बच्चों के लिए 70+ सीख देने वाली कहानियां | 70+ Short Stories In Hindi With Moral For Kids

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Short Stories In Hindi With Moral For Kids

Short Stories In Hindi With Moral For Kids 

Table of Contents

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 एकता में बल है कहानी

एक जंगल में कबूतरों का दल रहता था. प्रतिदिन वह दल अपने मुखिया के नेतृत्व में भोजन की खोज में दूर-दूर तक जाया करता था. एक रोज़ प्रतिदिन की भांति दल के सभी कबूतर भोजन की तलाश में निकले. उड़ते-उड़ते वे बहुत दूर निकल आने पर भी उस दिन उन्हें भोजन नसीब नहीं हुआ. सभी थककर चूर हो चुके थे और भूख से उनका हाल मुहाल था.

ऐसे में, उनके मुखिया ने कुछ युवा कबूतरों को कुछ दूर आगे जाकर भोजन तलाशने को कहा. तब तक दल के अन्य सदस्य एक पेड़ पर आराम करने लगे. युवा कबूतर कुछ देर में लौट आये और मुखिया सहित दल के कबूतरों को बताया कि कुछ ही दूरी पर ज़मीन में अन्न के ढेरों दाने बिखरे हुए हैं. सभी कबूतर उनके साथ हो लिए और उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ अन्न के दाने बिखरे थे.

ज़मीन पर बिखरे अन्न के दानों को देखकर कबूतरों की भूख जाग गई और वे दाना चुगने लगे. लेकिन वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि बहेलिये ने वहाँ जाल बिछाया हुआ था. वे बहेलिये के जाल में फंस गए. स्वयं को जाल में फंसा पाकर कबूतर भयभीत हो गए. उन्हें अपने प्राणों की चिंता सताने लगी. तब उनके नेता ने उन्हें ढांढस बंधाया और धैर्य से काम लेने को कहा.

उसने समझाया कि इस समय हमें एकजुट होकर इस संकट से निकलने का प्रयास करना चाहिए. यदि हम सभी मिलकर ज़ोर लगायें, तो इस जाल को लेकर उड़ सकते हैं. इस तरह हम बहेलिये के चंगुल से बाहर निकल जायेंगे. सभी कबूतरों ने वैसा ही किया और जाल लेकर उड़ गए. पहाड़ी पर उनका मित्र चूहा रहता था. वे सभी जाल सहित चूहे के पास पहुँचे. चूहे ने जाल काटकर उन्हें स्वतंत्र कर दिया. इस तरह संकट के समय सूझबूझ, धैर्य और एकजुटता से काम लेकर कबूतरों ने अपनी प्राणों की रक्षा की.

सीख 

विपरीत परिस्थितियों में हिम्मत न हारें. सूझ-बूझ और धैर्य के साथ एकजुट होकर प्रयास करें. एकता की शक्ति से हर संकट से छुटकारा पाया जा सकता है.

चालाक लोमड़ी और मूर्ख बकरी की कहानी

एक दिन की बात है। एक लोमड़ी भोजन की तलाश में जंगल में घूम रही थी। घूमते घूमते वह एक कुएं के पास पहुंची, जिसके चारों ओर दीवार नहीं थी। यह देखने के लिए कि कुएं में कितना पानी है, वह कुएं में झांकने लगी और अपना संतुलन खो कर कुएं में गिर गई।

कुएं में बहुत अधिक पानी नहीं था। इसलिए लोमड़ी मरने से बच गई। लेकिन जब उसने कुएं से बाहर निकलने की बहुत कोशिश की, तो बाहर निकल नहीं पाई। वह वहीं खड़े रहकर किसी के आने का इंतजार करने लगी। कुछ देर बाद वहां एक बकरी वहां आई और कुएं की हलचल सुनकर कुएं में झांकने लगी। उसे वहां लोमड़ी खड़ी दिखाई दी।

बकरी ने चकित होकर लोमड़ी से पूछा, “लोमड़ी बहन, तुम कुएं में क्या कर रही हो?”

लोमड़ी को कुएं से बाहर निकलने का रास्ता सूझ गया था। वह मीठी वाणी में बोली, “बकरी बहन, क्या तुम नहीं जानती कि कुछ ही दिनों में जंगल में सूखा पड़ने वाला है। इसलिए मैं यहां आकर बैठ गई हूं। कम से कम मैं यहां प्यासी तो नहीं मरूंगी। तुम भी क्यों नहीं आ जाती?”

बकरी ने सोचा कि लोमड़ी सही कह रही है। पानी के लिए दर-दर भटकने से अच्छा है कि कुएं में ही जाकर बैठूं। पहले जाने का फायदा भी रहेगा। ज्यादा जानवर कुएं में चले गए, तो वे कहां मुझे कुएं का पानी पीने देंगे। 

यह विचार आते ही वह कुएं में कूद पड़ी। जैसे ही वह कुएं के अंदर पहुंची, मौके की ताक में बैठी लोमड़ी उसकी पीठ पर चढ़ गई और कुएं से बाहर निकलकर जंगल में भाग गई। मूर्ख बकरी कुएं में पड़ी रह गई।

सीख 

कभी किसी की बात पर बिना सोचे समझे भरोसा नहीं करना चाहिए।

एक गरीब किसान की कहानी

एक गांव में एक अमीर जमींदार रहता था। उसे अपने पैसों पर बड़ा घमंड था। जितने अधिक पैसे उसके पास थे, उतना ही वह कंजूस भी था। अपने खेतों में काम करने वाले किसानों से वह खूब काम करवाता, मगर पगार कौड़ी भर भी न देता। मजबूर गरीब किसान मन मारकर उसके खेत में काम करते।

उसी गांव में रामू नामक एक किसान रहता था। उसके पास थोड़ी सी जमीन थी। उसी में खेती-बाड़ी कर वह अपना और अपने परिवार का गुजारा चलाता था। रामू बड़ा मेहनती था। वह दिन भर अपने खेत में काम करता और अपनी मेहनत के दम पर इतनी फसल प्राप्त कर लेता कि अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटा सके।

गांव के बाकी किसानों के पास रामू के मुकाबले अधिक जमीनें थीं। वे रामू की मेहनत देखकर हैरान होते कि कैसे इतनी सी जमीन में वह इतनी फसल उगा लेता है। 

एक साल गांव में भयंकर सूखा पड़ा। बिना बारिश के खेत खलिहान सूखने लगे। गरीब किसानों के पास सिंचाई की कोई व्यवस्था न थी। वे सिंचाई के लिए बारिश पर ही निर्भर थे। इसलिए उनकी सारी फसल बर्बाद हो गई। रामू के साथ भी यही हुआ। अपने छोटे से खेत में वह किसी तरह अपने परिवार का पालन पोषण कर रहा था। अब उनके सामने भूखों मरने की नौबत आ गई। मजबूरी के कारण वह गांव के जमींदार के पास कर्ज मांगने गया।

जमींदार कंजूस तो था। उसने सोचा कि यदि उसने रामू को पैसे दिए, तो यह लौटा तो पाएगा नहीं। इसलिए इसे अपने खेत में काम पर लगा लेता हूं। मेहनती तो ये है ही, और मजबूर भी। कम पैसों में दुगुनी मेहनत करवाऊंगा।

उसने रामू से कहा, “देख रामू! मैं तुझे कर्ज तो दे नहीं सकता, लेकिन तेरी इतनी मदद कर सकता हूं कि तुझे अपने खेत में काम पर रख लूं। तुझे महीने के हजार रुपए दे दिया करूंगा।”

“पर मालिक दूसरे किसान तो दो हजार पाते हैं।” रामू बोला।

“करना है तो कर। वरना मेरे पास किसानों की कमी नहीं।” जमींदार बोला।

मजबूर रामू क्या करता? हामी भरकर घर लौट आया। अगले दिन से जमीदार के खेत में काम करने लगा। मेहनती तो वह था ही। वह खूब मेहनत और लगन से काम करता। उसने चार महिने का काम दो महीने में ही कर दिया। यह देख जमींदार बहुत खुश हुआ। लेकिन इसके मन में मक्कारी जाग उठी। उसने सोचा कि चार महीने का काम तो इसने दो ही महीने में कर दिया। क्यों न इसे निकाल दूं। इससे मेरे दो महीने के पैसे बच जायेंगे।

उसने रामू को बुलाया और उसके दो महीने के पैसे देकर कहा, “रामू यह ले तेरे पैसे। कल से मत आना। अब मुझे तेरी जरूरत नहीं।”

ये सुनकर रामू परेशान हो गया। बड़ी मुश्किल से उसका घर चल रहा था। अब अपने परिवार का भरण पोषण कैसे करेगा? वह जमींदार के सामने गिड़गिड़ाने लगा कि उसे काम से न निकाले। लेकिन जमीदार ने उसकी एक न सुनी और उसे काम से निकाल दिया। 

रामू आंखों में आंसू लेकर घर लौटा। चिंता से रात भर उसे नींद नहीं आई। सुबह उठकर उसने फैसला किया कि वह फिर से जमींदार के पास जायेगा और उससे विनती करेगा कि उसे वापस काम पर रख ले।

वह जमींदार के घर के सामने जाकर बैठ गया। सुबह उठकर जाट जमीदार अपने घर से बाहर निकला, तो रामू को घर के सामने बैठा हुआ देखा।

उसने रामू से पूछा, “क्या हुआ रामू, क्यों आया है?”

रामू जमीदार की पैरों पर गिर पड़ा और गिड़गिड़ाते हुए बोला, “मुझ पर दया कीजिए मालिक। मुझे काम पर रख लीजिए। मेरा परिवार भूखा मर जाएगा।”

जमीदार ने उसकी एक न सुनी और उसे धक्के मार के वहां से निकाल दिया। रामू उस समय तो वहां से चला गया, लेकिन अगली सुबह फिर सेठ के घर के सामने जाकर बैठ गया। जमींदार ने उसे फिर बुरा भला कह कर भगा दिया।

अब से रोज यही क्रम चलने लगा। रामू रोज जमींदार के घर के सामने जाकर बैठ जाता और जमींदार उसे भगा देता। पूरे गांव में इस बात की चर्चा होने लगी। सब जमींदार को भला बुरा कहने लगे। तंग आकर जमींदार ने सोचा कि क्यों ना कुछ दिन परिवार सहित दूसरे गांव चला जाऊं। मुझे घर पर ना देख कर रामू यहां आना बंद कर देगा।

अगले दिन वह परिवार सहित दूसरे गांव अपने रिश्तेदार के घर चला गया। दस पंद्रह दिन रिश्तेदार के घर रहने के बाद जब वह अपने घर लौटा, तो मोहन को अपने घर के सामने बैठा नहीं पाया। वह मन ही मन खुश हुआ कि चलो उससे पीछा छूटा। लेकिन वह चकित भी हुआ कि आखिर रामू ने आना बंद क्यों कर दिया।

उसने गांव वालों को बुलाकर पूछा, तो पता चला कि रामू घायल है और अपने घर पर पड़ा हुआ है।

जमींदार ने पूछा, “क्या हुआ उसे?”

एक जमींदार ने कहा, “मालिक! आज जब दूसरे गांव चले गए थे, तब भी रामू आपके घर के सामने बैठा रहता था। एक दिन आपका खाली घर देखकर कुछ चोर चोरी करने के इरादे से आपके घर में घुसे। लेकिन वे रामू की नजर में आ गेम रामू अपनी जान की परवाह न कर उनसे उलझ गया और उन्हें भगा दिया। उनके बीच हुई हाथ पाई के कारण रामू घायल हो गया।”

ये जानकर जमींदार को खुद पर शर्म आने लगी कि उसने रामू के साथ कितना बुरा किया लेकिन इसके बाद भी रामू उसके घर चोरी होने से बचाने के लिए चोरों से उलझ गया। वह पछताने लगा। उसने रामू के घर जाने का फैसला किया।

वह रामू के घर पहुंचा, तो देखा कि रामू बड़ी दयनीय अवस्था में चारपाई पर पड़ा हुआ है। उसके बच्चे भूख से बिलख रहे हैं। ये देख जमींदार का दिल भर आया। उसने रामू से अपने किए की माफी मांगी। उसका इलाज करवाया। और ठीक होने के बाद अच्छी पगार के साथ उसे फिर से काम पर रख लिया।

सीख 

1. कभी किसी के साथ बेईमानी नहीं करनी चाहिए। 

2. सदा जरूरतमंदों की सहायता करनी चाहिए।

3. अपना काम ईमानदारी से करना चाहिए।

घमंडी गधा की कहानी

दो व्यापारी जंगल से गुजर रहे थे। एक जौहरी था और दूसरा लोहे का व्यापारी। दोनों के पास एक एक गधे थे। जौहरी के गधे की पीठ रेशम के कपड़े से ढकी थी और वह कीमती स्वर्ण आभूषणों और हीरे जवाहरातों से भरे से दो थैले अपनी पीठ पर लादे हुए थाl वहीं लोहे के व्यापारी के गधे की पीठ पर साधारण कपड़ा था और वह लोहे की छड़ें अपनी पीठ पर लादे हुए था।

जौहरी के गधे को इस बात का घमंड था कि वह स्वर्ण आभूषण और हीरे जवाहरात लाद कर ले जा रहा है। वह बार-बार अपनी बातों से लोहे के व्यापारी के गधे को नीचा दिखा रहा था। लोहे के व्यापारी के गधे को बहुत बुरा लग रहा था, लेकिन वह चुपचाप जौहरी के गधे की बातें सुन रहा था।

अचानक डाकुओं ने उन्हें घेर लिया। डाकुओं को देखते ही दोनों व्यापारी डर के मारे अपने गधों को छोड़कर भाग गए। डाकू गधों की पीठ पर लदे सामान देखने लगे। उन्होंने देखा कि लोहे के व्यापारी के गधे पर लोहे की छड़ लदी हुई हैं। कीमती सामान ना देखकर उन्होंने उसे भगा दिया। जौहरी के गधे की पीठ पर कीमती सामान था। उन्होंने उसे पकड़ लिया और उसकी पीठ से कीमती सामान निकालने लगे।

गधा जब भी विरोध करता, वे लाठी से उसकी खूब सुताई करते हैं। घमंडी गधे को उसके घमड़ का फल मिल गया था।

सीख

कभी घमंड नहीं करना चाहिए। कभी न कभी घमंडी को नीचा देखना ही पड़ता है।

मक्खियों और शहद की कहानी

एक घर के किचन में शहद का जार रखा हुआ था, जिसमें मीठा शहद भरा हुआ था। एक दिन वह जार गिरकर टूट गया और उसमें भरा शहद फर्श पर फ़ैल गया।

मक्खियों ने जब इतना सारा शहद देखा, तो लालच में शहद पर जा बैठी और शहद खाने लगी। उन्हें मज़ा सा रहा था और वे बड़ी खुश थी। बड़े दिनों बाद उन्हें ऐसे मीठा शहद का स्वाद चखने को मिला था।

उन्होंने जी भर शहद खाया. कुछ देर में जब उनका पेट भर गया, तो वे उड़ने को हुई। लेकिन वे पूरी तरह से शहद में लथपथ हो चुकी थीं। उनके पैर और पंख तरल और चिपचिपे शहद में चिपक गए थे और अब उड़ पाना उनके लिए नामुमकिन हो चुका था।

मक्खियों ने उड़ने का बहुत प्रयास किया। लेकिन सारे प्रयास व्यर्थ रहे और वे सभी वहीं शहद में चिपककर मर गई।

सीख

  • कभी-कभी थोड़े समय का सुख मुसीबत का कारण बन जाता है। कई बार तो प्राणों पर बन आती है। इसलिए ऐसे क्षणिक सुख के झांसे में न आयें और जीवन में सोच-समझकर ही आगे बढ़ें।
  • लालच से बचें।

हाथी और सियार की कहानी

घने जंगल में कर्पूरतिलक नामक हाथी रहता था. उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट और मांसल था. जब भी उस पर दृष्टि पड़ती, जंगल में रहने वाले सियारों के मुँह में पानी आ जाता. वे हाथी को मारकर कई दिनों के लिए अपने भोजन की व्यवस्था करना चाहते थे. किंतु हाथी जैसे विशाल और ह्रष्ट-पुष्ट जानवर को मारना उनके बस के बाहर था.

अन्य सियारों की मंशा जानकर उनके दल के सबसे वृद्ध सियार ने एक दिन सभा बुलाई और बोला, “मैं एक ऐसी युक्ति जानता हूँ, जिससे हम इस विशालकाय हाथी का कामतमाम कर सकें. यदि तुम वैसा करो, जैसा मैं कहता हूँ, तो इस हाथी के मांस का हम कई दिनों तक भक्षण कर सकेंगे.”

सियारों को यही चाहिए था. वे तैयार हो गए. बूढ़े सियार ने उन्हें युक्ति बता दी. युक्ति अनुसार कुछ सियार हाथी के पास गए और उसे प्रणाम कर बोले, “महाराज की जय हो. महाराज की जय हो.”

स्वयं के लिए महाराज का संबोधन सुनकर हाथी चौंका और बोला, “कौन हो तुम लोग? मेरे पास क्यों आये हो? और मुझे महाराज क्यों संबोधित कर रहे हो?

सियारों के दल में से एक सियार बोला, “महाराज! हम सियार है. इसी वन में निवास करते हैं. बिना राजा के ये वन हमें नहीं सुहाता. इसलिए हम सबने निर्णय लिया है कि आपको इस वन का राजा घोषित कर दिया जाए. महाराज कृपा कर इस वन के राजा बनकर हमारा उपकार करें. हम सबने आज ही आपके राज्यभिषेक की व्यवस्था कर दी है. राज्यभिषेक का लग्न समय पर निकट है, महाराज, कृपया शीघ्र हमारे साथ चलें.”

सियारों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर हाथी जंगल का राजा बनने तैयार हो गया और उनके पीछे-पीछे चलने लगा. सियार उसे जिस मार्ग से ले जा रहे थे, वहाँ एक गहरा दलदल था.

अनभिज्ञ हाथी दलदल में फंस गया. निकलने का बहुत प्रयास करने के बाद भी हाथी दलदल से बाहर नहीं निकल पाया. उसने सहायता के लिए सियारों को पुकारा, “अपने होने वाले राजा की सहायता करो.”

तब सियार बोले, “ऐसा मूर्ख हमारा राजा कैसे हो सकता है? तुम्हारी तो यही गत होनी थी. तुम हमारा आहार हो. तुम्हारे मांस का भक्षण कर हमारे कुछ दिन मज़े से कटेंगे.”

हाथी अपनी मूर्खता पर पछताने लगा. वह दलदल से निकल नहीं पाया और वहीं उसके प्राण-पखेरू उड़ गए. सियारों ने छककर दवात उड़ाई.

सीख 

जो कार्य बल से संभव नहीं, उसमें युक्ति से काम लेना चाहिये.

बाज़ और चूज़ों की कहानी 

एक गाँव में एक किसान रहता था. एक बार उसे कहीं से बाज़ का एक अंडा मिला. उसने वह अंडा मुर्गी के अंडे के साथ रख दिया. मुर्गी उस अंडे को अन्य अंडों के साथ सेने लगी.

कुछ दिनों में मुर्गी के अंडे में से चूज़े निकल आये और बाज़ के अंडे में से बाज़ का बच्चा. बाज़ का बच्चा चूज़ों के साथ पलने लगा. वह चूज़ों के साथ खाता-पीता, खेलता, इधर-उधर फुदकता बड़ा होने लगा.

चूज़ों के साथ रहते हुए उसे कभी अहसास ही नहीं हुआ कि वह चूज़ा नहीं बल्कि बाज़ है. वह खुद को चूजा ही समझता था और हर काम उन्हीं की तरह करता था.

जब उड़ने की बारी आई, तो अन्य चूज़ों की देखा-देखी वह भी थोड़ी ही ऊँचाई तक उड़ा और फिर वापस जमीन पर आ गया. उसका भी ऊँचा उड़ने का मन करता, लेकिन जब वह सबको थोड़ी ही ऊँचाई तक उड़ता देखता, तो वह भी उतनी ही ऊँचाई तक उड़ता. ज्यादा ऊँचा उड़ने की वह कोशिश ही नहीं करता था.

एक दिन उसने ऊँचे आकाश में एक बाज़ को उड़ते हुए देखा. इतनी ऊँचाई पर उसने किसी पक्षी को पहली बार उड़ते हुए देखा था. उसे बड़ा अचरज हुआ. उसने चूजों से पूछा, “वो कौन है भाई, जो इतनी ऊँचाई पर उड़ रहा है?”

चूज़े बोले, “वो पक्षियों का राजा बाज़ है. वह आकाश में सबसे ज्यादा ऊँचाई पर उड़ता है. कोई दूसरा पक्षी उसकी बराबरी नहीं कर सकता.”

“यदि मैं भी उसके जैसा उड़ना चाहूं तो?” बाज़ के पूछा.

“कैसी बात करते हो? मत भूलों तुम एक चूज़े हो. चाहे कितनी ही कोशिश कर लो, बाज़ जितना नहीं उड़ पाओगे. इसलिए व्यर्थ में ऊँचा उड़ने के बारे में मत सोचो. जितना उड़ सकते हो, उतने में ही ख़ुश रहो.” चूज़े बोले.

बाज़ ने यह बात मान ली और कभी ऊँचा उड़ने की कोशिश ही नहीं की. बाज़ होने बावजूद वह पूरी ज़िन्दगी मुर्गी के समान जीता रहा.

सीख 

सोच और दृष्टिकोण का हमारे जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता हैं. हम सभी क्षमता और संभावनाओं से परिपूर्ण हैं. चाहे हम कैसी भी परिस्थिति में क्यों न हों, हमें आवश्यकता है अपनी क्षमता पहचानने की और अपनी सोच तथा दृष्टिकोण को व्यापक बनाने की. हम स्वयं को चूज़े समझेंगे तो चूज़े ही बनेंगे और बाज़ समझेंगे, तो बाज़ बनेंगे. ख़ुद को कम न समझें, अपनी क्षमता को सीमित न करें, बाज़ बनें और जीवन में ऊँची उड़ान भरें.

कौवा और मोर की कहानी

जंगल में रहने वाला काला कौवा न अपने रूप रंग से संतुष्ट था, न ही अपनी बिरादरी से। वह मोर जैसा सुंदर बनना चाहता था।

जब वह दूसरे कौवे से मिलता, तो कौवों के रूप रंग की बुराई कर अपनी किस्मत को कोसता कि उसने कौवा बनकर इस धरती पर क्यों जन्म लिया। साथी कौवे उसे समझाते कि जैसा रूप रंग मिला है, उसके साथ संतुष्ट रहो। पर वह किसी की बात नहीं मानता और उनसे लड़ता।

एक दिन कौवे को एक स्थान पर बिखरे हुए ढेर सारे मोर पंख दिखाई पड़े। उसने सारे मोर पंख उठाकर अपनी पूंछ में बांध लिये और सोचने लगा कि अब वह भी मोर बन गया है और उसे कौवों की बिरादरी छोड़कर मोरों की बिरादरी में शामिल हो जाना चाहिए।

वह तुरंत वह अपने समूह के सरदार के पास गया और अकड़ कर बोला, “सरदार! जैसा कि आप देख ही रहे हैं, मैं अब मोर बन गया हूँ। इसलिए आपको बताने आया हूँ कि मैं कौवों की बिरादरी छोड़कर मोरों की बिरादरी में जा रहा हूँ।”

कौवों का सरदार उसकी इस गुस्ताखी पर चकित रह गया। वह कुछ नहीं बोला, बस उस कौवे को जाता हुआ देखता रहा।

कौवा मोरों के पास पहुँचा। यह साबित करने के लिए कि वह भी मोर बन गया है, वह उनके सामने अपनी पूंछ दिखा-दिखा कर घूमने लगा। उसकी सोच थी कि वह मोरों से भी सुंदर दिखाई दे रहा है। इसलिए उसे देख मोर उसे अपनी बिरादरी में शामिल होने जरूर बुलायेंगे।

मोरों ने जब उसे मोर पंख अपनी पूंछ में बांधकर घूमते हुए देखा, तो उस पर खूब हँसे। फिर उन्होंने सोचा कि आज इस कौवे का मोर बनने का भूत उतारते हैं। उसके बाद उन्होंने मिलकर कौवे की बहुत धुनाई की। कौवा जान बचाकर भागा और अपने समूह के सरदार के पास पहुँचा।

वह उनसे बोला, “सरदार! मोरों ने मुझे बहुत मारा। अब मैं उनके बीच कभी नहीं जाऊंगा। मैं यहीं अपनी बिरादरी में रहूंगा।”

कौवे के सरदार को उसकी अकड़ याद थी। वह सोचने लगा – ‘बहुत अकड़ रहा था तू। अभी तेरी अकड़ भी उतरता हूँ और सबक भी सिखाता हूँ।‘

उसने अपने साथियों को बुलाया और सबने मिलकर उस कौवे को मार-मार कर अधमरा कर दिया।

कौवे का सरदार बोला, “तुझ जैसे कौवे की हमारे समूह को आवश्कता नहीं। भाग जा यहाँ से और कभी लौटकर मत आना।”

बेचारा कौवा न मोर की बिरादरी में शामिल हो पाया, न अपनी बिरादरी का रहा। मरम्मत हुई, सो अलग।

सीख 

हमने जैसे रूप रंग के साथ जन्म लिया है, जिस परिवार और परिवेश में जन्म लिया है, उसका सम्मान करना चाहिए।

ऊँट और सियार की कहानी

घने जंगल में रहने वाले एक सियार/गीदड़ की उसी जंगल में रहने वाले एक ऊँट से मित्रता थी. दोनों रोज़ नदी किनारे मिलते और ढेर सारी बातें किया करते थे. बातों में कैसे समय कट जाता, उन्हें पता ही नहीं चलता.

सियार अपनी प्रवृत्ति के अनुसार चालाक था. लेकिन ऊँट सीधा-सादा था. यूं ही दिन गुज़र रहे थे और उनकी मित्रता बरक़रार थी.

एक दिन सियार को कहीं से पता चला कि नदी पार स्थित खेत में लगे तरबूज पक चुके हैं. मीठे रसदार तरबूज के बारे में सोचकर ही उसके मुँह में पानी आ गया. उसके लिए नदी पार कर पाना संभव नहीं था. लेकिन तरबूजों का लालच वह अपने मन से निकाल नहीं पा रहा था.

अंत में उसे अपने मित्र ऊँट की याद आई और वह तुरंत उससे मिलने चल पड़ा. जब वह ऊँट के पास पहुँचा, तो उसका स्वागत करते हुए ऊँट बोला, “आओ मित्र आओ! कहो, आज दोपहर को ही कैसे आ गये?”

“मित्र! मैं तुम्हें नदी पार के खेत में लगे तरबूज के बारे में बताने आया हूँ. सुना है, तरबूज पक गये हैं. ऐसे मीठे तरबूज खाकर तुम ज़रूर ख़ुश होगे और तुम्हारी ख़ुशी में मेरी ख़ुशी है. मैं कैसे तुम्हें बताने न आता? बस दौड़ा चला आया.” सियार ने चिकनी-चुपड़ी बातें शुरू की.

ऊँट को भी तरबूज का स्वाद पसंद था. वह बोला, “धन्यवाद मित्र! मैं अभी वहाँ जाने की तैयारी करता हूँ. वाकई तरबूज खाये कितने दिन हो गये!”

ऊँट को अकेले ही जाने की तैयारी करते देख सियार बोला, “मित्र! मुझे भी तरबूज पसंद हैं. मैं भी तरबूज खाना चाहता हूँ. लेकिन क्या करूं? मैं तैर नहीं सकता. कोई बात नहीं…तुमने तरबूज खाये, तो मैं समझ लूंगा कि मैंने भी खा लिया.”

“कैसी बात करते हो मित्र? क्या मैं तुम्हें यहाँ छोड़कर जा सकता हूँ. मैं तुम्हें अपनी पीठ पर लादकर नदी पार के खेत में ले चलूंगा. हम दोनों मज़े से तरबूज का स्वाद लेंगे.” ऊँट ने कहा और सियार ख़ुश हो गया.

ऊँट ने सियार को अपनी पीठ पर बैठाया और नदी के पानी में तैरने लगा. कुछ ही देर में दोनों तरबूज के खेत में पहुँच गये. वहाँ दोनों ने छककर तरबूज खाये. जब सियार का पेट भर गया, तो वह ख़ुश होकर ‘हुआ हुआ’ की आवाज़ निकालने लगा.

ऊँट ने उसे शांत करने का प्रयास किया, लेकिन वह नहीं माना. उसकी आवाज़ खेत के कुछ दूरी पर रहने वाले किसान के कानों में पड़ गई. वह समझा गया कि खेत में कोई घुस आया है. हाथ में लाठी लेकर वह दौड़ता हुआ खेत में पहुँचा, जहाँ उसने ऊँट को खड़ा पाया.

किसान को देखकर सियार पहले ही भागकर एक पेड़ के पीछे छुप गया. अपने विशाल शरीर के कारण ऊँट के लिए कहीं छिपना संभव नहीं था. इसलिए वह वहीं खड़ा रह गया.

ऊँट को देखकर किसान आगबबूला हो गया. उसने उसे लाठी से पीटना शुरू कर दिया और पीटते-पीटते खेत से बाहर खदेड़ दिया. ऐसी जबरदस्त धुनाई के बाद बेचारा ऊँट कराहते हुए खेत के बाहर खड़ा ही था कि पेड़ के पीछे छुपा सियार चुपके से खेत से निकलकर उसके पास आ गया.

उसने ऊँट से पूछा, “तुम खेत में क्यों चिल्लाने लगे?”

“मित्र! खाने के बाद अगर मैं ‘हुआ हुआ’ की आवाज़ न निकालूं, तो मेरा खाना नहीं पचता.” सियार ने उत्तर दिया.

उसका उत्तर सुनकर ऊँट को बहुत क्रोध आया. लेकिन वह चुप रहा. दोनों जंगल लौटने लगे. मार खाने के बाद भी ऊँट सियार को पीठ पर लादे नदी में तैर रहा था. सियार मन ही मन बड़ा ख़ुश था कि ऊँट की पिटाई हुई.

जब वे बीच नदी में पहुँचे, तो अचानक ऊँट ने पानी में डुबकी लगा दी. सियार डर के मारे चीखा, “ये क्या कर रहे हो मित्र?”

“मुझे खाने के बाद पानी में ऐसे ही डुबकी लगाने की आदत है.” ऊँट ने उत्तर दिया.

सियार समझ गया कि ऊँट ने उसके किये का बदला चुकाया है. वह बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचा पाया और पूरी रास्ते डरा-सहमा सा रहा. उसे अपने किये का सबक मिल गया था. उस दिन के बाद से उसने कभी ऊँट के साथ चालाकी नहीं की.

