पंचतंत्र की 5 कहानियाँ | Panchatantra Ki Panch Kahaniyan

पंचतंत्र की 5 कहानियाँ Panchatantra Ki Panch Kahaniyan, Panchatantra Ki 5 Kahaniyan, Top 5 Stories Of Panchatantra 

Panchatantra Ki Panch Kahaniyan

Panchatantra Ki Panch Kahaniyan

बगुला भगत की कहानी

दूरस्थ वन में स्थित एक जलाशय में मछलियाँ, केकड़े, मेंढक और ना-ना प्रकार के जीव-जंतु रहा करते थे. तालाब के किनारे एक बूढ़ा बगुला भी रहा करता था.

बूढ़ा बगुला भोजन के लिए तालाब की मछलियों पर निर्भर था. वह दिन भर तालाब किनारे घात लगाये बैठा रहता. जैसे ही कोई मछली नज़र आती, उसे लपककर पकड़ लेता और अपने पेट की ज्वाला शांत कर लेता था.

लेकिन धीरे-धीरे उसकी आँखें कमज़ोर होने लगी और मछलियाँ पकड़ना उसके लिए दुष्कर हो गया. अब वह दिन-रात एक टांग पर खड़ा होकर सोचता रहता कि ऐसी हालत में कैसे भोजन की व्यवस्था की जाये.

एक दिन उसे एक युक्ति सूझी. युक्तिनुसार वह तालाब के किनारे गया और एक टांग पर खड़ा होकर जोर-जोर से विलाप करने लगा. उसे इस तरह विलाप करता देख तालाब में रहने वाला एक केकड़ा आश्चर्यचकित हो उसके पास आया और पूछने लगा, “बगुला मामा! क्या बात है? इस तरह आँसू क्यों बहा रहे हो? क्या आज कोई मछली हाथ नहीं लगी?”

बगुला बोला, “बेटा! कैसी बात कर रहे हो? अब मैंने वैराग्य का जीवन अपना लिया है और मछलियों तथा अन्य जीवों का शिकार छोड़ दिया है. वैसे भी इस जलाशय के समीप रहते मुझे वर्षों हो गए है. यहाँ रहने वाले जलचरों के प्रति मन में प्रेम और अपनत्व का भाव जाग चुका है. इसलिए मैं उनके प्राण नहीं हर सकता.”

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“तो इस तरह विलाप करने का क्या कारण है मामा?” केकड़े ने उत्सुकतावश पूछा.

“मैं तो इस तालाब में रहने वाले अपने भाई-बंधुओं के लिए विलाप कर रहा हूँ. आज ही एक जाने-माने ज्योतिष को मैंने ये भविष्यवाणी करते सुना कि इस क्षेत्र में १२ वर्षों के लिए अकाल पड़ेगा. यहाँ स्थित समस्त जलाशय सूख जायेंगे और उनमें रहने वाले जीव-जंतु भूख-प्यास से मर जायेंगे. आसपास के सभी छोटे जलाशयों के जीव-जंतु बड़ी-बड़ी झीलों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं. किंतु इस जलाशय के जीव-जंतु निश्चिंत बैठे हैं. इस जलाशय का जलस्तर अत्यंत कम है. सूखा पड़ने पर ये अतिशीघ्र सूख जायेगा. यहाँ के रहवासी सभी जलचर मारे जायेंगें. यही सोच-सोचकर मेरे आँसू नहीं थम रहे हैं.”

बगुले की बात सुनकर केकड़ा तुरंत तालाब में रहने वाली मछलियों और अन्य जलचरों के पास गया और उन्हें बगुले की अकाल संबंधी बात बता दी.

ये सुनना था कि सभी जलचर बगुले के पास जा पहुँचे और उससे इस समस्या से निकलने का उपाय पूछने लगे.

दुष्ट बगुला तो इसी अवसर की ताक में था. वह बोला, “बंधुओं, चिंता की कोई बात नहीं है. यहाँ से कुछ ही दूरी पर जल से लबालब एक बड़ी झील अवस्थित है. वहाँ का जल अगले ५० वर्षों तक नहीं सूखेगा मैं तुम्हें अपनी पीठ पर लादकर उस झील में छोड़ आऊंगा. इस तरह तुम सबकी जान बच जायेगी.”

