मेंढक की 8 कहानियाँ | Mendhak Ki Kahani | Frog Story In Hindi

[मेंढक की कहानी Frog Story In Hindi Mendhak Ki Kahani]

Mendhak Ki Kahani

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Mendhak Ki Kahani 

मेंढक और चूहा की कहानी 

एक समय की बात है. एक जलाशय में एक मेंढक रहता था. उसके कोई मित्र नहीं थे, इसलिए वह बहुत उदास रहा करता था. वह हमेशा भगवान से एक अच्छा मित्र भेजने की प्रार्थना करता, ताकि उसकी उदासी और अकेलापन दूर हो सके.

उस जलाशय के पास ही एक पेड़ के नीचे बिल में एक चूहा रहता था. वह बहुत ही हँसमुख स्वभाव का था. एक दिन मेंढक को देखकर वह उसके पास गया और बोला, “मित्र, कैसे हो तुम?”

मेंढक उदास स्वर में बोला, “मैं अकेला हूँ. मेरे कोई मित्र नहीं. इसलिए बहुत दु:खी हूँ.”

“उदास मत हो. मैं हूँ ना. मैं तुम्हारा मित्र बनूंगा. जब भी तुम मेरे साथ समय बिताना चाहो, मेरे बिल में आ सकते हो.” चूहे ने प्रस्ताव रखा.

चूहे की बात सुनकर मेंढक बड़ा प्रसन्न हुआ. उस दिन के बाद दोनों बहुत अच्छे मित्र बन गए. वे दोनों जलाशय के किनारे कई घंटे गपशप करते. अब मेंढक खुश रहने लगा था.

एक दिन मेंढक को एक उपाय सूझा और उसने चूहे से कहा, “क्यों न हम दोनों रस्सी के दोनों छोर अपने पैरों से बांध लें. जब भी मुझे तुम्हारी याद आयेगी, मैं रस्सी को खीचूंगा और तुम्हें पता चल जायेगा.”

चूहा राज़ी हो गया. उन्होंने एक रस्सी ढूंढी और उसके छोर अपने-अपने पैरों से बांध लिये.

आकाश में मंडराता बाज़ यह सब देख रहा था. चूहे को अपना शिकार बनाने के लिए उसने उस पर झपट्टा मारा. यह देख मेंढक भयभीत हो गया और अपना जीवन बचाने के लिए जलाशय में छलांग लगा दी. किंतु जल्दी में वह भूल गया कि रस्सी का दूसरा सिरा अब भी उसके मित्र चूहे के पैर में बंधा हुआ है. चूहा भी पानी में खिंचा चला गया और डूब कर मर गया.

कुछ दिनों बाद चूहे का शव जलाशय की सतह पर तैरने लगा. बाज़ अब भी आकाश में मंडरा रहा था. उसने फिर से झपट्टा मारा और पानी में बहते हुए चूहे के शव को अपने पंजों में पकड़कर ले उड़ा. मेंढक भी साथ में चला गया क्योंकि रस्सी का एक सिरा अब भी उसके पैर में बंधा हुआ था.

सीख

मूर्ख से कभी भी दोस्ती नहीं करनी चाहिए।

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 खरगोश और मेंढक की कहानी

एक बार कुछ जंगली कुत्ते खरगोशों के एक झुंड का पीछा कर रहे थे। सभी खरगोश अपनी जान बचाने के लिए अंधाधुंध भागे जा रहे थे। किसी तरह वे जंगली कुत्तों का शिकार बनने से बच सके और एक सूखी झाड़ी के पीछे जा छुपे।

भागने के कारण सभी थके हुए थे, जान पर बन आने के कारण डरे हुए थे और अपने जीवन के बारे में सोच कर दु:खी थे। कुछ देर गहरी सांस लेकर जब वे सामान्य हुए, तो अपनी स्थिति पर चर्चा करने लगे।