सीख 

जैसे को तैसा

कबूतर और मधुमक्खी की कहानी

एक जंगल में नदी किनारे पेड़ पर एक कबूतर रहता था। उस पेड़ के आसपास कई रंग बिरंगे फूल खिले हुए थे। एक दिन एक मधुमक्खी फूलों का रस इकट्ठा करने के लिए नदी किनारे आई और रस इकट्ठा करते करते अचानक नदी में गिर गई।

मधुमक्खी बाहर निकलने के लिए पंख फड़फड़ाने लगी। नदी गहरी थी। लाख कोशिशों के बावजूद मधुमक्खी बाहर नहीं निकल पाई। पास ही पेड़ पर बैठा कबूतर यह सारा दृश्य देख रहा था। उसे मधुमक्खी पर दया आई और उसने झट से पेड़ का एक पत्ता तोड़कर पानी में डाल दिया।

मधुमक्खी पत्ते पर चढ़ गई और पत्ते में बैठे-बैठे नदी के किनारे पर सुरक्षित पहुंच गई। उसने अपना जीवन बचाने के लिए कबूतर को धन्यवाद दिया और उसे वचन दिया कि जब भी अवसर आएगा, वह उसके उपकार का बदला अवश्य चुकाएगी।

कुछ दिन बीत गए। एक दिन कबूतर दाना खोजने जंगल में निकला। दिनभर दाना खोजने के बाद वह एक पेड़ पर सुस्ताने बैठा। वह इस बात से अनभिज्ञ था कि एक शिकारी उस पर तीर कमान से निशाना साध रहा है। 

उसी पेड़ पर मधुमक्खी का छत्ता था। मधुमक्खी की दृष्टि शिकारी पर पड़ गई और वह भांप गई कि शिकारी कबूतर का शिकार करने वाला है। बिना समय गंवाए उसने अपनी साथी मधुमक्खियों के साथ मिलकर शिकारी पर धावा कर दिया और उसे डंक मारने लगी। शिकारी तीर कमान छोड़कर भाग गया।

इस प्रकार मधुमक्खी ने कबूतर के उपकार का बदला चुकाया। कबूतर मधुमक्खी की मदद पर बहुत खुश था। उस दिन से कबूतर और मधुमक्खी बहुत अच्छे दोस्त बन गए। 

सीख

हमें हमेशा दूसरों की मदद के लिए तैयार रहना चाहिए। जब हम दूसरों की मदद करेंगे, तभी वक्त आने पर हमें मदद प्राप्त होगी।

भेड़िये और सारस की कहानी

एक जंगल में एक दुष्ट और लालची भेड़िया रहता था. एक दिन उसने एक हिरण का शिकार किया. शिकार के बाद पर वह अपने लालच पर नियंत्रण नहीं रख पाया और जल्दी-जल्दी उसे खाने लगा. इस जल्दीबाज़ी में एक हड्डी उसके गले में अटक गई.

हड्डी अटक जाने पर वह बहुत परेशान हो गया. अब उससे न कुछ खाते बन रहा था, न ही पीते. उसने बहुत कोशिश की कि किसी तरह हड्डी उसके गले से निकल जाए. लेकिन सारी कोशिश बेकार गई.

अंत में उसने किसी से सहायता लेने का विचार किया. वह सोचने लगा कि ऐसा कौन हैं, जो उसके गले से हड्डी का टुकड़ा निकाल सकता है. कुछ देर सोचने पर उसे सारस का ध्यान आया. सारस की लंबी गर्दन और चोंच थी. वह उसके मुँह में अपनी चोंच घुसाकर आसानी से हड्डी निकाल सकता था.

बिना देर किये भेड़िया सारस के पास पहुँचा और बोला, “सारस भाई! मेरे गले में एक हड्डी अटक गई है. क्या तुम अपनी चोंच से वो हड्डी निकाल दोगे? मैं तुम्हारा बहुत अहसानमंद रहूंगा और तुम्हें उचित ईनाम भी दूंगा.”

सारस पहले तो भेड़िये के मुँह में अपनी चोंच डालने से डरा. लेकिन बाद वे उसे भेड़िये पर दया आ गया और वह तैयार हो गया.

भेड़िये मुँह खोलकर खड़ा हो गया और सारस ने उसमें अपनी चोंच डाल दी. लेकिन उसकी चोंच हड्डी तक नहीं पहुँच पाई. तब उसे अपनी आधी गर्दन भी भेड़िये के मुँह में घुसानी पड़ी. सारस की गर्दन मुँह में जाते ही लालची भेड़िये के मन में लालच जागने लगा. उस सोचने लगा कि यदि मैं इसकी लज़ीज़ गर्दन को चबा पाता, तो मज़ा आ जाता. लेकिन उस समय उसे अपने गले में फंसी हड्डी निकलवानी थी. इसलिए वह मन मारकर रह गया.

कुछ ही देर में सारस ने उसके गले से हड्डी निकाल दी. हड्डी निकलते ही भेड़िया जाने लगा. न उसने सारस को धन्यवाद दिया न ही ईनाम. सारस ने उसे रोककर कहा, “मेरा ईनाम कहाँ है? तुमने कहा था कि तुम इस काम के बदले मुझे ईनाम दोगे.”

भेड़िया बोला, “एक भेड़िये के मुँह में अपनी गर्दन डालकर भी तुम सही-सलामत हो, क्या यह तुम्हारा ईनाम नहीं हैं?”

इतना कहकर भेड़िया चला गया और सारस मुँह लटकाकर खड़ा रह गया.

सीख

लालची और दुष्ट व्यक्ति से कभी कृतज्ञता या पुरूस्कार की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. 

शेर और मच्छर की कहानी

जंगल के राजा शेर को अपनी शक्ति पर बड़ा घमंड था. वह स्वयं को सबसे शक्तिमान समझता था. इसलिए, जंगल के हर जानवरों पर अपनी धौंस जमाता रहता था. जंगल के जानवर भी क्या करते? अपने प्राण सबको प्रिय थे. इसलिए, न चाहकर भी शेर के सामने नतमस्तक हो जाते.

एक दिन दोपहर के समय शेर एक पेड़ के नीचे सो रहा था. वहीं एक मच्छर भिनभिना रहा था, जिससे शेर की नींद में खलल पड़ रहा था. वह एक मच्छर से बोला, “ए मच्छर, देखता नहीं मैं सो रहा हूँ. भाग यहाँ से, नहीं तो मसल कर रख दूंगा.”

मच्छर बोला, “क्षमा करें वनराज, मेरे कारण आपकी नींद में व्यवधान उत्पन्न हुआ. किंतु, आप मुझे ये बात नम्रता से भी कह सकते हैं. आखिर, मैं भी इस धरती का जीव हूँ.”

“अच्छा, तो तू छोटा सा मच्छर मुझसे जुबान लड़ाएगा. और क्या ग़ल कहा मैंने? तुम मच्छर हो ही ऐसे कि कोई भी तुम्हें यूं मसल दें. मैं तो ये बार-बार कहूंगा. क्या बिगाड़ लोगे तुम मेरा?”

मच्छर को शेर की बात और व्यवहार बहुत बुरा लगा. वह अपने साथी मच्छरों के पास गया और उन्हें सारी बताई. सभी मच्छरों को शेर की बात चुभ गई. उन्होंने तय किया कि इस संबंध में एक बार सब मिलकर शेर से बात करेंगे.

सभी मच्छर शेर के पास पहुँचे और बोले, “वनराज, हमें आपसे बात करनी है.”

“जल्दी बोलो, मुझे तुम जैसों से बात करने की फ़ुर्सत नहीं है.” शेर बोला.

“वनराज, आप होंगे बहुत शक्तिशाली. किंतु, इसका अर्थ ये कतई नहीं है कि आप अन्य जीवों और प्राणियों का मज़ाक उड़ायें या उन्हें नीचा दिखाएं.” मच्छर बोले.

“मैंने जो कहा, सच कहा. मैं सबसे शक्तिशाली हूँ और मुझे कोई हरा नहीं सकता.” घमंड में चूर शेर गरजा.

“ऐसा नहीं है. अगर आप शक्तिशाली हैं, तो हममें भी इतना सामर्थ्य है कि आवश्यकता पड़ने पर हम किसी का भी सामना कर सकते हैं और उसे हरा सकते हैं. हम आपको भी हरा सकते हैं.” मच्छर भी चुप न रहे.

यह सुनकर शेर हँसते हुए बोला, “तुम लोग मुझे हराओगे? तुम लोगों की इतनी हिम्मत कि मेरे सामने आकर ये बात कहो. मेरी शक्ति का अंदाज़ा नहीं है तुम्हें. अन्यथा, ऐसा कभी नहीं कहते. अभी भी समय है, भाग जाओ यहाँ से, नहीं तो कोई नहीं बचेगा.”

शेर के घमंड ने मच्छरों को क्रुद्ध कर दिया. उन्होंने ठान लिया कि इस शेर को मज़ा चखा कर ही रहेंगे. वे सारे एकजुट हुए और शेर पर टूट पड़े. वे जगह-जगह उसे काटने लगे. वह दर्द से कराह उठा. इतने सारे मच्छरों का सामना करना उसके बस के बाहर हो गया.

वह दर्द से चीखता हुआ वहाँ से भागा. लेकिन मच्छरों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. वह जहाँ भी जाता, वे भी उसके पीछे जाते और उसे काटते. आखिरकार, शेर को झुकना पड़ा. उसने हार मान ली. वह मच्छरों के सामने गिपड़गिड़ाने लगा, “मुझे बख्श दो. मुझसे गलती हो गई, जो मैंने तुम्हें तुच्छ समझकर तुम्हारा मज़ाक उड़ाया और तुमसे बुरा व्यवहार किया. आज तुमने मेरा घमंड तोड़ दिया है. अब मैं कभी किसी को नीचा नहीं दिखाऊंगा.”

मच्छरों ने शेर को सबक सिखा दिया था. इसलिए उन्होंने उसे काटना बंद कर दिया. वे बोले, “घमंडी का घमंड कभी न कभी अवश्य टूटता है. आज तुम्हारा टूटा है. घमंड करना छोड़ दो, अन्यथा, एक दिन ये तुम्हें ले डूबेगा. और कभी किसी प्राणी को नीचा मत समझो, हर किसी का अपना सामर्थ्य और शक्ति होती है.”

शेर तौबा करते हुए वहाँ से भाग गया.

सीख

घमंडी का सिर नीचा.

लोमड़ी और अंगूर की कहानी

एक जंगल में एक लोमड़ी रहती थी. एक दिन वह भूखी-प्यासी भोजन की तलाश में जंगल में भटक रही थी. भटकते-भटकते सुबह से शाम हो गई, लेकिन वह शिकार प्राप्त न कर सकी.

शाम होते-होते वह जंगल के समीप स्थित एक गाँव में पहुँच गई. वहाँ उसे एक खेत दिखाई पड़ा. भूख से बेहाल लोमड़ी खेत में घुस गई. वहाँ एक ऊँचे पेड़ पर अंगूर की बेल लिपटी हुई थी, जिसमें रसीले अंगूर के गुच्छे लगे हुए थे.

अंगूर देखते ही लोमड़ी के मुँह से लार टपकने लगी. वह उन रस भरे अंगूरों को खाकर तृप्त हो जाना चाहती थी. उसने अंगूर के एक गुच्छे पर अपनी दृष्टि जमाई और जोर से उछली. ऊँची डाली पर लिपटी अंगूर की बेल पर लटका अंगूर का गुच्छा उसकी पहुँच के बाहर था. उसका प्रयास व्यर्थ रहा.

उसने सोचा क्यों न एक प्रयास और किया जाए. इस बार वह थोड़ा और ज़ोर लगाकर उछली. लेकिन इस बार भी अंगूर तक पहुँचने में नाकाम रही. कुछ देर तक वह उछल-उछल कर अंगूर तक पहुँचने का प्रयास करती रही. लेकिन दिन भर की जंगल में भटकी थकी हुई भूखी-प्यासी लोमड़ी आखिर कितना प्रयास करती?

वह थककर पेड़ के नीचे बैठ गई और ललचाई नज़रों से अंगूर को देखने लगी. वह समझ कई कि अंगूर तक पहुँचना उसने बस के बाहर है. इसलिए कुछ देर अंगूरों को ताकने के बाद वह उठी और वहाँ से जाने लगी.

वह अंगूर खाने का विचार त्याग चुकी थी. पास ही एक पेड़ पर बैठा बंदर उसे बहुत देर से देख रहा था. उसे जाते हुए देख वह खुद को रोक नहीं पाया और पूछ बैठा, “क्या हुआ लोमड़ी बहन? वापस क्यों जा रही हो? अंगूर नहीं खाओगी?”

वह अंगूर खाने का विचार त्याग चुकी थी. पास ही एक पेड़ पर बैठा बंदर उसे बहुत देर से देख रहा था. उसे जाते हुए देख वह खुद को रोक नहीं पाया और पूछ बैठा, “क्या हुआ लोमड़ी बहन? वापस क्यों जा रही हो? अंगूर नहीं खाओगी?”

लोमड़ी रुकी और बंदर को देखकर फीकी मुस्कान से साथ बोली, “नहीं बंदर भाई. मैं ऐसे अंगूर नहीं खाती. ये तो खट्टे हैं.”

सीख

जब हम किसी चीज़ को प्राप्त नहीं कर पाते, तो अपनी कमजोरियाँ को छुपाने या अपने प्रयासों की कमी को नज़रंदाज़ करने अक्सर उस चीज़ में ही कमियाँ निकालने लग जाते हैं. जबकि आवश्यकता है, अपनी कमजोरियों को पहचान कर उसे दूर करने की, सूझ-बूझ से काम लेने की और सफ़ल होने तक अनवरत प्रयत्न करते रहने की. दूसरों पर दोष मढ़ने से जीवन में कुछ हासिल नहीं होता. हासिल होता है : कड़े परिश्रम और प्रयासों से.

चरवाहा बालक और भेड़िया की कहानी 

एक गाँव में एक चरवाहा बालक रहता था. वह रोज़ अपनी भेड़ों को लेकर जंगल के पास स्थित घास के मैदानों में जाता. वहाँ वह भेड़ों को चरने के छोड़ देता और ख़ुद एक पेड़ के नीचे बैठकर उन पर निगाह रखता. उसकी यही दिनचर्या थी.

दिन भर पेड़ के नीचे बैठे-बैठे उसका समय बड़ी मुश्किल से कटता था. उसे बोरियत महसूस होती थी. वह सोचता कि काश मेरे जीवन में भी कुछ मज़ा और रोमांच आ जाये.

एक दिन भेड़ों को चराते हुए उसे मज़ाक सूझा और वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा, “भेड़िया आया भेड़िया आया.”

वहाँ से कुछ दूरी पर स्थित खेतों में कुछ किसान काम कर रहे थे. चरवाहे बालक की आवाज़ सुनकर वे अपना काम छोड़ उसकी सहायता के लिए दौड़े चले आये. लेकिन जैसे ही वे उसके पास पहुँचे, वह ठहाके मारकर हंसने लगा.

किसान बहुत गुस्सा हुए. उसे डांटा और चेतावनी दी कि आज के बाद ऐसा मज़ाक मत करना. फिर वे अपने-अपने खेतों में लौट गए.

चरवाहे बालक को गाँव के किसानों को भागते हुए अपने पास आता देखने में बड़ा मज़ा आया. उसके उनकी चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया. अगले दिन उसे फिर से मसखरी सूझी और वह फिर से चिल्लाने लगा, “भेड़िया आया भेड़िया आया.”

खेत में काम कर रहे किसान अनहोनी की आशंका में फिर से दौड़े चले आये, जिन्हें देखकर चरवाहा बालक फिर से जोर-जोर से हंसने लगा. किसानों ने उसे फिर से डांटा और चेतावनी दी. लेकिन उस पर इसका कोई असर नहीं हुआ. उसके बाद जब-तब वह किसानों को इसी तरह ‘भेड़िया आया भेड़िया आया’ कहकर बुलाता रहा. बालक के साथ कोई अनहोनी न हो जाये, ये सोचकर किसान भी आते रहे. लेकिन वे उसकी इस शरारत से बहुत परेशान होने लगे थे.

एक दिन चरवाहा बालक पेड़ की छाया में बैठकर बांसुरी बजा रहा था कि सच में एक भेड़िया वहाँ आ गया. वह सहायता के लिए चिल्लाने लगा, “भेड़िया आया भेड़िया आया.”

लेकिन उसकी शरारतों से तंग आ चुके किसानों ने सोचा कि आज भी ये बालक उन्हें परेशान करने का प्रयास कर रहा है. इसलिए वे उसकी सहायता करने नहीं गए. भेड़िया उसकी कुछ भेड़ों को मारकर खा गया.

चरवाहा बालक दौड़ते हुए खेत में काम कर रहे किसानों के पास पहुँचा और रोने लगा, “आज सचमुच भेड़िया आया था. वह मेरी कुछ भेड़ों को मारकर खा गया.”

किसान बोले, “तुम रोज़ हमारे साथ शरारत करते हो. हमें लगा कि आज भी तुम्हारा इरादा वही है. तुम हमारा भरोसा खो चुके थे. इसलिए हममें से कोई तुम्हारी मदद के लिए नहीं आया.”

चरवाहे बालक को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने प्रण लिया कि वह फिर कभी झूठ नहीं बोलेगा और दूसरों को परेशान नहीं करेगा.

सीख 

बार-बार झूठ बोलने से लोगों के विश्वास पर चोट पहुँचती है और उनका विश्वास टूट जाता है. किसी का विश्वासपात्र बनना है, तो हमेशा सच्चाई के साथ रहिये.

दो मित्र और भालू की कहानी

एक गाँव में सोहन और मोहन दो दोस्त रहते थे. एक बार वे दोनों नौकरी की तलाश में परदेश की यात्रा पर निकले. वे दिन भर चलते रहे. शाम हो गई और फिर रात घिर आई. किंतु, उनकी यात्रा समाप्त न हुई. दोनों एक जंगल से गुजर रहे थे. जंगल में अक्सर जंगली जानवरों का भय रहता है. सोहन को भय था कि कहीं किसी जंगली जानवर से उनका सामना न हो जाए.

वह मोहन से बोला, “मित्र! इस जंगल में अवश्य जंगली जानवर होंगे. यदि किसी जानवर ने हम पर हमला कर दिया, तो हम क्या करेंगे?”

सोहन बोला, “मित्र डरो नहीं. मैं तुम्हारे साथ हूँ. कोई भी ख़तरा आ जाये, मैं तुम्हारा साथ नहीं छोडूंगा. हम दोनों साथ मिलकर हर मुश्किल का सामना कर लेंगे.”

इसी तरह बातें करते हुए वे आगे बढ़ते जा रहे थे कि अचानक एक भालू उनके सामने आ गया. दोनों दोस्त डर गए. भालू उनकी ओर बढ़ने लगा. सोहन दर के मारे तुरंत एक पेड़ पर चढ़ गया. उसे सोचा कि मोहन भी पेड़ पर चढ़ जायेगा. लेकिन मोहन को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था. वह असहाय सा नीचे ही खड़ा रहा.

भालू उसके नज़दीक आने लगा. मोहन डर के मारे पसीने-पसीने होने लगा. लेकिन डरते हुए भी वह किसी तरह भालू से बचने का उपाय सोचने लगा. सोचते-सोचते एक उपाय उसके दिमाग में आ गया. वह जमीन पर गिर पड़ा और अपनी सांस रोककर एक मृत व्यक्ति की तरह लेटा रहा.

भालू नज़दीक आया. मोहन के चारों ओर घूमकर वह उसे सूंघने लगा. पेड़ पर चढ़ा सोहन यह सब देख रहा था. उसने देखा कि भालू मोहन के कान में कुछ फुसफुसा रहा है. कान में फुसफुसाने के बाद भालू चला गया.

भालू के जाते ही सोहन पेड़ से उतर गया. मोहन भी तब तक उठ खड़ा हुआ. सोहन ने मोहन से पूछा, “मित्र! जब तुम जमीन पर पड़े थे, तो मैंने देखा कि भालू तुम्हरे कान में कुछ फुसफुसा रहा है. क्या वो कुछ कह रहा था?”

“हाँ, भालू ने मुझसे कहा कि कभी भी ऐसे दोस्त पर विश्वास मत करना, तो तुम्हें विपत्ति में अकेला छोड़कर भाग जाये.”

सीख 

जो दोस्त संकट में छोड़कर भाग जाये, वह भरोसे के काबिल नहीं.

दर्जी की सीख शिक्षाप्रद कहानी

एक गाँव में एक दर्जी रहता था। उसका एक ही बेटा था। वह उसे भी अपना हुनर सिखाना चाहता था। इसलिए एक दिन वह उसे अपने साथ दुकान पर ले आया। 

वहाँ पहुँचकर दर्जी कपड़े सीने लगा और लड़का एक कोने में बैठकर ध्यान से उसे देखने लगा। 

उसने देखा कि दर्जी ने पहले कपड़ा लिया और उसे कैंची की सहायता से सही आकार में काटा। फिर कैंची को अपने पैर के नीचे दबा कर रख लिया। उसके बाद उसने सुई में धागा डाला और कपड़े सीने लगा। कपड़े सीने के बाद उसने सुई को अपनी टोपी में फंसा दिया।

लड़का दिन भर अपने पिता को कपड़े सीते देखता रहा। इस दौरान उसने हर बार दर्जी को कपड़े काटकर कैंची पैर के नीचे दबाते और कपड़े सीकर सुई को टोपी में फंसाते देखा। उसे इसका कारण समझ नहीं आया। जिज्ञासा के कारण उसने पूछ ही लिया, “पिताजी! आप कपड़ा काटकर कैंची को पैर के नीचे दबाते है और कपड़ा सीकर सुई को टोपी में फंसा देते हैं. इसका कारण क्या है?”

दर्जी बोला, “बेटा, ऐसा दोनों के काम के कारण हैं। कैंची का काम काटना है और सुई का काम जोड़ना। जोड़ने वाले का स्थान हमेशा काटने वाले से ऊपर होता है। इसलिए कैंची का स्थान पैर के नीचे और सुई का स्थान सिर पर पहनी टोपी पर है।”

सीख

हमारे कर्म ही समाज में हमारा स्थान निर्धारित करते हैं। यदि हम अच्छे कर्म करेंगे, तो समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त करेंगे, लोगों की दृष्टि में हमारा सम्मान बढ़ेगा। वहीं बुरे कर्म के कारण हम लोगों की नज़रों से गिर जायेंगे। इसलिए बुरे कर्मों से दूर रहें और सदा अच्छे कर्म करें।

अहंकार का फल 

एक समय की बात है. एक गाँव में एक मूर्तिकार रहता था. मूर्तिकला के प्रति अत्यधिक प्रेम के कारण उसने अपना संपूर्ण जीवन मूर्तिकला को समर्पित कर दिया था. परिणामतः वह इतना पारंगत हो गया था कि उसकी बनाई हर मूर्ति जीवंत प्रतीत होती थी.

उसकी बनाई मूर्तियों को देखने वाला उसकी कला की भूरी-भूरी प्रशंसा करता था. उसकी कला के चर्चे उसके गाँव में ही नहीं, बल्कि दूर-दूर के नगर और गाँव में होने लगे थे. ऐसी स्थिति में जैसा सामान्यतः होता है, वैसा ही मूर्तिकार के साथ भी हुआ. उसके भीतर अहंकार की भावना जागृत हो गई. वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार मानने लगा.

उम्र बढ़ने के साथ जब उसका अंत समय निकट आने लगा, तो वह मृत्यु से बचने की युक्ति सोचने लगा. वह किसी भी तरह स्वयं को यमदूत की दृष्टि से बचाना चाहता था, ताकि वह उसके प्राण न हर सके.

अंततः उससे एक युक्ति सूझ ही गई. उसने अपनी बेमिसाल मूर्तिकला का प्रदर्शन करते हुए १० मूर्तियों का निर्माण किया. वे सभी मूर्तियाँ दिखने में हूबहू उसके समान थीं. निर्मित होने के पश्चात् सभी मूर्तियाँ इतनी जीवंत प्रतीत होने लगी कि मूर्तियों और मूर्तिकार में कोई अंतर ही ना रहा.

मूर्तिकार उन मूर्तियों के मध्य जाकर बैठ गया. युक्तिनुसार यमदूत का उसे इन मूर्तियों के मध्य पहचान पाना असंभव था.

उसकी युक्ति कारगर भी सिद्ध हुई. जब यमदूत उसके प्राण हरने आया, तो ११ एक सरीकी मूर्तियों को देख चकित रह गया. वह उन मूर्तियों में अंतर कर पाने में असमर्थ था. किंतु उसे ज्ञात था कि इन्हीं मूर्तियों के मध्य मूर्तिकार छुपा बैठा है.

मूर्तिकार के प्राण हरने के लिए उसकी पहचान आवश्यक थी. उसके प्राण न हर पाने का अर्थ था – प्रकृति के नियम के विरूद्ध जाना. प्रकृति के नियम के अनुसार मूर्तिकार का अंत समय आ चुका था.

मूर्तिकार की पहचान करने यमदूत हर मूर्ति को तोड़ कर देख सकता था. किंतु वह कला का अपमान नहीं करना चाहता था. इसलिए इस समस्या का उसने एक अलग ही तोड़ निकाला.

उसे मूर्तिकार के अहंकार का बोध था. अतः उसके अहंकार पर चोट करते हुए वह बोला, “वास्तव में सब मूर्तियाँ कलात्मकतता और सौंदर्य का अद्भुत संगम है. किंतु मूर्तिकार एक त्रुटी कर बैठा. यदि वो मेरे सम्मुख होता, तो मैं उसे उस त्रुटी से अवगत करा पाता.”

अपनी मूर्ति में त्रुटी की बात सुन अहंकारी मूर्तिकार का अहंकार जाग गया. उससे रहा नहीं गया और झट से अपने स्थान से उठ बैठा और यमदूत से बोला, “त्रुटि?? असंभव!! मेरी बनाई मूर्तियाँ सर्वदा त्रुटिहीन होती हैं.”

यमदूत की युक्ति काम कर चुकी थी. उसने मूर्तिकार को पकड़ लिया और बोला, “बेजान मूर्तियाँ बोला नहीं करती और तुम बोल पड़े. यही तुम्हारी त्रुटी है कि अपने अहंकार पर तुम्हारा कोई बस नहीं.”

यमदूत मूर्तिकार के प्राण हर यमलोक वापस चला गया.

सीख

अहंकार विनाश का कारण है. इसलिए अहंकार को कभी भी ख़ुद पर हावी ना होने दें.

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शिक्षक की सीख

एक कक्षा में अध्यापक छात्रों को पढ़ा रहे थे. तभी कक्षा के दो छात्र आपस में झगड़ने लगे. उनका झगड़ा देख अध्यापक ने पूछा, “क्या बात है? तुम दोनों ऐसे क्यों झगड़ रहे हो?”

“सर! ये मेरी बात सुन ही नहीं रहा है. बस अपनी बात पर अड़ा हुआ है.” एक छात्र बोला.

“सर, मैं इसकी बात क्यों सुनूं? ये जो कह रहा है, वो गलत हैं. ऐसे में इसकी बात सुनकर क्या फायदा?” दूसरा छात्र बोला.

इसके बाद दोनों फिर से आपस में उलझ गए. दोनों की सुलह कराने अध्यापक ने उन्हें अपने पास बुलाया. दोनों छात्र अध्यापक की डेस्क के पास जाकर खड़े हो गये. एक डेस्क की एक ओर और दूसरा डेस्क की दूसरी ओर.

अध्यापक ने डेस्क की दराज़ से एक गेंद निकाली और उसे डेस्क के बीचों-बीच रख दिया. उसके बाद वे दोनों छात्रों से बोले, “इस गेंद को देखकर बताओ, ये किस रंग की है?”

“ये सफ़ेद रंग की गेंद है सर.” पहला छात्र बोला.

“नहीं सर, ये तो काली है.” दूसरा छात्र बोला.

दोनों के उत्तर एक-दूसरे से भिन्न थे. लेकिन दोनों अपनी बात पर अडिग थे. दोनों में फिर तू-तू मैं-मैं होने लगी. अध्यापक ने दोनों को शांत कर अपने स्थान बदलने को कहा. दोनों ने अपने स्थान बदल लिए.

“अब गेंद को देखकर बताओ कि ये किस रंग की है?” अध्यापक ने फिर से वही प्रश्न दोहराया.

इस बार भी दोनों के जवाब एक-दूसरे से भिन्न थे. अब पहले छात्र ने कहा, “सर, गेंद काली है.” और दूसरे छात्र ने कहा, “सर, गेंद सफ़ेद है.” लेकिन अबकी बार वे अपने खुद के जवाब से हैरान भी थे.

अध्यापक दोनों को समझाते हुए बोले, “ये गेंद दो रंगों की बनी हुई है. एक तरफ से देखने पर सफ़ेद दिखती है, तो दूसरी तरफ से देखने पर काली. तुम दोनों के जवाब सही हैं. फर्क बस तुम्हारे देखने में है. जिस जगह से तुम इस गेंद को देख रहे हो, वहाँ से तुम्हें ये वैसे रंग की दिखाई दे रही है. जीवन भी ऐसा ही है. जीवन में भी किसी चीज़, परिस्थिति या समस्या को देखने का नज़रिया (Attitude)  भिन्न हो सकता है. ये ज़रूरी नहीं कि जिसका मत आपसे भिन्न है, वो गलत है. ये बस नज़रिये का फर्क है. ऐसे में हमें विवाद में पड़ने के स्थान पर दूसरे के नज़रिये को समझने का प्रयास करना चाहिए. तभी हम किसी की बात बेहतर ढंग से समझ पाएंगे और अपनी बात बेहतर ढंग से समझा पाएंगे.”

दोनों छात्रों को अध्यापक की बात समझ में आ गई और दोनों ने अपना झगड़ा भुलाकर सुलह कर ली.

सीख

जीवन में परिस्थितयाँ भिन्न हो सकती हैं. उन परिस्थितियों के प्रति लोगों का नज़रिया (Attitude) भिन्न हो सकता है. हम अक्सर किसी भी परिस्थिति को जाने बिना अपनी टिप्पणी दे देते हैं और अपनी बात पर अड़ जाते हैं. ऐसे में विवाद या बहस की स्थिति निर्मित होती है, जो अंततः संबंध बिगड़ने का कारण बन जाती है.

इसलिए किसी भी बात पर अपनी टिप्पणी देने के पहले परिस्थिति या मामले की अच्छी तरह जानकारी ले लेना चाहिए. साथ ही यदि मतभिन्नता की स्थिति बने, तो दूसरे के नज़रिये को समझने को कोशिश करना चाहिए. ताकि विवाद नहीं बल्कि बेहतर संवाद स्थापित हो सके.

कौवा, हिरण और लोमड़ी की कहानी

एक जंगल में एक कौवा और हिरण रहते थे. दोनों में गाढ़ी मित्रता थी. अक्सर दोनों साथ रहते और मुसीबत के समय एक-दूसरे का साथ देते.

हिरण हट्टा-कट्ठा और मांसल था. जंगल के कई जानवरों उसके मांस का भक्षण करने लालायित रहा करते थे. किंतु जब भी वे हिरण के निकट आने का प्रयास करते, कौवा हिरण को चौकन्ना कर देता और हिरण कुंचाले भरता हुआ भाग खड़ा होता.

जंगल में रहने वाली एक लोमड़ी भी हिरण के मांस का स्वाद लेना चाहती थी. लेकिन कौवे के रहते ये संभव न था. एक दिन उसने सोचा, “क्यों ना हिरण से मित्रता कर उसका विश्वास प्राप्त कर लूं? फिर किसी दिन अवसर पाकर उसे दूर कहीं ले जाऊंगी और उसका काम-तमाम कर दूंगी. तब जी-भरकर उसके मांस का भक्षण करूंगी.”

उस दिन के बाद से वह ऐसा अवसर तलाशने लगी, जब हिरण अकेला हो और कौवा उसके आस-पास न हो. एक दिन उस वह अवसर प्राप्त हो ही गया. जंगल में उसे हिरण अकेला घूमता हुआ दिखाई पड़ा, तो धीरे से उसके पास पहुँची और स्वर में मिठास घोलकर बोली, “मित्र! मैं दूसरे जंगल से आई हूँ. यहाँ मेरा कोई मित्र नहीं है. तुम मुझे भले लगे. क्या तुम मुझसे मित्रता करोगे? मैं तुम्हें जंगल के उस पार के हरे-भरे खेतों में ले चलूंगी. वहाँ तुम पेट भरकर हरी घास चरना.”