बगुले की बात सुनकर सभी जलचरों में पहले जाने की होड़ लग गई और वे बगुले से अनुनय करने लग गए, “बगुला मामा, हमें वहाँ पहले पहुँचा दो.”

ये देख बगुले की बांछे खिल गई. उसने सबको शांत किया और बोला, “बंधुओं, मैं तुम सबको एक-एक कर अपनी पीठ पर लादकर उस झील तक ले जाऊंगा. फिर चाहे मेरा जो हाल हो. आखिर तुम सब मेरे अपने हो.”

उस दिन के बाद से बगुला प्रतिदिन एक मछली को अपनी पीठ पर लादकर ले जाता और कुछ दूरी तय करने के बाद एक बड़ी शिला पर पटककर मार डालता. फिर छककर अपना पेट भरने के बाद दूसरे दिन दूसरा शिकार अपनी पीठ पर लादकर चल पड़ता.

ऐसे ही कई दिन बीत गये. बगुले को बिना परिश्रम के रोज़ एक मछली का आहार मिलने लगा. एक दिन जब बगुला तालाब के किनारे गया, तो केकड़ा बोला, “बगुला मामा! आपने सूखा पड़ने की बात मुझे सबसे पहले बताई. किंतु अब तक आप मुझे बड़ी झील लेकर नहीं गए. आज मैं आपकी कुछ नहीं सुनूंगा. आज आपको मुझे ही लेकर जाना होगा.”

बगुला भी रोज़ मछली खाकर ऊब चुका था. उसने सोचा कि क्यों ना आज केकड़े को ही अपना आहार बनाया जाये? और वह केकड़े को अपनी गर्दन पर बैठाकर उड़ने लगा.

कुछ दूर जाने के बाद केकड़े ने देखा कि एक बड़ी शिला के पास मछलियों की हड्डियों का अंबार लगा हुआ है. उसे संदेह हुआ कि हो न हो ये सब बगुले का ही किया धरा है.

उसने बगुले से पूछा, “मामा, और कितनी दूर जाना है. तुम मुझे उठाये-उथाये थक गये होगे.”

शिला तक पहुँचने के बाद बगुले ने सोचा कि अब वास्तविकता बताने में कोई हर्ज़ नहीं. उसने केकड़े को सारी बात बता दी और बोला, “केकड़े, ईश्वर का स्मरण कर ले. तेरा अंत समय आ चुका है. अब मैं तुझे भी इन मछलियों की तरह इस शिला पर पटककर मार दूंगा और अपना आहार बनाऊंगा.”

ये सुनना था कि केकड़े ने अपने नुकीले दांत बगुले की गर्दन पर गड़ा दिए. बगुले की गर्दन कट गई और वह वहीं तड़पकर मर गया.

केकड़ा बगुले की कटी हुई गर्दन लेकर वापस तालाब में पहुँचा और दुष्ट बगुले की दुष्टता की कहानी सब जलचरों को बताई और बोला, “अब वह दुष्ट मर चुका है. तुम सब लोग यहाँ आनंद के साथ रहो.”

सीख

किसी भी बात का बिना सोचे-समझे विश्वास नहीं करना चाहिए. मुसीबत में धैर्य से काम लेना चाहिये.

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मूर्ख कछुआ की कहानी

एक तालाब में कम्बुग्रीव नामक कछुआ (Tortoise) रहा करता था. वह कछुआ बहुत बातूनी था. दूसरों से बात करते समय बीच-बीच में टोका-टोकी करना उसकी आदत थी.

एक दिन दो हंस (Swan) उस तालाब में उतरे. उन हंसों का नाम संकट और विकट था. उन्हें तालाब के आस-पास का वातावरण बहुत अच्छा लगा. उसके बाद से वे प्रतिदिन वहाँ आने लगे. कम्बुग्रीव कछुआ उन्हें प्रतिदिन देखता. एक दिन उसने उन दोनों हंसों से बात की. वे उसे दोनों भले और सज्जन लगे. शीघ्र ही उनमें गाढ़ी मित्रता हो गई.

हंस रोज़ तालाब में आते और कछुए से मिलते. फिर तीनों बहुत देर तक ना-ना प्रकार की बातें करते. हालांकि बातों के बीच कछुए की टोका-टाका ज़ारी रहती. किंतु सज्जन हंस इसका बुरा नहीं मानते.