एक खरगोश बोला, “मित्रों! क्या जीवन मिला है हमको! हम कितने छोटे, तुच्छ और निरीह प्राणी हैं। न हमारे पास हिरण के जैसे सींग है, न बिल्ली के जैसे तेज पंजे। शत्रु पीछे पड़ जाए, तो भागने के सिवाय हमारे पास कोई चारा नहीं रहता। ईश्वर ने घोर अन्याय किया है, हमारे साथ। संसार की सारी विपदा हमारे सिर डाल दी है।”

दूसरा खरगोश बोला, “सच कहते हो मित्र! हर समय प्राणों का संकट मंडराता रहता है। ऐसे भयपूर्ण जीवन से मैं बड़ा दुखी हूँ। जीवनलीला समाप्त करने का मन करता है।”

तीसरा खरगोश बोला, “मेरा मन भी करता है कि मर जाऊं। मैं अभी जाकर तालाब में कूद जाऊंगा।”

सारे खरगोश अपनी जीवन लीला समाप्त करने पर उतारू हो गए और उन्होंने तालाब में जाकर डूब जाने का मन बना लिया। यह निर्णय होते ही वे सभी तालाब की ओर चल पड़े।

वे जिस तालाब पर पहुँचे, वहाँ कई मेंढक रहते थे। वे सभी उस समय तालाब के किनारे बैठकर आराम कर रहे थे। जैसे ही उन्होंने खरगोशों के कदमों की आहट सुनी, वे सभी तालाब में कूद गये।

तालाब में कूदकर अपने प्राण देने गए खरगोश मेंढकों को देखकर रुक गये।

एक खरगोश बोला, “मित्रों! देखा तुम लोगों ने। ये मेंढक हमसे डरकर पानी में कूद गये। इसका अर्थ समझे। इसका अर्थ ये है कि इस संसार में हमसे भी छोटे और निरीह प्राणी हैं। वे हमारा मुकाबला नहीं कर सकते, वे हमसे डरते हैं। लेकिन फिर भी वे अपना जीवन जी रहे हैं, तो हमें प्राण त्यागने की क्या आवश्यकता है। हमें निराश नहीं होना चाहिए। जब ये जी सकते हैं, तो हम भी जी सकते हैं।”

सभी खरगोश इस बात पर सहमत हो गये और जीवन त्यागने जा विचार त्याग कर वापस लौट गये।

सीख

विपत्ति में कई बार हमें ऐसा लगता है कि संसार का सारा दु:ख हमें ही मिला है। किंतु वास्तविकता यह है कि संसार में हमसे कहीं अधिक दुखी लोग हैं। उनसे तुलना करें, तो हम स्वयं को अच्छी दशा में ही पायेंगे। इसलिए जीवन से निराश न होकर हर विपत्ति का सामना कर जीवन जीना चाहिए।”

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 मेंढक और बैल की कहानी

एक मेंढक अपने तीन बच्चों के साथ जंगल में नदी किनारे रहता था. उन चारों की दुनिया जंगल और नदी तक ही सीमित थी. बाहरी दुनिया से उनका कोई वास्ता नहीं  था.

खाते-पीते बड़े आराम और मज़े से उनका जीवन कट रहा था. मेंढक हृष्ट-पुष्ट था. उसके बच्चों के लिए वह दुनिया का सबसे विशालकाय जीव था. वह रोज़ उन्हें अपनी बहादुरी के किस्से सुनाता और उनकी प्रशंसा पाकर फूला नहीं समाता था.

एक दिन मेंढक के तीनों बच्चे घूमते-घूमते जंगल के पास  स्थित एक गाँव में पहुँच गए. वहाँ उनकी दृष्टि एक खेत में चरते हुए बैल पर पड़ी. इतना विशालकाय जीव उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था. वे कुछ डरे, किंतु उसकी विशाल काया को देखते रहे. तभी बैल ने हुंकार भरी और मेंढक के तीनों बच्चे डर के मारे उल्टे पांव भागते हुए अपने घर आ गए.

बच्चों को डरा हुआ देखकर जब मेंढक ने कारण पूछा, तो उन्होंने विस्तारपूर्वक बैल के बारे में बता दिया, “इतना बड़ा जीव हमने आज से पहले कभी नहीं देखा. हमें लगता है दुनिया का सबसे विशालकाय जीव आप नहीं वह है.”

