राजा की 15 कहानियां | 15 Raja Ki Kahani In Hindi

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Raja Ki Kahani 

Raja Ki Kahani 

राजा और काना घोड़ा की कहानी 

एक राजा के पास एक हृष्ट पुष्ट और सुंदर घोड़ी थी। वह उससे बहुत प्रेम करता था और उसका विशेष खयाल रखता था। इसका कारण ये था कि युद्ध क्षेत्र में घोड़ी ने कई बार राजा के प्राणों की रक्षा की थी। ये घोड़ी की वफादारी थी, जिसने राजा का दिल जीत लिया था।

घोड़ी ने कई वर्षों तक राजा की सेवा की और पूर्ण वफादार बनी रही। जब उसकी उम्र हो गई, तो उसकी जगह उसके बेटे ने ले ली। घोड़ी का बेटा हृष्ट पुष्ट था। मगर उसमें एक खामी थी। वह जन्म से ही काना था। इस बात को लेकर वह हमेशा दुखी रहा करता था।

एक बार उसने घोड़ी से पूछा, “मां! मैं काना क्यों जन्मा?”

घोड़ी ने बताया, “बेटा! जब तू मेरे गर्भ में था। उस समय एक दिन राजा मेरी सवारी कर रहा था और मेरे कदम लड़खड़ा जाने पर आवेश में आकर उसने मुझे एक चाबुक मार दिया था। शायद यही कारण है कि तू काना जन्मा।”

ये सुनकर काने घोड़े का मन राजा के प्रति क्रोध से भर उठा। वह बोला, “मां! राजा ने मुझे जीवन भर का दुख दिया है। मैं उससे इसका प्रतिशोध लूंगा।”

घोड़ी ने समझाया, “नहीं बेटा! राजा हमारा पालक है। उसके प्रति प्रतिशोध की भावना अपने हृदय में मत ला। क्षणिक आवेग में उसे क्रोध आ गया और वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाया। इसका अर्थ ये कतई नहीं कि वह हमसे प्रेम नहीं करता। तू प्रतिशोध लेने का विचार अपने हृदय से निकाल दे।”

मां के समझाने पर भी काने घोड़े का क्रोध शांत नहीं हुआ। वह राजा से प्रतिशोध लेने का अवसर ढूंढने लगा। बहुत जल्द उसे यह अवसर मिल भी गया।

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राजा युद्ध के मैदान में काने घोड़े पर सवार था। उसके और उसके पड़ोसी राज्य के राजा के बीच घमासान युद्ध छिड़ा हुआ था। तलवारबाजी करते-करते अचानक राजा घोड़े से नीचे गिर पड़ा। मौत उसके करीब थी। काना घोड़ा उसे वहीं उसी हाल में छोड़कर भाग सकता था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने फुर्ती दिखाई और राजा को फिर से अपनी पीठ पर बिठाकर उसके प्राण बचा लिए।

वह चकित था कि उसने ऐसा क्यों किया। जिस व्यक्ति ने उसे काना बनाया, उसने उसके प्रति वफादारी क्यों दिखाई? क्यों उससे प्रतिशोध नहीं लिया?

ये प्रश्न उसने घोड़ी से पूछा, तो वह मुस्कुराते हुए बोली, “तू आखिर बेटा किसका है? मेरा ना! मेरी छत्रछाया में तू पला बढ़ा है। जो संस्कार मैंने तुझे दिए हैं, वे तेरी रग रग में रच बस गए हैं। उन संस्कारों के विपरीत तू जा ही नहीं सकता। वफादारी तेरे खून में है बेटा। तू वफादार ही रहेगा।”

सीख 

दोस्तों! संस्कारों का आचरण पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। जिन संस्कारों के साए में बच्चे का पालन पोषण होता है, वे उसके अवचेतन में गहरे तक समाहित हो जाते हैं। ऐसे में अपने संस्कारों के विपरीत वह जा ही नहीं सकता।

संस्कारों का सबसे बड़ा आधार परिवार है, जहां से संस्कारों की नींव पड़ती है। हर माता पिता की जिम्मेदारी है कि वे अपने परिवार को अच्छे संस्कारों की नींव दे। अच्छे संस्कार के परिवार का व्यक्ति संस्कारी बनेगा और अपने कर्मों से समाज में सदा सम्मान पायेगा।

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राजा और बाज़ की कहानी

एक राज्य में एक राजा राज करता था। उसे पक्षियों से बड़ा प्रेम था। उसके बाग में तरह तरह के पक्षियों का बसेरा था।

एक दिन उसके दरबार में एक बहेलिया आया। बहेलिया अपने साथ बाज़ के दो बच्चे लाया था। उसने दोनों बाज़ के बच्चे राजा को दिए और बदले में इनाम पाकर लौट गया।

राजा बाज़ के बच्चों को पाकर बहुत खुश हुआ। दोनों बाज़ राजा के बाग में पलने लगे। जब वे उड़ने लायक हुए, तब एक बाज़ तो उड़ने लगा। मगर एक बाज़ पेड़ की डाल पर बैठा रहा।

राजा ने अपने सेवकों से उस बाज़ को उड़ाने को कहा। सबने बहुत कोशिश की, लेकिन बाज़ नहीं उड़ा। अंत में राजा ने पूरे राज्य में घोषणा करवा दी कि जो भी व्यक्ति उस बाज़ को उड़ाएगा, उसे ईनाम में पचास स्वर्ण मुद्राएं दी जायेंगी।

राज्य भर से लोग आने लगे और बाज़ को उड़ाने का प्रयास करने लगे। लेकिन बाज़ नहीं उड़ा। धीरे धीरे लोगों ने आना बंद कर दिया। राजा हताश हो गया। उसे लगने लगा कि उसका बाज़ कभी नहीं उड़ पाएगा।

कुछ दिन बीत गए। एक दिन मंत्री एक व्यक्ति को लेकर राजा के पास आया और बोला, “महाराज! दूसरा बाज़ उड़ने लगा।”

राजा ने चकित होकर पूछा, “कैसे?”

“महाराज! इस व्यक्ति ने ये कर दिखाया।” मंत्री व्यक्ति की तरफ इशारा करके बोला।

राजा ने उस व्यक्ति से पूछा, “बताओ तुमने ये कैसे किया? कैसे तुमने बाज़ को उड़ाया?”

व्यक्ति बोला, “महाराज! मैंने वो डाल काट दी, जिस पर बाज़ बैठा हुआ था।”

सीख 

दोस्तों! हम सफलता की ऊंची उड़ान भरना तो चाहते हैं। लेकिन अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलना नहीं चाहते। सफलता प्राप्त करने के लिए रिस्क लेना पड़ता था, आराम छोड़ना पड़ता है और जी जान से मेहनत करनी पड़ती है। यदि आप इसके लिए तैयार हैं, तो आपको सफ़ल होने से कोई रोक नहीं सकता। लेकिन यदि आप आज के छोटे सुखों का मोह त्याग नहीं पाएंगे, तो भविष्य की बड़ी सफलता से सदा वंचित रहेंगे।

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राजा और माली की कहानी

एक निर्धन व्यक्ति राजा के महल में माली का काम करता था। उसने राजमहल के बाग में कई प्रकार के फलों के पेड़ लगाए थे। जो फल पक जाते, वो तोड़कर राजा के सामने प्रस्तुत कर देता। कई बार खुश होकर राजा उसे इनाम भी देते।

एक बार बाग में आम, अंगूर और नारियल के फल हुए। माली टोकरी लेकर बाग में पहुँचा और सोचने लगा कि आज कौन सा फल महाराज के लिए ले जाऊं। कुछ देर सोचने के बाद उसने अंगूर तोड़ लिए और टोकरी में भरकर राजा के पास पहुँचा।

