राजा बलि को रक्षासूत्र बांधा था, वह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था. तब से वह दिन रक्षाबंधन (Raksha Bandhan) के रूप में मनाया जाता है और उस दिन बहनें अपने भाइयों की कलाई पर रक्षासूत्र/ राखी बांधती हैं और भाई बहनों की रक्षा का वचन देते हैं.


२. भगवान श्रीकृष्ण और द्रौपदी की कथा 

यह पौराणिक कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई है. अपनी राजधानी इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया. उस यज्ञ में शिशुपाल भी उपस्थित हुआ. यज्ञ के दौरान शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण का अपमान किया और श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध कर दिया.

शिशुपाल का वध कर लौटते समय सुदर्शन चक्र से श्रीकृष्ण की उंगली थोड़ी कट गई और उससे रक्त बह निकला. तब द्रौपदी ने अपने साड़ी का पल्लू फाड़कर श्रीकृष्ण की उंगली पर बांधी. उस समय श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को वचन दिया कि वह इस वस्त्र के एक-एक धागे का ऋण चुकायेंगे.

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द्युतक्रीड़ा के समय जब कौरवों ने द्रौपदी के चीरहरण का प्रयास किया, तब श्रीकृष्ण ने अपना वचन निभाते हुए चीर बढ़ाकर द्रौपदी की लाज की रक्षा की.

जिस दिन द्रौपदी ने श्रीकृष्ण की उंगली में अपना पल्लू बांधा था, वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था और वह दिन रक्षाबंधन (Raksha Bandhan) के रूप में मनाया जाता है.


३. युधिष्ठिर की कथा 

यह कथा महाभारत युद्ध के समय की है. युद्ध के दौरान एक दिन युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा, “मुझे कोई उपाय बताइए, ताकि मैं सभी संकटों के पार जा सकूं.”

तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा, “सभी सैनिकों की कलाई पर रक्षासूत्र बांधों. वह समस्त संकट हरकर विजय प्राप्ति सुनिश्चित करेगा.”

युधिष्ठिर ने वैसा ही किया और महाभारत युद्ध में विजय प्राप्त की. इस विजय में रक्षासूत्र का भी योगदान था.

जिस दिन युधिष्ठिर ने सभी सैनिकों को रक्षासूत्र बांधा था, वह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था. तब से इस दिन सैनिकों को भी राखी बांधी जाती है.

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४. देवराज इंद्र की कथा 

इस कथा का उल्लेख भविष्य पुराण में मिलता है. एक बार १२ वर्षों तक अनवरत देवों और असुरों के मध्य युद्ध होता रहा. इस युद्ध में देवतागणों की पराजय हुई. देवराज इंद्र सभी देवों के साथ अमरावती चले गये.

उधर असुरों ने तीनों लोकों पर कब्ज़ा कर अपना राज्य स्थापित कर लिया और घोषणा करवाई कि इस राज्य में यज्ञ, वेदों का पठन-पाठन, पूजा और धार्मिक अनुष्ठान नहीं होंगे. इस तरह तीनों लोकों में धर्म का नाश होने लगा.

दु:खी और चिंतित देवराज इंद्र गुरू ब्रहस्पति के पास पहुँचे. उस समय गुरू ब्रहस्पति के साथ उनकी पत्नि शुचि भी उपस्थित थी.

देवराज इंद्र की व्यथा समझते हुए वे बोली, “देवराज! कल ब्राह्मण शुक्ल पूर्णिमा है. विधानपूर्वक तैयार किया गया रक्षासूत्र मैं आपको प्रदान करूंगी. उसे कल रक्षाविधान करवाकर आप ब्राह्मणों द्वारा अपनी कलाई पर बंधवा लेना. आपकी विजय होगी.”

ब्राह्मण शुक्ल को प्रातःकाल देवराज इंद्र ने शुचि द्वारा दिया गया रक्षासूत्र ब्राह्मणों द्वारा अपनी कलाई पर बंधवाया और उसके प्रभाव से युद्ध में देवताओं की विजय हुई. उस दिन से रक्षाबंधन (Raksha Bandhan) पर्व ब्राह्मणों के माध्यम से मनाया जाता है.


५. सिकंदर और राजा पुरू की कहानी

विश्वविजय के लिए निकला यूनान का सम्राट सिकंदर जब भारत पहुँचा, तो उसका सामना भारत के पुरूवंश के वीर राजा पोरस से हुआ. राजा पोरस का राज्य झेलम और चिनाब नदियों के मध्य स्थित था और सिंध-पंजाब का बहुत बड़ा क्षेत्र उसके अंतर्गत आता था.

सिकंदर और पोरस के मध्य घमासान युद्ध हुआ. युद्ध में सिकंदर की सेना को पोरस की सेना ने कड़ी टक्कर दी. सिकंदर की पत्नि को भारतीय त्यौहार रक्षाबंधन की जानकारी थी. उसने अपने पति पर संकट के बादल मंडराते देख लिया था. उसने पोरस को राखी भेजी.

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राजा पोरस सिकंदर की पत्नि के द्वारा भेजी राखी देखकर आश्चर्यचकित था. लेकिन उसने राखी के धागों का मान रखा. युद्ध में एक ऐसा समय भी आया, जब सिकंदर का घोड़ा पोरस के भाई के द्वारा मारा जा चुका था और सिकंदर निहत्था पोरस के सामने खड़ा था.

पोरस के पास सिकंदर को समाप्त करने का यह एक श्रेष्ठ अवसर था. किंतु उसने राखी का मान रखते हुए निहत्थे सिकंदर पर वार नहीं किया और उसे छोड़ दिया.


६. रानी कर्णवती और हुमायूं की कहानी 

राखी की एक कहानी चित्तौड़ के राजपूत राजा सांगा की विधवा रानी कर्णवती और मुग़ल शासक हुमांयू से जुड़ी हुई है.

राजस्थान में यह प्रथा थी कि जब राजपूत राजा युद्ध पर जाते, तो महिलायें उनके माथे अपर कुमकुम का तिलक करती और कलाई पर रेशम का रक्षासूत्र बांधती. उनका यह विश्वास था कि रेशम का वह धागा उन्हें युद्ध में विजय दिलाएगा.

मार्च १५३४ में गुजरात के शासक बहादुर शाह ज़फर ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया. तब चित्तौड़ की विधवा रानी कर्णवती ने मुग़ल बादशाह हुमांयू को राखी भेजी और उनसे सहायता मांगी.

उस समय हुमांयू बंगाल पर चढ़ाई के लिए जा रहे थे. लेकिन राखी मिलते ही वे अपन बंगाल अभियान छोड़कर रानी कर्णवती की सहायता के लिए चित्तौड़ रवाना हो गए. वह ज़माना हाथी-घोड़ों का था. हुमांयू जब तक चित्तौड़ पहुँचे, तब तक देर हो चुकी थी और रानी कर्णवती ने जौहर कर लिया था.

राखी का फ़र्ज़ निभाने हुमांयू ने बहादुर शाह ज़फर से युद्ध किया और उन्हें हराकर चित्तौड़ के शासन की बागडोर अपनी मुँहबोली बहन रानी कर्णवती के पुत्र विक्रमादित्य को सौंप दिया.


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