अपने बच्चों की बात सुनकर मेंढक को बुरा लगा. उसने पूछा, “वह जीव दिखने में कैसा था?”

“उसके चार बड़े-बड़े पैर थे. एक लंबी सी पूंछ थी. दो नुकीले सींग थे. शरीर तो इतना बड़ा कि आपका शरीर उसके सामने कुछ भी नहीं.” बच्चे बोले.

यह सुनकर मेंढक के अहंकार को जबरदस्त ठेस पहुँची. उसने जोर के सांस खींची और हवा भरकर अपना शरीर फुला लिया. फिर बच्चों से पूछा, ”क्या वह इतना बड़ा था.”

“नहीं इससे बहुत बड़ा.” बच्चे बोले.

मेंढक ने थोड़ी और हवा भरकर अपना शरीर और फुलाया, “क्या इतना बड़ा?”

“नहीं नहीं और बड़ा.”

मेंढक ने जंगल के बाहर कभी कदम ही नहीं रखा था. उसे बैल के आकार का अनुमान ही नहीं था. किंतु उसने मानो ज़िद पकड़ ली थी कि अपने बच्चों के सामने स्वयं को नीचा नहीं दिखाना है.

वह जोर से सांस खींचकर ढेर सारी हवा अपने शरीर में भरने लगा. उसका छोटा सा शरीर गेंद के समान गोल हो गया. किंतु इतने पर भी वह नहीं रुका. उसका शरीर में हवा भरना जारी रहा. उसने इतनी सारी हवा अपने शरीर में भर ली कि उसका शरीर वह संभाल नहीं पाया और फट गया. अपने अहंकार में मेंढक के प्राण पखेरू उड़ गए.

सीख

अहंकार पतन का कारण है.

 कुएं में मेंढक की कहानी

एक विशाल समुद्र में एक मेंढक रहा करता था। एक दिन वह समुद्र से बाहर निकला और फुदक-फुदक कर इधर-उधर घूमने लगा। घूमते-घूमते वह बहुत दूर निकल आया। उसने जंगल पार किया। जंगल पार करते ही उसे एक कुआं नज़र आया। वह कुएं की मुंडेर पर चढ़ गया और अंदर झांककर देखा। उसे कुछ मेंढक कुएं में नज़र आये। उसने मिलने के लिए वह फौरन कुएं में कूद गया।

कुएं के पानी में जाकर वह मेंढकों से मिला। वे उसे अपने सरदार के पास ले गये।

मेंढकों के सरदार ने उससे पूछा, “तुम कहाँ से आए हो?”

समुद्री मेंढक ने उत्तर दिया, “मैं समुद्र से आया हूँ।”

कुएं में रहने वाले मेंढकों ने कभी समुद्र नहीं देखा था। वे सब आपस में खुसर-फुसुर करने लगे। मेंढकों के सरदार को भी कुछ समझ नहीं आया। उसने पूछा, “यह समुद्र क्या होता है?”

समुद्री मेंढक ने बताया, “वह स्थान जहाँ पानी ही पानी है। मैं वहीं रहता था। घूमता हुआ यहाँ आ गया।”

मेंढकों के सरदार ने उत्सुकता से पूछा, “कितना बड़ा होता है समुद्र?”

समुद्री मेंढक ने उत्तर दिया, “बहुत बड़ा। बहुत ही बड़ा। जिसका अंदाज़ा लगा पाना बहुत मुश्किल है।”

मेंढकों का सरदार कुएं के एक-तिहाई भाग तक उछल कर बोला, “इतना बड़ा?”

“नहीं! इससे भी बड़ा!” समुद्री मेंढक ने जवाब दिया।

मेंढकों का सरदार और उछला और उसने आधा कुआं तय कर लिया। फिर पूछा, “इतना बड़ा?”

“नहीं इससे भी बड़ा!” समुद्री मेंढक बोला।

फिर मेंढकों के सरदार ने उछलकर पूरे कुएं की ऊँचाई नाप दी और पूछा, “इतना बड़ा?”