हिरण लोमड़ी की मीठी बातों में आ गया और उससे मित्रवत व्यवहार करने लगा. उस दिन के बाद से लोमड़ी रोज़ हिरण के पास आती और उससे ढेर सारी बातें करती.

एक दिन कौवे ने हिरण को लोमड़ी से बातें करते हुए देख लिया. उसे लोमड़ी की मंशा समझते देर न लगी. लोमड़ी के जाते ही वह हिरण के पास गया और उसे चेताते हुए बोला, “मित्र! ये लोमड़ी दुष्ट है. इसकी मंशा तुम्हें मारकर खा जाने की है. प्राण बचाने हैं, तो इससे दूरी बनाकर रखो.”

हिरण बोला, “मित्र! हर किसी को शंका की दृष्टि से देखना उचित नहीं है. लोमड़ी सदा मुझसे मित्रवत रही है. विश्वास करो वह शत्रु नहीं, मित्र है. उसके द्वारा मुझे हानि पहुँचाने का प्रश्न ही नहीं उठता. तुम निश्चिंत रहो.”

हिरण का उत्तर सुनकर कौवा चला गया. किंतु उसे लोमड़ी पर तनिक भी विश्वास नहीं था. वह दूर से हिरण पर नज़र रखने लगा.

एक दिन लोमड़ी ने देखा कि मक्के के एक खेत में उसके मालिक ने मक्का चोर को पकड़ने के लिए जाल बिछा कर रखा है. हिरण को फंसाने का यह एक सुअवसर था. लोमड़ी तुरंत हिरण के पास गई और बोली, “मित्र! आज मैं तुम्हें मक्के के खेत में ले चलता हूँ.”

हिरण सहर्ष तैयार हो गया. दोनों जंगल के पास स्थित मक्के के खेत में पहुँचे. किंतु खेत में प्रवेश करते ही हिरण खेत के मालिक द्वारा बिछाए जाल में फंस गया. उसने निकलने का बहुत प्रयास किया, किंतु सफ़ल नहीं हो सका.

उसने लोमड़ी से सहायता की गुहार लगाई. लेकिन लोमड़ी तो इस फ़िराक में थी कि कब खेत का मालिक हिरण को मारे और वह भी अवसर देखकर उसका मांस चख सके. उसने हिरण को उत्तर दिया, “इतने मजबूत जाल को काटना मेरे बस की बात कहाँ? तुम यहीं ठहरो, मैं सहायता लेकर आती हूँ.”

यह कहकर लोमड़ी खेत के पास ही झाड़ियों के पीछे छुपकर खेत के मालिक के आने की प्रतीक्षा करने लगी.

इधर जंगल में अपने मित्र हिरण को न पाकर कौवा खोज-बीन करता हुआ मक्के के खेत में आ पहुँचा. वहाँ हिरण को जाल में फंसा देख वह उसके पास गया और बोला, “मित्र! चिंता मत करो. मैं तुम्हारे साथ हूँ. मैं तुम्हारे प्राणों की रक्षा करूंगा. अब तुम ठीक वैसा करो, जैसा मैं कहता हूँ. सांस रोककर बिना हिले-डुले जमीन पर ऐसे पड़ जाओ, मानो तुममें जान ही नहीं है. खेत का मालिक तुम्हें मरा समझकर ज्यों ही जाल हटायेगा, मैं आवाज़ देकर तुम्हें इशारा करूं दूंगा. बिना एक क्षण गंवाए तुम भाग खड़े होना.”

हिरण ने वैसा ही किया. खेत के मालिक ने उसे मरा जानकार जैसे ही जाल हटाया, कौवे ने इशारा कर दिया और इशारा मिलते ही हिरण भाग खड़ा हुआ. हिरण को भागता देख खेत के मालिक ने हाथ में पकड़ी कुल्हाड़ी पूरे बल से उसकी ओर फेंकी. किंतु हिरण बहुत दूर निकल चुका था. वह कुल्हाड़ी झाड़ी के पीछे छुपी लोमड़ी के सिर पर जाकर लगी और वो वहीं ढेर हो गई. लोमड़ी को अपनी दुष्टता का फल मिल चुका था.

सीख 

मित्र का चुनाव करते समय हमेशा सावधानी रखो. कभी भी किसी अजनबी पर आँख मूंदकर विश्वास न करो.  

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जादुई मटका की कहानी

एक गाँव में एक किसान रहता था. उसका एक छोटा सा खेत था. खेत में होने वाली पैदावार से उसके परिवार की गुजार-बसर होती थी. इसलिए वह दिन भर कड़ी मेहनत करता, ताकि उसके खेत में अच्छी पैदावार हो सके.

बुआई का समय आ चुका था. किसान अपने खेत में बुआई के काम में लगा हुआ था. एक दिन खेत में गड्ढा खोदते समय उसे जमीन में गड़ा हुआ एक मटका मिला. वह मटका आकार में बहुत बड़ा था. इतना बड़ा कि उसमें पूरा का पूरा इंसान ही समा जाए.

किसान मटके को देखकर सोचने लगा – अरे इतना बड़ा मटका. इसमें तो एक साथ कई सौ लोगों का खाना बन जाएगा. इसे घर ले चलता हूँ. जब किसी अवसर पर घर में मेहमान आयेंगे, तो यह मटका काम आएगा.

उसने मटके को जमीन से निकाला और खेत के किनारे लगे एक पेड़ के नीचे रख दिया. उसके बाद वह फिर से काम में जुट गया. दोपहर में जब खाने का समय हुआ, तो अपनी कुदाली जमीन से निकले मटके में डालकर वह पेड़ के नीचे खाना खाने बैठ गया.

खाना खाकर जैसे ही वह उठा, उसकी नज़र मटके में रखी अपनी कुदाली पर पड़ी. वह यह देखकर चकित रह गया कि मटके में एक नहीं, बल्कि सौ कुदालियाँ रखी हुई थी.

किसान ने सारी कुदालियाँ मटके से बाहर निकाल ली. फिर उसमें एक छोटा पत्थर डाल दिया. देखते ही देखते उस एक पत्थर के सौ पत्थर हो गए. किसान को समझते देर नहीं लगी कि वह कोई साधारण मटका नहीं, बल्कि जादुई मटका  है, जो किसी भी वस्तु को सौ गुना कर देता है.

किसान जादुई मटका अपने घर ले आया. अब जब भी उसे किसी चीज़ की आवश्यकता होती, तो वह उसे जादुई मटके में डाल देता. मटके से एक के बदले उसे सौ चीज़ें मिलती.

जादुई मटका हर चीज़ को सौ गुना कर देता था. फिर चाहे वो खाने की चीज़ हो, कपड़ा हो, सोने के सिक्के हो. किसान को अब किसी चीज़ की कमी न रही. वह दिन पर दिन धनवान होता गया.

किसान की समृद्धि की बात उस राज्य के राजा के पास पहुँची, तो उसने इसका भेद जानने के लिए अपने गुप्तचरों को उसके घर भेजा. कई दिन किसान के घर का चक्कर लगाने के बाद एक दिन गुप्तचरों को किसान के जादुई मटके का भेद पता चल गया.

उन्होंने यह भेद राजा को जाकर बताया. राजा लालची था. जादुई मटके के बारे में जानकर उसके मन में लालच आ गया. उसने सोचा कि वह मटका किसान के पास नहीं, बल्कि मेरे पास होना चाहिए.

उसने तुरंत सैनिकों को आदेश देकर जादुई मटका अपने पास मंगवा लिया. जब सैनिक जादुई मटका लेकर राजा के पास पहुँचे, तो किसान भी पीछे-पीछे वहाँ आ गया.

राजा के पूछने पर किसान ने उसे बता दिया कि वह मटका जादुई है और उसे वह मटका अपने खेत में मिला है.

राजा बोला, “राज्य की भूमि से मिली किसी भी वस्तु पर सर्वप्रथम राजा का अधिकार होता है. इसलिए इस जादुई मटके पर तुम्हारा नहीं बल्कि, मेरा अधिकार है.”

किसान क्या कहता? वह चुपचाप सिर झुकाए खड़ा रहा.

राजा जादुई मटके को पास से देखने के लिए अपने सिंहासन से उठा और मटके के पास जाकर उसे देखने लगा. मटके को बाहर से देखने के बाद राजा ने सोचा कि ज़रा इस मटके के भीतर झांक कर तो देखूं कि आखिर इसमें जादू कैसे होता है.

राजा जादुई मटके में झाँकने लगा. इसी बीच उसका पैर लड़खड़ाया और वह मटके के अंदर जा गिरा. फिर क्या था? जादुई मटके ने अपना काम कर दिया. एक के बदले अब सौ राजा मटके से बाहर निकले.

सभी राजा सिंहासन पर बैठने के लिए आपस में झगड़ने लगे. धीरे-धीरे यह झगड़ा बढ़ता गया. सबने अपनी-अपनी तलवारें निकाल ली और एक-दूसरे पर टूट पड़े. फिर ऐसी मार-काट मची कि कोई राजा जीवित न बचा. सब मारे गए.

जादुई मटका अभी भी वहीं पड़ा था. किसान ने सोचा कि इस मटके की कारण वह फिर कहीं किसी समस्या में न पड़ जाए. इसलिए उसने उस जादुई मटके को उठाया और जमीन पर पटक दिया. जादुई मटका टुकड़े-टुकड़े हो गया.

किसान अपने घर आ गया और उसके बाद से पहले जैसा जीवन जीने लगा. लेकिन उसे कभी किसी चीज़ का लालच नहीं था, इसलिए वह अपने जीवन में हमेशा संतुष्ट रहा.

सीख 

१. लालच का फ़ल बुरा होता है. इसलिए कभी लालच नहीं करना चाहिए.

२. दुष्ट आचरण की सजा किसी न किसी रूप में इसी जीवन में भोगनी पड़ती है. इसलिए सदाचरण करें. 

सुई बरसाने वाला पेड़ की कहानी

बहुत समय पहले की बात है. घने जंगल किनारे एक गाँव बसा हुआ था. उस गाँव में दो भाई रहा करते थे. दोनों भाइयों के व्यवहार में बड़ा अंतर था. छोटा भाई बड़े भाई से बहुत प्यार करता था. लेकिन बड़ा भाई स्वार्थी, लालची और दुष्ट था. वह छोटे भाई से चिढ़ता था और सदा उससे बुरा व्यवहार किया करता था. बड़े भाई के इस व्यवहार से छोटा भाई दु:खी हो जाता था, लेकिन उसके प्रति प्रेम के कारण वह सब कुछ सह जाता था और कभी कुछ नहीं कहता था.

एक दिन बड़ा भाई लकड़ी काटने जंगल गया. वहाँ इधर-उधर तलाशने पर उसकी नज़र एक ऊँचे पेड़ पर पड़ी. आज इसी पेड़ की लकड़ी काटता हूँ, ये सोचकर उसने कुल्हाड़ी उठा ली. लेकिन वह कोई साधारण पेड़ नहीं, बल्कि एक जादुई पेड़ था.

जैसे ही बड़ा भाई पेड़ पर कुल्हाड़ी से वार करने को हुआ, पेड़ उससे विनती करने लगा, “बंधु! मुझे मत काटो. मुझे बख्श दो. यदि तुम मुझे नहीं काटोगे, तो मैं तुम्हें सोने के सेब दूंगा.”

सोने के सेब पाने के लालच में बड़ा भाई तैयार हो गया. पेड़ ने जब उसे सोने के कुछ सेब दिए, तो उसकी आँखें चौंधिया गई. उसका लालच और बढ़ गया. वह पेड़ से और सोने के सेब की मांग करने लगा. पेड़ के मना करने पर, वह उसे धमकाने लगा, “यदि तुमने मुझे और सेब नहीं दिए, तो मैं तुम्हें पूरा का पूरा काट दूंगा.”

यह बात सुनकर पेड़ को क्रोध आ गया. उसने बड़े भाई पर नुकीली सुईयों की बरसात कर दी. हजारों सुईयाँ चुभ जाने से बड़ा भाई दर्द से कराह उठा और वहीं गिर पड़ा. इधर सूर्यास्त होने के बाद भी जब बड़ा भाई घर नहीं आया, तो छोटे भाई को चिंता होने लगी. वह उसे खोजने जंगल की ओर निकल पड़ा.

जंगल पहुँचकर वह उसे खोजने लगा. खोजते-खोजते वह उसी जादुई पेड़ के पास पहुँच गया. वहाँ उसने बड़े भाई को जमीन पड़े कराहते हुए देखा. वह फ़ौरन उसके करीब पहुँचा और उसके शरीर से सुईयाँ निकालने लगा. छोटे भाई का प्रेम देखकर बड़े भाई का दिल पसीज़ गया. उसे अपने व्यवहार पर पछतावा होने लगा. उसकी आँखों से आँसू बह निकले और वह अपने छोटे भाई से माफ़ी मांगने लगा. उसने वचन दिया कि आगे से कभी उसके साथ बुरा व्यवहार नहीं करेगा.

छोटे भाई ने बड़े भाई को गले से लगा लिया. जादुई पेड़ ने भी जब बड़े भाई के व्यवहार में बदलाव देखा, तो उसे ढेर सारे सोने के सेब दिए. उन सोने के सेबों को बेचकर प्राप्त पैसों से दोनों भाइयों ने एक व्यवसाय प्रारंभ किया, जो धीरे-धीरे अच्छा चलने लगा और दोनों भाई सुख से रहने लगे.  

सीख 

दूसरों के प्रति सदा दयालु रहें. दयालुता सदा सराही जाती है.

ओक का पेड़ और सरकंडा की कहानी

नदी किनारे विशालकाय ओक का पेड़ लगा हुआ था। उसे देखकर लगता, मानो वह अपनी अनेकों भुजाओं को फैलाए गर्व से तनकर खड़ा हो। उसे अपनी विशालता का अभिमान भी था। पास ही कुछ पतले सरकंडे लगे हुए थे – नाजुक, कमज़ोर से दिखने वाले सरकंडे, जिन्हें देखकर ओक के पेड़ को अपनी मजबूती का अहसास होता और वह गर्व से और फूल जाता।

जब भी हवा चलती, विशाल ओक का पेड़ तनकर खड़ा होता, मानो हवाओं को रोक लेना चाहता हो। वहीं पतले सरकंडे झुक जाते, मानो हवा का अभिवादन कर उसे जाने का रास्ता दे रहे हों।

ओक का पेड़ सरकंडों को देखकर हंसता, “कितने कमज़ोर हो तुम लोग। ज़रा सी हवा के सामने झुक जाती हो। चिंता होती है मुझे तुम्हारी कि कहीं किसी दिन उखड़ कर उड़ न जाओ।”

“हमारी चिंता मत करो। हम हवाओं के सामने झुक जाते हैं। इसलिए सुरक्षित हैं। वे हमें नुकसान नहीं पहुंचाएंगी। लेकिन तुम ऐसे तने रहे, तो एक दिन ज़रूर उखड़ जाओगे। कई बार विरोध जताने के स्थान पर नम्रता दिखाना ज्यादा प्रभावी होता है।”

“मैं तुम जैसा कमज़ोर नहीं, जो हवा के सामने झुक जाऊं।” ओक का पेड़ जवाब देता।

“तो बस इंतज़ार करो। तुम्हारा अंत निकट है।” सरकंडे कहते।

एक दिन भयंकर तूफानी हवा चलने लगी। हमेशा की तरह ओक का पेड़ तूफान से लड़ने तन कर खड़ा हो गया। सरकंडे नम्रता से झुक गए। हवाएं सरकंडों के ऊपर से सहजता से उड़ गई। लेकिन ओक के पेड़ का अड़ियल रवैया देख कर क्रोधित हो गई और अपना प्रचंड रूप दिखलाने लगी।

हवा के क्रोध के आगे ओक का पेड़ ठहर नहीं पाया और जड़ से उखड़ कर नीचे आ गिरा। उसे अपनी व्यर्थ की हठधर्मिता और अड़ियल रवैए का फल मिल चुका था।

सीख 

जहां नम्रता की आवश्यकता हो, वहां व्यर्थ की हठधर्मिता पतन लेकर आती है।

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राजा और काना घोड़ा की कहानी

एक राजा के पास एक हृष्ट पुष्ट और सुंदर घोड़ी थी। वह उससे बहुत प्रेम करता था और उसका विशेष खयाल रखता था। इसका कारण ये था कि युद्ध क्षेत्र में घोड़ी ने कई बार राजा के प्राणों की रक्षा की थी। ये घोड़ी की वफादारी थी, जिसने राजा का दिल जीत लिया था।

घोड़ी ने कई वर्षों तक राजा की सेवा की और पूर्ण वफादार बनी रही। जब उसकी उम्र हो गई, तो उसकी जगह उसके बेटे ने ले ली। घोड़ी का बेटा हृष्ट पुष्ट था। मगर उसमें एक खामी थी। वह जन्म से ही काना था। इस बात को लेकर वह हमेशा दुखी रहा करता था।

एक बार उसने घोड़ी से पूछा, “मां! मैं काना क्यों जन्मा?”

घोड़ी ने बताया, “बेटा! जब तू मेरे गर्भ में था। उस समय एक दिन राजा मेरी सवारी कर रहा था और मेरे कदम लड़खड़ा जाने पर आवेश में आकर उसने मुझे एक चाबुक मार दिया था। शायद यही कारण है कि तू काना जन्मा।”

ये सुनकर काने घोड़े का मन राजा के प्रति क्रोध से भर उठा। वह बोला, “मां! राजा ने मुझे जीवन भर का दुख दिया है। मैं उससे इसका प्रतिशोध लूंगा।”

घोड़ी ने समझाया, “नहीं बेटा! राजा हमारा पालक है। उसके प्रति प्रतिशोध की भावना अपने हृदय में मत ला। क्षणिक आवेग में उसे क्रोध आ गया और वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाया। इसका अर्थ ये कतई नहीं कि वह हमसे प्रेम नहीं करता। तू प्रतिशोध लेने का विचार अपने हृदय से निकाल दे।”

मां के समझाने पर भी काने घोड़े का क्रोध शांत नहीं हुआ। वह राजा से प्रतिशोध लेने का अवसर ढूंढने लगा। बहुत जल्द उसे यह अवसर मिल भी गया। 

राजा युद्ध के मैदान में काने घोड़े पर सवार था। उसके और उसके पड़ोसी राज्य के राजा के बीच घमासान युद्ध छिड़ा हुआ था। तलवारबाजी करते-करते अचानक राजा घोड़े से नीचे गिर पड़ा। मौत उसके करीब थी। काना घोड़ा उसे वहीं उसी हाल में छोड़कर भाग सकता था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने फुर्ती दिखाई और राजा को फिर से अपनी पीठ पर बिठाकर उसके प्राण बचा लिए।

वह चकित था कि उसने ऐसा क्यों किया। जिस व्यक्ति ने उसे काना बनाया, उसने उसके प्रति वफादारी क्यों दिखाई? क्यों उससे प्रतिशोध नहीं लिया?

ये प्रश्न उसने घोड़ी से पूछा, तो वह मुस्कुराते हुए बोली, “तू आखिर बेटा किसका है? मेरा ना! मेरी छत्रछाया में तू पला बढ़ा है। जो संस्कार मैंने तुझे दिए हैं, वे तेरी रग रग में रच बस गए हैं। उन संस्कारों के विपरीत तू जा ही नहीं सकता। वफादारी तेरे खून में है बेटा। तू वफादार ही रहेगा।”

सीख 

दोस्तों! संस्कारों का आचरण पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। जिन संस्कारों के साए में बच्चे का पालन पोषण होता है, वे उसके अवचेतन में गहरे तक समाहित हो जाते हैं। ऐसे में अपने संस्कारों के विपरीत वह जा ही नहीं सकता।

संस्कारों का सबसे बड़ा आधार परिवार है, जहां से संस्कारों की नींव पड़ती है। हर माता पिता की जिम्मेदारी है कि वे अपने परिवार को अच्छे संस्कारों की नींव दे। अच्छे संस्कार के परिवार का व्यक्ति संस्कारी बनेगा और अपने कर्मों से समाज में सदा सम्मान पायेगा। 

ज्ञान हमेशा झुककर लो शिक्षाप्रद कहानी

शास्त्रों में पारंगत एक विख्यात पंडित एक वृद्ध साधु के पास गया और बोला, “महात्मा जी! मैं सत्य की खोज में हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।”

साधु ने पूछा, “तुम कौन हो वत्स?”

पंडित बोला, “महात्मा जी! आप मुझे नहीं जानते। मैं कई शास्त्रों में पारंगत पंडित हूँ। इस नगर में मेरी बड़ी प्रतिष्ठा है। किंतु सत्य खोज न सका हूँ। आपसे ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ, ताकि सत्य को पा सकूं।”

साधु बोले, “तुम लिखकर ले लाओ कि तुम क्या जानते हो। जो तुम जानते हो, उसे बताने का कोई औचित्य नहीं। जो तुम नहीं जानते, वो ज्ञान मैं तुम्हें दे दूंगा।”

व्यक्ति लौट गया। उसे शास्त्रों का इतना अधिक ज्ञान था कि उसे लिखते-लिखते तीन वर्ष बीत गए। तीन वर्ष बाद जब वह साधु के पास पहुँचा, तो उसके हाथ में हजार पृष्ठों की पोथी थी।

साधु और वृद्ध हो चले थे, पोथी देखकर बोले, “मेरी आयु हो चली है। इतना तो मैं पढ़ न पाऊंगा। इसका सार लिखकर ले आओ।”
पंडित लौट गया और सार लिखने लगा। इसमें उसे तीन माह लग गए। तीन माह बाद जब वो साधु के पास पहुँचा, तो उसके हाथ में सौ पृष्ठ थे।

साधु बोले, “ये भी बहुत अधिक है। शरीर दुर्बल हो चला हैं। आँखें कमजोर हो चली हैं कि इतना पढ़ पाना भी संभव नहीं। इसे और संक्षिप्त कर आओ।”

पंडित वापस चला गया और सात दिन बाद एक पृष्ठ में सार सूत्र लिखकर ले आया। साधु मृत्यु शैय्या पर थे। पंडित ने वो एक पृष्ठ साधु की ओर बढ़ाया, तो वे बोले, “मैं तुम्हारी ही बाट जोह रहा था। देख रहे हो कि मेरा अंतिम समय आ चुका है। तुम कब मेरी बात समझोगे। जाओ इसे और संक्षिप्त कर लाओ।”

साधु की बात सुनकर मानो पंडित की आँखें खुल गई। वह तत्काल दूसरे कक्ष में गया और एक कोरा कागज ले आया।

साधु मुस्कुराये और बोले, “इस कोरे कागज़ का अर्थ है कि मैं कोरा हूँ। पूर्णतः खाली…अज्ञानी…अब तुम मेरा ज्ञान प्राप्त करने के योग्य हुए। शिष्य वह है, जो गुरु के समक्ष ये भाव रखे कि वह कुछ नहीं जानता। जो सर्वज्ञाता हो, उसे गुरु की क्या आवश्यकता।”

साधु ने उसे जीवन के सत्य का ज्ञान दिया और प्राण त्याग दिए।

सीख 

मित्रों, ज्ञान सदा अज्ञानी बनकर ही प्राप्त किया जाता है।

अंधा आदमी और लालटेन की कहानी

दुनिया में तरह-तरह के लोग होते हैं. कुछ तो ऐसे होते हैं, जो स्वयं की कमजोरियों को तो नज़रंदाज़ कर जाते हैं किंतु दूसरों की कमजोरियों पर उपहास करने सदा तत्पर रहते हैं. वास्तविकता का अनुमान लगाये बिना वे दूसरों की कमजोरियों पर हँसते हैं और अपने तीखे शब्दों के बाणों से उन्हें ठेस पहुँचाते हैं. किंतु जब उन्हें यथार्थ का तमाचा पड़ता है, तो सिवाय ग्लानि के उनके पास कुछ शेष नहीं बचता.

आज हम आपको एक अंधे व्यक्ति की कहानी बता रहे हैं, जिसे ऐसे ही लोगों के उपहास का पात्र बनना पड़ा.

एक गाँव में एक अंधा व्यक्ति रहता था. वह रात में जब भी बाहर जाता, एक जली हुई लालटेन हमेशा अपने साथ रखता था.

एक रात वह अपने दोस्त के घर से भोजन कर अपने घर वापस आ रहा था. हमेशा की तरह उसके हाथ में एक जली हुई लालटेन थी. कुछ शरारती लड़कों ने जब उसके हाथ में लालटेन देखी, तो उस पर हंसने लगे और उस पर व्यंग्य बाण छोड़कर कहने लगे, “अरे, देखो-देखो अंधा लालटेन लेकर जा रहा है. अंधे को लालटेन का क्या काम?”

उनकी बात सुनकर अंधा व्यक्ति ठिठक गया और नम्रता से बोला, “सही कहते हो भाईयों. मैं तो अंधा हूँ. देख नहीं सकता. मेरी दुनिया में तो सदा से अंधेरा रहा है. मुझे लालटेन का क्या काम? मेरी आदत तो अंधेरे में ही जीने की है. लेकिन आप जैसे आँखों वाले लोगों को तो अंधेरे में जीने की आदत नहीं होती. आप लोगों को अंधेरे में देखने में समस्या हो सकती है. कहीं आप जैसे लोग मुझे अंधेरे में देख ना पायें और धक्का दे दें, तो मुझ बेचारे का क्या होगा? इसलिए ये लालटेन आप जैसे लोगों के लिए लेकर चलता हूँ. ताकि अंधेरे में आप लोग मुझ अंधे को देख सकें.”

अंधे व्यक्ति की बात सुनकर वे लड़के शर्मसार हो गए और उससे क्षमा मांगने लगे. उन्होंने प्रण किया कि भविष्य में बिना सोचे-समझे किसी से कुछ नहीं कहेंगे.

सीख 

कभी किसी को नीचा दिखाने की कोशिश नहीं करनी चाहये और कुछ भी कहने के पूर्व अच्छी तरह सोच-विचार कर लेना चाहिए.

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बगुला भगत की कहानी

दूरस्थ वन में स्थित एक जलाशय में मछलियाँ, केकड़े, मेंढक और ना-ना प्रकार के जीव-जंतु रहा करते थे. तालाब के किनारे एक बूढ़ा बगुला भी रहा करता था.

बूढ़ा बगुला भोजन के लिए तालाब की मछलियों पर निर्भर था. वह दिन भर तालाब किनारे घात लगाये बैठा रहता. जैसे ही कोई मछली नज़र आती, उसे लपककर पकड़ लेता और अपने पेट की ज्वाला शांत कर लेता था.

लेकिन धीरे-धीरे उसकी आँखें कमज़ोर होने लगी और मछलियाँ पकड़ना उसके लिए दुष्कर हो गया. अब वह दिन-रात एक टांग पर खड़ा होकर सोचता रहता कि ऐसी हालत में कैसे भोजन की व्यवस्था की जाये.

एक दिन उसे एक युक्ति सूझी. युक्तिनुसार वह तालाब के किनारे गया और एक टांग पर खड़ा होकर जोर-जोर से विलाप करने लगा. उसे इस तरह विलाप करता देख तालाब में रहने वाला एक केकड़ा आश्चर्यचकित हो उसके पास आया और पूछने लगा, “बगुला मामा! क्या बात है? इस तरह आँसू क्यों बहा रहे हो? क्या आज कोई मछली हाथ नहीं लगी?”

बगुला बोला, “बेटा! कैसी बात कर रहे हो? अब मैंने वैराग्य का जीवन अपना लिया है और मछलियों तथा अन्य जीवों का शिकार छोड़ दिया है. वैसे भी इस जलाशय के समीप रहते मुझे वर्षों हो गए है. यहाँ रहने वाले जलचरों के प्रति मन में प्रेम और अपनत्व का भाव जाग चुका है. इसलिए मैं उनके प्राण नहीं हर सकता.”

“तो इस तरह विलाप करने का क्या कारण है मामा?” केकड़े ने उत्सुकतावश पूछा.

“मैं तो इस तालाब में रहने वाले अपने भाई-बंधुओं के लिए विलाप कर रहा हूँ. आज ही एक जाने-माने ज्योतिष को मैंने ये भविष्यवाणी करते सुना कि इस क्षेत्र में १२ वर्षों के लिए अकाल पड़ेगा. यहाँ स्थित समस्त जलाशय सूख जायेंगे और उनमें रहने वाले जीव-जंतु भूख-प्यास से मर जायेंगे. आसपास के सभी छोटे जलाशयों के जीव-जंतु बड़ी-बड़ी झीलों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं. किंतु इस जलाशय के जीव-जंतु निश्चिंत बैठे हैं. इस जलाशय का जलस्तर अत्यंत कम है. सूखा पड़ने पर ये अतिशीघ्र सूख जायेगा. यहाँ के रहवासी सभी जलचर मारे जायेंगें. यही सोच-सोचकर मेरे आँसू नहीं थम रहे हैं.”

बगुले की बात सुनकर केकड़ा तुरंत तालाब में रहने वाली मछलियों और अन्य जलचरों के पास गया और उन्हें बगुले की अकाल संबंधी बात बता दी.

ये सुनना था कि सभी जलचर बगुले के पास जा पहुँचे और उससे इस समस्या से निकलने का उपाय पूछने लगे.

दुष्ट बगुला तो इसी अवसर की ताक में था. वह बोला, “बंधुओं, चिंता की कोई बात नहीं है. यहाँ से कुछ ही दूरी पर जल से लबालब एक बड़ी झील अवस्थित है. वहाँ का जल अगले ५० वर्षों तक नहीं सूखेगा मैं तुम्हें अपनी पीठ पर लादकर उस झील में छोड़ आऊंगा. इस तरह तुम सबकी जान बच जायेगी.”

बगुले की बात सुनकर सभी जलचरों में पहले जाने की होड़ लग गई और वे बगुले से अनुनय करने लग गए, “बगुला मामा, हमें वहाँ पहले पहुँचा दो.”

ये देख बगुले की बांछे खिल गई. उसने सबको शांत किया और बोला, “बंधुओं, मैं तुम सबको एक-एक कर अपनी पीठ पर लादकर उस झील तक ले जाऊंगा. फिर चाहे मेरा जो हाल हो. आखिर तुम सब मेरे अपने हो.”

उस दिन के बाद से बगुला प्रतिदिन एक मछली को अपनी पीठ पर लादकर ले जाता और कुछ दूरी तय करने के बाद एक बड़ी शिला पर पटककर मार डालता. फिर छककर अपना पेट भरने के बाद दूसरे दिन दूसरा शिकार अपनी पीठ पर लादकर चल पड़ता.

ऐसे ही कई दिन बीत गये. बगुले को बिना परिश्रम के रोज़ एक मछली का आहार मिलने लगा. एक दिन जब बगुला तालाब के किनारे गया, तो केकड़ा बोला, “बगुला मामा! आपने सूखा पड़ने की बात मुझे सबसे पहले बताई. किंतु अब तक आप मुझे बड़ी झील लेकर नहीं गए. आज मैं आपकी कुछ नहीं सुनूंगा. आज आपको मुझे ही लेकर जाना होगा.”

बगुला भी रोज़ मछली खाकर ऊब चुका था. उसने सोचा कि क्यों ना आज केकड़े को ही अपना आहार बनाया जाये? और वह केकड़े को अपनी गर्दन पर बैठाकर उड़ने लगा.

