कुछ देर बाद वे दोनों अंग्रेज अफसर उस महिला पर अभद्र टिप्पणियां करने लगे. वह महिला अंग्रेजी नहीं समझती थी. कुछ न समझ में आने के कारण वह चुप रही.
उन दिनों भारत अंग्रेजों का गुलाम था. अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दुर्व्यवहार आम बात थी. कोई उनका विरोध करने का साहस नहीं कर पाता था. जिससे उनका हौसला बढ़ता ही जा रहा था.
धीरे-धीरे वे दोनों उस महिला को परेशान करने पर उतर आये. वे कभी उसके बच्चे का कान उमेठ देते, तो कभी उसके गाल पर चुटकी काट लेते. कभी वे महिला के बाल पकड़कर झटक देते थे.
परेशान होकर उस महिला ने अगला स्टेशन आने पर एक दूसरे कोच में बैठे पुलिस के भारतीय सिपाही से शिकायत की. महिला की शिकायत पर वह सिपाही उस कोच में आया भी, लेकिन अंग्रेजों को देख कर वह बिना कुछ कहे ही वापस चला गया.
रेल के फिर से चलने पर दोनों अंग्रेज अफसरों ने अपनी हरकतें फिर से शुरू कर दी. विवेकानंद काफी देर से ये सब देख-सुन रहे थे, अब उनसे न रहा गया. वे समझ गए थे कि ये अंग्रेज इस तरह नहीं मानेंगे.
वे अपने स्थान से उठे और जाकर उन अंग्रेजों के सामने खड़े हो गए. उनकी सुगठित काया देखकर अंग्रेज सहम गए. पहले तो विवेकानंद ने बारी-बारी से उन दोनों की आँखों में घूरकर देखा. फिर अपने दायें हाथ के कुरते की आस्तीन ऊपर चढ़ा ली और हाथ मोड़कर उन्हें अपने बाजुओं की सुडौल और कसी हुए मांसपेशियाँ दिखाई. इसके बाद वे अपने स्थान पर आकर बैठ गए.
विवेकानंद के साहसपूर्ण रवैये से दोनों अंग्रेज अफसर डर गए. उन्होंने उस महिला और उसके बच्चे को परेशान करना बंद कर दिया. यही नहीं अगले स्टेशन पर वे चुपचाप उठे और दूसरे कोच में जाकर बैठ गए.
दोस्तों, यदि हम अत्याचार या ज़ुल्म सहते रहेंगे, तो अत्याचार करने वालों का साहस भी बढ़ता चला जायेगा. स्वामी विवेकानंद के जीवन के इस प्रसंग से हमें यह सीख मिलती है कि अत्याचार या ज़ुल्म के खिलाफ तत्काल आवाज उठानी चाहिए.
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एकाग्रता : स्वामी विवेकानंद का प्रेरक प्रसंग
Concentration Swami Vivekanand Motivational Story In Hindi : एक दिन स्वामी विवेकानंद पाल डायसन के साथ साहित्य पर विचार-विमर्श कर रहे थे. पाल डायसन जर्मनी के निवासी थे और संस्कृत के महान विद्वान थे.
विचार-विमर्श के मध्य अचानक पाल डायसन को एक आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ा. कार्य पूर्ण कर जब वे लौटे, तो स्वामी विवेकानंद को एक पुस्तक पढ़ते हुए पाया.
स्वामी विवेकानंद पढ़ने में इतने लीन थे कि उन्हें पाल डायसन के वापस आने का आभास तक नहीं हुआ और वे पढ़ने में ही मग्न रहे.
पूरी पुस्तक पढ़ने के उपरांत जब उन्होंने अपना सिर ऊपर उठाया, तो पाल डायसन को प्रतीक्षा करते हुए पाया.
“क्षमा कीजियेगा. मैं पढ़ रहा था. मुझे आपके आने का आभास ही नहीं हुआ.” स्वामी विवेकानंद ने खेद प्रकट करते हुए कहा.
पाल डायसन को महसूस हो रहा था कि स्वामी विवेकानंद उन्हें जानबूझकर नज़रंदाज़ कर रहे थे. अपनी उपेक्षा से वे क्षुब्ध थे.
यह क्षुब्धता उनके चेहरे पर स्पष्ट थी. उनके मन के भावों को जानकर स्वामी विवेकानंद को बहुत दुःख हुआ. उन्हें यह विश्वास दिलाने के लिए कि वे वाकई पढ़ रहे थे, वे उन्हें पुस्तक में लिखी कविताओं की पंक्तियाँ सुनाने लगे.
कंठस्थ कविताओं को सुनने के बाद पाल डायसन की नाराज़गी और बढ़ गई. उन्हें लगने लगा कि स्वामी विवेकानंद ने वह पुस्तक पहले से ही पढ़ी हुई थी और उनकी उपेक्षा के लिए वे उनके समक्ष पुस्तक पढ़ने का स्वांग कर रहे थे.
वे बोले, “२०० पन्ने की पुस्तक तुरंत पढ़कर उसकी सारी कवितायें कंठस्थ कर लेना संभव नहीं है.”
यह सुनकर स्वामी विवेकानंद ने कहा, “महोदय! किसी भी कार्य को यदि एकाग्रता से किया जाये, तो समय कम खर्च होता है और कार्य का परिणाम अधिक प्राप्त होता है. एकाग्रता बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए कोई भी कार्य एकाग्रता के साथ करना चाहिए.”
पाल डायसन को अपनी भूल का अहसास हुआ और साथ ही जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ भी सीखने को मिला.
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