सुनीता की पहिया कुर्सी | Sunita Ki Pahiya Kursi Moral Story In Hindi Class 4 NECRT

फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम सुनीता की पहिया कुर्सी की कहानी (Sunita Ki Pahiya Kursi Moral Story In Hindi) शेयर कर रहे हैं.  ये कहानी Rimjhim Class 4 NECRT की है. यह कहानी पहिये से सहारे चलने-फ़िरने वाली लड़की  सुनीता की है. इसमें सुनीता के स्वावलंबन और आत्मविश्वास का वर्णन करते हुए दूसरों की परवाह किये बिना अपने जीवन में आगे बढ़ने के सीख दी गई है. पढ़िए :

Sunita Ki Pahiya Kursi Class 4 NECRT

Sunita Ki Pahiya Kursi
Sunita Ki Pahiya Kursi Chapter 12 Class 4 NCERT

उस दिन स्कूल की छुट्टी थी. इसलिए वह देर से सोकर उठी. उस दिन क्या करना है, ये उसने पहले से ही तय कर रखा था. वह पहली बार अकेले बाज़ार जाने वाली थी और इस बात को लेकर वह बहुत उत्साहित थी. वह बिस्तर पर बैठे-बैठे ही इस बारे में सोच रही थी कि माँ ने उसे आवाज़ दी, “सुनीता उठ गई हो, तो जल्दी से नाश्ते के लिए आओ. नाश्ता तैयार है.”

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माँ की आवाज़ सुनकर सुनीता खिसकते हुए बिस्तर के किनारे पर आई. फिर उसने हाथों से पकड़कर अपनी टांगों को पलंग के नीचे लटकाया. पलंग का किनारा पकड़कर वह अपनी पहिया कुर्सी तक पहुँची. पहिया कुर्सी के सहारे ही सुनीता चलती-फ़िरती है. पहिया कुर्सी में बैठकर इधर-उधर जाकर वह अपने सारे काम कर लेती है. अपना काम ख़ुद करने में उसे आनंद आता है और संतुष्टि भी मिलती है.

सुनीता झटपट नहा-धोकर तैयार हो गई. आठ बजे तक वह नाश्ते के टेबल पर पहुँच गई. माँ ने उसके लिए गरमागर्म आलू के पराठे परोस दिए.

सुनीता को अचार चाहिए था. वह माँ से बोली, “माँ अचार की बोतल कहाँ है?”

“सामने अलमारी में रखी है. जाओ जाकर ले लो.” माँ ने उत्तर दिया.

सुनीता अपनी पहिया कुर्सी से किचन की अलमारी तक गई और अचार की बोतल लेकर नाश्ते की टेबल पर वापस आ गई.  

“माँ आज मैं बाज़ार जा रही हूँ. आपको कुछ मंगवाना हो, तो बता दो.” सुनीता ने माँ से कहा.

“घर पर चीनी ख़त्म हो गई है. ऐसा करना एक किलो चीनी ले आना. वैसे तुम अकेली बाज़ार चली जाओगी ना बेटा. कहो तो मैं भी साथ चलती हूँ.” माँ चिंतित होकर बोली.

“माँ मैं चली जाऊंगी, आप फ़िक्र मत करो. अगर जाऊंगी नहीं, तो सीखूंगी कैसे? मैं तो बहुत उत्साहित हूँ अकेले बाज़ार जाने के लिए.” सुनीता मुस्कुराते हुए बोली.

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“अच्छी बात है. नाश्ता ख़त्म कर लो. फिर मैं तुम्हें पैसे और थैला देती हूँ.” माँ बोली और किचन में चली गई.

नाश्ता ख़त्म करने ने बाद सुनीता ने माँ से पैसे और थैला लिया और अपनी पहिया कुर्सी पर बैठकर बाज़ार के लिए निकल गई.

पहिया कुर्सी पर बैठे सड़क पर आगे बढ़ते हुए सुनीता बहुत ख़ुश थी. उसे बड़ा मज़ा आ रहा था. छुट्टी का दिन था. इसलिए बच्चे बाहर ही खेल रहे थे. कोई क्रिकेट खेल रहा था, तो कोई फुटबॉल, कोई रस्सी कूद रहा था, तो कोई लुका-छिपी खेल रहा था. सुनीता का मन भी उनके साथ खेलने को हुआ. लेकिन वह नहीं खेल सकती थी. वह अपनी पहिया कुर्सी रोककर एक खेल के मैदान में बच्चों को खेलते हुए देखने लगी.

पास ही एक लड़की खड़ी थी. उसकी माँ उसे लेने आई थी. वह सुनीता को बड़े गौर से देखनी लगी. सुनीता को कुछ अजीब लगा, तो वो मैदान में खेल एक लड़के को देखने लगी. उसका कद छोटा था, जिसे सब लोग छोटू-छोटू कहकर चिढ़ा रहे थे. सुनीता को यह देखकर बुरा लगा और गुस्सा भी आया.

फिर सुनीता आगे बढ़ गई. रास्ते में उसे कई लोग दिखे, जो उसे देखकर मुस्कुराये. सुनीता उन्हें नहीं जानती थी. इसलिए समझ नहीं पा रही थी कि वे लोग उसे देखकर क्यों मुस्कुरा रहे हैं.

जो लड़की उसे खेल के मैदान में दिखी थी, वह उसे फिर से कपड़े की दुकान के बाहर खड़ी दिखी. उसकी माँ उसके लिए कपड़े ख़रीद रही थी.

सुनीता उसके पास रुकी, तो उसने पूछा, “ये अजीब से चीज़ क्या है? तुम इस पर बैठकर क्यों घूम रही हो?”