समुद्री मेंढक ने हँसते हुए जवाब दिया, “इससे कहीं बड़ा। जिसका अंदाज़ा ही नहीं लगाया जा सकता।”

ना मेंढक का सरदार और ना उसके समूह के मेंढक कभी कुएं से बाहर निकले थे। कुआं ही उनकी दुनिया थी। उन्हें समुद्री मेंढक की बात पर यकीन ही नहीं हुआ। मेंढक का सरदार कुछ देर तक चुप रहा, तो समूह में से एक मेंढक बोला, “सरदार यह झूठ बोल रहा है। हमारे कुएं से विशाल जगह कोई हो ही नहीं सकती। ऐसे झूठे मक्कार मेंढक को हम अपने साथ नहीं रख सकते। इसे यहाँ से भगाइये।”

उसकी देखा-देखी समूह के अन्य मेंढक भी चिल्लाने लगे, “इस मेंढक को यहाँ से निकालिये। इस मेंढक को यहाँ से भगाइये।”

मेंढकों के सरदार को भी आखिर उन लोगों की बात सही लगी। उसने आदेश दिया कि इस झूठे दगाबाज मेंढक को यहाँ से भगा दिया जाए। सबने मिलकर समुद्री मेंढक को कुएं से बाहर निकाल दिया।

सीख

जीवन में अक्सर ऐसा ही होता है। जिस चीज को हमने कभी ना देखा हो, उस पर विश्वास करना मुश्किल है। जो काम जीवन में कभी ना किया हो, उसमें सफ़ल होने पाने का विश्वास होना मुश्किल है। यदि हमने संकुचित बुद्धि से सोचा, तो कुएं में ही रह जायेंगे। अर्थात जीवन के संकुचित दायरे में ही सिमट कर रह जायेंगे। जीवन में प्रगति करना है, तो सबसे पहले अपनी सोच को विस्तारित करना होगा। सारी बातों के बारे में विस्तारपूर्वक जानकर निर्णय लेना होगा और जीवन की असीमित संभावनाओं के बारे में विचार करना होगा। तब ही हम उस दिशा में कार्य कर पायेंगे और सफ़लता के नये आयामों को छू पायेंगे।

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 मुठ्ठी भर मेंढक कहानी 

बहुत समय पहले की बात है. एक गाँव में एक सज्जन और ईमानदार व्यक्ति रहता था. गाँव के सभी लोग उसकी बहुत प्रशंषा करते थे. सभी लोगों का प्रशंषापात्र होने के कारण वह बहुत प्रसन्न था.

एक दिन की बात है. काम से लौटते हुए उसे अपने आगे कुछ दूरी पर चलते हुए लोगों की बातें सुनाई पड़ी. वे उसके बारे में ही बातें कर रहे थे. वह जानता था कि गाँव के लोग उसकी प्रशंषा के पुल बांधा करते है. वह अपनी प्रशंषा सुनने के उत्साह को रोक नहीं सका और दबे पांव उनके पीछे चलते हुए उनकी बातें सुनने लगा.

लेकिन जब उसने उनकी बातें सुनी, तो वह उदास हो गया, क्योंकि वे सभी लोग उसकी बुराई कर रहे थे. कोई उसे घमंडी बता रहा था, तो कोई दिखावेबाज़.

उन बातों ने उसके मन को झकझोरकर रख दिया. उसे महसूस होने लगा कि अब तक वह भुलावे में था कि सभी लोग उसकी प्रशंषा करते है. जबकि वास्तविकता इसके उलट है.

उस दिन के बाद से जब भी वह किसी को बातें करते हुए देखता, तो सोचता कि अवश्य ही वे उसकी बुराई कर रहे हैं. प्रशंषा करने पर भी वह उसे अपना मज़ाक लगता. इस सोच के दिमाग में घर करने के कारण वह बदल गया और उदास रहने लगा.

उसकी पत्नि भी कुछ दिनों में उसके व्यवहार में आये बदलाव को समझ गई. पूछने पर पत्नि को उस व्यक्ति ने पूरी बात बता दी. पत्नि समझ नहीं पा रही थी कि अपने पति को कैसे समझाये. आखिरकार बहुत सोच-विचार के बाद वह उसे गाँव के एक महात्मा के पास लेकर गई.