कुछ दूर जाने के बाद केकड़े ने देखा कि एक बड़ी शिला के पास मछलियों की हड्डियों का अंबार लगा हुआ है. उसे संदेह हुआ कि हो न हो ये सब बगुले का ही किया धरा है.

उसने बगुले से पूछा, “मामा, और कितनी दूर जाना है. तुम मुझे उठाये-उथाये थक गये होगे.”

शिला तक पहुँचने के बाद बगुले ने सोचा कि अब वास्तविकता बताने में कोई हर्ज़ नहीं. उसने केकड़े को सारी बात बता दी और बोला, “केकड़े, ईश्वर का स्मरण कर ले. तेरा अंत समय आ चुका है. अब मैं तुझे भी इन मछलियों की तरह इस शिला पर पटककर मार दूंगा और अपना आहार बनाऊंगा.”

ये सुनना था कि केकड़े ने अपने नुकीले दांत बगुले की गर्दन पर गड़ा दिए. बगुले की गर्दन कट गई और वह वहीं तड़पकर मर गया.

केकड़ा बगुले की कटी हुई गर्दन लेकर वापस तालाब में पहुँचा और दुष्ट बगुले की दुष्टता की कहानी सब जलचरों को बताई और बोला, “अब वह दुष्ट मर चुका है. तुम सब लोग यहाँ आनंद के साथ रहो.”

सीख 

किसी भी बात का बिना सोचे-समझे विश्वास नहीं करना चाहिए. मुसीबत में धैर्य से काम लेना चाहिये.

मेहनती चींटी और आलसी टिड्डा की कहानी

गर्मी का दिन था. सुबह की खिली धूप में एक टिड्डा बड़े मज़े से घास पर फ़ुदक रहा था. वह बड़ा ख़ुश था और उस ख़ुशी में गा रहा था, नाच रहा था और ज़िंदगी के मज़े ले रहा था.

एक ओर जहाँ टिड्डा अपनी मस्ती में लगा हुआ था, वहीं दूसरी ओर एक चींटी अनाज के एक दाने को पीठ पर ढोकर अपने बिल में ले जा रही थी. जब चींटी टिड्डे के पास से गुज़री, तो टिड्डे ने उसे अपने पास बुलाया और कहा, “प्यारी चींटी आओ मज़े करें”

लेकिन चींटी ने मना कर दिया और अपने काम में लगी रही. वह पूरे दिन कड़ी मेहनत कर एक-एककर अनाज का दाना खेत से उठाकर अपने बिल तक ले जाती रही.

अपनी मस्ती में डूबा टिड्डा चींटी को देखता और हँसता. वह बार-बार उसे अपने पास बुलाता और कहता, “प्यारी चींटी, तुम क्यों इतनी मेहनत कर रही हो? आओ, कुछ देर आराम करो, मेरा गाना सुनो. गर्मी के लंबे और उजले दिन है. ऐसे ख़ूबसूरत दिन इस तरह से मेहनत करके हुए क्यों बर्बाद करना?”

चींटी बोली, “मैं ठंड के मौसम के लिए भोजन इकट्ठा कर रही हूँ. मेरी सलाह मानो, तो तुम भी ऐसा ही करो. वरना बाद में पछताओगे.”

“अभी से ठंड के मौसम के बारे में क्यों चिंता करना?” टिड्डा बोला, “मेरे पास पर्याप्त भोजन है और ठंड का मौसम तो अभी बहुत दूर है. उसकी तैयारी करने के लिए बहुत समय है. अभी का समय तो मैं आराम से सोते हुए और मज़े करते हुए बिताना चाहता हूँ. मेरी मानो तो मेहनत छोड़ो और मज़े करो.”

टिड्डे की बात पर ध्यान न देकर चींटी अपने काम में लगी रही. पूरी गर्मी मेहनत कर उसने अपने बिल में ढेर सारा अनाज इकट्ठा कर लिया, जो ठंड के दिनों में उसे काम आने वाला था.

उधर टिड्डा ठंड के मौसम की तैयारी के स्थान पर पूरे दिन नाचता-गाता रहा. अपनी मस्ती में उसे होश ही नहीं रहा कि गर्मी के दिन बहुत लंबे समय तक नहीं रहने वाले हैं. जल्द ही ठंड के दिन और फिर बरसात के दिन आ जायेंगे, जो उस जैसे जीवों के लिए मुश्किल भरे दिन होंगे.

धीरे-धीरे गर्मी चली गई और वसंत का मौसम आ गया. फिर वसंत का मौसम ठंड में तब्दील हो गया. अब तो सूरज बमुश्किल आसमान में नज़र आता. दिन छोटे हो गए और रातें बड़ी हो गई थी. कड़कड़ाती ठंड पड़ने लगी थी और बर्फ़बारी होने लगी थी.

अब टिड्डे को महसूस हुआ कि चींटी सही कह रही थी. उसे भी इस मौसम के लिए पहले से तैयारी करनी चाहिए थी. लेकिन वह तो पूरी गर्मी नाचता-गाता और मज़े करता रहा. अब न उसे गाना गाने का मन कर रहा था, न ही नाचने का. उसका भोजन ख़त्म हो चुका था. वह ठंड और भूख से तड़प रहा था.

उसने सोचा नहीं था कि ठंड इतनी बुरी भी हो सकती है. उसके पास भोजन नहीं था. बर्फ़ से बचने का इंतज़ाम नहीं था. उसे लगने लगा कि जिस गर्मी के मौसम में उसने इतने मज़े किये हैं, शायद अब अगली बार उस मौसम को देखने के लिए वह जिंदा ही न बचे.        

एक दिन भूख से तड़पते हुए बर्फ़ीले मौसम में उसकी नज़र चींटी पर पड़ी, जो अपने बिल में मज़े से आराम कर रही थी. उसके पास पर्याप्त भोजन था और ठंड से बचने के लिए आसरा. टिड्डा पछताने लगा और रोने लगा. उसे समय बर्बाद करने का फ़ल मिल चुका था.

सीख 

समय का सदुपयोग करें, अन्यथा समय हाथ से निकल जाने पर पछतावे के सिवाय कुछ हाथ नहीं आता.

कंजूस और उसका सोना की कहानी

एक गाँव में एक अमीर जमींदार रहता था. वह जितना अमीर था, उतना ही कंजूस भी. अपने धन को सुरक्षित रखने का उसने एक अजीब तरीका निकाला था. वह धन से सोना खरीदता और फिर उस सोने को गलाकर उसके गोले बनाकर अपने एक खेत में एक पेड़ के नीचे गड्ढा खोदकर डाल देता था.

रोज़ खेत जाना और गड्ढे को खोदकर सोने के गोलों की गिनती करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा था. इस तरह वह सुनिश्चित करता था कि उसका सोना सुरक्षित है.

एक दिन एक चोर ने कंजूस आदमी को गड्ढे में से सोना निकालकर गिनते हुए देख लिया. वह छुपकर उसके जाने का इंतज़ार करने लगा. जैसे ही कंजूस आदमी गया, वह गड्ढे के पास पहुँचा और उसमें से सोना निकालकर भाग गया.

अगले दिन जब कंजूस आदमी खेत में गड्ढे के पास पहुँचा, तो सारा सोना नदारत पाकर रोने-पीटने लगा. उसके रोने की आवाज़ वहाँ से गुजरते एक राहगीर के कानों में पड़ी, तो वह रुक गया.

उसने कंजूस आदमी से रोने का कारण पूछा, तो कंजूस आदमी बोला, “मैं लुट गया. बर्बाद हो गया. कोई मेरा सारा सोना लेकर भाग गया. अब मैं क्या करूंगा?”

“सोना? किसने चुराया? कब चुराया?” राहगीर आश्चर्य में पड़ गया.

“पता नहीं चोर ने कब इस गड्ढे को खोदा और सारा सोना लेकर नौ दो ग्यारह हो गया. मैं जब यहाँ पहुँचा, तो सारा सोना गायब था.” कंजूस आदमी बिलखते हुए बोला.

“गड्ढे से सोना ले गया? तुम अपना सोना यहाँ इस गड्ढे में क्यों रखते हो? अपने घर पर क्यों नहीं रखते? वहाँ ज़रूरत पड़ने पर तुम उसका आसानी से उपयोग कर सकते हो.” राहगीर बोला.

“मैं अपने सोने को कभी हाथ नहीं लगाता. मैं उसे सहेजकर रखता हूँ और हमेशा रखता, यदि वो चोर उसे चुराकर नहीं ले जाता.” कंजूस आदमी बोला.

यह बात सुनकर राहगीर ने जमीन से कुछ कंकड़ उठाये और उसे उस गड्ढे में डालकर बोला, “यदि ऐसी बात है, तो इन कंकडों को गड्ढे में डालकर गड्ढे को मिट्टी ढक दो और कल्पना करो कि यही तुम्हारा सोना है, क्योंकि इनमें और तुम्हारे सोने में कोई अंतर नहीं है. ये भी किसी काम के नहीं और तुम्हारा सोना भी किसी काम का नहीं था. उस सोने का तुमने कभी कोई उपयोग ही नहीं किया, न ही करने वाले थे. उसका होना न होना बराबर था.”

सीख 

जिस धन का कोई उपयोग न हो, उसकी कोई मोल नहीं.

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हाथी और चूहा की कहानी

एक राज्य में एक राजा का शासन था। हर सप्ताह पूरी शानो-शौकत से नगर में उसका जुलूस निकला करता था, जहाँ प्रजा उसके दर्शन किया करती थी।

एक दिन एक नन्हा चूहा उसी राजमार्ग के किनारे-किनारे कहीं जा रहा था, जहाँ राजा का जुलूस निकलने वाला था। वह चूहा था तो छोटा सा, मगर उसका घमंड बहुत बड़ा था और वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ और महान समझता था।

कुछ देर बाद राजमार्ग से राजा का भव्य जुलूस निकला, जिसे देखने लोगों की भीड़ लगने लगी। राजा अपने पूरे दल-बल के साथ था। उसके सैनिक उसे घेरे हुए थे। कई मंत्री और अनुचर उसके पीछे थे। वह एक विशाल शाही हाथी पर सवार था। हाथी शाही था। इसलिए उसे भव्यता से सजाया गया था और उसकी शान भी देखते बनते थी। जुलूस में हाथी के साथ एक शाही बिल्ली और एक कुत्ता भी थे।

राजा का जुलूस देखने को उमड़ी भीड़ राजा के साथ-साथ उसके शाही हाथी की भी प्रशंसा कर रहे थी। यह सुनकर घमंडी चूहे को बहुत बुरा लगा।

वह हाथी को गौर से देखने लगा, फिर सोचने लगा – ‘इसमें ऐसी क्या ख़ास बात है, जो मुझमें नहीं। मैं भी उस जैसा ही हूँ। मेरे पास भी दो आँखें, दो कान, एक नाक और चार पैर हैं। फिर उसकी इतनी प्रसंशा क्यों? उसके विशाल शरीर के कारण, लंबी सूंड के कारण, छोटी-छोटी आँखों के कारण या झुर्रीदार चमड़ी के कारण। किस कारण? एक बार तुम लोग मुझे देख लो, उस हाथी को भूल जाओगे। मैं हाथी से ज्यादा महान हूँ।‘

चूहा ये सब सोच ही रहा था कि शाही बिल्ली की नज़र उस पर पड़ गई और उसकी लार टपक गई. जुलुस छोड़ वह उसकी ओर लपकी। फिर क्या था? चूहा अपनी सारी महानता भूलकर दुम दबाकर भागा। भागते-भागते वह हाथी के सामने आ गया। आगे बढ़ते हाथी ने उस पिद्दी से चूहे को देखा तक नहीं और अपना विशाल पैर उठा लिया। चूहा उसके पैर के नीचे कुचलने ही वाला था, मगर किसी तरह उसने ख़ुद को बचाया।

वहाँ से बचा, तो खतरनाक कुत्ता सामने था, जो उसे देखकर गुर्राया। चूहा पूरी जान लगाकर वहाँ से भागा और राजमार्ग के किनारे स्थित एक छेद में घुस गया। उसका सारा घमंड उतर चुका था। उसे समझ आ चुका था कि वह इतना भी श्रेष्ठ और महान नहीं।

सीख

किसी से मात्र रूप रंग की समानता हमें महान नहीं बनाती। महान हमारे गुण और कार्य बनाते हैं।

एन्ड्रोक्लीज़ और शेर की कहानी

एन्ड्रोक्लीज़ नामक एक व्यक्ति रोम के सम्राट का गुलाम था. एक दिन वह स्वयं पर होने वाले जुल्मों से तंग आकर महल से भाग गया और जंगल में जाकर छुप गया.

जंगल में उसका सामना एक शेर से हुआ, जो घायल अवस्था में था और  बार-बार अपना पंजा उठा रहा था.

पहले तो एन्ड्रोक्लीज़ डरा, लेकिन फिर सहृदयता दिखाते हुए वह शेर के पास गया. शेर के पंजे में कांटा चुभा हुआ था. उसने कांटा निकाला और कुछ दिनों तक घायल शेर की देखभाल की.

एन्ड्रोक्लीज़ की देखभाल से शेर ठीक हो गया. आभार में वह एन्ड्रोक्लीज़ का हाथ चाटने लगा. फिर चुपचाप अपनी गुफ़ा में चला गया.

इधर सम्राट के सैनिक एन्ड्रोक्लीज़ को ढूंढ रहे थे. आखिर, एक दिन वह पकड़ा गया. उसे सम्राट के सामने पेश किया गया. सम्राट बहुत नाराज़ था. उसने एन्ड्रोक्लीज़ को भूखे शेर के सामने फेंक देने का आदेश दिया.

जिस दिन एन्ड्रोक्लीज़ को शेर के सामने फेंका जाना था, उस दिन एक मैदान में रोम की सारी जनता इकट्ठा हुई. सबके सामने एन्ड्रोक्लीज़ को भूखे शेर के पिंजरे में फेंक दिया गया. एन्ड्रोक्लीज़ डरा हुआ था. उसे मौत सामने दिख रही थी. वह ईश्वर को याद करने लगा.

शेर एन्ड्रोक्लीज़ की ओर बढ़ा. एन्ड्रोक्लीज़ पसीने-पसीने हो गया. शेर एन्ड्रोक्लीज़ के पास आया. डर के मारे एन्ड्रोक्लीज़ ने अपनी आँखें बंद कर ली. लेकिन यह क्या? एन्ड्रोक्लीज़ को मारने के स्थान पर शेर उसका हाथ चाटने लगा. सम्राट हैरान था, सारी जनता हैरान थी और एन्ड्रोक्लीज़ भी.

अंततः, एन्ड्रोक्लीज़ समझ गया कि हो न हो, ये वही शेर है, जिसकी घायल अवस्था में उसने देखभाल की थी. वह एन्ड्रोक्लीज़ को पहचान गया था. वह भी शेर को पुचकारने लगा और उसकी पीठ पर हाथ फ़ेरने लगा.

यह देख सम्राट ने सैनिकों को एन्ड्रोक्लीज़ को पिंजरे से बाहर निकालने का आदेश दिया. उसने एन्ड्रोक्लीज़ से पूछा, “तुमने ऐसा क्या किया कि शेर तुम्हें मारने के स्थान पर तुम्हारा हाथ चाटने लगा.”

एन्ड्रोक्लीज़ ने उसे जंगल की घटना सुना दी और बोला, “महाराज, जब शेर घायल था, तब मैंने कुछ दिनों तक ही इसकी देखभाल की थी. इस उपकार के कारण इसने मुझे नहीं मारा. लेकिन, आपकी सेवा तो मैंने बरसों की है. इसके बावजूद आप मेरी जान ले रहे हैं.”

सम्राट का दिल पसीज़ गया. उसने एन्ड्रोक्लीज़ को आज़ाद कर दिया और शेर को भी जंगल में छुड़वा दिया.

सीख 

  1. सबके प्रति सहृदयता का भाव रखो, फिर चाहे वो मनुष्य हो या पशु.
  2. जो आप पर उपकार करें, उसके प्रति सदा कृतज्ञ रहो.

सूअर और भेड़ की कहानी

रोज़ की तरह एक चरवाहा अपनी भेड़ों को घास के मैदान में चरा रहा था. तभी कहीं से एक मोटा सूअर वहाँ आ गया. जब चरवाहे की नज़र सूअर पर पड़ी, तो उसने उसे पकड़ लिया.

जैसे ही चरवाहे ने सूअर को पकड़ा, वो तेज आवाज़ में चीखने लगा और ख़ुद को छुड़ाने का प्रयास करने लगा. लेकिन चरवाहे की पकड़ मजबूत थी. उसने सूअर के सामने और पीछे के दोनों पैर रस्सी से बांध दिए और उसे अपने कंधे पर लटकाकर कसाई के पास जाने लगा.

सूअर ज़ोर-ज़ोर से चीख रहा था और चरवाहा चला जा रहा था. मैदान में चर रही भेड़ें सूअर के इस व्यवहार पर बहुत चकित थीं. उनमें से एक भेड़ कुछ दूर तक चरवाहे के पीछे-पीछे गई और सूअर से बोली, “इस तरह चीखते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती? चरवाहा रोज़ हममें से एक भेड़ को पकड़कर ले जाता है, लेकिन हम तो यूं नहीं चीखते. तुम तो बेकार में इतना उत्पात मचा रहे हो. शर्म करो.”

भेड़ की बात पर सूअर को बहुत गुस्सा आया. वह और जोर से चीखते हुए बोला, “चुप रहो! चरवाहा जब तुम लोगों को पकड़कर ले जाता है, तो उसे बस तुम्हारा ऊन चाहिए होता है. लेकिन उसे मेरा मांस चाहिए. जब तुम्हारी जान पर बनेगी, तब बहादुरी दिखाना.”

सीख 

जब ख़ुद की जान पर कोई ख़तरा नहीं होता, तब बड़ी-बड़ी बातें करना और बहादुरी दिखाना बहुत आसान होता है.

दो घड़ों की कहानी

नदी किनारे एक छोटा सा गाँव बसा हुआ था. नदी गाँव के लोगों के लिए पानी का प्रमुख श्रोत थी. लेकिन जब बरसात के मौसम आया और गाँव में कई दिनों तक घनघोर बारिश हुई, तो नदी में बाढ़ गई. बाढ़ का पानी पूरे गाँव में भर गया. मकान पानी में डूब गए, लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भागना पड़ा. 

बाढ़ के पानी में लोगों के घरों की कई चीज़ें बहने लगी. उनमें दो घड़े भी थे. एक पीतल का घड़ा था और एक मिट्टी का. दोनों ही घड़े पानी में ख़ुद को बचाने का प्रयत्न कर रहे थे. पीतल के कठोर और मजबूत घड़े ने जब मिट्टी के कमज़ोर घड़े को संघर्ष करते देखा, तो सोचने लगा कि मिट्टी का ये कमज़ोर घड़ा आखिर कब तक ख़ुद को डूबने से बचा पायेगा? मुझे इसकी सहायता करनी चाहिए.

उसने मिट्टी के घड़े से कहा, “मित्र सुनो, तुम मिट्टी के बने हुए हो और बहुत कमज़ोर हो. बाढ़ के इस पानी में तुम अधिक दूर तक नहीं जा पाओगे और डूब जाओगे. मेरी बात मानो और मेरे साथ रहो. मैं तुम्हें डूबने से बचा लूंगा.”

मिट्टी के घड़े ने पीतल के घड़े को देखा और उत्तर दिया, “मित्र! तुम्हारी सहायता के प्रस्ताव के लिए धन्यवाद. लेकिन मेरा तुम्हारे आस-पास रहना मेरे सलामती के लिए उचित नहीं है. तुम ठहरे पीतल के बने घड़े और मैं मिट्टी का घड़ा. तुम बहुत कठोर और मजबूत हो. अगर तुम मुझसे टकरा गए, तो मैं तो चकनाचूर हो जाऊंगा. इसलिए तुमसे दूर रहने में ही मेरी भलाई है. मैं स्वयं ही ख़ुद को बचाने का प्रयास करता हूँ. भगवान ने चाहा, तो किसी तरह किनारे तक पहुँच ही जाऊँगा.”

इतना कहने के बाद मिट्टी का घड़ा दूसरी दिशा में बहने का प्रयत्न करने लगा और धीरे-धीरे पानी के बहाव के साथ नदी किनारे पहुँच गया. वहीं दूसरी ओर पीतल का भारी घड़ा भी प्रयत्न करता रहा, लेकिन नदी के पानी के तेज बहाव में ख़ुद को संभाल नहीं पाया. उसमें पानी भर गया और वह डूब गया.

सीख

विपरीत गुणों की अपेक्षा एक समान गुण वाले अच्छी मित्रता कायम कर पाते हैं.

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लोमड़ी और सारस की कहानी

एक जंगल में एक चालाक लोमड़ी रहती थी. उसे दूसरे जानवरों को मूर्ख बनाने में बड़ा आनंद प्राप्त होता था. वह आये-दिन कोई न कोई युक्ति सोचती और किसी न किसी जानवर को उसमें फंसाकर मज़े लिया करती थी. जंगल के सारे जानवर उसका स्वभाव समझ चुके थे. इसलिए उससे कन्नी काटने लगे थे.

एक दिन एक सारस जंगल में आया और नदी किनारे रहने लगा. लोमड़ी के नज़र जब सारस पर पड़ी, तो वह सोचने लगी – जंगल के दूसरे जानवर तो मुझसे कन्नी काटने लगे हैं. ये सारस जंगल में नया आया प्रतीत होता है. क्यों न इसे मूर्ख बनाकर मज़े लूं?

वह सारस के पास गई और बोली, “मित्र! इस जंगल में नये आये मालूम पड़ते हो. तुम्हारा स्वागत है.”

“सही पहचाना मित्र. मुझे यहाँ आये अभी कुछ ही दिन हुए हैं. मैं यहाँ किसी से परिचित भी नहीं हूँ. तुमने मेरा स्वागत किया, इसलिए तुम्हारा धन्यवाद.” सारस ने उत्तर दिया.

लोमड़ी ने सारस के समक्ष मित्रता का प्रस्ताव रखा. सारस का उस जंगल में कोई मित्र नहीं था. उसने लोमड़ी की मित्रता स्वीकार कर ली. लोमड़ी ने उससे मीठी-मीठी बातें की और वापस जाते-जाते अपने घर भोज के लिए आमंत्रित कर गया.

नियत दिन को उपहार लेकर सारस लोमड़ी के घर पहुँचा. लोमड़ी उसका स्वागत करते हुए बोली, “आओ मित्र! आज मैंने तुम्हारे लिए स्वादिष्ट खीर तैयार की है.”

अंदर बुलाकर उसने दो तश्तरियां लगाई और उसमें खीर परोस दी. लंबी चोंच वाले सारस ने तश्तरी से खीर खाने का प्रयास किया, लेकिन खा नहीं पाया. उधर लोमड़ी झटपट तश्तरी में से खीर चाट गई.

अपनी तश्तरी में से खीर ख़त्म करने के बाद वह सारस से बोली, “खीर तो बहुत स्वादिष्ट है मित्र. लेकिन तुम खा क्यों नहीं रहे हो?”

सारस संकोचवश बस इतना ही कह पाया, “आज मेरे पेट में दर्द है मित्र. इसलिए मैं ये स्वादिष्ट खीर खा नहीं पाया. लेकिन भोज के लिए तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद.”

सारस अपमान का घूंट पीकर वहाँ से चला आया. उधर लोमड़ी सारस को मूर्ख बनाकर बहुत खुश हुई.

कुछ दिनों बाद सारस ने लोमड़ी को भोज पर आमंत्रित किया. नियत दिन को लोमड़ी बिना कोई उपहार लिए ही सारस के घर पहुँच गई. सारस के उसे अंदर बुलाया और बोला, “मित्र! मैंने भी भोज में खीर बनाया है. आशा है तुम्हें उसका स्वाद पसंद आएगा.”

खीर सुनकर लोमड़ी के मुँह में पानी आ गया और वह खीर परोसने की प्रतीक्षा करने लगी. कुछ देर में सारस ने सुराही में खीर भरकर परोस दी. सुराही में खीर देखकर लोमड़ी का मुँह उतर गया. उसके लिए सुराही से खीर खा पाना असंभव था. वह चुपचाप सारस का मुँह देखने लगी, जो अपनी लंबी चोंच से झटपट सुराही में रखा खीर पी गया.

खीर ख़त्म कर सारस बोला, “क्या बात है मित्र? तुम खा क्यों नहीं रहे हो? क्या तुम्हें खीर पसंद नहीं?”

लोमड़ी समझ गई कि सारस ने उससे अपने अपमान का बदला लिया है. वह खिसियाते हुए बोली, “नहीं मित्र! वो क्या है कि आज मेरे पेट में दर्द है.” और वहाँ से भाग खड़ी हुई.

सीख 

इस कहानी से सीख मिलती है कि जैसा करोगे, वैसा भरोगे. जैसे को तैसा.   

भेड़िया और शेर की कहानी

जंगल किनारे स्थित चारागाह में भेड़िये की कई दिनों से नज़र थी। वहाँ चरती भेड़ों को देखकर उसके मुँह से लार टपकने लगती और वह अवसर पाकर उन्हें चुराने की फ़िराक़ में था।

एक दिन उसे यह अवसर मिल ही गया। वह चुपचाप चारागाह में चरते एक मेमने को उठा लाया। खुशी-खुशी वह जंगल की ओर भागा जा रहा था और मेमने के स्वादिष्ट मांस के स्वाद की कल्पना कर रहा था।

तभी एक शेर उसके रास्ते में आ गया। शेर भी भोजन की तलाश में निकला था। भेड़िये को मेमना लेकर आता देख उसने उसका रास्ता रोका और इसके मुँह में दबा मेमना छीनकर जाने लगा।

भेड़िया पीछे से चिल्लाया, “ये तो गलत बात है। ये मेरा मेमना था। इसे तुम इस तरह छीन कर नहीं ले जा सकते।”

भेड़िये की बात सुनकर शेर पलटा और बोला, “तुम्हारा मेमना! क्यों क्या चरवाहे ने इसे तुम्हें उपहार में दिया था? तुम खुद इसे चरागाह से चुराकर लाये हो, तो इस पर अधिकार कैसे जता सकते हो? फिर भी यदि यह चारागाह से चुराने के बाद यह तुम्हारा मेमना बन गया था, तो तुमसे छीन लेने के बाद अब ये मेरा मेमना बन गया है। मुझसे छीन सकते हो, तो छीन लो।”

भेड़िया जानता था कि शेर से पंगा लेना जान से हाथ गंवाना हैं। इसलिए वह अपना सा मुँह लेकर वहाँ से चला गया।

सीख

गलत तरीके से प्राप्त की गई वस्तु उसी तरीके से हाथ से निकल जाती है।

साही और सांप की कहानी

एक साही अपने रहने के लिए स्थान की खोज में भटक रहा था। दिन भर भटकने के बाद उसे एक गुफा दिखाई पड़ी। उसने सोचा – ‘ये गुफा रहने के लिए अच्छी जगह है।‘

वह गुफा के द्वार पर पहुँचा, तो देखा कि वहाँ सांपों का परिवार रहता है।

साही ने उन सबका अभिवादन किया और निवेदन करते हुए बोला, “भाइयों! मैं बेघर हूँ। कृपा करके मुझे इस गुफा में रहने के लिए थोड़ी सी जगह दे दो। मैं सदा आपका आभारी रहूंगा।”

सांपों को साही पर दया आ गई और उन्होंने उसका निवेदन स्वीकार कर उसे गुफा के अंदर आने की अनुमति दे दी। लेकिन उसके गुफा में घुसने के बाद उन्होंने महसूस किया कि उसे अंदर बुलाकर और रहने कि जगह देकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती कर दी, क्योंकि साही के शरीर के कांटे उन्हें गड़ रहे थे और उनकी त्वचा ज़ख्मी हो रही थी।

उन्होंने साही से कहा, “तुम्हारे शरीर के कांटे हमें गड़ रहे हैं। इसलिए तुम यहाँ से जाओ और कोई दूसरी जगह खोजो।”

साही तब तक आराम से गुफा में पसर चुका था। बोला, “भई मुझे तो ये जगह बहुत पसंद है। मैं तो कहीं नहीं जाने वाला। जिसे समस्या है, वो जाये यहाँ से।”

अपनी त्वचा को साही के शरीर के कांटों से बचाने के लिए आखिरकार सांपों को वह गुफा छोड़कर जाना पड़ा। सांपों के जाने के बाद साही ने वहाँ पूरी तरह कब्जा जमा लिया।

सीख 

कई बार हम उंगली देते हैं और सामने वाला हाथ पकड़ लेता है। इसलिए किसी की मदद करने के पहले अच्छी तरह सोच-विचार कर लेना चाहिए।

अबाबील और कौवे की कहानी

जंगल में एक ऊँचे पेड़ पर एक अबाबील पक्षी रहता था. उसके पंख रंग-बिरंगे और सुंदर थे, जिस पर उसे बड़ा घमंड था. वह ख़ुद को दुनिया का सबसे सुंदर पक्षी समझता था. इस कारण हमेशा दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश करता रहता था.

एक दिन कहीं से एक काला कौवा आकर उस पेड़ की एक डाली पर बैठ गया, जहाँ अबाबील रहता था. अबाबील ने जैसे ही कौवे को देखा, तो अपनी नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहने लगा, “सुनो! तुम कितने बदसूरत हो. पूरे के पूरे काले. तुम्हारे किसी भी पंख में कोई रंग नहीं है. मुझे देखो, मेरे रंग-बिरंगे पंखों को देखो. मैं कितना सुंदर हूँ.”

कौवे ने जब अबाबील की बात सुनी, तो बोला, “कह तो तुम ठीक रहे हो. मेरे पंख काले हैं, तुम्हारे पंखों जैसे रंग-बिरंगे नहीं. लेकिन ये मुझे उड़ने में मदद करते हैं.”

“वो तो मुझे भी करते हैं. देखो.” कहते हुए अबालील उड़कर कौवे के पास जा पहुँचा और अपने पंख पसारकर बैठ गया. उसके रंग-बिरंगे और सुंदर पंखों को देखकर कौवा मंत्र-मुग्ध हो गया.

“मान लो कि मेरे पंख तुमसे बेहतर हैं.” अबाबील बोला.

“वाकई तुम्हारे पंख दिखने में मेरे पंखों से कहीं अधिक सुंदर हैं. लेकिन मेरे पंख ज्यादा बेहतर है क्योंकि ये हर मौसम में मेरे साथ रहते हैं और इनके कारण मौसम चाहे कैसा भी हो, मैं हमेशा उड़ पाता हूँ. लेकिन तुम ठंड के मौसम में उड़ नहीं पाते, क्योंकि तुम्हारे पंख झड़ जाते हैं. मेरे पंख जैसे भी हैं, वो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ते.” कौवा बोला.

कौवे की बात सुनकर अबाबील का घमंड चूर-चूर हो गया.

सीख 

दोस्ती करें, तो सीरत देखकर करें न कि सूरत देखकर, क्योंकि अच्छी सीरत का दोस्त अच्छे-बुरे हर वक़्त पर आपके साथ रहेगा और आपका साथ देगा. वहीं मौका-परस्त दोस्त अपना मतलब साधकर बुरे वक़्त में आपको छोड़कर चला जायेगा.