एक बार उस क्ष्रेत्र में भयंकर अकाल पड़ा. नदी-तालाब सूखने लगे. वह तालाब भी सूखने लगा, जहाँ कछुआ रहता था. एक शाम जब हंस उससे मिलने आये, तो उसे बताया कि वे दोनों वह स्थान छोड़कर ५० कोस दूर स्थित एक अन्य झील पर जा रहे हैं, जो पानी से लबालब है. यह सुनकर कछुवा दु:खी हो गया और आँखों में आंसू भरकर बोला, “मित्रों! कुछ ही दिनों में ये तालाब सूख जायेगा. मेरा मरण तो निश्चित है. किंतु इस बात से अधिक दु:ख मुझे इस बात का है कि अपनी अंतिम घड़ी में मैं अपने परम मित्रों को देख नहीं पाऊंगा.”

कछुए की इस बात पर दोनों हंस उदास हो गए. उन्हें कछुए से सहानुभूति थी. वे बोले, “मित्र कम्बुग्रीव! हम तुम्हें यहाँ अकेले छोड़कर नहीं जायेंगे. हम तुम्हें भी अपने साथ ले जायेंगे. हमारी मित्रता और साथ सदा बना रहेगा.”

“लेकिन ये कैसे संभव है मित्रों? तुम दोनों तो उड़कर चले जाओगे. मुझे तो धीरे-धीरे चलकर उस स्थान तक पहुँचने में महीनों लग जायेंगे. हो सकता है कि बीच रास्ते में ही मेरे प्राणपखेरू उड़ जायें. तुम दोनों चले जाओ. मैं तुम्हें याद करके अपने दिन व्यतीत कर लूंगा.”

हंसों ने कछुए की बात नहीं मानी और उसे अपने साथ ले जाने का उपाय सोचने लगे. सोचते-सोचते उन्हें एक उपाय सूझ ही गया और वे प्रसन्न हो गए. उन्होंने तय किया कि वे बांस की एक लकड़ी लेकर आयेंगे. कछुआ उस लकड़ी के मध्य भाग को अपने मुँह से पकड़ेगा और वे दोनों उस लकड़ी के एक-एक सिरे को अपनी चोंच में दबा लेंगे. इस तरह वे कछुए को लेकर उड़ते हुए उस झील तक पहुँच जायेंगे.”

कछुआ भी यह उपाय सुनकर प्रसन्न हुआ. अगले दिन हंस लकड़ी लेकर कछुवे के पास आये और उसे लकड़ी के मध्यभाग को मुँह से पकड़ने को कहा. हंस कछुए की बातूनी आदत से भली-भांति परिचित थे. इसलिए उन्होंने उसे समझाया कि जब तक वे झील तक नहीं पहुँच जाते, उसे मौन रहना है. अन्यथा वह नीचे गिर पड़ेगा. कछुए ने उन्हें आश्वासन दिया कि वह मौन धारण करके रखेगा.

इसके बाद दोनों कछुए ने दृढ़तापूर्वक लकड़ी के मध्यभाग को पकड़ लिया. हंस लकड़ी के दोनों सिरों को चोंच में दबाकर आकाश में उड़ने लगे. उड़ते-उड़ते वे एक कस्बे के ऊपर से गुज़रे. तभी किसी ने आकाश के उस विचित्र नज़ारे को देख लिया. वह दूसरे लोगों को बताने लगा, “देखो देखो आकाश में कछुआ उड़ रहा है.” एक मुँह से दूसरे मुँह होते हुए ये बात पूरे कस्बे में फ़ैल गई. लोग घरों के बाहर निकल आये और शोर मचाने लगे.

यह शोर सुन कछुए से न रहा गया और वह हंसों से बोला, “ये लोग हमें देख इतना शोर क्यों मचा रहे हैं?”

बोलते ही कछुए के मुँह से लकड़ी छूट गई और वह सीधे जमीन से आ टकराया. जमीन से टकराते ही उसके प्राणपखेरू उड़ गए.