पूरी घटना का विवरण करने के बाद व्यक्ति ने कहा कि गुरुदेव लोगों की बुरी बातों से मैं आहत हूँ. हर कोई मेरी बुराई ही करता रहता है. मैं चाहता हूँ कि सब कुछ पहले जैसा हो जाये और सब मेरी प्रशंषा करें.

व्यक्ति की बात ध्यान से सुनने के बाद महात्मा ने कहा, “बेटा! तुम अपनी पत्नि को घर छोड़ आओ. आज रात तुम्हें मेरे आश्रम में ही रहना होगा.”

पत्नि को घर छोड़ने के बाद वह व्यक्ति आश्रम में वापस आ गया. रात में जब वह सोने गया, तो मेंढकों के टर्राने की आवाज़ उसके कानों में पड़ी. आश्रम के पीछे एक तालाब था, मेंढकों के टर्राने की आवाज़ वहीं से आ रही थी.

सारी रात कोलाहल के कारण वह ठीक से सो न सका. सुबह उठकर वह महात्मा के पास गया और बोला, “गुरुदेव! मेंढकों के कारण मेरी नींद ही नहीं पड़ी. लगता है तालब में पचास-साठ हजार मेंढक होंगें. आपको भी उनसे परेशानी होती होगी. मैं ऐसा करता हूँ कि कुछ मजदूर लेकर आता हूँ और उनको निकालकर दूर किसी नदी में डाल आता हूँ.”

महात्मा से आज्ञा लेकर वह व्यक्ति तालाब पर मेंढक निकालने गया. जब तालाब में जाल फेंका गया, तो उसमें से मुठ्ठी भर मेंढक ही निकले.

यह देखकर व्यक्ति हैरान हो गया. उसने महात्मा से पूछा, “गुरुदेव रात में तो लग रहा था कि तालाब में हज़ारों मेंढक है. आज सब कहाँ चले गए.”

महात्मा बोले, “बेटा! रात में भी ये मुठ्ठी भर मेंढक ही थे. लेकिन उन्होंने इतना शोर मचाया कि तुम्हें इनकी संख्या हज़ारों में लगी. ऐसा ही तुम्हारे जीवन में भी है. तुमने कुछ लोगों को अपनी बुराई करते हुए सुना और तुम्हें गलतफ़हमी हो गई कि पूरा गाँव तुम्हारी बुराई करता है. अब कभी भी कहीं भी अपनी बुराई सुनो, तो सोचना कि वे लोग तालाब के मुठ्ठी भर मेंढक जितने ही हैं. और हाँ, चाहे तुम कितने भी अच्छे क्यों न हो, कुछ लोग तो रहेंगे ही जो तुम्हारी बुराई करेंगे.”

व्यक्ति को महात्मा की बात समझ में आ गई और वह घोर निराशा से बाहर निकल गया.

सीख

मित्रों, हमें कुछ लोगों के व्यवहार को सबका व्यवहार नहीं समझ लेना चाहिए. परिस्थितियाँ चाहे कैसी भी हो, उसमें लोगों का व्यवहार चाहे कैसा भी हो, हमें सदा सकारात्मक सोच रखनी चाहिए. सकारात्मक सोच से हर प्रकार की समस्या का हल निकल आता है. प्रारंभ में हमें लगता है कि समस्या बहुत बड़ी है, किंतु निराकरण होने के बाद वही समस्या छोटी लगने लगती है. इसलिए समस्या को अपनी सोच में बड़ा बनाने के स्थान पर उसके निराकरण के बारे में सोचना चाहिये.

उबलता पानी और मेंढक की कहानी 

एक बार वैज्ञानिकों ने शारीरिक बदलाव की क्षमता की जांच के लिए एक शोध किया. शोध में एक मेंढक लिया गया और उसे एक कांच के जार में डाल दिया गया. फ़िर जार में पानी भरकर उसे गर्म किया जाने लगा. जार में ढक्कन नहीं लगाया गया था, ताकि जब पानी का गर्म ताप मेंढक की सहनशक्ति से बाहर हो जाए, तो वह कूदकर बाहर आ सके.