उन दिनों राजा कुछ चिंतित था। उसे गुप्तचर द्वारा सूचना मिली थी कि पड़ोसी राज्य का राजा उस पर आक्रमण की तैयारी में है। वह इस बारे में गहन सोच विचार में डूबा हुआ था। तभी माली उसके पास पहुँचा और चुपचाप उसके सामने टोकरी रखकर कुछ दूर जाकर बैठ गया।

राजा मंथन करते-करते टोकरी से अंगूर उठाकर खाने लगा। वह आधा अंगूर खाता और आधा फेंक देता, जो माली के ऊपर गिरता। जैसे ही अंगूर माली को लगता, वह कहता, “भगवान तू बड़ा दयालु है।”

सोच-विचार में डूबे राजा का ध्यान इस ओर नहीं था कि वह अंगूर माली के ऊपर फेंक रहा है। एक बार फिर उसने अंगूर माली के ऊपर फेंका और माली ने फिर से कहा, “भगवान तू बड़ा दयालु है।”

इस बार राजा का ध्यान माली की ओर चला गया। उसने आश्चर्य से उसे देखा और पूछा, “माली! मैं तुम पर जूठे फल फेंक रहा हूँ और तुम कह रहे हो, भगवान तू बड़ा दयालु है। इसमें भगवान की कैसी दया?”

माली ने उत्तर दिया, “महाराज! आज बाग में तीन तरह के फल थे – आम, अंगूर और नारियल। मैं सोच रहा था कि आपके लिए कौन सा फल लाऊं। भगवान की दया से मेरी बुद्धि में आया कि आपके लिए अंगूर ले चलूं और मैं अंगूर ले आया। यदि मैं आम या नारियल ले आता, तो सोचिए मेरा हाल क्या होता। इसलिए मैं कह रहा हूँ कि भगवान बड़ा दयालु है।”

राजा माली का उत्तर सोचने लगा कि वह व्यर्थ में चिंतित है। भगवान की दया से उसे समय रहते पड़ोसी राज्य के राजा के मंसूबों का पता चल गया है। इससे उसे अपने राज्य की रक्षा की तैयारी का पर्याप्त समय मिल गया है। उसने भगवान को धन्यवाद दिया और राज्य की रक्षा की तैयारी में जुट गया। जब युद्ध हुआ, तो उसमें उसकी विजय हुई और उसने अपना राज्य बचा लिया।

सीख

दोस्तों, समय का चक्र ऐसा ही है। कभी अच्छा समय आएगा तो कभी बुरा। अच्छे समय में हम भगवान को धन्यवाद देना भूल जाते हैं और बुरे समय में शिकायत करने लग जाते हैं। जबकि आवश्यकता है कि अच्छे समय के लिए हम भगवान का धन्यवाद करें और बुरे समय के लिए आभार व्यक्त करें कि हमें हर परिस्थितियों का सामना कर मजबूत इंसान बनाने उसने हमारे सामने वे परिस्थितियाँ उत्पन्न की है।

छोटी-छोटी परेशानियों का सामना करके ही हम बड़ी मुसीबतों का सामना करने योग्य बन पायेंगे। इसलिए जीवन में आने वाली छोटी-छोटी समस्याओं से घबराये नहीं। सकारात्मक रहकर समस्या के निवारण के बारे में चिंतन करें, योजना बनायें और निवारण में जुट जायें।

बुरी परिस्थितियाँ आपकी दृढ़ता की परीक्षा है। ऐसे समय में टूटे नहीं, ये साबित कर दें कि आप हर परिस्थिति का सामना कर सकते हैं, उससे उबर सकते हैं और जीवन में आगे बढ़ सकते हैं। जीवन की ऊबड़-खाबड़ डगर पर चलकर ही आप दृढ़ और मजबूत इंसान के तौर पर खड़े हो पायेंगे।

लोभी राजा मिदास की कहानी

कई वर्षों पहले एक राज्य में मिदास नामक एक लोभी राजा राज करता था. उसकी एक बहुत ही सुंदर पुत्री थी, जिसका नाम ‘मेरीगोल्ड’ था.

मिदास अपनी पुत्री से बहुत प्रेम करता था, किंतु उससे कहीं अधिक उसे सोने से प्रेम था. उसका ख़जाने में सोने का भंडार था. उतना सोना दुनिया में किसी भी राजा के ख़जाने में नहीं था. इसके बाद भी खजाने में जितना सोना बढ़ता, राजा मिदास की लालसा उतनी ही बढ़ती जाती थी. उसके दिन का अधिकांश समय खजाने में रखे सोने को गिनने में निकल जाता था. सोने के लालसा में अक्सर वह अपनी पुत्री को अनदेखा कर देता था.

दिन पर दिन उसकी सोने की ललक बढ़ती जा रहे थी. और अधिक सोना प्राप्त करने के उद्देश्य से उसने एक बार अन्न-जल त्याग कर ईश्वर की कठोर उपासना की. उसकी उपासना से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उसे दर्शन दिये और मनचाहा वरदान मांगने को कहा.

मिदास बोला, ”हे ईश्वर! मुझे वरदान दीजिये कि मैं जिस भी वस्तु हो छुऊं, वह सोने की बन जाये.”

ईश्वर मिदास की लालसा समझ रहे थे. वरदान देने के पूर्व उन्होंने पूछा, “राजन! क्या यह वरदान मांगने के पूर्व तुमने अच्छी तरह विचार कर लिया है.”

“हे ईश्वर! मैं इस विश्व का सबसे धनी राजा बनना चाहता हूँ. मैंने अच्छी तरह सोच लिया है. मुझे यही वरदान चाहिए. कृपया मुझे वरदान प्रदान कीजिये.” मिदास ने उत्तर दिया.

“तथास्तु! मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि कल सूर्य की पहली किरण के साथ तुम जिस भी वस्तु को छुओगे, वह सोने की बन जायेगी.” आशीर्वाद देने के उपरांत ईश्वर अंतर्ध्यान हो गए.

राजा मिदास यह वरदान पाकर खुशी से फूला नहीं समाया. दूसरे दिन सोकर उठने के उपरांत अपनी शक्ति परखने के लिए उसने अपने पलंग को छूकर देखा. वह पलंग सोने का बन गया. मिदास बहुत खुश हुआ. दिन भर वह सुध-बुध खोकर अपने महल की हर चीज़ को सोने में परिवर्तित करने में लगा रहा. उसे भोजन तक का होश न रहा.

शाम तक वह थककर चूर हो चुका था. उसे जोरों की भूख लग आई थी. उसने अपने सेवकों को भोजन परोसने के लिये कहा. भोजन परोसा गया. किंतु यह क्या? जैसे ही उसने भोजन को हाथ लगाया, वह सोने में परिवर्तित हो गया. अब सोने को तो खाया नहीं जा सकता था. भूख से बेहाल राजा मिदास ने फल खाकर भूख मितानी चाही. किंतु उसके छूते ही वह भी सोने में परिवर्तित हो गया. वह गुस्से से तिलमिला उठा और उठकर बाहर चला आया.

बाहर टहलते हुए वह अपने महल के उद्यान में पहुँचा. वहाँ उसने देखा कि उसकी नन्ही पुत्री ‘मेरीगोल्ड’ खेल रही है. उसका सुंदर मुख देख राजा के मन में प्रेम उमड़ आया. कुछ क्षणों के लिए वह अपनी भूख भूल गया. जब ‘मेरीगोल्ड’ ने अपने पिता को देखा, तो वह उसके पास दौड़ी चली आई और प्रेमपूर्वक उससे लिपट गई. राजा मिदास ने प्जैरेम जताते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा और तुरंत ही वह सोने में परिवर्तित हो गई. अपनी नन्ही पुत्री को सोने का बना देख वह दु:खी हो गया और रोने लगा.