पेड़ों और शेरों की कहानी

एक गाँव के किनारे एक हरा-भरा जंगल था। उस जंगल में हजारों पेड़ थे। उनमें से दो पेड़ गहरे दोस्त थे, जो एक दूसरे के अगल-बगल उगे थे।

उस जंगल में कई शेर भी रहा करते थे। वे अन्य छोटे जंगली जानवरों का शिकार करते, उन्हें पेट भरते तक खाते और बचा हुआ मांस यूं ही छोड़कर चले जाते। सड़े हुए मांस के कारण जंगल में काफ़ी बदबू फैलती थी और जंगल की हवा प्रदूषित होती थी।

एक दिन दोनों पेड़ इसी विषय पर चर्चा कर रहे थे।

एक पेड़ बोला, “इन शेरों के कारण पूरे जंगल की हवा प्रदूषित हो गई है। यहाँ हर समय कितनी बदबू फैली रहती है। इन शेरों को तो खदेड़ कर जंगल से बाहर कर देना चाहिए।”

दूसरे पेड़ ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, “बिल्कुल सही कहा दोस्त! हम सब इन शेरों से परेशान है। इन्हें भगाने के लिए हमें कुछ करना चाहिए।”

दोनों पेड़ों की बातें एक बूढ़ा और बुद्धिमान पेड़ सुन रहा था। वह कहने लगा, “तुम दोनों की बातें मूर्खतापूर्ण है। ये तो सोचो कि इन शेरों के कारण हम सुरक्षित है। इनके डर से कोई लकड़हारा इस जंगल में लकड़ियाँ काटने नहीं आता। शेर चले गए, तो हम भी कुछ दिनों के मेहमान होंगे।”

बूढ़े पेड़ कि सलाह पर दोनों पेड़ों ने कोई ध्यान नहीं दिया। वे बस किसी तरह शेरों को जंगल से भागना चाहते थे। उन्होंने सोचा कि क्यों न किसी तरह शेरों को डराया जाये, ताकि वे जंगल छोड़कर भाग जायें।

उसके बाद आपस में सलाह करके दोनों तेज आवाज के साथ अपने स्थान में हिलने लगे। उन्हें हवा का भी साथ मिला। उनकी शाखायें ज़ोर-ज़ोर से हिल रही थीं। जंगल के जानवरों ने जब ये देखा, तो डर गये। उन्हें लगा कि ज़रूर जंगल में कुछ होने वाला है और इन दो पेड़ों का इस तरह हिलना इसी का संकेत है। वे सब जंगल छोड़कर जाने लगे। शेरों ने भी जंगल छोड़ दिया।

ये देखकर दोनों पेड़ बहुत खुश हुए और कहने लगे कि अब जंगल में शुद्ध हवा बहेगी और हम शुद्ध वातावरण में रहेंगे।

बुद्धिमान बूढ़े पेड़ ने लगा, “अब हम सबका अंत आने वाला है।”

दोनों पेड़ों ने बूढ़े पेड़ की बात हँसी में उड़ा दी और अपने मजे में लगे रहे। वे खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। लेकिन उनकी खुशी कुछ दिनों तक ही रही।

जैसे ही गाँव में बात फैली कि शेर जंगल छोड़कर चले गए हैं, कुछ लकड़हारे कुल्हाड़ी लेकर जंगल पहुँच गये। अब उन्हें शेरों का कोई डर नहीं था। वे बिना किसी डर के पेड़ों को काटने लगे।

ये देख दोनों पेड़ बहुत डर गए और सोचने लगे कि उन्हें बूढ़े पेड़ की बात मान लेनी चाहिए थी। मगर अब वे कुछ नहीं कर सकते थे। कुछ दिनों बाद उनकी बारी भी आ गई और वे काट दिए गये।

सीख 

  1. बिना सोचे-समझे कोई कार्य नहीं करना चाहिए। किसी भी कार्य को करने के पूर्व परिणाम के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए।
  2. यदि कोई बुद्धिमान परामर्श दे, तो उसे ध्यान से सुनकर उस पर गहनता से विचार करना चाहिए।

लोभी राजा मिदास की कहानी सुनहरा स्पर्श

कई वर्षों पहले एक राज्य में मिदास नामक एक लोभी राजा राज करता था. उसकी एक बहुत ही सुंदर पुत्री थी, जिसका नाम ‘मेरीगोल्ड’ था.

मिदास अपनी पुत्री से बहुत प्रेम करता था, किंतु उससे कहीं अधिक उसे सोने से प्रेम था. उसका ख़जाने में सोने का भंडार था. उतना सोना दुनिया में किसी भी राजा के ख़जाने में नहीं था. इसके बाद भी खजाने में जितना सोना बढ़ता, राजा मिदास की लालसा उतनी ही बढ़ती जाती थी. उसके दिन का अधिकांश समय खजाने में रखे सोने को गिनने में निकल जाता था. सोने के लालसा में अक्सर वह अपनी पुत्री को अनदेखा कर देता था.

दिन पर दिन उसकी सोने की ललक बढ़ती जा रहे थी. और अधिक सोना प्राप्त करने के उद्देश्य से उसने एक बार अन्न-जल त्याग कर ईश्वर की कठोर उपासना की. उसकी उपासना से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उसे दर्शन दिये और मनचाहा वरदान मांगने को कहा.

मिदास बोला, ”हे ईश्वर! मुझे वरदान दीजिये कि मैं जिस भी वस्तु हो छुऊं, वह सोने की बन जाये.”

ईश्वर मिदास की लालसा समझ रहे थे. वरदान देने के पूर्व उन्होंने पूछा, “राजन! क्या यह वरदान मांगने के पूर्व तुमने अच्छी तरह विचार कर लिया है.”

“हे ईश्वर! मैं इस विश्व का सबसे धनी राजा बनना चाहता हूँ. मैंने अच्छी तरह सोच लिया है. मुझे यही वरदान चाहिए. कृपया मुझे वरदान प्रदान कीजिये.” मिदास ने उत्तर दिया.

“तथास्तु! मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि कल सूर्य की पहली किरण के साथ तुम जिस भी वस्तु को छुओगे, वह सोने की बन जायेगी.” आशीर्वाद देने के उपरांत ईश्वर अंतर्ध्यान हो गए.

राजा मिदास यह वरदान पाकर खुशी से फूला नहीं समाया. दूसरे दिन सोकर उठने के उपरांत अपनी शक्ति परखने के लिए उसने अपने पलंग को छूकर देखा. वह पलंग सोने का बन गया. मिदास बहुत खुश हुआ. दिन भर वह सुध-बुध खोकर अपने महल की हर चीज़ को सोने में परिवर्तित करने में लगा रहा. उसे भोजन तक का होश न रहा.

शाम तक वह थककर चूर हो चुका था. उसे जोरों की भूख लग आई थी. उसने अपने सेवकों को भोजन परोसने के लिये कहा. भोजन परोसा गया. किंतु यह क्या? जैसे ही उसने भोजन को हाथ लगाया, वह सोने में परिवर्तित हो गया. अब सोने को तो खाया नहीं जा सकता था. भूख से बेहाल राजा मिदास ने फल खाकर भूख मितानी चाही. किंतु उसके छूते ही वह भी सोने में परिवर्तित हो गया. वह गुस्से से तिलमिला उठा और उठकर बाहर चला आया.

बाहर टहलते हुए वह अपने महल के उद्यान में पहुँचा. वहाँ उसने देखा कि उसकी नन्ही पुत्री ‘मेरीगोल्ड’ खेल रही है. उसका सुंदर मुख देख राजा के मन में प्रेम उमड़ आया. कुछ क्षणों के लिए वह अपनी भूख भूल गया. जब ‘मेरीगोल्ड’ ने अपने पिता को देखा, तो वह उसके पास दौड़ी चली आई और प्रेमपूर्वक उससे लिपट गई. राजा मिदास ने प्जैरेम जताते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा और तुरंत ही वह सोने में परिवर्तित हो गई. अपनी नन्ही पुत्री को सोने का बना देख वह दु:खी हो गया और रोने लगा.

उसने फिर से ईश्वर से प्रार्थना की. प्रार्थना सुनकर ईश्वर प्रकट हुए और उससे पूछा, “राजन! क्या हुआ? अब तुम्हें क्या वरदान चाहिए?”

मिदास रो-रोकर कहने लगा, “हे ईश्वर! मुझे क्षमा करें. सोने की लालसा में मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी और मैं यह वरदान मांग बैठा था. किंतु अपनी पुत्री को खोने के बाद अब मेरी आँखें खुल गई है. मुझे समझ आ गया है कि हर वस्तु अमूल्य है और उन सबमें सबसे अमूल्य है मेरी पुत्री. भगवन, कृपया यह वरदान वापस ले लें और मुझे मेरी पुत्री लौटा दें. अब मैं सोने की लालसा त्याग दूंगा और अपना कोषागार निर्धनों और ज़रूरतमंदों के लिए खोल दूंगा.”

ईश्वर ने जब उसके पछतावे के आँसू देखे, तो अपना वरदान वापस ले लिया. दूसरे दिन सूर्य की पहली किरण के साथ सारी वस्तुएं अपने वास्तविक रूप में आने लगी. राजा मिदास की पुत्री भी अपने वास्तविक स्वरुप में आ गई. उसने  ने अपने वचन के अनुसार अपना कोषागार निर्धनों और ज़रूरतमंदों के लिए खोल दिया. उसका लोभ ख़त्म हो चुका था. वह एक संतुष्ट जीवन व्यतीत करने लगा.

सीख 

1..धन महत्वपूर्ण अवश्य है, किंतु सर्वस्व नहीं. प्रेम, ख़ुशी, संतुष्टि कभी भी धन से खरीदी नहीं जा सकती.

2. लोभ का परिणाम बुरा होता है.

नन्ही चिड़िया की कहानी

एक समय की बात है. एक घना जंगल था, जिसमें हर तरह के छोटे-बड़े जानवरों और पक्षियों का बसेरा था. उसी जंगल के एक पेड़ पर घोंसला बनाकर एक नन्हीं चिड़िया भी रहा करती थी.

एक दिन उस जंगल में भीषण आग गई. समस्त प्राणियों में हा-हाकार मच गया. सब अपनी जान बचाकर भागने लगे. नन्हीं चिड़िया जिस पेड़ पर रहा करती थी, वह भी आग की चपेट में आ गया था. उसे भी अपना घोंसला छोड़ना पड़ा.

लेकिन वह जंगल की आग देखकर घबराई नहीं. वह तुरंत नदी के पास गई और अपनी चोंच में पानी भरकर जंगल की ओर लौटी. चोंच में भरा पानी आग में पानी छिड़ककर वह फिर नदी की ओर गई. इस तरह नदी से अपनी चोंच में पानी भरकर बार-बार वह जंगल की आग में डालने लगी.

जब बाकी जानवरों ने उसे ऐसा करते देखा, तो हँसने लगे और बोले, “अरे चिड़िया रानी, ये क्या कर रही हो? चोंच भर पानी से जंगल की आग बुझा रही हो. मूर्खता छोड़ो और प्राण बचाकर भागो. जंगल की आग ऐसे नहीं बुझेगी.”

उनकी बातें सुनकर नन्हीं चिड़िया बोली, “तुम लोगों को भागना है, तो भागो. मैं नहीं भागूंगी. ये जंगल मेरा घर है और मैं अपने घर की रक्षा के लिए अपना पूरा प्रयास करूंगी. फिर कोई मेरा साथ दे न दे.”

चिड़िया की बात सुनकर सभी जानवरों के सिर शर्म से झुक गए. उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ. सबने नन्हीं चिड़िया से क्षमा मांगी और फिर उसके साथ जंगल में लगी आग बुझाने के प्रयास में जुट गए. अंततः उनकी मेहनत रंग लाई और जंगल में लगी आग बुझ गई.

सीख 

विपत्ति चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो? बिना प्रयास के कभी हार नहीं मानना चाहिए.

बूढ़ा शिकारी कुत्ता की कहानी

एक शिकारी के पास कई शिकारी कुत्ते थे। उसने सबको अच्छी ट्रेनिंग दी थी। सब गज़ब के फुर्तीले और शिकार पकड़ने में माहिर थे।

शिकारी के पास एक बूढ़ा शिकारी कुत्ता भी था। किसी जमाने में वह बड़ा तेज़ तर्रार और फुर्तीला था। शिकारी के लिए उसने कई शिकार पकड़े थे। लेकिन उम्र की मार से अब वह कमजोर हो चला था। उसमें अब पहले जैसी फुर्ती नहीं रह गई थी। लेकिन शिकारी अब भी उसे शिकार पर ले जाता और बूढ़ा कुत्ता अब भी पूरा दम खम लगाकर शिकार पकड़ता।

एक दिन शिकारी अपने सारे कुत्तों को लेकर जंगल में शिकार करने गया। वहां एक हिरण के पीछे सारे कुत्ते लग गए। हिरण जान बचाने के लिए तेज़ी से भागने लगा। कुछ देर में सारे कुत्ते पिछड़ गए और हिरण के पीछे भागना बंद कर दिया। लेकिन बूढ़ा कुत्ता भागता रहा।

उसने हिरण के पास पहुंचकर अपनी दांत उसकी पीठ पर गड़ा दिए। मगर बूढ़े होने के कारण उसके कमज़ोर दांत टूट गए और हिरण उसकी चंगुल से निकल कर भाग गया।

ये देख शिकारी को बूढ़े कुत्ते बहुत गुस्सा आया। उसने उसे मारने के लिए हंटर उठाया। बूढ़ा कुत्ता कातर दृष्टि से उसे देखने लगा, मानो कह रहा हो – मुझ बूढ़े को मत मारो। मैं अपने काम में अब भी समर्पित हूं। मेरी इच्छा शक्ति अब भी मजबूत है। बस मेरा कमज़ोर बूढ़ा शरीर साथ नहीं दे पाया और शिकार मेरी पकड़ से निकल गया। मेरे जवानी के दिनों को याद करो… उस वक्त क्या था मैं और अपने बुढ़ापे को याद करो..”

शिकार का हाथ रुक गया। उसका हंटर एक ओर गिर गया। उसने बूढ़े कुत्ते की पीठ थपथपाई और सिर पर हाथ फेरकर कहा, “कोई बात नहीं मेरे प्यारे….”

सीख 

उम्रदराज और बुजुर्ग व्यक्तियों से व्यवहार करते समय उनकी जवानी के दिनो को याद करें, जो आपने उनके साथ गुजारे और अपने बुढ़ापे को याद कर लें।

किसान और साँप की कहानी

एक दिन एक किसान अपने पुत्र के साथ खेत में काम कर रहा था. अचानक उसके पुत्र का पांव एक साँप की पूंछ पर पड़ गया. पूंछ दबते ही साँप फुंकार उठा और उसने किसान के बेटे को डस लिया.

साँप विषैला था. उसके विष के प्रभाव से किसान का पुत्र तत्काल मर गया.

अपने सामने पुत्र की मृत्यु देख किसान क्रोधित हो गया और प्रतिशोध लेने के लिए उसने अपनी कुल्हाड़ी उठाई और साँप की पूंछ काट दी. साँप दर्द से छटपटाने लगा.

उसे भी अत्यधिक क्रोध आया और प्रतिशोध लेने की ठान कर वह किसान की गौशाला में घुस गया. वहाँ उसने मवेशिओं को डस लिया. सारे मवेशी मर गए.

इतना नुकसान देख किसान विचार करने लगा – “साँप से बैर के कारण मेरी अत्यधिक हानि हो चुकी है. अब इस बैर का अंत करना ही होगा. मुझे सर्प की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाना चाहिए.”

उसने एक कटोरे में दूध भरा और साँप के बिल के पास रख दिया. फिर कहने लगा, “हम दोनों ने एक-दूसरे का बहुत नुकसान कर लिया. अब इस बैर का अंत कर मित्रता कर लेते हैं. जो हुआ तुम भूल जाओ. मैं भी भूल जाता हूँ.”

साँप ने बिल के अंदर से ही उत्तर दिया, “दूध का कटोरा लेकर तुरंत यहाँ से चले जाओ. मेरे कारण तुमने अपना पुत्र खोया है, जो तुम कभी भूल नहीं पाओगे और तुम्हारे कारण मैंने अपनी पूंछ गंवाई है, जो मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा. इसलिए अब हमारे बीच मित्रता संभव नहीं है.”

सीख 

अपकार क्षमा तो किया जा सकता है, किंतु भुलाया नहीं जा सकता.

गंजा व्यक्ति और मक्खी की कहानी

गर्मी के दिन थे. दोपहर के समय एक गंजा व्यक्ति कहीं से पैदल चला आ रहा था. वह थक चुका था. इसलिए एक पेड़ के नीचे आराम करने बैठ गया.

वह पेड़ के नीचे बैठा सुस्ता रहा था कि कहीं से एक मक्खी उड़ती हुई आई और उसके गंजे सिर पर भिनभिनाने लगी. उसने उसे भगाया, तो वह उड़ गई. लेकिन कुछ देर बाद आकर फिर से भिनभिनाने लगी.

गंजा व्यक्ति परेशान होने लगा और यह देख मक्खी को मज़ा आने लगा. अब वह बार-बार उसके सिर पर भिनभिनाने लगी. मौका पाकर उसने उसे काट भी लिया.

मक्खी की इस हरक़त से गंजा व्यक्ति तंग आ गया और उसे मारने के लिए ज़ोर से पंजा मारा. मक्खी उड़ गई और वह पंजा उसे अपने ही सिर पर जा लगा.     

कुछ देर बाद मक्खी फिर से आ गई और काटने लगी. इस बार फिर से गंजे व्यक्ति ने उसे पंजा मारा, लेकिन वह फिर उड़ गई और उसे पंजे का वार अपने ही सिर पर पड़ा.

गंजा व्यक्ति समझ गया कि इस दुष्ट छोटी सी मक्खी पर वह जितना ध्यान देगा, वह उसे उतना ही परेशान करगी. इसलिए अगली बार जब वह आई, तो उसने उसे उड़ाने या भगाने का कोई प्रयास नहीं किया.  

जब मक्खी ने देखा कि गंजा व्यक्ति पर उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा, तो वह खुद ही उड़कर किसी और को सताने चली गई.

सीख 

दुष्ट तुच्छ शत्रु पर ध्यान देकर आप खुद का नुकसान करते हैं.

मूर्ख ज्योतिषी की कहानी

बहुत समय पहले की बात है. एक गाँव में एक ज्योतिषी रहा करता था. उसका विश्वास था कि वह तारों को देखकर भविष्य पढ़ सकता है. इसलिए वह सारी-सारी रात आसमान को ताकता रहता था. गाँव वालों के सामने भी वह अपनी इस विद्या के बारे में ढींगे हांका करता था.

एक शाम वह गाँव की कच्ची सड़क पर पैदल चलता हुआ अपने घर की ओर जा रहा है. उसकी नज़रें आसमान पर चमकते तारों पर जमी हुई थी. वह तारों को देखकर आने वाले समय में क्या छुपा है, यह पढ़ने की कोशिश कर रहा था. तभी अचानक उसका पैर कीचड़ से भरे एक गड्ढे पर पड़ा और वह गड्ढे में जा गिरा.

वह कीचड़ में लथपथ हो गया और किसी तरह गड्ढे से बाहर निकलने के लिए हाथ-पैर मारने लगा. लेकिन एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बाद भी वह गड्ढे से बाहर नहीं निकल पाया. सारी कोशिश बेकार जाती देख वह सहायता के लिए चिल्लाने लगा.

उसकी चिल्लाने की आवाज़ सुन कुछ लोग दौड़े चले आये. उन्होंने उसे गड्ढे में गिरे देखा, तो समझ गए कि आदतवश वह आसमान में तारों को देखकर भविष्य को समझने लगा हुआ होगा और सड़क का गड्ढा उसने नहीं देखा होगा.

उन्होंने उसे बाहर निकाला और बोले, “तुम आसमान में तारों को देखकर भविष्य पढ़ते रहते हो और तुम्हें यही नहीं पता कि तुम्हारे पैरों तले क्या है? भविष्य की तलाश में मत भटको, जो सामने है, उस पर ध्यान दो. भविष्य अपना ख्याल खुद ही रख लेगा.

सीख 

हमारा आज ही कल अर्थात् भविष्य का निर्माण करता है. इसलिए भविष्य की चिंता छोड़कर आज पर ध्यान केंद्रित कर कर्म करो. आज मन लगाकर कर्म करोगे, तो ये कर्म स्वतः भविष्य का निर्माण कर लेंगे.

उत्तरी हवा और सूर्य की कहानी

एक बार की सूर्य और उत्तरी हवा में बहस छिड़ गई. उत्तरी वायु घमंडी और ज़िद्दी प्रवृत्ति की थी. उसे अपनी शक्ति पर बड़ा अभिमान था. अक्सर वह प्रचंड वेग से बहती और पेड़ों को उखाड़ फेंकती, घरों को गिरा देती, खेतों में खड़ी फसल बर्बाद कर देती थी. उसमें उपस्थित आर्द्रता झीलों और नदियों के पानी को जमा देती थी.  

बहस करते हुए वह सूर्य से बोली, “मेरी शक्ति के सामने किसी का ज़ोर नहीं चलता. मैं दुनिया में सबसे ज्यादा शक्तिशाली हूँ. मेरे सामने सब तुच्छ हैं.”

सूर्य नम्रता से बोला, “मेरे विचार से हर किसी में शक्तियाँ भी होती हैं और कमजोरियाँ भी. इसलिए कोई ख़ुद के सबसे शक्तिशाली होने का दावा नहीं कर सकता. ख़ुद पर घमंड करना उचित नहीं है. हमें सबका सम्मान करना चाहिए और सबके साथ मिल-जुलकर रहना चाहिए.”

उत्तरी हवा तुनककर बोली, “मैं तुम्हारी बात नहीं मानती. मैं सबसे ज्यादा शक्तिशाली हूँ और ये मैं तुम्हें साबित करके दिखाऊंगी.”

“ऐसी बात है, तो अपनी ताकत साबित करने के लिए तैयार हो जाओ. नीचे देखो. धरती पर एक व्यक्ति दुशाला ओढ़े पैदल जा रहा था. तुम उसकी दुशाला उसके शरीर से हटा दो. मैं मान जाऊंगा कि तुम सबसे ज्यादा शक्तिशाली  हो.” सूर्य उत्तरी हवा को चुनौती देते हुए बोला.

“इसमें कौन सी बड़ी बात है? कुछ ही देर में उस आदमी की दुशाला धरती पर पड़ी होगी.” कहकर उत्तरी हवा अपने प्रचंड रूप में आ गई. धरती पर धूल भरी आंधी चलने लगी, पेड़-पौधे लहराने लगे, सूखे पत्ते व अन्य सामान उड़ने लगे, मौसम ठंडा होने लगा. पैदल जा रहे व्यक्ति की दुशाला भी हवा के वेग के कारण उड़ने लगी. लेकिन उसने उसे पकड़ लिया और अपने शरीर से कसकर लपेट लिया. उत्तरी हवा ने अपनी प्रचंडता और बढ़ाई, लेकिन उसके साथ ठंड भी बढ़ गई. व्यक्ति ने अपनी दुशाला और कसकर लपेट ली. बहुत प्रयासों के बाद भी उत्तरी हवा उसके शरीर से दुशाला हटा नहीं पाई.

तब सूर्य बोला, “अब तुम देखना कि कैसे ये व्यक्ति ख़ुद-ब-ख़ुद अपनी दुशाला उतार देगा.”

सूर्य ने अपना ताप बढ़ाना शुरू किया. तापमान बढ़ते ही धरती पर जा रहे व्यक्ति को गर्मी लगने लगे. वह पसीना-पसीना हो गया. फिर क्या? उसने खुद ही अपनी दुशाला उतार दी.

यह देखकर उत्तरी हवा बहुत शर्मिंदा हुई. अपने घमंड के कारण उसे सूर्य के सामने नीचा देखना पड़ा. उस दिन के बाद से उसने अपनी शक्ति पर कभी घमंड नहीं किया.

सीख 

घमंडी का सिर नीचा होता है.

बुद्धिमान तोता की कहानी

बहुत समय पहले की बात है. एक घने जंगल में एक तोता अपने दो बच्चों के साथ रहता है. उनका जीवन ख़ुशी-ख़ुशी बीत रहा था.

एक दिन जंगल से गुज़रते एक शिकारी की दृष्टि तोते के बच्चों की ख़ूबसूरत जोड़ी पर पड़ी. उसने सोचा कि राजा को देने के लिए ये तोते बहुत सुंदर उपहार है. वह उन तोतों को पकड़कर राजा के पास ले गया.

जब उसने वे तोते राजा को उपहार स्वरुप दिए, तो राजा बहुत ख़ुश हुआ और शिकारी को उसने सौ सोने के सिक्के ईनाम में दिए.

राजमहल में लाये जाने के बाद तोते सबके आकर्षण का केंद्र बन गए. उन्हें सोने के पिंजरे में रखवाया गया. हर समय सेवक उनके आगे-पीछे दौड़ते रहते. ना-ना प्रकार के ताज़े फ़ल उन्हें खिलाये जाते. राजा उनसे बहुत प्रेम करता था. राजकुमार भी सुबह-शाम उनके पास आकर खेला करता था. ऐसा जीवन पाकर दोनों तोते बहुत ख़ुश थे.

एक दिन छोटा तोता बड़े तोते से बोला, “भाई, हम कितने ख़ुशनसीब हैं, जो इस राजमहल में लाये गए और ऐसा आरामदायक जीवन पा सके. यहाँ हर कोई हमसे कितना प्यार करता है. हमारा कितना ख्याल रखता है.”

“हाँ भाई, यहाँ हमारी ज़रूरत की हर चीज़ बिना मेहनत के हमें मिल जाती है. हमारा जीवन पहले से अधिक आरामदायक हो गया है. सबसे अच्छी बात ये है कि यहाँ हमें हर किसी से प्रेम मिलता है.”

तोते को राजमहल का आनंदपूर्ण जीवन बहुत रास आ रहा था. लेकिन एक दिन सब बदल गया. वह शिकारी जिसने राजा को उपहार में तोते दिए थे, राजदरबार में फिर से आया. इस बार उसने एक काला बंदर राजा को उपहार में दिया.

अब काला बंदर राजमहल में सबके आकर्षण का केंद्र था. सारे सेवक उसकी देख-रेख में लग गए. उसके खाने-पीने का विशेष ख्याल रखा जाने लगा. तोतों के प्रति सबने ध्यान देना बंद कर दिया. यहाँ तक कि राजकुमार भी अब तोतों के स्थान पर बंदर के साथ खेलने लगा.

यह देखकर छोटा तोता बहुत दु;खी था. वह बड़े तोते से बोला, “भाई, इस काले बंदर ने हमारी सारी ख़ुशियाँ छीन ली है. इसके कारण अब हमारी ओर कोई ध्यान ही नहीं देता.”

बड़ा तोता बोला, “कुछ भी स्थायी नहीं रहता मेरे भाई. वक़्त बदलते देर नहीं लगती.”

कुछ दिन बीते. बंदर था तो शरारती. एक दिन उसने महल में बहुत उत्पात मचाया. सेवकों को बहुत तंग किया. राजकुमार भी उसकी हरक़त से डर गया.

राजा को जब बंदर की कारस्तानी पता चली, तो उसने उसे जंगल में छोड़ आने का आदेश दे दिया. आदेश का पालन कर बंदर को जंगल में छोड़ दिया गया.

उस दिन के बाद से तोते फिर से महल में सबके आकर्षण का केंद्र बन गए. अब छोटा तोता बहुत ख़ुश था. वह बड़े तोते से बोला, “हमारे दिन फिर से वापस आ गए भाई.”

बड़ा तोता बोला, “याद रखो मेरे भाई. समय कभी एक जैसा नहीं रहता. इसलिये जब समय साथ न दे, तो दु:खी नहीं होना चाहिए. बुरा समय है, तो अच्छा समय भी आयेगा.”

छोटे तोते को बड़े तोते की बात समझ में आ गई और उसने तय किया कि बुरे वक़्त में वह धैर्य बनाकर रखेगा.

सीख  

कोई भी चीज़ स्थायी नहीं रहती. समय के साथ हर चीज़ बदलती है. इसलिए मुश्किल समय में धैर्य बनाकर रखें.

हाथी और भालू की कहानी

एक जंगल में एक हाथी रहता था। वह बड़ा दयालु था। मुसीबत के समय वह सदा सबकी सहायता किया करता था। उसके इस स्वभाव है कारण जंगल के सभी जानवर उससे बहुत प्रेम करते थे।

एक दिन हाथी को प्यास लगी और वह पानी पीने नदी पर गया। वहाँ उसने देखा कि नदी के किनारे एक बड़े से पत्थर के नीचे एक मगरमच्छ दबा हुआ है और दर्द से कराह रहा है।

हाथी ने उससे पूछा, “मगरमच्छ भाई! ये क्या हो गया? तुम इस पत्थर के नीचे कैसे दब गये?”

मगरमच्छ ने कराहते हुए उत्तर दिया, “क्या बताऊं हाथी दादा! मैं खाना खाकर नदी किनारे आराम कर रहा था। जाने कैसे उस बड़ी चट्टान का ये टुकड़ा टूटकर मुझ पर आ गिरा। बहुत दर्द हो रहा है। मेरी मदद करो। इस पत्थर को हटा दो। मैं ज़िन्दगी भर तुम्हारा अहसानमंद रहूंगा।”

हाथी को उस पर दया आ गई। लेकिन उसे डर भी था कि कहीं मगरमच्छ उस पर हमला न कर दे। इसलिए उसने पूछा, “देखो मगरमच्छ भाई! मैं तुम्हारी मदद तो कर दूं, लेकिन वादा करो कि तुम मुझ पर हमला नहीं करोगे।”

“मैं वादा करता हूँ।” मगरमच्छ बोला।

हाथी मगरमच्छ के पास गया और उसकी पीठ से भारी पत्थर हटा दिया। लेकिन पत्थर के हटते ही धूर्त मगरमच्छ ने हाथी का पैर अपने जबड़े में दबा लिया।

हाथी कराह उठा और बोला, “ये क्या मगरमच्छ भाई? ये तो धोखा है। तुमने तो वादा किया था।”

लेकिन मगरमच्छ ने हाथी का पैर नहीं छोड़ा। हाथी दर्द से चीखने लगा। कुछ ही दूर पर एक पेड़ के नीचे एक भालू आराम कर रहा था। उसने हाथी की चीख सुनी, तो नदी किनारे आया।

हाथी को उस हालत में देख उसने पूछा, “ये क्या हुआ हाथी भाई?”