प्रारंभ में मेंढक शांति से पानी में बैठा रहा. जैसे पानी का तापमान बढ़ना प्रारंभ हुआ, मेंढक में कुछ हलचल सी हुई. उसे समझ में तो आ गया कि वो जिस पानी में बैठा है, वो हल्का गर्म सा लग रहा है. लेकिन कूदकर बाहर निकलने के स्थान पर वो अपनी शरीर की ऊर्जा बढ़े हुए तापमान से तालमेल बैठाने में लगाने लगा.

पानी थोड़ा और गर्म हुआ, मेंढक को पहले से अधिक बेचैनी महसूस हुई. लेकिन, वह बेचैनी उसकी सहनशक्ति की सीमा के भीतर ही थी. इसलिए वह पानी से बाहर नहीं कूदा, बल्कि अपने शरीर की ऊर्जा उस गर्म पानी में तालमेल बैठाने में लगाने लगा.

धीरे-धीरे पानी और ज्यादा गर्म होता गया और मेंढक अपने शरीर की अधिक ऊर्जा पानी के बढ़े हुए तापमान से तालमेल बैठाने में लगता रहा.

जब पानी उबलने लगा, तो मेंढक की जान पर बन आई. अब उसकी सहनशक्ति जवाब दे चुकी थे. उसने जार से बाहर कूदने के लिए अपने शरीर की शक्ति बटोरी, लेकिन वह पहले ही शरीर की समस्त ऊर्जा धीरे-धीरे उबलते पानी से तालमेल बैठाने में लगा चुका था. अब उसके शरीर में जार से बाहर कूदने की ऊर्जा शेष नहीं थी. वह जार से बाहर कूदने में नाकाम रहा और उसी जार में मर गया.

यदि समय रहते उसने अपनी शरीर की ऊर्जा का प्रयोग जार से बाहर कूदने में किया होता, तो वह जीवित होता.

सीख

दोस्तों, हमारे जीवन में भी ऐसा होता है. अक्सर परिस्थितियाँ विपरीत होने पर हम उसे सुधारने या उससे बाहर निकलने का प्रयास ना कर उससे तालमेल बैठाने में लग जाते है. हमारी आँख तब खुलती है, जब परिस्थितियाँ बेकाबू हो जाती है और हम पछताते रह जाते हैं कि समय रहते हमने कोई प्रयास क्यों नहीं किया. इसलिए प्रारंभिक अनुभव होते ही परिस्थितियाँ सुधारने की कार्यवाही प्रारंभ कर दे और जब समझ आ जाये कि अब इन्हें संभालना मुश्किल है, तो उससे बाहर निकल जायें. परिस्थितियों से लड़ना आवश्यक है, लेकिन समय रहते उससे बाहर निकल जाना बुद्धिमानी है.

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 दो मछलियों और एक मेंढक की कहानी

एक तालाब में शतबुद्धि (सौ बुद्धियों वाली) और सहस्त्रबुद्धि (हज़ार बुद्धियों वाली) नामक दो मछलियाँ रहा करती थी. उसी तालाब में एकबुद्धि नामक मेंढक भी रहता था. एक ही तालाब में रहने के कारण तीनों में अच्छी मित्रता थी.

दोनों मछलियों शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि को अपनी बुद्धि पर बड़ा अभिमान था और वे अपनी बुद्धि का गुणगान करने से कभी चूकती नहीं थीं. एकबुद्धि सदा चुपचाप उनकी बातें सुनता रहता. उसे पता था कि शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि के सामने उसकी बुद्धि कुछ नहीं है.

एक शाम वे तीनों तालाब किनारे वार्तालाप कर रहे थे. तभी समीप के तालाब से मछलियाँ पकड़कर घर लौटते मछुआरों की बातें उनकी कानों में पड़ी. वे अगले दिन उस तालाब में जाल डालने की बात कर रहे थे, जिसमें शतबुद्धि, सहस्त्रबुद्धि और एकबुद्धि रहा करते थे.

