स्वामी विवेकानंद के 5 प्रेरक प्रसंग  | Swami Vivekananda Ke Prerak Prasang

फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम स्वामी विवेकानंद का प्रेरक प्रसंग (Swami Vivekananda Ke Prerak Prasang) शेयर कर रहे हैं।Swami Vivekananda Ki Prerak Kahaniyan, Swami Vivekananda Ke Prerek Kisse उनके जीवन में घटी घटनाओं का संकलन है. Swami Vivekananda Motivational Story For Kids In Hindi बच्चों से लेकर हर आयुवर्ग के व्यक्तियों के लिए प्रासंगिक है.

स्वामी विवेकानंद वेदांत के विश्व विख्यात अध्यात्मिक गुरू थे. उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था.  उन्होंने 1893 को शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत का प्रतिनिधित्व किया था. इस महासभा में उनका सनातन धर्म पर दिया गया भाषण आज भी स्मरणीय है. उन्होंने “राम कृष्ण मिशन” की भी स्थापना की थी. उनके प्रभावशाली जीवन के प्रेरक प्रसंग जीवन में प्रेरणा भर देते हैं और जीवन की सीख देते हैं. 

Swami Vivekananda Ke Prerak Prasang
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सेवा धर्म : स्वामी विवेकानंद का प्रेरक प्रसंग

एक दिन एक साधु स्वामी विवेकानंद के पास आया. वह चिंतित प्रतीत हो रहा था. अभिवादन करने के उपरांत उसने अपनी व्यथा स्वामी जी को सुनाई, “स्वामी जी! मुझे शांति नहीं मिलती. मैंने सब कुछ त्याग दिया है. मोह माया के बंधनों से मुक्त हो गया हूँ. फिर भी मन सदा भटकता रहता है. एक दिन मैं अपने एक गुरू के पास गया. मेरी व्यथा सुनकर उन्होंने मुझे एक मंत्र दिया और कहा कि उसके जाप से मुझे अनहदनाद सुनाई देगा और मेरा मन शांत हो जायेगा. मैंने उस मंत्र का जाप करने पर भी मुझे शांति नसीब नहीं हुई. मैं बहुत परेशान हूँ स्वामी जी. आप कुछ समाधान बताइये.” कहते हुए उस साधु की आँखें नम हो गई.

स्वामी जी बड़े ध्यान से उसकी बातें सुन रहे थे. बात समाप्त होने पर उन्होंने पूछा, “मान्यवर! क्या आप वास्तव में शांति चाहते है?”

“जी स्वामीजी! इसी आस में मैं आपके पास आया हूँ.” साधू ने उत्तर दिया.

“तो ठीक है. मैं तुम्हें शांति प्राप्त करने का सरल मार्ग बताता हूँ. यह जान लो कि सेवा धर्म महान है. घर से निकलो. बाहर जाकर भूखों को भोजन दो. प्यासों को पानी पिलाओ. विद्यारहितों को विद्या दो. दीन, दुखियों, दुर्बलों और रोगियों की तन, मन एवं धन से सेवा करो. सेवा द्वारा मनुष्य का अंतःकरण शांत होता है. ऐसा करने से आपको सुख और शांति प्राप्त होगी.”

स्वामी विवेकानंद की बात साधु के मन में बैठ गई. वह एक नए संकल्प के साथ वहाँ से चला गया. उसे समझ आ गया था कि मानव जाति कि निःस्वार्थ सेवा से ही मनुष्य को शांति प्राप्त हो सकती है.

 लक्ष्य पर ध्यान : स्वामी विवेकानंद की प्रेरक कहानियाँ 

 यह घटना उस समय की है, जब विवेकानन्द अमरीका में थे. एक बार वे भ्रमण पर निकले. एक नदी के पास से गुजरते हुए उन्होंने कुछ लड़कों को देखा.

वे सभी पुल पर खड़े थे और वहाँ से नदी के पानी में बहते हुए अण्डों के छिलकों पर बन्दूक से निशाना लगाने का प्रयास कर रहे थे. लेकिन, किसी भी लड़के का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था.

यह देख वे उन लड़कों के पास गए और उनसे बन्दूक लेकर खुद निशाना लगाने लगे. उन्होंने पहला निशाना लगाया. वो सीधे निशाने पर जाकर लगा. फिर उन्होंने दूसरा निशाना लगाया. वो भी सटीक लगा. फिर एक के बाद एक उन्होंने बारह निशाने लगाये. सभी निशाने बिल्कुल सही जगह जाकर लगे.