सीख 

१. बुद्धिमान व्यक्ति किसी कार्य के बारे में योजना बनाकर उस पर पूरा अमल करते हुए सफ़लता प्राप्त करते हैं. अन्यथा योजना पर टिके न रहने का दुष्परिणाम भोगना पड़ता है.

२. सामूहिक कार्य में समूह के सदस्यों की राय को महत्व देना आवश्यक है. उनकी राय न मानकर कार्य के नुकसान के साथ-साथ व्यक्तिगत नुकसान भी हो सकता है.

३. मौके की नज़ाकत को देखकर ही मुँह खोलना चाहिए.

शेर की खाल में गधा पंचतंत्र की कहानी

एक गाँव में शुद्धपट नामक धोबी रहता था. उसके पास एक गधा था. वह गधे से दिन भर बोझ लदवाता था. परन्तु, निर्धनता के कारण उसके खाने-पीने की व्यवस्था नहीं कर पाता था. गधा इधर-उधर घास चरकर अपना पेट भरा करता था.

एक दिन जंगल में धोबी को एक मरे हुए शेर की खाल मिली. उसे देख धोबी ने सोचा कि यदि मैं यह खाल अपने गधे को ओढ़ा दूं, तो लोग इसे शेर समझकर डरेंगे और इसे नहीं भगायेंगे. इस प्रकार यह बिना किसी बाधा के आराम से किसी के भी खेत में घास चर सकेगा.   

उसने शेर की खाल उठा ली. उसके बाद से हर रात वह अपने गधे को शेर की खाल ओढ़ाकर गाँव के खेत में छोड़ने लगा. शेर की खाल में गधे को लोग शेर समझते और डर के मारे उससे दूर भागते थे. गधा मज़े से रात पर खेत में घास चरकर सुबह घर आ जाता था. गधा भी ख़ुश था और धोबी भी. दोनों के दिन बड़े मज़े से बीत रहे थे. 

एक रात गधा हमेशा की तरह शेर की खाल ओढ़कर एक खेत में घास चरने घुसा. वह मज़े से घास चर रहा था कि कहीं से उसे किसी अन्य गधे के रेंकने की आवाज़ सुनाई पड़ी. उसका मन भी रेंकने को मचल उठा और सब कुछ भूलकर वह रेंकने में रम गया.

उसका रेंकना सुन खेत का मालिक सारी बात समझ गया. फिर उसने गधे को इतना पीटा कि वह मर ही गया. इस प्रकार धूर्त आचरण के कारण गधे को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा और धोबी को अपने गधे से.

सीख 

बाह्य वेश बदल लेने से किसी का मूल स्वभाव नहीं बदल जाता।

मगरमच्छ और बंदर की कहानी

जंगल में झील के किनारे जामुन का एक पेड़ था. ऋतु आने पर उसमें बड़े ही मीठे और रसीले जामुन लगा करते थे. जामुन का वह पेड़ ‘रक्तमुख’ नामक बंदर का घर था. जब भी पेड़ पर जामुन लगते, तो वह ख़ूब मज़े लेकर उन्हें खाया करता था. उसका जीवन सुखमय था.

एक दिन एक मगरमच्छ झील में तैरता-तैरता जामुन के उसी पेड़ के नीचे आ गया, जिस पर बंदर रहा करता था. बंदर ने उसे देखा, तो उसके लिए कुछ जामुन तोड़कर नीचे गिरा दिए. मगरमच्छ भूखा था. जामुन खाकर उसकी भूख मिट गई.

वह बंदर से बोला, “मैं बहुत भूखा था मित्र. तुम्हारे दिए जामुन ने मेरी भूख शांत कर दी. तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद.”

“जब मित्र कहा है, तो फिर धन्यवाद की क्या बात है? तुम यहाँ रोज़ आ जाया करो. ये पेड़ तो जामुनों से लदा हुआ है. हम दोनों साथ में जामुनों का स्वाद लिया करेंगे.” बंदर ने मैत्रीभाव से मगरमच्छ से कहा.

उस दिन से बंदर और मगरमच्छ में अच्छी मित्रता हो गई. मगरमच्छ रोज़ झील किनारे आता और बंदर के दिए जामुन खाते हुए उससे ढेर सारी बातें किया करता. बंदर मित्र के रूप में मगरमच्छ को पाकर बहुत ख़ुश था.      