उसने फिर से ईश्वर से प्रार्थना की. प्रार्थना सुनकर ईश्वर प्रकट हुए और उससे पूछा, “राजन! क्या हुआ? अब तुम्हें क्या वरदान चाहिए?”

मिदास रो-रोकर कहने लगा, “हे ईश्वर! मुझे क्षमा करें. सोने की लालसा में मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी और मैं यह वरदान मांग बैठा था. किंतु अपनी पुत्री को खोने के बाद अब मेरी आँखें खुल गई है. मुझे समझ आ गया है कि हर वस्तु अमूल्य है और उन सबमें सबसे अमूल्य है मेरी पुत्री. भगवन, कृपया यह वरदान वापस ले लें और मुझे मेरी पुत्री लौटा दें. अब मैं सोने की लालसा त्याग दूंगा और अपना कोषागार निर्धनों और ज़रूरतमंदों के लिए खोल दूंगा.”

ईश्वर ने जब उसके पछतावे के आँसू देखे, तो अपना वरदान वापस ले लिया. दूसरे दिन सूर्य की पहली किरण के साथ सारी वस्तुएं अपने वास्तविक रूप में आने लगी. राजा मिदास की पुत्री भी अपने वास्तविक स्वरुप में आ गई. उसने  ने अपने वचन के अनुसार अपना कोषागार निर्धनों और ज़रूरतमंदों के लिए खोल दिया. उसका लोभ ख़त्म हो चुका था. वह एक संतुष्ट जीवन व्यतीत करने लगा.

सीख 

1..धन महत्वपूर्ण अवश्य है, किंतु सर्वस्व नहीं. प्रेम, ख़ुशी, संतुष्टि कभी भी धन से खरीदी नहीं जा सकती.

2. लोभ का परिणाम बुरा होता है.

राजा ब्रूस और मकड़ी की कहानी

एक समय की बात है. स्कॉटलैंड में रॉबर्ट ब्रूस नाम का राजा राज करता था. उसके राज्य में खुशहाली और शांति थी. प्रजा उसका बहुत सम्मान करती थी.

एक बार इंग्लैंड के राजा ने स्कॉटलैंड पर आक्रमण कर दिया. दोनों राज्यों के मध्य घमासान युद्ध हुआ. उस युद्ध में राजा ब्रूस की पराजय हुई और स्कॉटलैंड पर इंग्लैंड का कब्ज़ा हो गया.

राजा ब्रूस किसी भी तरह अपना राज्य वापस प्राप्त करना चाहता था. उसके अपने सैनिकों को एकत्रित किया और इंग्लैंड पर आक्रमण कर दिया. पुनः युद्ध हुआ. लेकिन उस युद्ध में भी उसे पराजय का मुँह देखना पड़ा.

राजा ब्रूस ने १४ बार इंग्लैंड पर आक्रमण किया, किंतु अपना राज्य वापस प्राप्त करने में असमर्थ रहा. १४वें युद्ध में पराजय के बाद उसके सैनिकों और प्रजा का उस पर से विश्वास उठ गया. वह बुरी तरह टूट गया और भागकर एक पहाड़ी पर जाकर बैठ गया.

थका, हताश और उदास वहाँ बैठा वह सोच रहा था कि अब वह कभी अपना राज्य वापस प्राप्त नहीं कर पायेगा. तभी उसकी दृष्टि एक मकड़ी पर पड़ी, जो एक पेड़ के ऊपर जाला बनाने का प्रयास कर रही थी.

वह पेड़ के तने से चढ़कर ऊपर पहुँचती और जाला बनाने का प्रयास करती, लेकिन गिर पड़ती. किंतु वह फिर उठती और फिर पेड़ पर चढ़ने लगती. राजा ब्रूस मकड़ी को ध्यान से देखने लगा. २० बार मकड़ी गिर चुकी थी, कभी पेड़ पर चढ़ते हुए, तो कभी ऊपर जाला बनाते हुए.

वह सोचने लगा कि अब तो मकड़ी ले किये पेड़ के ऊपर जाला बनाना असंभव है. शायद अब वह पेड़ पर चढ़ने का प्रयास छोड़ देगी. किंतु ऐसा नहीं हुआ, मकड़ी पुनः उठी और पेड़ पर चढ़ने लगी. इस बार वह नहीं गिरी और ऊपर पहुँचकर जाले का निर्माण पूर्ण कर लिया.

यह देखकर राजा ब्रूस चिल्ला उठा, “मुझे तो मात्र १४ बार असफलता का सामना करना पड़ा है. अभी तो ७ अवसर शेष है.”

वह उठा और अपने सैनिकों को फिर से एकत्रित किया. उसके आत्मविश्वास को देखकर सैनिकों और प्रजा का भी उस पर विश्वास जागृत हो गया.

इस बार राजा ब्रूस इंग्लैंड से इस तरह लड़ा कि इंग्लैंड को मुँह की खानी पड़ी.

सीख 

मित्रों इस कहानी से हमें सीख मिलती है कि किसी कार्य में एक या दो बार असफल हो जाने पर हमें निराश होकर प्रयास करना नहीं छोड़ देना चाहिए. प्रयास करना छोड़ देना ही वास्तविक असफ़लता है. निरंतर प्रयास से कठिन से कठिन लक्ष्य भी प्राप्त किया जा सकता है. इसलिये हार माने बिना लक्ष्य प्राप्ति के लिए डटे रहें.

राजा का चित्र शिक्षाप्रद कहानी

एक समय की बात है. एक राज्य में राजा राज करता था. उसकी केवल एक आँख थी और एक पैर था. इन कमजोरियों की बाद भी वह एक कुशल, दयालु और बुद्धिमान शासक था. उसके शासन में प्रजा बहुत ख़ुशहाल जीवन व्यतीत कर रही थी.

एक दिन राजा अपने महल के गलियारे से टहल रहा था. सहसा उसकी दृष्टि गलियारे की दीवार पर लगे चित्रों पर पड़ी. वे चित्र उसके पूर्वज के थे. उन चित्रों को देख राजा के मन में विचार आया कि भविष्य में जब उसके उत्तराधिकारी महल के उस गलियारे से टहलेंगे, तो उन चित्रों को देख अपने पूर्वजों का स्मरण करेंगे.

राजा का चित्र अब तक उस दीवार पर नहीं लगा था. अपनी शारीरिक अक्षमताओं के कारण वह नहीं जानता था कि उसका चित्र कैसा दिखेगा? लेकिन उस दिन उसने सोचा कि उसे भी अपना चित्र उस दीवार पर लगवाना चाहिए.

अगले दिन उसने अपने राज्य के श्रेष्ठ चित्रकारों को दरबार में आमंत्रित किया. दरबार में उसने घोषणा की कि वह महल में लगवाने के लिए अपना सुंदर चित्र बनवाना चाहता है. जो उसका सुंदर चित्र बना सकता है, वह चित्रकार आगे आये. चित्र जैसा बनेगा, वैसा ही उस चित्रकार को ईनाम दिया जायेगा.

दरबार में उपस्थित चित्रकार अपनी कला में निपुण थे. लेकिन राजा की घोषणा सुनने के बाद वे सोचने लगे कि राजा तो काना और लंगड़ा है. ऐसे में उसका सुंदर चित्र कैसे बन पायेगा? चित्र सुंदर नहीं दिखा, तो हो सकता है राजा क्रोधित होकर उन्हें सजा दे दे. यह विचार किसी को आगे आने का साहस न दे सका. सब कोई न कोई बहाना बनाकर वहाँ से चले गए.