यह देख वे सभी लड़के आश्चर्यचकित रह गए. उन्होंने स्वामी जी से पूछा, “स्वामी जी! आप इतना सटीक निशाना कैसे लगा पाते है? भला कैसे कर पाते है आप ये?”

स्वामी विवेकानन्द ने उत्तर दिया, “असंभव कुछ भी नहीं है. तुम जो भी काम कर रहे हो, अपना दिमाग पूरी तरह से बस उसी एक काम में लगा दो. यदि पाठ पढ़ रहे हो, तो सिर्फ पाठ के बारे में सोचो. यदि निशाना साध रहे हो, तो अपने पूरा ध्यान लक्ष्य पर रखो. इस तरह तुम कभी नहीं चूकोगे.”

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भागो मत : स्वामी विवेकानंद का प्रेरक किस्सा

 अपने गुरु स्वामी राम कृष्ण परमहंस के शरीर त्याग के उपरांत स्वामी विवेकानंद तीर्थयात्रा पर निकले.

कई स्थानों के दर्शन करते हुए वे काशी पहुँचे और विश्वनाथ मंदिर में दर्शन के लिए गए. दर्शन कर जब वे मंदिर से बाहर आये तो देखा कि मंदिर के सामने कुछ बंदर इधर-उधर चक्कर लगा रहे है.

उन दिनों स्वामी जी लंबा अंगरखा पहनते थे और सर पर साफा बांधते थे. वे विद्याप्रेमी थे, इसलिए उनकी जेबों में पुस्तक और कागज़ भरे रहते थे. भरी हुई जेबों को देखकर बंदरों को भ्रम हुआ कि उसमें खाने की वस्तु है और वे उनके पीछे पड़ गए.

अपने पीछे बंदरों को आते देख स्वामी जी भयभीत हो गए और तेज-तेज चलने लगे. बंदरों ने भी अपनी गति बढ़ा दी, जिससे स्वामी जी का भय बढ़ गया और उन्होंने दौड़ना प्रारंभ कर दिया. लेकिन बंदर भी उनके पीछे दौड़ने लगे.

स्वामी जी को समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें? बंदर उनका पीछा छोड़ने का नाम नहीं ले रहे थे. भय के कारण वे पसीने से नहा गए. लेकिन वहाँ उपस्थित लोगों में से कोई भी उनकी सहायता के लिए सामने नहीं आया. सब तमाशबीन बन तमाशा देखते रहे.

तभी भीड़ में से ही स्वामी जी को एक आवाज़ सुनाई पड़ी, “भागो मत.” ज्यों ही ये शब्द स्वामी जी के कानों में पड़े, वे रूक गए. उन्हें बोध हुआ कि विपत्ति से डरकर जब हम भागते हैं, तो वह और तेजी से हमारा पीछा करती है. अगर साहस से उनका मुकाबला किया जाये, तो वह मुँह छुपाकर भाग जाती है.

फिर क्या था? वे मुड़े और निर्भीकता से खड़े हो गए. उन्हें देख बंदर भी खड़े हो गए. थोड़ी देर खड़े रहने के बाद वे सभी बंदर वापस लौट गए.

वह दिन स्वामी जी के जीवन में एक नया मोड़ लेकर आया. उसके बाद समाज की बुराइयों को देख वे कतराए नहीं और हौसले के साथ उनका सामना किया.

जुल्म मत सहो : स्वामी विवेकानंद का प्रेरक प्रसंग

एक बार स्वामी विवेकानंद रेल में यात्रा कर रहे थे. वे जिस कोच में बैठे थे, उसी कोच में एक महिला भी अपने बच्चे के साथ यात्रा कर रही थी. एक स्टेशन पर दो अंग्रेज अफसर उस कोच में चढ़े और महिला के सामने वाली सीट पर आकर बैठ गये.

कुछ देर बाद वे दोनों अंग्रेज अफसर उस महिला पर अभद्र टिप्पणियां करने लगे. वह महिला अंग्रेजी नहीं समझती थी. कुछ न समझ में आने के कारण वह चुप रही.

उन दिनों भारत अंग्रेजों का गुलाम था. अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दुर्व्यवहार आम बात थी. कोई उनका विरोध करने का साहस नहीं कर पाता था. जिससे उनका हौसला बढ़ता ही जा रहा था.

धीरे-धीरे वे दोनों उस महिला को परेशान करने पर उतर आये. वे कभी उसके बच्चे का कान उमेठ देते, तो कभी उसके गाल पर चुटकी काट लेते. कभी वे महिला के बाल पकड़कर झटक देते थे.