एक दिन दोनों में अपने-अपने परिवार के बारे में बातें चली, तो बंदर बोला, “मित्र, परिवार के नाम पर मेरा कोई नहीं है. मैं इस दुनिया में अकेला हूँ. किंतु तुमसे मित्रता के बाद से मेरे जीवन का अकेलापन चला गया. मैं भगवान का बहुत आभारी हूँ कि उसने मित्र के रूप में तुम्हें मेरे जीवन में भेजा.”

मगरमच्छ बोला, “मैं भी तुम्हें मित्र के रूप में पाकर बहुत ख़ुश हूँ. लेकिन मैं अकेला नहीं हूँ. मेरी पत्नि है. झील के पार हम दोनों साथ रहते हैं.”

“अरे ऐसी बात थी, तो पहले क्यों नहीं बताया? मैं उनके लिए भी जामुन भेजता.” बंदर बोला और उस दिन उसने मगरमच्छ की पत्नि के लिए भी जामुन भिजवाए.

घर पहुँचकर जब मगरमच्छ ने अपनी पत्नि को बंदर के भेजे जामुन दिए, तो उसने पूछा, “नाथ, तुम इतने मीठे जामुन कहाँ से लेकर आये हो?”

“ये जामुन मुझे मेरे मित्र बंदर ने दिए हैं, जो झील के पार जामुन के पेड़ पर रहता है.” मगरमच्छ बोला.

“बंदर और मगरमच्छ की मित्रता! कैसी बात कर रहे हो नाथ? बंदर और मगरमच्छ भी भला कभी मित्र होते हैं? वो तो हमारा आहार हैं. जामुन के स्थान पर तुम उस बंदर को मारकर ले आते, तो हम मिलकर उसके मांस का स्वाद लेते.” मगरमच्छ की पत्नि बोली.

“ख़बरदार, जो आइंदा कभी ऐसी बात की. बंदर मेरा मित्र है. वह मुझे रोज़ मीठे जामुन खिलाता है. मैं कभी उसका अहित नहीं कर सकता.” मगरमच्छ ने अपनी पत्नि को झिड़क दिया और वह मन मसोसकर रह गई.

इधर बंदर और मगरमच्छ की मित्रता पूर्वव्रत रही. दोनों रोज़ मिलते रहे और बातें करते हुए जामुन खाते रहे. बंदर अब मगरमच्छ की पत्नि के लिए भी जामुन भेजने लगा.

मगरमच्छ की पत्नि जब भी जामुन खाती, तो सोचती कि जो बंदर रोज़ इतने मीठे जामुन खाता है, उसका कलेजा कितना मीठा होगा? काश, मुझे उसका कलेजा खाने को मिल जाये! लेकिन डर के मारे वह अपने पति से कुछ न कहती. लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, वैसे-वैसे उसके मन में बंदर का कलेजा खाने की लालसा बढ़ती गई.

वह अपने पति से सीधे-सीधे बंदर के कलेजे की मांग नहीं कर सकती थी. इसलिए उसने एक तरक़ीब निकाली. एक शाम जब मगरमच्छ बंदर से मिलकर वापस आया, तो देखा कि उसकी पत्नि निढाल होकर पड़ी है.

पूछने पर वह आँसू बहाते हुए बोली, “मेरी तबियत बहुत ख़राब है. लगता है, अब मैं नहीं बचूंगी. नाथ, मेरे बाद तुम अपना ख्याल रखना.”

मगरमच्छ अपनी पत्नि से बहुत प्रेम करता था. उससे उसकी वह हालत देखी नहीं जा रही थी. वह दु:खी होकर बोला, “प्रिये! ऐसा मत कहो. हम वैद्य के पास जायेंगे और तुम्हारा इलाज़ करवाएंगे.”

“मैं वैद्य के पास गई थी. लेकिन उसने मेरी बीमारी का जो इलाज़ बताया है, वह संभव नहीं है.”

“तुम बताओ तो सही, मैं तुम्हारा हर संभव इलाज करवाऊंगा.”

मगरमच्छ की पत्नि इसी मौके की तलाश में थी. वह बोली, “वैद्य ने कहा है कि मैं बंदर का कलेजा खाकर ठीक हो सकती हूँ. तुम मुझे बंदर का कलेजा ला दो.”