वहाँ मात्र एक युवा चित्रकार खड़ा रहा. राजा ने उससे पूछा, “क्या तुम मेरा चित्र बनाने को तैयार हो?”

युवा चित्रकार ने हामी भर दी. राजा ने उसे अपना चित्र बनाने की आज्ञा दे दी. अगले ही दिन से वह चित्रकार राजा का चित्र बनाने में जुट गया.

कुछ दिनों बाद चित्र बनकर तैयार था. जब चित्र के अनावरण का दिन आया, तो दरबार में दरबारी सहित वे सभी चित्रकार भी उपस्थित हुए, जिन्होंने राजा का चित्र बनाने से इंकार कर दिया था. सभी उत्सुकता से चित्र के अनावरण की प्रतीक्षा कर रहे थे.

जब चित्र का अनावरण हुआ, तो राजा सहित सबके मुँह खुले के खुले रह गए. चित्र बहुत ही सुंदर बना था. उस चित्र में राजा दोनों तरफ पैर कर घोड़े पर बैठा हुआ था, जिसे एक ओर से चित्रित किया था और उसमें राजा का एक ही पैर नज़र आ रहा था. साथ ही राजा धनुष चढ़ाकर एक आँख बंद कर निशाना साध रहा था, जिससे उसके काने होने की कमजोरी छुप गई थी.

यह चित्र देख राजा बहुत प्रसन्न हुआ. चित्रकार ने अपनी बुद्धिमत्ता से उसकी अक्षमताओं को छुपाकर एक बहुत सुंदर चित्र बनाया था. राजा ने उसे पुरुस्कृत करने के साथ उसे अपने दरबार का मुख्य चित्रकार बना दिया.

सीख 

जीवन में आगे बढ़ना है, तो हमें सदा सकारात्मक सोच रखना चाहिए. विषम परिस्थितियों में भी सकारात्मक दिशा में सोचने से किसी भी समस्या का समाधान आसानी से हो जाता है

 राजा का प्रश्न शिक्षाप्रद कहानी

बहुत समय पहले की बात है. एक राज्य में एक राजा का राज था. वह अक्सर सोचा करता था कि मैं राजा क्यों बना? एक दिन इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने उसने अपने राज्य के बड़े-बड़े ज्योतिषियों को आमंत्रित किया.

ज्योतिषियों के दरबार में उपस्थित होने पर राजा ने यह प्रश्न उनके सामने रखा, “जिस समय मेरा जन्म हुआ, ठीक उसी समय कई अन्य लोगों का भी जन्म हुआ होगा. उन सबमें मैं ही राजा क्यों बना?”

इस प्रश्न का उत्तर दरबार में उपस्थित कोई भी ज्योतिषी नहीं दे सका. एक बूढ़े ज्योतिषी ने राजा को सुझाया कि राज्य के बाहर स्थित वन में रहने वाले एक महात्मा कदाचित उसके प्रश्न का उत्तर दे सकें.

राजा तुरंत उस महात्मा से मिलने वन की ओर निकल पड़ा. जब वह महात्मा के पास पहुँचा, तो देखा कि वो अंगारे खा रहे है. राजा घोर आश्चर्य में पड़ गया. किंतु उस समय राजा की प्राथमिकता अपने प्रश्न का उत्तर प्राप्त करना था. इसलिए उसने इधर-उधर की कोई बात किये बिना अपना प्रश्न महात्मा के सामने रख दिया.

प्रश्न सुन महात्मा ने कहा, “राजन! इस समय मैं भूख से बेहाल हूँ. मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता. कुछ दूरी पर एक पहाड़ी है. उसके ऊपर एक और महात्मा तुम्हें मिलेंगे. वे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे देंगे. तुम उनसे जाकर मिलो.”

राजा बिना समय व्यर्थ किये पहाड़ी पर पहुँचा. वहाँ भी उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही, जब उसने देखा कि वहाँ वह महात्मा चिमटे से नोंच-नोंचकर अपना ही मांस खा रहे हैं.

राजा ने उनके समक्ष वह प्रश्न दोहराया. प्रश्न सुनकर महात्मा बोले, “राजन! मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता. मैं भूख से तड़प रहा हूँ. इस पहाड़ी ने नीचे एक गाँव है. वहाँ ५ वर्ष का एक बालक रहता है. वह कुछ ही देर में मरने वाला है. तुम उसकी मृत्यु पूर्व उससे अपने प्रश्न का उत्तर प्राप्त कर लो.”

राजा गाँव में जाकर उस बालक से मिला. वह बालक मरने की कगार पर था. राजा का प्रश्न सुन वह हंसने लगा. एक मरते हुए बालक को हँसता देख राजा चकित रह गया. किंतु वह शांति से अपने पूछे गए प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा.

बालक बोला, “राजन! पिछले जन्म में मैं, तुम और वो दो महात्मा, जिनसे तुम पहले मिल चुके हो, भाई थे. एक दिन हम सभी भाई भोजन कर रहे थे कि एक साधु हमारे पास आकर भोजन मांगने लगा. सबसे बड़े भाई ने उससे कहा कि तुम्हें भोजन दे दूंगा, तो क्या मैं अंगारे खाऊंगा? और आज वह अंगारे खा रहा है. दूसरे भाई ने कहा कि तुम्हें भोजन दे दूंगा, तो क्या मैं अपना मांस नोचकर खाऊंगा? और आज वह अपना ही मांस नोंचकर खा रहा है. साधु ने जब मुझसे भोजन मांगा, तो मैंने कहा कि तुम्हें भोजन देकर क्या मैं भूखा मरूंगा? और आज मैं मरने की कगार पर हूँ. किंतु तुमने दया दिखाते हुए उस साधु को अपना भोजन दे दिया. उस पुण्य का ही प्रताप है कि इस जन्म में तुम राजा बने.”

इतना कहकर बालक मृत्यु को प्राप्त हो गया. राजा को अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था. वह अपने राज्य की ओर चल पड़ा.

सीख

अच्छे कर्म का अच्छा फल मिलता है. इसलिए सदा सद्कर्म करो और जहाँ तक संभव हो, दूसरों की सहायता करो.        

 राजा और वृद्ध शिक्षाप्रद कहानी

ठण्ड का मौसम था. शीतलहर पूरे राज्य में बह रही थी. कड़ाके की ठण्ड में भी उस दिन राजा सदा की तरह अपनी प्रजा का हाल जानने भ्रमण पर निकला था.  

महल वापस आने पर उसने देखा कि महल के मुख्य द्वार के पास एक वृद्ध बैठा हुआ है. पतली धोती और कुर्ता पहने वह वृद्ध ठण्ड से कांप रहा था. कड़ाके की ठण्ड में उस वृद्ध को बिना गर्म कपड़ों के देख राजा चकित रह गया.

उसके पास जाकर राजा ने पूछा, “क्या तुम्हें ठण्ड नहीं लग रही?”

“लग रही है. पर क्या करूं? मेरे पास गर्म कपड़े नहीं है. इतने वर्षों से कड़कड़ाती ठण्ड मैं यूं ही बिना गर्म कपड़ों के गुज़ार रहा हूँ. भगवान मुझे इतनी शक्ति दे देता है कि मैं ऐसी ठण्ड सह सकूं और उसमें जी सकूं.” वृद्ध ने उत्तर दिया.

राजा को वृद्ध पर दया आ गई. उसने उससे कहा, “तुम यहीं रुको. मैं अंदर जाकर तुम्हारे लिए गर्म कपड़े भिजवाता हूँ.”

वृद्ध प्रसन्न हो गया. उसने राजा को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया.

वृद्ध को आश्वासन देकर राजा महल के भीतर चला गया. किंतु महल के भीतर जाकर वह अन्य कार्यों में व्यस्त हो गया और वृद्ध के लिए गर्म कपड़े भिजवाना भूल गया.