“इस धूर्त मगरमच्छ की मैंने सहायता की और इसने मुझ पर ही हमला कर दिया। मुझे बचाओ।” हाथी ने कराहते हुए मगमच्छ के पत्थर के नीचे दबे होने की सारी कहानी सुना दी।

“क्या कहा? ये मगरमच्छ पत्थर के नीचे दबा था और फिर भी ज़िन्दा था। मैं नहीं मानता।” भालू बोला।

“ऐसा ही था।” मगरमच्छ गुर्राया और अपनी पकड़ हाथी के पैरों पर मजबूत कर दी।

“हो नहीं सकता!” भालू फिर से बोला।

“ऐसा ही था भालू भाई!” हाथी बोला।

“बिना देखे तो मैं नहीं मानने वाला। मुझे दिखाओ तो ज़रा कि ये मगरमच्छ कैसे उस पत्थर के नीचे दबा था और उसके बाद भी ज़िन्दा था। हाथी भाई ज़रा इस मगरमच्छ की पीठ पर वो पत्थर तो रख देना। फिर उसे हटाकर दिखाना।” भालू बोला।

मगरमच्छ भी तैयार हो गया। वह हाथी का पैर छोड़कर नदी के किनारे चला गया। हाथी ने वह भारी पत्थर उसके ऊपर रख दिया।

मगरमच्छ भालू से बोला, “ये देखो! मैं ऐसे इस पत्थर के नीचे दबा था। अब यकीन आया तुम्हें। इसके बाद हाथी ने आकर पत्थर हटाया था। चलो हाथी अब पत्थर हटा दो।” मगरमच्छ बोला।

“नहीं हाथी भाई! ये मगरमच्छ मदद के काबिल नहीं है। इसे ऐसे ही पड़े रहने दो। आओ हम चले।” भालू बोला।

इसके बाद हाथी और भालू वहाँ से चले गए। मगरमच्छ वहीं पत्थर के नीचे दबा रहा। उसकी धूर्तता का फल उसे मिल चुका था।

सीख 

हमें हमेशा सहायता करने वाले के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए।

बुद्धिमानी से किसी भी मुसीबत से निकला जा सकता है।

आसमान गिर रहा है कहानी

जंगल में एक डरपोक खरगोश रहता था. एक दिन वह देवदार के पेड़ के नीचे मज़े से सो रहा था कि अचानक एक फल उसके सिर पर आ गिरा. डरपोक खरगोश की नींद खुल गई. वह सोचने लगा कि ये क्या हुआ? क्या गिरा मेरे सिर पर? कहीं आसमान तो नहीं गिर रहा?

दिमाग में ये सोच आते ही वह डर गया और फिर क्या? वह भागने लगा. वह बेतहाशा भागा चला जा रहा था. उसे इस तरह भागते हुए जब हाथी ने देखा, तो पूछने गा, “अरे भाई खरगोश क्या हुआ? क्यों ऐसे भागे जा जा रहे हो?”

खरगोश हांफते हुए बोला, “भागो भागो…आसमान गिर रहा है.”

खरगोश की बात सुनकर हाथी भी डर गया. वह भी उसके पीछे-पीछे भागने लगा. कुछ देर बाद उनकी मुलाकात गेंडे से हुई. गेंडे ने भागने का कारण पूछा, तो हाथी ने खरगोश से सुनी बात दोहरा दी, “भागो भागो….आसमान गिर रहा है.”

ये सुनकर गेंडा भी डर गया और उनके पीछे हो लिया. अब जो भी उन्हें मिलता “आसमान गिर रहा है” सुनकर उनके पीछे भागने लगता. खरगोश ने पीछे हाथी, हाथी के पीछे गेंडा, गेंडे के पीछे भालू, भालू ने पीछे चीता और ऐसे ही जंगल के ढेर सारे जानवरों की कतार लग गई. सब बेतहाशा भागे जा रहे थे.

इतने सारे जानवरों को इस तरह भागते हुए जब जंगल में टहल रही लोमड़ी ने देखा, तो चकित रह गई. उसने कतार ने लगे भालू से पूछा, “क्या हुआ भाई, तुम सब लोग ऐसे कहाँ भागे चले जा रहे हो?”

“भागो भागो आसमान गिर रहा है.” भालू चिल्लाया.

ये सुनकर लोमड़ी अचरज में पड़ गई कि ऐसा भी कहीं होता है. उसने सारे जानवरों को रोका और बोली, “इस तरह भागने से किसी समस्या का हल नहीं निकलेगा. चलो जंगल के राजा शेर के पास चलते हैं.”

सब लोमड़ी के पीछे हो लिए. थोड़ी ही देर में सारे जानवर शेर के सामने खड़े थे. लोमड़ी ने शेर को सारी बात बताई.

ध्यान से सारी बात सुनने के बाद शेर ने पूछा, “सबसे पहले किसने आसमान गिरते हुए देखा?”

सबने खरगोश की तरफ़ इशारा किया. शेर ने खरगोश से पूछा, “तुमने कहाँ देखा कि आसमान गिर रहा है?”

“वनराज, मैं देवदार ने पेड़ ने नीचे सो रहा था कि तभी मेरे ऊपर आसमान का एक छोटा टुकड़ा गिरा और मैं भागने लगा और सबको बताने लगा. वनराज हम सबको भागना चाहिए कहीं पूरा आसमान गिर गया, तो हम सबका क्या होगा?”

खरगोश की बात सुनकर शेर को कुछ संदेह हुआ. उसने लोमड़ी से कुछ चर्चा की, फिर सारे जानवरों को लेकर उसी देवदार ने पेड़ के पास आया, जहाँ खरगोश सोया था. वहाँ देवदार का फल गिरा देख उसे सारा माज़रा समझ आ गया.

वह फल उठाकर शेर बोला, “तो ये है आसमान”

सारे जानवर समझ गए कि डरपोक खरगोश देवदार का फल गिरने पर सोचने लगा कि आसमान गिर रहा है. सब हँसने लगे. खरगोश बहुत शर्मिंदा हुआ. शेर ने खरगोश को समझाया कि इस तरह की अफ़वाह न फैलाए. उसने सारे जानवरों को भी समझाया कि बिना सोचे-समझे किसी की बात का यकीन न करें.

सीख 

  • बिना सोचे-समझे अफवाहें न फैलाएं.
  • किसी की बात पर बिना सोचे-समझे विश्वास न करें.

टोपीवाला और बंदर की कहानी

एक गाँव में एक आदमी रहता था. टोपी बेचना उसका काम था. अपने गाँव के साथ ही वह आस-पास के दूसरे गाँवों में भी घूम-घूमकर टोपियाँ बेचा करता था. वह रोज़ सुबह एक बड़ी सी टोकरी में ढेर सारी रंग-बिरंगी टोपियाँ भरता और उसे सिर पर लादकर घर से निकल जाता. सांझ ढले सारी टोपियाँ बेचकर वह घर वापस आता था.

एक दिन अपने गाँव में टोपियाँ बेचने के बाद वह पास के एक दूसरे गाँव जा रहा था. दोपहर का समय था. वह थका हुआ था और उसका गला भी सूख रहा था. रास्ते में एक स्थान पर कुआँ देख वह रुक गया. कुएं के पास ही बरगद का एक पेड़ था, जिसके नीचे उसने टोपियों की टोकरी रख दी और कुएं से पानी निकालकर पीने लगा.

प्यास बुझ जाने के बाद उसने सोचा कि थोड़ी देर सुस्ताने के बाद ही आगे बढ़ना ठीक होगा. उसने टोकरी में से एक टोपी निकाली और पहन ली. फिर बरगद के पेड़ के नीचे गमछा बिछाकर बैठ गया. वह थका हुआ तो था ही, जल्दी ही उसे नींद आ गई.

वह खर्राटे मारते हुए सो रहा था कि शोर-शराबे से उसकी नींद उचट गई. आँख खुली, तो उसने देखा कि बरगद के पेड़ के ऊपर ढेर सारे बंदर उछल-कूद कर रहे हैं. वह यह देखकर चकित रहा गया कि उन सब बंदरों के सिर पर टोपियाँ थीं. उसने अपनी टोपियों की टोकरी की ओर दृष्टि डाली, तो सारी टोपियाँ नदारत पाई.

चिंता में वह अपना माथा पीटने लगा. सोचने लगा कि अगर बंदर सारी टोपियाँ ले गए, तो उसे बड़ा नुकसान हो जायेगा. उसे माथा पीटता देख बंदर भी अपना माथा पीटने लगे. बंदरों को नक़ल उतारने की आदत होती है. वे टोपीवाले की नक़ल उतार रहे थे.

बंदरों को अपनी नक़ल उतारता देख टोपीवाले को टोपियाँ वापस प्राप्त करने का एक उपाय सूझ गया. उपाय पर अमल करते हुए उसने अपने सिर से टोपी उतारकर फेंक दी. फिर क्या था? बंदरों ने भी अपनी-अपनी टोपियाँ उतारकर फ़ेंक दी. टोपीवाले ने झटपट सारी टोपियाँ टोकरी में इकठ्ठी की और आगे की राह पकड़ ली.

सीख 

सूझबूझ से हर समस्या का हल निकाला जा सकता है.

छिपा हुआ धन कहानी

एक गांव में एक किसान रहता था। उसके चार बेटे थे। किसान मेहनती था। लेकिन उसके चारों बेटे आलसी थे। किसान उन्हें समझाया करता, पर उनमें कोई असर नहीं होता।

किसान जब बूढ़ा हो गया और उसे लगने लगा कि अब उसके कुछ ही दिन बच गए हैं, तो उसने अपने चारों बेटों को बुलाया और उनसे कहा –

“सुनो बेटों! अब मैं कुछ ही दिन का मेहमान हूं। मरने के पहले तुम्हें एक राज़ की बात बताना चाहता हूं।”

चारों बेटे ध्यान से सुनने लगे। किसान ने आगे कहा –

“अपने खेत में अपार धन गड़ा हुआ है। मेरे मरने के बाद तुम खेत को गहराई तक खोदना। तुम्हें धन मिल जायेगा। तुम लोग आराम का जीवन बिताना।”

चारों बेटे खुश हो गए। उन्हें लगा कि अब उन्हें सारी ज़िंदगी काम नहीं करना पड़ेगा।

कुछ दिनों बाद किसान की मृत्यु हो गई। उसका अंतिम संस्कार करने के बाद चारों बेटे खेत में जाकर खुदाई करने लगे। कई दिनों तक खेद खोदने के बाद भी उन्हें कुछ नहीं मिला। उन्हें अपने पिता पर बहुत गुस्सा आया। लेकिन उन्होंने सोचा कि जब खेत खुद ही गया है, तो यहां धान बो देते हैं। उन्होंने खेत में धान बो दिया। 

कुछ माह बाद खेत धान से लहलहा उठा। धान बेचकर उन्होंने अच्छा खासा धन कमा लिया। उस दिन उन्हें अपनी पिता की बात का अर्थ समझ आया कि उनके खेत में अपार धन छुपा है, बस उन्हें मेहनत करने की ज़रूरत है।

उन्होंने उस दिन से जीतोड़ मेहनत करने का संकल्प ले लिया।

सीख 

मेहनत का कोई विकल्प नहीं। आलस छोड़ो, मेहनत करो।

बंदर और घंटी की कहानी

जंगल के किनारे एक गाँव बसा हुआ था. गाँव में चारो और ख़ुशहाली थी और गाँव के लोग शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे.

गाँव के मध्य गाँव वालों ने एक मंदिर का निर्माण करवाया था, जहाँ वे प्रतिदिन पूजा-आराधना किया करते थे. मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक बड़ी सी घंटी लगी हुई थी. एक दिन एक चोर ने मंदिर की घंटी चुरा ली और जंगल की ओर भाग गया.

जंगल में वह दौड़ता चला जा रहा था, जिससे घंटी बज रही थी और उसकी आवाज़ दूर-दूर तक सुनाई दे रही थी. घंटी की आवाज़ जंगल में घूम रहे शेर के कानों में  भी पड़ी और वह जिज्ञासावश आवाज़ का पीछा करने लगा.

गाँव से लेकर जंगल तक दौड़ते-दौड़ते चोर बहुत थक गया था. सुस्ताने के लिए वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया. तभी पीछा करते-करते शेर भी वहाँ पहुँच गया. चोर शेर का सामना नहीं कर पाया और मारा गया. घंटी वहीं गिर गई.

अगले दिन बंदरों का एक झुण्ड उस स्थान से गुजरा. उन्हें वह घंटी दिखी, तो वे उसे उठाकर अपने साथ ले गए. घंटी की मधुर ध्वनि उन्हें बड़ी ही रोचक लगी और वे उससे खेलने लगे.

अक्सर रात के समय बंदर इकठ्ठा होते और घंटी बजाकर खेला करते थे. रात के समय जंगल से आने वाली घंटी की आवाज़ के पीछे के कारण से अनजान गाँववालों को ये बड़ा विचित्र लगा.

एक दिन सबसे फ़ैसला किया कि रात में आने वाली घंटी का रहस्य जानना होगा. उन्होंने गाँव के युवक को तैयार कर जंगल में भेजा. युवक जब जंगल में गया, तो उसे चोर का कंकाल दिख गया. उसने गाँव वापस आकर बताया कि जंगल में कोई प्रेतआत्मा घूम रही है, जो लोगों का खून करती है और उसके बाद घंटी बजाती है.

गाँव वालों ने बिना सोचे-समझे उसकी बात पर विश्वास कर लिया. ये बात पूरे गाँव में जंगल की आग की तरह फ़ैल गई. गाँव में भय का वातावरण व्याप्त हो गया. धीरे-धीरे गाँव के लोग पलायन कर दूसरे गाँव जाने लगे.

जब राज्य के राजा को यह बात चली कि उसके राज्य के एक गाँव के लोग वहाँ से पलायन कर रहे हैं, तो उसने पूरे राज्य में मुनादी करवाई कि जो व्यक्ति जंगल में घूम रही प्रेतआत्मा को वहाँ से भगा देगा और घंटी की आवाज़ बंद कर देगा, उसे उचित पुरूस्कार प्रदान किया जायेगा.

राजा की यह मुनादी उसी गाँव में रहने वाली एक बूढ़ी औरत ने भी सुनी. उसे विश्वास था कि प्रेतआत्मा की बात महज़ एक अफ़वाह है. एक रात वह अकेले ही जंगल की ओर निकल गई. वहाँ उसे बंदरों का समूह दिखाई पड़ा, जो घंटी बजा-बजाकर खेल रहा था.

बूढ़ी औरत को रात में बजने वाली घंटी की आवाज़ का रहस्य पता चल चुका था. वह गाँव वापस आ गई. उस रात वह आराम से अपने घर पर सोई और अगले दिन राजा से मिलने पहुँची.

राजा को उसने कहा, “महाराज! मैं जंगल में भटक रही प्रेतआत्मा पर विजय प्राप्त कर सकती हूँ और उसे वहाँ से भगा सकती हूँ.”

उसकी बात सुनकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ.

बूढ़ी औरत बोली, “महाराज! प्रेतआत्मा को नियंत्रण में लाने के लिए एक पूजा आयोजित करनी होगी और उसके लिए मुझे कुछ धन की आवश्यकता पड़ेगी.”

राजा ने बूढ़ी औरत के लिए धन की व्यवस्था करवा दी, जिससे उसने कुछ मूंगफलियाँ, चने और फल ख़रीदे. गाँव में मंदिर के परिसर में उसने एक पूजा का आयोजन किया. वहाँ एक गोला बनाकर उसने खाने की सारी चीज़ें रख दी और भगवान की प्रार्थना करने लगी. कुछ देर ऐसा करने के बाद उसने खाने की सारी चीज़ें उठाई और जंगल में चली गई.

जंगल पहुँचकर एक पेड़ के नीचे उसने खाने की सारी चीज़ें रख दी और छुपकर बंदरों के आने की प्रतीक्षा करने लगी. कुछ देर बाद बंदरों का समूह वहाँ आया. उन्होंने जब खाने की ढेर सारी चीज़ें देखी, तो घंटी को एक तरफ़ फेंक उन्हें खाने दौड़ पड़े. बंदर बड़े मज़े से मूंगफलियाँ, चने और फल खा रहे थे. इस बीच मौका पाकर बूढ़ी औरत ने घंटी उठा ली और राजा के महल आ गई.

घंटी राजा को सौंपते हुए वह बोली, “महाराज! वह प्रेतआत्मा यह घंटी छोड़कर जंगल से भाग गई है. गाँव वालों को अब डरने की कोई आवश्यकता नहीं है.”

राजा बूढ़ी औरत की बहादुरी से बहुत प्रसन्न हुआ. उसने उसे पुरूस्कार देकर विदा किया. उस दिन के बाद से गाँव वालों को कभी घंटी की आवाज़ सुनाई नहीं दी और वे फिर से ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगे.

सीख  

  • बिना सोचे-समझे किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँचना चाहिए.
  • बुद्धिमानी से हर समस्या का समाधान निकाला जा सकता है.

राजा ब्रूस और मकड़ी की कहानी

एक समय की बात है. स्कॉटलैंड में रॉबर्ट ब्रूस नाम का राजा राज करता था. उसके राज्य में खुशहाली और शांति थी. प्रजा उसका बहुत सम्मान करती थी.

एक बार इंग्लैंड के राजा ने स्कॉटलैंड पर आक्रमण कर दिया. दोनों राज्यों के मध्य घमासान युद्ध हुआ. उस युद्ध में राजा ब्रूस की पराजय हुई और स्कॉटलैंड पर इंग्लैंड का कब्ज़ा हो गया.

राजा ब्रूस किसी भी तरह अपना राज्य वापस प्राप्त करना चाहता था. उसके अपने सैनिकों को एकत्रित किया और इंग्लैंड पर आक्रमण कर दिया. पुनः युद्ध हुआ. लेकिन उस युद्ध में भी उसे पराजय का मुँह देखना पड़ा.

राजा ब्रूस ने १४ बार इंग्लैंड पर आक्रमण किया, किंतु अपना राज्य वापस प्राप्त करने में असमर्थ रहा. १४वें युद्ध में पराजय के बाद उसके सैनिकों और प्रजा का उस पर से विश्वास उठ गया. वह बुरी तरह टूट गया और भागकर एक पहाड़ी पर जाकर बैठ गया.

थका, हताश और उदास वहाँ बैठा वह सोच रहा था कि अब वह कभी अपना राज्य वापस प्राप्त नहीं कर पायेगा. तभी उसकी दृष्टि एक मकड़ी पर पड़ी, जो एक पेड़ के ऊपर जाला बनाने का प्रयास कर रही थी.

वह पेड़ के तने से चढ़कर ऊपर पहुँचती और जाला बनाने का प्रयास करती, लेकिन गिर पड़ती. किंतु वह फिर उठती और फिर पेड़ पर चढ़ने लगती. राजा ब्रूस मकड़ी को ध्यान से देखने लगा. २० बार मकड़ी गिर चुकी थी, कभी पेड़ पर चढ़ते हुए, तो कभी ऊपर जाला बनाते हुए.

वह सोचने लगा कि अब तो मकड़ी ले किये पेड़ के ऊपर जाला बनाना असंभव है. शायद अब वह पेड़ पर चढ़ने का प्रयास छोड़ देगी. किंतु ऐसा नहीं हुआ, मकड़ी पुनः उठी और पेड़ पर चढ़ने लगी. इस बार वह नहीं गिरी और ऊपर पहुँचकर जाले का निर्माण पूर्ण कर लिया.

यह देखकर राजा ब्रूस चिल्ला उठा, “मुझे तो मात्र १४ बार असफलता का सामना करना पड़ा है. अभी तो ७ अवसर शेष है.”

वह उठा और अपने सैनिकों को फिर से एकत्रित किया. उसके आत्मविश्वास को देखकर सैनिकों और प्रजा का भी उस पर विश्वास जागृत हो गया.

इस बार राजा ब्रूस इंग्लैंड से इस तरह लड़ा कि इंग्लैंड को मुँह की खानी पड़ी.

सीख 

मित्रों इस कहानी से हमें सीख मिलती है कि किसी कार्य में एक या दो बार असफल हो जाने पर हमें निराश होकर प्रयास करना नहीं छोड़ देना चाहिए. प्रयास करना छोड़ देना ही वास्तविक असफ़लता है. निरंतर प्रयास से कठिन से कठिन लक्ष्य भी प्राप्त किया जा सकता है. इसलिये हार माने बिना लक्ष्य प्राप्ति के लिए डटे रहें.

हाथी और रस्सी की कहानी

एक दिन एक व्यक्ति सर्कस देखने गया. वहाँ जब वह हाथियों के बाड़े के पास से गुजरा, तो एक ऐसा दृश्य देखा कि वह हैरान रह गया. उसने देखा कि कुछ विशालकाय हाथियों को मात्र उनके सामने के पैर में रस्सी बांधकर रखा गया है. उसने सोच रखा था कि हाथियों को अवश्य बड़े पिंजरों में बंद कर रखा जाता होगा या फिर जंजीरों से बांधकर. लेकिन वहाँ का दृश्य तो बिल्कुल उलट था.

उसने महावत से पूछा, “भाई! आप लोगों ने इन हाथियों को बस रस्सी के सहारे बांधकर रखा है, वो भी उनके सामने के पैर को. ये तो इस रस्सी को तो बड़े ही आराम से तोड़ सकते हैं. मैं हैरान हूँ कि ये इसे तोड़ क्यों नहीं रहे?”

महावत ने उसे बताया, “ये हाथी जब छोटे थे, तब से ही हम उसे इतनी ही मोटी रस्सी से बांधते आ रहे हैं. उस समय इन्होंने रस्सी तोड़ने की बहुत कोशिश की. लेकिन ये छोटे थे. इसलिए रस्सी को तोड़ पाना इनके सामर्थ्य के बाहर था. वे रस्सी तोड़ नहीं पाए और ये मान लिया कि रस्सी इतनी मजबूत है कि वे उसे नहीं तोड़ सकते. आज भी इनकी वही सोच बरक़रार है. इन्हें आज भी लगता है कि ये रस्सी नहीं तोड़ पाएंगे. इसलिए ये प्रयास भी नहीं करते.”

यह सुनकर वह व्यक्ति अवाक् रह गया.

सीख 

“दोस्तों, उन हाथियों की तरह हम भी अपने जीवन में नकारात्मक सोच रुपी रस्सी से बंध जाते हैं. जीवन में किसी काम में प्राप्त हुई असफ़लता को हम मष्तिष्क में बिठा लेते हैं और यकीन करने लगते हैं कि एक बार किसी काम में असफ़ल होने के बाद उसमें कभी सफ़लता प्राप्त नहीं होगी. इस नकारात्मक सोच के कारण हम कभी प्रयास ही नहीं करते.

आवश्यकता है इस नकारात्मक सोच से बाहर निकलने की; उन कमियों को पहचानकर दूर करने की, जो हमारी असफ़लता का कारण बनी. नकारात्मक सोच हमारी सफ़लता में सबसे बड़ी बाधक है. इसलिए नकारात्मक सोच रुपी जंजीर को तोड़ कर सकारात्मक सोच को अपनायें और जीवन में प्रयास करना कभी न छोड़ें, क्योंकि प्रयास करना सफ़लता की दिशा में कदम बढ़ाना है.”

चीनी बांस के पेड़ की कहानी

एक गरीब किसान को उसके एक मित्र ने कुछ बीज दिये और उसे बताया कि ये बीज बांस के पेड़ की उस प्रजाति के हैं, जो चीन में पाए जाते है. इन पेड़ों की ऊँचाई ९० फीट तक होती है.

किसान ने वे बीज अपने मित्र से ले लिए और उन्हें अपने खेत में बो दिये. उसे आशा थी कि जिस दिन वे बांस के ऊंचे पेड़ बन जायेंगे, उन बांसों को बेचकर उसे अच्छी आमदनी होगी और उसका परिवार एक अच्छा जीवन जी पायेगा.

वह उन बीजों को पानी देता, दिनभर उनकी देखभाल करता और रात में भगवान से प्रार्थना करता कि उसके सपने पूरे हो जाये और उसे इन बीजों से १०० प्रतिशत परिणाम मिले. वह रोज अपने खेत में जाकर देखता कि बीज अंकुरित हुए हैं या नहीं. लेकिन उसे उनमें कोई भी परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ता. इसी तरह एक वर्ष बीत गया. लेकिन उन बीजों से अंकुर नहीं फूटे.

अन्य बीज सामान्यतः एक सप्ताह में अंकुरित हो जाते थे और कुछ महीनों में ही फसल आ जाती थी. उस फसल के द्वारा ही किसान के परिवार का भरण-पोषण होता था. किसान सोचा करता कि इस तरह आज तो उसका गुजारा चल सकता है, लेकिन उसके सपने पूरे नहीं हो सकते और न ही उसका भविष्य संवर सकता. बांस के पेड़ों की बदौलत वह अपने सुनहरे भविष्य के सपने देखने लगा.

लेकिन समय बीतने के बाद भी वे बीज अंकुरित नहीं हुए और किसान को अपने सपने और आशायें टूटती हुई नज़र आने लगी. उसके मन में शंका उत्पन्न होने लगी कि कहीं वे बीज सड़ तो नहीं गए हैं. 

एक वर्ष और बीता. लेकिन बीज अंकुरित नहीं हुए. दूसरे किसान और गांव वाले उसका मजाक उड़ाने लगे कि वह उन बेकार के बीजों पर अपना समय और परिश्रम व्यर्थ गंवा रहा है. सबके ताने सुनकर किसान विचलित होने लगा. उसने मन में यह भय समाने लगा कि कहीं सचमुच ही वह अपना समय और परिश्रम ऐसे कार्य में तो नहीं लगा रहा, जिससे उसे कोई प्रतिफल नहीं मिलने वाला है.

एक साल और बीत गया. लेकिन बीजों के अंकुरित होने के कोई चिन्ह दिखाई नहीं पड़े. लोगों ने किसान का मजाक उड़ाना जारी रखा. लेकिन किसान ने आंशिक भय के बाद भी अपने मन में छोटी सी आस बांध कर रखी थी. इसलिए उसने लोगों की बातों को दरकिनार कर उन बीजों की देखभाल करना जारी रखा.

ऋतुयें बीतती गई और किसान एक चमत्कार की उम्मीद में बीजों को रोज़ पानी देता रहा और उनकी देखभाल करता रहा. लेकिन चार साल बीत जाने के बाद भी एक भी बीज अंकुरित नहीं हुए. जिससे किसान की उम्मीदें थोड़ी और कम हो गई. लेकिन फिर भी वह उन बीजों को पानी देता रहा. यद्यपि समय के साथ किसान की आशा कम होती चली जा रही थी. लेकिन भगवान पर उसका विश्वास अटल था. उसका विश्वास था कि भगवान उसके परिश्रम का फल उसे अवश्य देंगें.

५ वर्ष बीत जाने के बाद अचानक एक सुबह गाँव के लोगों को उस किसान के चिल्लाने की आवाज़ सुनाई पड़ी. वे सभी अपने घरों से बाहर निकल आये. उन्होंने देखा कि वह किसान अपने खेत के सामने खड़ा होकर खुशी से चिल्ला रहा है. पास जाकर देखने पर सभी गाँव वालों की आँखें फटी की फटी रह गई. किसान के खेत में बांस के बीज अंकुरित हो गए थे. किसान की खुशी की कोई सीमा नहीं थी. पांच साल बाद उसकी मेहनत सफल हुई थी.

वह खेत गाँववालों के आकर्षण का केंद्र बन गया. बांस के पेड़ तेजी से बढ़ रहे थे. ५ फ़ीट…१० फ़ीट….२० फ़ीट…..५० फ़ीट……७० फ़ीट…..८० फ़ीट…और ९० फ़ीट. ५ सालों से खाली पड़ा किसान का खेत मात्र ५ सप्ताह में ९० फ़ीट बांस के पेड़ों से भर गया. इस चमत्कार को देखकर सभी दंग थे. उधर किसान खुशी से फूला नहीं समा रहा था. वे बांस के  पेड़ न केवल उसके परिवार का बल्कि उसकी कई पीढ़ियों का भरण-पोषण करने वाले थे. वह रह-रहकर भगवान का धन्यवाद कर रहा था.

उसे यह भी समझ आ गया था कि जो सीख उसे मिली है, वह अमूल्य है.

उसने सपनों का बीज बोने और उसे यथार्थ में परिणित करने के लिए रोज़ उसका पोषण और देखभाल करने की सीख मिल गई थी. उसने लोगों की नकारात्मक बातों पर ध्यान न देने का पाठ भी पढ़ लिया था. उसने अपने भय और शंकाओं से परे हटकर अनवरत परिश्रम करने का महत्व समझ लिया था. साथ ही भगवान पर उसका विश्वास और अटल हो गया था.

किसान ने पूरे गाँव के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत कर दिया. जिसके बाद गाँव के अन्य किसान भी अपने खेतों में बांस का पेड़ उगाने लगे और धैर्य से हर दिन उसकी देखभाल करने लगे.

सीख 

दोस्तों, किसान ने तो अपने सपनों पर विश्वास बनाये रखा. आपका क्या? आप अपने सपनों को पूरा करने के लिए किस हद तक परिश्रम करने के लिए तैयार हैं? आपमें कितना धैर्य है? अपने सपनों पर विश्वास रखें. ख़ुद पर विश्वास रखें. धैर्य से परिश्रम करते रहे. सफ़लता अवश्य प्राप्त होगी.

अभिमानी पंडित की कहानी

एक गांव में एक पंडित रहता था। उसे अपने व्याकरण ज्ञान पर बड़ा अभिमान था। वह जिससे भी मिलता, अपने व्याकरण ज्ञान का बखान करने लगता।

एक दिन उसे नदी पार कर दूसरे गांव जाना था। वह नदी किनारे पहुंचा और एक नाव पर बैठ गया। नाविक नाव खेने लगा। अपनी आदत अनुसार पंडित अपने व्याकरण ज्ञान का बखान करने लगा। उसने नाविक से पूछा, “क्यों क्या तुमने व्याकरण पढ़ा है?”

नाविक अनपढ़ था। बोला, “नहीं पंडित जी! मैं तो पढ़ा लिखा नहीं हूं। मेरा परिवार तो पीढ़ियों से नाव चला रहा है।”

पंडित उसे नीचा दिखाकर बोला, “ओह! बड़े दुख की बात है कि तुमने अपना जीवन व्यर्थ कर दिया।”

नाविक को बहुत बुरा लगा। किंतु वह पंडित को कुछ उत्तर नहीं दे पाया। बस चुपचाप नाव खेता रहा। 

नाव मझधार में पहुंच गई। तभी अचानक तेज तूफान आया और नाव डगमगाने लगी। पंडित डर गया। तब नाविक ने उससे पूछा, “पंडितजी! आपको तैरना आता है? “

“नहीं!” घबराए पंडित ने उत्तर दिया।

“तब तो पंडित जी आपका जीवन व्यर्थ जाने वाला है, क्योंकि नाव भंवर में फंस गई है और बस डूबने वाली है।” ये कहकर नाविक नाव से कूद गया।

व्याकरण का पंडित नाव में बैठा रह गया। कुछ ही देर में नाव पलट गई और पंडित पानी में डूबने लगा। उसका सारा व्याकरण का ज्ञान धरा का धरा रह गया। जान बचाने के लिए वह मदद की गुहार लगाने लगा। तब नाविक ने उसे बचाया और किनारे पर पहुंचाया।

पंडित का अभिमान चूर चूर हो चुका था। वह समझ चुका था कि अपने ज्ञान पर अभिमान नहीं करना चाहिए। 

सीख 

दोस्तों! हर व्यक्ति में कोई न कोई गुण होता है। परिस्थिति के अनुसार वह गुण काम आता है। इसलिए अपने गुण का अभिमान नहीं करना चाहिए।

राजा और माली की कहानी

एक निर्धन व्यक्ति राजा के महल में माली का काम करता था। उसने राजमहल के बाग में कई प्रकार के फलों के पेड़ लगाए थे। जो फल पक जाते, वो तोड़कर राजा के सामने प्रस्तुत कर देता। कई बार खुश होकर राजा उसे इनाम भी देते।

एक बार बाग में आम, अंगूर और नारियल के फल हुए। माली टोकरी लेकर बाग में पहुँचा और सोचने लगा कि आज कौन सा फल महाराज के लिए ले जाऊं। कुछ देर सोचने के बाद उसने अंगूर तोड़ लिए और टोकरी में भरकर राजा के पास पहुँचा।

उन दिनों राजा कुछ चिंतित था। उसे गुप्तचर द्वारा सूचना मिली थी कि पड़ोसी राज्य का राजा उस पर आक्रमण की तैयारी में है। वह इस बारे में गहन सोच विचार में डूबा हुआ था। तभी माली उसके पास पहुँचा और चुपचाप उसके सामने टोकरी रखकर कुछ दूर जाकर बैठ गया।

राजा मंथन करते-करते टोकरी से अंगूर उठाकर खाने लगा। वह आधा अंगूर खाता और आधा फेंक देता, जो माली के ऊपर गिरता। जैसे ही अंगूर माली को लगता, वह कहता, “भगवान तू बड़ा दयालु है।”

सोच-विचार में डूबे राजा का ध्यान इस ओर नहीं था कि वह अंगूर माली के ऊपर फेंक रहा है। एक बार फिर उसने अंगूर माली के ऊपर फेंका और माली ने फिर से कहा, “भगवान तू बड़ा दयालु है।”

इस बार राजा का ध्यान माली की ओर चला गया। उसने आश्चर्य से उसे देखा और पूछा, “माली! मैं तुम पर जूठे फल फेंक रहा हूँ और तुम कह रहे हो, भगवान तू बड़ा दयालु है। इसमें भगवान की कैसी दया?”