“ये तुम क्या कह रही हो? मैं तुमसे कह चुका हूँ कि बंदर मेरा मित्र है. मैं उसक साथ धोखा नहीं कर सकता.” मगरमच्छ अपनी पत्नि की बात मानने को तैयार नहीं हुआ.

“यदि ऐसी बात है, तो तुम मेरा मरा मुँह देखने को तैयार रहो.” उसकी पत्नि रुठते हुए बोली.

मगरमच्छ दुविधा में पड़ गया. एक ओर मित्र था, तो दूसरी ओर पत्नि. अंत में उसने अपनी पत्नि के प्राण बचाने का निर्णय किया. दूसरे दिन वह सुबह-सुबह बंदर का कलेजा लाने चल पड़ा. उसकी पत्नि ख़ुशी से फूली नहीं समाई और उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगी.

जब मगरमच्छ बंदर के पास पहुँचा, तो बंदर बोला, “मित्र, आज इतनी सुबह-सुबह. क्या बात है?”

“मित्र, तुम्हारी भाभी तुमसे मिलने को लालायित है. वह रोज़ मुझसे शिकायत करती है कि मैं तुम्हारे दिए जामुन तो खा लेता हूँ. किंतु कभी तुम्हें घर बुलाकर तुम्हारा सत्कार नहीं करता. आज उसने तुम्हें भोज पर आमंत्रित किया है. मैं सुबह-सुबह वही संदेशा लेकर आया हूँ.” मगरमच्छ ने झूठ कहा.

“मित्र, भाभी को मेरी ओर से धन्यवाद कहना. लेकिन मैं जमीन रहने वाला जीव हूँ और तुम लोग जल में रहने वाले जीव हो. मैं ये झील पार नहीं कर सकता. मैं कैसे तुम्हारे घर आ पाऊंगा?” बंदर ने अपनी समस्या बताई.

“मित्र! उसकी चिंता तुम मत करो. मैं तुम्हें अपनी पीठ पर बिठाकर अपने घर ले जाऊंगा.”

बंदर तैयार हो गया और पेड़ से कूदकर मगरमच्छ की पीठ पर बैठ गया. मगरमच्छ झील में तैरने लगा. जब वे झील के बीचो-बीच पहुँचे, तो मगरमच्छ ने सोचा कि अब बंदर को वास्तविकता बताने में कोई समस्या नहीं है. यहाँ से वह वापस नहीं लौट सकता.

वह बंदर से बोला, “मित्र, भगवान का स्मरण कर लो. अब तुम्हारे जीवन की कुछ ही घड़ियाँ शेष हैं. मैं तुम्हें भोज पर नहीं, बल्कि मारने के लिए ले जा रहा हूँ.”

ये सुनकर बंदर चकित होकर बोला, “मित्र, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो तुम मुझे मारना चाहते हो. मैंने तो तुम्हें मित्र समझा, तुम्हें जामुन खिलाये और उसका प्रतिफल तुम मेरे प्राण लेकर दे रहे हो.”

मगरमच्छ ने बंदर को सारी बात बताई और बोला, “मित्र, तुम्हारी भाभी के जीवन के लिए तुम्हारा कलेजा आवश्यक है. वह तुम्हारा कलेजा खाकर ही भली-चंगी हो पायेगी. आशा है, तुम मेरे विवशता समझोगे.”

बंदर को मगरमच्छ की पत्नि की चालाकी समझ में आ गई. उसे मगरमच्छ और उसकी पत्नि दोनों पर बहुत बहुत क्रोध गया. किंतु वह समय क्रोध दिखाने का नहीं, बल्कि बुद्धि से काम लेने का था.

बंदर चतुर था. तुरंत उसके दिमाग में अपने प्राण बचाने का एक उपाय आ गया और वह मगरमच्छ से बोला, “मित्र तुमने पहले क्यों नहीं बताया कि भाभी को मेरा कलेजा खाना है. हम बंदर लोग अपना कलेजा पेड़ की कोटर में संभाल कर रखते हैं. मैंने भी जामुन के पेड़ की कोटर में अपना कलेजा रखा हुआ है. अब तुम मुझे भाभी के पास लेकर भी जाओगे, तो वह मेरा कलेजा नहीं खा पायेगी.”