अगली सुबह एक सिपाही ने आकर राजा को सूचना दी कि महल के बाहर एक वृद्ध मृत पड़ा है. उसके मृत शरीर के पास ज़मीन पर एक संदेश लिखा हुआ है, जो वृद्ध ने अपनी मृत्यु के पूर्व लिखा था.

संदेश यह था : “इतने वर्षों से मैं पतली धोता-कुर्ता पहने ही कड़ाके की ठण्ड सहते हुए जी रहा था. किंतु कल रात गर्म वस्त्र देने के तुम्हारे वचन ने मेरी जान ले ली.”

सीख

दूसरों से की गई अपेक्षायें अक्सर हमें उन पर निर्भर बना देती है, जो कहीं न कहीं हमारी दुर्बलता का कारण बनती है. इसलिए, अपनी अपेक्षाओं के लिए दूसरों पर निर्भर रहने के स्थान पर स्वयं को सबल बनाने का प्रयास करना चाहिए.

राजा की चिंता शिक्षाप्रद कहानी

प्राचीन समय की बात है. एक राज्य में एक राजा राज करता था. उसका राज्य ख़ुशहाल था. धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी. राजा और प्रजा ख़ुशी-ख़ुशी अपना जीवन-यापन कर रहे थे.

एक वर्ष उस राज्य में भयंकर अकाल पड़ा. पानी की कमी से फ़सलें सूख गई. ऐसी स्थिति में किसान राजा को लगान नहीं दे पाए. लगान प्राप्त न होने के कारण राजस्व में कमी आ गई और राजकोष खाली होने लगा. यह देख राजा चिंता में पड़ गया. हर समय वह सोचता रहता कि राज्य का खर्च कैसे चलेगा?

अकाल का समय निकल गया. स्थिति सामान्य हो गई. किंतु राजा के मन में चिंता घर कर गई. हर समय उसके दिमाग में यही रहता कि राज्य में पुनः अकाल पड़ गया, तो क्या होगा? इसके अतिरिक्त भी अन्य चिंतायें उसे घेरने लगी. पड़ोसी राज्य का भय, मंत्रियों का षड़यंत्र जैसी कई चिंताओं ने उसकी भूख-प्यास और रातों की नींद छीन ली.

वह अपनी इस हालत से परेशान था. किंतु जब भी वह राजमहल के माली को देखता, तो आश्चर्य में पड़ जाता. दिन भर मेहनत करने के बाद वह रूखी-सूखी रोटी भी छक्कर खाता और पेड़ के नीचे मज़े से सोता. कई बार राजा को उससे जलन होने लगती.

एक दिन उसके राजदरबार में एक सिद्ध साधु पधारे. राजा ने अपनी समस्या साधु को बताई और उसे दूर करने सुझाव मांगा.

साधु राजा की समस्या अच्छी तरह समझ गए थे. वे बोले, “राजन! तुम्हारी चिंता की जड़ राज-पाट है. अपना राज-पाट पुत्र को देकर चिंता मुक्त हो जाओ.”

इस पर राजा बोला, ”गुरुवर! मेरा पुत्र मात्र पांच वर्ष का है. वह अबोध बालक राज-पाट कैसे संभालेगा?”

“तो फिर ऐसा करो कि अपनी चिंता का भार तुम मुझे सौंप दो.” साधु बोले.

राजा तैयार हो गया और उसने अपना राज-पाट साधु को सौंप दिया. इसके बाद साधु ने पूछा, “अब तुम क्या करोगे?”

राजा बोला, “सोचता हूँ कि अब कोई व्यवसाय कर लूं.”

“लेकिन उसके लिए धन की व्यवस्था कैसे करोगे? अब तो राज-पाट मेरा है. राजकोष के धन पर भी मेरा अधिकार है.”

“तो मैं कोई नौकरी कर लूंगा.” राजा ने उत्तर दिया.

“ये ठीक है. लेकिन यदि तुम्हें नौकरी ही करनी है, तो कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं. यहीं नौकरी कर लो. मैं तो साधु हूँ. मैं अपनी कुटिया में ही रहूंगा. राजमहल में ही रहकर मेरी ओर से तुम ये राज-पाट संभालना.”

राजा ने साधु की बात मान ली और साधु की नौकरी करते हुए राजपाट संभालने लगा. साधु अपनी कुटिया में चले गए.

कुछ दिन बाद साधु पुनः राजमहल आये और राजा से भेंट कर पूछा, “कहो राजन! अब तुम्हें भूख लगती है या नहीं और तुम्हारी नींद का क्या हाल है?”

“गुरुवर! अब तो मैं खूब खाता हूँ और गहरी नींद सोता हूँ. पहले भी मैं राजपाट का कार्य करता था, अब भी करता हूँ. फिर ये परिवर्तन कैसे? ये मेरी समझ के बाहर है.” राजा ने अपनी स्थिति बताते हुए प्रश्न भी पूछ लिया.

साधु मुस्कुराते हुए बोले, “राजन! पहले तुमने काम को बोझ बना लिया था और उस बोझ को हर समय अपने मानस-पटल पर ढोया करते थे. किंतु राजपाट मुझे सौंपने के उपरांत तुम समस्त कार्य अपना कर्तव्य समझकर करते हो. इसलिए चिंतामुक्त हो.”

सीख

जीवन में जो भी कार्य करें, अपना कर्त्तव्य समझकर करें. न कि बोझ समझकर. यही चिंता से दूर रहने का तरीका है.

राजा की तीन सीखें कहानी 

बहुत समय एक राज्य में एक प्रतापी राजा हुआ करता था. उसके तीन पुत्र थे. अपने पुत्रों को सुयोग्य बनाने के लिए उसने उनकी शिक्षा-दीक्षा की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था की और उन्हें हर विधा में पारंगत बनाया. वह चाहता था कि उसके पुत्र इस लायक बनें कि भविष्य में राज्य की बागडोर सुचारू रूप से संभाल सकें.

जब वह वृद्ध हो चला, तो एक दिन उसने अपने सभी पुत्रों को अपने पास बुलवाया. उसने अपने पुत्रों से कहा, “पुत्र! हमारे राज्य में नाशपाती का एक भी वृक्ष नहीं है. मेरी इच्छा है कि तुम लोग इस वृक्ष की खोज में जाओ और मुझे वापस आकर बताओ कि वह कैसा होता है? किंतु तुम सब अलग-अलग और चार-चार माह के अंतराल के इस खोज में जाओगे और सब साथ में आकर ही मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर देना.”

“जो आज्ञा पिताश्री.”  तीनों पुत्र एक स्वर में बोले.

ज्येष्ठ पुत्र सबसे पहले गया. उसके उपरांत मंझला. कनिष्ठ पुत्र अंत में गया. जब सभी पिता के कहे वृक्ष की खोज कर वापस लौट आये, तब एक साथ राजा के पास पहुँचे.

राजा उनसे बोले, “पुत्र! बारी-बारी से बताओ कि वह वृक्ष कैसा होता है?”

ज्येष्ठ पुत्र बोला, “पिताश्री, वह वृक्ष अजीब हैं. उसमें न कोई पत्तियाँ हैं न ही फल. वह तो एक सूखा वृक्ष है.”

“नहीं..नहीं…वह वृक्ष तो हरा-भरा वृक्ष है. कदाचित उस पर फल नहीं लगते थे. यह एक बड़ी कमी है उस वृक्ष में.” मंझला पुत्र बोला.