माली ने उत्तर दिया, “महाराज! आज बाग में तीन तरह के फल थे – आम, अंगूर और नारियल। मैं सोच रहा था कि आपके लिए कौन सा फल लाऊं। भगवान की दया से मेरी बुद्धि में आया कि आपके लिए अंगूर ले चलूं और मैं अंगूर ले आया। यदि मैं आम या नारियल ले आता, तो सोचिए मेरा हाल क्या होता। इसलिए मैं कह रहा हूँ कि भगवान बड़ा दयालु है।”

राजा माली का उत्तर सोचने लगा कि वह व्यर्थ में चिंतित है। भगवान की दया से उसे समय रहते पड़ोसी राज्य के राजा के मंसूबों का पता चल गया है। इससे उसे अपने राज्य की रक्षा की तैयारी का पर्याप्त समय मिल गया है। उसने भगवान को धन्यवाद दिया और राज्य की रक्षा की तैयारी में जुट गया। जब युद्ध हुआ, तो उसमें उसकी विजय हुई और उसने अपना राज्य बचा लिया।

सीख 

दोस्तों, समय का चक्र ऐसा ही है। कभी अच्छा समय आएगा तो कभी बुरा। अच्छे समय में हम भगवान को धन्यवाद देना भूल जाते हैं और बुरे समय में शिकायत करने लग जाते हैं। जबकि आवश्यकता है कि अच्छे समय के लिए हम भगवान का धन्यवाद करें और बुरे समय के लिए आभार व्यक्त करें कि हमें हर परिस्थितियों का सामना कर मजबूत इंसान बनाने उसने हमारे सामने वे परिस्थितियाँ उत्पन्न की है।

छोटी-छोटी परेशानियों का सामना करके ही हम बड़ी मुसीबतों का सामना करने योग्य बन पायेंगे। इसलिए जीवन में आने वाली छोटी-छोटी समस्याओं से घबराये नहीं। सकारात्मक रहकर समस्या के निवारण के बारे में चिंतन करें, योजना बनायें और निवारण में जुट जायें।

बुरी परिस्थितियाँ आपकी दृढ़ता की परीक्षा है। ऐसे समय में टूटे नहीं, ये साबित कर दें कि आप हर परिस्थिति का सामना कर सकते हैं, उससे उबर सकते हैं और जीवन में आगे बढ़ सकते हैं। जीवन की ऊबड़-खाबड़ डगर पर चलकर ही आप दृढ़ और मजबूत इंसान के तौर पर खड़े हो पायेंगे।

हाथी और बकरी की कहानी

एक जंगल में हाथी और बकरी रहते थे, जो बहुत अच्छे दोस्त थे। दोनों साथ मिलकर रोजाना भोजन की तलाश करते और मिल बैठकर भोजन करते थे। 

एक दिन में दोनों खाने की तलाश में निकले और चलते-चलते बहुत दूर पहुंच गए। उन्हें भूख भी लग रही थी और प्यास भी। पास ही उन्हें एक तालाब दिखाई पड़ा। दोनों तालाब के पास पहुंचे और पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई।

तालाब के पास एक बेर का पेड़ लगा हुआ था, जिसे देख बकरी के मुंह में पानी आ गया। उसने हाथी से अपनी सूंड द्वारा बेर तोड़ने का निवेदन किया। हाथी ने अपनी सूंड से बेर के पेड़ का तना हिलाया और ढेर सारे पके हुए बेर नीचे गिरने लगे। बकरी बेरों को समेटने लगी।

उसी पेड़ में एक चिड़िया का घोंसला भी था। उस समय चिड़िया भोजन की तलाश में निकली थी, लेकिन घोंसले में उसका बच्चा सो रहा था। हाथी द्वारा बेर का पेड़ हिलाने से चिड़िया का घोंसला टूट कर नीचे तालाब में गिर पड़ा, साथ ही चिड़िया का बच्चा भी।

चिड़िया का बच्चा तालाब में बहने लगा। उसे तालाब में बहता देखकर बकरी को दया आ गई और वह उसे बचाने के लिए तालाब में कूद गई। बकरी तैरना नहीं जानती थी। वह तालाब में डूबने लगी। हाथी ने अपने दोस्त को तालाब में डूबते देखा, तो फौरन तालाब में छलांग लगा दी और बकरी और चिड़िया के बच्चे दोनों को बाहर निकाल लिया।

उसी समय चिड़िया भोजन लेकर लौटी और उसने सारा दृश्य देखा। वह हाथी का धन्यवाद देने लगी कि उसने उसके बच्चे की जान बचाई। 

उस दिन से चिड़िया, हाथी और बकरी दोस्त बन गए। चिड़िया ने हाथी और बकरी को बेर के पेड़ के नीचे रहने का आमंत्रण दिया।

हाथी और बकरी उसी बेर के पेड़ के नीचे रहने लगे। चिड़िया जब भी भोजन लेने जाती, तो वापस आकर हाथी और बकरी को उन पेड़ों के बारे में बताती, जिनमें फल लगे हैं। जिससे हाथी और बकरी के लिए भोजन ढूंढना आसान हो गया।

वे हिलमिल कर खाते पीते मजे से साथ रहने लगे।

सीख 

दूसरों के प्रति सदा प्रेमभाव रखना चाहिए और कभी दूसरों साथ गलत नहीं करना चाहिए। यदि कभी भूल से कुछ गलत हो भी गया, तो उस गलती को सुधारने में देर नहीं करनी चाहिए। हिलमिलकर एक दूसरे की सहायता करते हुए जीवन जीने का एक अलग ही आनंद है।

चिड़िया और पेड़ की कहानी

बरसात के दिन आने वाले थे। चिड़िया का एक जोड़ा घोंसला बनाने के लिए पेड़ तलाश रहा था। उड़ते-उड़ते वह जोड़ा एक नदी के किनारे पहुंचा। वहां कई पेड़ लगे हुए थे। उन्हें वह जगह अपने लिए उपयुक्त लगी।

एक पेड़ के पास जाकर वे विनती करने लगे, “बरसात के पहले हमें अपना घोंसला बनाना है। कृपा करके हमारी मदद करें। अपनी एक टहनी पर हमें घोंसला बनाने की अनुमति दे दें।”

पेड़ ने उन्हें इंकार कर दिया।

पेड़ के इंकार से चिड़िया के जोड़े को बहुत बुरा लगा। जाते-जाते वे बोले, “इतना अहंकार अच्छा नहीं! एक दिन तुम भी टूटोगे और तुम्हारा अहंकार भी।”

पेड़ कुछ कह पाता, उसके पहले वे उड़ गए। उड़ते-उड़ते वे नदी के पास स्थिति जंगल में पहुंचे और वहां एक पेड़ से घोंसला बनाने की अनुमति मांगी। पेड़ सहर्ष तैयार हो गया। 

चिड़िया का जोड़ा उस पेड़ पर घोंसला बनाकर खुशी खुशी रहने लगा। बरसात का मौसम आ गया। लेकिन अब वे दोनों अपने घोंसले में सुरक्षित थे।

एक दिन आंधी तूफान के साथ घनघोर बरसात हुई और वह पेड़ टूटकर गिर गया, जिसने चिड़िया के जोड़े को अपनी शाखाओं पर घोंसला बनाने की अनुमति नहीं दी थी।

तूफान थमा और बरसात बंद हुई, तो चिड़िया का जोड़ा नदी के पास पहुंचा। वहां उन्होंने उस पेड़ को नदी की तेज़ धार में बहते देखा। वे दोनों बहुत खुश हुए और पेड़ से बोले, “हमने कहा था ना कि एक दिन तुम भी टूटोगे और तुम्हारा अहंकार भी। आज वो दिन आ गया। ये तुम्हारे कर्मों का फल है।”

पेड़ ने कहा, “तुमने मुझे गलत समझा था। मैं पहले से जानता था कि मैं टूट जाऊंगा। मेरी जड़ें मिट्टी का साथ छोड़ रही थीं और शाखाएं कमज़ोर हो गई थीं। इसलिए मैंने उस दिन तुम्हें इंकार किया था। तुम मेरी शाखा पर घोंसला बनाते, तो आज जीवित न होते। लेकिन तुम्हें मेरा इंकार बुरा लग गया। उसके लिए क्षमा!”

पेड़ की बात सुनकर चिड़िया के जोड़े को अपनी सोच पर बहुत दुख हुआ। 

सीख 

दोस्तों! कई बार जीवन में हमें इंकार का सामना करना पड़ता है। ज़ाहिर है, इंकार सुनना किसी को पसंद नहीं। इंकार से हमारी भावनाएं आहत हो जाती हैं और उस समय हम सिर्फ अपनी भावनाओं के बारे में सोचते हैं।

हम खुले मन से ये विचार ही नहीं करते कि इंकार करने वाले की भी कोई मजबूरी रही होगी या उसने हमारे भले के लिए इंकार किया होगा। हम उसे भला बुरा कहते हैं। दूसरे के सामने उसकी बुराई करते हैं।

क्या एक “ना” भी हम सकारात्मक तरीके से नहीं ले सकते? अब से जब भी कोई “ना” कहे, तो उसे दिल से न लगाएं। उसका बुरा न माने। हो सकता है किसी की एक “ना” आपको बहुत बड़ी मुसीबत से बचा रही हो।

बादशाह और फ़कीर की कहानी

एक बादशाह और गूंगे फकीर में गहरी मित्रता थी। बादशाह फकीर से अपने दिल की हर बात कहता और फकीर मुस्कुराते हुए सुनता। 

बादशाह को उसका साथ इतना भाने लगा कि उसने उसकी रहने की व्यवस्था अपने महल में करवा दी थी। फकीर राजा के साथ महल में रहने लगा। समय गुजरता गया और राजा का उसके प्रति प्रेम बढ़ता गया।

एक दिन बादशाह अपने काफ़िले के साथ राज्य भ्रमण पर निकला। फकीर भी उसके साथ था। शाम को वे राज्य के अंतिम छोर तक के गांवों की स्थिति जानकर वापस लौट रहे थे। रास्ते में घना जंगल पड़ा। बादशाह का काफिला रास्ता भटक गया। 

बादशाह ने अपने सारे सैनिकों को रास्ता ढूंढने के लिए चारों दिशाओं में भेज दिया और खुद फकीर के साथ एक पेड़ के नीचे सुस्ताने लगा। उसी पेड़ पर एक फल लगा हुआ था। बादशाह और फकीर दोनों भूखे थे। बादशाह ने पेड़ पर चढ़कर फल तोड़ लिया और उसके छः टुकड़े कर दिए – तीन अपने लिए तीन फकीर के लिए।

अपनी आदत के अनुसार उसने पहला टुकड़ा फकीर को दिया। फकीर फल खाकर मुस्कुराया और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। बादशाह ने दूसरा टुकड़ा भी फकीर को दिया। फकीर फल खाकर मुस्कुराया और फिर से अपना हाथ आगे कर दिया। राजा ने उसे तीसरा टुकड़ा भी दे दिया। एक एक करके फकीर पांच टुकड़े खा गया और छटवे के लिए भी हाथ आगे बढ़ा दिया। 

ये देख बादशाह को बड़ा क्रोध आया। वह बोला, “ये मेरा तुम्हारे प्रति प्रेम है कि मैं तुम्हें अपने महल में अपने साथ रखता हूं। हर सुख सुविधा तुम्हें मुहैया करवाता हूं। पर आज मुझे पता चल गया कि तुम्हारे दिल में मेरे लिए ज़रा भी प्रेम नहीं है। भूखा मैं भी हूं। किंतु तुम इतने स्वार्थी हो कि सारा फल खुद खा जाना चाहते हो। तुम्हारी असलियत मैं जान गया। आज से हमारी दोस्ती खत्म। अभी इसी वक्त मेरी नज़रों से दूर चले जाओ।”

फकीर चला गया। फकीर के जाने के बाद राजा फल का आखिरी टुकड़ा खाने लगा। लेकिन फल को चबाते ही उसने फल थूक दिया। फल इतना कड़वा था कि उसे खाया ही नहीं जा सकता था। राजा को समझ आ गया कि फकीर क्यों सारे टुकड़े मांग कर खा जाना चाहता था और यह भी कि उसका प्रेम कितना गहरा था।

राजा की दी हर चीज वह खुशी खुशी स्वीकार करता था और सदा मुस्कुराते रहता था। इसलिए जब राजा ने उसे फल दिया, तो वह भी स्वीकार किया और कड़वा होने के बावजूद मुस्कुराते हुए खा गया। वह सारे टुकड़े इसलिए मांगकर खा जाना चाहता था, ताकि राजा को इस बात का पता न चल सके कि वह साधु को कड़वा फल खिला रहा है। जब राजा के दिए मीठे फल उसने खुशी खुशी खाए थे, तो कड़वा क्यों न खाता।

ये बात समझ में आने पर बादशाह पछताने लगा। मगर अब देर हो चुकी थी। अपने संदेह के कारण वह अपना परम मित्र को चुका था।

सीख 

दोस्तों, सच्चा दोस्त कभी आपका बुरा नहीं चाहेगा। वह आपको रोकेगा भी तो आपके भले के लिए। सच्ची दोस्ती हमेशा सहेजकर रखें। दोस्ती के फल में संदेह का कीड़ा लग जाए, तो उसे खराब होते देर नहीं लगती। इसलिए जब भी दोस्ती करें, भरोसे की नींव पर करें।

मेंढक और चूहा की कहानी

एक समय की बात है. एक जलाशय में एक मेंढक रहता था. उसके कोई मित्र नहीं थे, इसलिए वह बहुत उदास रहा करता था. वह हमेशा भगवान से एक अच्छा मित्र भेजने की प्रार्थना करता, ताकि उसकी उदासी और अकेलापन दूर हो सके.

उस जलाशय के पास ही एक पेड़ के नीचे बिल में एक चूहा रहता था. वह बहुत ही हँसमुख स्वभाव का था. एक दिन मेंढक को देखकर वह उसके पास गया और बोला, “मित्र, कैसे हो तुम?”

मेंढक उदास स्वर में बोला, “मैं अकेला हूँ. मेरे कोई मित्र नहीं. इसलिए बहुत दु:खी हूँ.”

“उदास मत हो. मैं हूँ ना. मैं तुम्हारा मित्र बनूंगा. जब भी तुम मेरे साथ समय बिताना चाहो, मेरे बिल में आ सकते हो.” चूहे ने प्रस्ताव रखा.

चूहे की बात सुनकर मेंढक बड़ा प्रसन्न हुआ. उस दिन के बाद दोनों बहुत अच्छे मित्र बन गए. वे दोनों जलाशय के किनारे कई घंटे गपशप करते. अब मेंढक खुश रहने लगा था.

एक दिन मेंढक को एक उपाय सूझा और उसने चूहे से कहा, “क्यों न हम दोनों रस्सी के दोनों छोर अपने पैरों से बांध लें. जब भी मुझे तुम्हारी याद आयेगी, मैं रस्सी को खीचूंगा और तुम्हें पता चल जायेगा.”

चूहा राज़ी हो गया. उन्होंने एक रस्सी ढूंढी और उसके छोर अपने-अपने पैरों से बांध लिये.

आकाश में मंडराता बाज़ यह सब देख रहा था. चूहे को अपना शिकार बनाने के लिए उसने उस पर झपट्टा मारा. यह देख मेंढक भयभीत हो गया और अपना जीवन बचाने के लिए जलाशय में छलांग लगा दी. किंतु जल्दी में वह भूल गया कि रस्सी का दूसरा सिरा अब भी उसके मित्र चूहे के पैर में बंधा हुआ है. चूहा भी पानी में खिंचा चला गया और डूब कर मर गया.

कुछ दिनों बाद चूहे का शव जलाशय की सतह पर तैरने लगा. बाज़ अब भी आकाश में मंडरा रहा था. उसने फिर से झपट्टा मारा और पानी में बहते हुए चूहे के शव को अपने पंजों में पकड़कर ले उड़ा. मेंढक भी साथ में चला गया क्योंकि रस्सी का एक सिरा अब भी उसके पैर में बंधा हुआ था.

सीख 

मूर्ख से कभी भी दोस्ती नहीं करनी चाहिए.     

हाथी और छः अंधे व्यक्ति की कहानी 

एक गाँव में छः अंधे व्यक्ति रहते थे. एक दिन उनके गाँव में एक हाथी आया, जो पूरे गाँव में चर्चा का विषय बन गया. सब उसे देखने जाने लगे, विशेषकर बच्चे. लंबी सूंड और पंखे जैसे कान वाले विशालकाय हाथी को देखकर बच्चे बड़े ख़ुश थे.

छः अंधे व्यक्तियों को भी एक गाँव वाले ने बताया कि आज गाँव में हाथी आया है. हाथी के बारे में सुनकर उनमें जिज्ञासा जाग उठी. उन्होंने हाथी के बारे में सुना अवश्य था, किंतु छूकर उसके स्पर्श को महसूस नहीं किया था.

एक अंधे व्यक्ति बोला, “दोस्तों! इतना सुन रखा है हाथी के बारे में. आज गाँव में हाथी आया है, तो मैं उसे छूकर महसूस करना चाहता हूँ. क्या तुम लोग नहीं चाहते?”

उसकी बात सुनकर अन्य पाँच भी हाथी को छूकर महसूस करने के लिए लालायित हो उठे. वे सभी उस जगह पर पहुँचे, जहाँ हाथी था. वे हाथी के करीब गए और उसे छूने लगे.

पहले व्यक्ति ने हाथी के खंबे जैसे विशाल पैर को छुआ और बोला, “ओह, हाथी खंबे जैसा होता है.”

दूसरे व्यक्ति के हाथ में हाथी की पूंछ आई, जिसे पकड़कर वह बोला, “गलत कर रहे हो दोस्त, हाथी खंबे की तरह नहीं, बल्कि रस्सी की तरह होता है.”

तीसरे व्यक्ति के हाथी की लंबी सूंड पकड़ी और कहने लगा, “अरे नहीं, हाथी तो पेड़ के तने जैसा होता है.”

चौथे व्यक्ति ने हाथी के पंखें जैसे कान छुए और उसे लगा कि बाकी सब गलत कह रहे हैं, वो उन्हें समझाते हुए बोला, “हाथी पंखें जैसा होता है.”

पांचवें व्यक्ति ने हाथी का पेट छूते हुए कहा, “अरे तुम सब कैसे अजीब बातें कर रहे हो. हाथी तो दीवार की तरह होता है.”

छटवें व्यक्ति ने हाथी के दांत को छुआ और बोला, “सब गलत कह रहे हो. हाथी कठोर नली की तरह होता है.”

सब अपनी-अपनी बात पर अडिग थे. कोई दूसरे की बात सुनने को तैयार नहीं था. वे आपस में बहस कर अपनी बात सही साबित करने में लग गए. धीरे-धीरे बहस बढ़ती गई और झगड़े में तब्दील हो गई.

उस समय एक सयाना व्यक्ति वहाँ आया. उन सबको झगड़ते हुए देख उनसे पूछा, “तुम लोग आपस में क्यों झगड़ रहे हो?”

छहो अंधे व्यक्तियों ने उसे बताया कि वे हाथी को छूकर महसूस करने आये थे और उसे छूने के बाद हम सबमें बहस हो रही है कि हाथी होता कैसा है. फ़िर सबने उसे अपना आंकलन बताया.

उनकी बात सुनकर सयाना व्यक्ति हँस पड़ा और बोला, “तुम सब लोग ख़ुद को सही साबित करने के लिए झगड़ रहे हो और सच ये है कि तुम सब सही हो.”

“ऐसा कैसे हो सकता है?” अंधे व्यक्ति हैरत में बोले.

“बिल्कुल हो सकता है और ऐसा ही है. तुम सब अपनी-अपनी जगह सही हो. तुम लोगों ने हाथी के शरीर के अलग-अलग अंगों को छुआ है और उसके हिसाब से उसका वर्णन किया है. इसलिए हाथी के बारे में तुम्हारा आंकलन भिन्न है. वास्तव में हाथी तुम सबके आंकलन अनुसार ही है, वह खंबे जैसे पैरों वाला, पंखे जैसे कान वाला, रस्सी जैसे पूंछ वाला, तने जैसे सूंड वाला, दीवार जैसे पेट वाला, नली जैसे दांतों वाला एक विशालकाय जानवर है. इसलिए झगड़ा बंद करो और अपने-अपने घर जाओ.”

यह सुनकर सब सोचते लगे कि हम सब बेकार में ही झगड़ रहे थे और फ़िर सब घर लौट गये.

सीख 

१. अक्सर हम किसी विषय के संबंध में सीमित ज्ञान के आधार पर अपनी धारणा बना लेते हैं और दूसरों से अपनी धारणा को लेकर उलझ जाते हैं तथा स्वयं को सही साबित करने की कोशिश करने लगते हैं. जबकि संभव है कि उस व्यक्ति की धारणा भी उसके सीमित ज्ञान के दायरे में सही हो. किसी भी विषय के हर पहलू के बारे में जाने बिना उस संबंध में एकदम से कोई अटल धारणा नहीं बनाना चाहिए.

२. कई बार फ़र्क नज़रिये का होता है. किसी भी चीज़ को देखने का हमारा नज़रिया दूसरों से भिन्न हो सकता है. हमें एक-दूसरे के नज़रिये का भी सम्मान करना चाहिए.  

फूटा घड़ा कहानी

बहुत समय पहले की बात है. एक गांव में एक किसान रहता था. उसके पास दो घड़े थे. उन दोनों घड़ों को लेकर वह रोज़ सुबह अपने घर से बहुत दूर बहती एक नदी से पानी लेने जाया करता था. पानी भरने के बाद वह उन घड़ों को एक बांस की लकड़ी के दोनो सिरों पर बांध लेता और उसे अपने कंधे पर लादकर वापस घर तक लाता था. रोज़ सुबह उसकी यही दिनचर्या थी.

दोनों घड़ों में से एक घड़ा सही-सलामत था, लेकिन दूसरा घड़ा एक जगह से फूटा हुआ था. इसलिए जब भी किसान नदी से पानी भरकर घर तक पहुँचता, एक घड़ा पानी से लबालब भरा रहता और दूसरे घड़े से पानी रिसने के कारण वह घड़ा आधा खाली हो चुका रहता था.

सही-सलामत घड़े को खुद पर बड़ा घमंड था कि वह किसान के घर तक पूरा पानी पहुँचाता है. दूसरी ओर फूटा घड़ा खुद को नीचा समझता था और हमेशा शर्मिंदा रहता कि वह किसी काम का नहीं है. उसे ग्लानि महसूस होती कि उसके कारण किसान की पूरी मेहनत बेकार चली जाती है.

एक दिन उस फूटे घड़े से नहीं रहा गया और उसने किसान से क्षमा मांगते हुए कहा, “मालिक! मैं खुद पर बहुत शर्मिंदा हूँ. मैं ठीक तरह से आपके काम नहीं आ पा रहा हूँ.”

किसान ने पूछा, “क्यों? ऐसी क्या बात हो गई?”

घड़े ने बताया, “मालिक! शायद आप इस बात से अनजान हैं कि मैं एक जगह से फूटा हुआ हूँ और नदी से घर तक पहुँचते-पहुँचते मेरा आधा पानी रिस जाता है. मेरी इस कमी के कारण आपकी मेहनत व्यर्थ चली जाती है.”

सुनकर वह किसान उस घड़े से बोला, ”तुम दु:खी मत हो. बस आज नदी से वापस आते हुए मार्ग में खिले हुए सुंदर फूलों को देखना. तुम्हारा मन बहल जायेगा.”

फूटे घड़े ने वैसा ही किया. वह रास्ते भर सुंदर फूलों को देखता हुआ आया. इससे उसका विचलित मन शांत हो गया. लेकिन जब घर पहुँचते ही उसने पाया कि वह पुनः आधा खाली हो चुका है, तो उस पर फिर से उदासी छा गई. उसने किसान से अनुनय किया कि वह उसकी जगह कोई अच्छा और सही-सलामत घड़ा ले ले.

यह सुनकर किसान बोला, “क्या तुमने ध्यान दिया कि बांस के जिस सिरे पर तुम बंधे रहते हो, उस ओर के मार्ग में सुंदर फूल खिले हुए हैं, जबकि मार्ग के दूसरी और सूखी जमीन है? ऐसा नहीं है कि मैं इस बात से अनजान हूँ कि तुम फूटे हुए हो. यह बात जानते हुए ही मैंने मार्ग के उस ओर सुंदर और रंग-बिरंगे फूल लगा दिए. जब मैं नदी से पानी भरकर लाता हूँ, तो तुम्हारे द्वारा उन फूलों को पानी मिल जाता है और वे सदा उस मार्ग को हरा-भरा रखते है. तुम्हारे कारण ही वह मार्ग इतना सुंदर हो पाया है. इसलिए तुम खुद को कम मत आंकों.”

सीख 

कोई भी ऊँचा या नीचा नहीं होता. इस दुनिया में हर इंसान को एक रोल मिला हुआ है. जिसे हर कोई बखूबी निभा रहा है. इसलिए जो जैसा है, हमें उसे वैसा ही स्वीकारना चाहिए और उसकी कमजोरियों के स्थान पर उसकी अच्छाइयों पर ध्यान देना चाहिए.

भेड़िया और मेमना की कहानी

जंगल के पार हरे घास के मैदान में भेड़ों का झुंड घास घर रहा था। एक छोटा मेमना भी वहां घास घर रहा था। शाम ढलने लगी, तो भेड़ वापस लौटने लगे। लेकिन छोटा मेमना लालच के कारण वहीं रुक गया। उसने सोचा कि अब मैं इतना बड़ा हो गया हूं कि अकेले घर जा सकता हूं।

सारे भेड़ लौट गए, पर अकेला मेमना वहीं मजे से घास चरता रहा। तभी वहां से एक भेड़िए गुजरा और उसकी नजर मेमने पर पर पड़ गई। लालच के कारण उसके मुंह में पानी आ गया। वह तेजी से चलकर मेमने के पास पहुंच गया। 

जब मेमने ने भेड़िए को अपने सामने देखा, तो डर गया। उसे भेड़ों के साथ वापस न लौटने की गलती का अहसास हुआ और वह किसी तरह भेड़िए के चंगुल से बाहर निकलने का उपाय सोचने लगा। 

भेड़िया अपने मुंह पर जीभ फिराते हुए बोला, “आज मैं तुम्हें खाकर दावत उड़ाऊंगा।”

मेमना नम्रता से बोला, “भेड़िए जी! मुझे इस बात की खुशी है कि मैं आपकी भूख मिटाऊंगा। लेकिन मैंने अभी अभी ढेर सारी घास खाई है। मेरे पेट में घास भरी हुई है। हो सकता है, आपको उसका स्वाद अच्छा न लगे। ऐसा करता हूं, मैं थोड़ा नाच लेता हूं। इससे घास पच जायेगी। फिर आप मुझे खा लेना।”

भेड़िए को मेमने की बात जम गई। मेमना नाचने लगा। भेड़िए चुपचाप खड़ा उसका नाच देखने लगा। तब मेमने ने कहा, “बिना संगीत के नाचने में मज़ा नहीं आ रहा है। क्यों न मेरे गले में बंधी घंटी आप उतार लें और बजाएं। घंटी की सुरीली धुन पर नाचने में बड़ा मज़ा आएगा।”

मेमने की बात मानकर भेड़िए ने उसके गले से घंटी उतार ली और बजाने लगा। मेमना मजे से नाचने लगा। घंटी की आवाज जंगल में गूंजने लगी। आवाज जब मेमने के मालिक तक पहुंची, तो उसने जंगली कुत्ते मेमने को खोजने के लिए छोड़ दिए। वह खुद भी उनके पीछे पीछे चल पड़ा। 

घंटी की आवाज का पीछा करते करते जंगली कुत्ते कुछ ही देर में भेड़िए और मेमने के पास पहुंच गए। जन भेड़िए ने जंगली कुत्तों को देखा, तो डर कर भाग गया। मेमना अपने मालिक के पास लौट गया। सूझबूझ से उसने अपनी जान बचा ली। 

सीख 

सूझबूझ से किसी भी समस्या से बाहर निकला जा सकता है।

कंजूस और उसका सोना कहानी

एक गाँव में एक अमीर जमींदार रहता था. वह जितना अमीर था, उतना ही कंजूस भी. अपने धन को सुरक्षित रखने का उसने एक अजीब तरीका निकाला था. वह धन से सोना खरीदता और फिर उस सोने को गलाकर उसके गोले बनाकर अपने एक खेत में एक पेड़ के नीचे गड्ढा खोदकर डाल देता था.

रोज़ खेत जाना और गड्ढे को खोदकर सोने के गोलों की गिनती करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा था. इस तरह वह सुनिश्चित करता था कि उसका सोना सुरक्षित है.

एक दिन एक चोर ने कंजूस आदमी को गड्ढे में से सोना निकालकर गिनते हुए देख लिया. वह छुपकर उसके जाने का इंतज़ार करने लगा. जैसे ही कंजूस आदमी गया, वह गड्ढे के पास पहुँचा और उसमें से सोना निकालकर भाग गया.

अगले दिन जब कंजूस आदमी खेत में गड्ढे के पास पहुँचा, तो सारा सोना नदारत पाकर रोने-पीटने लगा. उसके रोने की आवाज़ वहाँ से गुजरते एक राहगीर के कानों में पड़ी, तो वह रुक गया.

उसने कंजूस आदमी से रोने का कारण पूछा, तो कंजूस आदमी बोला, “मैं लुट गया. बर्बाद हो गया. कोई मेरा सारा सोना लेकर भाग गया. अब मैं क्या करूंगा?”

“सोना? किसने चुराया? कब चुराया?” राहगीर आश्चर्य में पड़ गया.

“पता नहीं चोर ने कब इस गड्ढे को खोदा और सारा सोना लेकर नौ दो ग्यारह हो गया. मैं जब यहाँ पहुँचा, तो सारा सोना गायब था.” कंजूस आदमी बिलखते हुए बोला.

“गड्ढे से सोना ले गया? तुम अपना सोना यहाँ इस गड्ढे में क्यों रखते हो? अपने घर पर क्यों नहीं रखते? वहाँ ज़रूरत पड़ने पर तुम उसका आसानी से उपयोग कर सकते हो.” राहगीर बोला.

“मैं अपने सोने को कभी हाथ नहीं लगाता. मैं उसे सहेजकर रखता हूँ और हमेशा रखता, यदि वो चोर उसे चुराकर नहीं ले जाता.” कंजूस आदमी बोला.