“यदि ऐसी बात है, तो मैं तुम्हें वापस पेड़ के पास ले चलता हूँ. तुम मुझे अपना कलेजा दे देना. वो ले जाकर मैं अपनी पत्नि को दे दूंगा.” कहकर मगरमच्छ ने फ़ौरन अपनी दिशा बदल ली और वापस जामुन के पेड़ की ओर तैरने लगा.

जैसे ही मगरमच्छ झील के किनारे पहुँचा, बंदर छलांग मारकर जामुन के पेड़ पर चढ़ गया. नीचे से मगरमच्छ बोला, “मित्र! जल्दी से मुझे अपना कलेजा दे दो. तुम्हारी भाभी प्रतीक्षा कर रही होगी.”

“मूर्ख! तुझे ये भी नहीं पता कि किसी भी प्राणी का कलेजा उसके शरीर में ही होता है. चल भाग जा यहाँ से. तुझ जैसे विश्वासघाती से मुझे कोई मित्रता नहीं रखनी.” बंदर मगरमच्छ से धिक्कारते हुए बोला.

मगरमच्छ बहुत लज्जित हुआ और सोचने लगा कि अपने मन का भेद कहकर मैंने गलती कर दी. वह पुनः बंदर का विश्वास पाने के उद्देश्य से बोला, “मित्र, मैं तो तुमसे हँसी-ठिठोली कर रहा था. तुम मेरी बातों को दिल पर मत लो. चलो घर चलो. तुम्हारी भाभी बांट जोह रही होगी.”

“दुष्ट, मैं इतना भी मूर्ख नहीं कि अब तेरी बातों में आऊंगा. तुझ जैसा विश्वासघाती किसी की मित्रता के योग्य नहीं है. चला जा यहाँ और फिर कभी मत आना.” बंदर मगरमच्छ को दुत्कारते हुए बोला.         

मगरमच्छ अपना सा मुँह लेकर वहाँ से चला गया.

सीख 

मित्र के साथ कभी धोखा नहीं करना चाहिए.

विपत्ति के समय धैर्य और बुद्धि से काम लेना चाहिए.

दो सिर वाला पक्षी की कहानी

एक वन में भारंड नामक पक्षी रहता था. उसकी आकृति विचित्र थी. उसका शरीर तो एक था, किंतु सिर दो थे. उन दोनों सिरों की आपस में नहीं बनती थी. समय-समय पर उनमें टकराव होता रहता था.

एक दिन वन में भटकते हुए पक्षी के दांये मुख को एक रसीला फल प्राप्त हुआ. उसने लपककर फ़ल को पकड़ लिया और बड़े ही चाव से खाने लगा.

यह देख बाएं मुख की भी लार टपकने लगी. उसने दांये मुख से कहा, “तनिक मैं भी तो यह फ़ल चखकर देखूं.”

किंतु दांये मुख ने उसे झिड़क दिया, “इसकी क्या आवश्यकता है? मैं खाऊँ या तुम, जायेगा तो हमारे ही पेट में और पेट तो हमारा एक ही है. वह तो भर ही जायेगा.”

यह उत्तर सुन बायें मुख को क्रोध आ गया. वह दांये मुख से अपने अपमान और तिरस्कार का बदला लेने का अवसर खोजने लगा.

यह अवसर उसे प्राप्त हो गया, जब नदी किनारे पड़ा हुआ एक सुनहरा फ़ल उसे प्राप्त हुआ. वह यह फल दांये मुख को जलाते हुए अकेले ही खाना चाहता था. किंतु जैसे ही वह उसे खाने को हुआ, पास ही एक वृक्ष पर बैठा कौवा (Crow) बोल पड़ा, “बंधु उस फल को मत खाना. वह विषाक्त है. उसे खाते ही तुम मर जाओगे.”

यह बात सुन दांयें मुख ने बायें मुख को चेताया और रोकने का प्रयास किया. किंतु बायां मुख प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था. उसने दांये मुख की एक ना सुनी और वह फल खा लिया. फल खाते ही पक्षी के प्राण पखेरू उड़ गए.

सीख 

जो आपस में मिल-जुलकर काम नहीं करते, वे नष्ट हो जाते हैं.  

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