इतने में कनिष्ठ पुत्र बोल पड़ा, “पिताश्री प्रतीत होता है कि दोनों भ्राता किसी अन्य वृक्ष को देखकर आ गए हैं. नाशपाती का वृक्ष तो हरा-भरा और फलों से लदा होता है. मैं अपनी आँखों से देखकर आ रहा हूँ.”

तीनों पुत्र अपनी-अपनी बात पर अड़ गए और विवाद करने लगे.

उनके विवाद को शांत करने राजा बोला, “पुत्रों, विवाद मत करो. जो तुमने अपनी आँखों से देखा है, उसे ही सत्य मानो. तुमने जो देखा है, वास्तव में वही सत्य है. तुम तीनों नाशपाती का ही वृक्ष देखकर आये हो और जो वर्णन तुम कर रहे हो, वह उसी वृक्ष का है. तुम्हारे वर्णन में अंतर इसलिए है कि तुमने वह वृक्ष अलग-अलग मौसम में देखा है.”

राजा की बात सुनकर तीनों पुत्र एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे. राजा आगे कहने लगा, “पुत्रों मैंने जानबूझकर तुम तीनों को अलग-अलग मौसम में भेजा था. ऐसा मैंने तुम्हें जीवन की एक गहरी सीख देने के लिए किया था. अब मैं तुम्हें जो कहने जा रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनो और सदा स्मरण रखो.”

इसके बाद राजा ने अपने पुत्रों को तीन बातें बताई :

  • किसी भी चीज़ के क्षणिक अवलोकन से उसके बारे में संपूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं होती. किसी भी वस्तु, व्यक्ति और विषय के बारे में सही, सटीक और पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए उसका लंबे समय तक अवलोकन और परख आवश्यक है. इसलिए किसी के भी बारे में तत्काल राय मत बनाओ.
  • मौसम सदा एक सा नहीं रहता. मौसम का प्रभाव जैसे नाशपाती के वृक्ष पर पड़ा था और वह कभी सूखा, कभी हरा-भरा दिखाई पड़ा. उसी प्रकार जीवन के उतार-चढ़ाव के कारण मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख, सफ़लता-असफ़लता का दौर आता है. ऐसे दौर में हिम्मत मत हारो. धैर्य से उनका सामना करो. मौसम की तरह बुरा समय भी चला जायेगा और सुख का समय अवश्य आएगा.
  • किसी भी विषय में दूसरे का मत अच्छी तरह जाने बिना अनावश्यक विवाद में मत पड़ो. दूसरे का पक्ष भी सुनो और उसके विचारों और दृष्टिकोण को जानो. इससे तुम्हरा ज्ञान वर्धन होगा और दृष्टिकोण व्यापक होगा. जब भी विवाद की स्थित निर्मित हो, किसी ज्ञानी और बुद्धिमान व्यक्ति से परामर्श लेकर अपना विवाद सुलझा लो.

राजा की सीख तीनों पुत्रों ने गांठ बांध ली और प्रण किया कि जीवन में सदा इन बातों पर अनुसरण करेंगे.

साधु और राजा की कहानी

बहुत समय पहले की बात है। एक राज्य में एक दयालु राजा राज्य करता था। वह प्रजा का हितैषी था। प्रजा का हित उसके लिए सर्वोपरि था। वह हमेशा इस प्रयास में रहता कि उसकी प्रजा को कोई समस्या कोई परेशानी न हो। सभी सुख चैन का जीवन बसर करें। उसके शासन में प्रजा प्रसन्नता और सुख से जीवन व्यतीत कर रही थी।

राजा प्रायः वेष बदलकर राज्य भ्रमण पर निकलता और प्रजा की स्थिति के बारे में पता करता। यदि उसे पता चलता कि प्रजा किसी प्रकार के कष्ट में है, तो वह उन कष्टों को दूर करने का प्रयास करता। 

एक बार वह इसी प्रकार वेष बदलकर राज्य भ्रमण पर निकला। भ्रमण करते करते वह एक जंगल से गुजरा और रास्ता भटक गया। उसके सैनिक पीछे छूट गए और वह अकेला रह गया। रास्ता ढूंढता हुआ वह एक स्थान पर पहुंचा। उसने देखा कि वहां एक कुटिया बनी हुई है। राजा को भूख लग आई थी। उसने सोचा, यहां अवश्य भोजन की व्यवस्था हो जायेगी। उसने अपने घोड़े को एक पेड़ से बांधा और कुटिया में प्रवेश किया।

वह एक साधु की कुटिया थी। गेरूए वस्त्र धारण किए एक साधु पेड़ के नीचे आसन लगाकर बैठे थे। उनकी आंखें बंद थी और वे ध्यान में लीन थे। राजा ने देखा कि उस स्थान का वातावरण बहुत ही सुंदर है। पेड़ पौधे हरे भरे हैं, जिनमें फूल और फल लदे हुए हैं। पंछी उन्मुक्त होकर विचरण कर रहे हैं। राजा ये देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह साधु के पास गया और उन्हें प्रणाम कर उसके सामने घुटनों के बल बैठ गया। साधु ने आहट पाकर आंखें खोली और अपने सामने एक नौजवान को पाया। उसके मुख का तेज देखकर ही साधु समझ गए कि वह कोई राजसी व्यक्ति है।

राजा ने उन्हें बताया कि वह रास्ता भटक गया है। साधु ने उसे अपने आश्रम में शरण दी। खाने के लिए मीठे फल दिए। राजा ने कभी उतने मीठे फल नहीं खाए थे। उसके चकित होकर पूछा, “गुरुवर! आज तक मैंने इतने मीठे और स्वादिष्ट फल नहीं खाए। इनके इतने मीठे होने का कारण क्या है?”

साधु ने कहा, “इस राज्य का राजा अत्यंत दयालु और न्यायप्रिय है। इसलिए ये फल इतने मीठे हैं। जब तक वह अपनी प्रजा का हितैषी रहेगा, दिन दुखियों का सहायक रहेगा, ये फल ऐसे ही मीठे रहेंगे।”

राजा को ये सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसके लिए इन बातों पर विश्वास करना कठिन था। जब साधु से आज्ञा लेकर वह लौटा, तो उसने निश्चय किया कि वह इस बात का परीक्षण अवश्य करेगा। उसे अपने सैनिक मिल गए, जो जंगल में उसे ढूंढ रहे थे। वह अपने राज्य वापस लौट गया।

वापस लौटने के बाद उसमें प्रजा पर जुल्म ढाने शुरू कर दिए। उसने किसानों का लगान बढ़ा दिया और प्रजा पर ना ना प्रकार के कर लगा दिए। अब वह अपना धन भोग विलास में खर्च करने लगा और प्रजा की ओर से उदासीन हो गया। प्रजा पर अत्याचार बढ़ने लगे, तो पूरे राज्य में त्राहि त्राहि मच गई।

कुछ दिनों बाद राजा फिर जंगल में उसी साधु की कुटिया में पहुंचा। इस बार उसने देखा कि वहां का वातावरण भिन्न हैं। पेड़ पौधे सूख चुके हैं, फूल मुरझा गए हैं, फल सड़ चुके हैं। ये देखकर वह चकित रह गया। वह साधु के पास गया और उसे प्रणाम किया। साधु ने उसे खाने के लिए फल दिए। इस बार फलों का स्वाद कड़वा था। राजा ने साधु से इसका कारण पूछा।

साधु ने कहा, “इस राज्य का राजा बाद पहले जैसा नहीं रहा। उसे प्रजा के हित का कोई खयाल नहीं है। वह प्रजा पर अत्याचार करने लगा है। उसके प्रति प्रजा के मन में कड़वाहट बस गई है। इसलिए इन फलों का स्वाद कड़वा है।”

राजा साधु की कुटिया से अपने राज्य लौट आया। उसे साधु की बात समझ आ गई थी। अगले दिन से वह फिर से अपनी प्रजा का ध्यान रखने लगा। उसके बदलते ही फिर से प्रकृति ने अपना रंग बदला और हरी भरी हो गई। 

सीख

जैसा कर्म करोगे, वैसा ही फल मिलेगा। यदि अच्छे कर्म करोगे, तो अच्छा फल मिलेगा। बुरे कर्म करोगे, तो बुरा। यदि हम किसी को कड़वाहट देंगे, तो बदले में हमारे जीवन में भी कड़वाहट घुल जायेगी। इसलिए हमेशा सबका भला करें।

 राजा और मूर्ख बंदर की कहानी

बहुत समय पहले की बात है. एक राज्य में एक राजा का राज था. एक दिन उसके दरबार में एक मदारी एक बंदर लेकर आया. उसने राजा और सभी दरबारियों को बंदर का करतब दिखाकर प्रसन्न कर दिया. बंदर मदारी का हर हुक्म मनाता था. जैसा मदारी बोलता, बंदर वैसा ही करता था.