“यह मेरी…..” सुनीता ने कहना चाहा, लेकिन इसके पहले कि वह अपना वाक्य पूरा कर पाती, उस लड़की की माँ आई और उस लड़की को चुप कराते हुए बोली, “ऐसा नहीं कहते फ़रीदा. अच्छी बात नहीं है.” फिर वह फ़रीदा को लेकर चली गई.

फ़रीदा की माँ का व्यवहार देख सुनीता उदास हो गई और सोचने लगी, “मैं दूसरों से अलग नहीं हूँ.”

फिर सुनीता वहाँ से आगे बढ़ी और बाज़ार पहुँच गई. वहाँ चीनी ख़रीदने के लिए उसे एक दुकान में जाना था. लेकिन वहाँ पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थी. पहिया कुर्सी उन सीढ़ियों पर चढ़ाना सुनीता के लिए मुश्किल था. वह वहाँ रुक गई. बाज़ार में घूम रहे लोग अपनी ख़रीददारी में व्यस्त थे. किसी का भी ध्यान सुनीता की ओर नहीं गया.

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तभी खेल के मैदान वाला छोटा लड़का वहाँ आया और सुनीता से बोला, “मैं तुम्हारी मदद कर दूं.”

उसे देख सुनीता बोली, “ज़रूर, लेकिन पहले अपना नाम तो बताओ.”

“मेरा नाम अमित है.” लड़का बोला.

“और मेरा नाम सुनीता है.” सुनीता बोली.

अमित ने पहिया कुर्सी सीढ़ी के ऊपर चढ़ा दी और सुनीता उसे धन्यवाद देकर दुकान में घुस गई. दुकानदार उसे देखकर मुस्कुराया और पूछा, “क्या चाहिए?”

“एक किलो चीनी.” सुनीता बोली.

दुकानदार ने चीनी तौली और उसे एक थैले में रखकर सुनीता को देने लगा. सुनीता ने थैली पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया. लेकिन उसका हाथ थैले तक नहीं पहुँचा. वह पहिया कुर्सी को आगे बढ़ाने को हुई, इसके पहले ही दुकानदार ने आकर थैली उसकी गोदी में रख दी.

यह देख सुनीता को गुस्सा आ गया. उसे दुकानदार का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा. अपना गुस्सा जताते हुए वह बोली, “जैसे दूसरे अपने हाथों से अपना सामान ले सकते हैं, वैसे मैं भी ले सकती हूँ.”

फिर वह दुकान से बाहर निकल गई. अमित उसे बाहर खड़ा मिला. उसने उसकी पहिया कुर्सी सीढ़ी से नीचे उतार दी.

सुनीता की नाराज़गी कम नहीं हुई थी. वह अमित से बोली, “मुझे समझ में नहीं आता कि लोग मुझसे ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं. मुझे देख बिना बात मुस्कुराते हैं. बिना मांगे मदद करने लगते हैं. मुझे अहसास दिलाते हैं कि मैं उनसे अलग हूँ. मुझे बहुत बुरा लगता है.”

अमित बोला, “ऐसा शायद तुम्हारी पहिया कुर्सी के कारण है.”

“ऐसा क्यों? इस कुर्सी में ऐसा क्या है. मैं तो बचपन से इस पर बैठकर ही चलती हूँ.” सुनीता बोली.

“अच्छा, लेकिन तुम इस पर क्यों बैठती हो?” अमित ने पूछा.

“इसलिए, क्योंकि मैं अपने पैरों से चल-फिर नहीं पाती और मुझे चलने-फिरने के लिए इस पहिया कुर्सी की मदद लेनी पड़ती है. लेकिन पहिया कुर्सी पर बैठकर मैं इधर-उधर जा सकती हूँ. अपने काम कर सकती हूँ. सिर्फ़ इस पर बैठने के कारण मैं दूसरे बच्चों से अलग नहीं हूँ. मैंने भी उन जैसी ही हूँ.” सुनीता बोली.

“मैं वो सारे काम कर लेता हूँ, जो दूसरे बच्चे करते हैं. लेकिन फ़िर भी वे मैं उनसे अलग हूँ. क्योंकि मेरा कद छोटा है. वैसे ही तुम भी उनसे अलग हो.” अमित सुनीता को समझाते हुये बोला.

“नहीं, हम दूसरे बच्चों जैसे ही हैं.” सुनीता ने बहस की.

“नहीं, मान लो हम अलग हैं. तुम पहिया कुर्सी पर बैठकर चलती हो और मेरा कद बहुत छोटा है.” अमित बोला.

सुनीता चुप हो गई. फिर बोली, “ऐसा करो मेरी पहिया कुर्सी को आगे ढकेलो.”

अमित ने उसकी कुर्सी ढकेल दी और वह सड़क पार जाने लगी. अमित भी उसके पीछे-पीछे जाने लगा. कुछ देर बाद वह भी पहिया कुर्सी पर चढ़ गया. वहाँ उन्हें फरीदा भी नज़र आई. वह उनके पीछे दौड़ने लगी. उसे भी पहिया कुर्सी पर चढ़ना था. सुनीता कुछ सोचने लगी. लोग अब भी उन्हें घूर रहे थे. लेकिन उनमें से किसी को किसी की परवाह नहीं थी.

सीख (Moral of the story)

१. स्वावलंबी बनो.

२. दूसरों आपके बारे में क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, उसकी परवाह करना छोड़ अपना आत्म-विश्वास बनाकर जीवन में आगे बढ़ो.


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