यह बात ज्ञात होते ही तीनों ने उस तालाब रहने वाली मछलियों और जीव-जंतुओं की सभा बुलाई और मछुआरों की बातें उन्हें बताई. सभी चिंतित हो उठे और शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि से कोई उपाय निकालने का अनुनय करने लगे.

सहस्त्रबुद्धि सबको समझाते हुए बोली, “चिंता की कोई बात नहीं है. दुष्ट व्यक्ति की हर कामना पूरी नहीं होती. मुझे नहीं लगता वे आयेंगे. यदि आ भी गए, तो किसी न किसी उपाय से मैं सबके प्राणों की रक्षा कर लूंगी.”

शतबुद्धि ने भी सहस्त्रबुद्धि की बात का समर्थन करते हुए कहा, “डरना कायरों और बुद्धिहीनों का काम है. मछुआरों के कथन मात्र से हम अपना वर्षों का गृहस्थान छोड़कर प्रस्थान नहीं कर सकते. मेरी बुद्धि आखिर कब काम आयेगी? कल यदि मछुआरे आयेंगे, तो उनका सामना युक्तिपूर्ण रीति से कर लेंगे. इसलिए डर और चिंता का त्याग कर दें.”

तालाब में रहने वाली मछलियों और जीवों को शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि के द्वारा दिए आश्वासन पर विश्वास हो गया. लेकिन एकबुद्धि को इस संकट की घड़ी में पलायन करना उचित लगा. अंतिम बार वह सबको आगाह करते हुए बोला, “मेरी एकबुद्धित कहती है कि प्राणों की रक्षा करनी है, तो यह स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना सही है. मैं तो जा रहा हूँ. आप लोगों को चलना है, तो मेरे साथ चलें.”

इतना कहकर वह वहाँ से दूसरे तालाब में चला गया. किसी ने उस पर विश्वास नहीं किया और शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि की बात मानकर उसी तालाब में रहे.

अलगे दिन मछुआरे आये और तालाब में जाल डाल दिया. तालाब की सभी मछलियाँ उसमें फंस गई. शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि ने अपने बचाव के बहुत यत्न करे, किंतु सब व्यर्थ रहा. मछुआरों के सामने उनकी कोई युक्ति नहीं चली और वे उनके बिछाए जाल में फंस ही गई.

जाल बाहर खींचने के बाद सभी मछलियाँ तड़प-तड़प कर मर गई. मछुआरे भी जाल को अपने कंधे पर लटकाकर वापस अपने घर के लिए निकल पड़े. शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि बड़ी मछलियाँ थीं. इसलिए मछुआरों ने उन्हें जाल से निकालकर अपने कंधे पर लटका लिया था. जब एकबुद्धि ने दूसरे तालाब से उनकी ये दुर्दशा देखी, तो सोचने लगा : अच्छा हुआ कि मैं एकबुद्धि हूँ और मैंने अपनी उस एक बुद्धि का उपयोग कर अपने प्राणों की रक्षा कर ली. शतबुद्धि या सहस्त्रबुद्धि होने की अपेक्षा एकबुद्धि होना ही अधिक व्यवहारिक है.

सीख

१. बुद्धि का अहंकार नहीं करना चाहिए.

२. एक व्यवहारिक बुद्धि सौ अव्यवहारिक बुद्धियों से कहीं बेहतर है.

 साँप और मेंढक की कहानी 

एक पर्वतीय प्रदेश में एक वृद्ध साँप रहता था. उसका नाम मंदविष था. वृद्धावस्था के कारण उसके लिए अपने आहार की व्यवस्था करना कठिन होता जा रहा था. अतः वह बिना परिश्रम के किसी तरह भोजन जुटाने का उपाय सोचा करता था. एक दिन उसे एक उपाय सूझ गया.

बिना समय गंवाए वह मेंढकों से भरे एक तालाब के किनारे पहुँचा और कुंडली मारकर यूं बैठ गया, मानो ध्यान में लीन हो.