वह आज्ञाकारी बंदर राजा को भा गया. उसने अच्छी कीमत देकर मदारी से वह बंदर ख़रीद लिया. कुछ दिन राजा के साथ रहने के बाद बंदर उससे अच्छी तरह हिल-मिल गया. वह राजा की हर बात मानता. वह राजा के कक्ष में ही रहता और उसकी सेवा करता था. राजा भी बंदर की स्वामिभक्ति देख बड़ा ख़ुश था.

वह अपनी सैनिकों और संतरियों से भी अधिक बंदर पर विश्वास करने लगा और उसे महत्व देने लगा. सैनिकों को यह बात बुरी लगती थी, किंतु वे राजा के समक्ष कुछ कह नहीं पाते थे.

एक दोपहर की बात है. राजा अपने शयनकक्ष में आराम कर रहा था. बंदर पास ही खड़ा पंखा झल रहा था. कुछ देर में राजा गहरी नींद में सो गया. बंदर वहीं खड़े-खड़े पंखा झलता रहा.

तभी कहीं से एक मक्खी आई और राजा की छाती पर बैठ गई. बंदर की दृष्टि जब मक्खी पर पड़ी, तो उसने पंखा हिलाकर उसे हटाने का प्रयास किया. मक्खी उड़ गई. किंतु कुछ देर पश्चात पुनः वापस आकर राजा की छाती पर बैठ गई.

पुनः मक्खी को आया देख बंदर अत्यंत क्रोधित हो गया. उसने आव देखा न ताव और पास ही पड़ी राजा की तलवार उठाकर पूरी शक्ति से मक्खी पर प्रहार कर दिया. मक्खी तो उड़ गई. किंतु तलवार के जोरदार प्रहार से राजा की छाती दो टुकड़े हो गई और राजा के प्राण-पखेरू उड़ गए.

सीख 

मूर्ख मित्र से अधिक बुद्धिमान शत्रु को तरजीह दी जानी चाहिए.

स्त्री भक्त राजा की कहानी

समुद्र किनारे स्थित एक राज्य में नंद नामक एक पराक्रमी और प्रतापी राजा राज करता था. उसके वीरता के चर्चे दूर-दूर तक फैले हुए थे. आस-पास के राज्य के समस्त राजा उसकी वीरता का गुणगान किया करते थे.

राजा का वररूचि नामक एक मंत्री था. वह शास्त्रों में पारंगत और अति विद्वान था. उसकी वाक्पटुता का सब लोहा मानते थे.

वररुचि की पत्नी स्वभाव की उग्र थी. वह बात-बात पर वररूचि से रूठ जाती थी और तब तक नहीं मानती थी, जब तक वररुचि उसे उसके कहे अनुसार नहीं मनाता था.

एक दिन वह पुनः वररुचि से रूठ गई. वररुचि ने उसे मनाने का बहुत प्रयत्न किया, किंतु वह नहीं मानी. अंततः वह बोला, “प्रिये! कब तक रूठी रहोगी. मान जाओ. तुम जैसा कहोगी, मैं वैसा ही करूंगा.”

पत्नी बोली, “मैं चाहती हूँ कि तुम सिर मुंडाकर मेरे पैरों में गिरकर क्षमा याचना करो. ऐसा करोगे, तभी मेरा तुम्हारे प्रति क्रोध समाप्त होगा.”

वररुचि ने पत्नी के कहे अनुसार ही किया और वह मान गई.

उसी दिन राजा नंद की पत्नी भी उनसे रूठ गई. राजा ने भी उसे मनाने का बहुत प्रयत्न किया, किंतु उसकी अप्रसन्नता समाप्त नहीं हुई.

तब राजा नंद बोले, “प्रिये, क्यों अप्रसन्न होकर रुष्ठ हो? जानती नहीं कि तुम्हारी अप्रसन्नता देख मेरा ह्रदय व्याकुल हो जाता है. तुम्हारी प्रसन्नता के लिए मैं कुछ भी करूंगा. तुम आदेश दो.”

नंद की पत्नी बोली, “मैं चाहती हूँ कि मैं तुम्हारे मुख में लगाम डालकर तुझ पर सवारी करूं और तुम घोड़े की तरह हिनहिनाते हुए दौड़ लगाओ. ऐसा करोगे, तभी मैं प्रसन्न होऊंगी.”

राजा नंद ने पत्नी के कहे अनुसार ही किया और वह मान गई.

अगले दिन प्रातः जब वररुचि राजदरबार में आया, तो उसका सिर मुंडा हुआ था. राजा नंद को वररुचि के घर की स्थिति ज्ञात थी. वे समझ गए कि पत्नी को मनाने के प्रयास का यह परिणाम है.

वे उसका मखौल उड़ाते हुए बोले, “मंत्री, किस पुण्यकाल में तूने अपना सिर मुंडवाया है?”

वररूचि वाक्पटु तो था ही और राजा की स्थिति से भी भली-भांति अपरिचित थी. अविलंब उसने उत्तर दिया, “राजन, मैंने उस पुण्य-काल में सिर मुंडवाया है, जिस पुण्य-काल में पुरुष मुख में लगाम डालकर हिनहिनाते हुए दौड़ते हैं.”

यह सुनकर राजा नंद बहुत लज्जित हुए. उस दिन उन्होंने प्रण किया कि भविष्य में कभी वररुचि का मखौल उड़ाने का प्रयास नहीं करेंगे.

सीख   

कभी किसी का मखौल नहीं उड़ाना चाहिए.

राजा और फ़कीर की कहानी

एक राजा और गूंगे फकीर में गहरी मित्रता थी। राजा फकीर से अपने दिल की हर बात कहता और फकीर मुस्कुराते हुए सुनता। 

राजा को उसका साथ इतना भाने लगा कि उसने उसकी रहने की व्यवस्था अपने महल में करवा दी थी। फकीर राजा के साथ महल में रहने लगा। समय गुजरता गया और राजा का उसके प्रति प्रेम बढ़ता गया।

एक दिन राजा अपने काफ़िले के साथ राज्य भ्रमण पर निकला। फकीर भी उसके साथ था। शाम को वे राज्य के अंतिम छोर तक के गांवों की स्थिति जानकर वापस लौट रहे थे। रास्ते में घना जंगल पड़ा। राजा का काफिला रास्ता भटक गया। 

राजा ने अपने सारे सैनिकों को रास्ता ढूंढने के लिए चारों दिशाओं में भेज दिया और खुद फकीर के साथ एक पेड़ के नीचे सुस्ताने लगा। उसी पेड़ पर एक फल लगा हुआ था। राजा और फकीर दोनों भूखे थे। राजा ने पेड़ पर चढ़कर फल तोड़ लिया और उसके छः टुकड़े कर दिए – तीन अपने लिए तीन फकीर के लिए।