यह बात सुनकर राहगीर ने जमीन से कुछ कंकड़ उठाये और उसे उस गड्ढे में डालकर बोला, “यदि ऐसी बात है, तो इन कंकडों को गड्ढे में डालकर गड्ढे को मिट्टी ढक दो और कल्पना करो कि यही तुम्हारा सोना है, क्योंकि इनमें और तुम्हारे सोने में कोई अंतर नहीं है. ये भी किसी काम के नहीं और तुम्हारा सोना भी किसी काम का नहीं था. उस सोने का तुमने कभी कोई उपयोग ही नहीं किया, न ही करने वाले थे. उसका होना न होना बराबर था.”

सीख 

जिस धन का कोई उपयोग न हो, उसकी कोई मोल नहीं.

राजा की चिंता शिक्षाप्रद कहानी

प्राचीन समय की बात है. एक राज्य में एक राजा राज करता था. उसका राज्य ख़ुशहाल था. धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी. राजा और प्रजा ख़ुशी-ख़ुशी अपना जीवन-यापन कर रहे थे.

एक वर्ष उस राज्य में भयंकर अकाल पड़ा. पानी की कमी से फ़सलें सूख गई. ऐसी स्थिति में किसान राजा को लगान नहीं दे पाए. लगान प्राप्त न होने के कारण राजस्व में कमी आ गई और राजकोष खाली होने लगा. यह देख राजा चिंता में पड़ गया. हर समय वह सोचता रहता कि राज्य का खर्च कैसे चलेगा?

अकाल का समय निकल गया. स्थिति सामान्य हो गई. किंतु राजा के मन में चिंता घर कर गई. हर समय उसके दिमाग में यही रहता कि राज्य में पुनः अकाल पड़ गया, तो क्या होगा? इसके अतिरिक्त भी अन्य चिंतायें उसे घेरने लगी. पड़ोसी राज्य का भय, मंत्रियों का षड़यंत्र जैसी कई चिंताओं ने उसकी भूख-प्यास और रातों की नींद छीन ली.

वह अपनी इस हालत से परेशान था. किंतु जब भी वह राजमहल के माली को देखता, तो आश्चर्य में पड़ जाता. दिन भर मेहनत करने के बाद वह रूखी-सूखी रोटी भी छक्कर खाता और पेड़ के नीचे मज़े से सोता. कई बार राजा को उससे जलन होने लगती.

एक दिन उसके राजदरबार में एक सिद्ध साधु पधारे. राजा ने अपनी समस्या साधु को बताई और उसे दूर करने सुझाव मांगा.

साधु राजा की समस्या अच्छी तरह समझ गए थे. वे बोले, “राजन! तुम्हारी चिंता की जड़ राज-पाट है. अपना राज-पाट पुत्र को देकर चिंता मुक्त हो जाओ.”

इस पर राजा बोला, ”गुरुवर! मेरा पुत्र मात्र पांच वर्ष का है. वह अबोध बालक राज-पाट कैसे संभालेगा?”

“तो फिर ऐसा करो कि अपनी चिंता का भार तुम मुझे सौंप दो.” साधु बोले.

राजा तैयार हो गया और उसने अपना राज-पाट साधु को सौंप दिया. इसके बाद साधु ने पूछा, “अब तुम क्या करोगे?”

राजा बोला, “सोचता हूँ कि अब कोई व्यवसाय कर लूं.”

“लेकिन उसके लिए धन की व्यवस्था कैसे करोगे? अब तो राज-पाट मेरा है. राजकोष के धन पर भी मेरा अधिकार है.”

“तो मैं कोई नौकरी कर लूंगा.” राजा ने उत्तर दिया.

“ये ठीक है. लेकिन यदि तुम्हें नौकरी ही करनी है, तो कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं. यहीं नौकरी कर लो. मैं तो साधु हूँ. मैं अपनी कुटिया में ही रहूंगा. राजमहल में ही रहकर मेरी ओर से तुम ये राज-पाट संभालना.”

राजा ने साधु की बात मान ली और साधु की नौकरी करते हुए राजपाट संभालने लगा. साधु अपनी कुटिया में चले गए.

कुछ दिन बाद साधु पुनः राजमहल आये और राजा से भेंट कर पूछा, “कहो राजन! अब तुम्हें भूख लगती है या नहीं और तुम्हारी नींद का क्या हाल है?”

“गुरुवर! अब तो मैं खूब खाता हूँ और गहरी नींद सोता हूँ. पहले भी मैं राजपाट का कार्य करता था, अब भी करता हूँ. फिर ये परिवर्तन कैसे? ये मेरी समझ के बाहर है.” राजा ने अपनी स्थिति बताते हुए प्रश्न भी पूछ लिया.

साधु मुस्कुराते हुए बोले, “राजन! पहले तुमने काम को बोझ बना लिया था और उस बोझ को हर समय अपने मानस-पटल पर ढोया करते थे. किंतु राजपाट मुझे सौंपने के उपरांत तुम समस्त कार्य अपना कर्तव्य समझकर करते हो. इसलिए चिंतामुक्त हो.”

सीख

“जीवन में जो भी कार्य करें, अपना कर्त्तव्य समझकर करें. न कि बोझ समझकर. यही चिंता से दूर रहने का तरीका है.”

शेर और जंगली सूअर की कहानी

एक जंगल में एक शेर रहता था. एक दिन उसे बहुत ज़ोरों की प्यास लगी. वह पानी पीने एक झरने के पास पहुँचा. उसी समय एक जंगली सूअर भी वहाँ पानी पीने आ गया.

शेर और जंगली सूअर दोनों स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझते थे. इसलिए पहले पानी पीकर एक-दूसरे पर अपनी श्रेष्ठता साबित करना चाहते थे. दोनों में ठन गई और लड़ाई शुरू हो गई.

उसी समय कुछ गिद्ध आसमान से उड़ते हुए गुजरे. शेर और जंगली सूअर की लड़ाई देख उन्होंने सोचा कि आज तो दावत पक्की है. इन दोनों की लड़ाई में कोई-न-कोई तो अवश्य मरेगा. फिर छककर उसका मांस खाएंगे. वे वहीं मंडराने लगे.

इधर शेर और जंगली सूअर के बीच लड़ाई जारी थी. दोनों पर्याप्त बलशाली थी. इसलिए पीछे हटने कतई तैयार नहीं थे. लड़ते-लड़ते अचानक शेर की दृष्टि आसमान में मंडराते गिद्धों पर पड़ी. वह फ़ौरन सारा माज़रा समझ गया.

लड़ना बंद कर वह जंगली सूअर से बोला, “ऊपर आसमान में देखो. गिद्ध मंडरा रहे हैं. वे हम दोनों में से किसी एक की मौत की प्रतीक्षा में है. लड़ते-लड़ते मरने और फिर गिद्धों की आहार बनने से अच्छा है कि हम आपस में मित्रता कर लें और शांति से पानी पीकर अपने घर लौटें.”

जंगली सूअर को शेर की बात जंच गई. दोनों मित्र बन गए और साथ में झरने का पानी पीकर अपने निवास पर लौट गए.

सीख

आपसी शत्रुता में तीसरा लाभ उठाता है. इसलिए एक-दूसरे के साथ मित्रवत रहें.

दो चूहों की कहानी

शहर में रहने वाले और गाँव में रहने वाले दो चूहों में गहरी मित्रता थी. वे अक्सर एक-दूसरे को संदेश भेजा करते और एक-दूसरे का हाल जाना करते थे. एक बार गाँव में रहने वाले चूहे ने शहरी चूहे को गाँव आने का निमंत्रण भेजा. शहरी चूहे ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया.

सप्ताहांत का समय नियत हुआ और गाँव का चूहा अपने शहरी मित्र के आने की प्रतीक्षा करने लगा. वह उससे ढेर सारी बातें करना चाहता था, उसे गाँव के खेत-खालिहानों की सैर करवाना चाहता था. वह अपने मित्र की आव-भगत में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता था. इसलिए वह उसके लिए ढेर सरे फ़ल और आनाज इकट्ठा करने में लगा हुआ था.

आखिर वह दिन भी आया, जब शहरी चूहा गाँव पहुँचा. दोनों मित्र एक-दूसरे से मिलकर बहुत ख़ुश हुए. बहुत देर तक वे बातें करते रहे और एक-दूसरे को अपना हाल बताते रहे. फिर दोनों भोजन के लिए बैठे. भोजन में गाँव के चूहे ने अनाज और फ़ल परोसे, जिसे खाकर दोनों ने आराम किया.  

शाम को गाँव का चूहा अपने शहरी मित्र को गाँव दिखाने ले गया. शहरी चूहा वहाँ के खेत-खलिहान देखकर आनंद से भर उठा. वहाँ की शुद्ध हवा में श्वास लेकर उसका मन प्रफुल्लित हो गया. गाँव का चूहा बोला, “गाँव का वातावरण और वायु शुद्ध है, जो तुम्हें शहर में शायद ही नसीब होती होगी मित्र.”

शहरी चूहा शहर की समस्याएं जानता था. वह वर्षों से वहाँ रहा रहा था, लेकिन गाँव के चूहे मित्र की ये बात उसे बुरी लग गई. हालांकि वह कुछ बोला नहीं.

गाँव का चूहा गाँव की प्रशंसा में लगा हुआ था, वह उसे जंगलों में ले गया और बोला, “मित्र, ऐसे प्राकृतिक और मनोरम दृश्य तुम्हें शहर में देखने को नहीं मिलेंगे. इसलिए आज इस दृश्यों का आनंद ले लो.”

शहरी चूहे को यह बात भी चुभी, लेकिन वह कुछ नहीं बोला. वह सोचने लगा कि अब अपने इस ग्रामीण मित्र को शहरी चका-चौंध का जीवन दिखाना पड़ेगा. तब इसे समझ आएगा कि शहर कितना शानदार होता है.

रात होने पर दोनों चूहे घर वापस आ गए. भोजन का समय आया, तो गाँव के चूहे ने फिर से शहरी चूहे को फ़ल और अनाज परोसा. शहरी भोजन के आदी चूहे को यह भोजन गले नहीं उतर रहा था, वह बोला, “मित्र, क्या तुम हर समय फल और अनाज खाते हो. शहर आओ, मैं तुम्हें एक से बढ़कर एक पकवान खिलाऊंगा. साथ ही वहाँ का शानदार जीवन भी दिखाऊंगा. कल ही तुम मेरे साथ चलो.”

गाँव के चूहे में शहर देखने की लालसा जाग गई. वह फ़ौरन तैयार हो गया. रात नरम घास पर सोने के बाद अगली सुबह उठकर दोनों शहर के लिए निकल गए. शहरी चूहा अपने ग्रामीण मित्र को उस घर में ले गया, जहाँ वह रहा करता था. वह किसी अमीर आदमी का घर था, उसमें ही शहरी चूहे का बिल था. उतना बड़ा और सजा-धजा घर देखकर गाँव के चूहे की आँखें चौंधिया गई.

खाने की मेज़ देखी, तो उसका मुँह खुला रह गया. एक से बढ़कर एक पकवान उस पर सजे हुए थे. शहरी चूहे ने उसे भोजन प्रारंभ करने को कहा. ख़ुशी-ख़ुशी गाँव का चूहा भोजन करने लगा. सबसे पहले उसके प्लेट में से पनीर का टुकड़ा उठाया. उसने अभी पनीर कुतरा ही था, कि शहरी चूहा चिल्लाया, “भागो मित्र, बिल्ली आ रही है. जल्दी से अलमारी में छुप जाओ. नहीं तो जान से हाथ धोना पड़ेगा.”

पनीर छोड़ गाँव का चूहा शहरी चूहे के साथ अलमारी की ओर भागा. कुछ देर तक दोनों अलमारी में छुपे रहे. बिल्ली के जाने के बाद दोनों वहाँ से निकले. शहरी चूहा फिर से अपने मित्र गाँव के चूहे को भोजन के लिए ले गया. लेकिन डर के मारे उसकी भूख मर गई थी.  

शहरी चूहा उसकी हालत देख बोला, “मित्र डरने की कोई बात नहीं है. बिल्ली चली गई है. वैसे यह शहरी जीवन का हिस्सा है. यहाँ यूं ही जीवन जीते हैं. लो केक खाकर देखो.”

गाँव के चूहे ने केक का टुकड़ा ले लिया. लेकिन इसके पहले वह उसे मुँह में डाल पाता, शहरी चूहा चिल्लाया, “भागो मित्र! कुत्ता आ गया है.”

दोनों फिर से भागकर अलमारी में जा छुपे. शहरी चूहे ने बताया कि उस घर के मालिक ने एक कुत्ता पाला हुआ है, जो बड़ा भयानक है. उससे बचकर रहना पड़ता है.”

गाँव का चूहा बहुत ज्यादा डर गया था. अलमारी से बाहर आने के बाद वह एक क्षण भी वहाँ नहीं रुका. वह बोला, “मित्र, मुझे जाने दो. ये शहरी जीवन मुझे तो रास नहीं आता. यहाँ तो हर समय सिर पर ख़तरा मंडराता रहता है. इससे तो गाँव ही भला.”

फिर वह गाँव की ओर चल पड़ा और गाँव पहुँचकर ही दम लिया. वहाँ पहुँचकर वह सोचने लगा, “जगह वही अच्छी है, जहाँ जीवन सुरक्षित है.”

सीख

अमन-चैन का साधारण जीवन ऐसे ऐशो-आराम के जीवन से बेहतर है, जो ख़तरों से भरा हुआ है.

हथौड़ा और चाभी की कहानी

शहर की पुरानी बस्ती में ताले की एक दुकान थी. उस दुकान में ढेर सारे ताले-चाभी थे. लोग ताले ख़रीदने वहाँ आते. कभी-कभी मुख्य चाभी गुम हो जाने पर डुप्लीकेट चाभी बनवाने भी उस दुकान पर आते.

उसी दुकान में कोने में एक मजबूत हथौड़ा भी पड़ा हुआ था, जो ताला तोड़ने के काम आता था. लेकिन उसका प्रयोग कभी-कभार ही होता था.

कोने में पड़े-पड़े हथौड़ा अक्सर सोचा करता कि मैं इतना मजबूत हूँ. इतना बलशाली हूँ. इसके बाद भी इतने प्रहार झेलता हूँ, तब ही ताले को खोल पाता हूँ. लेकिन चाभी इतनी छोटी होने के बावजूद किसी भी ताले को बड़ी ही आसानी से खोल लेती हैं. ऐसा क्या है इस छोटी सी चाभी में?

एक दिन जब दुकान बंद हुई, तो उससे रहा ना गया. उसने चाभी से पूछ ही लिया, “चाभी बहन, मैं बहुत दिनों से एक बात सोच रहा था, किंतु बहुत सोचने के बाद भी मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया. क्या तुम मेरे एक सवाल का जवाब देकर मुझे निष्कर्ष तक पहुँचने में मदद कर सकती हो?”

“पूछो भाई, बन पड़ा तो तुम्हारे सवाल का जवाब मैं तुम्हें अवश्य दूंगी.” चाभी नम्रता से बोली.

“बहन, तुममे में ऐसी क्या ख़ास बात है कि तुम इतनी छोटी होने पर भी हर प्रकार के ताले, चाहे वह कितना मजबूत और जिद्दी क्यों न हो, बड़ी आसानी से खोल लेती हो. जबकि मैं तुमसे बहुत बड़ा, बलशाली और शक्तिशाली होने के बावजूद ऐसा नहीं कर पाता. मुझसे ताला खोलने में बहुत मेहनत लगती हैं और कई बार प्रयास करने के बाद ही ताला टूटता है.”

चाभी मुस्कुराई और बोली, “बहुत ही साधारण सी बात हैं हथौड़े भाई. तुम ताले पर प्रहार करते हो. इस तरह तुम उस पर बल का प्रयोग करते हो और खोलने के प्रयास में उसे चोट पहुँचाते हो. ऐसे में ताला खुलता नहीं, बल्कि टूट जाता है. जबकि मैं बिना बल का प्रयोग किये और ताले को चोट पहुँचाये बगैर उसके अंतर्मन में उतर जाती हूँ. इसलिए मेरे निवेदन पर ताला तुरंत खुल जाता है.”

सीख 

जीवन में कई बार ऐसी परिस्थियाँ आती हैं, जब हमारे सामने हथौड़ा या चाभी बनने का विकल्प होता है. किसी का दिल जीतना है, तो उसे हथौड़ा बनकर जोर-जबरदस्ती से नहीं जीता जा सकता, बल्कि चाभी की तरह उसके दिल में उतरकर जीता जाता हैं. इसी प्रकार किसी से कोई काम करवाना है, तो डरा-धमकाकर और जबरदस्ती दबाव डालकर भी काम करवाया जा सकता हैं. लेकिन ऐसे में कार्य के प्रति उत्साह और समर्पण भावना नगण्य रहेगी. यदि किसी के दिल में कार्य के प्रति समर्पण भावना जागृत कर उसे उत्साहित कर कार्य करवाया जाये, तो कार्य मन लगाकर और समर्पण से किया जायेगा और ऐसे में कार्य बेहतर होगा और परिणाम भी बेहतर प्राप्त होगा.

गौरैया और हाथी की कहानी 

एक वन में बरगद के पेड़ की ऊँची डाल पर एक घोंसला था, जिसमें गौरैया का जोड़ा रहता था. दोनों दिन भर भोजन की तलाश में बाहर रहते और शाम ढले घोंसले में आकर आराम करते थे. दोनों ख़ुशी-ख़ुशी अपना जीवन-यापन कर रहे थे.

मौसम आने पर गौरैया ने अंडे दिये. अब उसका पति भोजन की तलाश में जाता और वह घोंसले में रहकर अंडों को सेती और उनकी देखभाल करती थी. वे दोनों बेसब्री से अंडों में से अपने बच्चों के बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन रोज़ की तरह गौरैया का पति भोजन की तलाश में गया हुआ था और गौरैया घोंसले में अंडों को से रही थी. तभी एक मदमस्त हाथी उस वन में आ गया और उत्पात मचाने लगा. वह अपने विशालकाय शरीर से टकराकर और सूंड से हिला-हिलाकर पेड़-पौधों को उखाड़ने लगा.

कुछ ही देर में सारा वन तहस-नहस हो गया. आगे बढ़ते-बढ़ते वह उस बरगद के पेड़ के पास पहुँचा, जहाँ गौरैया का घोंसला था. वह जोर-जोर से पेड़ को हिलाने लगा. लेकिन बरगद का पेड़ मजबूत था. हाथी उसे गिरा नहीं पाया. लेकिन इन सबमें गौरैया का घोंसला टूटकर नीचे गिर पड़ा और उसके सारे अंडे फूट गए.

अपने बच्चों की मृत्यु पर गौरैया विलाप करने लगी. जब उसका पति वापस लौटा, तो गौरैया ने रोते-रोते उसे हाथी की करतूत के बारे में बताया. वह भी बहुत दु:खी हुआ.

दोनों प्रतिशोध की आग में जल रहे थे और हाथी को सबक सिखाना चाहते थे. लेकिन हाथी जैसे विशालकाय जीव के सामने उन जैसे निरीह प्राणियों का क्या बस चलता? उन्हें अपने मित्र कठफोड़वा की याद आई और वे उसकी सहायता लेने का पहुँच गए. कठफोड़वा के दो मित्र थे – मधुमक्खी और मेंढक. वे दोनों भी गौरैया के जोड़े की सहायता को तैयार हो गए.

सबने मिलकर योजना बनाई और हाथी को सबक सिखाने निकल पड़े. पूरे वन को तहस-नहस करने के बाद हाथी एक स्थान पर आराम कर रहा था. उसे देख योजना अनुसार मधुमक्खी ने उसके कानों में अपनी स्वलहरी छेड़ दी.

हाथी स्वरलहरी में डूबने लगा ही था कि कठफोड़वा ने उसकी दोनों आखें फोड़ दी. हाथी दर्द से चीख उठा. इधर हाथी के अंधे होते ही कुछ दूरी पर मेंढक टर्र-टर्र करने लगा. मेंढक के टर्राने की आवाज़ सुनकर हाथी ने सोचा कि अवश्य ही कुछ दूरी पर तालाब है. वह मेंढक की आवाज़ की दिशा में बढ़ने लगा.

योजना अनुसार मेंढक एक दलदल के किनारे बैठा टर्रा रहा था. हाथी तालाब समझकर दलदल में जा घुसा और फंस गया. दलदल से निकलने का भरसक प्रयास करने के बाद भी वह सफ़ल न हो सका और उसमें धंसता चला गया. कुछ ही देर में वह दलदल में समा गया और मर गया.

इस तरह जैसे गौरैया ने अपने मित्रों की सहायता से हाथी से अपने बच्चों की मौत का प्रतिशोध ले लिया.   

सीख 

एकजुटता में बड़ी शक्ति होती है. एकजुट होकर कार्य करने पर कमज़ोर से कमज़ोर व्यक्ति भी बड़े से बड़ा कार्य संपन्न कर सकता है.      

सिंह, चूहा और बिल्ली की कहानी

बहुत समय पहले की बात है. दुर्दांत नाम का एक बलिष्ट सिंह अर्बुदशिखर नामक पर्वत की गुफ़ा में निवास करता था. प्रतिदिन वह शिकार हेतु वन में जाता और वापस गुफ़ा में आकर विश्राम किया करता था. एक दिन कहीं से एक चूहा उस गुफा में आ गया धमका और बिल बनाकर रहने लगा.

जब भी सिंह विश्राम कर रहा होता, चूहा बिल से निकलता और सिंह के केशों को कुतर जाता. जागने के उपरांत सिंह की जब अपने कुतरे हुए केशों पर दृष्टि जाती, तो वह क्रोध से आग-बबूला हो जाता. बलशाली होने के बावजूद भी उसका चूहे जैसे छोटे से जीव पर बस नहीं था. जब भी वह उसे पकड़ने के प्रयास करता, वह चपलता से अपने बिल में घुस जाता और सिंह क्रोधवश दांत पीसता रह जाता.

एक दिन सिंह ने सोचा कि इस छोटे से जीव पर अपनी ऊर्जा व्यर्थ करने का कोई औचित्य नहीं है. इसके विनाश के लिए इसका ही कोई परम शत्रु लाना चाहिए और वह गाँव जाकर बहला-फ़ुसलाकर एक बिल्ली ले आया.

प्रतिदिन सिंह बिल्ली के लिए ताज़ा मांस लाया करता और प्रेम से उसे खिलाता. बदले में बिल्ली सिंह के विश्राम के समय चौकसी करती. बिल्ली की उपस्थिति में चूहा डर के मारे बिल में घुसा रहता. सिंह अब निश्चिंत होकर सोने लगा. बिल्ली रोज़ ताज़ा मांस प्राप्त कर हृष्ट-पुष्ट होने लगी.

इधर चूहा बिल में घुसा-घुसा कमज़ोर हो चला था. सिंह के केश उसका आहार थे. आखिर, कब तक वह भूखे-प्यासे बिल में पड़ा रहता? एक दिन व्याकुल होकर वह अपने बिल से निकल ही गया.

सिंह उस समय विश्राम कर रहा था और बिल्ली पास ही बैठकर मांस का भक्षण कर रही थी. चूहा बिल्ली को चकमा देकर सिंह के पास जाने का प्रयास करने लगा, किंतु बिल्ली चपल थी. उसने चपलता से चूहे को अपने पंजे में दबोच लिया और मारकर खा गई.

बिल्ली प्रसन्न थी कि उसने अपने स्वामी की चिंता का सदा के लिए अंत कर दिया. उसे विश्वास था कि प्रसन्न होकर सिंह अवश्य उसे और स्वादिष्ट मांस लाकर देगा.

सिंह के जागने पर बिल्ली ने उसे चूहे को मार डालने की बात बता दी. सिंह की परेशानी का कारण समाप्त हो चुका था. वह बड़ा प्रसन्न हुआ. किंतु अब बिल्ली उसके किसी प्रयोजन की नहीं रही रही थी. उसने उसे भोजन देना बंद कर दिया. बिना भोजन के बिल्ली कमज़ोर होने लगी. उसे समझ में आ गया कि चूहे को मारकर उसने अपनी उपयोगिता समाप्त कर दी है. इसलिए सिंह उसकी उपेक्षा करने लगा लगा है. अंततः वह गुफ़ा छोड़कर चली गई.

सीख 

प्रयोजन सिद्ध हो जाने के उपरांत पूछ-परख समाप्त हो जाती है. इसलिए अपनी उपयोगिता बनाये रखें.

अभिमानी पंडित की कहानी

एक गांव में एक पंडित रहता था। उसे अपने व्याकरण ज्ञान पर बड़ा अभिमान था। वह जिससे भी मिलता, अपने व्याकरण ज्ञान का बखान करने लगता।

एक दिन उसे नदी पार कर दूसरे गांव जाना था। वह नदी किनारे पहुंचा और एक नाव पर बैठ गया। नाविक नाव खेने लगा। अपनी आदत अनुसार पंडित अपने व्याकरण ज्ञान का बखान करने लगा। उसने नाविक से पूछा, “क्यों क्या तुमने व्याकरण पढ़ा है?”

नाविक अनपढ़ था। बोला, “नहीं पंडित जी! मैं तो पढ़ा लिखा नहीं हूं। मेरा परिवार तो पीढ़ियों से नाव चला रहा है।”

पंडित उसे नीचा दिखाकर बोला, “ओह! बड़े दुख की बात है कि तुमने अपना जीवन व्यर्थ कर दिया।”

नाविक को बहुत बुरा लगा। किंतु वह पंडित को कुछ उत्तर नहीं दे पाया। बस चुपचाप नाव खेता रहा। 

नाव मझधार में पहुंच गई। तभी अचानक तेज तूफान आया और नाव डगमगाने लगी। पंडित डर गया। तब नाविक ने उससे पूछा, “पंडितजी! आपको तैरना आता है? “

“नहीं!” घबराए पंडित ने उत्तर दिया।

“तब तो पंडित जी आपका जीवन व्यर्थ जाने वाला है, क्योंकि नाव भंवर में फंस गई है और बस डूबने वाली है।” ये कहकर नाविक नाव से कूद गया।

व्याकरण का पंडित नाव में बैठा रह गया। कुछ ही देर में नाव पलट गई और पंडित पानी में डूबने लगा। उसका सारा व्याकरण का ज्ञान धरा का धरा रह गया। जान बचाने के लिए वह मदद की गुहार लगाने लगा। तब नाविक ने उसे बचाया और किनारे पर पहुंचाया।

पंडित का अभिमान चूर चूर हो चुका था। वह समझ चुका था कि अपने ज्ञान पर अभिमान नहीं करना चाहिए। 

सीख

दोस्तों! हर व्यक्ति में कोई न कोई गुण होता है। परिस्थिति के अनुसार वह गुण काम आता है। इसलिए अपने गुण का अभिमान नहीं करना चाहिए।

अंधा गिद्ध और दुष्ट बिल्ली की कहानी

गोदावरी नदी के तट पर सेमल का एक विशाल वृक्ष था. उस वृक्ष पर कई पक्षी निवास करते थे. दिन में वे भोजन की तलाश में खेत-खलिहानों में जाया करते और संध्याकाल को पेड़ पर स्थित अपने-अपने घोंसलों में लौट आते. यही उनकी दिनचर्या थी.

एक दिन जरद्गव नामक एक अंधा गिद्ध (Blind vulture) वहाँ आया. वह वृद्ध हो चला था. पक्षियों ने दयावश उसे वृक्ष के कोटर में आश्रय दे दिया. पक्षी जब भोजन की तलाश में जाते, तो गिद्ध के लिए भी भोजन ले आते थे. बदले में वह उनके बच्चों की देखभाल कर दिया करता था. इस तरह गिद्ध को बिना श्रम आहार प्राप्त हो जाता था और पक्षी भी अपने बच्चों की तरफ से निश्चिंत होकर भोजन की तलाश में दूर-दूर तक जा पाते थे. सुख-चैन से पक्षियों और गिद्ध के दिन व्यतीत हो रहे थे.

एक दिन कहीं से एक बिल्ली उस वन में आ पहुँची. इधर-उधर भटकते हुए जब वह उस पेड़ के पास से गुज़री, तो उसकी दृष्टि पक्षियों के अंडों और बच्चों पर पड़ी. उसके मुँह में पानी आ गया. वह उन्हें खाने के लिए वृक्ष पर चढ़ी, तो पक्षियों के बच्चे अपने बचाव के लिए शोर मचाने लगे. शोर सुनकर गिद्ध कोटर से बाहर निकला और चिल्लाकर बोला, “कौन है?”

बिल्ली डर गई और वृक्ष से नीचे उतर आई और गिद्ध को प्रमाण कर बोले, “महाशय, मैं बिल्ली हूँ. यही नदी किनारे रहती हूँ. पक्षियों से मैंने आपकी बहुत प्रशंषा सुनी है. इसलिए दर्शन हेतु चली आई. कृपया मेरा प्रणाम स्वीकार करें.”

गिद्ध ने उसे वहाँ से चले जाने को कहा. वह जानता था कि बिल्ली पक्षियों के बच्चों के लिए ख़तरा है. बिल्ली समझ गई कि भले ही गिद्ध अंधा और बूढ़ा क्यों न हो? उसके रहते पक्षियों के अंडों और बच्चों पर हाथ साफ़ करना असंभव है.

वह किसी तरह पानी चिकनी-चुपड़ी बातों से उसे विश्वास में लेने का प्रयास करने लगी. वह बोली, “महाशय, मैं जानती हूँ कि आपको मुझ पर संदेह है. आपको लगता है कि मैं पक्षियों के बच्चों को अपना आहार बना लूंगी. किंतु विश्वास करें, ऐसा नहीं है. एक दिन एक महात्मा से मिलने के बाद मैंने मांस खाना छोड़ दिया है. मैं पूर्णतः शाकाहारी बन गई हूँ और अपना समय धर्म-कर्म की बातों और कार्यों में ही लगाती हूँ. आपकी प्रशंसा सुनकर आपके सानिध्य में कुछ व्यतीत करने का विचार कर आपके पास आई हूँ. कृपया मुझे अपने सानिध्य में रख लें.”

गिद्ध उसके चिन्नी-चुपड़ी बातों में आ गया और उस पर विश्वास कर बैठा. उसने उसे अपने साथ वृक्ष के कोटर रहने की अनुमति दे दी. बिल्ली तो यही चाहती थी. वह गिद्ध के साथ उसी कोटर में रहने लगी और अवसर पाकर एक-एक कर पक्षियों के अंडे और बच्चे खाने लगी.

एक-एक कर अपने बच्चों और अंडों के गायब होने से सभी पक्षी चिंतित और दु:खी थे. एक दिन सबने इसकी पड़ताल करने की ठानी. जैसे ही बिल्ली को इस बात का अंदेशा हुआ, वो कोटर छोड़कर भाग गई. इधर पड़ताल करते हुए पक्षियों ने जब वृक्ष के कोटर में झांका, तो उन्हें वहाँ ढेर सारे पंख पड़े हुए दिखाई पड़े. उन्हें लगा कि गिद्ध ने ही उनके बच्चों को खा लिया है. वे सभी आक्रोश में आ गए और चोंच मार-मार का बूढ़े गिद्ध का काम तमाम कर दिया. बिल्ली पर विश्वास कर बेचारा गिद्ध व्यर्थ में ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठा.

सीख

जिसके कुल, गोत्र या स्वभाव की जानकारी न हो, उसे आश्रय नहीं देना चाहिए. 

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