जब एक मेंढक के उसे इस तरह देखा, तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसने उससे पूछा, “क्या बात है साँप मामा? आज इस घड़ी आप यहाँ कुंडली मारकर बैठे हो. भोजन की व्यवस्था नहीं करनी है क्या? आज क्या आपका उपवास है?”

मंदविष ने मधुर वाणी में उत्तर दिया, “अरे बेटा! आज प्रातः जो घटना मेरे साथ घटित हुई, उसने मेरी भूख हर ली है.”

“ऐसा क्या हुआ मामा?” मेंढक ने जिज्ञासावश पूछा.

“बेटा! प्रातः मैं एक नदी किनारे भोजन की तलाश में घूम रहा रहा था. वहाँ मुझे एक मेंढक दिखाई पड़ा. मैंने सोचा कि आज के भोजन की व्यवस्था हो गई और उसे पकड़ने बढ़ा. पास ही एक ब्राह्मण और उसका पुत्र ध्यान में लीन थे. जैसे ही मैंने मेंढक पर हमला किया, वह उछलकर दूर चला गया और ब्राह्मण का पुत्र मेरे दंश का शिकार बन गया. वह वहीं तड़पकर मर गया. अपने पुत्र की मृत्यु देख ब्राह्मण क्रोधित हो गया और उसने मुझे मेंढकों का वाहन बनने का श्राप दे दिया. इसलिए मैं यहाँ तुम लोगों का वाहन बनने आया हूँ.”

मेंढक ने यह बात अपने राजा जलपाद को बताई. राजा जलपाद ने सभा बुलाकर अपनी प्रजा को ये बात बताई. सबने निर्णय लिया कि वे वृद्ध साँप का श्राप पूर्ण करने में उसकी सहायता करेंगे. इस तरह वे साँप की सवारी का आनंद भी उठा लेंगे.

सब मिलकर मंदविष के पास गए. फन फैलाये मंदविष को देख सारे मेंढक डर गए. किंतु, जलपाद नहीं डरा और जाकर उसके फन पर चढ़ गया. मंदविष ने कुछ नहीं कहा. इसे अन्य मेंढकों का भी साहस बढ़ गया और वे भी मंदविष के ऊपर चढ़ने लगे.

जब सारे मेंढक मंदविष के ऊपर चढ़ गए, तो वह उन्हें भांति-भांति के करतब दिखाने लगा. उसने उन्हें दिन भर इधर-उधर की ख़ूब सैर करवाई, जिसमें सभी मेंढकों को बड़ा आनंद आया.

अगले दिन वे सब फिर सवारी के लिए मंदविष के पास आये. मंदविष ने उन्हें अपने ऊपर चढ़ा तो लिया, किंतु वह चला नहीं. यह देख जलपाद ने पूछा, “क्या बात है? आज आप हमें करतब नहीं दिखा रहे, न ही हमें घुमा रहे हैं.”

मंदविष बोला, “मैंने कुछ दिनों से कुछ नहीं खाया है. इसलिए मुझे चलने में कठिनाई हो रही है.”

“अरे ऐसा है, तो आप छोटे-छोटे मेंढकों को खाकर अपनी भूख मिटा लो. फिर हमें ढेर सरे करतब दिखाओ.” जलपाद बोला.

मंदविष इसी अवसर की ताक में था. वह प्रतिदिन थोड़े-थोड़े मेंढक खाने लगा. जलपाद को अपने आनंद में यह भी सुध नहीं रहा कि धीरे-धीरे उसके वंश का नाश होता जा रहा है. उसे होश तब आया, जब वह अकेला ही बचा और मंदविष उसे अपना आहार बनाने पर तुल गया. वह बहुत गिड़गिड़ाया, किंतु मंदविष ने एक न सुनी और उसे भी लील गया. इस तरह पूरे मेंढक वंश का नाश हो गया.

सीख 

अपने क्षणिक सुख के लिए अपने हितैषियों या वंश की हानि नहीं करनी चाहिए. अपने वंश की रक्षा में ही हमारी रक्षा है.

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