अपनी आदत के अनुसार उसने पहला टुकड़ा फकीर को दिया। फकीर फल खाकर मुस्कुराया और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। राजा ने दूसरा टुकड़ा भी फकीर को दिया। फकीर फल खाकर मुस्कुराया और फिर से अपना हाथ आगे कर दिया। राजा ने उसे तीसरा टुकड़ा भी दे दिया। एक एक करके फकीर पांच टुकड़े खा गया और छटवे के लिए भी हाथ आगे बढ़ा दिया। 

ये देख राजा को बड़ा क्रोध आया। वह बोला, “ये मेरा तुम्हारे प्रति प्रेम है कि मैं तुम्हें अपने महल में अपने साथ रखता हूं। हर सुख सुविधा तुम्हें मुहैया करवाता हूं। पर आज मुझे पता चल गया कि तुम्हारे दिल में मेरे लिए ज़रा भी प्रेम नहीं है। भूखा मैं भी हूं। किंतु तुम इतने स्वार्थी हो कि सारा फल खुद खा जाना चाहते हो। तुम्हारी असलियत मैं जान गया। आज से हमारी दोस्ती खत्म। अभी इसी वक्त मेरी नज़रों से दूर चले जाओ।”

फकीर चला गया। फकीर के जाने के बाद राजा फल का आखिरी टुकड़ा खाने लगा। लेकिन फल को चबाते ही उसने फल थूक दिया। फल इतना कड़वा था कि उसे खाया ही नहीं जा सकता था। राजा को समझ आ गया कि फकीर क्यों सारे टुकड़े मांग कर खा जाना चाहता था और यह भी कि उसका प्रेम कितना गहरा था।

राजा की दी हर चीज वह खुशी खुशी स्वीकार करता था और सदा मुस्कुराते रहता था। इसलिए जब राजा ने उसे फल दिया, तो वह भी स्वीकार किया और कड़वा होने के बावजूद मुस्कुराते हुए खा गया। वह सारे टुकड़े इसलिए मांगकर खा जाना चाहता था, ताकि राजा को इस बात का पता न चल सके कि वह साधु को कड़वा फल खिला रहा है। जब राजा के दिए मीठे फल उसने खुशी खुशी खाए थे, तो कड़वा क्यों न खाता।

ये बात समझ में आने पर राजा पछताने लगा। मगर अब देर हो चुकी थी। अपने संदेह के कारण वह अपना परम मित्र को चुका था।

सीख

दोस्तों, सच्चा दोस्त कभी आपका बुरा नहीं चाहेगा। वह आपको रोकेगा भी तो आपके भले के लिए। सच्ची दोस्ती हमेशा सहेजकर रखें। दोस्ती के फल में संदेह का कीड़ा लग जाए, तो उसे खराब होते देर नहीं लगती। इसलिए जब भी दोस्ती करें, भरोसे की नींव पर करें।

 राजा और फांसी की सजा

एक बार की बात है. यूनान के सम्राट किसी बात पर अपने वज़ीर से नाराज़ हो गये. नाराज़गी में उन्होंने वजीर के लिए फांसी की सजा का एलान कर दिया. फांसी का समय शाम के ६ बजे मुकर्रर किया गया.

फांसी की सजा दिए जाते समय वज़ीर दरबार में उपस्थित नहीं था. सम्राट ने सैनिकों को आदेश दिया, “जाओ, जाकर वज़ीर को बता दो कि शाम को ठीक ६ बजे उसे फांसी पर लटका दिया जायेगा.”

सम्राट का आदेश मान सैनिक की एक टुकड़ी वज़ीर के घर पहुँची. उसके घर को चारों ओर से घेर लिया गया. कुछ सैनिक घर के अंदर गए. अंदर जाने पर उन्होंने देखा कि वहाँ तो जश्न का माहौल है. उस दिन वज़ीर का जन्मदिन था. उसके घर पर रिश्तेदारों और दोस्तों की चहल-पहल थी. संगीत बज रहा है. नाच-गाना चल रहा था. पूरे घर में पकवान की ख़ुशबू फ़ैल रही थी. कुल मिलाकर वहाँ का माहौल बड़ा ख़ुशनुमा था.

सैनिकों ने भरी महफ़िल में एलान कर वज़ीर को फांसी की सजा के बारे में बताया. यह भी बताया कि फांसी शाम ६ बजे दी जाएगी. यह एलान सुनकर वहाँ मौजूद हर शख्स हैरान रह गया. फ़ौरन संगीत और नाच-गाना बंद कर दिया गया. रिश्तेदार, दोस्त और परिवारजन उदास हो गए.

तभी कमरे में छाई ख़ामोशी में वज़ीर की आवाज़ गूंजी, “ऊपर वाले का लाख-लाख  शुक्रिया कि उसने फांसी के लिए शाम ६ बजे तक का वक़्त दे दिया. तब तक हम सब जश्न मना सकते हैं.”

वज़ीर की बात सुनकर दोस्तों, रिश्तेदारों और परिवारज़नों ने कहा, “कैसी बात कर रहे हो? फांसी की सजा सुनाई गई है तुम्हें और तुम जश्न मनाना चाहते हो.”  

वजीर ने किसी तरह सबको समझाया और जश्न फिर से शुरू करवाया. दोस्त उदास थे. लेकिन वज़ीर की ख़ुशी के लिए जश्न में शामिल हो गए.

यह ख़बर सैनिकों द्वारा सम्राट तक पहुँचाई गई. सम्राट पूरा माज़रा जानने वज़ीर के घर पहुँच गया. वहाँ पहुँचकर जब उसने सबको जश्न मानते हुए देखा, तो वह भी दंग रह गया. उसने वज़ीर से कहा, “तुम पागल हो गये हो क्या? शाम ६ बजे तुम्हें फांसी पर लटका दिया जायेगा और तुम जश्न मना रहे हो.“

वज़ीर बड़े ही अदब से बोला, “हुज़ूर! आपका बहुत-बहुत शुक्रिया कि आपने फांसी का वक़्त शाम ६ बजे मुकर्रर किया. इस तरह मुझे शाम ६ बजे तक का वक़्त मिल सका. यदि आप मुझे ये वक़्त न देते, तो मैं अपने परिवार, दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ जश्न कैसे मना पाता? फांसी पर लटकने के पहले मेरे पास शाम तक का वक़्त है. ये मैं क्यों ज़ाया करूं? मेरे पास जितना भी वक़्त है, उसे मैं ख़ुशी-ख़ुशी गुज़ारना चाहता हूँ.”

ये बात सुनकर राजा ने वज़ीर को गले लगा लिया और कहा, “जिस इंसान को वक़्त की कदर है. जो ज़िंदगी का हर लम्हा ख़ुशी-ख़ुशी गुजारना चाहता है. उसे मौत कैसे दी जा सकती हैं? उसे जीने का पूरा हक है. तुम्हारी बातों ने हमारा दिल ख़ुश कर दिया. तुम्हारी फांसी की सजा माफ़ की जाती है.”

सीख 

ज़िंदगी ख़ूबसूरत है. इसका हर लम्हा ख़ुशी के साथ गुजारें. ये ज़रूर है कि ज़िंदगी में कई बार मुश्किलों भरा वक़्त सामने आ खड़ा होता है और हम परेशान हो जाते हैं. ऐसे में हम ज़िंदगी जीना ही छोड़ देते हैं. मुश्किलों से हारे नहीं, उसका सामना करें और ख़ुशी के साथ करें. जो भी समय आपके पास है, उसका पूरा सदुपयोग करें. ये ज़िंदगी बार-बार नहीं मिलने वाली. इसे खुलकर जियें.

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