परेशान होकर उस महिला ने अगला स्टेशन आने पर एक दूसरे कोच में बैठे पुलिस के भारतीय सिपाही से शिकायत की. महिला की शिकायत पर वह सिपाही उस कोच में आया भी, लेकिन अंग्रेजों को देख कर वह बिना कुछ कहे ही वापस चला गया.

रेल के फिर से चलने पर दोनों अंग्रेज अफसरों ने अपनी हरकतें फिर से शुरू कर दी. विवेकानंद काफी देर से ये सब देख-सुन रहे थे, अब उनसे न रहा गया. वे समझ गए थे कि ये अंग्रेज इस तरह नहीं मानेंगे.

वे अपने स्थान से उठे और जाकर उन अंग्रेजों के सामने खड़े हो गए. उनकी सुगठित काया देखकर अंग्रेज सहम गए. पहले तो विवेकानंद ने बारी-बारी से उन दोनों की आँखों में घूरकर देखा. फिर अपने दायें हाथ के कुरते की आस्तीन ऊपर चढ़ा ली और हाथ मोड़कर उन्हें अपने बाजुओं की सुडौल और कसी हुए मांसपेशियाँ दिखाई. इसके बाद वे अपने स्थान पर आकर बैठ गए.

विवेकानंद के साहसपूर्ण रवैये से दोनों अंग्रेज अफसर डर गए. उन्होंने उस महिला और उसके बच्चे को परेशान करना बंद कर दिया. यही नहीं अगले स्टेशन पर वे चुपचाप उठे और दूसरे कोच में जाकर बैठ गए.

दोस्तों, यदि हम अत्याचार या ज़ुल्म सहते रहेंगे, तो अत्याचार करने वालों का साहस भी बढ़ता चला जायेगा. स्वामी विवेकानंद के जीवन के इस प्रसंग से हमें यह सीख मिलती है कि अत्याचार या ज़ुल्म के खिलाफ तत्काल आवाज उठानी चाहिए.

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एकाग्रता : स्वामी विवेकानंद का प्रेरक प्रसंग 

Concentration Swami Vivekanand Motivational Story In Hindiएक दिन स्वामी विवेकानंद पाल डायसन के साथ साहित्य पर विचार-विमर्श कर रहे थे. पाल डायसन जर्मनी के निवासी थे और संस्कृत के महान विद्वान थे.

विचार-विमर्श के मध्य अचानक पाल डायसन को एक आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ा. कार्य पूर्ण कर जब वे लौटे, तो स्वामी विवेकानंद को एक पुस्तक पढ़ते हुए पाया.

स्वामी विवेकानंद पढ़ने में इतने लीन थे कि उन्हें पाल डायसन के वापस आने का आभास तक नहीं हुआ और वे पढ़ने में ही मग्न रहे.

पूरी पुस्तक पढ़ने के उपरांत जब उन्होंने अपना सिर ऊपर उठाया, तो पाल डायसन को प्रतीक्षा करते हुए पाया.

“क्षमा कीजियेगा. मैं पढ़ रहा था. मुझे आपके आने का आभास ही नहीं हुआ.” स्वामी विवेकानंद ने खेद प्रकट करते हुए कहा.

पाल डायसन को महसूस हो रहा था कि स्वामी विवेकानंद उन्हें जानबूझकर नज़रंदाज़ कर रहे थे. अपनी उपेक्षा से वे क्षुब्ध थे.

यह क्षुब्धता उनके चेहरे पर स्पष्ट थी. उनके मन के भावों को जानकर स्वामी विवेकानंद को बहुत दुःख हुआ. उन्हें यह विश्वास दिलाने के लिए कि वे वाकई पढ़ रहे थे, वे उन्हें पुस्तक में लिखी कविताओं की पंक्तियाँ सुनाने लगे.

कंठस्थ कविताओं को सुनने के बाद पाल डायसन की नाराज़गी और बढ़ गई. उन्हें लगने लगा कि स्वामी विवेकानंद ने वह पुस्तक पहले से ही पढ़ी हुई थी और उनकी उपेक्षा के लिए वे उनके समक्ष पुस्तक पढ़ने का स्वांग कर रहे थे.

वे बोले, “२०० पन्ने की पुस्तक तुरंत पढ़कर उसकी सारी कवितायें कंठस्थ कर लेना संभव नहीं है.”

यह सुनकर स्वामी विवेकानंद ने कहा, “महोदय! किसी भी कार्य को यदि एकाग्रता से किया जाये, तो समय कम खर्च होता है और कार्य का परिणाम अधिक प्राप्त होता है. एकाग्रता बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए कोई भी कार्य एकाग्रता के साथ करना चाहिए.”

पाल डायसन को अपनी भूल का अहसास हुआ और साथ ही जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ भी सीखने को मिला.


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